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________________ | २. चोर--माता जी, क्या बताऊं ! मैं एक चोर हूँ नामी, कभी देखी नहीं ना कामी । विद्य तचोर मेरा नाम है, चोरी करना मेरा काम है। धन की चाह से यहां आया, पर अभाग्यवश अवसर न पाया । इसीलिये निराश हो पीछे क़दम हटाया। । जिनमती (बड़ी उदासी से )--अरे ! यह बहुतेरी पड़ी है माया, इसे मत जाल, __ माल पराया । जितनो उठाया जाय उठा ले, मन खूब ही रिझाले, ले जाकर चैन उड़ा ले। चोर-माता जी ! तुम क्यों मुझे बनाती हो, मुझे क्यों शरमाती हो। जिनमती-नहीं नहीं बेटा ! मुझे यह धन दौलत और मालमता अच्छो नहीं लगता। मेरे सब कुछ पास है, पर मन इस से उदास है। चोर (अचम्भे से )-क्यों, आपका मन क्यों इतना हिरास है। में भी बहुत देर से खड़ा देख रहा हूँ कि आपका दिल सचमुच हैरान परेशान और बदहवास हैं।......... ३. जम्बूकुमार-मान्यवर मामा जी, आप भूलते हैं । जरा विचार कर तौ देखिये कि यह सर्व सांसारिक विभव और मन लुभावने भोग विलास के दिन के सुहाग हैं। शानियों की दृष्टि में तो यह सचमुच काले नाग हैं । दुनिया की यह सुखसम्पत्ति, यह मनोहर रागरंग, यह अटूट धनसम्पदा, यह जवानी की उमंगे, यह · देवांगनाओं की समान स्त्रियों के भोगविलास, यह सारा कुटम्ब परिवार केवल दो चार दिन की | बहार है । बिजुली का सा चमत्कार है । वास्तव में सब असार बल्कि दुखों का भण्डार। है। स्वपने को सी माया है, जिसने इसमें मन लगाया है, दिल उलझाया है उसने कभी चैन न पाया है। उल्टा धोखा ही खाया और पीछे पछताया है। विद्यतचोर-कुंवरजी ! तुमने जो कुछ बताया वह वास्तव में ठीक समझाया है। पर यह तो बताओ कि इसके त्याग में भी किसी ने कब सुख उठाया है ?...... (ख) भोजपबंध नाटक से-- (१) बस यही इक्कास उमूर हैं जिन पर अमल करना शाहानेगेती को पुरज़रूर है । यही | . रुमूज़े सल्तनत की जान हैं, यही जिबेतौकोरोशान हैं, और यही वसीलए आरामो आसायशेहरदोजहान हैं...... (२) पंज-वत्सराज, उस काम का बस तुम ही पर सारा दारोमदार है। वत्सराज-महाराज, इस खादिम के लायक जो काम हो उससे इसे क्या इन्कार है । खादिम तो आपका हर दम ताबेदार व फ़र्माबरदार है। मन-हां बेशक, मैं जानता हूं कि तू ही मेरा मुहिब्बेगमगुसार है । तू ही हर रंजो-। राहत में मेरा शरोक व राणादार है। वत्सराज-हां हां, जो काम इस नियाज़मन्द के लायक हो बिलाताम्मुल इरशाद फरमाइये । यह खादिम तो हरदम आपका साथी व मददगार है।...... (३) मुन--क्यों क्या सोच विचार है ? वत्सराज-महाराज, भोज ऐसा क्या खतावार है? comi . n saneleon Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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