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________________ puch.MPAN अघातियाकर्म वृहत् जैन शब्दार्णव अघातियाकर्म नुभव पश्चात जीभ कट जाने से अधिक प्रशस्तप्रकृतियां-(१) आयुकर्म की दुःखानुभव होता है और मधरहित स्थल | नरकायु छोड़ कर शेष............ ३ पर जीभ जा लगने से प्रथम ही दुःखाट- । (२) नामकर्म की मनुष्यगति, मनुष्यभव ही होता है। इस कर्मप्रकृति के (१) गत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, सातावदनीय और (२) असातावेदनीय पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर आदि ५, यह दो भेद हैं। बम्धन ५, संघात ५, आंगोपांग ३, समइस कर्म की जघन्यस्थिति १२ मुहूर्त चतुरस्रसंस्थान, ववृषभनाराच संहनन, और उत्कष्टस्थिति ३० कोडाकोड़ी साग- प्रशस्तविहायोगति, अगुरुलघु, परघात, रोपमकाल प्रमाण है ॥ आतप, उद्योत, उच्छ्वास, निर्माण, प्रस, विशेष-असाता वेदनीयको उत्कृष्ट | स्थूल, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, स्थिति ३० कोडाकोड़ी सागरोपमकाल सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, तीर्थक और सातावदनीम की १५ कोडाकोडी | रत्व........... .............."४३ सागरोपमकाल केवल मिथ्यादृष्टि जीव ही (३) गोत्रकर्म की उच्चगोत्र........ १ चारों गतियों में अजघन्य संक्लेश (कषाय- (४) वेदनीयकर्मकी सातावेदनीय १ युक्त ) परिणामों से बांधते हैं। साता- | इस प्रकार सर्व................ ४८ वेदनीय की जघन्यस्थिति १२ मुहर्त की उभयपकृतियां-नामकर्म की स्पर्श ८, १०चे सुक्ष्मसारप्राय गुणस्थान वाला | रस ५, गन्ध २, वर्ण ५, एवं सर्व २० । मनुष्य ही बांयता है । प्रकृतियाँ................................... २० नोट ७-अघातियाकर्म की उपर्युक्त | अप्रशस्तप्रकृतियां-शेष ३३ .........३३ मूलप्रकृत्तियाँ ४ हैं और उत्तरप्रकृतियाँ जो १०१ या १११ हैं वह सत्ता की अपेक्षा से हैं। (उभयप्रकृति २० शुभ भी हैं और बन्ध और उदय की अपेक्षा से नामकर्म की अशुभ भी अतः दोनों ओर जोड़ लेने से उपर्युक ६७ और शेष तीन की ८, एवं सर्व प्रशस्तप्रकृतियाँ सर्व ६८ और अप्रशस्त७५ ही हैं। प्रकृतियाँ सर्य ५३ हैं)॥ (गो. क. ३५, ३६ )॥ ट ७ में बन्धोदय की अनोट :-इस अघातियाकर्म की १०१ पेक्षा अघातियाकर्म की जो सर्व ७५ उत्तर उत्तर प्रकृतियों में से ४८ प्रकृतियाँ 'प्रशस्त' | प्रकृतियां बताई गई हैं उन में से प्रशस्त हैं जिन शुभप्रकृतियाँ' या 'पुण्यप्रकृतियाँ ३८, अप्रशस्त ३३, और उभय ४ हैं । यह भी कहते हैं। ३३ प्रकृतियां "अप्रशस्त" हैं | ४ दोनों ओर जोड़ देने से प्रशस्त सर्व जिन्हें 'अशुभप्रकृति' या 'पापप्रकृति' भी | ४२ और अप्रशस्त सर्व ३७ हैं ॥ कहते हैं । शेष २० प्रकृतियां उभयरूप अर्थात् नोट -अघातियाकर्म की सर्व १०१ "प्रशस्ताप्रशस्त' हैं । इनका विवरण निम्न | उत्तर प्रकृतियों में (१) पुद्गलविपाकी ६२, प्रकार है: ' (२) भवविपाकी ४, (३) क्षेत्रविपाकी ४, और NRHESAVADMRESHARESH Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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