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________________ ( १४७ ) वृहत् जैन शब्दार्णव अनेककप्रत और अन्तिम तीर्थकरों के साधुओं का आचार ( अ. मा. अचेलग ) ॥ अलकत्रत - सर्व प्रकार के वस्त्र त्याग देने का व्रत । दिगम्बर मुनियों के २८ मूलगुणों में से एक गुण का नाम 'आवेलक्य' है । इस 'आवेलक्य' नामक मूलगुण को धारण करने का नाम ही 'अचे लक व्रत' है ॥ नोट - २८ मूलगुण आदि का विव रण जानने के लिये देवो शब्द 'अनगारधर्म' ॥ लक्य (अचेलक्य ) – अचेलकपना, वप्रत्याग, दिगम्बरत्व ॥ मौर्य - चोरीत्याग, चोरीवर्जितकर्म अदत्तग्रहणत्याग, स्तेयत्यागः प्रमत्त-योग पूर्व अर्थात् लोभादि कषाय वश या इन्द्रियविषय- लम्पटतावश बिना दी हुई किसी की वस्तु को ग्रहण करना 'स्तेय ' या 'चोरी' है । इसके आठ भेद हैं - (१) ग्राम (२) अरण्य (३) खलियाम (४) एकान्त (५) अन्यत्र (६) उपधि (७) अमुक्तक (८) पृष्ठग्रहण, इन अ ठों प्रकार की चोरी का त्याग 'अचौर्य' है ॥ ( हरि० पु० सर्ग ३४, श्लोक १०३ ) । प्रचौर्य प्रणुव्रत ( अचौर्याणुव्रत ) - गृहस्थधर्म सम्बन्धी ५ अणुव्रत ( 'अनुव्रत' अर्थात् महावत या पूर्णत्रत के स हायक या अनुवर्ती व्रतों) में से तीसरे अणुव्रत को नाम जिसमें स्थूल चोरी का त्याग किया जाता है। इसी के नाम 'अदसादानविरति' या 'अदत्तादानविरमण' या 'अदसग्रहण त्यागाणुव्रत' या 'स्तेयत्यागाणु व्रत' या 'अस्तेयाणुव्रत' भी कहते हैं । Jain Education International A ( आगे देखो शब्द 'अणुव्रत' ) ॥ इस व्रत को धारण करने वाला मनुष्य किसी अन्य प्राणी की कहीं रखी हुई, पड़ी हुई, गिरी हुई, भूली हुई, धरोहर रखी हुई, आदि किसी प्रकार की कोई वस्तु लोभादि कषायवश नहीं ग्रहण करता, न किसी से ग्रहण कराता है और न उठा कर किसी को देता, न उठवाकर किसी को दिलवाता है | किली वस्तु को उस के स्वामी की आज्ञा बिना उस के सम्मुख भी न बलात् लेता, न किसी से लिवाता ही है और न उठा कर किसी अन्य को देता, म दिलाता ही है । इस व्रत को धारण करने बोला मनुष्य कोई ऐसी वस्तु जिस का कोई स्वामी न हो या कोई ऐसी वस्तु भी जिस के विषय में यह सन्देह हो कि यह मेरी है या किसी अन्य की है न स्वयम् ग्रहण करता, न अन्य किसी से प्रहण करने को कहता ही है । अचौर्याणुवती गृहस्थ किसी कूप सरोवर आदि जलाशय का जल, खान की मिट्टी, घास, वृक्ष, फल आदि ऐसा कोई पदार्थ जिसे उस के स्वामी राजा आदि मे सर्व साधारण के लिये छोड़ रखा हो और जिसके लेने में किसी की कोई रोक टोक आदि न हो उसे ग्रहण कर सकता है । अथवा माता, पिता, भाई, बन्धु, आदि का यह माल जिस को दायेदार कोई अन्य मनुष्य धर्मशास्त्रानुकूल या शाय नियमा नुकूल या रीति रिवाज के अनुसार न हो, बिना दिये भी उन की मृत्यु के पश्चात् ले सकता है ॥ - इस अचौर्याणुव्रत के निम्न लिखित ५ अतिचार दोष हैं जिनसे इस व्रत के पालन For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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