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________________ अचर ( १३७ ) वृहत् जेन शब्दार्णव अचल जब बहुत कष्ट उठाया तब उसे उसके | . (२) धातुकीखंड नामक द्वितीय पति ने छुड़ाया। तब से उसने क्रोध मान महाद्वीप की पश्चिम दिशा के मेरु-गिरि | आदि करना छोड़ दिया। मुनिपति नामक का नाम । एक साधु के जले हुए शरीर की दवा के यह 'अचल' नामक मेरुगिरि लिए लक्षपाक (लाक्षादि) नामक तेल मीनार या शिखर के समान गोल गृञ्जन लेने के लिए एक साध इस के घर आया । (गाजर) के आकार का लगभग गावदुम उस समय उस तेल की तीन शीशियां ८४ सहस्र प्रमाणयोजन ऊंचा और एक सदासी के हाथ से फूट गई तो भी उसे हस्र प्रमाणयोजन समभमि से नीचे चित्रा क्रोधन आया। चौथो बार वह स्वयं शीशी पृथ्वी तक मूलरूप गहरा है । इसके मूल लेकर आई और साधु को तेल दिया। इस के तल भाग का व्यास साढ़े नव हजार का विस्तृत वर्णन मुनिपतिचरित्र में है। (६५०० ) योजन और चोटी का व्यास (अ० मा०)॥ एक हज़ार ( १००० ) योजन है । मूल से नोट-इसी कथा से बहुत कुछ मिलती एक सहस्र योजन ऊपर समभूमि पर इस हुई एक कथा श्री शुभचंद्र भट्टारककृत 'श्रे. का व्यास १४०० योजन है। यहां से णिक चरित्र' के ११वें सर्ग में तुंकारी' की है ५०० योजन ऊपर जाकर इस में ५०० योजो उज्जैनी निवासी सोमशर्मा भट्ट की थर्म जन चौड़ी चारों ओर एक कटनी है जहां पत्नी थी । ( आगे देखो शब्द 'तुंफारी' )॥ | मेरु की गोलाई का व्यास कटनी के वाह्य अचर-(१) अचल, दृढ़, स्थिर; (२)जो | किनारे पर ६३५० योजन और अभ्यन्तर अपनी इच्छा से चल फिर न सके अर्थात् किनारे पर ८३५० योजन है। यहां से दश सर्व अचेतन या जड़ पदार्थ (जीव के अति सहस्र (१०००० ) योजन की ऊँचाई तक रिक्त शेष ५ द्रव्य ) (३) जीव और पुद मेरुगिरि गृजनाकार गावदुम नहीं है किंतु । गल के अतिरिक्त शेष चार द्रव्य, अर्थात् समान चौड़ा ( समान व्यासयुक्त ) चला धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल और गया है जिस से इस ऊँचाई पर पहुँच कर | आकाश; (४) अचर जीव अर्थात् पृथ्वी भी उस का व्यास ८३५० योजन ही है। कायिक, जलकायिक, अग्नि कायिक, वायु यहां से साढ़े पैंतालीस सहस्र (४५५००) कायिक, और बनस्पति कायिक, यह ५ | योजन की ऊँचाई तक फिर गृजनाकार प्रकार के स्थावर जीव ,अर्थात् सर्व प्रकार गावदुम जाकर उस में एक कटनी ५०० के एकेन्द्रिय, जीव ॥ योजन चौड़ी चारों ओर है जहां मेरु की अचरम-संसार की चरमावस्था (अन्तिम गोलाई का व्यास कटनी के पाह्य किनारे पर तो ३८०० योजन और अभ्यन्तर किअवस्था ) को न पहुँचा हुआ, जन्म मरण नारे पर २८०० योजन है। यहां से दशयुक्त संसारी जीव ॥ सहस्र (१०००० ) योजन की ऊँचाई तक भचल-(.१ ) अटल, स्थिर, धीर, पर्वत, | मेरुगिरि फिर समान व्यासयुक्त चला वृक्ष, खंटा गया है जिस से इस ऊँचाई पर पहुँच Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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