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________________ - ( १३६ ) अचक्ष वृहत् जैन शब्दार्णव अचङ्कारितभट्टा। लन' वह हृदयस्थित भक्ति है जो दातार अवक्ष दर्शनावरण-चक्ष के अतिरिक्त आहार दानादि के समय मुनि के चरण अन्य किसी इन्द्रिय या मन की दर्शन धोकर और उस चरणोदक (चरणामृत) शक्ति का आवरण या आच्छादन (ढकना), को निज मस्तकादि पर लगा कर प्रकट दर्शनावरणीय कर्म के भेदों में से एक करता है। का नाम, जिसके उदय से जीव को चक्ष नोट--नवधाभक्ति-(१) प्रतिग्रह या के अतिरिक्त अन्य किसी एक या अधिक पड़गाहन अर्थात् किसी अतिथि ( मुनि ) को इन्द्रियों द्वारा दर्शन न होसके अथवा आते देव कर स्वामिन् ! नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, जिसके उदय से जीव के पौद्गलिक शरीर नमोऽस्तु, अत्र तिष्ठ, तिष्ठ तिष्ठ, अन्न जल में रसना, घ्राण, श्रोत्र और मन, इन चार शुद्ध" ऐसे वचन दोनों हाथ जोड़े हुए मस्तक द्रव्येन्द्रियों में से किसी एक या अधिक नमा कर बड़ी विनय से कहना, (क) उच्च की रचना ही न हुई हो, या नेत्र को छोड़ स्थानप्रदान, (३) अङ्घि, क्षालन (चरण प्रक्षा कर अन्य किसी द्रव्येन्द्रिय की रचना होते | लन ), (४) अर्चा ( पूजन ), (५) आनति हुए भी उनमें से किसी एक या अधिक में | ( साष्टाङ्ग नमस्कार ), (६) मनःशुद्धि, (७) किसी प्रकार का विकार होने से उस के वचन शुद्धि, (८) कायशुद्धि, (६) अन्न शुद्धि॥ | द्वारा उसके. योग्य विषय का दर्शन न प्रचक्षु-चक्षुरहित, विना नेत्र; चक्षु के हो सके ॥. अतिरिक्त अन्य ४ इन्द्रिये और मन ॥ नोट-दर्शनावरणीय कर्म के भेद | (१) चक्ष-दर्शनावरण (२) अवक्षदर्शनावरण अचक्षु दर्शन-दर्शन के ४ भेदों में से एक | (३) अवधि-दर्शनावरण (४) केवल-दर्शनावरण भेद, चक्षु ( आंब, नेत्र) के अतिरिक्त | | (५) निद्रोत्पादक-दर्शनावरण (६) निद्रानिद्रोअन्य चार इन्द्रियों में से किसी ज्ञानेन्द्रिय त्पादक दर्शनावरण (७) प्रचलोत्पादक दर्शनासे या मन से होने वाला दर्शन या अव वरण (E) प्रचलाप्रवलोत्पादक दर्शनावरण लोकन वा सामान्य निर्विकल्प ज्ञान ॥ (०.) स्त्यानगृद्धय त्पादक-दर्शनावरण ॥ - नोट-आत्मा को स्वयम् बिना किसी अचक्षुदर्शनि-चक्षुदर्शन रहित जीव, इन्द्रियादि की सहायता के या पांचों ज्ञानेन्द्रियों में से प्रत्येक के या मन के द्वारा जो | एफेन्द्रिय, हीन्द्रिय, और त्रीन्द्रिय जीव ॥ अपने अपने विषय का सामान्य निर्विकल्प अवकारितभट्टा-धन्य नामकाएक सेठ ज्ञान होता है उसे 'दर्शन" कहते हैं । अर्थात् की पुत्री जिस का विवाह उसकी आशा वह सामान्य ज्ञान जिस में किसी वस्तु या उठाने वाले के साथ हुआ था। यह सदा पदार्थ की केवल सत्ता मात्र का निर्विकल्प अपने पति को दवाव में रखती थी । एक रूप से आभास या ग्रहण हो उसे 'दर्शन' बार राजा के दबाव डालने से पति स्त्री । कहते हैं । इस दर्शन के चार भेद (१) चक्षु की आमा का पालन न कर सका तो वह दर्शन (२) अचक्ष दर्शन (३) अवधि दर्शन रुष्ट होकर भाग निकली। रास्ते में चोरों ने और (8) केवल दर्शन हैं । लटा और रंगेरे के यहां बेचा । इस प्रकार | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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