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________________ - ( २०४ । अजीव-निःसृत वृहत् जैन शब्दार्णव अजीव विचय हुआ ( अ. मा. अजीवणिस्सिय )॥ |अजीव-भावकरण-स्वाभाविक रीतिले अजीव-निःसत-अर्जाव सेनिकला हुआ| मेघ आदि की समान किसी अजीव पदार्थ - (अ. मा. अर्जीवणिस्सिय ) ॥ का रूपान्तर होना (अ. मा.)। अजीव-पद-पन्नवणा सूत्र के ५ पद का अजीव-मिश्रिता-सत्यासत्य या सत्यनाम (अ. मा.)॥ मृषा भाषा का एक भेद ( अ. मा. अजीय प्रजीव-पदार्थ-जीवादि नव प्रयोजन मिस्सिया')॥ अजीव-राशि-अजीव पदार्थों का समूह भूत पदार्थों में से दूसरा पदार्थ (पीछे (अ. मा. 'अजीवरासि' )॥ देखो शब्द 'अजीय', पृ० १६१ ) ॥ अजीव-विचय-अचेतन पदार्थ सम्बन्धी अजीव-परिणाम-बन्धन, गति आदि खोज या विचार या चिन्तवन आभ्यन्तर अजीव का परिणाम ( अ. मा.)॥ या आध्यात्मिक धर्म-ध्यान के १० भेदों में अजीव-पर्यव-अर्जाव का पर्याय, अ. | से एक भेद ॥ जीय का विशेष धर्म या गुण (अ. मा. पदार्थों के वास्तविक स्वरूप व 'अजीवपज़व')॥ स्वभाव को 'धर्म' कहते हैं । उस स्वरूप से च्युत न होकर एकाग्र चित्त होना अजीव-पृष्टिका-आगे देखो शब्द 'अ 'धर्म ध्यान' है । जिस धर्मध्यान को केवल जीव स्पृष्टिका', पृ. २०५॥ अपना ही आत्मा या कोई प्रत्यक्षकानी अजीव-प्रदेश-अजीवद्रव्य का छोटे से आत्मा ही जान सके अथवा जो धर्मध्यान छोटा विभाग ( अ. मा. 'अजीवप्पएस')॥ आत्म द्रव्य सम्बन्धी हो उसे 'आभ्यन्तर' अजीव-प्रज्ञापना-अजीव का निरूपण या 'अन्तरा' या 'आध्यात्मिक' धर्मध्यान कहते हैं। किसी अजीव पदार्थ के वास्तकरना या स्वरूप बताना (अ. मा. अंजीव विक स्वरूप का एकाग्र चित्त हो चिन्तवन | पण्णवणा)॥ करना "अजीव-विक्षय धर्मध्यान" है। . अजीव-प्रातीतिकी-अजीव में ग ___ वाद्य या आभ्यन्तर धर्मध्यान के अन्य छष करने से होने वाला कर्मबन्ध; भेदों की समान यह धर्मध्यान चतुर्थ गुणप्रातिकी किया का एक भेद ( अ. मा. . स्थान से सप्तम गुणस्थान तक के पीत 'अजीव-पाडुच्चिया' )॥ पन्न शुक्ल लेश्या वाले जीवों के होता है। अजीव-प्राद्वेषिकी-किसी अजीव पदार्थ एक समय इसका जघन्य काल, और एक के साथ द्वष करने से होने वाला कर्मबंध; उत्कृष्ट अन्तम हर्स अर्थात एक समय कम प्राषिकी किया का एक भेद (अ. मा. | दो घटिका इसका उत्कृष्ट काल है । स्वर्ग 'अजीव-पाउसिया')॥ प्राप्ति इसका साक्षात् फल और मोक्ष अजी-भाव-अजीव की पर्याय ( अ. | प्रानि इसको परम्पराय फल है। - मा.)। - नोट १-आभ्यन्तर धर्मध्यान के १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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