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जन्म समय सब कुटम्ब जन, तुहि रोवत लख वीर। ।
हर्षित हो फूले फिरें, होय न कछु दिलगीर । तिनके अनुचित कार्यका, क्यों नहिं बदला लेछु । मरण समन्य अवसर मिलै, ऐसे काम करेहु ॥
चेतन पर उपकार से, बांशे सबको आज । जाओ हंसते स्वर्ग को, रोता छोड़ समाज ॥ वस्तु नशीली हैं जिती, सबही हैं दुख मूल ।
चेतन इनको त्याग कर, सब पर डालो धूल ॥ | ७. रे मन ढंढे क्यों ना, तेरे इस घट में बोलता है कौन ॥ टेक ॥
जाकू तू ढंढत फिरै रे, वह नहीं है कहुँ और। वहतो तेरे उर बसै रे, क्यों नहीं करता और ॥ रे मन हुँदै......॥१॥ नगर ढंढोरा ते दियो रे, बगल में छोरा नोर। .. फिर क्यों तू भटकत फिरत रे, तुझ में तेरा चीर ॥रे मन हूँ'दै...... ॥२॥ . मन्दिर मसजिद तीर्थ सब रे, नित नित ढढत जाय । तन मन्दिर नहीं एक दिन रे, खोजा चित्त लगाय ॥रे मन ढलै......॥ ३ ॥ बन जङ्गल परबत उदध रे, बचा न कोई एक । पता न प्यारे को लगा रे, थक रहा बिना विवेक ॥ रे मन दू......॥४॥
चेतन चित. इत लाय कर रे, घट के पट अब खोल। निश्चय दर्शन होयगा रे, जो मन करे अडोल ॥रे मन है......॥५॥ (ख) 'विज्ञानार्कोदय नाटक से
' 'त्रिभुवन'नामक देश इक, जिसका पार न पार ।
राज्य करे चेतन पुरुष, ताही देश मैंझार ॥ चौरासी लख जाति के, नगर बसें विस देश ।
सदा सैर तिनकी करे, सुख दुख गिनै न लेश ॥ निज रजवानी 'मुकपुर' दीनी ताहि बिसार । काया तम्ब तान के, जाने निज आमार ।
'पुद्गल' रमणी रमण से, पुत्र हुआ 'मन' एक । . 'सुमति! 'कुमति' दोउ नारि सँग, कौतुक करै अनेक ॥ ....कभी सुमति संग रमत है, कभी कुमति के सँग ।
विषयवासना उर खसी, नित चित चाव उमंग ।। चार पुत्र 'सुमती' जने, प्रबोधादि गुणखान । 'कुमती' मोहादिक जने, पांच पुत्र अज्ञान ॥
(ग) जम्बूकुमार नाटक से६. ज़माना रङ्ग बदलता है ॥ टेक ॥
जिस घर प्रातःकाल युवतियां गारहीं मंगलचार । "सायंकाल उसी घर में बहती अॅसवन की धार ।
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