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________________ ( १५२ ) अच्छध दोष वृहत् जैन शब्दार्णव अच्युत नाथ की शासन देवी (अ. मा.)। (२) श्री ऋषभदेव के "भरत" आदि। मच्छेद्यदोष ( आछेद्य दोष)--किसी १०० पुत्रों में से एक का नाम । राजा आदि के भय या दयाव से दिया | (३) १६ (सोलह) स्वगौ या कल्पों में | हुआ भोजन ग्रहण करना । मुनिव्रत सम्ब- | से सोल कल्प का नाम ॥ . न्धी अष्ट-शद्धियों के अन्तर्गत जो “भिक्षा- | (४) सोल्हवें स्वर्ग के इन्द्र का नाम ॥ शुद्धि" या "आहार शुद्धि'' और "शयना (५) अन्तिम चर स्वर्गी अर्थात् आ-, सन शुद्धि" या "घसतिका शुद्धि" नामक नत,प्राणत,भारण,अच्युत सबन्धी ६ इन्द्रक | भेद हैं उसमें निर्दोष पालनार्थ जो ४६ दोषों विमानों में ले सब से ऊपर के छठे इन्द्रक | से बचने का उपदेश है उन में से एक विमान का नाम जो १६ स्वर्गों के ५२पटलों। दोर का नाम 'अछेद्य दोष' है । यह उन में से सर्व से ऊपरके अन्तिम पटल के मध्य ४६ दोगे के अन्तर्गत १६ उदगम दोषों' में से एक प्रकार का दोष है जो साधओं। (६) उपर्युक्त अध्युत'नामक इन्द्रक विको ऐसे आहार या स्थान के जान बूझकर मान की उत्तर दिशा के ११ (हरि पु० १२) । प्रहण करने में लगता है जिसे किसी गृह- श्रेणीवद्ध विमानों में से मध्य के छटे (हरि० । स्थ ने राजा आदि किसी बलवान पुरुष पु०चौये) श्रेणीघद्ध विमान का नाम जिस | के भय या दबाव से दिया हो। में 'अज्युरोन्द्र' का निवास स्थान है। इसी नोट--पीछे दे वो शब्द "अक्ष मृक्षण", विमान को अगुतायतसक' विमान भी "अगर दोप' और "अधितक्रीत दोष ॥ अचान युत न होना, च्युत न होने नोट१-अध्युत स्वर्ग के निवासी देवों बाला, न गिरने वाला॥ के मुकुट का चिन्द 'कल्पवृक्ष है। यहां जघन्य प्रच्चन-लिब्ध-वह लम्धि या प्राप्ति जो आयु २० सांगरोपम वर्ष और उत्कृष्ट २२ एक बार प्राप्त होकर फिर कभी च्युत न सागरोपम यर्प प्रमाण है । देवाङ्गनाओं की हो; आत्मा के वह परिणाम या भाव जो जघन्य आयु कुछ समयाधिक ४८ पत्योपम प्रगट होकर फिर लुन न हो। वर्ष की और उत्कृष्ट ५५ पल्योपम वर्ष की है। अपाय गो पूर्व में जो '१४ घस्तु" नामक | शरीर का उल्लेध ( ऊंचाई ) कुछ कम ३ हस्त महा अधिकार है उस में से पांचवीं वस्तु | | (३ अरलि) प्रमाण है। अच्युत स्वर्ग सम्बन्धी का नाम 'अच्यवन लब्धि' है जिस में २० सव विमान शुरुः वण के है। प्रामृत या पाहुड़ हैं । इन २० पाहुड़ों में (त्रि० ५३०, ५४२, ५४३) से “कर्म प्रकृति" नामक चौथे पाहुड़ में नोट २-अन्युरेन्द्र की आशा स्वर्गों के कृति, वेदना, आदि २४ योगद्वार है। सबसे ऊपर के तीन प्रतरों या पटलों के उत्तर - (देवो शब्द 'अप्रायणीपूर्व') ॥ | दिशा के सर्वश्रेणीबद्ध और चायष्य ( उत्तर अच्युत-(१) च्युत न होने वाला, अमर, पश्चिम के मध्य की विदिशा ) और ईशान ( उत्तर पूर्व के मध्य की विदिशा ) कोणों के भवल, स्थिर ॥ सर्व प्रकीर्णक विमानों में प्रवर्तित है। इन तीन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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