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________________ ( १५.३ ) वृहत् जैन शब्दार्णव अच्युत प्रतरों (पटलों) के इसी उत्तरी भाग का नाम ( जहां अच्युतेन्द्र की आज्ञा का प्रवर्तन है ) 'अच्युतस्वर्ग' है जिस के प्रत्येक पटल की भूमि की मुटाई ५२७ महा योजन प्रमाण है ॥ १४ वें स्वर्ग 'प्राणत' नामक की चोटी या ध्वजा दण्ड से ऊपर असंख्यात महायोज न प्रमाण अन्तराल ( रचना रहित शून्य आ काश ) छोड़ कर इस स्वर्ग के प्रथम पटल की रचना का प्रारम्भ है । फिर इसी प्रकार असं ख्यात असंख्यात महायोजन ऊपर ऊपर को अन्तराल छोड़ छोड़ कर दूसरे तीसरे और चौथे पटल की रचनाओं का प्रारम्भ है । इन चारों अन्तरालों सहित इस स्वर्ग की रचना अर्द्ध राजू प्रमाण ऊँचाई में है अर्थात् १४वें स्वर्ग की घोटी से इसकी चोटी तक का अन्तर अर्द्ध राजू प्रमाण है। और 'सुदर्शन मेरू' के तल भांग या मूल की तली से इसकी चोटी या ध्वजा दंड की नोक का अन्तर छह राजू प्रमाण है । अच्युत पटल के मध्य के इन्द्रक विमान का नाम " अच्युत", और कल्पातीत विमानों में सब से ऊपर के ११ वें पटल के मध्य के विमान का नाम " सर्वार्थसिद्धि" है । इस "सर्वार्थसिद्धि” नामक इन्द्रक वि मान से केवल १२ महायोजन प्रमाण अन्तराल छोड़कर " ईषत्प्रभार या ईषत्प्राग्भार' नामक "अष्टमधरा" या अष्टम भूमि ८ महा योजन मोटी, ७ राजू लम्बी, १ राजू चौड़ी चौकोर लोक के अन्त तक है जिसके बीचों बीच इतनी ही मुटाई का, और मनुष्य क्षेत्र या अढ़ाई द्वीप समान ४५ लाख योजन प्रमाण व्यास वाला गोल ऊर्द्ध मुख उल्टे छाते के आकार का श्वेतवर्ण "सिद्धक्षेत्र'' है । यह क्षेत्र ८ योजन मोटा मध्य में हैं। किनारों की ओर को इसकी मुटाई क्रम से घटती घटती अन्त में बहुत कम रह गई है । इसी क्षेत्र को "सिद्ध शिला" या "मुक्ति शिला" भी कहते हैं । इसके ऊपर इस से स्पर्श करती हुई "घनोदधिवात" अर्द्ध योजन मोटी, इसके ऊपर "घन वात" चौथाई योजन मोटी, और इसके ऊपर १५७५ महाधनुष ( २ गज़ x ५०० = १००० गज़ या ५०० धनुष को १ महाधनुष) मोटी "तनुवात " है । अर्थात् एक महा योजन से कुछ कम (४२५ महा धनुष कम ) मुटाई में यह तीनों प्रकार की वायु हैं जिनके अन्तमें लोक का भी अन्त होजाता है । अतः सर्वार्थ सिद्धि विमान से ऊपर को लोक के अन्त तक सवा चार सौ महा धनुष कम २१ महा योजन की और "अच्युत" नामक इन्द्रक विमान से पूरे एक राजू की ऊँचाई है ॥ इस अच्युत स्वर्ग सम्बन्धी जो उपर्युक्त ३ पटल हैं उनमें से प्रत्येक के दक्षिण भाग की रचना "आरण" नामक १५ वें स्वर्ग की है। इस " आरणाच्युत" युगल की चोटी से असंख्यात असंख्यात महायोजन का अन्त राल छोड़ छोड़ कर नव "प्रवेयक" बिमानों के पटल, नव अनुदिश विमानों का १ पटल और पञ्च अनुत्तर विमानों का भी १ पटल, एवं सर्व ११ पटल हैं । १६ स्त्रर्गों के उपयुक्त ५२. पटल हैं । अतः ऊर्द्धलोक के सर्व पटलों की संख्या ६३ है । १६ स्वर्ग सम्बधी ५२ पटलों के विमानों को "कल्प विमान" और ऊपर के ग्रैवेयक आदि सम्बन्धी ११ पटलों के विमानों को "कल्पातीत विमान" कहते मोटे "सिद्ध क्षेत्र" में अथवा इस सिद्ध क्षेत्र । कल्प विमानों में सबसे ऊपर के ५२ वें | पर ( सिद्धशिला पर ) सिद्धों (मुक्ति पद | यह ध्यान रहे कि उपर्युक्त अष्ट योजन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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