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________________ ( २१४ ) अंजन चोर वृहत् जैन शब्दार्णव अंजनरिष्ट दिनों तक अञ्जनबटी नेत्रों में लगा कर और उस से धर्मोपदेश सुन कर इस ने और इस प्रकार अदृश्य हो कर राजा के मुनिव्रत की दीक्षा एक चारण ऋविधासाथ स्वादिष्ट भोजन करता रहा । जब रक मुनि के पास जाकर ले ली । अन्त में एक दिन मंत्री के बताये उपायों से वह | कैलाशपर्वत के शिखर पर से महान तपो. पकड़ा गया और अपने अपराध के दण्ड बल द्वारा सर्व कर्म कलङ्क नाश कर इस में सूली पर चढ़ाये जाने को ले जाया | अंजनचोर ने निरंजनपद उसी जन्म से मारहा था तो सेठ अरहदास के पिता प्राप्त कर लिया। सेठ जिनदत्त से णमोकार मंत्र पाकर | अञ्जनपुलाक-रत्नप्रभा नामक प्रथम और प्राणान्त समय उसी के ध्यान में नरक के खरकाण्ड के ११ विभागों में से शरीर छोड़ कर 'सौधर्म' नामक प्रथम ११वें 'अङ्का' नामक भाग का अपर नाम स्वर्ग में जा जन्मा॥ (अ. मा.)॥ (२) अञ्जनगुटिका औषधि लगा कर | भञ्जनप्रभ-राम-रावण युद्ध में रावण की चोरी करने वाला राजगृही निवासी एक सैना के अनेक प्रसिद्ध योद्धाओं में से एक अन्य घोर भी 'अञ्जनचोर' नाम से योद्धा। प्रसिद्ध था जो सम्यग्दर्शन के आठ अङ्गों अजनमल-"रुचकबर'' नाम के १३ बै में से 'निःशांकित' नामक प्रथम आज को पूर्ण दृढ़ता के साथ पालन करने में पुराण द्वीप के "रुचक गिरि" नामक पर्वत पर प्रसिद्ध है। पूर्व दिशा की ओर के कमक आदि अष्ट जिस समय एक सोमदत्त नामक कूटों में से सातबां कूट, जो "नन्दोत्तरा" माली एक जिनदत्त नामक सेठ से आ नामक दिक्कुमारी देवी का निवास काशगामिनी विद्या सिद्ध करने की विधि १ स्थान है। सीख कर कृष्णपक्ष की १४ की रात को नोट-इन अष्ट कूटों पर बसने वाली श्मशान भूमि में विद्या सिद्ध कर रहा देवियां तीर्थङ्करों के जन्म समय में परम था परन्तु प्राणनाश के भय से शंकित प्रमोद के साथ अपने हाथों में भंगार (झारी) होकर बार बार रुक जाता था तो लिये हुए माता की भक्ति और सेवा करती.हैं उसी समय यमदण्ड ( कोतवाल) के (त्रि. गा. ६४८,६४६,६५५,६५६) भय से भागता हुआ यह अंजनचोर अजनमालका- 'धर्मा' नामक प्रथम भाग्यवश उसी स्थान में पहुँच गया। नरक के खर भाग की १६ पृथ्वियों में से उसने उस माली से विधि सोख कर | १० वीं पृथ्वी जिस की मुटाई १००० महा पंच नमस्कार मंत्र का अशुद्ध उच्चारण योजन है। (पीछे देखो शब्द “ अङ्का" करते हुए भी केवल दृढ़ श्रद्धावश प्राण- | पृ० ११४ )॥ नाश की लेश शंका न करके बताई विधि (त्रि० गा० १४८) द्वारा वह विद्या तुरन्त सिद्ध करली। अजनरिष्ट-वायु कुमार जाति के देवों पश्चात् शेठ जिनदत्त का बड़ा कृतज्ञ होकर | का एक इन्द्र ( अ. मा.)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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