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________________ अंकुशा वृहत् जैन शब्दार्णव द्वारा देकर और फिर तुरन्त ही संसार | वश्यक कर्म में बन्दना नियुक्ति (कृशिस्वरूप धियार गृहस्थाश्रम से विरक्त हो । कर्म ) सम्बन्धी ३२ दोषों में से एक दोष कर "पृथ्वीमती" आर्यिका ( साध्वी ) के का नाम जो हाथ के अंगुष्ट फो अंकुश समीप आत्मकल्याणार्थ दीक्षा धारण समान मोड़ कर चन्दना करने से करली तो इन दोनों ही भाइयों को लगता है। मातृ-वियोग का कुछ दिन तक बड़ा नोट१–बन्दना-नियुक्ति सम्बन्धी ३२ शोक रहा । अन्त में जब माघ कृ. ३० दोष--(१) अनाहत (२) स्तब्ध (३) प्रविष्ट (अमावस्या ) को अपने पितृव्य लक्ष्मण (४) परिपाड़ित (५) दोलायित (६) अंकुशित के शरीर परित्याग करने पर अपने पिता (७) कच्छपरिणित (E) मत्स्योद्वर्त (९) मनोको प्रात-स्नेहवश अति शोकातुर देखा दुष्ट (0) वेदिकाबद्ध (११) भय (१२) विभ्य | तो इन दोनों ही भाइयों को इस असार (१३) ऋद्धिगौरव (१४) गौरव (१५) स्तेनित संलार के क्षणभंगुर विषय सुख अति (१६) प्रतिनीत (१७) प्रदुष्ट (१८) तर्जित (१६) विरस दिखाई पड़े। पिता से किसी न शब्द (२०) होलित (२१) त्रिवलित (२२) किसी प्रकार आशा लेकर और अयोध्या कुंचित (२३) इष्ट (२४) अदृष्ट (२५) संघकरके समीप ही के महेन्द्रोदय बन में जाकर मोचन (२६) आलब्ध (२७) अनालब्ध (२८) / "श्री अमृतस्वर” मुनि से दिगम्बरी हीन (२६) उत्तर चूलिका (३०) मूक (३१) | दीक्षा ग्रहण कर ली । चिरकाल उग्र ददुर (३२) चललित ॥ (प्रत्येक का स्वरूप तपस्चारण के बल ले त्रिकालदर्शी और आदि यथास्थान देखें)॥ प्रैलोक्य व्यापी, आत्मस्वभावी कैवल्य- नोट २-इस दोष के सम्यन्ध में ज्ञान का आविर्भावकर पाबागिरि से अन्य भी भिन्न भिन्न कई मत हैं--(१) रजोनिर्वाणपद प्राप्त किया । अयोध्या का हरण को अंकुश की समान दोनों हाथों में राज्य श्री रामचन्द्र के विरक्त होकर रखकर गुरु आदि को बन्दना करना (२) राज्य-विभव त्यागने पर लक्ष्मण के सोये हुए गुरु आदि को उनके वस्त्रादि खेंच ज्येष्ठ पुत्र 'अङ्गन्द' को दिया गया जो कर जगाना और फिर बन्दना करना (३) राजगदी पाकर “पृथ्वीचन्द्र' नाम से अंकुश लगाने से जैसे हाथी सिर ऊँचा नीचा प्रलिद्ध हुआ और युवराजपद अनंगलवण | करता है वैसे ही ऊंचा नीचा सिर बन्दना के • (लव ) के पुन को मिला ।। समय करना (अ. मा.)॥ (३) महाशु नामक देवलोक के एक अङ्ग-(१) शरीर या अन्य किसी वस्तु का विमान का नाम जहां १६ सागशेपम की एक भाग, अवयव, शरीर, जोड़, मित्र, __ आय हे (अ. मा.) उपाय, कर्म, प्रधानअवयव, एक प्रकार | अंकशा-चौदवें तीर्थकर 'श्री अनन्तनाथ' का वाक्यालङ्कार; की एक शासन देवी (अ. मा.)॥ (२) वेदाङ्ग अर्थात् शिक्षा, कल्प, व्या करण, ज्योतिष, छन्द और निरुक्त; | अंकशित दोष-दिगम्बर मुनि के षटा- (३) एक देश (उत्तरी विहार) का। Ema Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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