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________________ ( २५४ ) अड़तालीसव्यंजनावग्रहमतिज्ञानभेद वृहत् जैन शब्दार्णव अड़सठ श्रेणीवद्ध विमान अड़तालीस-व्यंजनावग्रहमतिज्ञान के आराधन के फलरूप हैं । इन्हें महापुण्या धिकारी पुरुष ही पाते हैं। भेद-व्यंजनावग्रह केवल स्पर्शन, इसन | आदि पु० पर्व ३८ । श्लो०६४ । घ्राण, श्रोत्र, इन ४ इन्द्रियों द्वारा होने | । ६५, पर्व३६ श्लो०.७६-१६६ । से ४ भेद रूप है। इन में से प्रत्येक नोट १-शेष ५३ और ८ क्रियाओं विषयभूत पदार्थ बहु, बहुविध, आदि | | का विवरण जानने के लिये पीछे देखो शब्द १२ भेद रूप होने से व्यञ्जनावग्रह के १२ "अग्रनिवृति क्रिया'' के नोट १,२,३,पृ.७०. ॥ गुणित ४ अर्थात् ४८ भेद हैं । ( पीछे नोट २-यह ५३ गर्भान्वय, = अथवा देखो शब्द "अट्ठाईस मतिज्ञान भेद", | | ४८ दीक्षान्वय और ७ कतृन्वय, एवम् सर्व पृ० २२५) ६८ अथवा १०८ क्रियाएँ “कियाकल्प'' कह(गो० जी० ३०६, ३१३, ) लाती हैं। अड़तीस जीवसमास-स्थावर (एके अड़सठ पुण्य प्रकृतियां-(पीछेदेखो न्द्रिय ) जीवों के सामान्य जीवसमास १४ शब्द 'अवातिया कर्म' का नोट ८ पृष्ठ-५) (पीछे देखो शब्द 'अट्ठानवे जीवसमास' ___अष्ट मूल कर्म प्रकृतियों के १४८ उत्तर का न०१ पृ० २२९), भेदों में से ४ घातिया कर्मों की ४७ उत्तर ___इन में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, कर्मप्रकृतियां तो सर्व पोप प्रकृतियां ही हैं असंशी पंचेन्द्रिय और संझी पंचेन्द्रिय, यह परन्तु शेष ४ अघातिया कर्म की १०१ ५ सामान्य जीवसमास त्रस जीवों के उत्तर प्रकृतियों में से ३३ प्रकृतियां तो | जोड़ने से सर्व १६ जीवसमास हैं । इन पापरूप हैं, ४८ प्रकृतियां पुण्य रूप हैं १६ में से प्रत्येक पर्याप्त और अपर्याप्त के और शेष २० प्रकृतियां उभय रूप हैं अभेद से द्विगुण १६ अर्थात् ३८ भेद र्थात् पुण्यरूप भी है, और पापरूप भी। जीवसमास के होते हैं । अतः ४८ पुण्य प्रकृतियों में यह २० जोड़ने (गो० जी० गा० ७६,७७, ७८ ) से ६८ पुण्य प्रकृतियां हैं। पुण्यप्रकृतियों भड़सठक्रिया- (६८ क्रियाकल्प )- को शुभ प्रकृतियां' या "प्रशस्त प्रकृतियां" गर्भाधानादि ५३ गर्भान्वय क्रिया, अवता- भी कहते हैं । अभेद विवक्षा से या बन्धोरादि उपयोगिता पर्यन्त ८ दीक्षान्वय दय की अपेक्षा से पुष्यप्रकृतियां सर्व ४२ क्रिया, और निम्नलिखित ७ कर्तृन्वय क्रियाः (गो० क.0 गा. ४१, ४२)। - (१) सज्जातिक्रिया (२) सद्गृहोसत्व अड़सठ श्रेणीबद्ध विमान ( शतार | क्रिया (३) पारिव्राज्य क्रिया (४) सुरेन्द्रता सहस्रार युगल में )-ऊर्द्धलोक के सर्व ६३ क्रिया (५) साम्राज्य क्रिया (६) परमाहत पटलों में से शतार और सहस्रार नामक | क्रिया (७) परमनिर्वाण क्रिया । यह ७ ११ वें, १२ वें स्वर्गों के युग्म में केवल एक - क्रियाएँ सप्त परम स्थान हैं जो जिनमार्ग | ही पटल है जिसके मध्य के इन्द्रक विमान | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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