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________________ ( २४ ) मास तक बड़ा उत्कंठित रहा किन्तु शोक के साथ लिखना पड़ता है कि मेरी इस प्रार्थना पर किसी ने तनिक भी ध्यान न दिया । तब निराश होकर नितान्त अयोग्य होने पर भी मैंने ही इस कार्य को भी यह विचार कर प्रारम्भ कर दिया कि अपनी योग्यतानुसार जितना और जैसा कुछ मुझ से बन पड़े अब मुझे ही कर डालना चाहिए । शक्ति भर उद्योग करने और सात्विक वृत्ति के साथ पूर्ण सावधानी रखते हुए भी बुद्धि की मन्दता, और ज्ञान की हीनता से इसमें, जो कुछ त्रुटियां और किसी प्रकार के दोषादि रह जायेंगे उन सब को विशेष विद्वान् महानुभाव स्वयं सुधार लेंगे तथा वृद्धावस्था जन्य शारीरिक व मानसिक बल की क्षीणता और आयु की अल्पता आदि कारणों से इस महान कार्य की समाप्ति में जितने भाग की कमी रह जायगी उसे भी वे अवश्य पूर्ण कर देंगे। इधर मुझे भी अपने जीवन के अन्तिम भाग में ग्रन्थ स्वाध्याय और उनके अध्ययन व मनन करने का विशेष सौभाग्य प्राप्त होगा जिससे मुझे आत्मकल्याण में महती सहायता मिलेगी । अतः सज्जन माननीय विद्वानों की सेवा में प्रत्यक्ष व परोक्षरूप है कि: (१) वे मेरी अति अल्पक्षता को ध्यान में रख कर इसमें रहे हुए दोषों को न केवल क्षमादृष्टि से हीं अवलोकन करें किन्तु उन्हें प्रन्थ में सुधार लेने और मुझ सेवक को भी उन से सूचित कर देने का कष्ट उठा कर कृतज्ञ और आभारी बनाएँ, जिससे कि मैं इसके अगले संस्करण में (यदि मुझे अपने जीवन में इसके अगले संस्करण का सौभाग्य प्राप्त हो ) यथा शक्ति और यथा आवश्यक उन्हें दूर कर सकूँ । और · (२) इस प्रारम्भ किये हुए विशाल कार्य का जितना भाग मेरे इस अल्प मनुष्य जीवन में शेष रह जाय उसे भी जैसे बने पूर्ण कर देने का कोई न कोई सुयोग्य प्रबन्ध कर देने की उदारता दिखावें । नोट- मुद्रित होने के पूर्व कोष के इस भाग की प्रेस कापियों को श्रीयुत जैनधर्मभूषण धर्म दिवाकर ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने भी एक बार देख लेने में अपना अमूल्य समय देकर उनमें आवश्यक संशोधन कर देने की सुयोग्य सम्मति प्रदान की है जिसके अनुकूल यथा आवश्यक सुधार कर दिया गया है । मैं इस कष्ट के लिये उनका हार्दिक कृतज्ञ हूँ । Jain Education International मेरा नम्र निवेदन बाराबङ्की (अवध) ता० २५ जून सन् १६२५ ई० हिन्दी साहित्य प्रेमियों का सेवक, हिन्दी साहित्य सेवी, बिहारीलाल जैन, “चैतन्य" सी. टी., ( बुलन्द शहरी) असिस्टेन्ट मास्टर, गवन्मेंट हाईस्कूल, बाराबङ्की (अवध) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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