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अजित वृहत् जैन शब्दार्णव
अजित (१) कैवल्यज्ञान प्राप्त होतेही धर्मोप- स्थानों में, एवम् सर्प ७७१०. ने कैवल्य देशार्थ ४ प्राकार ( गोलाकार कोट की| ज्ञान यथा अवसर प्राप्त किया और श्री | भीत या चार दीवारी), ५ वेदिका, ८ अजितनाथ के कैवल्य ज्ञान प्राप्ति के समय पृथ्वी, १२ सभाकोष्ठ, ३ पीठ, और १ से मोक्ष गमन तक के समय तक इन सर्व गन्धकुटी ,इत्यादि रचनायुक्त जो दिव्य ने मुक्ति पद पाया ॥ २० सहन ने पंच गोलाकार समवशरण अर्थात् सर्व प्रा- अनुत्तर, तथा नव अनुदिश विमानों में णियों को समभाव से अवशरण देने वाले और शेष २६०० ने नव वेयक तथा १६ सभामन्डप की रचना की गई उस का स्वर्गों में जन्म धारण किया। व्यास साढ़े ११ योजन ( ४६ क्रोश या (६)इनका तीर्थकाल इनके जन्म समय लगभग १०४ मील) था। [विशेष रचना से तीसरे तीर्थङ्कर श्री संभवनाथ' के जन्म देखो धर्म सं. श्रा० अधि० २, श्लोक ४६- समय तक लगभग १२ लक्ष पूर्व अ. १४२ ]॥
धिक ३० लाखकोटि सागरोपम कालरहा॥ ___(२) इन की सभा में ९० गणधर,
(७)इनके तीर्थकालमें हमारे भरतक्षेत्र ३७५०पूर्वधारी,९४०० अवधिज्ञानी,१२४००
के आर्यखंड में यथार्थ धर्म की प्रवृति अअनुत्तरवादी, १२४५० विपुल मनःपर्यय खंड रूप रही और निरन्तर कैवल्य शानियों शानी,२०००० केवलज्ञानी,२०५००विक्रिया के उपदेश का लाभ मिलता रही ॥ ऋद्धिधारी, २१६०० सूत्राभ्यासी शिक्षक, () यह तीर्थकर अपने पूर्व भव एवं सर्व १ लाख और ६० यती थे; और अर्थात् पूर्व जन्म में जम्बू द्वीप के पूर्वयतियों के अतिरिक्त प्रहरजा ( फाल्गु ) विदेह क्षेत्र' में 'सीता नदी' के दक्षिण तट आदि ३ लाख २० सहन ( ३२००००) पर बसे हुए 'वत्स' नामक देश की 'सु . आर्यिका, ३ लक्ष प्रतिमाधारी ( प्रतिशा- सीमा' नाम की सुप्रसिद्ध नगरी के अधिधारी) श्रावक, ५ लाख श्राविका, एवम् पति 'विमल वाहन'नामक मांडलिक राजा सर्व ११ लाख २० सहस्र देशसंयमी थे जो सांसारिक भोगों से विरक्त हो, व्यक्ति थे॥
राज्य को त्याग, 'श्री अरिन्दम' आचार्य (३) इन के मुख्य गणधर 'सिंहसेन' थे
से मुनिदीक्षा ग्रहण कर, उग्र तपश्चरण जो मति, श्रु त, अवधि और मनःपर्यय,
करते हुए ११ अङ्ग के पाठी हो, १६ कारण इन चारों शान के धारक और द्वादशांग
भावनाओं से तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध पाठी श्रु तकेवली थे ॥
बांध, समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग ___ (४) इन के मुख्य श्रोता जो समय
'विजय' नामक अनुत्तर विमान में अहमेन्द्र शरण में मुख्य गणधर द्वारा अपने प्रश्नोंके
पद प्राप्त किया और ३३ सागरोपम की उत्तर श्रवण करते थे 'सगर' चक्रवर्ती थे ॥
आयु को निरन्तर अध्यात्म-चर्चा और (५) उपर्युक्त १ लक्ष यतियों में से आत्मानन्द में व्यतीत कर अयोध्या पुरी २० सहस्र ने तो श्री अजितनाथ के समवः |
में उपर्युक्त पवित्र राज वंश में अवतार ले शरण ही में, और ५७१०० ने अन्यान्य तीर्थङ्कर पद पाया॥ .
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