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________________ ( २२७). अट्ठाईसमोहनीय कर्मप्रकृति वृहत् जैन शब्दार्णव अट्ठाईसमोहनीयकर्मप्रकृति । (५) प्रत्याख्यान आवश्यक (६) कायोत्सर्ग | (१३-१६) संज्वलन क्रोध, मान, माया, आवश्यक। लोभ । ५. सप्तप्रकीर्णक--(१) केश-लुञ्च (२)/ (१७-२५) हास्य, रति, अरसि, शोक, आचेलक्य (३) अस्तान (४) भूमिशयन | भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नापुंसक(५) अदन्तघर्षण (६) स्थिति भोजन (७) घेद ॥ एक भक्त । ___ नोट--मोहनीय कर्म प्रकृति के भेदों नोट.--निर्ग्रन्थ मुनियों के उपयुक्त | में उपयुक्त भेदों ही से निम्न लिखित अनेक | २८ मूलगुणों के अतिरिक्त ८४ लाख उत्तर- | विकल्प हो सकते हैं :-- ... गुण हैं जिनका पालन यथाशक्ति सर्व ही जैन १. अभेद रष्टि से मोहनीयकर्म एक मुनि, करते हैं परन्तु इनकी पूर्णता १२वे | गुणस्थान के पश्चात् होती है जब कि वास्त- _____२. दर्शन-मोहनीय, और चारित्र-मो विक निर्ग्रन्थ पद पूर्णरूप से प्राप्त हो जाता | हनीय, यह मूल भेद ३ हैं। है । (देखो प्रन्थ 'स्थानांगार्णव' ) ३. दर्शन-मोहनीय, कषाय-वेदनीय (मू० २-३६,'१०२३) और अकषाय-वेदनीय, यह ३ भेद हैं ॥. ____४. दर्शनमोहनीय के उपयुक्त ३ भेद भट्ठाईस-मोहनीयकर्मप्रकृति और चारित्र मोहनीय, षह ४ भेद हैं। जीव को अपने स्वरूप से असावधान या ५. दर्शन-मोहनीय के उपर्युक ३ भेद अचेत करने वाले कर्म को 'मोहनीय कर्म' और चारित्र-मोहनीय के दो भेद, यह ५ कहते हैं जिसके मूल भेद दो और विशेष भेद हैं। भेद २८ निम्न प्रकार हैं :-- ६. दर्शन-मोहनीय, कपाय-घेदनीय १. दर्शन मोहनीयकर्म प्रकृति ३ -- क्रोध, मान, माया लोम, और भकाय थे। (१) मिथ्यात्व कर्मप्रकृित (२) सम्यमि- दनीय, यह ६. भेद हैं। थ्यात्व (मिश्र ) कर्म'प्रकृति (३) सम्यक्त्या या दर्शन-मोहनीय, कषायवेदनीय कर्म प्रकृति । अनन्तानुषन्धी आदि ४, और अकषाय२. चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृति २५-- वेदनीय, यह ६ भेद हैं कषाय घेदनीय १६ और अकषाय (नोक- ७. दर्शन-मोहनीय ३, कषायबेदनीय पाय ) बेदनीय ६, एवम २५ जिनका | ४ और अकषाय वेदनीय, यह ८ भेद हैं। विवरण यह है :-- ८. दर्शन-मोहनीय, पानवेदनीय ! (१-४) अनन्तानुवन्धो क्रोध, मानः | और अकषाय वेदनीय ६, यहः११ भेद हैं।। माया, लोमा ६. दर्शनमोहनीय ३, कषाय . वेदनीय, (५-८ अप्रत्याख्यानाधरणी क्रोध,मान, और अक्रषाय वेदनीय ९, यह १३ भेद हैं। माया, लोभ । १०. दर्शन-मोहनीय, कषाय वेदनीय , . (१-१२) प्रत्यास्थानाधरण कोष, और अकषाय. घेदनीय ६, यह १४ भेद हैं। मान, माया, लोभ । १९. दर्शनमोहनीय , कषायनीय . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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