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________________ ( २२६ ) "अट्ठाईस मतिज्ञानभेद वृहत् जैनशब्दार्णव अट्ठाईस मूलगुण एकविध, अक्षिप, निःसृत, उक्त, और अध्रुव, और व्यञ्जनावगूह ) दोनों प्रकारका मतिशान इन ६, एवम् १२ की अपेक्षा १२, या ४८,६०, | होता है। २८८ या ३३६ प्रकार का है ॥ __अतः प्राप्त या सम्बद्ध पदार्थ के : (देखो गन्ध 'स्थानागार्णव') | अवग्रह मतिज्ञानको 'व्यञ्जनावगृह मतिज्ञान' (गोजी० ३०५-३१३ ) कहते हैं और प्राप्त अप्राप्त या सम्बद्ध असम्बद्ध - नोट २-किसी पदार्थका अवगृह' नामक दोनों प्रकार के पदार्थों के अवगृह मतिज्ञान प्रतिज्ञान अब स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत्र, को 'अर्थावगृह मतिज्ञान' कहते हैं। इन चार इन्द्रियों द्वारा होता है तो वह ज्ञान (गो० जी० ३०६ ) प्रथम समय में अर्थात् अपनी पूर्व अवस्था अट्ठाईस मूलगुण (निन्थ मुनियों में अव्यक्तरूप और उत्तर अवस्था में व्यक्तरूप होता है। परन्तु वही ज्ञान अब चक्षु इन्द्रिय के )-मुनिव्रत सम्बन्धी अनेक नियमों और मन द्वारा होता है तो वह व्यक्त पदार्थ या गुणों में से २८ मुख्य गुण हैं जिन पर के विषय में व्यक्त रूप ही होता है। मुनिधर्म की नीव स्थिर की जाती है। अतः किसी पदार्थ के 'अव्यक्तावगृह | इन में से किसी एक की न्यूनता भी मुनि मतिज्ञान'को 'व्यञ्जनावग्रह मतिज्ञान' कहते धर्म को दुषित करती या भंग कर देती है। हैं और व्यक्तापगृह मतिशान को अर्थावगृह अर्थात् जिस प्रकार मूल विना वृक्ष स्थिर मतिक्षान' कहते हैं। नहीं रहता इसी प्रकार इन गुणों के बिना उपयुक्त परिभाषा से यह प्रकट है मुनि धर्म स्थिर नहीं रहता । इसीलिये कि व्यञ्जनायगृह केवल ४ ही इन्द्रियों द्वारा इन्हें मूलगुण कहते हैं। इनका विवरण होताहै। परन्तु अर्थाषगृह पांचों इन्द्रिय और निम्न लिखित है:छटे मन द्वारा भी होता है। १. पंचमहाव्रत (१)-अहिंसा-महानत नोट ३-चक्ष इन्द्रिय और मन, यह | (२) सत्य-महाव्रत (३) अचौर्य महाव्रत (४) | २ इन्द्रियां अप्राप्यकारी हैं, अर्थात् इन दो के ब्रह्मचर्य-महाव्रत (५) अपरिग्रह महाव्रत । द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह ____२. पंच समिति-(१) ईर्या समिति | इन दो इन्द्रियों से उस पदार्थ के असंबद्ध (२) भाषा समिति (३) एषणा समिति अर्थात् दूर रहते हुए ही होता है इसी लिये (४) आदाननिक्षेपण समिति (५) प्रतिष्ठाइन दो इन्द्रियों द्वारा केवल व्यक्तावगृह पना समिति। (अर्थावमूह ) ही होता है। ३. पंचेन्द्रिय निरोध-(१)स्पर्शनेन्द्रिय शेष ४ इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं, अर्थात् | निरोध (२) रसनेन्द्रिय निरोध (३) घ्राणेइन के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता | न्द्रिय निरोध (४) चक्षुरेन्द्रिय निरोध (५) है. वह इन इन्द्रियों के साथ उस पदार्थ के | श्रोत्रेन्द्रिय निरोध । सम्बद्ध अर्थात् अति निकट होने पर ही ४. षटावश्यक-(१) सामायिक आहोता है। इसी लिये इन चार इन्द्रियों द्वारा __घश्यक (२) चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक व्यक्तावगृह और अध्यक्तावगृह ( अवगृह (३) बन्दनावश्यक (४) प्रतिक्रमण आवश्यक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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