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________________ ( २२५ ) अट्ठाईस भाव वृहत् जैन शब्दार्णव ___अट्ठाईस मतिज्ञान भेद कषाय ४ (क्रोध, मान, माया, लोभ), (५०) अज्ञान, लिङ्ग ३.(पुरुष, स्त्रो, नपुंसक ), शुक्ल- ५. पारिणामिक भाघ ३--(५१) जीलेश्या १, असिद्धत्व १, अज्ञान १ ॥ घत्व (५२) भव्यत्व (५३) अभव्यत्व । (देखो। ४. पारिणामिकभाव २-जीवत्व, भ- प्र० स्थानांगार्णव')॥ व्यत्व॥ [गो० क० ८१३-८२२] (गोः क. गा. ८२२ की व्याख्या) | अट्राईस मतिज्ञान भेद-मतिमान के नोट-५३ भाव निम्न प्रकार हैं:- (१) व्यंजनावग्रह (२) अर्थावग्रह (३) १. औपशमिकभाव २-(१) उपशम. ईहा (४) अवाय (५) धारणा, यह ५. सम्यक्त्व (२)उपशम चारित्र, मूल भेद हैं । इन पांच में से पहिले प्रकार २. क्षायिकभाव ९-(३) क्षायिकज्ञान | का अर्थात् व्यञ्जनावग्रह मतिज्ञान तो (४) क्षायिकदर्शन (५) क्षायिकसम्यक्त्व स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र, इन ४.ही (६) क्षायिकचारित्र (७) क्षायिकदान (6) इन्द्रियों द्वारा होता है ।। अतः इस व्यक्षायिकलाभ (९) क्षायिकभोग (१०) जनावग्रह मतिज्ञान के भेद चारों इन्द्रिय क्षायिकउपभोग (११) क्षायिकीय, अपेक्षा चार हैं। और भावग्रह आदि ३. क्षायोपशमिक या मिश्रभाष१८- शेष चार प्रकार के मतिज्ञान में से प्रत्येक (१२) मतिज्ञान (१३) श्रु तज्ञान (१४) ।। मविज्ञान स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र अवधिज्ञान (१५) मनःपर्ययज्ञान (१६) और मन, इन छहों इन्द्रियों द्वारा होता है। चक्षदर्शन (१७) अचक्षदर्शन (१८) अतः इन चारों प्रकार के मतिज्ञान के भेद अवधिदर्शन (१६) कुमतिज्ञान (२०) छहों इन्द्रिय अपेक्षा ४४६=२४ भेद हैं। कुश्र तज्ञान (२१) कुअवधिज्ञान (२२) अर्थात् व्यञ्जनावग्रह मतिज्ञान के चार क्षायोपशमिकदान (२३) क्षायोपशमिक- भेद, और अर्थावग्रह आदि के २४ भेद, लाभ (२४) क्षायोपशमिक भोग(२५)क्षायो- एवं सर्व २८ भेद मतिज्ञान के हैं। ( पीछे पशमिकउपभोग (२६) क्षायोपशमिकीर्य देखो शब्द 'अक्षिप्र-मतिज्ञान', पृ०४२) (२७) वेदक अर्थात् क्षायोपशमिक सम्य-, | नोट१-मतिज्ञान अभेद दृष्टि से एक क्त्व (२८) सरागचारित्र (२६) देशसंयम, ही प्रकार का है। और भेद दृष्टि से अवग्रह, ४. औदयिकभाव २१--(३०) नरक- ईहा, अवाय, और धारणा की अपेक्षा चार गति (३१) तिर्यञ्च गति (३२) मनुष्यगति प्रकार का है। व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, (३३) देवगति (३४) पुंल्लिङ्ग (३५) स्त्रीलिङ्ग अवाय, और धारणा की अपेक्षा ५ प्रकार का (३६) नःपुंसकलिङ्ग (३७) क्रोधकषाय(३८) | है। पांच इन्द्रियों और छटे मन से अवग्रहादि मानकषाय (३६) मायाकषाय (४०) लोभ- | होने की अपेक्षा २४ प्रकार का है। व्यंजनाकषाय (४१) मिथ्यात्व (४२) कृष्णलेश्या वग्रह, अर्थावगूह, ईहा, अवाय, धारणा और (४३) नीळलेश्या (४४) कापोतलेश्या (४५) छहों इन्द्रियों की अपेक्षा उपयुक्त २८ प्रकार पांतलेश्या (४६) पद्मलेश्या (४७) शुक्ल- का है । बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, लेश्या (४८) असिद्धत्व (४६) असंयम अनुक्त, ध्रव, इन ६, और इनके विरुद्ध एक -- Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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