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________________ ( २२८ ) अट्ठाईसश्रेणीबद्धमुख्यबिल वृहत् जैन शब्दार्णव अट्ठाईसश्रेणीबद्धमुख्यबिळ और अकषायवेदनीय ६, यह १६ भेद हैं ।। दुःखा (४) महावेदा ॥ १२. दर्शनमोहनीय, कषायवेदनीय ४. अञ्जना नामक चतुर्थ नरक के १६ और अकषायवेदनीय, यह १८ भेद हैं। 'आरा' नामक प्रथम इन्द्रक की पूर्वादि - १३. दर्शन मोहनीय ३, कषायधेदनीय दिशाओं में कम से (१) निसृष्टा (२) १६ और अकषायवेदनीय, यह २० भेद हैं। निरोधा (३) अतिनिसृष्टा (४) महानि १४. दर्शन मोहनीय,कषायवेदनीय१६ रोधा॥ और अकषायवेदनीय है, यह ३६ भेद हैं। ____५. अरिष्टा नामक पञ्चम नरक के १५. दर्शन मोहनीय ३, कषोय वेद 'तमक' नामक प्रथम इन्द्रक की पूर्वादि नीय १६, और अकषायवेदनीय है, यह दिशाओं में कम से (१) निरुद्ध (२) विम२८ भेद । इत्यादि अन्यान्य अपेक्षाओं से दन (३) अतिनिरुद्ध (४) महाविमर्दन ॥ इसके और भी अनेक विकल्प हो सकते हैं ६. मघवी नामक षष्टम नरक के (देखो ग्रन्थ 'स्थानालार्णव')॥ 'हिमक' नामक प्रथम इन्द्रक की पूर्वादि भट्टाईस श्रेणीवद्ध मुख्यबिल (स- दिशाओं में क्रम से (6) नीला (२) पङ्का (३) त नरकों के)-सातो नरकों में से प्र- महानीला (४) महापङ्का ॥ त्येक नरक के सब से ऊपर के एक एक ___७. मोघवी नामक सप्तम नरक में इन्द्रकपिल की पूर्वादि चारों दिशाओं केवल एक ही इन्द्रक बिल 'अवधिस्थान' में जो कई कई श्रेणीबद्ध बिल हैं उन में या 'अप्रतिस्थान' नामक है। इसको पू. से उन इन्द्रकबिलों के निकट के जो चारों र्षादि दिशाओं में क्रम से (१) काल (२) दिशाओं के चार चार बिल हैं वही मुख्य रौरव (३) महाकाल (४) महारौरव, यह बिल हैं जो गणना में निम्न लिखित २८ चार ही श्रेणीबद्ध बिल हैं। नोट-प्रथम आदि सप्त नरकों में सर्व १. धर्मा नामक प्रथम नरक के 'सी. इन्द्रक बिल क्रम से १३, ११, ९, ७, ५, ३ • मन्त' नामक प्रथम इन्द्रक बिल की पूर्व. और १. एवम् सर्व ४६ हैं और श्रेणीबद्धबिल दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में म क्रम से ४४२०, २६८४, १४७६, ७००, २६०, क्रम से (१) कांक्षा (२) पिपासा (३) म.६०. और ४, एवम् सर्व १६०४ हैं । इनके अतिहाकांक्षा (४) महापिपासा ॥ | रिक्त आठों दिशाओं और विदिशाओं के - २. वंशा नामक द्वितीय नरक के | अन्तरकोणों में जो प्रकीर्णक बिल हैं उन की 'ततक' नामक प्रथम इन्द्रक को पूर्वादि | संख्या प्रथमादि नरकों में क्रम से २६६५५६७, . दिशाओं में क्रम से (१) अनिच्छा (२) २४६७३०५, १४६८५१५, ९९९२९३,२६६७३५, अविद्या (३) महाऽमिच्छा (४)महाऽविद्या। ९९९३२, ०, एवम् सर्व ८३९०३४७ है। इस ३. मेघा नामक तृतीय नरक के 'तप्त' | प्रकार लातो नरकों में ४६ इन्द्रकबिल, नामक प्रथम इन्द्रक की पूर्वादि दिशाओं ९६०४ आठों दिशा विदिशाओं के श्रेणीमें कम से (१) दुःखा (२) घेदा (३) महा- | बद्धबिल और ८३९०३४७ प्रकीर्णक बिल, - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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