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________________ ( ६७ ) जैन शब्दार्णव अग्निशिखा अग्निशिखा - [१] अग्निज्वाला, प्रज्व लितअग्नि का ऊपरी भाग [२] चारणऋद्धि के ८ भेदों में से एक का नाम । अग्निशिखा वारणऋद्धि-क्रियऋद्धिका एक उपभेद । क्रियऋद्धि के मूलभेद [१] चारणऋद्धि और [२] आकाशगामिनीऋद्धि, यह दो हैं । इनमें से पहिली चारणऋद्धि के [१] जलचारण [२] जंघाचारण [३] पुष्पचारण [४] फलचारण [५] पत्रचारण [६] लताचारण [७] तन्तुचारण और [८] अग्निशिखाचारण, यह आठ भेद हैं। इन आठ में से अष्टम 'अग्निशिखा-' चारणऋद्धि' वह ऋद्धि या. आत्मशक्ति है जो किसी किसी ऋषि मुनि में तपोबल से व्यक्त होजाती है जिसके प्रकट होने पर इस ऋद्धिके धारक ऋषि अग्नि की शिखा ऊपर स्वयम् को या अग्निकायिक जीवों को किसी प्रकार की बाधा पहुँचाये बिना गमन कर सकते हैं ॥ वृहत् (देखो शब्द "अक्षीणऋद्धि” का नोट २ ) । अग्निशिखी - भवनवासी देवोंके १० कुलों या भेदों में से "अग्निकुमार " कुल के जो दो इन्द्र अग्निशिखी और अग्निवाहन हैं उनमें से पहिला इन्द्र ॥ Jain Education International नोट- देखो शब्द "अग्निकुमार (२) " अग्निशिखेन्द्र - " अग्नि शिखी" नामक इन्द्र ॥ अग्निशुद्धि (अग्निशौच) – लौकिकशुद्धि के आठ भेदों (अष्ट शुद्धि) में से एक प्रकारकी शद्धि जो किसी अशुद्ध वस्तु को अग्नि संस्कार से अर्थात् अग्नि में तपाने आदि से मानी जाती है जिससे उस वस्तु में किसी अपवित्र मनुष्यादि के स्पर्श आदि से प्रविष्ट हुए अपवित्र परमाण अग्निषेण वाप्प के रूप में अलग हो जाते हैं ॥ नोट -- लौकिक अष्ट शुद्धि के नाम - ( २ ) कालशुद्धि ( २ ) अग्निशुद्धि (३) भस्मशुद्धि ( ४ ) मृत्तिकाशुद्धि ( ५ ) गोमयशुद्धि ( ६ ) जलशुद्धि ( ७ ) ज्ञानशुद्धि ( 5 ) अग्लानि शुद्धि ॥ अग्निशेखर - यह काशी देश के एक इक्ष्वाकुवंशी राजाथे। वाराणसी (बनारस) इनकी राजधानी थी । इनका समय १९ बें तीर्थकर "श्री मल्लिनाथ" का तीर्थ काल है जिसे आज से १२ लाख से कुछ अधिक वर्ष व्यतीत हो गये, अर्थात् यह राजा त्रेतायुग में रामावतार से कुछ वर्ष पूर्व हुए हैं जब कि मनुष्यों की आयु लगभग ३० या ३२ सहस्र वर्षों की होती थी ॥ सप्तम बलभद्र 'नन्दिमित्र' इन ही काशी नरेश की महारानी "केशवती" के गर्भ से और सप्तम नारायण 'दत्त' इनकी दूसरी महारानी 'अपराजिता' के उदरसे पैदा हुए थे । इन दोनों भाइयों प्रतिनारायण पदवी धारक अपने शत्रु "बलिन्द्र" को, जो उस समय का त्रिखंडी विद्याधर राजा था और जिसकी राजधानी 'बिजयार्द्ध' पर्वतकी दक्षिण श्र ेणी में 'मन्दार पुरी' थी, भारी युद्ध में मार कर स्वयम् त्रिखंडी (अर्द्ध चक्रवर्ती) राज्य - वैभव प्राप्त किया || (देखो ग्रन्थ " वृ०वि०च० " ) अग्निशौच - देखो शब्द “अग्निशुद्धि” ॥ अग्निषेण वर्त्तमान अवसर्पिणी में हुए . जम्बुद्वीप के ऐरावत क्षेत्रके तीसरे तीर्थंकर का नाम । ( अ० मा०-अग्गिसेण; आगे देखो शब्द " अढ़ाई - द्वीप-पाठ" के नोट ४ का कोष्ठ ३) ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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