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________________ In reORE अच्युत वृहत् जैन शब्दार्णव अच्युत रचना ऊपर ऊपरको एक दूसरे से असंख्यात | जो ४ युगल हैं उनमें प्रत्येक स्वर्ग का शासक महा योजन का अन्तराल छूट छूट कर है। एक एक इन्द्र होने से उन में ८ इन्द्र हैं जिस । जहां से इस युगल का आरम्भ है वहां ही से से १६ स्वर्गों के सर्व १२ ही इन्द्र हैं । अत: "ऊद्ध लोक" का प्रारम्भ है ॥ इन्द्रों की अपेक्षा स्वर्णा या कल्पों की। इसी प्रकार क्रम से दो दो स्वर्गों का संख्या केवल १२ ही है और इसी अपेक्षा से। एक एक गुगल एक दूसरे से ऊपर ऊपर है 'अच्युत स्वर्ग' १२ वाँ स्वर्ग या १२ ह्वाँ कल्प। और प्रत्येक युगल का पहिला पहिला स्वर्ग है ॥ दक्षिण की ओर का भाग है और दसरा दसरा नोट७-'अच्यत' स्वर्ग लम्बन्धी कुछ। स्वर्ग उत्तर की ओर का भाग है। अर्थात् | अन्यान्य ज्ञातव्य बातें निम्न लिखितं हैं:१, ३,५,७,९,११,१३,१५ संख्यक स्वगी की १. इस स्वर्ग के सर्व विमान जिन की रचना दक्षिण भाग का है और २, ४, ६,८, संख्या ६२ है शुक्ल वर्ण के हैं। १०, १२ १४, १६ संख्यक स्वर्गों की रचना २. इस स्वर्ग में बसने वाले सर्व ही उत्तर भाग की है। सौधर्म-ईशान आदि = | इन्द्रादिक देवों के भाव शुक्ललेश्या रूप हैं।। युगलों के क्रम से ३१, ७,४२, १, १, ३, ३, | ३. इस स्वर्ग के 'अच्युतावतंसक' एवम् सर्व ५२ पटल १६ स्वर्गों में हैं । प्रत्येक | नामक श्रेणीबद्ध विमान की पूर्वादि चार पटल के मध्य में एक एक इन्द्रक विमान है। दिशाओं में क्रम से रुचक, मन्दर, अशोक, अतः ५२ ही इन्द्रक विमान हैं। सप्तच्छद नामक विमान हैं नोट ६-पांच छटे अर्थात् ब्रह्म और ४. इस स्वर्ग के इन्द्रादिक देवों के ब्रह्मोत्तर इन दो स्वर्गो का एक ही इन्द्र | मुकट का चिन्ह कल्पवृक्ष है। . " ब्रह्म न्द्र'' है जिसका निवास स्थान दक्षिण | ५. इस स्वर्ग के इन्द्र का 'अमरावती' भाग में ब्रह्म स्वर्ग में है। सातवें अठवें नामक नगर २० सहस्र योजन लम्बा और इअर्थात् लोन्तव और कापिष्ट, इन दो स्वर्गो तना ही चौड़ा समचतुरस्र चौकोर है जिस के का भी एक ही इन्द्र 'कापिष्ठेन्द्र' है, जिसका प्राकार ( कोट या चार दीवारी ) की ऊचाई। निवास स्थान उत्तर दिशा की ओर 'कापिष्ट' | ८० योजन की, गाध (नीव) और चौड़ाई। स्वर्ग में है। नवें दसवें अर्थात् शुक्र और (आसार ) प्रत्येक अढ़ाई ( २०) योजन है ॥ महाशुक्र, इन दो स्वर्गों में भी एक नगर के प्राकार में जो गोपुर अर्थात् द्वार ही इन्द्र 'शुक्रन्द्र' है जिसका निवास स्थान या दरवाजे हैं उन की संख्या १०० है जिन में दक्षिण भाग में शुक्र स्वर्ग में है। से प्रत्येक की ऊँचाई १०० योजन (दीवार इसी प्रकार ग्यारह बारहे अर्थात् शतार और | की ऊँचाई से २० योजन अधिक) और। सहस्त्रार. इन दो स्वर्गों का इन्द्र भी एक ही चौड़ाई ३० योजन की है॥ 'सहस्रारेन्द्र' है जिस का निवास स्थान उत्तर ६. सर्व ही स्वर्गों के देवों के जो इन्द्र, भागमें 'सहस्रार स्वर्ग'में है। इस प्रकार ५वे । प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र या लोकपाल, त्रायस्त्रिंशत्, से बारह तक के ८ स्वर्गों के जो ४ युगल हैं | सामानिक, अङ्गरक्षक, पारिषत्, अनीक, प्र-- उनके शासक ४ इन्द्र हैं और शेष ८ स्वर्गों के | कीर्णक, आभियोग्य, कित्विषिक, यह १२ Em2 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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