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________________ अच्युत वृहत् जैन शब्दार्णव अच्युत भेद हैं इन में से इस सोल्हवे स्वर्ग में १ इन्द्र, | चारों ओर उस से १३ लात्र योजन के अन्तर १ प्रतीन्द्र, ४ लोकपाल (सोम, यम, वरुण, पर दूसरा कोट, दूसरे से ६३ लात्र योजन! कुवेर ), ३३ प्रायस्त्रिंशत्. २० सहस्त्र सामा- के अन्तर पर तीसरा कोट, तीसरे से ६४ निक, ८० सहस्र अङ्गरक्षक, २५० समित् ना- लाख योजन के अन्तर पर छौधा कोट मक अभ्यन्तर परिषद के पारिषत्, ५०० च- | और चौथे से ८४ लाख योजन के अन्तर पर न्द्रा नामक मध्य परिषद के पारिषत्. १००० पांववाँ कोट है। प्रथम अन्तराल में अङ्गरक्षक जतु नामक वाह्य परिषद के पारिषत् सात देव और सेनानायक बसते हैं। दूसरे अन्तप्रकार की अनीक (सेना) में से प्रत्येक के राल में तीनों प्रकार के परिषदों के पारिषत् प्रथम कक्ष में २० सहस्र और द्वितीय आदि देव और तीसरे अन्तराल में सामानिक देव सप्तम् कक्ष पर्यन्त प्रत्येक प्रकार की अनीक बसते हैं। चौथे अन्तराल में वृषभादि पर में आगे आगे को अपने अपने पूर्व के कक्ष | चढ़ने वाले आरोहक देव तथा आभियोग्य से दुगुण दुगुण संख्या; शेष प्रकीर्णक आदि ३ और कित्विषिक आदि देव यथायोग्य आकी संख्या असंख्यात है। वासों में बसते हैं । त्रि. गा० २२३-२२६, २२६, ? पांचवें कोट से ५० सहस्र योजन 1४६४, ४९५, ४६८ अन्तराल छोड़ कर पूर्वाद दिशाओं में क्रम ७. सात प्रकार की सेना (१) वृषभ से अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्रबन(२) अश्व (३) रथ (४) गज (५) पदाति ( प- खंड प्रत्येक १००० योजन लम्बे और ५०० यादे) (६) गन्धर्व और (७) नर्तकी है जिन में योजन चौड़े हैं। प्रत्येक बन में एक एक चैसे प्रत्येक के सात सात कक्ष (भाग या समूह) त्यवृक्ष जम्बद्वीप के जम्बूवृक्ष समान विस्तार एक से दूसरा, दूसरे से तीसरा, इत्यादि वाला है । दुगुण दुगुण संख्या युक्त हैं । यह वृषभादि इन बनखंडों से बहु योजन अन्तराल ! पशु जाति के नहीं हैं किन्तु इन इन जाति के देकर पूर्वादि दिशाओं में क्रम से सोम, यम, देवगण ही अपनी वैक्रियिक ऋद्धि की शक्ति | वरुण और कुधेर, इन लोकपालों के निवास से वृषभादि रूप आवश्यकता होने पर बन स्थान है। आग्नेय आदि चार विदिशाओं में जाते हैं। क्रम से कामा, कामिनी, पद्मगन्धा और अइन वृषभादि सात प्रकार की सेना लम्बूषा नामक गणिका महत्तरी देवाङ्गनाओं के नायक (सेनापति ) क्रम से (१) महादा- के निवास स्थान है ॥ मयष्टि (२) अमितिगति (३) रथमन्थन (४) (त्रि. ४६६, ५०६) पुष्पदन्त (५) सलघुपराक्रम (६) गीतरति, ६. इस स्वर्ग के 'इन्द्रादिक देवों के यह छह महत्तर (अध्यक्ष) और महासेना महलों की ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई कम नामक एक महत्तरी (अध्यक्षिणी ) हैं॥ से २५०, ५०, २५ योजन और देवांगनाओं ... (त्रि. ४६४, ४६७) के महलों की ऊँचाई आदि २००, ४०, २० ८. 'अमरावती' नामक राजधानी के योजन है॥ गिर्द जो उपयुक्त प्राकार (कोट ) है उसके । (त्रि० ५०७, ५०८) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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