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अच्युत
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बृहत् जैन शब्दार्णव
१०. इस स्वर्ग के इन्द्र की अग्र-देवियां आउ हैं जिनमें से प्रत्येक की परिवार देवियां अप्रदेवी सहित २५०, २५० हैं जिन में से इन्द्र की त्रुभिका देवियां ६३ हैं ॥
आठ अदेवियों के नाम - (१) श्रीमती (२) रामा (३) सुसीमा (४) प्रभावती (५) जयसेना (६) सुषेणा (७) वसुमित्रा (८) वसुन्धरा । (देवो शब्द 'अग्रदेवी' ) ॥ (त्रि० ५०६, ५११, ५१३ ) ॥ ११. इस स्वर्ग के इन्द्र की प्रत्येक अप्रदेवी अपनी वैक्रियिक शक्ति से मूल शरीर सहित अपने १०२४००० ( दशलाख २४ हज़ार ) शरीर बना सकती 11. (Foto 482) 11 १२. अमरावती नामक इन्द्रपुरी इन्द्र के रहने के महल से ईशान कोण की ओर को 'सुधर्मा' नामक आस्थान- मंडप अर्थात् 'सभास्थान' १०० योजन लम्बा, ५० योजन चौड़ा और ७५ योजन ऊँचा है ॥
(FSTO 484) 11 १३. सर्व देवांगनाएँ केवल प्रथम और द्वितीय स्वर्गौ ही में जन्म लेती हैं । अतः इस १६वें स्वर्ग की अग्र-देवी आदि देवियां भी यहां नहीं जन्मीं किन्तु यह दूसरे स्वर्ग 'ईशान' में जन्म लेती हैं जहां ४ लाख विमाम तो केवल देवियों ही के जन्म धारण करने के लिये हैं। शेष २४ लाख विमानों में देव और देवियां दोनों ही उत्पन्न होते हैं ॥
(त्रि० ५२४,५२५ ) ॥ १४. इस स्वर्ग के इग्द्रादिक देव और देवियों में काम- सेवन न तो परस्पर रमण क्रिया द्वारा है न शरीर स्पर्शन द्वारा है, न रूप देख कर है और न रसीले शब्द श्रवण | कर ही है किन्तु राग की मन्दता और इन्द्रिय
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भोगों की ओर बहुत अल्प रुचि होने से के वल मन की प्रसन्नता या मानसिक कल्पना ही से मन की तृप्ति हो जाती है।
(त्रि० ५२६ ) ॥ १५. इस स्वर्ग के इन्द्रादिक देवों की "अवधिज्ञान" शक्ति तथा गमनागमन की 'वैक्रियिक' शक्ति नीचे को तो अरिष्टा' नामक पाँचवें नरक की 'धूम-प्रमा' नामक पञ्चम पृथ्वी तक और ऊपर को निज स्वर्ग के ध्वजा दण्ड तक की है
(FOTO 420) 11
१६. इस स्वर्ग में उत्कृष्ट 'जन्मान्तर' तथा 'मरणान्तर' काल ४ मास है और उत्कृष्ट 'विरहकाल' इन्द्र, इन्द्र की अग्रदेवी (इन्द्राणी) और लोकपाल का तो ६ मास, और प्रायस्त्रिंशत, अङ्गरक्षक, सामानिक और पारिषत् भेद वाले देवों का ४ मास है ॥
(त्रि० ५२९, ५३० ) ॥
१७. इस स्वर्ग में इन्द्रादिक देवों के श्वासोच्छ्वास का अन्तराल काल अघन्य २० पक्ष और उत्कृष्ट २२ पक्ष है और आहार ग्रहण करने का अन्तराल काल जघन्य २० सहस्र वर्ष और उत्कृष्ट २२ सहस्र वर्ष है इन का आहार 'निजकंठामृत' है । ( आयु जघन्य २० सागरोपम काल और उत्कृष्ट २२ सागरोपम काल है ) ॥
( त्रि० ५४४ ) ॥
१८. इस स्वर्ग में प्रथम के ४ संहनन वाले केवल कर्मभूमि के कोई कोई सम्यग्दृष्टी मनुष्य या तिर्यञ्च ही आकर जन्म लेते हैं । काँजी आदि सूक्ष्म और अप ओडार लेते वाले अति मन्द कषाय युक्त सगोषी मनुष्य जो 'आजीवक' नाम से प्रसिद्ध हैं उनमें से भी कोई कोई इस स्बर्ग तक पहुँच सकते हैं ॥
( त्रि० ५४५ ) ॥
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