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________________ ( २१ ) समपण भगवन् ! यह संसार असार है। इसका कुछ बार है न पार है। इसमें निर्वाह करना असा. धारण कठिनाइयों को सहन करते हुए नाना प्रकार के स्पर्धायुक्त व्यवहारों की घुड़दौड़ में बाज़ी लगाना किसी साधारण बुद्धि का कार्य नहीं। जिसने अपने वास्तविक जीवनरहस्य को समझा और अपने आत्मबल से काम लिया वह मानों चारों पदार्थ पागया। सच पूछिये तो उसने बालू में से तेल निकाल लिया, गगनकुसुम को हस्तगत कर लिया और उसके लिये कुछ भी असंभव न रह गया । परन्तु यह कार्य कथन करने में जितनाही सरल और बोधगम्य है उतनाही कार्यरूप में परिणत होने पर कठिन तथा कष्टसाध्य सिद्ध होता है। इसके लिये तो आपके चरण कमल के संस्पर्श से पवित्र हुए मृदु-मन्द-मलयानिल के साथ गुंजार करने वाली मुनि भूमरावली के मधुर गुंजार का सहारा ही अपेक्षित है। अथवा आपके नखचन्द्र की अमल चन्द्रिका को प्राणपण से इकटक निहारने वाले चातका. चार्यों के बचनामृत ही एक अलौकिक जीवन का संचार कर सकते हैं। यही समझ कर इस अनुपम पंथ का पान्थ बना, और विविध शास्त्र-पारीण उन ऋषि मुनियों की लगाई अनेक वाटिकाओं में जो आपके . निगूढ़ तत्वों के विविध प्रकार के नयनाभिराम पुष्पों से पुष्पित हैं--अनवरत विहार करने को प्रयाण कर दिया। इसीके फल स्वरूप यह "वृहत् जमशब्दार्णव" प्रस्ततु है। इसमें . मेरा निज का कुछ नहीं है। ज्ञानका औचित्यपूर्ण विशद भंडार ती सनातन से एक रस और समभाव से प्रप्तारित है। इसीलिये मैं कैसे : कहूँ कि मैंने एक नवीन कृति लोगों के सन्मुख रखी है । मुझे यह कहने का अधिकार नहीं. फिर भी आपकी विशिष्ट सृष्टि पुष्पावली में से जो कुछ पत्र पुष्प एकत्रित करके एक साधारण सी डाली सजाई है वह आदर पूर्वक किन्तु संकोच से आपके पावन पाद-पद्मोंमें परम श्रद्धा तथा भक्ति के साथ चढ़ाने का साहस करता हूं। आप बीतराग हैं, आपके लिये इसकी कुछ भी आवश्यक्ता नहीं, परन्तु इस भक्त की ओर तनिक देखिये और उसके साथ नयन, प्रकम्पित शरीरऔर गद गद बाणीयुत साग्रह तथा सानुरोध प्रार्थनाहीकेनाते उसे अपनाइये । भगवन ! आपका पदार्थ आपको हीसमर्पित है। इसे आपहीअपने पवित्रहाथोसे अपने भक्तोंके सन्मुख उपस्थितकीजिये। ॥ इति ॥ - 146 आपके चरणों का एक तुच्छ । भक्त घो० यल० जैन, चैतन्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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