________________
। १० ) अजितसेन चकी वृहत् जैन शब्दार्णव
অসিন। यह भारी सम्पत्ति के साथ अपने नगर अजितसेन-भट्टारक-कनड़ी भाषा 'कौशलापुरी' को वापिस आया तभी
के चामुण्डरोय पुराण ( त्रिषष्टि लक्षणमहान् पुण्योदय से आयुधशाला में इसे
महापुराण ) की संस्कृत-कनड़ीमिश्रित 'चक्ररत्न' को लाभ हुआ।
टीका के रचयिता एक भट्टारक (दि. ___ पश्चात् अजितसेन ने जब दिग्विजय |
ग्र०५)॥ द्वारा भरतक्षेत्र के छहों खंडों को अपने
अजितसेना-कोशलापुरी-नरेश 'अजितं. अधिकार में ले लिया तो यह १४ रत्न और नवनिधि आदि विभूति का स्वामी होकर
जय' की रानी और अजितसेनचक्री की ३२ सहस्र मुकुटबन्ध राजाओं का स्वामी
मोता। पूर्ण चक्रवर्ती राजा होगया ।
(देवो शब्द 'अजितसेनचक्री' ) ॥ कुछ दिन राज्यवैभव भोगकर 'श्री अजिता-(१) गान्धार नरेश 'अजितञ्जय' गणप्रभ' नामक मुनिराज से अजितसेन ने
की रानी और श्री शान्तिनाथ तीर्थकर की दिगम्वरी दीक्षा ग्रहण की । उग्रोप्र तपश्च
नानी ।। रण कर समाश्मिरण पूर्वक शरीर त्यागने (२) चौबीस तीर्थङ्करों की.मुख्य उपा पर १६ वें स्वर्ग में 'अच्युतेन्द्र' पद प्राप्त सिका जो चौबीस शासन देवियां हैं उनमें किया जहां की २२ सागरोपम की आयु | से दूसरी का नाम । इसका नाम 'अजितपूर्ण करके तीसरे जन्म में रत्न संचयपुर- | । बला' भी है। नरेश 'कनकप्रभ' कापुत्र 'पद्मनाम' हुआ। ___नोट१-२४ शासन देवयां २४ तीर्थङ्करों
पद्मनाभ के भव में राज्य विभव भोगने की भत क्रम से निम्न प्रकार हैं:के पश्चात् उसने उग्रोग्र तपश्चरण करते अप्रतिहत चक्रेश्वरी, २. अजिता, ३. हुए षोडशकारण भावनाओं द्वारा तीर्थङ्कर- नम्रा,४.दुरितारि..मोहिनी.७.मानवा,म.ज्वानामकर्म का महान पुण्यबन्ध किया और लामालिनी, भृकुटी,१०.चामुंडा,११.गोमेधआयु के अन्त में समाधिमरण पूर्वक शरीर का,१२.विद्युन्मालिनी,१३.घिद्या, १४.कंभिणि, त्याग पंच-अनुत्तर विमानों में से धैजयन्त' | १५. परभृता, १६. कन्दर्पा, १७. गान्धारिणी, नामक विमान में चौथे भव में अहमिन्द्र | १८. काली, १६. मनजात, २० सुगन्धिनी, पद पाया ॥
२१. कुसुममालिनी. २२. कुमांडिनी, २३. __ तत्पश्चात् उसने अहमिन्द्र पद के महान पद्मावती, २४. सिद्धायिनी । ( प्रतिष्टा० सुखों को ३३ सागरोपमकाल तक भोग | अ० ३ श्लोक १५४-१७९ ) ॥ कर और पांचवें जन्म में चन्द्रपुरी के इक्ष्वा- | .
___ (३) पूर्वादि चार दिशा और कुषंशी राजा 'महासेन' की पटरानी 'लक्ष्मणादेवी' के गर्भ से श्री चन्द्रप्रभ' नामक
आग्नेयादि चार विदिशा सम्बन्धी अष्टम तीर्थकर होकर निर्वाण पद पाया।
देवियों में से पश्चिम दिशा सम्बन्धी एक ( देखो शब्द 'चन्द्रप्रभ' और 'प्र० पृ०
देवी का नाम । वि०च०')॥
नोट-२. पूर्वादि चार दिशाओं और (चन्द्र प्रभ चरित्र) आग्नेयादि चार विदिशाओं सम्बन्धी देखियो ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org