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________________ वृहत् जैन शब्दार्णव अइलक ललाट, कण्ठ इत्यादि शब्दों का बोधक ___अर्थ--- जो चित्त लगाकर आनन्द से 'अ' यह 'अ' अक्षर है॥ अक्षर का पाँचसौ ( ५०० ) बार जप करता नोट--- 'अ' अक्षर वास्तव में तो अर्हन्त,' है वह एक उपवास के निर्जरा रूप फल को प्राप्त होता है। अशरीर, अजर, अमर, अखंड, अभय, अबन्ध, अमल, अक्षय, अनन्त, अधिपति एतद्धि कथितं शास्त्र, रुचिमात्र प्रसाधकम् । आदि शब्दों का प्रथम या आदि अक्षर किन्त्वमीषांफलंसम्यक् स्वर्गमोक्षकलक्षणम्५४ होने के कारण केवल इन ही शब्दों का अर्थ-यह जो शास्त्रों में जप का एक उपसांकेतिक अक्षर है, परन्तु यह शब्द जिन जिन वास रूप फल कहा है सो केवल मंत्र जपने अन्य अनेक शब्दों के पर्यायवाची हैं प्रायः की रुचि कराने के लिए है। किन्तु वास्तव उन सर्व ही के लिये 'अ'अक्षर का यथा में उसका फल स्वर्ग और मोक्ष ही है। आवश्यक प्रयोग किया जाता है । (आगेदेखो श. “अक्षरमातृका" और उस | (४) पर्गय----प्रणवाद्य अर्थात् ॐकार | का नोट)॥ .. काआदि अक्षर,वागीश, अक्षराधिप, आद्य | इरा (ऐरा, अचिरा )--श्री शान्तिनाथ क्षर, प्रथमाक्षर आदि शब्द 'अ' अक्षर के तीर्थकर की माता का नाम । (आगे देखो पर्यायवाची हैं । श. "ऐरा")। (५) मंत्र--"अ" अक्षर प्रणव ॐ ) की समान एकाक्षरी मंत्र भी है जिसका जपना | आइजक ( अईलक, अहिलक, ऐलक, पूर्वाचार्योंने ध्यानकी सिद्धि और स्वर्ग मोक्ष | ऐलुक)--सर्वोत्कृष्ट श्रावक अर्थात् सर्व से के साधन कलिये बड़ा उपयोगी बताया है। ऊँचे दर्जे की धर्मात्मा गृहस्थी। किसी किसी आचार्य का मत है कि मन 'उद्दिष्ट-त्याग' नामक १६वीं प्रतिमाधारी को वशीभूत करने के लिए मुमुक्षु को अपने (प्रतिज्ञाधारी, कक्षारूढ़) श्रावक के 'क्षुल्लक' अभ्यास की पूर्वावस्था में अरहन्तादि पञ्च और अइलक' इन दो भेदों में से यह द्वितीय परमेष्ठी वाचक, प्रणव (ॐ ) का जाप न भेदह । इसे द्वितीयोद्दिष्ट-विरतधारीश्रावक करकं पहिले प्रणवाद्य अर्थात् 'अ' अक्षर ही भी कहते हैं और दोनोप्रकार के रवींप्रतिमा का जाप और ध्यान विधि पूर्वक करना (प्रतिशा या कक्षा) धारी श्रावकों को 'अपचाहिये । इस मंत्रकी उपयोगिता का मह व वाद लिङ्गी, या बानप्रस्थ आश्रम' तथा श्री शुभचन्द्राचार्य'अपने "ज्ञानार्णव' ग्रन्थ उद्दिष्टत्यागी-श्रावक, उदिष्ट वर्जी श्रावक, में पदस्थ ध्यान सम्बन्धी ३८ वें प्रकरण के उहिष्ट विनिवृत-श्रावक, उद्दिष्ट विरतनिम्न श्लोकों द्वारा प्रदर्शित करते हैं:-प्रावणेश्य श्रावक,त्यक्तोद्दिष्ट श्रावक,उद्दिष्टाहारविरत'-अवर्षस्य सहस्राद्ध, जपानन्द संभृतः । श्रावक,उद्दिष्टपिंडविरत-श्रावक, एक वस्त्रप्राप्नोत्येकोपाधासस्य,निर्जरांनिर्जिताशयः५३ | धारी या एक शाटक पारी श्रावक, खंड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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