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________________ ( 80 ) सकता है। अङ्कगणना कलम वृहत् जैन शब्दार्णव अङ्कगणना अर्बुद, ६ कोटि,९९सहस्र और ९९९ “शंख"; | का भाग देने अथवा एक को एक में गुणन REE परार्द्ध, ९९ पन्न, ६8 नियल, ६६ खर्व, | करने से कुछ भी हानि वृद्धि नहीं होती। ६६ अर्बुद, ९९ कोटि, ९९ लक्ष, ६० सहस्र | इस लिये अलौकिकगणना में संख्या का भौर ४६९॥ प्रारम्भ २ के अङ्क से ग्रहण किया जाता इस रीति से सर्व प्रकार की छोटी बड़ी | है । और १ के अङ्क को गणना शब्द का संख्याओं या उत्संख्याओं को गिना पढ़ा जा वावक माना जाता है। इस लिये जघन्य संख्यात का अङ्क २ है॥ इस प्रकार “लौकिकअङ्कगणना" तो । (२) मध्यमसंख्यात–३, ४, ५, ६७, यथाआवश्यक अनेक प्रकार की कुछ नि- ८.६, १०, ११ इत्यादि एक कम उत्कृष्ट यत स्थानों तक रची गई है । परन्तु दूसरी संख्यात पर्यंत ॥ "लोकोत्तरअङ्कगणना" दो से अनन्तानन्त (३) उत्कृष्टसंख्यात-जघन्यपरीतातक अनन्तानन्त अङ्क प्रमाण है। | संख्यात से एक कम ॥ इस "लोकोत्तरअङ्कगणना'' के निम्न | (४) जघन्यपरीतासंख्यात-यद्यपि लिखित २१ विभाग है: यह संख्या इतनी अधिक बड़ी है कि इसे [१] संख्यात ३ भेद-१जघन्यसंख्यात, | अङ्कों द्वारा लिख कर बताना तो नितान्त २मध्यसंख्यात, ३उत्कृष्टसंख्यात; अशक्य है ( केवल अनेन्द्रिय ज्ञानगम्य है) 27 असंख्यात ९भेद-४जघन्यपरीतासं-| परन्तु तो भी इसका परिमाण हृदयाङ्कित ख्यात, ५मध्यपरीतासंख्यात, उत्कृष्ट करने के लिये गणधरादि महाऋषियों परीतासंख्यात, जघन्ययुक्तासंख्यात, | ने जो एक कल्पित उपाय बताया है वह ८मध्ययुक्तासंख्यात, ९उत्कृष्टयुक्तासं- निम्न लिखित है जिसे भले प्रकार समझ ख्यात, १०जघन्यअसंख्यातासंख्यात, | कर हृदयाङ्कित कर लेने से अलौकिक ११मध्यअसंख्यातासंख्यात, १२उत्कृष्ट- | अङ्कगणना के शेष २० भेदों या विभागों असंख्यातासंख्यात; को समझ लेना सुगम है:-- [३] अनन्त ६ भेद-१३जघन्यपरीतानन्त, कल्पना कीजियेकि (१)अन १४मध्यपरीतानन्त, १५उत्कृष्टपरीतानन्त, वस्था (२) शलाका (३)प्रति१६जघन्ययुक्तानन्त, १७मध्ययुक्तानन्त, शलाका और (४) महा१८उत्कृष्टयुक्तानन्त, १६जघन्यअनन्ता शलाका नाम के चार गोल कुंड हैं नन्त, २०मध्यअनन्तानन्त, २१उत्कृष्ट जिन में से प्रत्येक का व्यास ( गोल अनन्तानन्त॥ वस्तु की एक तट से दूसरे तट तक नोट १-लोकोत्तरअङ्कगणना के इन की लम्बाई या चौड़ाई ) एक लक्षजघन्यसंख्यात आदि २१ विभागों या भेदों महायोजन (४ कोश का १ योजन का स्वरूप निम्न प्रकार है: और ५०० योजन या २००० क्रोश (१) जघन्यसंख्यात-एक में एक का प्रमाण योजन या महायोजन), Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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