SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२५ ) वृहत् जैन शब्दार्णव अङ्गप्रविष्ट श्रमान उपस्थित है, अतः वह कथञ्चित् 'अस्तिक है, इसी प्रकार नास्तिपमा और अचकव्यपना, यह दोनों धर्म भी युगपत् स में विद्यमान है, अतः वह कथञ्चित् 'नास्ति अवतव्य' है; इसी रीति से जीवद्रव्य में अस्तिपना, नास्विपना और अवकव्यपना, यह तीनों धर्म, अथवा अस्तिनास्तिपना और अवक्तव्यपना, यह दोनों धर्म सापेक्ष पत् पाये जाते हैं, इस लिये वह सवचित् "अस्ति नास्ति अवतव्य" भी है ॥ अथवा अन्तिम तीन अंग निम्न लिखित अपेक्षाथों से भी कहे जा सकते Jain Education International अप्रविष्ट तज्ञान अनेकानेक भेदों में से प्रत्येक के यथार्थ स्वरूप का विरोधरहित निरूपण है | ५. ज्ञानप्रवादपूर्व -- यह पूर्व ६६६६६६६ ( एक कम करोड़ ) मध्यमपदों में है । इस मैं मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, और कै बल्य इन पांच भेद रूप यथार्थ या प्रामाण्यज्ञान, और कुमति, कुत और कुअवधि ( विभंगा ), इन तीन मिथ्या या अप्रामाप्यज्ञान, और इन आठोंमें से प्रत्येक के अनेकानेक भेदोपभेदों के स्वरूप, संख्या, विषय और फल आदि का न्यायपद्धति से पूर्ण रूप वर्णन है । ६. सत्यप्रवादपूर्व -- यह पूर्व १००००००६ (छह अधिक करोड़ ) मध्यमपदों में है । इस में बच्चन संस्कार के २ कारण, शब्दोच्चारण के ८ स्थान, ५ प्रयत्न, २ बच्चन प्रयोग, १२ प्रकार भाषा, ४ वचन भेद, १० प्रकार सत्य वचन, ४ प्रकार तथा अनेक प्रकार असत्य वचन, ६ प्रकार अनुभयवचन, वचनगुप्ति, मौन, इत्यादि के लक्षण स्वरूपादि का सविस्तार निरूपण है ॥ नोट-बचन संस्कार के दो कारण जब में स्ति और नास्ति यह दोनों धर्मवद्यपि सापेक्ष युगपत् उपस्थित है तथापि द्वारा युगपत् नहीं कहे जा सकते, कम से ही कहने में आ सकते हैं इस लिये कथंचित् नास्ति वक्तव्य होने के (जीवद्रव्य) कथञ्चित् "अस्तिव्य" है और अस्तिवतव्य होने के समय कहि "नास्तिअवक्तव्य" है, (१) स्थान (२) प्रयत्न || दोनों धर्म परस्पर विरोधी होने से इन्हें युगपत् कहना अगोपर है, अतः जीव कथञ्चित् "अतिनास्तिअवकय" है ॥ इसी प्रकार एक अनेक, एकानेक, अवध, फाक्तव्य, अनेकवक्तव्य, और एकावेळावकल्य, यह सोत भंग हैं; ऐसे ही नित्य, अधिक नित्यानित्य, अबपाव्य, दिवाकय्य, अनिस्यावकव्य और नित्यादित्यापसव्य यह लात भंग, इत्यादि अनेकानेक प्रकार से जीवादि द्रव्यों और प्रत्येक शब्दोच्चारण के ८ स्थान -- (१) हृदय (२) कण्ठ (३) मस्तक (४) जिल्हा का मूल (५) दन्त (६) तालु (७) नासिका (=) ओष्ठ ॥ शब्दोच्चारण के ५ प्रयत्न - (१) स्पृष्टतो (२) ईषत्स्पृष्टता (३) विवृतता (४) ईषद्विवृतता (५) संवृतता ॥ बचन प्रयोग २ -- ( १ ) शिष्ट प्रयोग (२) दुष्टप्रयोग || भाषा १२ प्रकार -- (१) अभ्याख्यानी (२) क्षा से किये गये | कलहकारिणी ( ३ ) पैशून्य (४) असम्बद्ध या For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy