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________________ ( २०० ) वृहत् जैन शब्दार्णव अजीवगत हिंसा दूसरा ( विलोम) उदाहरण - 'संज्वलन-मायावश-अनुमोदित वाचनिक-संरम्भजन्य हिंसा', यह नाम जीवगत हिंसा के ४३२ भेदों में से केथवां भेद है ? उत्तर प्रथम प्रस्तार की सहायता से—इस ज्ञात नाम के पांचों अङ्गरूप शब्दों ( अक्षों ) को प्रथम प्रस्तार में देखने से संज्वलन के कोष्ठक में ३२४, मायावश के कोष्ठक में ५४, अनुमोदित के कोष्ठक में १८, वाचनिक के कोष्ठक में ३. संरम्भजन्य हिंसा के कोष्ठक में १, यह अङ्क मिले। इनका जोड़फल ४०० है । अतः ज्ञात नाम ४०० वां भेद है । उत्तर द्वितीय प्रस्तार की सहायता से ज्ञात नाम के चारों अङ्गरूप शब्दों (अक्षों) को दूसरे प्रस्तार में देखने से 'संज्वलनमायावश' के कोष्ठ में ३७८, 'अनुमोदित' के कोष्ठ में १८, वाचनिक के कोष्ठ में ३, और संरम्भजन्य हिंसा के कोष्ठ में १, यह अङ्क मिले। इन का जोड़फल ४०० है । अतः जीबगत हिंसा का ज्ञात नाम ४०० वां भेद ४३२ भेदों में से है ॥ नोट ९ - इसी प्रकार शील गुण के १८००० भेदों, ब्रह्मचर्यव्रत के १८००० वर्जित दोषों या कुशीलों या व्यभिचारों, प्रमाद के ३७५०० भेदों या महाव्रती मुनियोंके ८४ लाख उत्तर गुणों में से प्रत्येक का या यथा इच्छा चाहे जेय भेद का नाम भी ऐसे ही अलग अलग प्रस्तार बनाकर बड़ी सुगमता जाना जा सकता है। ( आगे देखो शब्द 'अठारह सहस्र मैथुन कर्म' और 'अठारह सहस्र शील' नोटों सहित ) ॥ नोट १० - उपर्युक्त प्रक्रिया सम्बंन्धी निम्न लिखित कुछ पारिभाषिक शब्द हैं Jain Education International अजवगत हिस जिन का जानना और समझ लेना भी इस प्रक्रिया में विशेष उपयोगी हैः के १. पिंड - किसी द्रव्य, पदार्थ या गुण मूल भेदों के समूह को तथा विशेष भेद उत्पन्न कराने वाले भेदों के प्रत्येक समूह को पिंड कहते हैं । इन में से मूल भेदों का समूह प्रथम पिंड है, दूसरा समूह द्वितीय पिंड है, तीसरा समूह तृतीय पिंड है, इत्यादि । जैसे जीवगत हिंसा के उपर्युक्त १०८ या ४३२ भेदों में मूल भेद संरम्भ आदि तीन हैं; यह प्रथम पिंड है ! आगे विशेष भेद उत्पन्न कराने वाले मानसिक आदि तीन त्रियोग हैं; यह द्वितीय पिंड है । आगे स्वकृत आदि तीन त्रिकरण हैं; यह तृतीय पिंड है । आगे क्रोध आदि ४ कषायचतुष्क हैं, यह चतुर्थ पिंड़ है ( अथवा अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि १६ कषाय, यह चतुर्थ पिंड है ) । और संञ्चलन आदि चतुष्क, यह पञ्चम पिंड है। २. अनङ्कित स्थान - कोई पिंड जिन भेदों या अवयवों का समूह है उनमें से किसी ग्रहंत भेद से अगले सर्व भेद 'अनङ्कित स्थान' कहलाते हैं ॥ ३. श्रात्ताप - सर्व भेदों में से प्रत्येक भेद को आलाप कहते हैं । ४. भङ्ग - आलाप ही का नाम भंग है। ५. अक्ष-आलाप के प्रत्येक अङ्ग को 'अक्ष' कहते हैं । पिंड के प्रत्येक अवयव को भी 'अक्ष' कहते हैं । ६. संख्या -- प्रस्तार के कोष्ठकों में जो प्रत्येक 'अक्ष' के साथ अङ्क लिखे जाते हैं। संख्या हैं या आलापों के भेदों की गणना को संख्या कहते हैं ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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