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वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्निकुमार
हैं । इन में से शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न उन शरीराङ्गों को, जिनके द्वारा आत्मा को शीत, उष्ण, कोमल, कठिन आदि का स्पर्शयोग्य विषयों का ज्ञान हो, " स्पर्शन इन्द्रिय" कहते हैं ॥
नोट ६-- जिन धर्मोके द्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक प्रकारकी जाति जानी जाय उन्हें अनेक पदार्थों का संग्रह करने वाला होने से "जीव समास" कहते हैं !
नोट ७ - जीवों के शरीर की उत्पत्ति के आधार को "योति” कहते हैं ।
नोट -- अलगर शरीर की उत्पत्ति के कारणभूत नोकर्म वर्गणा के भेदों को “कुल' कहते हैं ॥
मो० जी० गा० ७०, ७४, =४, १४५, १६३, १७४, १८०, ...
· अग्निकुमार - ( १ ) एक क्षुधावर्द्धक औधि; महादेवजी के ज्येष्ठ पुत्र " कार्त्तिकेय " का दूसरा नाम; भवनवासी देवों के १० भेों या कुलों में से एक कुल का नाम ॥ (२) भवनवासी देवों के “अग्निकुमार" नामक कुल में 'अग्निशिखी' और 'अग्निवाहन' नामक दो इन्द्र और इनमें से हरेक के एक एक प्रतीन्द्र हैं । इन के मुकुटों, ध्वजाओं और चैत्यवृक्षों में 'कलश' का चिन्ह है । इनका चैत्यवृक्ष 'पलाश वृक्ष' है जिसके मूल भाग प्रत्येक दिशा में पाँच २ चैत्य अर्थात् दिगम्बर प्रतिमाएँ पर्यकासन स्थित हैं। हर प्रतिमा के सामने एक एक मानस्तम्भ है जिन के उपरिम भाग ७ प्रतिमाएँ हैं । उपर्युक्त दो इन्द्रों में से प्रथम दक्षिणेन्द्र है और दूसरा रा उत्तरेन्द्र है। प्रथम के ४० लक्ष और द्वितीय के ३६लक्ष भुवन हैं । यह भुवन रत्न - पृथ्वी के भाग में चित्राभूमि से
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अग्निगुप्त
बहुत नीचे हैं । हर भवन के मध्य भाग में एक एक पर्वत और हर पर्वत पर एक एक अकृत्रिम चैत्यालय है । आयु दक्षिणेन्द्र की डेढ़ पल्योयम, उत्तरेन्द्रकी कुछ अधिक डेढ़ पल्योयम, इन की देवांगनाओं की ३ कोड़ि वर्ष और अन्य अग्निकुमार कुल के देवोंकी उत्कृष्ट आयु १॥ पल्योपम ओर जघन्य ५० सहस्र वर्ष है। देवांगनाओं की उत्कृष्ट आयु तीन कोटि वर्ष और जघन्य १ सहस्र वर्ष है। अग्निकुमार देवों की शरीर की ऊंचाई १० धनुष अर्थात् ४० हाथ की है । इनका श्वासोश्वास ७ | मुहूर्त्त अर्थात् १५ घटिका (घड़ी) के अन्तर से और कंठामृत आहार साढ़ेसात दिनके अन्तर से होता है ।
अग्निगति - प्रज्ञप्ति, रोहिणी आदि अनेक दिव्य विद्याओं में से एकका नाम । (देखो शब्द "अच्युता" का नोट १ ) । अग्निगुप्त - श्रीऋषभदेव (प्रथम तीर्थङ्कर) के ८४ गणधरों या गणेशों में से १४ व गणधर का नाम । यह महामुनि कई सौ मुनियों के नायक ऋद्धिधारी ऋषी थे । इन्होंने श्रीऋषभदेव के निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् उग्रोग्र तपश्चरण के बल से कैवल्यज्ञान - निरावरण अनेन्द्रिय अनन्तज्ञान प्राप्त किया और निर्वाण पद पाया ॥
नोट- श्री ऋषभदेव के ८४ गणधरोंके नाम (१) वृषभसेन ( २ ) ढढरथ ( ३ ) सत्यम्बर ( ४ ) देवशर्मा ( ५ ) भावदेव ( ६ ) नन्दन (७) सोमदत्त ( ८ ) सुरदत्त ( ६ ) वायु (१०) शर्मा ( ११ ) यशोवा हु ( १२ ) देवानि ( १३ ) अग्निदेव (१४) अग्निगुप्त (१५) अग्निमित्र (१६) महीधर ( १७ ) महेन्द्र ( १८ )वसुदेव ( १९ ) वसुन्धरा ( २० ) अचल ( २१) मेरु (२२) मेरुधन ( २३ ) मेरुभूति ( २४ )
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