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________________ ( २५१ ) अठारह सहस्र शील वृहत् जैन शब्दार्णध अठासी ग्रह (१०) पंचेन्द्रिय प्राणिसंयम नोट २-'अठारहसहस्त्र-मैथुनकर्म' शीलके उपरोक्त १० मूल भेद अर्थात् के प्रस्तार के समान इन १८००० शील के. दशलक्षण धर्म इन १० प्रकार के प्राणि भेदों को प्रस्तार भी बनाया जा सकता है! संयम में से प्रत्येक के साथ पालन किये और प्रत्येक भेद का नाम अथवा नष्ट उद्दिष्ट जाने से शील के १० गुणित १० = १०० लाया जा सकता है । ( पीछे देखी पृ० २५० भेद हैं। और शब्द 'अठारह सहस्र मैथनकर्म' को ३. इन्द्रिय संयम ५.-(१)स्पर्शनेन्द्रिय नोट १, पृ० २४७)॥ संयम (३) रसनेन्द्रियसंयम (३) घ्राणेन्द्रिय | ज्ञा० प्र० ११ श्लोक ७,८,९,३१७ अनगार० अ०४.श्लोक ६१, ६६, । संयम ( ४ ) नेन्द्रिय संयम (५) थोत्र भग. गा०.८७८,८७९.८८०; न्द्रिय संयम। ( गृ० अ० ९३ श्रा० पृ० २०४ ) ___ उपरोक्त १०० प्रकार का शील प्रत्येक अठारह स्थान-(१) वैराग्योत्पादक १% इन्द्रिय संयम के साथ पालन करने से विचार स्थान । प्रमावश कोई आकुलना शोल के ५०० भेद हैं। . या चित्त विकार उत्पन्न होने पर संयम ४. संज्ञा ४-(१) आहार ( २) भय में दृढ़ता रखने और मन स्थिर रखने के (३) मैथन ( ४ ) परिग्रह। लिये साधुओं को विचारने योग्य १८ . उपर्युक्त ५०० प्रकार का शील इन स्थान हैं । ( अ० मा०)॥ ४ संज्ञाओं में से प्रत्येक से विरक रह कर (२) दोषोत्पादक १८ पापस्थान । शुद्ध पालन किये जाने से शील के २००० भेद विचार से गिराने वाले और जीवन को बिगाड़ने वाले प्राणातिपात आदि दोषो५. गुप्ति ३--(१) मनोगुप्ति (२) त्पादक १८ पापस्थान हैं। (अ० मा० बचनगुप्ति (३) कायगुप्ति । 'अट्ठारसठाण' ) ॥ (पीछे देखो शब्द अथवा करण ३-(१)मनकरण (२) 'अठारह पाप', पृ० २४५)॥ बचकरण (३) काय करण । अठासीगह-(१) कालविकाल (६) उपरोक्त २००० प्रकार का शील मनो. लोहित ( ३ ) कनक (४) कनकसंस्थान गुप्ति आदि ३ गुप्ति सहित अर्थात् मन . (५) अन्तरद(६) कचयव (७) दु'दुभि करण आदि ३ करण रहित, पालन कियो । (८) रत्ननिभ (६) रूपनिर्भास (१०) जाने से शील के ६००० भेद हैं जिनके स्व- | नील (११) नीलाभास (१२) अश्व (१३) कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा किये जाने अश्वस्थान (१४) कोश (१५) कंसवर्ण से १८००० भेद हो जाते हैं। (१६) कंस (१७) शंङ्खपरिमोण (१८) __नोट १--किसी. किसी गून्थकार ने शङ्खवर्ण (१६) उदय (३०) पंचवर्ण कृत, कारित, अनुमोदना, इन तीन के स्थान ( २१ ) तिल (२२) तिलपुच्छ (२३) में उपरोक्त ३ गुप्ति और ३ करण को अलग क्षारराशि (२४) धूमू (२५) धूम्रकेतु अलग गिना कर शील के..८००० भेद दि- (२६) एक संस्थान (२७) अक्ष (२६) खाये हैं। कलेवर (२६) विकट (३०) अभिन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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