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________________ ( ७५ ) अग्राह्यवर्गणा वृहत् जैन शब्दार्णव अगोदक चार्य ने भी पहिले तो प्रथम श्र तस्कन्ध के यक होती है। छटे खंड को छोड़कर शेप दोनों श्रु तस्कन्धों .. ( २ ) अग्राह्य-तैजस वर्गणा-जो पर कर्णाटकीय भाषा में ८४००० श्लोक "गायतैजसवर्गणा” की समान तेजसप्रमाण "चूड़ामणि" नामक व्याख्या रची। शरीर तो नहीं बनती किन्तु 'गायतैजसपश्चात् छठे खंड परभी ७००० श्लोक प्रमाण वर्गणा' को तैजसशरीर बनने में कुछ न । टीका लिखी॥ कुछ सहायक होती है। (५) उपयुक्त 'श्रीवापदेव गुरु' ने प्राकृत (३) अगाय-भाषावर्गणा-जो वचनभाषा में ६०००० (साठ हजार ) श्लोक रूप परिणवाने में "गाह्य-भाषाधणा" प्रमाण द्वितीय श्रु तस्कन्धकी व्याख्या रची। की सहायक तो होती है किन्तु स्वयम् । (६) उपर्युक्त 'धवल' नामक टीका के वचनरूप नहीं परिणवती रवयिता 'श्रीवीरसेनाचार्य ने कषायप्राभूत (४) अग्राह्य-मनोवर्गणा-जो हृदयकी चारों विभक्तियों पर 'जयधवल' नामक स्थ द्रव्यमन के बनने में “गाड-मनोटीका २० हजार श्लोकों में रचकर स्वर्गा- वर्गणा” को सहायता तो देती है किन्तु । रोहण किया । अतः उनके प्रिय शिप्य 'श्री स्क्यम् द्रव्यमन नहीं यनती जयसेनगुरु' ने ४०००० लोक और बनाकर नोट-२३ वर्गणाओं के नाम निम्न इसे पूरे साठ हजार श्लोकों में पूर्णकर दिया। लिखित हैं:__ नोट ६-उपरोक्त 'श्रीधवल' और 'जय- (१) अणुवर्गणा (२) संख्याताणुवर्गणा धवल' नामक टीकाओं का ( या दोनों श्रु त- (३) असंख्याताणुवर्गणा (४) अनन्ताणुस्कन्धों का) सारभूत एक 'महाधवल' नामक वर्गणा (५) ग्राह्याहारवर्गणा (६) अग्राह्याहार४०००० ( चालीस सहस्र ) श्लोक प्रमाण वर्गणा (७) ग्राह्यतैजसघर्गणा (८) अग्राह्यग्रन्थ 'श्री देवसेनस्वामी ने रचा ॥ (परिष जसवर्गणा (8) ग्राह्य भाषावर्गणा (१०) नोट७-उपयुक्त आचार्यों का चरित्र | अग्राह्य भाषावर्गणा शाह्य मनोवर्गणा और समय आदि जानने के लिए देखो 'गून्य (१२) अग्राह्य मनोवर्गणा (१३) कार्मणवर्गणा बृहत् विश्व चरितार्णव' ॥ (१४) ध्रुववर्गणा (१५) सान्तरनिरन्तरवणा अग्राह्य वर्गणा-परमाणु से लेकर महा- (१६) सान्तरनिरन्तर शू यवर्गणा (१७) स्कन्ध पर्यन्त पुद्गल द्रव्य की जो २३ प्रत्येकशरीरवर्गणा (१८) ध्रुव शन्यवर्गणा वर्गणा हैं उनमें से नीचे लिखी चार प्रकार | (१६) वादर निगोदवर्गणा (२०) वादर निकी वर्गणाऐं, 'अग्राह्यवर्गणा' हैं:- गोदशन्यवर्गणा (२१) सूक्ष्म निगोदवर्गणा ( १ ) अग्राह्य-आहार-वर्गणा-जो (२२) नभोवर्गणा (२३) महास्कन्धवर्गणा ॥ आहारयोग्य होने पर भी "गाह्य आहार- . (गो. जी. गा. ५६३-६०७ इत्यादि ) वर्गणा” की समान औदारिकशरीर, वै- अग्रोदक ( प्रा० अग्गोदय )-लवणक्रियिकशरीर और आहारकशरीर का समुद्र के मध्यभाम की दो क्रोश ऊँची कोई अंश नहीं वनती, किन्तु उनके बनने | शिखा जो जल के उतार चढ़ाव से न्यूनामें ग्राह्यआहारक वर्गणा की केवल सहा- | धिक होती रहती है । ( अ० मा०)॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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