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________________ ( ६६ ) अग्न्यिाभ वृहत् जैन शब्दार्णव अगूचिन्ता अन्तर कोन में रहता है। इस कुल में सर्व समान होने से यह "देवऋषि" कहलाते ७००७ देव हैं। इस कुल के देव जिस और अन्य इन्द्रादिक देवों कर पूज्य होते हैं । विमान में बसते हैं उस विमान का नाम | सर्व ही ११ अंग १४ पूर्व के पाठी श्रु तकेवली भी "अग्न्याभ'' है। इस कुल के देवां की समान शान के धारक होते हैं। तीर्थङ्करों के आयु लगभग : सागरोपम वर्ष प्रमाणहै। तपकल्याणक के समय उन्हें वैराग्य में दृढ नोट ?--ब्रह्मलोक के लौकान्तिक पाड़े | करने और उत्साह बढ़ाने के लिये जाने के में बसने वाले लौकान्तिक देवोंके सर्व २४ कल अतिरिक्त यह सर्व लौकान्तिक देव अपने निम्न प्रकार हैं: स्थान से बाहर कहीं भी अपने जीवन भर (१) ईशान कोन में सारस्वत (२) पूर्व | कभी जाते आते नहीं ॥ इन में अरिष्ट कुल के दिशा में आदित्य (३) अग्निकोन में वह्नि | देवों की आयु ६ सागरोपम वर्ष प्रमाण और (ो दक्षिण में अन्य २३ कुलके देवोंकी आयु = सागरोपम गर्दतोय (६) पश्चिम में तुषित (७) वायव्य वर्षकी होतीहै । इनके शरीरकी ऊंचाई ५ हाथ कोन में अव्यायाध (८) उत्तरमें अरिष्ट (६,१०) प्रमाण है ॥ ईशान व पूर्व के अन्तरकोनमें अग्न्याभ व सूर्याभ [त्रि० गा० ५३४-५४०] (११,१२ ) पूर्व व अग्निकोन के अन्तर कोन में | अग्र-(१) अगला, प्रथम, प्रधान, अगुआ, चन्द्राभ व सत्याभ (१३, १४) अग्नि व दक्षिण | मुखिया, श्रेष्ठ, नोक, किनारा, वजन, तोल के अन्तर कोनमें श्रेयस्कर व क्षेमङ्कर(१५,१६) माप, रत्न ॥ दक्षिण व नैऋत्य के अन्तरकोन में वृषभेष्ट व | (२) अघातियाकर्म (अ. मा. 'अग्ग")॥ कामधर (१७,१८) नैऋत्य व पश्चिम के जयचिन्ता--आगे की चिन्ता; आध्यान अन्तरकोन में निर्माणरजा व दिगन्तरक्षित | के ४ भेदों-इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, (१६,२०) पश्चिम व वायव्य के अन्तरकोन पीड़ा चिन्तवन और निदानचिन्ता'-मेसे में आत्मरक्षित व सबरक्षित ( २१,२२) चतुर्थ भेद का अन्य नाम जिसे 'अग्रशोच' वायव्य व उत्तर के अन्तरफोन में महत व या 'अग्रसोच' भी कहते हैं । तप संयमादि वसु (२३.२४) उत्तर व ईशान के अन्तर कोन द्वारा वा बिना इनके भी किसी इष्ट में अश्व व विश्व । फल की प्राप्ति की आकाँक्षा व इच्छा यह २४ कुल जिन २ विमानों में यसते | करना ॥ इसके अर्थात् “अग्रचिन्ता" या हैं उन विमानों के नाम भी अपने अपने कुल निदान चिन्ताके निम्न लिखित ५ भेद हैं:के नाम पर ही बोले जाते हैं। (१) विशुद्ध प्रशस्त (मौक्तिक )= ___ नोट २-इन सर्च कुलों के लौकान्तिकः | समस्त कर्मों को शीघ्र क्षय कर के मोक्ष देव “एकाभवतारी" अर्थात् एक ही बार प्राप्त करने की अभिलाषा ॥ मनुष्य जन्म लेकर निर्वाण पद पाने वाले होते (२) अशुद्ध प्रशस्त (शुभसांसारिक) = हैं। यह पूर्ण ब्रह्मचारी होते और सर्व विषयों इस जन्म या आगामी जन्मों में जिनधर्म से विरक्त रहते हैं । सर्व देवगण में ऋषि (पूर्ण जितेन्द्रिय पुरुषों कर उपदिष्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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