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________________ ( १८५ ) अजितन्धर __ वृहत् जैन शब्दार्णव अजितपुराण के पश्चात् मनुज्य और देवगति में कई गए । तत्पश्चात् कामातुर होकर इस उत्तम जन्म धारण कर अन्त में निर्वाण पद प्राप्त पद से च्युत होगए और आयु का शेष करेंगे । (देखो शब्द 'रुद्र' )। काल असंयम अवस्था में बिताया । अन्त (त्रि. गा० ८३६-८४१, १६६) में रौद्र परिणाम युक्त शरीर को त्याग कर • नोट.-११रुद्रों की गणना १६६ पुण्य 'धनप्रभा' (अरिष्टा ) नामक पञ्चम धरा पुरुषों में से है जिनमें से कुछ तो तद्भव अर्थात् में जा उत्पन्न हुए जहां की कुछ कम १७ उसी जन्म से और शेष कई जन्म और धारण | सागरोपम काल की आयु पूर्ण कर मनुष्य कर नियम से निर्वाण पद प्राप्त करते हैं उन | और देवायु में कुछएक जन्म धारण करने १६९ पुण्य पुरुषों का विवरण इस प्रकार है :- के पश्चात् अन्त में मुक्तिपद प्राप्त करेंगे। २४ तीर्थङ्कर, ४८ इन तीर्थङ्करों के (देखो शब्द “अजितनाभि" का नोट )॥ मातो पिता, २४कामदेव, १४कुलकर या मनु, (त्रि0 गा० ८३६-८४१, १६६) १२चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, ६ प्रति भजितपुराण ( अजितनाथ पुराण)नारायण, ११ रुद्र, और नारद । (इनके अलग २ नाम आदि का विवरण 'तीर्थङ्कर', एक पुराण का नाम जिसमें द्वितीय तीर्थ 'कामदेव' आदि शब्दों के साथ यथा स्थान कर 'श्री अजितनाथ' का चरित्र वर्णित देखें)॥ यह पुराण कीटक देश निवासी सु. अजितन्धर ( जितन्धर )-वर्तमान प्रसिद्ध कविरत्न 'रन्न' कृत ३००० श्लोक अवसर्पिणी काल के गत चतुर्थ विभाग प्रमाण कीटकीय भाषा में है जो 'तैलिपमें हुए रुद्र पदवी धारक ११ पुरुषों में से देव' के सैनापति 'मल्लप' की दानशीला अष्टम रुद्र का नाम पुत्री 'अतिसब्बे-दानचिन्तामणि' के स_. इनका समय १४३ तीर्थङ्कर "श्री न्तोषार्थ शक सम्वत् ११५ में रचा गया था। अनन्तनाथ" के तीर्थ काल में, जिनका नि- __यह पुराण १२ आश्वासों या अध्यायो। र्वाण गमन अन्तिम तीर्थङ्कर "श्री महावीर में एक चम्पू ( गद्य पद्य मय काव्य) स्वामी के निर्वाण गमन से लगभग ६५ प्रन्थ है। इसे 'काव्य-रत्न' और 'पुराण८४००० वर्ष अधिक ७ सागरोपम काल तिलक' भी कहते हैं । इस ग्रन्थ के विषय पहिले हुआ था, है । इनके शरीर की में कविरत्न का वचन है कि जिस प्रकार ऊँचाई लगभग ५० धनुष (१०० गज़) इस गून्थ से 'रन्न' वैश्यवंशध्वज फह और आयु लगभग ४० लाख वर्ष की थी लाया, उसी प्रकार 'आदिनाथपुराण' इन का कुमारकाल आयु के चतुर्थ भाग से के कारण "आदि पंप” 'ब्राह्मण वंशध्वज' कुछ कम रहा । पश्चात् यह दिगम्बरी | कहलाया था । अजित-पुराण के एक पद्य दीक्षा लेकर कुमार काल से कुछ अधिक | से यह भी ज्ञात होता है कि पंप, पौन्न, समय तक संयमी रहे और तपश्चरण रन्न, यह तीन कवि कनड़ी साहित्य करते हुए ११ ज १० पूर्व के पाठी हो' (कर्णाटकीय भाषा) के 'रलत्रय हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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