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अक्षरलिपि
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षरलिपि
पहिली अक्षरलिपि का नाम "ब्राह्मीलिपि" है जिसे वर्तमान कृतयुग के प्रारम्भ से कुछ पहिले श्रीऋषभदेव ( आदि देव या आदि- ब्रह्मा ) ने अयोध्यापुरी में रची और सर्व | से पहिले अपनी बड़ी पुत्री "ब्राह्मी" को | लिखाई । आज कल की देवनागरी लिपि उसी का एक रूपान्तर है । तथा अन्यान्य जितनी लिपियों का आज कल प्रचार है उनमें से अधिकतर उसी का न्यूनाधिक रूपान्तर है अथवा उसी से कुछ न कुछ सहायता लेकर रची गई हैं । उस “ब्राह्मी” | नामक मूल अक्षरलिपि की ६४ अक्षरों की अक्षरावली को "सिद्ध मातृका" भी कहते हैं । इस लिए कि श्रीऋषभदेव स्वयम्भू भगवान ने जो “स्वायंभुव" व्याकरण की सर्व से प्रथम रचना की उसमें प्रथम "ॐ नमः सिद्धम्" लिखकर "अक्षरावली" का प्रारम्भ किया जो समस्त "श्रुतशान" या शास्त्र ज्ञान सिद्ध कर
नोट १-अक्षरलिपि के मूल भेद ५ हैं(१) लेखनी आश्रित, जो लेखनी से लिखी जाय (२) मुद्राङ्कित, जो मुहर या अंगुष्टादि से छापी जाय ( ३) शिल्पान्वित, जो चित्र. कारी से सम्बन्धित हो (४) गुण्डिका, जो | तन्दुलादि के चूर्ण से बनाई जाय (५) घृणाक्षर, जो धुन कीड़े की बनाई रेखाओं के | समान हो जैसे हथेली की रेखाएं या अंग्रेज़ी "शौर्ट हैंड" को लिपि ॥
नोट २-प्राचीन बौद्ध और जैन ग्रन्थों में कहीं ६४ प्रकार की और कहीं कहीं १८ या ३६ प्रकार को भारत वर्ष में प्रचलित निम्न लिखित लिपियों का उल्लेख पाया जाता है:
६४ लिपियों के नाम ("ललित विस्तार" | में जो सन् ई० से कुछ अधिक १०० वर्ष
पूर्व का संग्रहीत बौद्ध प्रन्थ है )-(१) ब्राह्मी ( २ ) खरोष्ठी (३) पुष्करसारी (४) अंग (५) बंग (६) मगध (७) मांगल्य (८) मनुष्य (6) अंगुलीय (१०)। शकारि ( ११ ) ब्रह्मवल्ली ( १२ ) द्राविड़ (१३) कनारी (१४) दक्षिण (१५) उग्र (१६) संख्या (१७) अनुलोम (१८) अर्द्धधनु (१६) दरद (२०) खास्य (२१) चीन ( २२ ) हूण, (२३)। मध्याक्षर विस्तर (२४) पुष्प (२५)। देव (२६) नाग (२७) यक्ष (२८), गन्धर्व (२६) किन्नर (३०) महोरग (३१) असुर (३२) गरुड़ (३३) मृगचक्र (३४) चक्र (३५) वायु मरुत् (३६) भीमदेव (३७) अन्तरीक्ष देव (३८) उत्तर कुरु द्वीप (३६) अपरगौड़ादि (४०) पूर्व विदेह (४१) उत्क्षेप (४२) निक्षेप (४३) विक्षेप, (४४) प्रक्षेप (४५) सागर (४६ ) वजू (४७) लेख प्रति लेख (४८) अनुद्र त (४६) शास्त्रावर्त (५०) गणनावत (५१) उत्क्षेपावत(५२) विक्षेपावर्त (५३) पाद लिखित (५४ ) द्विरुत्तरपद सन्धि (५५) दशोत्तर पद सन्धि (५६) अध्याहारिणी ( ५७ ) सर्वभूतसंग्रहणी (५८) विद्यानुलोम (५६) विमिश्रित । ६० ) ऋषितपस्तप्ता (६१) धरणी प्रेक्षण (६२) सर्वौषधि निष्यन्दा (६३) सर्व सार संग्रहणी और (६४) सर्वभूत रुतप्रहणी।
१८ लिपिओं के नाम (५ वीं शताब्दी ईस्वी में लिखे गये जैन ग्रन्थ 'नन्दी सूत्र' में)-(१) हंस (२) भूत ( ३)यक्ष (४)
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