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________________ ( १६ ) वृहत जैन शब्दार्णव - - अकारिम देव अकाल मृत्यु (१) क्षुधा वेदना के उपशम को (२) अकाल मृत्य-कुसमय कीया योग्य समय योगीश्वरों की वैयावृत्य के लिये (३ ) षट से पहिले की मृत्यु, बे समय की मौत, आवश्यक कर्म की पूर्णता के अर्थ (४) अपक्क मौत । जो मौत आयुकर्म की संयम की स्थिति के अर्थ ( ५ ' धर्म-ध्यान स्थिति पूर्ण होने से पहिले ही विष, अग्नि के अर्थ । ६) प्राण रक्षार्थ ॥ या शस्त्रादि के घात का वाह्य निमित्त अकारिम देव-पुष्करार्द्ध द्वीपकी पूर्व दिशा पाकर आयु कर्म के शेष निष्यकों के खिर में मन्दर मेरु के उत्तर ऐरावत-क्षेत्रान्तर्गत जाने से हो । देव गति व नरक गति के आर्यखण्ड की अतीत चौबीसी में हुए किसी भी जीव की और मनुष्य गति में २३ वें तीर्थङ्कर का नाम। (आगे देखो शब्द भोगभूमि के मनुष्यों व चरमोत्तम शरीरी "अढ़ाई द्वीप पाठ के नोट ४ का कोष्ट३)॥ अर्थात् १६६ पुण्य पुरुषों में से तद्भव मोक्ष अकारु-शुद्र वर्ण के 'कार' , 'अकारु' गामी पुरुषों की और तिर्यश्च गति में केवल इन दो मूल भेदों में से एक वह भोग भूमि के जीवों की अकाल मृत्यु भेद जो किसी प्रकार की शिल्पकारी या नहीं होती। अन्य सर्वत्र अकाल मृत्यु हो कारीगरी का कार्य न करता हो। इसके | सकती है । इस मृत्यु का नाम “अपवर्तन दो भेद हैं ( १) स्पर्ध्य अकारु, जैसे | घात" व "कदलीघात" भी है। नाई, धोबी, माली, आदि (२) अस्पर्य | नोट १- 'कदली घात" से छूटने वाला अकारु, जैसे भंगी, चांडाल आदि ॥ शरीर यदि समाधि मरण रहित छूटा हो तो नोट १-कारु के भी दो ही भेद है (१) उसे "च्यावित शरीर" और यदि समाधि स्पर्ध्य कारु, जैसे सुनार, लुहार, कुम्हार, | | मरण सहित छूटा हो तो उसे "त्यक्त शरीर" चित्रकार, बढ़ई आदि (२) अस्प_कारु, कहते हैं । जैसे चमार आदि । ( आगे देखो शब्द "अठारह श्रेणी शुद्र")॥ नोट २-तद्भव मोक्षगामी सर्व पुरुषों नोट २-चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, | को “चरम शरीरी" और १६६ पुण्य-पुरुषों में वैश्य, शूद्र-में से अन्तिम तीन वर्ण उनकी तद्भव मोक्षगामी पुरुषों को चरमोत्तम शरीरी" आजीविका के कार्यानुसार प्रथम तीर्थङ्कर कहते है ॥ "श्रीऋषभदेव" ने कृतयुग या कर्मभूमि की नोट ३–१४ कुलकर (मनु), २४ तीर्थआदि में स्थापन किये और आवश्यक्ता जान कर, ४८ तीर्थंकरों के माता पिता, २४ कामकर पहिला वर्ण उनके पुत्र "भरत” चक्रवर्ती | देव, १२ चक्रवर्ती, ११ रुद्र, ६ बलभद्र, ६ ने स्थापन किया । इन चारों वर्गों के कई कई नारायण, ६ प्रतिनारायण, ६ नारद, यह सर्व भेद उपभेद भी उनकी आजीविका के अनुसार १६६ पुण्य पुरुष हैं जिनमें २४ तीर्थङ्कर सर्व उसी समय स्थापन होगए थे और अन्य कई ही तद्भव मोक्षगामी हैं; १४ कुलकर, ११ रुद्र, कई भेद यथा अवसर पीछे उत्पन्न हुए। नारायण, ६ प्रतिनारायण, ६ नारद, यह ५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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