Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरपउडर ) * श्रीवेङ्कटेश्वराय नमः। HODोध ADMIN 8gabobayान Goo acco 200000 Dobblow laodopan Dooooo 1.00000000000pooto DOOOODOOOOOOOOD MOODob00000000apaci ROOPOOTOoopGENNAINMEOS Dosadooooor ZOCORo000000ODolbobOON Do0OODGPCO00000bpoor 20000000000ODoor koooooocola NoGapoom OOODOGooGala good MODOGoaaaaaaaaaaaaa । 3 5500ROO0 Basilapanessage 11092AND0000000 JOODDODOO OOGOOOO GOO Hapooadeooooodogol 100000000000000000 PिA Masopggggggggggga ooo00oOGODO00000GG 3 MOODOOGOODCDomgoaacha Moodooaaaaaaaaaao PoCURR 00000000000000 gooooooooooo SHAR DoCop G000Rs aboapor 98448ignedoles000 RAGHOROR55565668856566536365656558136000RRASSMARHANSRIANBAR ANO00000000000000000000000000000odacodbohadoaabpoo Nooo plogOOOOOOOOOOOOOOOOOOOooooooooooOrO9001 SRO 25BERRBBBBBBBBBBBBB8 Ofotofotoil ॥ श्रीः॥ चक्रदत्तः DOGA सुबोधिन्याख्यभाषाटीकयोपेतः। SELECIRN Dostotopotos DECENER TAMANENEM अध्यक्षाः खेमराजश्रीकृष्णदासश्रेष्टिनः। " श्रीवेङ्कटेश्र" स्टीम-प्रेस, बंबई. BOLLEONaray a n Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः॥ श्रीमन्महामहिमचरकचतुरानन श्रीचक्रपाणिविरचितः। चक्रदत्तः। श्रीवाराणसीहिन्दूविश्वविद्यालयस्थायुर्वेदविद्यालयाध्यापकायुर्वेदाचार्य-बी. ए. इत्युपाधिधारिश्रीपण्डितजगन्नाथशर्मवाजपेयिप्रणीतया सुबोधि न्याख्यव्याख्यया समलकृतः। गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, मालिक "लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर" स्टीम् -प्रेस, कल्याण-बम्बई. सं० १९९८, शके १८६३. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रकार सकाराक मुद्रक और प्रकाशकगंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, अध्यक्ष-"लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर" स्टीम्-प्रेस, कल्याण-बम्बई. पुनर्मुद्रणादि सर्वाधिकार "लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर" मुद्रणयन्त्रालयाध्यक्षके अधीन है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHAKRADATTA BY CHAKRAPANI DATTA. TRANSLATED AND MADE EASY. BY AYURVEDACHARYA PANDIT JAGANNATHASHARMA BAJPEYEE, Professor, Ayurveda College, Benares Hindu University. THIRD EDITION. PUBLISHED BY THE PROPRIETOR, SHRI LAXMI VENKATESHWAR.STEAM PRESS. KALYAN-BOMBAY Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --------- ---------- द्वितीय संस्करणके विषयमें दो शब्द । BORDEREDEOGaaaaaaaaaaaaaaaa उस परम पिता परमात्माको कोटिशः धन्यवाद है कि, जिसकी असीम अनुकम्पासे “ सुबोधिनी सहित चक्रदत्त" के द्वितीय संस्करण प्रकाशित करनेका सुअवसर समुपलब्ध हुआ । अनेक त्रुटियोंके रहते हुए भी प्रथम संस्करणको पाठकोंने जिस प्रकार अपनाया उससे परम सन्तोष हुआ । इस संस्करणमें पहिलेकी प्रायः सभी त्रुटियां दूर कर दी गई हैं, फिर भी भूल होना मनुष्यमें स्वाभा• विक है अतः सहृदय महानुभावोंसे सादर निवेदन है कि, यदि कोई त्रुटि उनकी दृष्टिमें आवे तो उसे कृपया लेखक या प्रकाशकके पास लिखकर भेज दें । उनके प्रति कृतज्ञता प्रगट करते हुए तीसरे संस्करणमें उन त्रुटियोंका सुधार कर दिया जायगा। विनम्र निवेदक:जगन्नाथ शर्मा वाजपेयी. DOOOOOOOODCDDDDDDDDDDDDDDDEDEO Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनम्र निवेदनम् ।। माननीय-वाचक-महोदयाः ! मनुष्य जीवनका फल धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी चारों पदार्थों का प्राप्त करना है, पर शरीरकी आरोग्यता विना उनमेंसे एक भी नहीं सम्पादन किया जा सकता। जैसा कि महर्षि अग्निवेशने कहा है धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । रोगास्तस्यापहर्तारः श्रेयसो जीवितस्य च ॥ उस आरोग्य शरीरकी रक्षा तथा रोग उत्पन्न हो जानेपर उनके विनाशके उपायोंका वर्णन ही "आयुर्वेद" है। अतएव परम कुशल वाग्भटने लिखा है आयुष्कामयमानेन धर्मार्थसुखसाधनम् । __ आयुर्वेदोपदेशेषु विधेयः परमादरः ॥ उस आयुर्वेदके आचार्य सर्व प्रथम देवाधिदेव ब्रह्मा, ततः प्रजापति, ततः अश्विनीकुमार, ततः इन्द्र, ततः भरद्वाज, ततः अग्निवेशादि हुए । उन आचार्योंने अपनी अपनी विस्तृत संहिताएँ सर्व साधारणके उपकारार्थ बनायीं । पर समयके परिवर्तनसे अल्पायु तथा सामान्यबुद्धियुक्त मनुष्यमात्रको उन संहिताओंसे सार निकालना कठिन समझ, करुणाई महर्षियों तथा सामयिक विद्वानोंने उन संहिताओंको अनेक अङ्गोंमें विभक्त कर दिया । अतः साधारण रीतिसे उसके दो विभाग हुए । १ रोगचिकित्सा, और २ स्वास्थ्यरक्षा। जैसा कि श्रीमान् सुश्रुतने लिखा है इह खल्वायुर्वेदप्रयाजनम्, व्याध्युपसृष्टानां व्याधिपरिमोक्षः स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणम् इति । उसमें रोगविनाशार्थ शीघ्र क्रियाकी आवश्यकताका अनुभव कर रोगविनाशमें प्रथम ज्ञेय विषय रोगको जानना चाहिये। तदुक्तं चरके रोगमादौ परीक्षेत ततोऽनन्तरमौषधम् । ततः कर्म भिषक्पश्चाज्ञानपूर्व समाचरेत् ॥ श्रीमान् माधवकारने "माधवनिदान" नामक रोगनिर्णायक-ग्रन्थका संग्रह किया। इसके कुछ समयानन्तर ही श्रीमान् चरकचतुरानन दत्तोपाह चक्रपाणिजीने इस चिकित्सासारसंग्रह " चक्रदत्त" की रचना की । माधवनिदानके अनन्तर ही इसकी रचना हुई, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं । क्योंकि जिस क्रमसे रोगोंका वर्णन श्रीमान् माधवकारने किया है, उसी क्रमसे चिकित्सा विधान इस ग्रन्यमें वर्णित है । इस ग्रन्थके रचयिता नयपाल नामक वङ्गन्देशीय नरेन्द्रके प्रधान वैद्य थे, जैसा कि उन्होंने अपना परिचय इसी ग्रन्थके अन्तमें दिया है । इस ग्रन्थकी रचनाके साथ ही उन्होंने चरकसंहिताकी “आयुर्वेददीपिका" नामक व्याख्या भी की थी। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) विनम्र निवेदनम् | इसी लिये उन्हें चरकचतुराननकी उपाधि भी प्राप्त हुई थी, जैसा कि उनकी चरकसंहिता व्याख्याकी समाप्ति के परिचय से विदित होता है । इनके आविर्भावका समय ईसवीय ११०० का मध्यकाल है । जैसा कि श्रीमान् वर्तमान धन्वन्तरि महामहोपाध्याय कविराज गणनाथसेनजीने प्रत्यक्ष शारी रके उपोद्घात में लिखा है: ततश्च परमेकादशशतके चक्रपाणिर्नाम नयपालराजस्य वैद्यवरः प्रादुर्बभूव पुनश्च चक्रपा णकालश्च ख्रीस्तीयैकादशशतक मध्यभाग इति सर्ववादिसम्मतः सिद्धान्तः पूर्वोक्तहेतुः । इसकी उपयोगिता तथा सारवत्ताका अनुभव कर ही चरकसंहिता के टीकाकार श्रीयुत शिवदास - सेनजीने इसकी " तत्त्वचन्द्रिका " नामक संस्कृत व्याख्या की । श्रीशिवदास सेनजीका जन्मकाल १५०० ई० के लगभग माना जाता है । यह ग्रन्थ बंगाल में बना था, अतएव प्रथम बङ्गालमें ही इसका प्रचार भी अधिक हुआ और अबतक बङ्गाल में चिकित्साग्रन्थों में "चक्रदत्त" श्रेष्ठ समझा जाता है । इस ग्रन्थ में आर्ष प्रणाली के अनुसार स्वल्पमूल्य में तैयार होने और पूर्ण लाभ पहुँचानेवाले क्वाथ, कल्क, चूर्ण, अवलेह, घृत, तैल, आसव, अरिष्ट आदि लिखे गये हैं और उनके बनानेकी विधिका विवेचन इसमें पूर्णरूप से किया गया है । इसकी उपयोगिताको स्वीकार कर ही अन्य प्रान्तोंके विभिन्न विद्यालयोंने अपने पाठ्य ग्रन्थोंमें इसे रक्खा, यहाँ तक कि हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियत होनेपर मुझे भी सर्व प्रथम इस ग्रन्थ पढाने की आज्ञा मिली । यह सन् १९२५ ई० के अगस्त मासका अवसर था । उस समय बाजार में जो "चक्रदत्त" मिलता था, वह अत्यन्त विकृतावस्था में था, अतएव मेरे हृदय में यह भाव उत्पन्न हुआ कि इस ग्रन्थपर सरल हिन्दी टीका लिख तथा इसे संशुद्ध कर प्रकाशित करना चाहिये । अतः मैंने इस " सुबोधिनी " नामक टीकाका लिखना प्रारम्भ किया और वह श्रीगुरुपूर्णिमा संवत् १९८३ को समाप्त हुई, अतएव श्रीगुरुजी के करकमलों में अर्पित है । यद्यपि सन् १९२६ ई० में कुछ संस्करण विशेष सुधारके साथ निकल चुके हैं, पर मुझे विश्वास है कि आप इस सुबोधिनी टीकाको विवेचनात्मक बुद्धिसे पढकर इसकी उपयोगिता अवश्य स्वीकार करेंगे । इस स्वल्प सेवासे यदि सर्वसाधारणको कुछ भी लाभ हुआ तो मैं अपने परिश्रमको सफल समझंगा । इस पुस्तक छापने प्रकाशित करने और दुबारा छापनेका अधिकार आदि सब स्वत्त्व सहित श्रीमान् " श्रीवेंकटेश्वर " स्टीम्मुद्रणयन्त्रालयाध्यक्ष श्रीसेठ खेमराजजी श्रीकृष्णदासजीको समर्पण कर दिया है । विनम्र - निवेदक:जगन्नाथशर्मा वाजपेयी आयुर्वेदाचार्यः प्रोफेसर आयुर्वेद - हिन्दू विश्वविद्यालय-वाराणसीस्थः Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ॥ . अथ चक्रदत्तस्थविषयानुक्रमणिका । was विषयाः पृष्ठांकाः | विषयाः | विषयाः पृष्ठांकाः अवमंयकायको अथ ज्वराधिकारः। ज्वरस्य तारुण्यादिनिश्चयः ५ निम्बादिकाथः मंगलाचरणम् तत्र चिकित्सा सिन्दुवारकाथः अभिधेयादिप्रतिज्ञा आमज्वरलक्षणम् आमलक्यादिकाथः निरामज्वरलक्षणम् चिकित्साविधिः त्रिफलादिकाथः नववरे त्याज्यानि सर्वज्वरपाचनकषायः मुस्तादिक्काथः लंघनस्य प्राधान्यं विधिः औषधनिषेधः चातुर्भद्रावलेहिका __ फलं मर्यादा च अन्नसयुक्तासयुक्ताफलम् " चूर्णादिमानम् लंघननिषेधः औषधपाकलक्षणम् "अवलेहसेवनसमयः सम्यग्लंघितलक्षणम् अजीर्णौषधलक्षणम् पिप्पल्यवलेहः अविलंधितदोषाः अजीर्णान्नौषधयोरोषधान द्वन्द्वजचिकित्सा वमनावस्थामाह सेवने दोषाः " वातपित्तज्वरचिकित्सा अनुचितवमनदोषाः भोजनावृतभेषजगुणाः त्रिफलादिक्काथः जलनियमः मात्रानिश्चयः , किरातादिक्काथः षडङ्गजलम् सामान्यमात्राः निदिग्धिकादिकाथः पूर्वापरग्रन्थविरोधपरिहारमाह ३ काथे जलमानम् पञ्चभद्रकाथः जलपाकविधिः मानपरिभाषा मधुकादिशीतकषायः पथ्यविधिः वातज्वरचिकित्सा ८ पित्तश्लेष्मज्वरचिकित्सा विशिष्टं पथ्यम् । प्रक्षेपानुपानमानम् ,, (पटोलादिक्काथः) द्वन्द्व-सन्निपातज्वरेषु पथ्यम् विभिन्नाः काथाः , गुडूच्यादिक्काथः व्याध्यादियवागूः पित्तज्वरचिकित्सा किरातपाठादिः कल्कसाध्ययवाग्वादित्रायमाणादिक्वाथः कण्टकार्यादिकाथः परिभाषा मृद्वीकादिक्वाथः वासारसः मण्डादिलक्षणम् पर्पटादिक्काथः पटोलादिकाथः मण्डादिसाधनाथै जलमानम् विश्वादिकाथः अमृताष्टककाथः यवागूनिषेधः अपरः पर्पटादिः अपरः पटोलादिः तर्पणपरिभाषा द्रक्षादिकाथ: पञ्चतिक्तकषायः ज्वरविशेष पथ्यविशेष: अन्तर्दाहचिकित्सा कटुकीचूर्णम् ज्वरनाशकयूषद्रव्याणि शीतक्रियाविधानम् धान्यादिः ज्वरहरशाकद्रव्याणि विदार्यादिलेपः वातश्लेष्मज्वरचिकित्सा पथ्यावश्यकता अन्ये लेपाः वालुकास्वेदः अरुचिचिकित्सा जलधारा मुस्तादिक्काथः भोजनसमयः कफज्वरचिकित्सा पञ्चकोलम् अपथ्यभक्षणनिषेधः पिप्पल्यादिकाथः पिप्पलीक्वाथः ज्वरपाचनानि , कटुकादिकाथः आरग्वधादिक्वाथः Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) विषयाः क्षुद्रादिक्वाथः दशमूलक्वाथः मुस्तादिक्वाथः दादिक्वाथः हिंग्वादिमानम् मुखवैरस्यनाशनम् सन्निपातज्वर चिकित्सा लंघनम् लंघन सहिष्णुता निष्ठीवनम् नस्यम् संज्ञाकारकं नस्यम् अञ्जनम् अष्टांगवलेहिका मधुव्यव था पञ्चमुष्टिकः पञ्चमूल्यादिक्वाथः दशमूलम् चतुर्दश क्वाथः पृष्ठांका: अष्टादशाङ्गक्वाथः अपरोऽष्टादशाङ्गः मुस्तादिक्वाथः शटयादिक्वाथः बृहत्यादिक्वाथः भाङ्गर्यादिकाथः द्विपञ्चमूल्यादिकाथः अभिन्यासचिकित्सा ( कारव्यादिकषायः ) विषयाः १३ तश्चिकित्सा मातुलुङ्गादिकाथः अभिन्यासलक्षणम् कण्ठरोगादिचिकित्सा व्योषादिकाथः त्रिवृतादिकाथः स्वेदबाहुल्यचिकित्सा जिह्वादोषचिकित्सा निद्रानाशाचकित्सा सन्निपाते विशेषव्यवस्था कर्णमूललक्षणम् गैरिकादिलेप: | कुलत्थादिलेप: 35 १४ | जीर्णज्वरचिकित्सा 59 39 अस्य समयः " गुडूचीकाथः " " ,” त्रिफलाकाथः " गुडूच्यादिक्काथः ” योगान्तरम् १५ मुस्तादिकाथः " " " "" " " 22 " विषमज्वरे पथ्यम् १६. विषमज्वरहरमञ्जनम् 39 "" " -22221 " चक्रदत्त "" गुडपिप्पलीगुणाः | विषमज्वराचकित्सा "" महौषधादिकाथः वासादिकाथः 19 सामान्य चिकित्सा | विषमज्वरहर विरेचनम् "" नस्यम् धूपः नस्यान्तरम् धूपान्तरम् अपरे योगाः | विशिष्टचिकित्सा क्षीरषट्पलकं घृतम् ,, दशमूलषट्पलकं घृतम् | स्नेहे काथ्यादिनियामिका परिभाषा वासाद्यं घृतम् "" १८ | गुडूच्यादिघृतपञ्चकम् पेयादिदानसमयः | क्षीरदानसमय: पृष्ठांका: विषया: १८ | पञ्चमूलीपयः क्षीरपाकविधिः त्रिकण्टकादिक्षीरम् वृश्वीराद्यं क्षीरम् "" "" "9 " क्षीरविनिश्चयः संशोधननिश्चयः 35 वमनम् विरेचनम् "" १९ संशोधन निषेधः वस्तिविधानम् विरेचननस्यम् 59 2252 39 "" 35 "" 59 " अंगारक लम् लाक्षादितैलम् २० यवचूर्णादितैलम् | सर्जादितैलम् तैलान्तरम् "" 59 "" 29 १७ देवव्यपाश्रयं कर्म पाठादिकाथः सर्पिष्पानावस्था सर्पिनिषेधः नागरादिकाथः | निर्दशाहे कफोत्तरे शमनमशनम् ह्रीबेरादिकाथ: "" पिप्पल्याद्यं घृतम् "" गुडूच्यादिकाथः २२ |उशीरादिक्वाथः सिद्धस्नेह परीक्षा == "" "" "" "" 39 "" 39 २१ ज्वरातिसारे चिकित्सा | अभ्यङ्गादिविभागः षट्कट्वरतैलम् === 35 39 | आगन्तुकञ्चरचिकित्सा | क्रोधकामादिज्वरचिकित्सा भूतज्वरा चिकित्सा ज्वरमुक्ते वयनि 15 | विगतज्वरलक्षणम् "3 २३ मुस्तकादिकाथः घनादिक्वाथः पञ्चमूल्यादिकाथः कलिंगादिकाथः वत्सकादिकाथः नागरादिकाथः पृष्ठांका: | कलिङ्गादिगुटिका उत्पलादि चूर्णम् २३ " २४ अथ ज्वरातिसाराधिकारः । २६ २७ "" 15 1:|: ེ རྨ བ མི རྣ རྒྱུངཚོ མ འཐོ འཧྨརྒྱུུ རྒྱུ➢。 २५ २६ " 55 "" ; རྨ ཆེ ➢ ཤྩ རྣ རྨ༧ སྶ༢ " " २८ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका। - wwwer-or wwwPw-- w - - - - - - - - विषयः पृष्ठांकाः विषयाः पृष्ठांकाः | विषयाः - - - पृष्ठांकाः व्योषादिचूर्णम् २८ वातापित्तातिसार कल्कः ३२ तक्रस्यात्र वैशिष्टयम् दशमूलीकषायः कुटजादिक्वाथः " शुण्ठयादिक्काथः विडंगादिचूर्ण काथो वा , समङ्गादिकाथः ३३ धान्यकादिकाथः किरातादिचूर्णद्वयं काथद्वयं च २९/हिज्जलस्वरसः चित्रकादिगुटिका वटारोहकल्कः पञ्चलवणगणना अथातिसाराधिकारः। अङ्कोठमूलकल्कः श्रीफलकल्कः अतिसाराविशेषज्ञानम् २९ बब्बूलदलकल्कः श्रीफलपुटपाकः आमाचकित्सा कुटजावलेहः नागरादिक्वाथः अतिसारे जलविधानम् अंकोठवटकः नागरादिचूर्णम् अतिसारेऽन्नविधानम् रक्तातिसारचिकित्सा भूनिम्बाद्यं चूर्णम् आहारसंयोगिशालिपादिः , रसाञ्जनादिकल्कः कफग्रहण्याश्चिकित्सा अपरः शालिपादिः विडंगादिचूर्ण क्वाथो वा ३४ प्रन्थिकादिचूर्णम् व्यञ्जनानिषेधः वत्सकादिकषायः भल्लातकक्षारः विशिष्टाहारविधानम् दाडिमादिकषायः सन्निपातग्रहणीचिकित्सा सञ्चितदोषहरणम् बिल्वकल्कः , द्विगुणोत्तरचूर्णम् स्तम्भनावस्था बिल्वादिकल्कः | पाठादिचूर्णम् विरेचनावस्था शल्लक्यादिकल्कः कपित्थाष्टकचूर्णम् धान्यपञ्चकम् | तण्डुलीयकल्कः , दाडिमाष्टकचूर्णम् प्रमथ्याः कुटजावलेहः वार्ताकुगुटिका तिलकल्कः आमातिसारनचूर्णम् त्र्यूषणादिघृतम् पिप्पलीमूलादिचूर्णम् गुदप्रपाकादिचिकित्सा ३५ मसूरघृतम् हरिद्रादिचूर्णम् पुटपाकयोग्यावस्था शुण्ठीघृतम् खड्यूषकाम्बालको कुटजपुटपाकः चित्रकघृतम् नागरादिपानीयम् श्योनाकपुटपाकः बिल्वादिघृतम् पाठादिक्काथश्चूर्ण वा कुटजलेहः चांगेरीघृतम् मुस्ताक्षीरम् कुटजाष्टकः मरिचाचं घृतम् संग्रहणावस्था अनुक्त-जलमानपरिभाषा , ३६ महाषट्पलकं घृतम् पञ्चमूल्यादिकाथश्चूर्ण वा षडङ्गघृतम् |चुक्रनिर्माणविधिः कञ्चटादिक्काथः क्षीरिदुमाद्यं घृतम् , बृहच्चुक्रविधानम् नाभिपूरणम् क्षीरपानावस्था तक्रारिष्टम् किराततिक्तादिक्काथः वातशुद्धथुपायः काजीसन्धानम् वत्सकबीजक्काथः प्रवाहिकाचिकित्सा कल्याणकगुडः मधुकादिचूर्णम् अतिसारस्यासाध्यलक्षणम् ३७ कूष्माण्डगुडकल्याणकः कुटजादिचूर्ण काथो वा अतीसारे वर्जनीयानि , रसपर्पटी ताम्रयोगः काथान्तरम् विल्वादिक्वाथ: अथ ग्रहण्यधिकारः। | अथाशोऽधिकारः। पटोलादिक्वाथः ग्रहणीप्रतिक्रियाक्रमः ३७ अर्शसाञ्चिकित्साभेदाः प्रियंग्वादिचूर्णम ग्रहण्यां पेयाः , अर्शोघ्नलेपाः Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्त- - (८) विषया wwwrorror ordererrorer- wo-wr wr - - - - - - - - पृष्ठांका विषय विषयाः पृष्ठांकाः | विषयाः पृष्ठांकाः लिङ्गासि लेपः अपरो लेपः विशेषव्यवस्था । तक्रप्राधान्यम् विशेषतकविधानम् अभयाप्रयोगाः अन्ये योगाः दन्त्यरिष्टः नागरायो मोदकः गुडमानम् प्राणदा गुटिका कांकायनगुटिका माणिभद्रमोदकः स्वल्पशूरणमोदकः बृहच्छूरणमोदकः सूरणपिण्डी व्योषाधं चूर्णम् समशर्करं चूर्णम् लवणोत्तमाचं चूर्णम् नागार्जुनयोगः विजयचूर्णम् बाहुशालगुडः गुडपाकपरीक्षा गुडभल्लातकः द्वितीयगुडभल्लातकः चव्यादिघृतम् पलाशक्षारघृतम् उदकषट्पलकं घृतम् सिंह्यमृतं घृतम् पिप्पलाद्यं तैलम् रक्तार्शश्चिकित्सा रक्तस्रावन्नी पेया रक्ताशीनाशकसामान्ययोगाः कुटजावलेहः कुटजरसक्रिया कुटजाद्यं घृतम् सुनिषण्णकचांगेरी घृतम् • क्षारविधिः ४५ प्रतिसारिणीयक्षारविधिः ५४ विष्टब्याजीर्ण-रसशेषाजीर्ण क्षारपाकनिश्चयः ५५ चिकित्सा क्षारसूत्रम् " दिवा स्वप्नयोगाः क्षारपातनविधिः अजीर्णस्य सामान्य ४६ क्षारेण सम्यग्दग्धस्य लक्षणम् | चिकित्सा क्षारदग्ध उत्तरकर्म विषूचिकाचिकित्सा अग्निदग्धलक्षणम् मर्दनम् अग्निदग्ध उत्तरकर्म वमनम् उपद्रवचिकित्सा अञ्जनम् अपरमजनम् पथ्यम् उद्वर्तनं तैलमर्दनं वा अनुवासनावस्था उपद्रवचिकित्सा अग्निमुखं लौहम् ४८ भल्लातकलौहम् ५७/ अथ क्रिमिरोगाधिकारः। अर्शोन्नी वटी , पारसीकयवानिकाचूर्णम् ६४ परिवर्जनीयानि "मुस्तादिकाथः पिष्टकपूपिकायोगः अथाग्निमांद्याधिकारः। पलाशबीजयोगः ४९/चिकित्साविचारः सुरसाद्विगणकाथ: विडंगादिचूर्ण च "हिंग्वष्टकं चूर्णम् विडंगादियवागूः , अग्निदीपकाः सामान्याः बिम्बीघृतम् , योगाः ५० मण्डगुणाः विडंगघृतम् , अत्यग्निचिकित्सा "यूकाचिकित्सा " विश्वादिक्काथः विडंगादितैलम् ५१ अग्निदीपका योगाः " कपित्थादिखण्डः | अथ पाण्डुरोगाधिकारः। " शार्दूलकाञ्जिकः चिकित्साविचारः " अग्निमुखचूर्णम् " पांडुनाशकाः केचन योगाः ६६ ५२/पानीयभक्तगुटिका हैफलत्रिकादिकाथः अयस्तिलादिमोदकः "बृहदग्निमुखचूर्णम् " मण्डूरविधिः " भास्करलवणम् " नवायसं चूर्णम् अग्निघृतम् ६१ योगराज: मस्तुषट्पलकं घृतम् " विशालाद्यं चूर्णम् बृहदग्निघृतम् लोहक्षीरम् . क्षारगुडः कामलाचिकित्सा "चित्रकगुडः ६२ कामलानाशका योगाः , मामाजीर्णचिकित्सा , अञ्जनम् ५४ विदग्धाजीर्णचिकित्सा , अपरमअनं नस्य च ५८ त्रिफलादिघृतम् Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका। (९) - - - - - - - - - विषयाः पृष्ठाकाः विषया: पृष्ठांका: | विषयाः पृष्ठांकाः बलाचं घृतम् कूष्माण्डकरसायनम् ७४ अजापश्चकं घृतम लेहाः कुम्भकामलाचिकित्सा कूष्माण्डकरसायने द्रवमानम् ७५ बलागर्भ घृतम् हलीमकचिकित्सा वासाकूष्माण्डखण्डः नागबलाघृतम् विडंगाचं लोहम् निर्गुण्डीघृतम् वासाखण्डः खण्डकाद्यो लोहः मण्डूरवटकाः अत्र पथ्यापथ्यम् ७६ चन्दनाद्यं तैलम् पुनर्नवामण्डूरम् छागसेवोत्कृष्टता मण्डूरवज्रवटकः परिशिष्टम् उरःक्षतचिकित्सा धाच्यरिष्टः अथ राजयक्ष्माधिकारः। बलाचं घृतम् ____ ८४ द्राक्षाघृतम् हरिद्रादिघृतम् राजयक्ष्मणि पथ्यम् व ७६ अथ कासरोगाधिकारः। . मुर्वाधं घृतम् . शोधनम् " वातजन्यकासे सामान्यतः व्योषाधं घृतम् राजयक्ष्मणि मलरक्षण पथ्याशुपायाः प्रयोजनम् ७७ पञ्चमूलीक्वाथः अथ रक्तपित्ताधिकारः। षडंगयूषः " शृंग्यादिलेहः रक्तपित्तचिकित्साविचारः ७० धान्यकादिक्काथः "विश्वादिलेहः त्रिवृतादिमोदकः . , अश्वगन्धादिक्काथः " भाङ्गादिलेहः अधोगामि-रक्तपित्तचिकित्सा , दशमूलादिक्काथः पित्तजकासचिकित्सा पथ्यम् ककुभत्वगाद्युत्कारिका पथ्यम् स्तम्भनावस्था मांसचूर्णम् बलादिक्वाथः स्तम्भकयोगाः नागबलावलेहः. शरादिक्षीरम् वासाप्राधान्यम् लेहद्वयम् » विशिष्टरसादिविधानम् अन्ये योगाः नवनीतप्रयोगः " द्राक्षादिलेहः क्षीरविधानम् , सितोपलादिचूर्णम् " खजूरादिलेहः केचन लेहाः , लवङ्गाद्यं चूर्णम् शटयादिरसः द्रवमानम् ७२ तालीशाचं चूर्ण मोदकश्च , कफकासचिकित्सा एलादिगुटिका शृंग्यादिचूर्णम् " पौष्ककरादिक्वाथः । पृथ्वीकायोगः मधुताप्यादिलोहम् "शृङ्गवरस्वरसः मूर्ध्नि लेपः विन्ध्यवासियोगः नस्यम् रसेन्द्रगुटिका दशमूलक्वाथः उत्तरवस्तिः | एलादिमन्थः ., कट्फलादिक्वाथः दूर्वाद्यं घृतम् सर्पिगुंडः " अन्ये योगाः शतावरीघृतम् च्यवनप्राशः ८० हरीतक्यादिगुटिका महाशतावरीघृतम् च्यवनप्राशस्य गुणाः " मरिचादिगुटिका प्रक्षेपमानम् "जीवन्त्याचं घृतम् ८१ समशर्करचूर्णम् वासाघृतम् | पिप्पलीघृतम् , हरितक्यादिमोदकः पुष्पकल्कमानम् " पाराशरं घृतम् व्योषांतिका गुटिका कामदेवघृतम् , छागलाचं घृतम् , मनःशिलादिधूमः . सप्तप्रस्थं घृतम् ७४/ छागघृतम् ८२ अपरो धूमः ७९ नवाङ्गयूषः Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) विषया: अन्यो धूमः वार्ता की धूमः दशमूलघृतम् अपरं दशमूलघृतम् दशमूलषट्पलकं घृतम् कण्टकाद्वयम् बृहत्कण्टकारीघृतम् रास्नाद्यं घृतम् अगस्त्यहरितकी भृगुहरीतकी हिक्काश्वासयोश्चिकित्साक्रमः केचन लेहाः नस्यानि कचन योगाः ग्यादिचूर्णम् कल्कद्वयम् अमृतादिकाथ: दशमूलक्काथः कुलत्थादि क्वाथः गुडप्रयोगः अपरं ग्यादिचूर्णम् हरिद्रादिलह: मयूरपिच्छभूति: बिभीतक चूर्णम् हिंस्राद्यं घृतम् तेजोवत्याद्यं घृतम् भाङ्गगुडः कुलत्थगुडः पृष्ठांका: विषयाः ८७ | स्वरसाभावे ग्राह्यद्रव्यम् भृंगराजघृतम् चिकित्सा कण्टकारीघृतम् "3 "3 39 अथ हिक्काश्वासाधिकारः । ८९ 97 "" "" ८८ "2 39 "" "" 39 23 "5 लंघनप्राशस्त्यम् " वातच्छर्दिचिकित्सा 39 पित्तच्छर्दिचिकित्सा " कफच्छर्दिचिकित्सा ९० सन्निपातजच्छर्दिचिकित्सा शीतकषायविधानम् श्रीफलादिशीतकषाया: | एलादि चूर्णम् 19 " कोलमज्जादिलेहः 27 "" चक्रदत्त - " अरोचके चिकित्सोपाया: कवलग्रहाः अम्लिकादिकवलः कारव्यादिकवलः त्र्यूषणादिकवल: 39 दाडिमरस: यमानीषाडवम् कलहंसकाः "" अथारोचकाधिकारः । अथ छर्धधिकारः । पेयं जलम् रक्तच्छर्दिचिकित्सा त्रियो लेहाः पद्मकाद्यं घृतम् "" ९१ वाजतृष्णा चिकित्सा पित्तजतृष्णा चिकित्सा कफजतृष्णाचिकित्सा अथ स्वरभेदाधिकारः । क्षतक्षयजचिकित्सा ९१ सर्वजतृष्णा चिकित्सा स्वरभेदे चिकित्साक्रमः चव्यादिचूर्णम् ९२ सामान्यचिकित्सा केचन योगाः उच्चैर्व्याहरणज-स्वरभेद पृष्ठांका: अथ तृष्णाधिकारः । " गण्डूषस्तालुशोषे अन्ये योगाः " मुखालेपः 33 वारिणा वमनम् विषयाः ९२ वटङ्गादिगुटी | चिरोत्थतृष्णाचिकित्सा जलदानावश्यकता 39 ९२ अथ मूर्च्छाधिकारः । ९३ | सामान्यचिकित्सा "" "" "" 19 | त्रिफलाप्रयोगः 37 ९४ संन्यासचिकित्सा | खर्जूरादिमन्थः ९४ मन्थविधिः " तर्पणम् " सर्वमदात्ययचिकित्सा ९५ दुग्धप्रयोगः " पुनर्नवाद्यं घृतम् "" "" अष्टाङ्गलवणम् " चव्यादिचूर्णम् "" "3 "" यथादोषं चिकित्साक्रमः कोलादिचूर्णम् | महौषधादिकाथः भ्रमचिकित्सा ९६ पथ्याघृतम् 99 ९६ पूगमद चिकित्सा कोद्रवधुस्तूरमदचिकित्सा 33 "" ९७ "3 "" "" मद्यपानविधिः पानविभ्रमचिकित्सा पृष्ठांका: दाहे सामान्यक्रमः कुशाद्यं घृतं तैलं च फलिन्यादिलेप: हीबेराद्यवगाह : अथ दाहाधिकारः । अथ मदात्ययाधिकारः । पाया: स्वरसप्रयोगाः दशमूलक्वाथः ९७ ९८ अथोन्मादाधिकारः । 99 सामान्यत उन्माद चिकित्सो "" "" पुराण घृतलक्षणम् पायसः ९८ " ܪܕ " 19 "" ९९ ९९ 39 "3 19 " 35 १०० " "" "" "" 59 99 १०० 37 १०१ 39. १०१ = = = = Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L -awar " ११४ " विषयानुक्रमणिका। विषयाः पृष्ठांकाः । विषयाः पृष्ठांकाः । विषयाः पृष्ठांकाः उन्मादनाशकनस्यादि १०१ स्नेहलवणम् १०७ आजघृतम् ११२ सिद्धार्थकाद्यगदः विभिन्नस्थानस्थवातचिकित्सा ,, एलादितैलम् ११३ ब्यूषणाद्यवर्तिः १०२ शुष्कगचिकित्सा बलाशैरीयकतैले सामान्यप्रयोगाः शिरोगतवातचिकित्सा महाबलातैलम् कल्याणकं घृतं क्षीरहनुस्तम्भचिकित्सा नारायणतेलम् कल्याणकं च अर्दितचिकित्सा महानारायणतेलम् महाकल्याणकं घृतम् १०३ मन्यास्तम्भचिकित्सा अश्वगन्धातैलम् ११५ चैतसं घृतम् जिह्वास्तम्भचिकित्सा मूलकाद्यं तैलम् महापैशाचिकं घृतम् कल्याणको लहः १०८ रसोनतेलम् हिंग्वाधं घृतम् त्रिकस्कन्धादिगतवायु केतक्याचं तैलम् लशुनाधं घृतम् । चिकित्सा सैन्धवाद्यं तैलम् आगन्तुकोन्मादचिकित्सा माषबलादिक्वाथनस्यम् माससैन्धवलम् अजनम् विश्वाचीचिकित्सा माषादितैलम् धूपाः पक्षाघातचिकित्सा द्वितीयं माषतेलम् नस्यम् " हरीतक्यादिचूर्णम् तृतीयं माषतेलम् तीक्ष्णोषधनिषेधः स्वल्परसोनपिण्डः चतुर्थ माषतेलम् विगतोन्मादलक्षणम् विविधा योगाः १०९ पञ्चमं माषतेलम् अथापस्माराधिकारः। गृध्रसीचिकित्सा षष्ठं महामाषतैलम् वातकादिक्रमेण सामान्यतयनागुग्गुलुः मज्जत्नेहः गृध्रस्या विशेषचिकित्सा महास्नेहः श्चिकित्सा , वंक्षणशूलादिनाशकाः योगाः ११० कुब्जप्रसारणीतलम अजनानि शिराव्यधः त्रिशतीप्रसारणीतैलम् , धूपोत्सादनलेपाः पाददाहचिकित्सा सप्तशतीकं प्रसारणीतेलम् ११९ वचाचूर्णम् एकादशशतिकं प्रसारणीतैलम् १२० अन्ये योगाः झिझिनिवाताचिकित्सा अष्टादशशतिकं प्रसारणीतेलम् ,, स्वल्पपञ्चगव्यं घृतम् " क्रोष्टकशीर्षवातकण्टकखल्ली- महाराजप्रसारणीतेलम् .. १२१ बृहत्पञ्चगव्यं घृतम् | चिकित्सा शुक्तविधिः १२३ महाचैतसं घृतम् आदित्यपाकगुग्गुलुः गन्धानां क्षालनम् कूष्माण्डकघृतम् भावनाविधिः पञ्चपल्लवम् ब्राह्मघृतम् आभादिगुग्गुलुः १११ नखशुद्धिः पलंकषाधं तैलम् मिश्रितवातचिकित्सा वचाहरिद्रादिशोधनम् अभ्यङ्गः आहारविहाराः पूतिशोधनम् अथ वातव्याध्यधिकारः वातनाशकगणः तुरुष्कादिशोधनम् तत्र सामान्यतश्चिकित्सा १०६ कोलादिप्रदेहः ११२/ कस्तूरीपरिक्षा भिन्नभिन्न स्थानस्थवातवंशवारः कर्पूरश्रेष्ठता - चिकित्सा शाल्वणभेदः कुष्ठादिश्रेष्ठता . षड्धरणयोगः अश्वगन्धाघृतम् महासुगन्धितेलम् पक्वाशयगतवातचिकित्सा १०७/ दशमूलघृतम् " पत्रकल्कविधिः १०४ १०५ पादहर्षचिदि " Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - न १२६ (१२) विषयाः पृष्ठांकाः । विषयाः पृष्ठांकाः | विषयाः पृष्ठांकाः लक्ष्मीविलासर्तलम् १२४ अष्टकट्वरतैलम् . १३१ श्यामादिकल्कः १३७ द्रवदानपरिभाषा १२५ कुष्ठादितैलम् यमान्यादिचूर्णम् अनयोर्गुणाः " अथामवाताधिकारः। विविधा योगाः विष्णुतैलम् " सामान्यताश्चकित्सा १३१] द्वितीयं हिंग्वादिचूर्णम् , , सौवर्चलादिगुटिका अथ वातरक्ताधिकारः। शटयादिपाचनम् " हिंग्वादिगुटिका शटयादिकल्कः बाह्यगम्भीरादिचिकित्सा १२५ रास्नादशमूलकाथः बीजपूरकमूलयोगः अमृतादिक्काथद्वयम् एरण्डतैलप्रयोगः स्वेदनप्रयोगाः वासादिकाथः रास्नापञ्चकम् पित्तशूलचिकित्सा मुण्डितिकाचूर्णम् रास्नासप्तकम् बृहत्यादिकाथः पथ्याप्रयोगः विविधा योगाः शतावर्यादिजलम् गुडूचीप्रयोगाः " अमृतादिचूर्णम् त्रिफलादिक्काथः गुडूच्याश्चत्वारो योगाः "वैश्वानरचूर्णम्. एरण्डतैलयोगाः वातप्रधानचिकित्सा __" अलम्बुषादिचूर्णम् अपरत्रिफलादिक्वाथः पित्तरक्ताधिक्ये पटोलादिकाथः,, धात्रीचूर्णम् लेपसेकाः भागोत्तरचूर्णम् कफजशूलचिकित्सा कफाधिक्यचिफित्सा. योगराजगुग्गुलुः संसर्गसन्निपातजचिकित्सा १२७ सिंहनादगुग्गुलुः पञ्चकोलयवागूः " पञ्चकोलचूर्णम् नवकार्षिकः काथः " भागोत्तरमलम्बुषादिचूर्णम् १३४ बिल्वमूलादिचूर्णम् गुडुचीघृतम् "त्रिफलापथ्यादिचूर्णम् मुस्तादिचूर्णम् शतावरीघृतम् अजमोदाद्यवटकः अमृताचं घृतम् नागरघृतम् दशपाकबलातैलम्, अमृताघृतम् आमशूलचिकित्सा गुडूच्यादितैलम् खुड्डाकपद्मकतैलम् शुण्ठीघृतानि " चित्रकादिक्वाथः नागबलातैलम् रसोनपिण्डः " दीप्यकादिचूर्णम् पिण्डतैलत्रयम् प्रसारणीरसोनपिण्डः . पित्तानिलात्मजशूलचिकित्सा कैशोरगुग्गुलुः रसोनसुरा कफपित्तजशूलचिकित्सा अमृताद्यो गुग्गुलुः शिण्डाकी पटोलादिक्वाथः अमृताख्यो गुग्गुलुः सिध्मला वातश्लेष्मजचिकित्सा योगसारामृतः " विश्वादिक्वाथः " आमवाते वानि बृहदू गुडूचीतैलम् " रुचकादिचूर्णम् | अथ शूलाधिकारः। हिंग्वादिचूर्णम् अथोरुस्तम्भाधिकारः। शले वमनलंघनायुपायाः १३६] एरण्डादिक्वाथः १४२ सामान्यतश्चिकित्साविचारः १३० वातशूलचिकित्सा १३७ हिंग्वादिचूर्णमपरम् । केचन योगाः बलादिक्काथः . ,मृगशृङ्गभस्म लेपद्वयम् विडङ्गचूर्णम् विहारव्यवस्था , तुम्बुर्वादिचूर्णम् सन्निपातजशूलचिकित्सा "वचादिचूर्णम् १३५/योगद्वयम १२८ हिग्वादिघृतम् "हिंग्वादिचूर्णम् १३१ हिंग्वादिचूर्णम् Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका। पृष्ठांकाः । विषयाः पृष्ठांकाः विषयाः - - - www wre-WT विषयाः पृष्ठांकाः विदार्यादिरसः १४२ नारिकेलखण्डः . १४७ रोहिण्यादियोगः .. १५३ एरण्डद्वादशकक्वाथः , कलायचूर्णादिगुटी . १४८ दीप्ताग्न्यादिषु स्नेहमात्रा - " गोमूत्रमण्डूरम् त्रिफलायोगी "कफजगुल्मजचिकित्सा शंखचूर्णम् अन्नद्रवशूलचिकित्सा , वमनयोग्यता लोहप्रयोगः विविधा योगाः " गुटिकादियोग्यता मूत्राभयायोगः पथ्यविचारः लेपस्वेदी दाधिक घृतम् अथोदावर्ताधिकारः। प्रयोगः शूलहरधूपः सामान्यक्रमः १४८ रन्जचिकित्सा अपथ्यम् कारणभेदेन चिकित्साभेदः , सन्निपातजचिकित्सा अथ परिणामशूलाधिकारः। श्यामादिगणः १४९/वचादिचूर्णम् सामान्यचिकित्सा १४३ त्रिवृतादिगुटिका " यमान्यादिचूर्णम् १५४ विडङ्गादिगुटिका हरितक्यादिचूर्णम् " हिंग्वाद्यं चूर्ण गुटिका वा हिंग्वादिचूर्णम् नागरादिलेहः " पूतीकादिक्षारः शम्बूकभस्म नाराचचूर्णम् हिंग्वादिप्रयोगः विभीतकादिचूर्णम् लशुनप्रयोगः वचादिचूर्णम् तिलादिगुटिका फलवर्तयः मूत्रजोदावर्तचिकित्सा , शम्बूकादिवटी "सुराप्रयोगः " नादेय्यादिक्षारः शक्तुप्रयोगः १४४ जम्भजाादावर्तचिकित्सा "हिंग्वादिभागोत्तरचूर्णम् १५५ लौहप्रयोगः शक्रजोदावर्तचिकित्सा १५० त्रिफलादिचूर्णम् सामुद्राद्यं चूर्णम् क्षुद्विघातादिजचिकित्सा , कांकायनगुटिका नारिकेलामृतम् | अथानाहाधिकारः। हपुषाचं घृतम् सप्तामृतं लौहम् चिकित्साक्रमः वपलकं घृतम् .. १५६ गुडपिप्पलीघृतम् पिप्पलीघृतम् त्र्यूषणाचं घृतम् . द्विरुत्तरं चूर्णम् त्रायमाणाद्यं घृतम् कोलादिमण्डूरम् वचादिचूर्णम् द्राक्षाचं घृतम् त्रिवृतादिगुटिका भीमवटकमण्डूरम् धात्रीषट्पलकं घृतम् क्षारलवणम् क्षीरमण्डूरम् राठादिवर्तिः चविकादिमण्डूरम् भाषिट्पलकं घृतम् १५१ त्रिकटुकादिवर्तिः क्षीरषट्पलकं घृतम् गुडमण्डूरप्रयोगः शुष्कमूलकाद्यं घृतम् . भल्लातकघृतम् शतावरीमण्डूरम् स्थिराधं घृतम् रसोनाद्यं घृतम् तारामण्डूरगुडः दन्तीहरीतकी राममण्डूरम् १४६ अथ गुल्माधिकारः। वृश्वीराधरिष्टः रसमण्डूरम् चिकित्साक्रमः १५१/ रक्तगुल्माचकित्सा .. १५८ त्रिफलालौहम् वातगुल्मचिकित्सा १५२ शताहादिकल्कः लोहावलेहः एरण्डतैलप्रयोगः तिलक्वाथः धात्रीलोहम् -, लशुनक्षीरम् विविधा योगाः लोहामृतम् १४७ उत्पत्तिभेदेन चिकित्साभेदः , भल्लातकघृतम् खण्डासलकी विदह्यमानगुल्मचिकित्सा ...., अपथ्यम् Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - www Howww , यवक्षारयोगः वा " |ध्यम् AC (१४) चक्रदत्तस्थविषयाः पृष्ठांकाः | विषयाः पृष्ठांकाः विषयाः पृष्ठांकाः अथ हृद्रोगाधिकारः। एलादिचूर्णम् १६३ वरुणायं तैलम् १६८ वातजहृद्रोगचिकित्सा १५८ लोहयोगः शस्त्रचिकित्सा पिप्पल्यादिचूर्णम् अथ प्रमेहाधिकारः। नागरकाथः १५९ शतावादिघृतं क्षार वा १६९ पित्तजहृद्रोगचिकित्सा त्रिकण्टकादिसर्पिः अष्टमेहापहा अष्टो क्वाथाः अन्ये उपायाः सुकुमारकुमारकं घृतम् शुक्रमेहहरः काथ: क्षीरप्रयोगः फिनमेहहरः क्वाथः | अथ मूत्राघाताधिकारः।। ककुभचूर्णम् कषायचतुष्टयी कफजहृद्रोगचिकित्सा सामान्यक्रमः १६४ षण्मेहनाशकाः षट् क्वाथाः १७० त्रिदोषजहृद्रोगचिकित्सा विविधा योगाः कषायचतुष्टयी पुष्करमूलचूर्णम् त्रिकण्टकादिक्षीरम् "वातजमेहचिकित्सा नलादिक्वाथ: गोधूमपार्थप्रयोगः कफपित्तमहचिकित्सा गोधूमादिलप्सिका पाषाणभेदकाथः त्रिदोषजमेहचिकित्सा उपायान्तरम् विविधाः क्वाथाः नागबलादिचूर्णम् " अतिव्यवाजमूत्राघाताचकि० १६५ चूर्णकल्काः हिंग्वादिचूर्णम् चित्रकाद्यं घृतम् , न्यग्रोधाद्यं चूर्णम् दशमूलक्काथ: त्रिकण्टकाद्याः स्नेहाः पाठादिचूर्णम् | अथाश्मयधिकारः। कफपित्तमेहयोः सर्पिषी मृगशृङ्गभस्म। वरुणादिक्वाथः क्रिमिहद्रोगचिकित्सा १६५/धान्वन्तरं घृतम वीरतरादिक्वाथः "त्र्यूषणादिगुग्गुलुः .. १७२ वल्लभकं घृतम् " शुण्ठयादिक्वाधः " शिलाजतुप्रयोगः श्वदंष्ट्राचं घृतम् पाषाणभेदाचं घृतम् १६६ विडंगादिलोहम् बलार्जुनघृतद्वयम् ऊषकादिगणः माक्षिकादियोगः अथ मूत्रकृच्छ्राधिकारः। कुशाद्यं घृतम् " मेहनाशकविहाराः १७३ वातजमूत्रकृच्छ्रचिकित्सा १६१ कफजाश्मरीचिकित्सा "प्रमेहपिडिकाचिकित्सा अमृतादिक्वाथः वरुणादिगणः " वानि पित्तजकृच्छ्रचिकित्सा विविधा योगाः तृणपञ्चमूलम् नागरादिक्वाथः अथ स्थौल्याधिकारः। शतावोदिक्काथ: वरुणादिक्वाथः स्थौल्ये पथ्यानि हरीतक्यादिक्वाथः श्वदंष्ट्रादिक्वाथः केचनोपायाः गुडामलकयोगः श्वदंष्ट्रादिकल्क: व्योषादिसक्तुयोगः एवारुबीजादिचूर्णम् अन्ये योगाः प्रयोगद्वयम् १७४ कफजचिकित्सा एलादिक्वाथः अमृतादिगुग्गुलुः त्रिदोषजचिकित्सा त्रिकण्टकचर्णम् नवकगुग्गुलुः बृहत्यादिक्वाथः पाषाणभेदादिचूर्णम् लौहरसायनम् उत्पत्तिभेदेन चिकित्साभेदः कुलत्थायं घृतम् १६८ त्रिफलाद्यं तैलम् एलादिक्षीरम् तृणपञ्चमूलघृतम् वषप्रदेहाः रक्तजमूत्रकृच्छ्रचिकित्सा , वरुणाद्यं घृतम् त्रिकण्टकादिक्वाथः १६३ सैन्धववीरतरादितैलम् , दलादिलेपः १७३ " ७५ अङ्गरागः Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका। - - sindPrere--- - - - - १८० लेपः रोहीतकघृतम् विपयाः पृष्ठांकाः | विषयाः पृष्ठांकाः । विषयाः पृष्ठांकाः चिञ्चाहरिद्रोद्वर्तनम् १७५/ अथ प्लीहाधिकार। दशमूलहरीतकी हस्तपादस्वेदाधिक्याचकित्सा , यमान्यादिचूर्णम् कंसहरीतकी अरुष्करशोथचिकित्सा अथोदराधिकारः। विविधा योगाः विषशोथचिकित्सा भल्लातकमोदकः सामान्यतश्चिकित्सा . १७६) शोथे वानि प्रयोगद्वयम् वातोदरचिकित्सा , यकृचिकित्सा अथ वृद्धयधिकारः ।। सर्वोदराणां सामान्यचिकित्सा ,, विविधा योगा: वातवृद्धिचिकित्सा १८८ तक्रविधानम् अत्र शिरांव्यधविधिः पित्तरक्तवृद्धिचिकित्सा दुग्धप्रयोगः परिकरो योगः श्लेष्ममेदोमूत्रजवृद्धिचिकित्सा सामुद्राचं चूर्णम् " रोहीतकचूर्णम् शिराव्यधदाहविधिः पित्तोदरचिकित्सा "पिप्पल्यादिचूर्णम् १८२/रास्नादिकाथः कफोदराचकित्सा १७७ वर्द्धमानपिप्पलीयोगः बलाक्षीरम् सन्निपातायुदरचिकित्सा "पिप्पलीचित्रकघृतम् हरीतकीयोगी पिप्पलीघृतम् त्रिफलाकाथ: विविधा योगाः गचित्रकघृतम् सरलादिचूर्णम् पटोलाद्यं चूर्णम् पथ्यायोगः नारायणचूर्णम् १७८ महारोहीतकं घृतम् आदित्यपाकघृतम् ॥ दन्त्यादिकल्कः " | अथ शोथाधिकारः। ऐन्द्रीचूर्णम् माहिषमूत्रयोगः रुद्रजटालपः " वातशोथाचकित्सा गोमूत्रयोगः १८३ अन्ये लेपाः " पित्तजशोथाचकित्सा अर्कलवणम् , बिल्वमूलादिचूर्णम् कफजशोथचिकित्सा शिमुक्वाथः १८४ बध्नरोगस्य विशिष्टचिकित्सा " सन्निपातजशोथाचकित्सा "सैन्धवाद्यं तैलम् इन्द्रवारुणीमूलोत्पाटनम् पुनर्नवाष्टक: क्वाथः रोहितयोगः " शतपुष्पाचं घृतम् . १९० विविधा बोगाः देवदुमादिचूर्णम् गुडयोगाः अथ गलगण्डाधिकारः। दशमूलादिक्वाथः १७९ अन्ये योगाः १८५/पध्यम् हरितक्यादिक्वाथः पुनर्नवादिरसादयः एरण्डतैलादियोगत्रयी क्षारगुटिका नस्यम् पुनर्नवाष्टकः क्वाथः पुनर्नवाचं घृतम् जलकुम्भीभस्मयोगः पुनर्नवागुग्गुलयोगः पुनर्नवाशुण्ठीदशमूलघृते उपनाह: गोमुत्रादियोगः चित्रकाद्यं घृतम् उषितजलादियोगी पुनर्नवादिचूर्णम् पञ्चकोलादिघृतम् अपरे योगाः माणपायसम् |चित्रकघृतम् शस्त्रचिकित्सा दशमूलषट्पलकं घृतम् माणकघृतम् "नस्यं तैलम् चित्रकघृतम् १८० स्थलपद्मघृतम् अमृतादितैलम् शैलेयाचं तैलं प्रदेहो वा वरुणमूलक्वाथः स्नुहाक्षारसद्वयम् " शुष्कमूलाधं तैलम काञ्चनारकल्कः नाराचघृतम् "पुनर्नवावलेहः १८७ आरपशिफाप्रयोगः . १९० लेपा: " बिन्दुघृतम् Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - - - PoPow--- wrior wrrrrorrorer विषयाः पृष्ठांका | विषयाः पृष्ठांकाः | विषयाः पृष्ठांकाः निर्गुण्डीनस्यम् १९१/ सोरेश्वरं घृतम् १९६ विविधा योगाः . २०१ विविधानि नस्यानि विडंगाद्यं तेलम् सद्योव्रणचिकित्सा विविधानि पानानि नष्टशल्यचिकित्सा लेपः अथ विद्रध्यधिकारः। विशेषचिकित्सा छुछुन्दरीवेलम् सामान्यक्रमः १९६ व्रणक्रिमिचिकित्सा शाखोटत्वगादितैलद्वयम् वातविद्रधिचिकित्सा १९७ त्रिफलागुग्गुलुवटकः निर्गुण्डीतेलम् पित्तविद्रधिचिकित्सा त्रिफलागुग्गुलुवटकः कार्पासपूपिकाः श्लेष्मजविद्रधिचिकित्सा , विडंगादिगुग्गुलुः लेपः रक्तागन्तुविद्रधिचिकित्सा , अमृतागुग्गुलुः शस्त्रचिकित्सा अपक्वान्तर्विद्रधिचिकित्सा, जात्याद्यं घृतम् ब्योषादितैलम् पक्कविद्रधिचिकित्सा , गौराद्यं घृतं तैलं च चन्दनाद्यं तैलम् रोपणं तैलम् १९८ करंजाचं घृतम् गुखाद्यं तैलम् प्रपौण्डरीकाद्यं घृतम् अथ व्रणशोथाधिकारः। तिक्ताचं घृतम् ग्रन्थिचिकित्सा १९३ सामान्यक्रमः वातजग्रन्थचिकित्सा १९८ विपरीतमलतैलम् वातशोथे लेपाः पित्तजग्रन्थिचिकित्सा "अङ्गारकं तैलम् श्लेष्मप्रन्थिचिकित्सा अपरी लेपः "प्रपौण्डरीकाद्यं तैलम् लेपः पित्तागन्तुजशोथलेपाः दूर्वाद्यं तैलं घृतं च कफजशोथचिकित्सा शस्त्रचिकित्सा मञ्जिष्ठाद्यं घृतम् अर्बुदचिकित्सा कफवातजशोथचिकित्सा पाटलीतैलम् वातार्बुदचिकित्सा लेपव्यवस्था चन्दनाद्यं यमकम् विम्लापनम् पित्तार्बुदचिकित्सा मनःशिलादिलेपः कफजार्बुदचिकित्सा रक्तावसेचनम् अयोरजआदिलेपः विशेषचिकित्सा पाटनम् सवर्णकरणो लेपः उपनाहाः रोमसञ्जननो लेपः उपोदिकाप्रयोगः गोदन्तप्रयोगः व्रणग्रन्थिचिकित्सा अन्ये लेपाः सर्पनिर्मोकयोगः अथ श्लीपदाधिकारः। | अथ नाडीव्रणाधिकारः। दारणग्रयोगाः नाडीव्रणचिकित्साक्रमः २०४ सामान्यचिकित्सा प्रक्षालनम् वातजचिकित्सा लेपद्वयम् तिलादिलेपः पित्तकफशल्यचिकित्सा प्रयोगान्तरम् व्रणशोधनलेपः " सूत्रवर्तिः, वर्तयः अन्ये लेपाः शोधनरोपणयोगा: कंगुनिकामूलचूर्णम् शस्त्रचिकित्सा रोपणयोगाः "क्षारप्रयोगः पित्तजश्लीपदे लेपः सूक्ष्मास्यव्रणचिकित्सा सप्ताङ्गगुग्गुलुः कफश्लीपदचिकित्सा दाहादिचिकित्सा सर्जिकाद्यं तैलम् वातकफजश्लीपदचिकित्सा .. यवादिधूपः ,कुम्भीकाद्यं तैलम् त्रिकट्वादिचूर्णम् | व्रणदाहनो लेपः , भल्लातकाद्यं तैलम् पिप्पल्यादिचूर्णम् आग्निदग्धव्रणचिकित्सा ,, निर्गुण्डीतैलम् । कृष्णाघो मोदकः , जीरकघृतम् - २०१ हंसपादादितैलम् २०६ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका। (१७) विषयाः पृष्ठांकाः | विषयाः पृष्ठांकाः । विषयाः पृष्ठांकाः २१२/ प्रतिकादिलेपः अथ भगन्दराधिकारः।। अथ भग्नाधिकारः। गन्धकयोगः रक्तमोक्षणम् सामाम्यक्रमः - २१० उद्वर्तनम् वढपत्रादिलेपः स्थानापन्नताकरणम् सिन्दूरयोगः । पक्कापक्कपिडकाविशेषः लेपः कुष्ठहरो गणः त्रिवृदाद्युत्सादनम् बन्धमोक्षणविधिः भल्लातिकादिलेपः ......" रसाजनादिकल्कः सेकादिकम् विषादिलेपः . . कुष्ठादिलेपः । पथ्यम् शशांकलेखादिलेहः । स्नुहीदुग्धादिवर्तिः अस्थिसंहारयोगः ,, सोमराजीप्रयोगः विलादिलेपः रसोनोपयोगः अवल्गुजायोगः विविधा लेपाः वराटिकायोगः... त्रिफलादिक्वाथः नवांशको गुग्गुलुः विविधा योगाः , छिन्नाप्रयोगः सप्तविंशतिको गुग्गुलुः लाक्षागुग्गुलुः ठादिक्वाथ: विविधा उपायाः आभागुग्गुलुः " सप्तसमो योगः विष्यन्दनतेलम् सत्रणभग्नचिकित्सा " विडङ्गादिचूर्णम् करवीराद्यं तैलम् गन्धतैलम् " विजयामूलयोगः निशाद्यं तैलम् २४ भन्ने वानि २१२ विविधां योगाः वयानि " अथ कुष्ठाधिकारः। वायस्यादिलेपः ---- अथोपदंशाधिकारः। वमनम् विरेचनम् गजादिचर्ममसीलेपः सामान्यक्रमः लेपयोग्यता अवल्गुजहरिताललेपः पटोलादिक्काथाः लेपाः धात्र्यादिक्वाथः वातिके लेपसेको पैत्तिके लेपः मनःशिलादिलेपः २१३ गजलेण्डजक्षारयोगः कुष्टादिलेपः जयन्तीयोगः पित्तरक्तजे त्रिफलादिलेपः पञ्चनिम्बचूर्णम् प्रक्षालनम् विडंगादिलेपः चित्रकादिगुग्गुलुः त्रिफलामसीलेपः २१८ " अपरो विडंगादिः भल्लातकप्रयोगः रसाजनलेपः .." दर्वादिलेपः भल्लातकतेलप्रयोगः बब्बूलदलादियोगाः " दिगजेंद्रसिंहो लेपः खदिरप्रयोगः सामान्योपायाः तिक्तषट्पलकं घृतम् पाकप्रक्षालनकाथः... भूनिम्बकाचं घृतम् सिध्मे लेपाः २१४ पञ्चतिक्तकं घृतम् " किटिभादिनाशका लेपाः करजायं घृतम् ,, महातिक्तं घृतम् अगारधूमाद्यं तेलम् ___" उन्मत्तकतेलम् लिंगाश्चिकित्सा महाखादरं घृतम् २१५/पञ्चतिक्तकगुग्गुलुः अथ शूकदोषाधिकारः। पादस्फुटननाशको लेपः ,वज्रकं घृतम् सामान्यक्रमः . २०९ कच्छ्रहरलेपी , आरग्वधादितैलम् ,,, प्रतिभेदचिकित्सा. पानम् . .. " हणकतेलम् प्रत्याख्येयाः .. २१०/पथ्यायोगः ,महातृणकतलम् र "विविधा लेपाः २०९ विविधा लेपाः तिक्तकं घृतम् " अन्ये लेपाः ..." तण्डुललेपाः Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) roorw विषयाः पृष्ठांकाः । विषया: पृष्ठांकाः | विषयाः पृष्ठांकाः २३१ वज्रक तेलम् २२१ वासादिगुग्गुलुः २२५ शिरीषादिलेपः २३० मारचाद्य तेलम् विविधा योगाः विषाचं घृतम् बृहन्मारचा तैलम् , अपरः पटोलादिः , पञ्चतिक्तं घृतम् . विषतेलम् २२२ गुडूच्यादिकाथः महापद्मकं घृतम् करवीराचं तेलम् अन्ये योगाः २२६ स्नायुकचिकित्सा अपरं करवीराचं तेलम् गुडादिमोदकः लेपः सिन्दूराद्यं तैलम् ,हिंग्वादिपुटपाकः महासिन्दूराव तैलम् "वरायोगाः अथ मसूर्यधिकारः। आदित्यपाकं तैलम् पञ्चनिम्बादिचूर्णम् "सामान्यक्रमः दूर्वाद्यं तैलम् अनादिशोधनमारणम् शमनम् अर्कतैलम् क्षुधावती गुटी वमनविरेचनफलम् जीरकायं घृतम् गण्डीराध तेलम् विविधा योगाः पटोलशुण्ठीघृतम् मुष्टियोगपरिभाषा चित्रकादि तैलम् विविधा योगाः सोमराजीतेलम् पिप्पलीघृतम् सामान्यनियमः द्राक्षाचं घृतम् २२८ धूपाः पथ्यम् .. शतावरीघृतम् वातजचिकित्सा पित्तजचिकित्सा अथोदर्दकोठशीत विसर्पविस्फोटाधिकारः। निम्बादिकाथः पित्ताधिकारः। विसर्प सामान्यतश्चिकित्सा २२८ पटोलादिकाथः साधारणःक्रमः वमनम् अन्यत्पटोलादिद्वयम् विरेचनयोगः विरेचनम् खदिराष्टक: केचन योगाः वातविसर्पचिकित्सा अमृतादिकाथः कुष्ठादिगणः उद्वर्तन लेपश्च प्रलेपः आनिमन्थमूललेपः पित्तविसर्पचिकित्सा पादपिडकाचिकित्सा कोठसामान्यचिकित्सा विरेचनम् पाकावस्थाप्रयोगाः निम्बपत्रयोगः श्लेष्मजविसर्पचिकित्सा विविधास्ववस्थासु विविधा विविधा योगा योगा: बमनम् सामान्यचिकित्सा अन्ये योगा: निशादिलेपः त्रिदोषजविसर्पचिकित्सा बिम्ब्यादिकाथ: अथाम्लपित्ताधिकारः। प्रभावः अमृतादिगुग्गुलुः सामान्यचिकित्सा २२४ अमृतादिकाथद्वयम् अथ क्षुद्ररोगाधिकारः। यवादिक्वाथ: पटोलादिकाथः अजगल्लिकादिचिकित्सा २३४ श्रृंगवेरादिकाथ: २२५ भूनिम्बादिक्काथः २३० वल्मीकचिकित्सा पटोलादिकाथः अन्ये योगाः पाददारीचिकित्सा अपरः पटोलादिः " चन्दनादिलेपः उपोदिकादिक्षारतेलम् अपरो यवादिः " " शुकतर्वादिलेपः अलसकचिकित्सा वासादिकाथः "कवलप्रहाः कदरचिप्पचिकित्सा फलत्रिकादिकाथ: शिरीषादिलेपाः । पधिनीकण्टकचिकित्सा पथ्यादिचूर्णम दिशाङ्गलेपः में जालगर्दभचिकित्सा चिकित्सा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका । - - - - - विषयाः पृष्ठांकाः . विषयाः पृष्ठांकाः - विषयाः - - - पृष्ठांकाः अहिपूतनकचिकित्सा २३६ निम्बबीजयोगः २४२ रोहिणीचिकित्सा २४७ गुदभ्रंशचिकित्सा , निम्बतैलयोगः कण्ठशालूकादिचिकित्सा चांगेरीघृतम् ,,क्षीरादितैलम् कण्ठरोगचिकित्सा मूषिकातेलम् ,, महानीलं तेलम् " कटुकादिकाथः परिकर्तिकाचिकित्सा " पलितनं घृतम् , कालकचूर्णम् भवपाटिकादिचिकित्सा , शेलुकतलम् पञ्चकोलकक्षारचूर्णम् युवानपिडकादिचिकित्सा २३७ वृषणकच्छ्वादिचिकित्सा , पीतकचूर्णम् मुखकान्तिकरा लेपाः पटोलादिघृतम् २४३ यवाग्रजादिगुटिका कालीयकादिलेपः , शूकरदंष्ट्रकचिकित्सा सामान्ययोगाः यवादिलेपः पाददाहचिकित्सा पश्चकोलादिक्षारगुटिका . रक्षोनादिलेपः मुखरोगचिकित्सा अथ मुखरोगाधिकारः। सर्वसरचिकित्सा दध्यादिलेपः २२८ वातजौष्ठरोगचिकित्सा हरिद्रादिलेपः २४३ मुखपाकचिकित्सा श्रीवेष्टकादिलेपः कनकतैलम् " जातीपत्रादिकाथगण्डूषः मजिष्ठादितेलम् पित्तजचिकित्सा "कृष्णजीरकादिचूर्णम् कफजचिकित्सा कुंकुमादितैलम् " रसाअनादिचूर्णम् मेदोजचिकित्सा द्वितीयं कुक्कुमादितैलम् " पटोलादिधावनकषायाः शीतादचिकित्सा वर्णकं घृतम् "दाारसक्रिया रक्तस्रावचिकित्सा अरूंषिकाचिकित्सा २४४ सप्तच्छदादिक्वाथः " |चलदन्तस्थिरीकरणम् हरिद्राद्वयतेलम् पटोलादिक्वाथः दन्तशुलचिकित्सा दारुणचिकित्सा " शैशिरचिकित्सा " त्रिफलादियोगाः नीलोत्पलादिलेपः "दग्धमुखचिकित्सा "परिदरोपकुशचिकित्सा त्रिफलादितेलम् " दौर्गन्ध्यहरो योगः " दन्तवैदर्भचिकित्सा चित्रकादितैलम् " सहचरतेलम् अधिकदन्तचिकित्सा गुजालम् " इरिमेदादितैलम् अधिमांसचिकित्सा शृंगराजतैलम् दन्तनाडीचिकित्सा लाक्षादितैलम् प्रतिमर्शतैलम् अधिमांसादिचिकित्सा बकुलादितैलम् इन्द्रलुप्तचिकित्सा कपालिकाक्रिमिदन्तचिकित्सा "लघुखादिरवाटिका " वदनसौरभदा गुटी छागीक्षीरादिलेपद्वयम् बृहत्यादिक्काथः स्नुह्याधं तैलम् नील्यादिचर्वणम् " बृहत्खदिरगुटिका आदित्यपाकतैलम् २४१ हनुमोक्षादिचिकित्सा २४६| अथ कर्णरोगाधिकारः। चन्दनादितैलम् जिह्वारोगचिकित्सा , कर्णशूलचिकित्सा यष्टीमधुकतैलम् कण्टकचिकित्सा __ " दीपिकातेलम् कृष्णीकरणम् |जिह्वाजाडयचिकित्सा "अकेपत्रयोगः अपरं कृष्णीकरणम् दन्तशब्दचिकित्सा "अन्ये योगाः अपरे योगाः उपजिह्वाचिकित्सा "क्षारतेलम् शङ्खचूर्णप्रयोगः , गलशुण्डीचिकित्सा | कर्णनादचिकित्सा मानम् २४२ तुण्डीकर्यादिचिकित्सा २४७ अपामार्गक्षारतेलम् ॥ २४५/ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) चक्रदत्तस्थ विषयाः पृष्ठोंकाः | विषयाः rroreपृष्ठांकाः । विषयाः पृष्ठांकाः - २६१ . २६२ , , सर्जिकादितैलम् २५२ अथ नेत्ररोगाधिकारः। शिराव्यधव्यवस्था दशमूलीतैलम् " सामान्यतश्चिकित्साक्रमः २५७ अम्लाध्युषितचिकित्सा बिल्वतेलम् " श्रीवासादिगुण्डनम् , शिरोत्पातचिकित्सा कर्णनावचिकित्सा लंघनप्राधान्यम् शिराहर्षचिकित्सा जम्ब्वादिरसः "पाचनानि ., व्रणशुक्रचिकित्सा . कर्णनाडीचिकित्सा पूरणम् , फेनादिवर्तिः कर्णप्रतिनाहचिकित्सा करवीरजलसेकः " आश्च्योतनम् विविधा योगाः शिखरियोगः " पुष्पचिकित्सा वरुणादितैलम् लेपाः " करजवर्तिः कर्णाक्रमिचिकित्सा , आश्च्योतनम् २५८ सैन्धवादिवर्तिः धावनादि २५४ अखनादिसमयनिश्चयः ,, चन्दनादिचूर्णाचनम् कुष्ठादितैलम् , बृहत्यादिवर्तिः . दन्तवर्तिः कर्णविद्रधिचिकित्सा , हरिद्राद्यजनम् शंखाद्यञ्जनम् कर्णपालीपोषणम् गरिकाद्यञ्जनम् अन्यान्यजनानि दुर्व्यधादिचिकित्सा पित्तजनेत्ररोगे आश्च्योतनम् , क्षाराञ्जनम् लोध्रपुटपाकः पटोलाद्यं घृतम् अथ नासारोगाधिकारः। कफजचिकित्सा . कृष्णादितैलम् पीनसचिकित्सा सैन्धवाद्याश्च्योतनम् अजकाचिकित्सा व्योषादिचूर्णम् , सामान्यनियमाः .. शशकघृतद्वयम् पाठादितैलम् रक्ताभिष्यन्दचिकित्सा पथ्यम् व्याघ्यादितैलम् दाादिरसक्रिया तिमिरे त्रिफलाविधिः त्रिकट्वादितलम् विशेषचिकित्सा ,, जलप्रयोगः कलिङ्गादिनस्यम् धूपः , सुखावती वर्तिः नासापाकचिकित्सा , निम्बपत्रगुटिका चन्द्रोदया वर्तिः शुण्ठयादितैलं घृतं वा बिल्वपत्ररसपूरणम् हरीतक्यादिवर्तिः दीप्तानाहचिकित्सा लवणादिसिञ्चनम् कुमारिकावर्तिः प्रतिश्यायचिकित्सा अन्ये उपायाः त्रिफलादिवर्तिः धूमयोगः ६ नेत्रपाकचिकित्सा अन्या वर्तयः शीतलजलयोगः विभीतकादिकाथः चन्द्रप्रभा वर्तिः जयापत्रयोगः वासादिकाथः , श्रीनागार्जुनीयवर्तिः अन्ये उपायाः बृहद्वासादिः पिप्पल्यादिवर्तिः माषयोगः त्रिफलाकाथ: व्योषादिवर्तिः अवपीडः आगन्तुजचिकित्सा अपरा व्योषादिः क्रिमिचिकित्सा ,, सूर्योद्यपहतदृष्टिचिकित्सा २६१/नीलोत्पलाद्यञ्जनम् । करवीरतैलम् ,निशादिपूरणम् ,पत्राद्यञ्जनम् । गृहधूमादितैलम् नेत्राभिघातनं घृतम् , शंखाद्यचनम् चित्रकादितैलम् शुष्कपाकन्नमसनम् हरिद्रादिगुटिका चित्रकहरीतकी २५७/अन्यद्वातमारुतपर्ययचिकित्सा , गण्डपदकज्जलम् " Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका। . . (२१) - - PUPP - - - - - - विषयाः पृष्ठांका: विषयाः विषयाः पृष्ठांकाः धूपः अङ्गुलियोगः २६६ पिल्लचिकित्सा २७२ लेपाः २७७ नागयोगः २६७ शिराव्यधः, शलाकाः प्रक्लिन्नवर्मचिकित्सा शिरःकम्पचिकित्सा गौञ्जाजनम् हरिद्रादेवर्तिः यष्टयाचं घृतम् सैन्धवयोगः मजिष्ठाद्यञ्जनम् मयूराद्यं घृतम् उशीराजनम् तुत्थकादिसेकः , प्रपौण्डरीकाद्यं तैलम् धात्र्यादिरसक्रिया पक्ष्मोपरोधचिकित्सा २७३ महामायूरं घृतम् । .. शृंगवेरादिनस्यम् लेख्यभेद्यरोगाः लिङ्गनाशचिकित्सा कफानाहादिचिकित्सा अथासृग्दराधिकारः। रुजाहरलेपाः सामान्यचिकित्सा २७८ २६८/ अथ शिरोरोगाधिकारः। दाादिकाथः घृतम् शिराव्यधः वातिकचिकित्सा २७३ रसाजनादियोगः मेषशृङ्गयाद्यजनम् शिरोबस्तिः |विविधा योगाः स्रोतोजांजनम् पैत्तिकचिकित्सा २७४ सामान्यानयमः रसाजनाजनम् "नस्यम् पुष्पानुगचूर्णम् नालन्यजनम् रक्तजचिकित्सा मुद्गाद्यं घृतम् नदीजाजनम् शीतकल्याणकं घृतम् कफजचिकित्सा कणायोगः कृष्णादिलेपः शतावरीघृतम् गौधयकृद्योगः देवदादिलेपः नक्तान्ध्यहरा विविधा योगाः,, सन्निपातजचिकित्सा अथ योनिव्यापदधिकारः। त्रिफलाघृतम् " त्रिकट्वादिकाथनस्यम् सामान्यचिकित्सा : २८० महात्रिफलाघृतम् "अपरं नस्यम् २७५ वचादियोगः , काश्यपत्रफलं घृतम् लेपाः, शतावाद्यं तैलम् परिषेचनाद्युपायाः तिमिरनत्रफलं घृतम् २७० जीवकादितैलम् योनिविशोधिनी वर्तिः भृङ्गराजतैलम् बृहज्जीवकाचं तेलम् . , दोषानुसारवर्तयः गोशकृत्तैलम् , षड्विन्दुतैलम् , योन्यश्चिकित्सा नृपवल्लभतैलम् ,, क्षयजचिकित्सा अचरणादिचिकित्सा अभिजितलम् . ..., क्रिमिजचिकित्सा ,, आखुतैलम् अचिकित्सा , अपामार्गलम् २७६ भिन्नादिचिकित्सा पुष्पादिरसक्रिया २७१ नागरादियोगी योनिसंकोचनम् शुक्तिकाचिकित्सा , सूर्यावर्तचिकित्सा .. योनिगन्धनाशकं घृतम् अर्जुनचिकित्सा कुकुमनस्यम् ,, कुसुमसजननी वर्तिः पिष्टिकाचिकित्सा कृतमालघृतम् प्राशः, दूर्वापाशः उपनाहचिकित्सा दशमूलप्रयोगः रजोनाशकयोगौ ... फलबीजवर्तिः अन्ये प्रयोगाः गर्भप्रदा योगाः .. त्रिफलायोगः शर्करोदकयोगः स्वर्णादिभस्मयोगः अञ्जननामिकाचिकित्सा , अनन्तवातचिकित्सा नियतगर्भचिकित्सा निमिषविसन्धिचिकित्सा, २७२/शंखकचिकित्सा पुत्रोत्पादका योगाः , Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) विषया: फलघृतम् अपरं फलघृतम् सोमघृतम् नीलोत्पलादि घृतम् बृहच्छतावरीघृतम् लोनाका योगाः आरग्वधादिम् कर्पूरादितैलम् क्षारम् गर्भावचिकित्सा अपरे प्रयोगाः कशेरुकादिक्षीरम् कशेरुकादिचूर्णम शुक गर्भचिकित्सा सुखप्रसवोपायाः सुप्रसूतिकरो मन्त्रः यन्त्रप्रयोगः अपरापातनयोगाः अपरो मन्त्रः अपरे योगाः मक्कल चिकित्सा रक्तस्रावचिकित्सा किक्शरोगचिकित्सा अथ स्त्रीरोगाधिकारः हीरादिकाथः अमृतादिकाथ: सहचरादिकाथः वज्रक पञ्चजीरकगुडः क्षीराभिवर्धनम् स्तन्यविशोधनम् स्तनकील चिकित्सा स्तनशोथ चिकित्सा स्तनपीडाचिकित्सा स्तन कठिनीकरणम् श्रीपर्णीतेलम् कासीसादितैलम् पृष्ठांका: विषयाः विषयाः २८२ स्तनस्थिरीकरणम् २८८ पुष्करादिचूर्णम् २८३ योनिसंकोचनं वशीकरणं च २८९ तृष्णाचिकित्सा RRRRRRR "" 99 २८४ सामान्यक्रमः " चक्रदत्तस्थ 99 RRRR (नेत्रामयचिकित्सा अथ बालरोगाधिकारः । सिध्मपामादिचिकित्सा 35 तुण्डिचिकित्सा " नाभिपाकाचकित्सा "" 95 २८९ | अश्वगन्धघृतम् चाङ्गेरीघृतम् कुमार कल्याणकं घृतम् अष्टमङ्गलं घृतम् लाक्षादितैलम् | ग्रहचिकित्सा २९० | सार्वकामिको मन्त्रः " बलिमन्त्रः नन्दनामातृकाचिकित्सा सुनन्दालक्षणं चिकित्सा च अहिण्डिकाचिकित्सा | अनामकचिकित्सा | अनामकहरं तैलम् कज्जलम् २८४ | अपरे प्रयोगाः "" । . "" "" "" ". 35 35 99 "" 35 "" २८५ सामान्यमात्राः | हरिद्रादिकाथ: चातुर्भद्रचूर्णम् धातक्या दिलेहः रजन्यादिचूर्णम् २८६ | मिश्यादिलेहः | शृङ्गयादिलेहः छर्दिचिकित्सा " पेटथादिपिण्डः " बिल्वादिक्वाथः " समङ्गादिक्वाथः २९१ 1 पूतनाचिकित्सा | मुखमण्डिकाचिकित्सा कठपूतनामातृकाचिकित्सा शकुनिकाचिकित्सा | शुष्करेवती चिकित्सा | अर्थका चिकित्सा भूसूतिकाचिकित्सा | निर्ऋताचिकित्सा "3 19 "" "" "" 22 | पिलिपिच्छिलिकाचिकित्सा २९८ 22 २८७ नागरादिक्वाथः "" समङ्गादियवागूः "" "" 35 "" "" "" लाजायोगः प्रियङ्ग्वादिकल्कः | रक्तातिसारप्रवाहिकाचिकित्सा " महण्यतीसारनाशका योगाः २९२ निम्बपत्रयोगः "" "" पुनर्नवायोगाः "" 33 बिल्वादिक्षीरम् २८८ | गुदपाक चिकित्सा "" ,, मूत्रप्रतालुपात चिकित्सा "" महागदः "3 | मुखपाकचिकित्सा दन्तोद्भवगदचिकित्सा | अरिष्टशान्तिः | हिक्का चिकित्सा | चित्रकादिचूर्णम् " संयोगज विषचिकित्सा ,” कीटादिविषचिकित्सा २९३ | मूषकविषचिकित्सा वृश्चिकचिकित्सा | गोधादिविषचिकित्सा पृष्ठांका: " द्राक्षादिलेह : "" 22 कालिका चिकित्सा अथ विषाधिकारः । | सामान्य चिकित्सा पृष्ठांका: | प्रत्यङ्गिरामूलयोगाः सर्पदष्टचिकित्सा २९३ 35 བ ི མ བ མ བ གཙོ 99 २९५ 29 59 २९६ 力 "2 35 २९७ = = = = = = = "" "9 २९८ " = = = = = २९९ विविधावस्थायां विविधा योगाः,, ३०० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषया: मीनादिविषचिकित्सा श्वविषचिकित्सा भेकविषचिकित्सा लालाविषचिकित्सा नखदंतविषे लेपः कीटविषचिकित्सा मृतसञ्जीवनोऽगदः सामान्यव्यवस्था पथ्यारसायनम् अभयाप्रयोगः लौहत्रिफलायोगः पिप्पलीरसायनम् त्रिफलारसायनम् विविधानि रसायनानि अश्वगन्धारसायनम् धात्रीतिकरसायनम् वृद्धदारकरसायनम् हस्तिकर्णचूर्णरसायनम् धात्रीचूर्णरसायनम् गुडूच्यादिलेह:' सारस्वतघृतम् जलरसायनम् अमृतसारलोहरसायनम् जलनिश्वयः दुग्धनिश्चयः लौह मात्रानिश्चयः प्रक्षेप्योषधनिर्णयः लोहमारणविधिः | भोजनादिनियमः भोजनविधिः अथ रसायनाधिकारः । फलशाकप्रयोग: स्थालीपाक विधिः पुटपाक विधि: लौहपाकरसायनम् त्रिविधपाकलक्षणम् त्रिविधपाकफलम् प्रक्षेप्य व्यवस्था लोहस्थापनम् लोहा घृताहरणम् पृष्ठांका: विषयाः ३०० त्रिफला घृत निषेकः | लोहपाकावशिष्टघृतप्रयोगः लोहा रसायनम् 39 ३०१ अभ्रक भस्मविधिः | लोह सेवनविधिः अनुपान पथ्यादिकम् "" 33 "" "" ३०१ कोष्ठबद्धताहरव्यवस्था मात्रावृद्धिहासप्रकार: "" ३०२ अमृतसार लौह सेवनगुणाः उपसंहारः सामान्यलोह रसायनम् कान्तप्रशंसा रसादिरसायनम् ताम्ररसायनम् शिलाजतुरसायनम् "" 59 "2 "" "" "" ३०३ | शिलाजतुभेदाः प्रयोगविधिः परीक्षा च शिलाजतुगुणाः पथ्यापथ्यम् शिवागुटिका: 27 ३०४ | शिवागुटिकागुणाः अमृतभल्लातकी "" " विषयानुक्रमणिका | पृष्ठांका: "" 97 "2 "" ” विदारी चूर्णम् ३०५ आमलकचूर्णम् विदारीकल्क: "" ३०६ | स्वयंगुप्तादिचूर्णम् RR उच्चटाचूर्णम् ३०७ मधुकचूर्णम् "" "" " 97 विषयाः ३०७ गोधूमाद्यं घृतम् शतावरीघृतम् गुडकूष्माण्डकम् "" ३०८ सामान्यवृष्यम् गोक्षुरादिचूर्णम् माषपायसः रसाला मत्स्यमांसयोगः | नारसिंह चर्णम् 33 लिंगवृद्धिकरा योगाः | अश्वगन्धादितैलम् ," ३०९ | भल्लातकादिलेप: अन्ये योगाः " "" "" " "" ३१० "" "" "" "" ३११ ३१२ " "" | अथ वाजीकरणाधिकारः । ३१५ "" ३१३ ” "" सद्यः स्नेह्याः " स्नेहन योगाः ३१४ "" 39 55 39 199 "" कुप्रयोगजषांढयचिकित्सा अथ मुखगन्धहरो योग: अधोवातगन्धचिकित्सा "" अथ स्नेहाधिकारः । स्नेहविचारः, स्नेहसमयः | स्नेहा अनर्हा वा स्नेहविधिः (२३) पृष्ठांका: | पाश्वप्रसृतिकी पेया योगान्तरम् | स्नेहविचार: उपसंहारः "" " स्वेदप्रयोगविधिः, स्वेदाः ३१६ सामान्यव्यवस्था अस्वेद्याः | अनामेयः स्वेदः | सम्यस्विन्नलक्षणम् ३१६ ३१७ 39 ३१८ अथ स्वेदाधिकारः । सामान्यव्यवस्था, मन्त्रः वमनोषधपाननियमः 29 | मात्रानुपाननिश्वयः | स्नेहव्यापत्तिचिकित्सा स्नेहमर्यादा वमनविरेचनसमयः | स्निग्धातिस्निग्धलक्षणम् 35 अस्निग्धातिस्निग्धचिकित्सा ३२१ अतिस्विन्नलक्षणं चिकित्सा च " 55 "3 ३१९ "" ३१९ "" "" ३२० ARAR अथ वमनाधिकारः । " "" "" "" "" 59 "" "" ३२१ "" ३२२ "" 93 "" ३२३ "7 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - --- - - - - - -- - - - - 05 ३५४ १३० ३२७ (२४) चक्रदत्तस्थ-विषयानुक्रमणिका। - - - -- - विषयाः पृष्ठांकाः | विषयाः पृष्ठांकाः | विषयाः पृष्ठांकाः वमनकरा योगाः ३२३ बस्तिदानविधिः ३२८ धूमपानविधिः वमनाथै काथमानम् सम्यगनुवासितलक्षणम् धूमवर्तयः निम्बकषायः " अनुवासनोत्तरोपचारः , धूमानहोः,धूमव्यापत् , वमनद्रव्याणि ,, स्नेहव्यापञ्चिकित्सा: ३२९ अथ कवलगण्डूषाधिकारः। सम्यग्वमितलक्षणम् विशेषोपदेशः सामान्यभेदाः दुर्वभितलक्षणम् नानुवास्याः सुकवलितलक्षणम् संसर्जनक्रमः ३२४ अनास्थाप्याः विविधा गण्डषाः हीनमध्योत्तमशुद्धिलक्षणम् " | अथ निरूहाधिकारः। , शुद्धिमानम् अथाश्च्योतनाद्यधिकारः। सामान्यव्यवस्था प्रस्थमानम् आश्च्योतनविधिः ३३६ अयोगातियोगचिकित्सा " द्वादशप्रसृतिको बस्तिः , अत्युष्णादिदोषाः अञ्जनम्, , सुनियोजितबस्तिलक्षणम् , शलाका अञ्जनकल्पना, अवाम्या: बस्तिदानविधिः अञ्जननिषेधः अथ विरेचनाधिकारः। सुनिरूढलक्षणम् ,, तपेणम् , तृप्तलक्षणम् सामान्यव्यवस्था ३२४ निरूहमर्यादा ३३१ पुटपाकः कोष्ठविनिश्चयः ३२५ निरूहव्यापश्चिकित्सा ." | अथ शिराव्यधाधिकारः। मृदुविरेचनम् " सुनिरूढे व्यवस्था " ब्रीहिमुखकुठारिकयोः इक्षुपुटपाक: , अर्द्धमात्रिको बस्तिः प्रयोगस्थानम् पिप्पल्यादिचूर्णम् " अनुक्तौषधग्रहणम् ३३२ अयोगादिव्यवस्था ३३९ हरीतक्यादिचूर्णम् अथ क्षारबस्तिः । उत्तरकृत्यम् त्रिवृतादिगुटिका लेहो वा , वैतरणबस्तिः शिराव्यधनिषेधः अभयाद्यो मोदकः पिच्छिलबस्तयः पथ्यव्यवस्था एरण्डतैलयोगः बस्तिगुणः विशुद्धरक्तिनो लक्षणम् ." सम्यग्विरिक्तलिंगम् । ३२६ अथ नस्याधिकारः। अथ स्वस्थवृत्ताधिकारः। दुर्विरिक्तलिङ्गम् दिनचर्याविधिः अतिविरिक्तलक्षणम् नस्यभेदाः ३४० पथ्यनियमः प्रतिमर्शविधानम् अञ्जनादिविधिः अभ्यङ्गव्यायामादिकम् यथावस्थं व्यवस्था अवपीडः २२२ सामान्यनियमाः .. ३४१ अतियोगचिकित्सा नस्यम् " ऋतुचर्याविधिः । अविरेच्याः प्रधमनम् शिरोविरेचनम् " शिशिरचर्या, वसन्तचर्याः अथानुवासनाधिकारः। सम्यक्निग्धादिलक्षणम् ३३४ ग्रीष्मचर्य्या, वर्षाचर्या ३४२ स्नेहमात्राक्रमी ३२७ नस्यानर्हाः " शरच्चया, सामान्यतुचर्या , विधिः , धूमादिकालनिर्णयः " उपसंहारः, अथ बस्तिबस्तिनेत्रविधानम् , अथ धूमाधिकारः। ग्रन्थकारपरिचयः । , निरूहानुवासनमात्रा ३२८ धूमभेदाः, धूमनेत्रम् ,, टीकाकारपरिचयः , इति चक्रदत्तस्थ-विषयानुक्रमणिका समाप्ता। ३३८ ३३२ " हेमन्तचर्याविधिः Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... . . . . . 444 श्रीगणेशाय नमः। PASS. THD SHAL Com-dimananmidin चक्रदत्तः । सुबोधिन्याख्यभाषाटीकयोपेतः । अथ ज्वराधिकारः। चिकित्साविधिः। रोगमादौ परीक्षेत ततोऽनन्तरमौषधम् । ततः कर्म भिषक् पश्चाज्ज्ञानपूर्व समाचरेत् ॥ ३ ॥ मङ्गलाचरणम् । वैद्य को प्रथम निदान पूर्वरूपादिके द्वारा रोगकी परीक्षा करनी गुणत्रयविभेदेन मूर्तित्रयमुपेयुषे । चाहिये, तदनन्तर औषधका निश्चय कर शास्त्रज्ञानपूर्वक त्रयाभुवे त्रिनेत्राय त्रिलोकीपतये नमः ।।१॥ चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ३ ॥ टीकाकारकृतमंगलाचरणम् । नवज्वरे त्याज्यानि । लक्ष्मी विवर्द्धयतु कीर्तिततिं तनोतु नवज्वरे दिवास्वप्नस्नानाभ्यङ्गानमैथुनम् । शान्ति ददातु विदधातु शरीररक्षाम् । क्रोधप्रवातव्यायामकषायांश्च विवर्जयेत् ॥४॥ विनान्विनाशयतु बुद्धिमुपाकरोतु नवीन वरमें दिनमें सोना, स्नान. मालिश, अन्न, भावान्प्रकाशयतु मे गुरुपादरेणुः ॥१॥ | मैथुन, क्रोध, अधिकवायु, कसरत तथा क्वाथका त्याग करना चिकित्सैकफलस्यास्य चक्रदत्तस्य बोधिनीम् । चाहिये ॥ ४ ॥ टीकां करोमि भाषायां सद्वैद्या अनुमन्वताम् ॥२॥ लंघनस्य प्राधान्यं विधिः फलं मर्यादा च । सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणरूपी भेदोंसे त्रिमूर्तियों (ब्रह्मा, ज्वरे लङ्घनमेवादावुपदिष्टमृते ज्वरात् । विष्णु, महेशता ) को प्राप्त होनेवाले, तीनों वेदोंके प्रकाशक या क्षयानिलभयक्रोधकामशोकश्रमोद्भवात् ॥ ५॥ तीनों लोकोंके उत्पादक तथा उनके स्वामी श्रीशिवजीके लिये आमाशयस्थो हत्वानि सामो मार्गान्पिधापयन् । प्रणाम करता हूं॥१॥ विदधाति ज्वरं दोषस्तस्माल्लंघनमाचरेत् ॥ ६॥ अभिधेयादिप्रतिज्ञा। अनवस्थितदोषाग्नेर्लङ्घनं दोषपाचनम् । नानायुर्वेदविख्यातसद्योगैश्चक्रपाणिना । ज्वरघ्नं दीपनं काङ्क्षारुचिलाघवकारकम् ॥७॥ क्रियते संग्रहो गूढवाक्यबोधकवाक्यवान् ॥ २॥ प्राणाविरोधिना चैनं लंघनेनोफ्पादयेत् । चक्रपाणिजी अनेक आयुर्वेदीय ग्रन्थों में लिखे हए| बलाधिष्ठानमारोग्यं यदर्थोऽयं क्रियाक्रमः॥८॥ उत्तम योगोंका उनके गूढार्थ वाक्योंको स्पष्ट कर संग्रह नवीन ज्वरमें लंघन (उपवास कराना) ही उचित है. करते हैं॥२॥ पर क्षयज (धातुक्षयज तथा राजयक्ष्महेतुक ) वातजन्य, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [ ज्वरा - Horrorrorriers-- wwwwwwwwwww भयजन्य तथा काम, क्रोध, शोक और थकावटसे उत्पन्नज्वरमें वमनावस्थामाह। लंघन न करना चाहिये । साम (आमयुक्त) दोष आमाशयमें पहुँच अनिको नष्ट कर रसादिवाही मार्गोको बन्द करता हुआ सद्यो भुक्तस्य वा जाते ज्वरे सन्तर्पणोत्थिते । ज्वर त्पन्न करता है, अतः लंघन करना चाहिये । लंघन वमनं वमनार्हस्य शस्तमित्याह वाग्भटः ॥ १४ ॥ अव्यवस्थित ( न्यूनाधिक्यको प्राप्त ) दोष तथा अग्निको कफप्रधानानुक्लिष्टान्दोषानामाशयस्थितान् । स्वस्थान तथा समान मानमें प्राप्त करता और आमका पाचन, बुद्ध्वा ज्वरकरान्काले वम्यानां वमनैहरेत् ॥१५॥ ज्वरका नाश, आग्निकी दीप्ति, भोजनकी अभिलाषा तथा भोजनमें माचि उत्पन्न करता और शरीरको हलका बनाता है। पर भोजन करनेके अनन्तर ही आये हुए तथा अधिक भोजन लंघन इतना ही कराना चाहिये कि जिससे बलका अधिक करनेसे आये हुए बरमें वमनयोग्य रोगियोंको वमन कराना ह्रास न हो, क्योंकि आरोग्यका आश्रय बल ही है और आरो- | हितकर है । यदि ज्वर-कारक दोष फफप्रधान, आमाशयमें ग्यप्राप्तिके लिये ही चिकित्सा है ॥५-८॥ स्थित तथा वढ़े हुए (हल्लासादियुक्त) हों, तो उन्हें कफवृ द्धिके समय अर्थात् प्रातःकाल वमनयोग्य रोगियोंको वमन लंघननिषेधः। कराकर निकलवा देना चाहिये ॥ १४ ॥ १५॥ तत्तु मारतक्षुत्तृष्णामुखशोषभ्रमान्विते । * अनुचितवमनदोषाः। कार्य न बाले वृद्धे च न गर्भिण्यां न दुर्बले ॥९॥ बातज्वरवालेको तथा भूख, प्यास, मुखशाष ब भ्रमसे| अनुपस्थितदोषाणां वमनं तरुणे ज्वरे । पीडित तथा बालक, वृद्ध व गर्भिणीको लंघन न कराना हृद्रोगं श्वासमानाहं मोहं च कुरुते भृशम् ॥१६॥ चाहिये ॥९॥ नबीन उवरमें भी यदि दो दोष उक्लिष्ट ( हल्लासादियुक्त ) न हों तो वमन कराना, हृदयमें दर्द, श्वास, अफरा तथा सम्यग्लंघितलक्षणम् । मूर्छाका हेतु हो जाता है ॥ १६ ॥ वातमूत्रपुरीषाणां विसंगै गात्रलाघवे ।। जलनियमः। हृदयोद्गारकण्ठास्यशुद्धौ तन्द्राक्लमे गते ॥१०॥ स्वेदे जाते रुचौ चापि क्षुत्पिपासासहोदये। । तृप्यते सलिलं चोष्णं दद्याद्वातकफज्वरे । कृतं लंघनमादेश्यन्निय॑थे चान्तरात्मनि ॥११॥ । मधोत्थे पैत्तिके वाथ शीतलं तिक्तकैः शृतम् ॥१७॥ दीपनं पाचनं चैव ज्वरघ्नमुभयं च तत। अपानवायु, मूत्र तथा मलका भलीभांति निःसरण हो,। स्रोतसां शोधनं बल्यं रुचिस्वेदप्रदं शिवम् ॥१८॥ शरीर हलका हो, हृदय हलका हो, डकार साफ आवे, कण्ठमें | वातकफज्वरमें प्यासकी शान्तिके लिये गरम गरम जल कफका संसर्ग न हो, मुखकी विरसता नष्ट हो गयी हो, तन्द्रा, पिलाना चाहिये तथा मद्य पीनेसे व पित्तसे उत्पन्न ज्वरमें तथा ग्लानि दूर हो गयी हो, पसीना निकलता हो, भोजनमें तिक्तरस युक्त ओषधियोंके साथ औटानेके अनन्तर छान, रुचि हो, भख तथा प्यास रोकनेकी शक्ति न रही हो और मन ठण्डा कर देना चाहिये ॥ १७ ॥ इस प्रकार प्रयुक्त जल अग्निप्रसन्न हो तो समझना चाहिये कि लंघन ठीक होगया॥१०॥११॥ दीपक, आमपाचक, ज्वरनाशक, छिदशोधक, वलवर्धक, अतिलंधितदोषाः। | साचिंकारक और पसीना लानेव ला और कल्याणकर होता है ॥१८॥ पर्वभेदोऽङ्गमर्दश्च कासः शोषो मुखस्य च । षडङ्गजलम् । क्षुत्प्रणाशोऽरुचिस्तृष्णा दौर्बल्यं श्रोत्रनेत्रयोः॥१२॥ मनसः संभ्रमोऽभीक्ष्णमूर्ध्ववातस्तमो हृदि । मुस्तपर्पटकोशीरचन्दनोदीच्यनागरैः। देहाग्निबलहानिश्च लंघनेऽतिकृते भवेत् ॥ १३ ॥ शृतशीतं जलं दद्यात्पिपासाज्वरशान्तये ॥ १९ ॥ अति लंघन करनेसे सन्धि तथा शरीरमें पीडा, खांसी, पडा, खश, लाल चन्दन, सुगन्धवाला तथा सोंठ डाल पिपासायुक्त ज्वरकी शान्तिके लिये नागरमोथा, पित्तपा. मुखका सूखना, भूखका नाश, अरुचि, प्यास, कान तथा नेत्रोम | नि तथा नत्राम औटाकर, ठण्ढा किया जल देना चाहिये ॥१९॥ निर्बलता (स्वविषयग्रहणासामर्थ्य) मनकी अनवस्थितता,आधिक। डकारका आना, बेहोशी तथा शरीर, आनि व बलकी क्षीणता १ वमनके योग्य तथा अयोग्य इसी ग्रन्थमें आगे धमनाधि. होती है ॥ १२॥१३॥ कारमें बतावेंगे, अतः वहांसे जानना। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] पूर्वा परग्रन्थविरोधपरिहारमाह । मुख्यभेषजसम्बन्धो निषिद्धस्तरुणे ज्वरे । तोयपेयादिसंस्कारे निर्दोषं तेन भेषजम् ॥ २० ॥ नवीन ज्वर में प्रधान औषध ( काथ चूर्ण आदि) का निषेध है, पर जल या अन्नके संस्कार में औषध प्रयोग. दोषकारक नहीं होता ॥ २० ॥ जलपाकविधिः । यदप्सु श्रुतशीतासु षडङ्गादि प्रयुज्यते । कर्षमात्रं तत्र द्रव्यं साधयेत्प्रास्थिकेऽम्भसि ॥ २१ ॥ अर्धतं प्रयोक्तव्यं पाने पेयादिसंविधो । जो षडङ्गादि द्रव्य गरम कर ठण्डे पानीमं दिये जाते हैं अर्थात् जहां केवल जल कुछ औषधियों के साथ पकाकर ठण्डा करना लिखा है वहां १ तोला द्रव्य ६४ तोला जलेमें पकाना चाहिये। आधी रहने पर पीने तथा पेया यूष मण्डादिके लिये प्रयुक्त करना चाहिये ॥ २१ ॥ • पथ्यविधिः । बमितं लंघितं काले यवागूभिरुपाचरेत् ॥ २२ ॥ यथास्त्रौषधसिद्धाभिर्मण्डपूर्वाभिरादितः । भाषाटीकोपेतः • आवश्यकतानुसार वमन तथा लंघन करानेके अनन्तर पथ्य के समयपर तत्तद्दोष शामक ओषधियोंके साथ औटे हुए जलसे सिद्ध किया मण्ड तथा यवागू आदि क्रमशः देना चाहिये ॥ २२ ॥ - ६ १ जल द्रव होनेसे द्रवद्वैगुण्यमिति नियमात् तोला छोडना चाहिये । T: 1 ( ३ ) साथ उदर में पीडा तथा ज्वर हो तो मुनक्का, पिपरामूल, चव्य, चीतेको सोंठके जलमें बनायी गयी पेय पिलानी जड, | चाहिये ॥ २३-२५ ॥ द्वन्द्व - सन्निपातज्वरेषु पथ्यम् । पवमूल्या लघीयस्या गुर्व्या ताभ्यां सधान्यया ॥२६ कणया यूषपेयादि साधनं स्याद्यथाक्रमम् । वातपित्ते वातकफे त्रिदोषे श्लेष्मपित्तजे ॥ २७ ॥ वातपित्तज्वर में लघुपञ्चमूल (शालिपर्णी, पृष्ठपर्णी, छोटी कटेरी, बडी कटेरी, गोखरू ) के जलसे, वातकफज्वर में बृहत्पञ्चमूल ( बेलका गूदा, सोनापाठा, खम्भार, पाढल, अरणी ) से, सन्निपातज्वर में दोनों पञ्चमूलों (दशमूल ) से, कफपित्तज्वर में धनिया के सहित छोटी पीपलसे सिद्ध किये जलमें यूष पेया आदि बनाकर देना चाहिये ॥ २६ ॥ २७ ॥ व्याघ्रादियवागूः । यवागूः स्यात्त्रिदोषघ्नी व्याघ्रीदुःस्पर्शगोक्षुरैः । छोटी कटेरी, जवासा, गोखुरूके जलमें सिद्ध की गयी यवागू त्रिदोषनाशक होती है । विशिष्टं पथ्यम् । छोटी पीपल व सौंठ प्रत्येक छः छः म.शे ले अथवा कल्क लाजपेयां सुखजरां पिप्पलीनागरैः शृताम् ॥ २३ ॥ द्रव्य ४ तोला ले कल्क बना एकप्रस्थ जल ( द्रवद्वैगुण्यात् पिबेज्ज्वरी ज्वरहरां क्षुद्वानल्पाग्निरादित: 1. १२८ तोला ) में मिला कल्कसाध्य यवागू बनाना चाहिये । पेयां वा रक्तशालीनां पार्श्ववस्तिशिरोरुजि ॥ २४ ॥ प्रमाण बढ़ा देना चाहिये ॥ २८ ॥ यहां पर कणा व शुण्ठी | इसी प्रकार यदि अधिक यवाग्वादि बनाना हो तो जलादिका श्वदंष्ट्रा कण्टकारीभ्यां सिद्धां ज्वरहरां पिबेत् । तीक्ष्ण द्रव्यका तथा कल्क द्रव्य मृदु द्रव्योंका उपलक्षण है । कोष्ठे विबद्धे सरुजि पिबेत्पेयां शृतां ज्वरी ||२५|| इसका भाव यह है कि तीक्ष्णवीर्य द्रव्य आधा कर्ष, और मृदुमृद्वीका पिप्पलीमूलचव्य चित्रकनागरैः । वीर्य द्रव्य १ पल लेकर १ प्रस्थ जलतें पका अर्धावशिष्ट रहने जो ज्वरी कुछ अग्मिके उदय होनेसे बुभुक्षेित हो उसे प्रथम पर उतार छानकर पेया यवागू आदि बनाना चाहिये । छोटी पीपल तथा सोंठसे पकाये हुए जलसे सिद्ध की हुई पेया देनी चाहिये | इससे ज्वर नष्ट होगा । तथा पसुलियों, मूत्राशके ऊपर अथवा शिरमें शूलके साथ यदि ज्वर हो: तो गोखरू, छोटी कटेरीसे सिद्ध किये हुए जलमें लाल चावलोंकी पेया बनाकर पिलानी चाहिये । यदि मलमूत्रादिकी रुकावटके पेयादिसाधनार्थं क्वाथादिपरिभाषा । १२८ कल्कसाध्ययवाग्वादिपरिभाषा | कर्षा वा कणाशुण्ठयोः कल्कद्रव्यस्य वा पलम् २८ विनीय पाचयेद्युक्त्या वारिप्रस्थेन चापराम् । षडङ्गपरिभाषेव प्रायः पेयादिसम्मता ॥ २९ ॥ · यवागूमुचिताद्भक्ताच्चतुर्भागकृतां वदेत् । पया, यवागू आदि बनानेके लिये षडंगपरिभाषा से ही व्यवहार करना चाहिये । पूर्वाभ्यस्त अन्नकी अपेक्षा चतुर्थांश चावलों की यवागू बनानी चाहिये ॥ २९ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ - aurangewwwwwwwwwwws यः चक्रदत्तः। [ज्वरा G - मण्डादिलक्षणम् । जिस प्रकार वृष्टि मिट्टीके ढेरको आधिक कीचड बना देती है | उसी प्रकार बढे हुए कफको यवागू अधिक बढ़ा देती है, अतः समान्वता३०॥ कफाधिक जबरमें. तथा मदात्यय में, नित्य मद्य पीनेवालोंके स्याद्विलेपी विरलद्रवा। । विरलद्रवा। | लिये, प्रीष्मऋतुमें, पित्तकफकी अधिकतामें तथा ऊर्ध्वगामी सिक्थरहित 'मण्ड, सिक्थसहित 'पेया,' अधिक सीथसहित | ... रक्तपित्तसे युक्त उवरमें यवागू न देनी चाहिये । ऐसी दशामें 'यवागू' तथा सिक्थ ही जिसमें अधिक हों और द्रव कम हो ज्वर नाशक फलोंके रस तथा मधु व शक्कर के सहित लाई के उंसे"विलेपी" कहते हैं * ॥ ३०॥ सक्तुओंसे तर्पण ही कराना चाहिये ॥ ३२-३४॥ तर्पणपरिभाषा। मण्डादिसाधनार्थ जलमानम् । अन्नं पञ्चगुणे साध्यं विलेपी तु चतुर्गुणे ॥ ३१॥ द्रवेणालोडितास्ते स्युस्तर्पणं लाजसक्तवः॥३५॥ मण्डश्चतुर्दशगुणे यवागूः षड्गुणेऽम्भसि । | द्रवद्रव्य ( जल या क्षीर या फलरस ) में मिलाये हुए खीलके सक्तु तर्पण कहे जाते हैं । अर्थात् तृप्तिकारक होते हैं ॥ ३५॥ भात पञ्चगुण जलमें, विलेपी चतुर्गुण जलमें, मण्ड चतुर्दशगुण जलमें तथा यवागू छः गुण जलमें पकानी - ज्वरविशेषे पथ्यविशेषः। चाहिये:॥३१॥ श्रमोपबासानिलजे हितो नित्यं रसौदनः । यवागूनिषेधः। मुद्गयूषौदनश्चापि देयः कफसमुद्भवे ॥ ३६॥ पांशुधाने यथा वृष्टिः केदयत्यतिकर्दमम् ॥३२॥ स एव सितया युक्तः शीतः पित्तज्वरे हितः । तथा श्लेष्मणि संवृद्धे यवागूः श्लेष्मवर्द्धिनी। । रक्तशाल्यादयः शस्ताः पुराणाःषष्टिकैः सह।॥३७॥ मदात्यये मद्यनित्ये ग्रीष्मे पित्तकफाधिके ॥ ३३॥ यवाग्वोदनलाजार्थे ज्वरितानां ज्वरापहाः। ऊर्ध्वगे रक्तपित्ते च यवागूरहिता ज्वरे। मुद्दामलकयूषस्तु वातपित्तात्मके हितः॥३८॥ तत्र तर्पणमेवाग्रे प्रदेयं लाजसक्तुभिः ॥ ३४ ॥ । ह्रस्वमूलकयूषस्तु कफवातात्मके हितः । ज्वरापहै: फलरसैर्युक्तं समधुशर्करम् । निम्ब (निम्बु)मूलक(कूलक)यूषस्तु हितः पित्तकफात्मके श्रम उपवास तथा वातसे उत्पन्न ज्वरमें नित्य मांसरस तथा इस विषय में अनेक मतभेद हैं। कुछ लोगोंका सिद्धान्त भात हितकारक होता है। कफजन्य ज्वरमें मूंगका यूष और है कि यवागूका ही उपरिस्थ द्रव मण्ड है तथा कणसहित भात देना चाहिये । तथा मूंगका यूंष व भात मिश्री मिला यवागू पया तथा विरलद्रवयुक्त यवागू विलेपी कही जाती है, ठण्ढा कर पित्तज्वरमें देना चाहिये । यवागू भात तथा लाईके पर आगेके ही श्लोकमें मण्डादिके लिये अलग अलग जलका लिये, ज्वरनाशक पुराने लाल चावल तथा साठीके चावल परिमाण दिया गया है, अतः ऊपर लिखित अर्थ ही ठीक | ज्वरवालोंके लिये देना चाहिये । वातपित्तज्वरमें मूंग तथा जचता है । वैसे यदि कोई पेया तथा विलेपीको भी यवागू कहे आमलाका यूष हित है । छोटी मूलीका यूष कफवातज्वरमें तो कहे, पर पेय!, विलेपी, यवागू तीनों पृथक् २ ही हैं। इस हितकारक है। नीमकी पत्ती तथा मूलीका युष अथवा परवलके श्लोकमें पेया साधनार्थ जलमान नहीं लिखा, पर पूर्वश्लोकमें पत्तोंका यष निम्बूके रसके साथ अथवा नीमकी पत्ती और लिख चुके हैं-' पेया सिक्थसमन्विता' इससे सिद्ध होता है | परवलकी पत्तीका यूष पित्तकफज्वरम हितकर हे ॥ ३६-३९ ॥ कि सिक्थरहित अर्थात् छानकर द्रवमात्र लिया गया मण्ड और | सिक्थसहित अर्थात् जिसका मण्ड नहीं निकाला गया उसे पेया ज्वरनाशकयूषद्रव्याणि। कहते हैं और जलमान दोनोंका एक ही है, कुछ लोग यहां लिखी गयी यवागूको ही पेया मानते हैं, पर इससे पूर्वापर मुद्गान्मसूरांश्चणकान्कुलत्थांश्चाढकानपि । प्रबल ग्रन्थविरोध उत्पन्न हो जाता है । तथा कुछ लोग चावलोंके आहारकाले यूषार्थ ज्वरिताय प्रदापयेत् ॥ ४०॥ चल जानेसे मण्ड तथा जिसमें चावल जलमें मिल न जाय उसे पेया कहते हैं । मण्डमें छाननेकी आवश्यकता उनके मतसे| ज्वरमें भोजनके समय मूंग, मसर, चना, कुलथी तथा नहीं। पर यह अथ भी ठीक नहीं प्रतीत होता । | अरहरका यूष देना चाहिये ।। ४० ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। - n or ज्वरहरशाकद्रव्याणि । असमयमें भोजन न करना चाहिये । अहित भोजन उसकी आयु या सुखके लिये हितकर नहीं हो सकता ॥ ४६॥पटोलपत्रं वार्ताक कुलकं कारवेल्लकम् ।। कर्कोटकं पर्पटकं गोजिहां बालमूलकम् ॥४१॥ ज्वरपाचनानि । पत्रं गुडूच्याः शाकार्थ ज्वरिताय प्रदापयेत् ।। लंघन स्वेदन कालो यवाग्वस्तिक्तको रसः॥४७॥ ज्वरमें परवलके पत्ते, बैंगन, परवल, करेला, खेखसा| पाचनान्यविपक्कानां दोषाणां तरुणे ज्वरे । (पढ़ोरा अथवा वनपरौरा ), पित्तपापड़ा, जंगली गोभी, कच्ची | मूली तथा गुर्चके पत्तोंका शाक देना चाहिये ॥४१॥ लंघन, पसीना निकालना, समयकी (आठ दिनकी ). प्रतीक्षा, यवागू व तिक्तरस (पेया, यवागू आदिके संस्कापथ्यावश्यकता। रमें ) नवीन ज्वरमें आम दोषका पाचन करते हैं ॥४७॥ज्वरितो हितमश्नीयाद्यद्यप्यस्यारुचिर्भवत् ॥ ४२ ॥ ज्वरस्य तारुण्यादिनिश्चयः। अन्नकाले ह्यभुजानः क्षीयते म्रियतेऽपि वा।। आसप्तरात्रं तरुणं ज्वरमाहुर्मनीषिणः ॥४८॥ भोजनका समय निश्चित हो जानेपर अरुचि होनेपर। मध्यं द्वादशरात्रं तु पुराणमत उत्तरम् । भी हितकारक पदार्थ खाना ही चाहिये । उस समय भोजन न करनेसे बल क्षीण होता है अथवा मृत्यु हो जाती | सात रात्रि पर्यन्त ( ज्वरोत्पत्तिदिवससे ) ' तरुण ' ज्वर, बारह रात्रि पर्यन्त 'मध्य' ज्वर, इसके अनन्तर 'पुराण' ज्वर' विद्वान लोग मानते हैं ॥४८॥ अरुचिचिकित्सा । अरुची मातुलुङ्गस्य केशरं साज्यसैन्धवम् ॥४३॥ तत्र चिकित्सा। धात्रीद्राक्षासितानां वा कल्कमास्येन धारयेत् । । पाचनं शमनीयं वा कषायं पाययेत्तु तम् ॥ ४९ ॥ अरुचिमें बिजौरे नीम्बूका केशर ( रसभरी थेलियां ) घी व | ज्वरितं षडहेऽतीते लध्वन्नप्रतिभोजितम् । सेंधा नमकके साथ अथवा आमला, मुनक्का व मिश्रीकी चटनी। सप्ताहात्परतोऽस्तब्धे सामे स्यात्पाचनं ज्वरे ॥५०॥ मुखमें रखना चाहिये ॥४३॥ निरामे शमनं स्तब्धे सामे नौषधमाचरेत् । सातत्यात्स्वाद्वभावाद्वा पथ्यं द्वेष्यत्वमागतम् ॥४४॥ ज्वरवालेको ६ दिन बीत जानेपर अर्थात् सातवें दिन हलका कल्पनाविधिभिस्तैस्तैः प्रियत्वं गमयेत्पुनः । | पथ्य देकर आठवें दिन भी यदि दोष साम हों तो पाचन सदा एक ही वस्तु खानेसे अथवा स्वादिष्ठ न होनसे यदि कषाय, यदि निराम हों तो शमनकारक कषाय, पिलाना पथ्य अच्छा न लगता हो तो भिन्न भिन्न कल्पनाओं (संयोग चाहिये । सात दिनके अनन्तर यदि दोष साम होनेपर भी संस्कारादि) से पथ्यको पुनः रुचिकारक बनावे ॥ ४४ ॥- निकल रह हों तो पाचन कषाय देना चाहिये । निराम हों तो शमन कषाय देना चाहिये । और यदि दोष साम तथा विबद्ध भोजनसमयः । हों तो औषध न देना चाहिये ॥४९॥५०॥ ज्वरितं ज्वरमुक्तं वा दिनान्ते भोजयेल्लघु ॥४५॥ श्लेष्मक्षये विवृद्धोष्मा बलवाननलस्तदा । आमज्वरलक्षणम् । जिसे ज्वर आ रहा हो अथवा जो शीघ्र ही ज्वरमुक्त हुआ लालाप्रसेको हृल्लासहृदयाशुद्धथरोचकाः ॥५१॥ हो उसे सायंकाल ( अपराह्न ) में हलका भोजन देना चाहिये ।। तन्द्रालस्याविपाकास्यवैरस्यं गुरुगात्रता। उस समय कफ क्षीण रहनेसे गरमी बढ़ती है, अतएव अग्नि | दीप्त होता है ॥ ४५ ॥ क्षुन्नाशो बहुमूत्रत्वं स्तब्धता बलवावरः।। ५२॥ __ अपथ्यभक्षणनिषेधः। आमज्वरस्य लिङ्गानि न दद्यात्तत्र भेषजम् । भेषजं ह्यामदोषस्य भूयो ज्वलयति ज्वरम् ॥५३ ॥ गुर्वभिष्यंद्यकाले च ज्वरी नाद्यात्कथञ्चन ॥४६॥ नहि तस्याहितं भुक्तमायुषे वा सुखाय वा। १ तरुणज्वर लिखकर भी अविपक्व दोष जो लिखा है ज्वरीको गुरु (द्रव्यगुरु-लड्डूआदि, मात्रागुरु-अधिक अतः मध्यज्वरमें भी यदि दोष आम हो तो पाचन ही भोजन ) अभिष्यन्दि ( दोष-धातु-मल-स्रोतो रोधक) तथा देना चाहिये। ... Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [ज्वरा wwwwwww -- - -- -- लारका बहना, मिचलाईका होना, हृदयका भारी होना औषधके ठीक परिपक्व हो जानेपर वायुकी अनुलोमता, अरुचि, तन्द्रा, आलस्य, भोजनका न पचना, मुखका स्वाद स्वास्थ्य, भूख, प्यास, मनकी प्रसन्नता, शरीरका हलकापन, खराब रहना, शरीरका भारीपन, भूखका न लगना, पेशाबका | इंद्रियोंको अपने विषय ग्रहण करने में उत्साह तथा उद्गारकी शुद्धि अधिक आना, जकडाहट, ज्वरके वेगका आधिक्य "आम ज्वरके" होती है ॥ ५८ ॥ लक्षण हैं । ऐसी अवस्थामें औषध न देना चाहिये । औषध | आमदोषयुक्त ज्वरको अधिक बढ़ा देता है ॥ ५१-५३ ॥ अजीर्णौषधलक्षणम्। निरामज्वरलक्षणम् । कुमो दाहोऽङ्गसंदनं भ्रमो मूर्छा शिरोरुजा। अरतिर्बलहानिश्च सावशेषोषधाकृतिः॥ ५९॥ मृदी ज्वरे लघौ देहे प्रचलेषु मलेषु च। ___ औषधके ठीक परिपक्क न होनेपर ग्लानि, जलन, शरीरपकं दोषं विजानीयाज्ज्वरे देयं तदौषधम् ॥५४॥ शैथिल्य, चक्कर, मूर्छा, शिरमें दर्द, बेचैनी तथा बलकी क्षीणता जब ज्वर हलका हो गया हो, शरीर हलका हो गया हो. होती है ॥ ५९॥ मलका निःसरण होता हो, उस समय दोष परिपक्व समझना अजीर्णान्नौषधयोरौषधान्नसेवने दोषाः। चाहिये और तभी औषध देना चाहिये ॥ ५४॥ औषधशेषे भुक्तं पीतं तथौषधं सशेषेऽन्ने । सर्वज्वरपाचनकषायः। न करोति गदोपशमं प्रकोपयत्यन्यरोगांश्च ॥६०॥ नागरं देवकाष्ठं च धान्यकं बृहतीद्वयम् । औषधके विना पचे भोजन करना तथा अन्नके विना पचे औषध सेवन करना:रोगको भी शान्त नहीं करता तथा अन्य दद्यात्पाचन पूर्व ज्वरिताय ज्वरापहम् ॥ ५५॥ रोगोंको भी उत्पन्न कर देता है ॥ ६॥ सोंठ, देवदारु, धनियां, छोटी कटेरी तथा बडी कटेरीका क्वाथ ज्वरमें प्रथम पाचनके लिये देना चाहिये ॥५५॥ . भोजनावृतभेषजगुणाः। औषधनिषेधः। शीघ्रं विपाकमुपयाति बलं न हिंस्या दन्नावृतं नच मुहुर्वदनानिरेति । पीताम्बुलंधितः क्षीणोऽजीर्णी भुक्तः पिपासितः ।। प्राग्भुक्तसेवितमथौषधमेतदेव न पिबेदीषधं जन्तुः संशोधनमथेतरत् ॥ ५६ ॥ दद्याच्च वृद्धशिशुभीरुवराङ्गनाभ्यः ॥ ६१ ॥ जिसने जल पी लिया है अथवा लंघन किया है, जो क्षीण ण भोजनके अव्यवहितपूर्व औषध खानेसे शीघ्र पच जाती तथा अजीर्णयुक्त है, जिसने भोजन किया है अथवा जिसे | है । बल क्षीण नहीं करती। तथा अनसे आच्छादित होनेके प्यास लग रही है, उसे संशोधन तथा संशमन कोई भी औषध | कारण मुखसे ( अस्वादिष्ठ होनेके कारण) निकलती भी नहीं। नपीना चाहिये ॥५६॥ वृद्ध, बालक, सुकुमार तथा स्त्रियोंको इसी प्रकार औषध अन्नसंयुक्तासंयुक्तौषधफलम् । खिलाना चाहिये ॥६॥ वीर्याधिकं भवति भेषजमन्नहीनं मात्रानिश्चयः। हन्यात्तदामयमसंशयमाशु चैव । उद्घालवृद्धयुवतीमृदुभिश्व पीवं मात्राया नास्त्यवस्थानं दोषमाग्निं बलं वयः। ग्लानिं परां नयति चाशु बलक्षयं च ॥५७ ॥ । व्याधि द्रव्यं च कोष्टं च वीक्ष्य मात्रां प्रयोजयेत्॥६० मात्राका ठीक निश्चय नहीं किया जा सकता, क्योंकि सब अन्नहीन ( केवल) औषध अधिक गुण करता है तथा| रोगियोंके लिये तथा सब औषधोंकी एकही मात्रा नहीं हो निःसन्देह शीघ्र ही रोगको नष्ट करता है, पर वही बालक, वृद्ध, सकती । अतः दोष, अग्नि, बल, अवस्था, रोग, द्रव्य, कोष्ठका स्त्रियां तथा सुकुमार पुरुष यदि सेवन करें तो अधिक ग्लानि निश्चय कर मात्रा निश्चित करनी चाहिये ॥१२॥ तथा बलको क्षीण करता है ॥ ५७ ॥ औषधपाकलक्षणम् । सामान्यमात्राः। अनुलोमोऽनिलः स्वास्थ्यं क्षुत्तृष्णा सुमनस्कता।। उत्तमस्य पलं मात्रा त्रिभिश्वाक्षश्च मध्यमे । । लघुत्वमिन्द्रियोद्गारशुद्धि णौषधाकृतिः ॥५८॥ जघन्यस्य पलार्धेन स्नेहक्काथ्योषधेषु च ॥ ६३॥ . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाकपितः । धिकारः ] स्नेह, तथा क्वाथ्य ( जिनका काढा बनाया जाय ) औषधियोंकी मात्र पूर्णबलादि-युक्त के लिये ४ तोला, मध्यके लिये ३ तोला तथा हीनके लिये २ ताला की है ॥ ६३ ॥ क्वाथे जलमानम् । कर्षादौ तु पलं यावद्दद्यात् षोडशिकं जलम् । ततस्तु कुडवं यावत्तोयमष्टगुणं भवेत् ॥ ६४ ॥ क्वाथ्यद्रव्यपले कुर्यात्प्रस्थार्ध पादशेषितम् । एकै तोलेसे चार तोलातक औषधमें १६ गुणा जल छोडना ( इसमें द्रवद्वैगुण्यसे द्विगुण नहीं लिया जा सकता, क्योंकि इसमें कर्षसे ही वर्णन है ) चाहिये। एक पलसे ऊपर ४ पल - पर्यन्त अष्टगुणा जल छोडना चाहिये। (यह परिभाषा पेय क्वाथके लिये नहीं है। क्योंकि पीनेके लिये ४ तोलेसे अधिक क्वाथ्र्यका वर्णन कहीं नहीं है ) पूर्वोक्त परिभाषाको ही स्पष्ट करते हुए लिखते हैं । १ पल क्वाथ्य द्रव्य ३२ तोला द्रवद्वैगुण्यात् ६४ तोला जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर पिलाना चाहिये ॥ ६४ ॥ * मानपरिभाषा | द्वात्रिंशन्माषकर्माषश्चरकस्य तु तैः पलम् ॥ ६५ ॥ अष्टचत्वारिंशता स्यात्सुश्रुतस्य तु माषकः । द्वादशभिर्धान्यमाषैश्चतुःषष्टया तु तैः पलम् ॥ ६६ ॥ एतच्च तुलितं पश्वरक्तिमाषात्मकं पलम् । चरकालोन्मानं चरके दशरक्तिकैः ॥ ६७ ॥ माषैः पलं चतुःषष्टया यद्भवेत्तत्तथेरितम् । ( ७ ) • तस्मात्पलं चतुःषष्टया माषकैर्दशरक्तिकैः ॥ ६८ ॥ चरकानुमतं वैद्यैश्चिकित्सासूपयुज्यते । चरक के मत से .३२ उडदोंका १ २ " रक्तिकादिषु मानेषु यावन्न कुडवो भवेत् । शुष्कद्रवायचापि तुल्यं मानं प्रकीर्तितम् " माशा, ૪૮ १ थहां जो चरकका माशा ३२ उडदोंका बताया है। उसे १० रत्तीका न समझना चाहिये । क्योंकि १२ उड़द जब ५ रत्ती हुए तो २४ उड़द ही १० रत्ती होंगे । अतः दश रत्तीका माशा फर्जी हैं । २४ उड़दका मान कर ६४ माशेका पल माना है । अतः पलकी परिभाषा में चरकके सिद्धान्तसे २ भाग और सुश्रुतके सिद्धान्तसे १ भाग लिया जा सकेगा । आजकल के प्रचलित मानसे इस मानका निर्णय करना भी आवश्यक है । अतः उसे यहां पर लिख देना उचित समझता हूँ । चरकका पल ६४० रत्तीका हुआ, वर्तमान माशा ८ रत्तीका होता है, अतः ८० माशे हुए । १२ माशेका तोला होता है, ६ तोला ८ माशे हुए । इसीप्रकार सुश्रुतका पल ३२० रत्तीका और वह ३ तोला ४ माशाके बराबर हुआ । पर यहां पर टीका में जो मान स्थान स्थान पर दिया गया है वह इन दोनों मानोंसे भी कुछ भिन्न पर प्रचलित दिया गया है । वह इस प्रकार हैं, अनेक आचार्यों ने सुश्रुतके पांच रतीके माषाको ही ६ रतीका लिखा है । यथा शार्ङ्गधरः | "भिस्तु रक्तिकाभिः स्यान्माषको हेमधान्य कौ । माषैश्चतुर्भिः शाणः स्याद्धरणः स निगद्यते ॥ टंकः स एव कथितस्तद्द्वयं कोल उच्यते । कोलद्वयं च कर्षः स्यात् स प्रोक्तः पाणिमानिका " ॥ अर्थात् इनके सिद्धान्तसे ६ रत्ती = १ माषा । ४ माष (२४ रती ) = १ शाण । ४ शाण ( ९६ रत्ती ) = १ कर्ष । इस १ वर्तमान समय में २ तो० ही उत्तम, १ तो० हीन और प्रकार इनके मतसे कर्ष ९६ रत्तीका हुआ । आजकल प्रचलित १॥ तो० मध्यम समझना चाहिये । इस सिद्धान्तसे रक्तिकासे कुडव पर्यन्त मानवाचक शब्दों का जहां प्रयोग होगा वहां समान ही द्रव तथा आर्द्र भी लिये जायँगे । इससे अधिक अर्थात् शराब आदि शब्दों से जहां वर्णन हो वहां, “ द्विगुणं तद्द्रवार्द्वयोः " इस सिद्धान्तसे द्रवादि द्विगुण लिये जाते हैं । अतएव पूर्वमें कर्ष मान है, अतः द्विगुण नहीं ( गवर्नमेण्टद्वारा भी निश्चित ( मान ८ रत्ती = १ माशा । १२ माशा ( ९६ रत्ती ) १ तोला इस प्रकार प्रचलित १ तोळा और पूर्वोक्त कर्ष दोनों ९६ रत्तीके होते हैं, अतएव बराबर हुए । अतः इसी सिद्धान्तसे टीका में पल ( ४ कर्ष ) = ४ तोला, कुडव ( १६ कर्ष ) = १६ तोला, प्रस्थ ( ६४ कर्ष ) = ६४ तोला, आढ़क ( २५६ कर्ष ) = २५६ तोला और प्रचलित सेर ८० तोलाका होता । इस प्रकार ३ सेर १६ तोला और लिया जाता। उत्तरार्द्धमं प्रस्थशब्दसे वर्णन है, अतः द्विगुण द्रोण १०२४ कर्ष = १२ सेर ६४ तोला । इसी प्रकार ५ लिया जाता है । क्वाथ मिट्टीके नवीन पात्रमें खुला मन्दाग्निपर पकाना चाहिये । * वर्तमान समयके लिये आधी मात्रा ही पर्याप्त होगी । छटाक तोलेकी प्रचलित है, अतएव ६४ तोलेकी छटाकें बना लेनेपर १२ छ. ४ तो० अतः द्रोण = १२ सेर ६४ तोला या १२ सेर १२ छ. ४ तो० भी लिखा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ज्वरा -wrww माशाका १ पल । सुश्रुतके सिद्धान्तसे १२ उड़दोंका १ माशा, पूर्णके समान अर्थात् चतुर्थांश स्नेह तथा क्याथ्यद्रव्यसे मानना ६४ माशाका १ पल होता है । यह पल पञ्च राक्तिके | चाहिये ॥ ७२-७४ ॥ बराबरवाले मासे ६४ माशेका होता है और चरकका आधे विभिन्नाः क्वाथा। पलके बराबर होता है । चरकका पल १० रत्तीके माशेसे ६४ माशेका होता है और यही १.० रत्तीके माशेसे ६४ माशेका बिल्वादि पञ्चमूली च गुडूच्यामलके तथा । पल वैद्यलोग चिकित्सामें उपयुक्त करते हैं ॥ ६५-६८॥- कुस्तुम्बुरुसमो ह्येष कषायो वातिके ज्वरे ॥ ७५॥ पिप्पलीशारिवाद्राक्षाशतपुष्पाहरेणुभिः। वातज्वरचिकित्सा। कृतः कषायः सगुडो हन्यात्पवनजं ज्वरम् ॥७६॥ बिल्वादिपञ्चमूलस्य क्वाथःस्याद्वातिके ज्वरे॥६९॥ गुडूची शारिवा द्राक्षा शतपुष्पा पुनर्नवा । पाचनं पिप्पलीमूलं गुडूची विश्वजोऽथवा । सगुडोऽयं कषायः स्याद्वातज्वरविनाशनः ॥ ७७ ॥ किराताब्दामृतोदीच्यबृहतीद्वयगोक्षुरैः ॥ ७० ॥ द्राक्षागुडूचीकाश्मर्यत्रायमाणाः सशारिवाः । सस्थिराकलशीविश्वैः क्वाथो वातज्वरापहः।। निःक्वाथ्य सगुडं क्वाथं पिबेद्वातज्वरापहम्॥७८॥ राना वृक्षादनी दारु सरलं सैलवालुकम् ॥७१॥ शतावरीगुडूचीभ्यां स्वरसो यन्त्रपीडितः । कषायः शकेराक्षौद्रयुक्तो वातज्वरापहः। गुडप्रगाढः शमयेत्सद्योऽनिलकृतं घरम् ॥ ७९ ॥ वातज्वरमें पाचनके लिये बिल्वादिपञ्चमूल (वेलकी छाल, बिल्वादि, पञ्चमूल, गुर्च, आमला तथा धनियांका क्वाथ सोनापाठा, खम्भार, पाढ़ल, अरणी) का क्वाथ अथवा पिप- वातज्वरको नष्ट करता है। छोटी पीपल, शारिवा, (अनन्तरामूल, गुर्च, सोंठका क्वाथ अथवा चिरायता नागरमोथा, मूल), मुनक्का, सौंफ, सम्भालू के बीज मिलाकर बनाया गया गुर्च, सुगंधवाला (नेत्रवाला), छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, क्वाथ गुडके साथ अथवा गुर्च, शारिवा मुनक्का, सौंफ, पुनर्नवा गोखुरू, शालिपर्णी, पृश्निपीका क्वाथ अथवा रासन, बान्दा, (सांठ) का काथ गुडके साथ अथवा मुनक्का, गुर्च, खम्भार, देवदारु, सरल, एलुवाका क्वाथ शकेरा व शहद मिलाकर त्रायमाण व शारिवाका क्वाथ, गुडके साथ वातज्वरको नष्ट देना चाहिये ॥ ६९-७१॥ करता है । इसी प्रकार शतावरी व गुर्चका यन्त्रसे दबाकर |निकाला गया स्वरस २ तोला. गुड आधा तोला मिलाकर पीनेसे प्रक्षेपानुपानमानम् । वातज्वर शान्त होता है ॥७५-७९॥ प्रक्षेपः पादिकः क्वाथ्यात्स्नेहे कल्कसमो मतः७२, . पित्तज्वरचिकित्सा। परिभाषामिमामन्ये प्रक्षेपेऽप्यचिरे यथा। कर्षश्चूर्णस्य कल्कस्य गुटिकानां च सर्वशः॥७३॥ कलिङ्गं कट्फलं मुस्तं पाठा सिक्तकरोहिणी । पक्वं सशर्करं पीतं पाचन पैत्तिके ज्वरे ॥ ८॥ द्रवशुक्त्या स लेढव्यः पातव्यश्च चतुर्द्रवः ।। सैक्षौद्रं पाचनं पैत्ते तिक्ताब्देन्द्रयवैः कृतम् । मात्रा क्षौद्रघृतादीनां स्नेहक्वाथेषु चूर्णवत् ॥७४॥ काढमें प्रेक्षेप काढेकी ओषधियोंसे चतुर्थीश तथा स्नेह लोध्रोत्पलामृतापद्मशारिवाणां सशर्करः ॥ ८१ ॥ (घृतादि) में कल्कसम “ कल्कस्तु स्नेहपादिकः " अर्थात् क्वाथः पित्तज्वरं हन्यादथवा पर्पटोद्भवः । चतुर्थाश ही छोड़ना चाहिये । कुछ आचार्य अग्रिम परिभाषाको पटोलेन्द्रयवक्वाथो मधुना मधुरीकृतः भी प्रक्षेपविषयक मानते हैं। उसका इसका ऐक्य ही है विरोध तीव्रपित्तज्वरामर्दी पानात्तृड्दाहनाशनः ॥८२॥ नहीं। १ तोला औषध (चूर्ण, कल्क या गोली आदि)रतोला द्रव- दुरालभापर्पटकप्रियङ्गुद्रव्य मिलाकर चाटना चाहिये तथा ४ तोला द्रव्यद्रव्य मिलाकर भूनिम्बवासाकटुरोहिणीनाम् । पीना चाहिये तथा शहद और घीकी मात्रा स्नेह तथा क्वाथमें | जलं पिबेच्छकरयावगाढं तृष्णास्रपित्तज्वरदाहयुक्तः॥८३॥ -जा सकता है। पर द्रवद्रव्योंके मान कुड़वके ऊपर प्रायः दुने | हो जाते हैं, अतएव द्रवद्रव्योंका प्रस्थ ६४२% १२८ कर्ष- १ जहां क्वाथकी प्रधानता हो वहां 'प्रक्षेपः' इत्यादि १२८ तोला = १ सेर ९ छ. ३ तो० लिखा जा सकता है। परिभाषा, और जहां चूर्णादिकी प्रधानता हो वहां 'कर्षश्चूर्णस्य . पर जहां दना मान न लिखा हो और द्रवद्वैगुण्यकी प्राप्ति हो कल्कस्य' इत्यादि परिभाषा समझना चाहिये । “ मात्रा क्षीदवहां दूना कर लेना चाहिये ॥ घृतादीनाम्" इत्यादि परिभाषा तो "प्रक्षेपः पादिकः" इसीको १ क्वाथादिमें जो कुछ सिद्ध होनेपर मिलाते हैं, उसे स्पष्ट करती है। प्रक्षेप कहते हैं। २ शहदको काथके ठण्ठे हो जाने पर ही मिलाना चाहिये। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। इन्द्रयव, कायफर, नागरमोथा, पाढ, कुटकीका क्वाथ शर्करा | अपरः पर्पटादिः। मिलाकर पीनेसे पित्तज्वरको शान्त करता है। तथा कुटकी, पर्पटामृतधात्रीणां क्वाथः पित्तज्वरापहः । नागरमोथा, इन्द्रयवका क्वाथ शहद मिला हुआ पित्तज्वरका पाचन करता है। पठानीलोध, नीलकमल (नीलोफर ) गुर्च, द्राक्षारग्वधयोश्चापि काश्मयोश्वाथवा पुनः॥८८।। कमल, शारिवा (अनन्तमूल) का क्वाथ शकरके सहित अथवा पित्तपापड़ा, गुर्च, आमलाका क्वाथ पित्तज्वरको नष्ट करता अकेले पित्तपापड़ाका क्वाथ शकरके साथ देनेसे पित्तज्वरको है । इसी प्रकार मुनक्का, व अमलतासका गूदा तथा खम्भारका शान्त करता है। तथैव परवलकी पत्ती व इन्द्रयवका काथ | क्वाथ लाभ करता है ॥ ८८॥ शहद डाल कर देना चाहिये । अथवा यवासा, पित्तपापडा, प्रियङ्गु (फूलप्रियङ्गु) चिरायता, रुसाहके फूल तथा द्रक्षादिकाथः। कुटकीका वाथ शक्कर मिलाकर प्यास, पित्तज्वर तथा दावा द्राक्षाभयापर्पटकाब्दतिक्ताक्वाथं सशम्याकफलं लेको पीना चाहिये ॥८०-८३॥ विदध्यात् । प्रलापमूर्छाभ्रमदाहशोषतृष्णान्विते प्रायमाणादिकाथः। पित्तभवे ज्वरे तु ॥ ८९ ॥ मुनक्का, बड़ी हर्रका छिलका, पित्तपापड़ा, नागरमोथा, त्रायमाणा च मधुकं पिप्पलीमूलमेव च । कुटकी तथा अमलतासके गूदेका क्वाथ प्रलाप, मूर्छा, भ्रम, किराततिक्तकं मुस्तं मधूकं सविभीतकम् ॥ ८४॥ दाह, मुख सूखना तथा प्याससे युक्त पित्तज्वरमें देना सशर्करं पीतमेतत्पित्तज्वरनिबर्हणम् । चाहिये ॥ ८९॥ त्रायमाण, ( एक प्रसिद्ध लता है, पंसारी लाललाल बीजा अन्तर्दाहचिकित्सा। दे देते हैं वह नहीं है ) मौरेठी, पिपरामूल, चिरायता, नागर- व्युषितं धान्याकजलं प्रातः पीतं सशर्करं पुंसाम् । मोथा, महुआ, बहेड़ा-इनका क्वाथ बना, ठंढ़ा कर शक्कर, अन्तर्दाहं शमयत्यचिराद् दरप्ररूढमपि ॥९०॥ मिलाकर देनेसे पित्तज्वरको नष्ट करता है ॥ ८४ ॥ १ पल धनियां ६ पल जलमें सायङ्काल भिगो देना चाहिये, . सबेरे मल छान शक्कर मिलाकर पीनेसे कठिन अन्तर्दाह शीघ्र मृद्वीकादिक्वाथः । ही शान्त हो जाता है ॥ ९॥ मृद्वीका मधुकं निम्बं कटुका रोहिणी समा। । शीतक्रियाविधानम् । अवश्यायस्थितं पाक्यमेतत्पित्तज्वरापहम् ॥ ८५॥ पित्तज्वरेण तप्तस्य क्रियां शीतां समाचरेत् । मुनक्का, मोरेठी, नीमकी छाल, कुटकी सम भाग ले, काथ| म ाथ पित्तज्वरसे तप्त पुरुषके लिये शीतल चिकित्सा करनी न के लिये शीतल निहित बना, रात्रिमें ओसमें रखकर सबेरे पिलानेसे पित्तज्वर नष्ट चाहिये अर्थात् जिसका पित्तज्वर अधिक समयका हो गया है होता है ॥८५॥ शान्त नहीं होता, उसके लिये शीतल लेपादि करना चाहिये। पर्पटादिक्वाथः। बिदार्यादिलेपः। एकः पर्पटकः श्रेष्ठः पित्तज्वरविनाशनः। विदारी दाडिम लोध्र दधित्थं बीजपूरकम् ॥ ९१ ॥ किं पुनर्यदि युज्येत चन्दनोदीच्यनागरैः ॥ एभिः प्रदिह्यान्मूर्धानं तृड्दाहार्तस्य देहिनः । जिस रोगीको प्यास अधिक लगती है तथा जलन अधिक अकेला ही पित्तपापड़ा पित्तज्वरको शान्त करता है और होती है, उसके शिरमें विदारीकन्द, अनारका फल, पठानीयदि लाल चन्दन, नेत्रवाला तथा सोंठ मिला दी जाय तो। लोध, कैथेका गूदा तथा बिजौरे निम्बूके केशरका लेप क्या कहना ? अर्थात् अवश्य ही पित्तज्वरको शान्त करेगा ८६॥ करना चाहिये ॥११॥ विश्वादिक्काथः। . अन्ये लेपाः। . विश्वाम्बुपर्पटीशीरघनचन्दनसाधितम् । । घृतभृष्टाम्लपिष्टा च धात्री लेपाच दाहनुत् ॥ ९२॥ दद्यात्सुशीतलं वारि तृछर्दिज्वरदाहनुत् ॥ ८७॥ आमलेको घीमें भून निम्बूके रसके साथ पीसकर लेप करनेसे सोंठ, सुगन्धवाला, पित्तपापडा, खश, नागरमोथा. लाल जलन नष्ट होता है ॥९२ ॥ चंदनसे बनाकर ठंडा किया गया क्वाथ प्यास, वमन, ज्वर तथा| अम्लपिष्टैः सुशीतैर्वा पलाशतरुदिहेत् ।। जलनको शान्त करता है ॥ ८७ ॥ बदरीपल्लनोत्थेन फेनेनारिष्टकस्य च ॥ ९३॥ .. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) चक्रदत्त [ ज्वरा निम्बूके रस अथवा काजीमें पीसकर ढाकके पत्तोंका अथवा। पीपल छोटी, पिपरामूल, चव्य, चौतेकी जड, सोंठ, बेरकी पत्ती अथवा नीमकी पत्तीके फेनका लेप करना चाहिये९३ | काली मिच, इलायची बड़ी, अजमोद, इन्द्रयव, पाढ़ी, सम्भा कालेयचन्दनानन्तायष्टीबदरकाजिकैः। लुके बीज, सफेद जीरा, भारङ्गी, बकायनके फल, हींग, कुटकी, सघृतैःस्याच्छिरोलेपस्तृष्णादाहार्तिशान्तये ॥९४॥ सरसों, बायबिडंग, अतीस, मूर्वा यह 'पिप्पल्यादि गण ' कहा पीला चन्दन,, सफेद चन्दन, यवासा, मोरेठी, बेरको जाता है । यह कफ, जुखाम, अरुचि तथा वायुको नष्ट करता, पत्ती सबको महीन पीस घी तथा काजी मिलाकर प्यास, दाह अग्निको दीप्त करता तथा गुल्म व शुलको नष्ट करता और तथा बेचैनीकी शान्तिके लिये शिरमें लेप करना चाहिये ॥९४॥ आमका पाचन करता है ॥ ९८-१००॥ जलधारा। कटुकादिवाया। उत्तानसुप्तस्य गभीरताम्र कटुकं चित्रकं निम्बं हरिद्रातिविषे वचाम् । कांस्यादि पात्रं प्रणिधाय नाभी। कुष्ठमिन्द्रयवं मूर्वी पटोलं चापि साधितम्।।१०१।। तत्राम्बुधारा बहुला पतन्ती पिबेन्मरिचसंयुक्तं सक्षौद्रं श्लैष्मिके ज्वरे । निहन्ति दाहं त्वरितं सुशीता ।। ९५ ॥ कुटकी, चीतकी जड़, नीमकी छाल, हलदी, अतीस, रोगीको उत्तान सुलाकर उसकी नाभीपर गहरा ताम्रपात्र रख वच दूधिया, कूठ, इंद्रजव, मूर्वा, पखलके पत्ते इनका क्वाथ उसमें ठण्ढे जलकी धारा अधिक समय तक छोड़नेसे तत्काल बनाकर काली मिच तथा शहद मिलाकर कफज्वरमें देना दाहको शान्त कर देती है ॥९५॥ चाहिये ॥१०१॥पीतकाजिकवस्त्रावगुण्ठनं दाहनाशनम् । निम्बादिक्वाथः। कपड़ेको चौपरत कर काजीमें भिगोकर शिर, हृदय तथा पेटपर रखनेसे दाह शान्त होता है। निम्बविश्वामृतादारु शटी भूनिम्बपौष्करम् ॥१०२ .. जिह्वातालुगलक्लोमशोषे मूर्ध्नि तु दापयेत् ।। पिप्पल्यौ बृहती चेति क्वाथो हन्ति कफज्वरम् । नामकी छाल, सोंठ, गुर्च, देवदारु, कपूरकचरी, चिरायता, केशरं मातुलुङ्गस्य मधुसैन्धवसंयुतम् ॥९६ ॥ पोहकरमूल, छोटी पीपल, बड़ी पीपल, बड़ी कटेरी इन जिह्वा, तालु, गला तथा क्लोम (पिपासास्थान) के सखने "समस्त औषधियोंका बनाया काथ कफज्वरको नष्ट पर मस्तकम बिजोरे निम्बूका केशर, शहद तथा संधानमक | करताना मिलाकर रखना चाहिये ॥ ९६ ॥ सिन्दुवारवाथः। कफज्वरचिकित्सा । सिन्दुवारदलक्वाथः सोषणः कफजे ज्वरे ॥१०३॥ मातुलुङ्गशिफाविश्वब्राह्मीग्रन्थिकसंभवम् । । अंघयोश्च बले क्षीणे कर्णे वा पिहिते पिबेत्।। कफज्वरेऽम्बु सक्षारं पाचनं वा कणादिकम् ॥१७॥ सम्भालूके पत्तोंका काढ़ा काली मिर्च मिलाकर देनेसे बिजोरे निम्बूकी जड़, सोंठ, ब्राह्मी, पिपरामूल सब समान | सब समान कफज्वर, कानोंकी अवरुद्धता तथा जंघाओंकी निर्बलताको भाग ले क्वाथ बना जवाखार मिलाकर पिलानेसे कफज्वरका । का दूर करता है ॥ १०३॥पाचन होता है। अथवा पिप्पल्यादि क्वाथ यवक्षार मिलाकर पिलाना चाहिये ॥ ९ ॥ आमलक्यादिक्वाथः। पिप्पल्यादिक्वाथः। आमलक्यभया कृष्णा चित्रकश्चेत्ययं गणः॥ सर्वज्वरकफातङ्कभेदी दीपनपाचनः ॥ १०४ ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरम् । आँवलेको छिलका, बडी हर्रका छिलका, छोटी मरिचैलाजमोदेन्दुपाठारेणुकजीरकम् ॥९८॥ पीपल. चीतकी जड़ यह " आमलक्यादि गण" समस्त ज्वर भाङ्गी महानिम्बफलं रोहिगी हिगु सर्वपम् । तथा कफके रोगोंको नष्ट करता है, दस्त साफ लाता है, अग्निको विडङ्गातिविष मूर्वा चेत्ययं कीर्तितो गणः ॥ ९९॥ दीप्त तथा आमका पाचन करता है ॥ १०४ ॥ पिप्पल्यादिः कफहरः प्रतिश्यारोचकानिलान् । । निहन्यादीपनोगुल्मशूलघ्नस्त्वामपाचनः॥१०० ।। - त्रिफलादिक्वाथः। त्रिफलापटोलवासाछिन्नरुहातिक्तरोहिणीषड्मन्थाः। १ जल शरीरमें न पड़ने पावे, इसका ध्यान रहे। । मधुना श्लेष्मसमुत्थे दशमूलीवासकस्य वा काथः॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] आमला, हर्र, बहेड़ा, परवल के पत्ते, रुसाहके फूल, गुर्च, कुटकी, बच - इन औषधियोंका काथ अथवा दशमूल (शालि - पर्णी पृश्निपर्णीबृहतीद्वय गोक्षुराः । बिल्वश्योनाककाश्मर्य पाटलागणिकारिकाः) और साहकी छाल या फूलोका काथ शहदके साथ कफज्वरको शान्त करता है ॥ १०५ ॥ मुस्तादिक्वाथः । भाषाटीकोपेतः । मुस्तं वत्सकबीजानि त्रिफला कटुरोहिणी । परूषकाणि च काथः कफज्वरविनाशनः ॥ १०६ ॥ नागरमोथा, इन्द्रयव, त्रिफला, कुटकी, फालसाका काथ कफज्वरको शान्त करता है ॥ १०६ ॥ चतुर्भद्रावलेहिका । कट्फलं पौष्करं शृङ्गी कृष्णा च मधुना सह । कासश्वासज्वरहरः श्रेष्ठो लेहः कफान्तकृत् ॥ १०७॥ कायफर, पोहकरमूल, काकडासिंगी, छोटी पीपल सब चीजें साफ की हुई समान भाग ले कूट कपड़छान कर शहद में मिला कर चटनी बना लेनी चाहिये । यह अवलेह कास, श्वास, ज्वरको नष्ट करनेवाला तथा कफ नाश करने में श्रेष्ठ है ॥१०७॥ ec चूर्णादिमानम् । कर्षवर्णस्य कल्कस्य गुटिकानां च सर्वशः । द्रवशुक्त्या स लेढव्यः पातव्यश्च चतुर्द्रवः १०८ यह श्लोक पहिले भी लिखा जा चुका है । " १ तोला चूर्ण, कल्क या गोली, २ तोला द्रव द्रव्यसे चाटना चाहिये अर्थात् जहां लेह हो वहां द्विगुण द्रव छोड़ना चाहिये, जहां पान हो वहां चतुर्गुण द्रव छोड़ना चाहिये ॥ १०८ ॥ अवलेह सेवन समयः । ऊर्ध्वजत्रु गरोगनी सायं स्यादवलेहिका । अघोरोगहरी या तु सा पूर्वं भोजनान्मता ॥ १०९॥ त्रिफलादिकाथः | त्रिफलाशाल्मलीरास्नाराजवृक्षाटरूषकैः । तमम्बु हरेत्तूर्णं वातपित्तोद्भवं ज्वरम् ॥ ११२ ॥ त्रिफला, सेमरका मुसरा, रासन, अमलतासका गूदा, रुसाहके फूल या छालका क्वाथ वातपित्तज्वरको शीघ्र ही नष्ट ॥ करता है ॥ ११२ ॥ जसे ऊपरके रोगों ( कास, श्वास आदि) को नष्ट करने वाला अवलेह सायङ्काल चाटना चाहिये । जो अधोगामी रोगोंको नष्ट करनेवाला हो उसे भोजनसे पहिले देना चाहिये ॥ १०९ ॥ ( ११ ) १ यह अवलेह बालकोंके ज्वर खांसी आदिमें बहुत लाभ करता है । बालकोंको ४ रतीसे १ माशातककी मात्रा देनी चाहिये । तथा बलानुसार २ माशे, ३ माशे या ४ माशेकी मात्रा जवान रोगियोंके लिये देनी चाहिये । यही व्यवहार है । यद्यपि मात्रा १ तोलाकी आगेके श्लोकमें कहेंगे, पर वह आज कलके लिये बहुत है। पिप्पल्यवलेहः । क्षीद्रोपकुल्या संयोगः कासश्वासज्वरापहः । लहानं हन्ति हिक्कां च बालानां च प्रशस्यते ॥ ११० छोटी पीपलका चूण तथा शहद मिलाकर बनाया गया अव| लेह कासश्वासयुक्त ज्वर, प्लीहा तथा हिक्काको नष्ट करता है और बालकोंके लिये अधिक हितकर है ॥ ११० ॥ द्वन्द्वचिकित्सा | संसृष्टदोषेषु हितं संसृष्टमथ पाचनम् । मिले हुए दोषों में मिला हुआ पाचन हितकर होता है । वातपित्तज्वराचिकित्सा | विश्वामृतान्दभूनिम्बैः पञ्चमूलीसमन्वितैः । कृतः कषायो हन्त्याशु वातपित्तोद्भवं ज्वरम् १११ ॥ सोंठ, गुर्च, नागरमोथा, चिरायता तथा लघुपञ्चमूल (शालिपर्ण्यादि ) का क्वाथ शीघ्र ही वातपित्तज्वरको नष्ट करता है ॥ १११ ॥ किरातादिक्वाथः । किराततिक्तममृतां द्राक्षामामलकीं शटीम् । निष्काथ्य पित्तानिलजे काथं तं सगुडं पिबेत् ११३ चिरायता, गुर्च, मुनक्का, आमला तथा कचूरका क्वाथ गुड़ मिलाकर पीना चाहिये ॥ ११३ ॥ निदिग्धिकादिक्वाथः । निदिग्धिकाबलारास्नात्रायमाणामृतायुतैः । मसूरविदः काथो वातपित्तज्वरं जयेत् ॥ ११४ ॥ छाटी कटेरी, खरैटी, रासन, त्रायमाण, गुच तथा मसूरकी दालका क्वाथ वातपित्तज्वरको शान्त करता है ११४ ॥ पञ्चभद्रक्वाथः । गुहची पर्पटं मुस्तं किरातं विश्वभेषजम् । वातपित्तज्वरे देयं पञ्चभद्रमिदं शुभम् ॥ ११५ ॥ गुर्च, पित्तपापडा, नागरमोथा, चिरायता तथा सोंठका क्काथ 'पञ्चभद्र' कहा जाता है । यह वातपित्तज्वरको नष्ट | करता है ॥ ११५ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। विरा मधुकादिशीतकषायः। कषायं पाययेदेतपित्तश्लेष्मज्वरापहम् । मधुकं सारिवे द्राक्षा मधूकं चन्दनोत्पलम् । । दाहतृष्णारुचिच्छदिकासहृत्पार्श्वशूलनुत् ॥१२३ ।। काश्मरी पद्मकं लोधं त्रिफलां पद्मकेशरम्॥११६॥ छोटी कटेरी, गुर्च, भार्गी, सोंठ, इन्द्रयव, यवासा, चिरापरूषकं मृणालं च न्यसेदुत्तमवारिणि । यता, लाल चन्दन, नागरमोथा, परवलके पत्ते, कुटकी, इन सबका क्वाथ बनाकर पिलाना चाहिये । यह पित्तकफज्वर, जलन, मधुलाजसितायुक्तं तत्पीतमुवितं निशि ॥ ११७ ॥ प्यास, अरुचि, वमन, कास तथा पशुलियोंके दर्दको नष्ट वातपित्तज्वरं दाहतृष्णामूर्छावमिभ्रमान् । करता है ॥ १२९-१२३॥ शमयेद्रक्तपित्तं च जीमूतानिव मारुतः ॥ ११८ ॥ वासारसः। मोरेठी, दोनों सारिवा, मुनक्का, महुआ, लाल चन्दन, नीलो-1 फर, खम्भार, पद्माख, पठानी लोध, आमला, हरे, बहेड़ा, सपत्रपुष्पवासाया रसःक्षौद्रसितायुतः। कमलका केशर, फालसा, कमलकी डण्डी सबकी दूर कुचा किया कफपित्तज्वरं हन्ति सास्रपित्तं सकामलम् ॥१२४॥ चर्ण रात्रि में षड्गुण गरम जलमें मिला मिट्टीके बर्तनमें रख साहके पत्ते तथा फूलोंसे निकाला गया स्वरस २ तोला, सबेरे शहद मिश्री और खील मिलाकर पीनेसे वातपित्तज्वर, शहद तथा मिश्री दोनों मिलाकर ६ मासे मिलाकर पीनेसे कफदाह, प्यास, मुर्छा, वमन, चक्कर और रक्तपित्तको इस प्रकार पित्तज्वर, रक्तपित्त तथा कामलाको नष्ट करता है ॥ १२४॥ नष्ट कर देता है जैसे वायु मेघोंके समूहको नष्ट कर देता है ॥ ११६-११८॥ पटोलादिक्वाथः। पित्तश्लेष्मज्वरचिकित्सा(पटोलादिकाथः) । पटोलं पिचुमर्दश्च त्रिफला मधुकं बला। पटोलं चन्दनं मूळ तिक्ता पाठामृतागणः। साधितोऽयं कषायः स्यात्पित्तश्लेष्मोद्भवे ज्वरे१२५ पित्तश्लेष्मारुचिच्छर्दिज्वरकण्डूविषापहः ॥११९॥ परवलके पत्ते, नीमकी छाल, आमला, हर्र, बहेड़ा, मोरेठी, खरेटी इनका क्वाथ पित्तकफज्वरको नष्ट करता है ॥ १२५॥ परवलके पत्ते, लाल चन्दन, मूर्वा, कुटकी, पाढ़, गुर्च यह 'पटोलादि क्वाथ ' पित्त, कफ, अरुचि, वमन, ज्वर, खुजली | अमृताष्टकक्वाथः। और विषको नष्ट करता है ॥ ११९ ॥ गुडूचीन्द्रयवारिष्टपटोलं कटुरोहिणी। - गुडूच्यादिक्वाथः। नागरं चन्दनं मुस्तं पिप्पलीचूर्णसंयुतम् ॥ १२६॥ अमृताष्टक इत्येष पित्तश्लेष्मज्वरापहः । गुडूची निम्बधान्याकं पद्मकं चन्दनानि च । एष सर्वज्वरान्हन्ति गुडूच्यादिस्तु दीपनः॥ हृल्लासारोचकच्छर्दितृष्णादाहनिवारणः ॥ १२७ ।। हृल्लासारोचकच्छर्दिपिपासादाहनाशनः ॥ १२०॥ गुर्च, इन्द्रयव, नीमकी छाल, परवली पत्ती, कुटकी, सोंठ, लाल चन्दन, नागरमोथा, इनका क्वाथ बना छोटी पीपलका गुर्च, नीमकी छाल, धनियां, पद्माख, लाल चन्दन, | चूर्ण मिलाकर पीनसे पित्तकफज्वर, मिचलाई, अरुचि, वमन, यह · गुडूच्यादि क्वाथ ' समस्त ज्वरोंको नष्ट कर अग्निको प्यास तथा दाह नष्ट होता है । इसे ' अमृताष्टक । कहते दीप्त करता है । मिचलाई, अरुचि, वमन, प्यास तथा दाहको हैं ॥ १२६॥ १२७॥ नष्ट करता है ॥ १२० ॥ किरातपाठादि। अपरः पटोलादिः। किरातं नागरं मुस्तं गुडूची च कफाधिके । । पटोलयवधान्याकं मुद्रामलकचन्दनम् । पाठोदीच्यमृणालैस्तु सह पित्ताधिक पिबेत् १२१॥ पैत्तिके श्लेष्मपित्तोत्थे ज्वरे तृट्छर्दिदाहनुत् ॥१२८॥ चिरायता, सोंठ, नागरमोथा, गुर्चका क्वाथ बनाकर पित्त- परवलकी पत्ती, यव, धनियां, मूंग, आमला, लाल चन्दन कफज्वरमें यदि कफकी अधिकता हो तो देना चाहिये । यदि इन सबका क्वाथ पित्तज्वर तथा कफपित्तज्वरमें देना चाहिये । पित्तकी अधिकता हो तो इहों ओषधियोंके साथ पाढ़ सुगन्ध- यह प्यास, वमन तथा दाहको नष्ट करता है ॥ १२८॥ वाला तथा कमलके फूल मिला क्वाथ बनाकर देना चाहिये १२१ . कण्टकार्यादिक्वाथः। १ वासाके पत्तों व फूलोंको जलसे धो साफ कपड़से पोंछकर कण्टकायमृतामाङ्गीनागरेन्द्रयवासकम् । खूब महीन पीसना चाहिये, तभी स्वरस निकलेगा। पिस जानेपर भूनिम्बं चन्दनं मुस्तं पटोलं कटुरोहिणी ॥१२२॥ साफ कपड़ेसे छान लेना चाहिये। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। पञ्चतिक्तकषायः। पश्चकोलम्। क्षुद्रामृताभ्यांसह नागरेण सपौष्करं चैव किराततिक्तम्। पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरम् । पिबेत्कषायं त्विह पञ्चतिक्तं ज्वरं निहन्त्यष्टविधं समग्रम् दीपनीयः स्मृतो वर्गः कफानिलगदापहः ॥१३५ ॥ छोटी कटेरी, गुर्च, सोंठ, पोहकरमूल व चिरायताका बनाया | छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, चीतकी जड, सौंठ यह गया क्वाथ समस्त ज्वरोको नष्ट करता है। इसे · पञ्चतिक्त' पञ्चकोल' कफवातजन्य रोगोंको नष्ट करनेवाला तथा अग्निको कषाय' कहते हैं । १२९॥ दीप्त करनेवाला है ॥ १३५॥ कटुकीचूर्णम् । पिप्पलीक्वाथः। सशर्करामक्षमात्रां कटुकामुष्णवारिणा । पिप्पलीभिः शृतं तोयमनभिष्यन्दि दीपनम् । . पीत्वा ज्वरं जयेज्जन्तुः कफपित्तसमुद्भवम् ॥१३०॥ वातश्लेष्मविकारघ्नं प्लीहज्वरविनाशनम् ॥ १३६ ॥ एक तोलो कुटकीका चूर्ण बराबर मिश्री मिलाकर गरम छोटी पीपलका क्वाथ छिद्रोंको साफ कर वातकफजन्यरोग जलसे पीनेसे कफपित्तज्वर शान्त होता है ॥ १३०॥ तथा प्लीहा और ज्वरको नष्ट करता है॥ १३६॥ धान्यादिः। - आरग्वधादिक्वाथः। दीपनं कफविच्छेदि वातपित्तानुलोमनम्। . आरग्वधप्रन्थिकमुस्ततिक्ताज्वरघ्नं पाचनं भेदि शृतं धान्यपटोलयोः ॥१३१॥ हरीतकीभिः क्वथितः कषायः। धनियां तथा परवलकी पत्तीका क्वाथ कफनाशक, अग्निदीपक, सामे सशूले कफवातयुक्ते पाचन, दस्तावर, ज्वरनाशक तथा वातपित्तका अनुलोमन | ज्वरे हितो दीपनपाचनश्च ॥ १३७ ॥ करता है ॥ १३१॥ अमलतासका गूदा, पिपरामुल. नागरमोथा. कुटकी तथा वातश्लेष्मज्वरचिकित्सा। बड़ी हर्रके छिलकेसे बनाया गया क्वाथ आम तथा शुलयुक्त कफवातज्वरको नष्ट करनेवाला, दीपन तथा पाचन है ॥१३॥ कफवातज्वरे स्वेदान्कारयेद्क्षनिर्मितान् । स्रोतसां मार्दवं कृत्वा नीत्वा पावकमाशयम् । क्षुद्रादिक्वाथः। हत्वा वातकफस्तम्भं स्वेदो ज्वरमपोहति ॥१४२॥ क्षुद्रामृतानागरपुष्कराह्वयैः कफवातज्वरमें रूक्ष पदार्थोंसे पसीना निकालना चाहिये । कृतः कषायः कफमारुतोद्भवे। पसीना निकालना छिद्रोंको मुलायम कर अग्निको अपने स्थानमें सश्वासकासारुचिपार्श्वरुक्करे ला वातकफकी जकड़ाहटको दूर कर ज्वरको नष्ट करता है॥१३२॥ ज्वरे त्रिदोषप्रभवे च शस्यते ॥ १३८ । वालुकास्वेदः। छोटी कटेरी, गुर्च, सोंठ तथा पोहकरमूलसे बनाया गया काथ श्वास, कास, अरुचि, पसुलियोंकी पीड़ा सहित कफवातखपरभृष्टपटस्थितकालिकसिक्तो हि वालुकास्वेदः। जन्य ज्वरमें तथा त्रिदोषज्वरमें भी अधिक लाभ करता है १३८ शमयति वातकफामयमस्तकशूलाङ्गभङ्गादीन् ॥१३३॥ खपरेमें गरम की हुई बालको कपड़ेमें रख काजीमें डुबोकर | दशमूलक्वाथः। सेंक करनेसे वातकफजन्य रोग, मस्तकशूल तथा शरीरकी पीड़ा| दशमूलीरसःपेयः कणायुक्तः कफानिले । आदि रोग नष्ट होते हैं । १३३ ॥ अविपाकेऽतिनिद्रायां पार्श्वरुक्श्वासकासके ॥१३९॥ मुस्तादिकाथः। दशमूलका क्वाथ पीपलका चूर्ण मिलाकर पार्श्वशूल, श्वास, | कास तथा आमयुक्त कफवातज्वरमें देना चाहिये ॥ १३९॥ मुस्तनागरभूनिम्बं त्रयमेतभिकार्षिकम् । कफवातामशमनं पाचनं ज्वरनाशनम ॥ १३४॥ मुस्तादिक्वाथः। नागरमोथा, सोंठ, चिरायता तीनों एक एक तोला ले काथ ची सदुरालभा। बनाकर पिलानेसे आमको पचाकर कफवातज्वरको शान्त कफवातारुचिच्छर्दिदाहशोषज्वरापहः॥ १४०॥ करता है ॥ १३४ ॥ नागरमोथा, पित्तपापड़ा, सोंठ, गुर्च और यवासाका क्वाथ कफवातजन्य अरुचि, वमन, दाह मुखका सूखना और ज्वरको १ दोनों मिलकर एक तोला होना चाहिये । नष्ट करता है ॥ १४ ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) [ज्वरा दादिक्वाथः। सन्निपातज्वरमें पाहले लंघन, वालुकास्वेद, नस्य, निष्ठीवन दारुपर्पटभार्यब्दवचाधान्यककट्फलैः। - अवलेह तथा अञ्जनका प्रयोग करना चाहिये । तथा पहिले साभयाविश्वभूतीकैः ('पूतीकैःभूतिक्तः') आम और कफ को शान्त करनेका उपाय करना चाहिये । क्वाथो हिंगुमधूत्कटः ॥ १४१ ॥ | तदनन्तर पित्त और वायुको शान्त करना चाहिये ॥१४५-१४६ कफवातज्वरे पीतो हिक्कावासगलग्रहान् । लंघनम् । कासशोषप्रसेकांश्च हम्यात्तरुमिवाशनिः॥ १४२॥ त्रिरात्रं पञ्चरात्रं वा दशरात्रमथापि वा। देवदारु, पित्तपापडा, भारङ्गी, नागरमोथा, बच, धनियां, लंघनं सन्निपातेषु कुर्याद्वारोग्यदर्शनात् ।। १४७ ॥ कायफर, बड़ी हर्र, सोंठ, अजेवाइनका क्वाथ, हींग तथा शहद सन्निपात ज्वरमें तीन, पांच अथवा दश दिन अथवा जबतक मिलाकर देना चाहिये । यह क्वाथ कफवातज्वर, हिक्का, श्वास, आरोग्य न हो, तबतक लंघन कराना चाहिये ॥ १४७ ॥ गलेकी जकड़ाहट, कास, मुखका सूखना तथा मिचलाहटको इस प्रकार नष्ट करता है, जैसे वज्र वृक्षको नष्ट करदेता लंघनसहिष्णुता। है ॥ १४१॥ १४२॥ दोषाणामेव सा शक्तिलेघने या सहिष्णुता । ___हिंग्यादिमानम्। न हि दोषक्षये काश्चत्सहते लंघनादिकम् ।।१४८॥ मात्रा क्षौद्रघतादीनां स्नेहक्वाथेषु चूर्णवत् ।। दोषोंकी ही शक्तिसे मनुष्य लंघन सहन कर सकता है । दोषोंके नष्ट हो जानेपर कोई लंघन नहीं सह सकता ॥ १४८ ॥ माषिकं हिगुसिन्धूत्थं जरणाद्यास्तु शाणिकाः१४३ / स्नेह तथा क्वाथमें घी तथा शहदकी मात्रा चूर्णके समान | निष्ठीवनम् । अर्थात् स्नेह तथा क्वाथ्यद्रव्यसे चतुर्थांश छोड़ना चाहिये । हींग आर्द्रकस्वरसोपेतं सैन्धवं सकटुत्रिकम् । तथा सेंधानमक १ माशा और जीरा आदिक ३ माशे छोड़ना आकण्ठं धारयेदास्ये निष्ठीवेच्च पुनः पुनः॥१४९॥ चाहिये ॥ १४३॥ अदरखका स्वरस, सेंधानमक, सोंठ, मिर्च व पीपल मिलाकर गलेतक मुखमें बार बार रखना चाहिये और थूकना चाहिये १४९ मुखवैरस्यनाशनम्। तेनास्य हृदयाच्छ्लेष्मा मन्यापाशिरोगलात् । मातुलुङ्गफलकेशरोधृतः लीनोऽप्याकृष्यते शुष्को लाघवं चास्य जायते१५० सिन्धुजन्ममरिचान्वितो मुखे । पर्वभेदोऽङ्गमर्दश्च मू कासगलामयाः । हन्ति वातकफरोगमास्यगं मुखाक्षिगौरवं जाडयमुत्क्लेशश्चोपशाम्यति ॥१५१॥ शोषमाशु जडतामरोचकम् ॥ १४४॥ सकृद् द्वित्रिचतुः कुर्याद् दृष्ट्वा दोषबलाबलम् । बिजौरे निम्बूका गूदा, सेंधानमक तथा काली मिर्च के साथ। एतद्धि परमं प्रादुर्भेषजं सन्निपातिनाम् ॥१५२॥ मुखमें रखनेसे वातकफजन्य मुखरोग, मुखका सुखना, जड़ता | निष्ठीवनसे हृदय, मन्या ( गलेके बगलकी शिरायें ), तथा अरुचि तत्काल नष्ट हो जाती है ॥ १४४ ॥ पसुलियां, शिर तथा गलेमें सूखा तथा रुका हुआ कफ खिच सन्निपातज्वरचिकित्सा । भाता है । तथा यह अङ्ग हलके हो जाते हैं और सन्धियोंका लंघनं वालुकास्वेदो नस्यं निष्ठीवनं तथा । दर्द, शरीरका दर्द, मूर्छा, कास तथा गलेके रोग, मुख तथा अवलेहोऽञ्जनं चैव प्राक् प्रयोज्यं त्रिदोषजे ॥ १४५ नेत्रोंका भारीपन, जड़ता तथा मिचलाई शांत होती है । सन्निपातज्वरे पूर्व कुर्यादामकफापहम् । दोषोंका बलाबल देखकर एक, दो, तीन या चार बार तक पश्चाच्छलेष्मणि संक्षीणे शमयेत्पित्तमारुती॥१४६॥ निष्ठीवन कराना चाहिये । सन्निपातवालोंके लिये यह उत्तम प्रयोग है ॥ १५०-१५२॥ १ किसी पुस्तकमें 'भूतीक' के स्थानमें · पूतीक' तथा नस्यम् । किसीमें 'भूतिक्त ' पाठ है । पर यह पाचनक्काथ है, हिंगु भी | मातुलुङ्गाकरसं कोष्णं त्रिलवणान्वितम् । पड़ती है। अतः साहचर्यसे अजवाइन ही छोडना उचित प्रतीत अन्यद्वा सिद्धिविहितं तीक्ष्णं नस्यं प्रयोजयेत् १५३ होता है। पूतीक-पूतिकजा । भूतिक्त-चिरायता। २ यह मात्रा| बिजौरे निम्बूका रस, अदरखका रस कुछ गरम कर सैंधव, वर्तमानसमयमें अधिक होगी। अतः वैद्योंको इसका निर्णय स्वयं सामुद्र, सौवर्चल नमक मिलाकर नस्य देना चाहिये । अथवा करना चाहिये । मेरे विचारसे भुनी हींग २ रती और नमक | सिद्धिस्थानमें कहे गये अन्य तीक्ष्ण नस्योंका प्रयोग करना १ माशे डालना ठीक होगा। . |चाहिये ॥ १५३॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकार ] 'भाषाटीकोपेतः । तेन प्रभिद्यते श्लेष्मा प्रभिन्नश्च प्रसिच्यते । शिरो हृदयकण्ठास्यपार्श्वरुक् चोपशाम्यति ॥ १५४ ॥ | चाहिये ॥ १६० ॥ नस्य से कफ फट-फट कर गिर जाता है तथा शिर, हृदय, कण्ठ, मुख और पसलियांकी पीड़ा शान्त होती है ॥ १५४ ॥ अञ्जनम् । शिरीषबीजगोमूत्र कृष्णामरिच सैन्धवैः । अनं स्यात्प्रबोधाय सरसोनशिलावचैः ॥ १५७ ॥ सिरस के बीज, गोमूत्र, छोटी पीपल, काली मिर्च, सेंधानमक, लहसुन, शुद्ध मनशिल तथा बचको महीन पीस कर नेत्रों में आजनेसे बेहोशी व तन्द्रा दूर होती है ॥ १५७ ॥ अष्टांगावलेहिका । ॥ कट्फलं पौष्करं शृंगी व्योषं यासश्च कारवी । ऋक्ष्णचूर्णीकृतं चैतन्मधुना सह लेहयेत् ॥ १५८ एषावलेहिका हन्ति सन्निपातं सुदारुणम् । हिक्कां श्वासं च कासं च कण्ठरोगं नियच्छति१२९ कायफल, पोहकरमूल, काकड़ासिंही, सोंठ, मिर्च, छोटी पीपल, थवासा, काला जीरा सब समान भाग ले चूर्ण कपड़छान कर शहदके साथ चटाना चाहिये । यह चटनी कठिन सन्नि - पातज्वर, हिक्का, श्वास, कास तथा इतर कण्ठरोगोंको नष्ट करती है ॥ १५८ ॥ १५९ ॥ संज्ञाकारकं नस्यम् । मधूकसारसिन्धूत्थव चोषणकणाः समाः । श्लक्ष्णं पिष्ट्वाम्भसा नस्यं कुर्यात्संज्ञाप्रबोधनम् १५५ सैन्धवं श्वेतमरिचं सर्षपं कुष्ठमेव च । वस्तमूत्रेण पिष्टानि नस्यं तन्द्रानिवारणम् ।। १५६ | | | महुए के भीतरका कूट, सेंधानमक, वच, कालीमिर्च, छोटी पीपल, समान भाग ले महीन पीस जलमें मिलाकर नस्य देनेसे बेहोशी दूर होती है । इसी प्रकार सेंधानमक, सहिजनके बीज, सरसों, कूठ इन्हें बकरके मूत्र के साथ पीसकर नस्य देनेसे भी बेहोशी दूर होती है ॥ १५५-१५६ ॥ मधुव्यवस्था । ऊर्ध्वग श्लेष्महरणे उष्णे स्वेदादिकर्मणि । विरोध्युष्णे मधु त्यक्त्वा कार्यैषार्द्रकजै रसैः॥ १६० यह चटनी शहदके साथ न बना कर अदेरखके रससे ही वनानी शहद गरम पदार्थों के साथ गरम किया हुआ तथा गरम शरीरमें भी निषिद्ध होता है । और सन्निपीतज्वर में ऊर्ध्वगत श्लेष्मा नष्ट करनेके लिये उष्ण स्वेदादि कर्म किये जाते हैं । अतः (१५) पञ्चमुष्टिकः । यवकीलकुलत्थानां मुद्रमूलकखण्डयोः । एकैकमुष्टिमाहृत्य पचेदष्टगुणे जले ॥ १६१ ॥ पञ्चमुष्टिक इत्येष वातपित्तकफापहः । शस्यते गुल्मशूले च श्वासे कासे क्षये ज्वरे ॥ १६॥ यव, बेर, कुलथी, मूंग, मूली के टुकड़े एक एक मुष्टि (अन्तर्नख मुष्टि या ४ तोला ) प्रत्येक द्रव्य लेकर अठगुने जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर कई बार में थोड़ा थोड़ा पिलाना चाहिये । यह वात, पित्त, कफ, गुल्म, शुल, श्वास, कास, धातुक्षय या यक्ष्मा तथा ज्वरको शान्त करता है ॥ १६१ ॥ १६२ ॥ पञ्चमूल्यादिक्वाथः । पञ्चमूली किरातादिर्गणो योज्यस्त्रिदोषजे । पित्तोत्कटे च मधुना कणया च कफोत्कटे ॥ १६३॥ १ सन्निपातज्वरचिकित्सा में अनेक क्रियायें बतायी गयी हैं, अतः समस्त क्रियायें एक साथ करनी चाहियें ? या एक एक यह शंका उत्पन्न हुई, इसीको स्पष्ट करनेके लिये सुश्रुत ने लिखा है-" क्रियायास्तु गुणालाभे क्रियामन्यां प्रयोजयेत् । पूर्वस्यां शान्तवेगायां न क्रियासंकरो हितः ॥ " इससे एक कालमें अनेक क्रियायें निषिद्ध ही सिद्ध हुई । पर उक्त सुश्रुतोक्त व्यवस्था अन्तः परिमार्जन - चिकित्सा अथवा जहां एक क्रियासे दूसरी क्रियामें विरोध पड़ता हो, वहींके लिये है । क्योंकि अन्तः-परिमार्जक अनेक प्रयोगों से अग्निमान्य या कोष्टभेदादि उत्पन्न हो जायँगे अथवा विरुद्ध गुणवाली औषधियोंसे परस्पर विरोध उत्पन्न हो जायेंगे अथवा विरुद्ध गुणवाली औषधियों से परस्पर विरोध उत्पन्न हो जानेपर एकका भी गुण नहीं होगा । पर यहां सब प्रयाग अन्तःपरिमार्जक या परस्पर विरोधी नहीं हैं, अतः कोई विरोध नहीं पड़ता । इसी सिद्धान्तका समर्थन श्रीयुत वृन्दजीने भी किया है । यथा - " क्रियाभिस्तुल्यरू• पाभिः क्रियासांकर्यभिष्यते । भिन्नरूपतया यास्तु ताः कुर्वन्ति न दूषणम् ॥” और अञ्जन, नस्य, अवलेह आदि बलवती व्यापत्तियोंके दूर करनेके लिये किये जाते हैं, अतः कोई विरोध न | समझना चाहिये || २ किसी किसीका मत है कि उपरोक्त द्रव्य सब मिलकर ४ तो० लेना चाहिये, पर यह आहार द्रव्य है, अतः प्रत्येक ही ४ तो ० लेना उचित हैं । इसी योगमें धनिया, सोंठ मिलाकर इसे ' सप्तमुष्टिक ' भी कहते हैं । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। . [वरी - - - -rowriwriwariya लघुपञ्चमूल तथा किरातादि गणकी औषधिये चिरायता, अपरोऽष्टादशाङ्गः। सोंठ, नागरमोथा, गुर्चको पित्तप्रधान त्रिदोषज्वरमें शहदके। साथ तथा कफप्रधानमें छोटी पीपलके चूर्णके साथ देना। भूनिम्बदारुदशमूलमहौषधाब्दचाहिये ॥ १६३॥ तिक्तेन्द्रबीजधानकेभकणाकषायः । तन्द्राप्रलापकसनारुचिदाहमोहदशमूलम् । श्वासादियुक्तमखिलं ज्वरमाशु हन्ति ॥ १७०॥ बिल्वश्योनाककाश्मर्यपाटलागणिकारिकाः। चिरायता, देवदारु, दशमूल, सोंठ, नागरमोथा, कुटकी, दीपनं कफवातघ्नं पञ्चमूलमिदं महत् ॥ १६४॥ इन्द्रयव, धनियां, और गजपीपल इनका क्वाथ, तन्द्रा, प्रलाप, शालिपर्णी पृश्निपर्णी बृहतीद्वयगोक्षुरंम् । कास, अरुचि, दाह, मोह, तथा श्वासादियुक्त समस्त ज्वरोंको नष्ट वातपित्तहरं वृष्यं कनीयः पञ्चमूलकम् ॥६५॥ करता है ॥ १७॥ उभयं दशमूलं तु सन्निपातज्वरापहम् । मुस्तादिक्वाथः। कासे श्वासे च तन्द्रायां पार्श्वशूले च शस्यते ॥ पिप्पलीचूर्णसंयुक्तं कण्ठहृद्ग्रहनाशनम् ॥ १६६ ॥ मुस्तपर्पटकोशीरदेवदारुमहौषधम् । बेलकी जड़की छाल, सोनापाठा, खम्भार, पाढ़ल, अरणी त्रिफला धन्वयासश्च नीली कम्पिल्लकं त्रिवृत् ॥ इसे “ महत्पञ्चमूल" कहते हैं । यह अग्निको दीप्त करनेवाला किरातातिक्तकं पाठा बला कटुकरोहिणी। तथा कफवायुको नष्ट करनेवाला है । सरिवन, पिठिवन, छोटी मधुकं पिप्पलीमूलं मुस्ताद्यो गण उच्यते १७२।। कटेरी, बड़ी कटेरी तथा गोखुरू यह "लघुपञ्चमूल " वातपि- अष्टादशाङ्गमुदितमेतद्वा सन्निपातनुत् । त्तको नष्ट करनेबाला तथा वाजीकर है। दोनों मिलकर 'दश- पित्तोत्तरे सन्निपाते हितं चोक्तं मनीषिभिः । मूल ' कहा जाता है। यह खांसी, श्वास, तन्द्रा तथा पार्श्वशू मन्यास्तम्भ उरोघाते उरःपार्श्वशिरोगहे १७३ ।। लमें विशेष लाभ करता है। सान्निपातज्वरको नष्ट करता है। छोटी पीपलके चूर्णके साथ कण्ठ तथा हृदयकी जकड़ाहटको नागरमोथा, पित्तपापड़ा, खश, देवदारु, सोंठ त्रिफला, यवासा, नील कबीला, निसोथ, चिरायता, पाठा, . नष्ट करता है ॥ १६४-१६६ ॥ खरेंटी ( बरियारीबीज ) कुटकी, मोरेठी तथा पिपरामूल यह चतुर्दशांगक्वाथः। मुस्तादिगण' अथवा 'अष्टादशांग' क्वाथ कहा जाता है। चिरज्वरे वातकफोल्वणे वा यह पित्तप्रधान सन्निपातमें विशेष हितकर है। मन्यास्तम्भ, त्रिदोषजे वा दशमूलमिश्रः। छातीके दर्द तथा छाती, पसली व शिरकी जकड़ाहटको नष्ट किराततिक्तादिगणःप्रयोज्यः करता है ॥ १७१-१७३ ॥ शुद्धयर्थिने वा त्रिवृताविमिश्रः ॥ १६७ ॥ . शट्यादिक्वाथः । वातकफप्रधान जीर्णज्वरमें अथवा वातकफप्रधान सन्निपात-| शटी पुष्करमूलं च व्याघ्री शृंगी दुरालभा । ज्वरमें दशमूलके सहित किराततिक्तादिगण (“ किराततिक्तकं| गुडूची नागरं पाठा किरातं कटुरोहिणी ॥ १७४॥ मुस्तं गुडूची नागरं तथा") की औषधियोंका क्वाथ देना चाहिये। एष शटयादिको वर्गः सन्निपातज्वरापहः। यदि विरेचनद्वारा शुद्धि कराना आवश्यक हो तो निशोथका | कासहृद्रहपार्धार्तिश्वासे तन्द्रयां च शस्यते १७५ ।। चूर्ण मिलाकर देना चाहिये ॥१६॥ कचूर, पोहकरमूल, छोटी कटेरी, काकड़ासिंगी, यवासा, __ अष्टादशाङ्गक्वाथः। गुर्च, सोंठ, पाढ़, चिरायता, कुटकी यह "शटयादिक्वाथ" सनिदशमूली शठी शृङ्गी पौप्करं सदुरालभम् । पातज्वर, कास, हृदयकी जकड़ाहट, पार्श्वशूल, तथा तंद्राको भाी कुटजबीजं च पटोलं कटुरोहिणी १६८॥ नष्ट करताहै ॥ १७४ ॥ १७५ ॥ अष्टादशाङ्ग इत्येष सन्निपातज्वरापहः । कासहदहपाश्वातिश्वासहिकावमीहरः १६९॥ बृहत्यादिकाथः। दशमूल, कचूर,काकड़ासिंगी, पोहकरमूल, यवासा, भारंगी, बृहत्यौ पुष्करं भाी शठी शृंगी दुरालभा। इन्द्रयव, परवलके पत्ते, कुटकी इसे ' अष्टादशांग क्वाथ' कहते . वत्सकस्य च बीजानि पटोलं कटुरोहिणी।।१७६॥ हैं। यह सन्निपातज्वर, खांसी, हृदयकी जकडाहट, पसलियोंका। बहत्यादिर्गण: प्रोक्तः सन्निपातज्वरापरः। दर्द, श्वास, हिक्का तथा वमनको नष्ट करता है। १६८॥१६९॥ कासादिषु च सर्वेषु देयः सोपद्रवेषु च ॥ १७७ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (१७) दोनों कटेरी, पुष्करमूल, भारंगी, कचूर, काकड़ासिंही, मिलाकर पीनेसे अभिन्यासज्वर, अफारा तथा दर्दको नष्ट यवासा, इंद्रयव, परवलके पत्ते, कुटकी-यह "बृहत्यादिक्काथ" करता है ॥ १८३ ॥ सन्निपातज्वर तथा उपद्रवसहित समस्त कासोंको नष्ट | अभिन्यासलक्षणम् । करता है ॥ १७६ ॥ १७७ ॥ निद्रोपेतमभिन्यासं क्षीणं विद्याद्धतौजसम् । जिस सनिपातज्वरमें निद्रा अधिक हो, रोगी क्षीण हो, उसे भाङ्गादिक्वाथः। 'हतौजस' या 'आभिन्यास' कहते हैं। जैसा कि-भगवान् सुश्रतने भाी पुष्करमूलं च रास्त्रां बिल्वं यवानिकाम् । लिखा है-“ अभिन्यासं तु तं प्राहुर्हतोजसमथापरे । सन्निपातनागरं दशमूलं च पिप्पलीं चाप्सु साधयेत् १७८॥ ज्वरं कृच्छ्रमसाध्यमपरे जगुः । सन्निपातज्वरे देयं हृत्पार्धानाहशूलिनाम् । कण्ठरोगादिचिकित्सा । कासश्वासाग्निमन्दत्वं तन्द्रां च विनियच्छति १७९ भारणी, पोहकरमूल, रासन, बेलकी छाल, अजवायन, सोंठ, ___ कण्ठरोधकफश्वासहिक्कासंन्यासपीडितः । दशमूल तथा छोटी पीपलका काथ सन्निपातज्वर, हृदय तथा मातुलुङ्गाकरसं दशमूल्यम्भसा पिबेत् ॥१५४॥ पसलियों के दर्द, अफारा, कास, श्वास, अग्निमंदता तथा तंद्राको कण्ठावरोध, कफ, श्वास, हिक्का तथा अभिन्यास ज्वरसे नष्ट करता है ॥ १७८ ॥ १७९ ॥ पीड़ित मनुष्यको दशमूलके काढ़ेके साथ बिजीरे निंबू तथा अद रखका रस पिलाना चाहिये ॥ १८४ ॥ द्विपञ्चमूल्यादिकार्थः। व्योषादिक्वाथः।। द्विपञ्चमूलीषड्ग्रन्थाविश्वगृध्रनखीद्वयात् । व्योषाब्दत्रिफलातिक्तापटोलारिष्टवासकैः । कफवातहरः क्वाथः सन्निपातहरः परः ॥ १८० ॥ सभूनिम्बामृतायासैत्रिदोषज्वरनुज्जलम् ॥ १८५ ॥ दशमूल, बच, सोंठ, नख, नखांसे बनाया गया क्वाथ | सोंठ, कालीमिर्च, छोटी पीपल, नागरमोथा, त्रिफला, कफ, वात तथा सन्निपातको नष्ट करता है ॥ १८० ॥ कुटकी, परवलकी पत्ती, नीमकी छाल, रुसाहके फूल या अभिन्यासचिकित्सा (कारव्यादिकषायः।) छाल, चिरायता, गुर्च, तथा यवासा-इनसे बनाया हुआ क्वाथ कारवीपुष्कररण्डत्रायन्तीनागरामृताः। त्रिदोषज्वरको नष्ट करता है ॥ १८५॥ दशमूलीशठीशृंगीयासभाङ्गीपुनर्नवाः ॥ १८१॥ त्रिवृतादिक्वाथः। तुल्या मूत्रेण निष्क्वाथ्य पीताः स्रोतोविशोधनाः। त्रिवृद्विशालात्रिफलाकटुकारग्वधैः कृतः । अभिन्यासं ज्वरं घोरमाशुनन्ति समुद्धतम् १८२॥ सक्षारो भेदनः क्वाथः पेयः सर्वज्वरापहः॥१८६॥ • काला जीरा, पोहकरमूल, एरण्डकी छाल, वायमाण, सोंठ, निसोथ, इन्द्रायनकी जड़, त्रिफला, कुटकी, अमलतासके गुर्च, दशमूल, कचूर, काकड़ासिंही, यवासा, भारङ्गी, पुन- गूदेसे बनाया गया काथ जवाखार मिलाकर पिलानेसे समस्त नवा--सब समान भाग ले गोमूत्रमें क्वाथ बनाकर पिलानेसे ज्वरोंको नष्ट करता है ॥ १८६ ॥ छिद्रोंको शुद्ध कर बढ़े हुए घोर अभिन्यासज्वरको शान्त स्वेदबाहुल्यचिकित्सा । करता है ॥ १८१॥ १८२॥ . स्वेदोद्गमे ज्वरे देयश्चूर्णो भृष्टकुलत्थजः ॥ १८७ ॥ मातुलुङ्गादिवाथः। पसीनेके अधिक आनेपर कुलथी भून, महीन चूर्ण कर उरांना चाहिये ॥ १८७ ॥ मातुलुङ्गाश्मभिद्विल्वव्याघ्रीपाठोरुवकजः । काथो लवणमूत्राढयोऽभिन्यासानाहशुलनुत्१८३॥ जिह्वादोषचिकित्सा। बिजीरे निंबूकी जड़, पाषाणभेद, बेलकी छाल, छोटी| घर्षेजिह्वां जडां सिन्धुत्र्यूषणैः साम्लवेतसः । कटेरी, पाली, एरण्डकी छालका क्वाथ गोमूत्र तथा सेंधानमक उच्छुकां स्फुटितां जिह्वां द्राक्षया मधुपिष्टया १८८ लेपयेत्सघृतं चास्यं सन्निपातात्मके ज्वरे । १“नखी पञ्चविधा ज्ञेया गंधार्थ गंधतत्परैः । काचि- जड़ जिह्वाको सेंधानमक, त्रिकटु ( सोंठ, मिर्च, पीपल) द्वदरपत्राभा तथोत्पलदला मता ॥ काचिदश्वखुराकारा गजकर्ण-तथा अम्लबेतके चूर्णसे घिसना चाहिये । यदि जिह्वा सख तथा समाऽपरा । वराहकर्णसंकाशा पञ्चमी परिकीर्तिता ॥” इस भांति | पांच प्रकारके नख होते हैं। इनमेंसे पूर्वके दो बदरपत्र तथा १ पसीना अधिक आनेपर उसे पोंछना न चाहिये, किन्त उत्पलपत्रका प्रयोग करना चाहिये । अथवा रक्त, श्वेतपुष्पभेदसे | यही चूर्ण उर्राते रहना चाहिये (एक रत्तीकी मात्रासे मंमेकी लेना चाहिये भस्मका प्रयोग भी शीघ्र पसीना बन्द करता है) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) चक्रदत्तः। [ ज्वरा फट गयी हो, तो मुखमें घी लगाकर पिसी हुई मुनक्का शहदमें | कुलत्थादिलेपः। मिलाकर लगाना चाहिये ॥ १८८ ॥ .. कुलत्थकट्फले शुण्ठी कारवी च समांशकैः । निद्रानाशचिकित्सा। सुखोष्णैर्लेपनं कार्य कर्णमूले मुहुर्मुहुः ॥ १९४॥ काकजंघाजटा निद्रां जनयेच्छिरसि स्थिता १८९॥ कुलथी, कायफल, सोंठ, काला जीरा समान भाग ले, पानकि काकजंघाकी जड़ महीन पीस शिरमें लेप करनेसे निद्राको | साथ महीन पीस, गरम कर गुनगुना गुनगुना लेप करना उत्पन्न करती है ॥ १८९ ॥ चाहिये ॥ १९४ ॥ सन्निपाते विशेषव्यवस्था। जीर्णज्वरचिकित्सा। सन्निपाते प्रकम्पन्तं प्रलपन्तं न बृहयेत् । निदिग्धिकानागरकामृतानां तृष्णादाहाभिभूतेऽपि न दद्याच्छीतलं जलम् १९० कार्थ पिबेन्मिश्रितपिप्पलीकम् । सन्निपातमें कम्पनेवाले तथा प्रलाप करनेवालेकी भी बृहण | जीर्णज्वरारोचककासशूलचिकित्सा न करनी चाहिये । और प्यास तथा दाहसे व्याकुल श्वासानिमान्द्यार्दितपीनसेषु ॥ १९५ ॥ होनेपर भी ठण्डा जल न देना चाहिये ॥१९॥ छोटी कटेरी, सोंठ तथा गुर्चका क्वाथ छोटी पीपलका चूर्ण |मिलाकर, जीर्णज्वर, अरुचि, कास, शूल, श्वास, अग्निमांद्य, कर्णमूललक्षणम् । अर्दित तथा पीनस रोगमें पीना चाहिये ॥ १९५॥ सन्निपातज्वरस्यान्ते कर्णमूले सुदारुणः । अस्य समयः। शोथः संजायते तेन कश्चिदेव प्रमुच्यते ॥ १९१ ॥ सन्निपातज्वरके अन्तमें कानके नीचे कठिन सूजन हो जाती हन्त्यूर्ध्वगामयं प्रायः सायं तेनोपयुज्यते । है, इससे कोई ही बचता है ॥ १९१ ॥ अधिकतर ऊर्ध्वगामी रोगोंको यह क्वाथ नष्ट करता है, अतः इसका सायंकाल प्रयोग किया जाता है। तचिकित्सा। गुडूचीक्वाथः । रक्तावसेचनैः पूर्व सर्पिष्पानश्च तं जयेत् ।। प्रदेहैः कफपित्तनैर्वमनैः कवलग्रहः ।। १९२ ॥ | पिप्पलीचूर्णसंयुक्तः काथश्छिन्नरुहोद्भवः ॥ १९६॥ | जीर्णज्वरकफध्वंसी पञ्चमूलीकृतोऽथवा । । उसे पहिले घृत पिलाकर रक्त निकलवाना ( जोंक या शिरा गुर्चका क्वाथ, छोटी पीपलका चूर्ण मिला, अथवा लघुपञ्चव्यध द्वारा) चाहिये । तथा कफपित्तनाशक लेप व कवलग्रह | अथवा वमन कराकर कर्णमूल शांत करना चाहिये ॥ १९२ ॥ मू 'मूलका क्वाथ पिप्पली चूर्ण मिला, जीर्णज्वर तथा कफको नष्ट | करता है ॥ १९६ ॥..गैरिकादिलेपः । गुडपिप्पलीगुणाः। गैरिकं पांशुजं शुण्ठी वचाकटुककाजिकैः । कासाजी'रुचिश्वासहृत्पाण्डुक्रिमिरोगनुत् ॥१९७ कर्णशोथहरो लेपः सन्निपातज्वरे भृशम् ॥१९३ ॥ जीर्णज्वरेऽग्निमान्ये च शस्यते गुडपिप्पली । गेरू, खारी नमक, सोंठ, बच दूधिया और कुटकीको महीन | पीस काजीके साथ सन्निपातज्वरमें कर्णमूलमें लेप करना। | गुड़के सहित छोटी पीपल का चूर्ण कास, अजीर्ण, अरुचि, श्वास, हृद्रोग, पाण्डुरोग, क्रिमिरोग, जीर्णज्वर तथा अग्निमाचाहिये ॥ १९३॥ न्यको नष्ट करता है ॥ १९७ ॥१यहो पर 'अन्त' शब्दका समीप अर्थ भी करते हैं, अतः यह विषमज्वरचिकित्सा। अर्थ हो जाता है कि संन्निपातज्वरके समीपमें ( अर्थात् पहिले कलिङ्गकाः पटोलस्य पत्रं कटुकरोहिणी ॥ १९८॥ या अन्तमें या मध्यमें ) कठिन शोथ कर्णमूलमें हो जाता है, पटोलं शारिवा मुस्तं पाठा कटुकरोहिणी । इससे कोई ही बचता है अर्थात् यह कष्टसाध्य होता है । अतएव निम्बं पटोलं त्रिफला मृद्वीका मुस्तवत्सको ॥१९९॥ कुछ आचार्योंने लिखा है “ ज्वरस्य पूर्व ज्वरमव्यतो वा ज्वरान्ततो वा श्रुतिमूलशोथः । क्रमेण साध्यः खलु कष्टसाध्यस्ततस्त्व किराततिक्तममृता चन्दनं विश्वभेषजम् । साध्यः कथितो भिषग्भिः ॥" इसीको पाठभेदसे “क्रमादसाध्यः। गुडूच्यामलकं मुस्तमर्धश्लोकसमापनाः.॥ २० ॥ खलु कष्टसाध्यस्ततस्तु साध्यः कथितो मुनीन्द्रः" लिखा है। यह कषायाः शमयन्त्याशु पञ्च पञ्चविधान ज्वरान् । रोगविज्ञानका विषय है, अतः वहींसे निर्णय करना चाहिये ।। सन्ततं सततान्येशुस्तृतीयकचतुर्थकान् ॥२०१॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः ] इन्द्रयव, परवलकी पत्ती तथा कुटकीका क्वाथ सन्ततज्वरको, परवलकी पती शारिवा, नागरमोथा, पाढ़ी तथा कुटकीका सततज्वरको, नीमकी छाल, परवलकी पत्ती, त्रिफला, मुनक्का, नागरमोथा, व कुड़ेकी छाल, अन्येयुष्कज्वरको, चिरायता, गुर्च, लालचन्दन, सोंठ तृतीयज्वरको तथा गुर्च, आमला व नागरमोथाका ate चतुर्थिकज्वरको शान्त करता है ॥ १९८ - २०१ ॥ त्रिफलाक्वाथः । भाषाटीकोपेतः । गुडप्रगाढां त्रिफलां पिबेद्वा विषमार्दितः । विषमज्वरसे पीड़ित पुरुषको त्रिफलाका क्वाथ गुड़ मिलाकर पीना चाहिये । गुडूच्यादिक्वाथः । गुडूचीमुस्तधात्रीणां कषायं वा समाक्षिकम् ।। २०२ अथवा गुर्च, नागरमोथा व आमलाका क्वाथ बना ठण्ढाकर शहद डालके पीना चाहिये ॥ २०२ ॥ योगान्तरम् । दीर्घपत्रक कर्णाख्यनेत्रं खदिरसंयुतम् । ताम्बूलैस्तद्दिने भुक्तं प्रातर्विषमनाशनम् ॥ २०३ ॥ लहसुनका बीज तथा कत्था प्रातःकाल पानमें रखकर खानेसे विषमज्वर नष्ट होता है ॥ २०३ ॥ मुस्तादिक्वाथः । मुस्तामलकगुडूचीविश्वौषधकण्टकारिकाक्वाथः । पीतः सकणाचूर्णः समधुर्विषमज्वरं हन्ति ॥ २०४॥ नागरमोथा, आमला, गुर्च, सोंठ तथा छोटी कटेरीका क्वाथ, छोटी पीपलका चूर्ण तथा शहद मिलाकर पीनेसे विषमज्वरको नष्ट करता है ॥ २०४ ॥ महौषधादिक्वाथः । महौषधामृतामुस्तचन्दनोशीरधान्यकैः । क्वाथस्तृतीयकं हन्ति शर्करामधुयोजितः || २०५ || सोंठ, गुर्च, नागरमोथा, लालचन्दन, खश तथा धनियांका क्वाथ मिश्री तथा शहद मिलाकर पीनेसे तृतीयकज्वर नष्ट होता है ॥ २०५ ॥ वासादिकाथः । वासाधात्रीस्थिरादारुपथ्यानागरसाधितः । सितामधुयुतः क्वाथश्चातुर्थिकनिवारणः । २०६ ॥ . अडूसा, आमला, शालिपर्णी, देवदारु, छोटी हरड़ तथा सोंठका क्वाथ मिश्री तथा शहद मिला हुआ चातुर्थिक ज्वरको नष्ट करता है ॥ २०६ ॥ सामान्यचिकित्सा | मधुना सर्वज्वरनुच्छेफालीदलजो रसः । 1 ( १९ ) अजाजी गुडसंयुक्ता विषमज्वरनाशिनी । अग्निसादं जयेत्सम्यग्वातरोगांश्च नाशयेत् ॥ २०७॥ सम्भालू अथवा हरसिंगार के पत्तों का रस शहद के साथ सेवन करनेसे समस्त विषमज्वर शान्त होते हैं । सफेद जीरे का चूर्ण गुड़के साथ विषमज्वर, अग्निमान्य तथा वातरोगोंको नष्ट करता है ॥ २०७ ॥ रसोनकल्कं तिलतैलमिश्रं यो नाति नित्यं विषमज्वरार्तः । विमुच्यते सोऽप्यचिराज्ज्वरेण वातामयैश्चापि सुघोररूपैः ॥ २०८ ॥ जो मनुष्य लगातार लहसुन की चटनी तिलतैल मिलाकर चाटता है, वह विषमज्वर तथा कठिन वातरोगों से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ॥ २०८ ॥ प्रातः प्रातः ससर्पिर्वा रसोनमुपयोजयेत् । पिप्पलीं वर्द्धमानां वा पिबेत्क्षीररसाशनः ॥ २०९॥ षट्पलं वा पिबेत्सर्पिः पध्यां वा मधुना लिहेत् । प्रातःकाल घीके साथ लहसुनका प्रयोग करना चाहिये । अथवा दूध अथवा मांसरसका भोजन करता हुआ वर्द्धमानपिप्पली का प्रयोग करे । अथवा षट्पल घृत ( आगे लिखेंगे ) पीवे । या शहद के साथ छोटी हर्रका चूर्ण चाटे ॥ २०९ ॥ पयस्तैलं घृतं चैव विदारीक्षुरसं मधु ।। २१० ॥ सम्म पाययेदेतद्विषमज्वरनाशनम् । विषमज्वर नाश करनेके लिये दूध, तेल, घी, विदारीकन्दका रस, ईखका रस, शहद एकमें मिलाकर पिलाना चाहिये॥२१०॥ पिप्पलीशर्कराक्षौद्रं घृतं क्षीरं यथाबलम् । खजेन मथितं पेयं विषमज्वरनाशनम् ।। २११ ॥ छोटी पीपल, मिश्री, शहद, घी व दूध मथानीसे मथकर अपनी शक्तिके अनुसार पीना चाहिये । इससे विषमज्वर नष्ट होगा ॥ २११ ॥ पयसा वृषदंशस्य शकृद्वेगागमे पिबेत् । वृषस्य दधिमण्डेन सुरया वा ससैन्धवम् ॥ २१२ ॥ बिडालकी विष्ठा दूधके साथ, अथवा बैलका गोबर, सेंधानमक मिलाकर दहीके तोड़ या शराबके साथ पीना चाहिये ॥ २१२ ॥ १ जीरा भूनकर चूण बनाना चाहिये । २ वर्धमानपिप्पली ३ या ५ या ७ बलाबलके अनुसार ११ दिन या २१ दिन तक प्रतिदिन बढ़ाना चाहिये । उसी प्रकार उतने ही दिनमें घटाना चाहिये । ऐसा शास्त्रोक्त विधान है । पर आजकलके लिये १ या ३ पीपलसे बढ़ाना हितकर होगा ॥ ३ इस योग में दूध गरम किया हुआ अष्टगुण तथा १ - यह योग अधिकतर चातुर्थिक ज्वरमें लाभ करता है | | अन्य द्रव्य १ भाग प्रत्येक छोड़ना उचित होगा । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) चक्रदत्तः । विषमज्वरहरविरेचनम् । नीलिनीमजगन्धां च त्रिवृतां कटुरोहिणीम् । पिबेज्ज्वरस्यागमने स्नेहस्वेदोपपादितः ॥ २१३ ॥ पहिले स्नेहन तथा स्वेदन कर ज्वर आनेवाले दिन नील, बबई, निसोथ व कुटकीका क्वाथ पूर्णमात्रा में पिलाना चाहिये, इससे विरेचन होगा ॥ २१३ ॥ विषमज्वरे पथ्यम् । सुरां समण्डां पानार्थे भक्ष्यार्थे चरणायुधम् । तित्तिरींश्च मयूरांश्च प्रयुञ्ज्याद्विषमज्वरे ॥ २१४ ॥ विषमज्वर में मण्ड या शराब पीनेके लिये भोजन के लिये मुर्गे, तीतर या मयूरोका प्रयोग करना चाहिये ॥ २१४ ॥ अम्लोटजसहस्रेण दलेन सुकृतां पिबेत् । पेयां घृतप्लुतां जंतुचातुर्थिकहरीं त्र्यहम् ॥ २१५ ॥ १००० आमलोनियां ( चांगेरी ) की पत्तीकी पेया बना श्री मिलाकर तीन दिनतक विषमज्वर नाश करनेके लिये पीना चाहिये ॥ २१५ ॥ विषमज्वरहरमञ्जनम् । सैन्धवं पिप्पलीनां च तण्डुलाः समनःशिलाः । नेत्राञ्जनं तैलपिष्टं विषमज्वरनाशनम् ॥ २१६ ॥ संधानमक, छोटी पीपलके दाने, शुद्ध मनशिल तेलमें पीसकर नेत्रो लगानेसे विषमज्वर न होता है || २१६ ॥ नस्यम् । व्याघीर साहिगुसमा नस्यं तद्वत्स सैन्धवा ॥ २१७॥ छोटी कटेरी, रासन, हींग तथा सेंधानमकका नस्य इसी प्रकार विषमज्वरको नष्ट करता है ॥ २१७ ॥ धूपः । नस्यान्तरम् । शिरीषपुष्पस्वरसो रजनीद्वयसंयुतः । नस्यं सर्पिः समायोगाच्चतुर्थिकहरं परम् ॥ २१९ ॥ सिरसाके फूलोंका स्वरस, हल्दी, दारूहल्दीका चूर्ण तथा घी मिलाकर नस्य देनेसे चौथिया ज्वर छूट जाता है ॥ २१९ ॥ [ ज्वरा धूपान्तरम् । पलङ्कषा निम्बपत्रं वचा कुष्ठं हरीतकी || २२० ॥ सर्षपाः सयवाः सर्पिर्धूपनं ज्वरनाशनम् । पुरध्यामवचासर्जनिम्बार्कागुरुदारुभिः ।। २२१ । सर्वज्वरहरो धूपः कार्योऽयमपराजितः । गुग्गुल, नमिके पत्ते, बच, कूठ, बड़ी हर्रका छिल्का, सरसों, यव, घी मिलाकर अथवा गुग्गुल, रोहिप घास, बच, राल, चाहिये ॥ २२० ॥ २२५ ॥नीमकी पत्ती, आककी जड़, अगर तथा aervaा धूप देना बेडालं वा शकृद्योज्यं वेपमानस्य धूपने ॥ २२२ ॥ कम्पते हुए रोगीको बिडालकी विष्ठाका धूप देना चाहिये ॥ २२२ ॥ कृष्णाम्बरदृढाबद्धगुग्गुलूलूकपुच्छजः । धूपश् चातुर्थिकं हन्ति तमः सूर्य इवोदितः ॥ २२८ ॥ काले कपड़े में गुग्गुल तथा उल्लूकी पूंछ बांधकर धूप देनेसे चतुर्थिक ज्वर ऐसे नष्ट होता है, जैसे सूर्योदयसे अन्धकार नष्ट हो जाता है ।। २१८ ॥ लेप अपरे योगाः । अपामार्गजटा कट्यां लोहितैः सप्ततन्तुभिः । बद्ध्वा वारे वेस्तूर्णं ज्वरं हन्ति तृतीयकम् २२३|| की जड़ सात लाल डोरोंसे कमर में रविवार के दिन बांधनेसे तृतीयक ( तीसरे दिन आनेवाला ) ज्वर नष्ट होता है ॥ २२३ ॥ काकजंघा बला श्यामा ब्रह्मदण्डी कृताञ्जलिः । पृश्निपर्णी त्वपामार्गस्तथा भृंगरजोऽष्टमः || २२४ ॥ एषामन्यतमं मूलं पुष्येणोद्धृत्य यत्नतः । रक्तसूत्रेण संवेष्टय बद्धमै काहिकं जयेत् ।। २२५ । काकजंघा, बरियारी, निसोथ या विधारा, ब्रह्मदण्डी, लज्जा, पिठिवन, लटजीरा तथा भांगरा- इनमें से किसी एककी जड़ पुष्यनक्षत्र में उखाड़ लाल डोरेसे लपेटकर हाथ या गलेमें बांधनेसे एकाहिक ज्वर नष्ट होता है ।। २२४ ॥ २२५ ॥ मूलं जयन्त्याः शिरसा धृतं सर्वज्वरापहम् । अरनीकी जड़ चोटीमें बांधने अथवा जलसे पीसकर शिरमें करनेसे समस्त ज्वर दूर होते हैं । विशिष्टचिकित्सा | कर्म साधारणं जह्यात्तृतीयक चतुर्थको । आगन्तुरनुबन्धो हि प्रायशो विषमज्वरे ॥ २२६ ॥ दोनों चिकित्सायें ( दैवव्यपाश्रय - बलिमंगलहोमादि तथा युक्तिव्यपाश्रय - कषायलेहादि ) तृतीयकचतुर्थक ज्वरको नष्ट करती हैं । केवल युक्तिव्यपाश्रय कषायादि ही नहीं | क्योंकि विषमज्वर में प्रायः आगन्तुक ( भूतादि) का संसर्ग होता नस्यं चातुर्थिकं हन्ति रसो वागस्त्यपत्रज्ञः । अगस्त्य के पत्तों के रसका नस्य भी चातुर्थिकको नष्ट करता है । है । २२६ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकापतः। (२१) - - दैवव्यपाश्रयं कर्म । हैं-पर लंघन करनेसे यदि वायुका वेग अधिक हो तो मात्रा व गंगाया उत्तरे कूले अपुत्रस्तापसो मृतः । |कालका निश्चयकर वैद्य उन्हें भी देवे ॥ २३३-२३५॥ तस्मै तिलोदके दत्ते मुञ्चत्यकाहिको ज्वरः ॥२२७॥ पिप्पल्यायं घृतम् । एतन्मंत्रेण चाश्वत्थपत्रहस्तः प्रतर्पयेत् ॥ २२८॥ । पिप्पल्यश्चन्दनं मुस्तमुशीरं कटुरोहिणी। पीपलका पत्र हाथमें लेकर ''गंगाथा उत्तरे कूले अपुत्र- कलिंगकास्तामलकी शारिवातिविषे स्थिरा ॥२३६ स्तापसो मृतः । तस्मै तिलोदकं नमः स्वधा " इस मन्त्रसे तर्पण | द्राक्षामलकबिल्वानि त्रायमाणा निदिग्धिका । करनेसे एकाहिक ज्वर छोड़ देता है ॥ २२७ ॥ २२८॥ सिद्धमेतैघृतं सद्यो ज्वरं जीर्णमपोहति ॥ २३७ ।। सोमं सानुचरं देवं समातृगणमीश्वरम् ॥ क्षयं कासं शिरः शूलं पाश्वेशूलं हलीमकम् । पूजयन्प्रयतः शीघ्रं मुच्यते विषमज्वरात् ॥ २२९॥ अङ्गाभितापमग्निं च विषमं सन्नियच्छति ॥२३८॥ विष्णुं सहस्रमूर्धानं चराचरपतिं विभुम् । पिप्पल्याद्यमिदं क्वापि तन्त्रे क्षीरेण पच्यते । स्तुवन्नामसहस्रेण ज्वरान्सर्वान्व्यपोहति ॥ २३० ॥ पीपल छोटी, चंदन लाल,नागरमोथा, खश, कुटकी, इंद्रयव, उमासहित तथा अनुचरों व मातृगणसहित शंकरजीका | भुइ आमला, शारिवा, अतीस, शालिपर्णी, मुनका, आमला, नियमसे पूजन करनेसे विषमज्वर छूट जाता है । इसी प्रकार | बेलका गूदा, त्रायमाण, छोटी कटेरी-इनके कल्कसे चतुर्गुण घृत सर्वव्यापक, विराटस्वरूप, चराचरस्वामी विष्णु भगवानकी सहस्र और घृतसे चतुर्गुण जल मिलाकर सिद्ध किया घृत शीघ्र है नामसे स्तुति करनेवाला विषमज्वरसे मुक्त होजाता है२२९॥२३० जीर्ण ज्वरको नष्ट करता है । तथा क्षय, कास, शिरःशुल, पार्श्वसर्पिष्पानावस्था। शूल, हलीमक, शरीरकी जलन तथा विषमानिको नष्ट करता है। ज्वराः कषायैर्वमनैर्लघनलघुभोजनैः। १यहां' हलीमकम् ' के स्थानमें ' अरोचकम् ' भी पाठारूक्षस्य ये न शाम्यन्ति सर्पिस्तेषां भिषग्जितम२३१/. न्तर है । तथा यहांपर घृतका मान नहीं लिखा, अतः जो ज्वर कषाय, अवलेहादि तथा वमन, विरेचन, लंघन, Ind “ अनिर्दिष्टप्रमाणानां स्नेहानां प्रस्थ इष्यते । अनुक्ते क्वाथमाने स्वेदन तथा लघुभोजनसे नहीं शांत होते और शरीर रूक्ष हो तु पात्रमेकं प्रशस्यते " इस सामान्यपरिभाषासे १ प्रस्थ घृत जाता है, उनकी उत्तम चिकित्सा घृत है ॥ २३१ ॥ लेना चाहिये ।अथवा मान निर्देश न करनेका यह भी आभिप्राय सर्पिनिषेधः। है कि जितने घृतसे लाभ होनेकी सम्भावना हो, उतना धृत निर्दशाहमपि ज्ञात्वा कफोत्तरमलंधितम् ।। बनावे । तथा यहां पर यद्यपि चक्रपाणिज.ने तथा शिवदासजीने न सर्पिः पाययेत्प्राज्ञः शमनेस्तमुपाचरेत् ॥२३२॥ घृतमूर्छनके सम्बन्धमें कुछ नहीं लिखा, पर सामान्य नियम यही दर्श दिन बीत जानेपर भी जिसका कफ बढ़ा हुआ हो तथा है कि स्नेह मूर्छित करके ही पाक करना चाहिये ।अतःघृतमूर्छनकी लंघनके गुण उत्पन्न न हुए हों, उसे घृत न पिलाना चाहिये | विधि नीचे लिखी जाती है " पथ्याधात्रीविभीतैर्जलधररजनीकिन्तु शमनकारक उपाय करना चाहिये ॥ २३२॥ मातुलगवैश्च द्रव्यैरेतैः समस्तैः पलकपारमितमंदमंदानलेन । निर्दशाहे कफोत्तरे शमनमशनम् । आज्यप्रस्थं विफेनं परिपचनगतं मूर्छयेद्वैद्यवर्यस्तस्मादामोपदोषं हरति च सकलं वीर्यवत्सौख्यदायि ॥ (भैषज्यरत्नावली) ॥ छोटी यावल्लघुत्वादशनं दद्यान्मांसरसेन तु । हर्र, आमला, बहेड़ा, नागरमोथा, हल्दी प्रत्येक ४ तोलाका मांसार्थमेणलावादीन्युक्त्या दद्याद्विचक्षणः ॥ २३३ कल्क तथा बिजौरे नीम्बूका रस ४ तोला छोड़कर, घी १ प्रस्थ कुक्कुटांश्च मयूरांश्च तित्तिारं क्रौञ्चमेव च । (द्रवद्वैगुण्यात् २ प्रस्थ बंगालका ४ सेर तथा ८० तोलेके सेरसे गुरूष्णत्वान्न शंसन्ति ज्वरे केचिचिकित्सकाः॥२३४१ सेर ९ छ. ३ तो०) का मूर्छन करना चाहिये । मूर्छनके लंघनेनानिलबलं ज्वरे यद्यधिकं भवेत् । | लिये पहिले घी गरम करना चाहिये, जब घी पककरके फेन रहित भिषक मात्राविकल्पज्ञो दद्यात्तानपि कालवितू२३५ होजाय, तब उतार ठण्ढाकर उपरोक कल्कादि छोड़ना चाहिये, जब तक ज्वर तथा शरीर हल्का न हो, तब तक हल्का पथ्य फिर घीसे चौगुना जल छोड़ पाक कर छान लेना चाहिये । तथा मांसरसके साथ देना चाहिये । मांसके लिये एणमृग अथवा | जहाँ केवल दूधसे ही घृत पाक लिखा है, वहां घृतसे चतुर्गुण लवा देना चाहिये । ज्वरमें कुछ वैद्य कुक्कुट, मयूर, तीहर तथा जलभी छोड़ना चाहिये, तथा कल्क घृतसे अष्टमांश ही छोड़ना क्रौञ्चको देना उष्ण तथा भारी होनके कारण अनुचित समझते चाहिये । यथा शार्ङ्गधरः-" दुग्धे दनि रसे तके कल्को देयोऽ टमांशकः । कल्कस्य सम्यक्पांकार्थे तोयमत्र चतुगुणम् " किन्तु १ सामान्यतः दश दिनके अनंतर घी पिलाना लिखा है । यह समग्र परिभाषायें प्रायः अनित्य हो जाती हैं, अतः व्यवस्था यह उसका निषेध है। . वैद्यको स्वयं विचारकर करनी चाहिये। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - (२२) चक्रदत्तः।. |ज्वराrowroo rg यह “पिप्पल्यादि" चतुर्गुण दूध मिलाकर भी पकाना किसी क्षीरषट्पलकं घृतम् । किसी ग्रन्थमें लिखा है ॥ २३६-२३८ ॥ पञ्चकोलेः ससिन्धूत्थः पलिकैः पयसा समम् । यत्राधिकरणेनोक्तिर्गणे स्यात्स्नेहसंविधौ ॥ २३९॥ सर्पिःप्रस्थं शृतं प्लीहविषमज्वरगुल्मनुत् ॥२४५ ॥ तत्रैव कल्कनि!हाविष्येते स्नेहवेदिना । अत्र द्रवान्तरानुक्तेःक्षीरमेव चतुर्गुणम् । एतद्वाक्यबलेनैव कल्कसाध्यपरं घृतम् ॥ २४०॥ द्रवान्तरेण योगे हि क्षीर स्नेहसमं भवेत् ॥२४६॥ स्नेह सिद्ध करनेके लिये जिस गणमें अधिकार अर्थात् पञ्चकोल ( छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, चीतकी जड़, निश्चय कर दिया गया है, वहीं कल्क तथा क्वाथ दोनों छोड़े सोंठ ) तथा सेंधानमक प्रत्येक एक एक पैल, घृत एक प्रस्थ जाते हैं, इस वाक्यके बलसे ही घृत कल्क साध्य माना, दूध ४ प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये । घृतमात्र शेष रहनेपर जाता है ॥ २३९ ॥२४० ॥ | उतार छानकर पिलाना चाहिये । यह घृत प्लीहा, विषमज्वर तथा जलस्नेहोषधानां तु प्रमाणं यत्र नेरितम् । गुल्मको नष्ट करता है । यहां दूसरे द्रव द्रव्यके न कहनेसे दूध ही तत्र स्यादौषधात्स्नेहः स्नेहात्तोयं चतुर्गुणम्॥२४१॥ चतुर्गुण छोड़ना चाहिये । तथा स्नेहके लिये चतुर्गुण जल भी छोड़ना चाहिये । जहां पर दूसरे द्रव द्रव्यका वर्णन हो, वहां दूध । जहां पर जल औषध तथा स्नेहका प्रमाण नहीं बताया गया, स्नेहके समान ही लेना चाहिये ॥२४५॥२४६ ॥ वहां औषधसे चतुर्गुण स्नेह तथा स्नेहसे चतुर्गुण जल छोडना चाहिये । यहां 'जल' द्रवमात्रका उपलक्षण है ॥ २४१॥ दशमूलषट्पलकं घृतम्। अनुक्ते द्रवकार्ये तु सर्वत्र सलिलं मतम् ।। जहां द्रव द्रव्यका निर्देश नहीं किया गया, वहां जल ही) दशमूलीरसे सर्पिः सक्षीरे पञ्चकोलकैः ॥२४७ ॥ छोड़ना चाहिये। सक्षारैर्हन्ति तत्सिद्धं ज्वरकासाग्निमन्दताः। घृततेलगुडादींश्च नैकाहादवतारयेत् ॥ ५४२॥ । | वातपित्तकफव्याधीन्प्लीहानं चापि पाण्डुताम्२४८ व्युषितास्तुप्रकुर्वन्ति विशेषेण गुणान्यतः॥. दूध तथा दशमूलके क्वाथमें पञ्चकोल तथा यवाखारके घी, तैल तथा गुड आदि एक ही दिनमें नहीं पकाना | साथ सिद्ध किया घृत ज्वर, कास, अभिमान्द्य, वातकफ, पित्तचाहिये, क्योंकि बासी रक्खे गये (कई दिनमें पकाये गये ) रोग, पांडुरोग तथा प्लीहाको नष्ट करता है ॥ २४७ ॥ २४८ ॥ विशेष गुण करते हैं ॥ २४२ ॥ स्नेहे काथ्यादिनियामिका परिभाषा । . सिद्धस्नेहपरीक्षा। काथ्याच्चतुर्गुणं वारि पादस्थं स्याश्चतुर्गुणम् । स्नेहकल्को यदाङ्गुल्या वर्तितो वर्तिवद्भवेत्। । स्नेहात्स्नेहसमं क्षीरं कल्कस्तु स्नेहपादिकः ।।२४९॥ वही क्षिप्ते चनो शब्दस्तदा सिद्धिं विनिर्दिशेत्२४३/ चतुर्गुणं त्वष्टगुणं द्रवद्वैगुण्यतो भवेत् । शब्दस्योपरमे प्राप्त फेनस्योपरमे तथा। पञ्चप्रभृति यत्र स्युर्दैवाणि स्नेहसंविधौ ॥ २५० ॥ गन्धवर्णरसादीनां सम्पत्ती सिद्धिमादिशेत्॥२४४॥ तत्र स्नेहसमान्याहुरर्वाक् च स्याश्चतुर्गुणम् । (घतस्यैवं विपक्वस्य जानीयात्कुशलो भिषक् । । क्वाथ्यद्रव्यसे चतुर्गुण जल छोड़कर क्वाथ बनाना, चतुर्थांश फेनोतिमानं तैलस्य शेषं घृतवदादिशेत् ॥ १॥) शेष रहनेपर उतार छान क्वाथसे चतुर्थांश घृत मिलाकर पकाना जिस समय अंगुलीसे रगड़नेसे स्नेह कल्ककी बत्ती बनने चाहिये । स्नेहमें दूध स्नेहके बराबर छोड़ना चाहिये । कल्क लगे तथा अग्निमें छोड़नेसे शब्द न हो तथा स्नेहमें शब्द न हो | स्नेहसे चतुशि छोड़ना चाहिये । द्रवद्वैगुण्यके सिद्धान्तसे चतुर्गुण और फेना शान्त होगया हा तथा गन्ध, वर्ण और रस उत्तम अष्टगुण होता है। हो गया हो, उस समय घृत सिद्ध जानना चाहिये । इसी प्रकार तैल सिद्ध जानना चाहिये । पर तैलम सिद्ध हो जानेपर १ पूर्वोक्त परिभाषानुसार सुश्रतमानसे पल वर्तमान मानके ३ फेना अधिक उठता है, शेष लक्षण सिद्ध घृतके समान तोला ४ माशेके बराबर, उसी प्रकार प्रस्थ वर्तमान १० छ. ३ होते हैं ॥ २४३ ॥ २४४ ॥ | तोला ४ माशेके बराबर होता है और चरकमानसे पल ६ तोला ८ माशाका, तदनुसार प्रस्थ १ सेर ५ छ. १ तोला ८ वचित्पुस्तके कोष्ठान्तगर्तः पाठो न दृश्यते । माशेका होता है । और द्रवद्रव्य होनेसे द्विगुण कर दिया जाता है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भापारीकोपेतः। (२३) जहांपर स्नेहविधानमें पञ्चप्रभृति ( पांच या इससे अधिक) चतर्थाश नीचे लिखी ओषधियोंका कल्क बना छोड़कर पाक दव द्रव्य हो, वहां प्रत्येक स्नेहके समान छोड़ना चाहिये । इससे करना चाहिये । कल्ककी ओषधियां-पिपरामूल, मुनक्का, लाल कम अर्थात् चार या तीन आदि हों तो स्नेहसे चतुगुणा छोड़ना | चन्दन नीलोफर हना | चन्दन, नीलोफर व सोंठ है । यह घृत जीर्णज्वरको मोर चाहिये ॥ २४९ ॥ २५०॥ | करता है ॥ २५१ ॥ २५२ ॥ वासाद्यं घृतम् । गुडूच्यादिघृतपञ्चकम् । पासां गुडुची त्रिफलां त्रायमाणां यवासकम् । पक्त्वा तेन कषायेण पयसा दिगणेन च ॥२५॥गुडूच्याः काथकल्काभ्या त्रिफलाया वृषस्य च । पिप्पलीमलमृद्धीकाचन्दनोत्पलनागरैः।। मृद्वीकाया बलायाश्च सिंद्धाः स्नेहा ज्वरच्छिदः ॥२५३॥ कल्कीकृतैश्च विपचेद् घृतं जीर्णज्वरापहम् ॥२५२॥ पृथक् २ गुर्च, त्रिफला, अडूसा, मुनक्का अथवा बरियारीके अडूसा, गुर्च, त्रिफला, त्रायमाण, यवासा-इनका क्वाथ क्वाथ कल्कसे सिद्ध घृत ज्वर नाशक होते हैं ॥२५३ ॥ स्नेहसे चतुर्गुण, दूध द्विगुणा तथा घृत १ भाग तथा घृतसे पेयादिदानसमयः। १ इस परिभाषामें अनेक सन्देह तथा मतभेद हैं । यदि ज्वरे पेयाः कषायाश्च सर्पिः क्षीरं विरेचनम् । । प्रत्येक स्थानमें “चतुर्गुणं त्वष्टगुणम्" परिभाषा लगे तो| । षडहे षडहे देयं कालं वीक्ष्यामयस्य च ॥ २५४ ॥ क्वाथ्यद्रव्यसे जल भी अष्ट गुण ही छोडना पड़ेगा, तथा| ज्वरमें पेयो (लंघन या यवागू) क्वाथ, घृत, दूध, विरेचन "पादस्थं स्याच्चतुर्गुणम् " इसमें स्नेह तथा द्रव दोनों ही छः छः दिनके अनन्तर देना चाहिये तथा रोगका काल देखकर द्रय द्रव्य होनेसे कोई विशेषता न होगी, पर क्वाथ्य स्नेहसे | आधा पड़ेगा । पर यह द्रवद्वैगुण्यकी परिभाषा कुड़वके अनन्तर। विशेष व्यवस्था करनी चाहिये ॥ २५४ ॥ ही लगेगी, पहले नहीं । यथा-" आर्द्राणां च द्रवाणां च द्विगुणाः - क्षीरदानसमयः। कुड़वादयः" इस सिद्धान्तसे कुड़व आदि शब्दके प्रयोगसे जहां मानका वर्णन होगा, वहीं द्विगुण लिया जायगा, पर कहीं जीर्णज्वरे कफे क्षीणे क्षीरं स्यादमृतोपमम् । इन शब्दोंका प्रयोग न होनेपर भी विवक्षा कर द्विगुण लेते हैं।। तदेव तरुणे पतिं विषवद्धान्ति मानवम् ॥ २५५॥ इसी प्रकार पञ्चप्रभृति भी अनेक विमतोंसे पूर्ण हैं । कुछ वैद्योंका। | जीर्णज्वरमें कफके क्षीण होजानेपर दूध अमृतके तुल्य गुणसिद्धान्त है कि जहां पांच या पांचसे अधिक द्रव द्रव्य हों, वहां दायक होता है, वही तरुणज्वरमें विषके तुल्य मारक हो जाता प्रत्येक स्नेहके समान लेना चाहिये और जहां पांचसे कम हों, है ॥ २५५॥ वहां सब मिलकर स्नेहके चतुर्गुण लेना चाहिये। कुछका सिद्धान्त है कि पांचसे पूर्व द्रव्यद्रव्योंमें प्रत्येक स्नेहसे चतुर्गुण और पांचसे | पञ्चमूलीपयः। प्रत्येक स्नेहके समान लेना चाहिये । क्योंकि यदि पूर्वके मिलकर | कासाच्छ्वासाच्छिरःशूलात्पार्श्वशुलात्सपीनसात् । चतुर्गुण लिये जाते, तो जहां चार द्रव द्रव्य होते, वहां प्रत्येक मुच्यते ज्वरितः पीत्वा पञ्चमूलीशृतं पयः ॥ २५६ ।। स्नेहके समान लेनेसे स्नेहसे चतुर्गुण होही जाते, फिर पञ्चप्रभृति | पञ्चमूल (लघु ) से सिद्ध किये हुए दूधके पीनेसे कास, श्वास, लिखना व्यर्थ ही है, चतुष्प्रभृति ही लिखना चाहिये। पर कुछ | शिरःशुल, पार्श्वशुल तथा पुराने ज्वरसे मनुष्य मुक्त हो जाता आचायोंने इसी से" चतुष्प्रभृति यत्र स्वाणि स्नेहसंविधौ "है॥२५६ ॥ यही निश्चित पाठ माना है। मेरे विचारसे तो पाठपरिवर्तनसे | भी यह विषय स्पष्ट नहीं हो जाता । क्योंकि मिलकर चतुर्गुण क्षीरपाकविधिः। हो, यह अर्थ किसी शब्दसे या भावसे नहीं आता । प्रत्युत) द्रव्यादष्टगुणं क्षीरं क्षीरानीरं चतुर्गुणम् । स्नेहसमानि ' से प्रत्येकका आकर्षण करना ही पड़ेगा । अन्यथा क्षीरावशेषः कर्तव्यःक्षीरपाके त्वयं विधिः॥२५७॥ वहां भी मिलित ही स्नेहके समान लिये जायेंगे, पर यह किसीको अभीष्ट नहीं हैं, अतः वह प्रत्येक अर्वाक्के साथ भी अन्वित १‘पेया' शब्द लंघनादिका उपलक्षण है। जिन ज्वरों होगा, इस प्रकार पांचसे कममें जहां विशेष विधि निषेध न हों, वातादिजन्य ) में लंघनका निषेध है, उनमें पेया आदि तथा वहां प्रत्येक चतुर्गुण पांच तथा पांचसे अधिक द्रवद्रव्योंमें प्रत्येक शेष में ६ दिन लंघन कराकर सातवें दिन हलका पथ्य दे। स्नेहके समान लेना चाहिये । इस विषयमें और भी लिखा जा ज्वरको निराम समझकर आठवें दिन काथ पिलाना चाहिये । सकता है. पर विस्तार करना अभीष्ट नहीं । बुद्धिमानोंको स्वयं निरामता विशेषतया आठवें दिन ही होती है। अतः उसी दिन निर्णय करना चाहिये। काथ पिलाना उचित है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) चक्रदत्तः। (ज्वरा --more - -- - - औषधंसे अष्टगुण दूध तथा दूधसे चतुर्गुणं जल मिलाकर विरेचनम्। पकाना चाहिये । दूधमात्र शेष रहनेपर उतार लेना चाहिये।। आरग्वधं वा पयसा मृद्वीकानां रसेन वा। यही क्षीरपाककी विधि है ॥ २५७ ॥ त्रिवृतां त्रायमाणांवा पयसा ज्वरितः पिबेत् ॥२६३ त्रिकण्टकादिक्षीरम् । अमलतासका गूदा दूधके अथवा अङ्गुरके रसके साथ अथवा निसोथ व त्राणमाण धके साथ ज्वरवालेको पनिा त्रिकण्टकबलाव्याघ्रीगुडनागरसाधितम् । चाहिये, इससे हलका रेचन होगा ॥ २६३॥ व!मूत्रविबन्धनं शोफज्वरहरं पयः॥ २५८ ॥ गोखुरू, खरेटी, कटेरी, गुड़ तथा सोंठसे सिद्ध किया दूध . संशोधननिषेधः। मलमूत्रकी रुकावट, सूजन तथा ज्वरको नष्ट करता है ॥२५८ ॥ ज्वरक्षीणस्य न हितं वमनं न विरेचनम् । वृश्चीराद्यं क्षीरम् । कामं तु पयसा तस्य निरूहैर्वा हरेन्मलान् ॥२६४ ज्वरसे जो रोगी क्षीण हो रहा हो, उसको वमन अथवा विरेवृश्चीरविश्ववर्षाभूः पयश्चोदकमेव च । चन न करना चाहिये । किन्तु दूध पिलाकर अथवा निरूहण पचेक्षीरावाशिष्टं तु तद्धि सर्वज्वरापहम् ।। २५९ ।। वस्ति देकर उसका मल निकालना चाहिये ॥ २६४ ॥ श्वेत पुनर्नवा, सोंठ, लाल पुनर्नवा, दूध और जल मिलाकर पकाना चाहिये । दूधमात्र शेष रह जानेपर उतार कर पिलाना| वस्तिविधानम् । चाहिये । यह समस्त ज्वरको नष्ट करता है ॥२५९ ॥ प्रयोजयेज्ज्वरहरान्निरूहान्सानुवासनान् । क्षीरविनिश्चयः। पक्वाशयगते दोषे वक्ष्यन्ते ये च सिद्धिषु ॥२६५।। - दोष यदि पक्काशयमें स्थित हों, तो सिद्धिस्थानमें जो निरूशीतं कोष्णं ज्वरे क्षीरं यथास्वै हण तथा अनुवासन वस्तियां बताया गया है, उनका प्रयोग एरण्डमलसिद्धं वा ज्वरे सपरिकर्तिके ।। २६० ॥ करना चाहिये ॥ २६५॥ ज्वरमें जैसा दोष (वात या पित्त ) हो, उसके अनुसार ओषधियों द्वारा सिद्ध कर पित्तमें शीत तथा वातमें कोष्ण विरेचननस्यम् । दूधका प्रयोग करना चाहिये । और यदि गुदामें कर्तनके समान | गौरवे शिरसः शूले विद्धेष्विन्द्रियेषु च । पीड़ा होती हो, तो एरण्डकी छालसे सिद्ध कर दूध पीना | जीर्णज्वरे रुचिकरं दद्याच्छीर्षविरेचनम् ॥२६६ ॥ बाहिये ॥२६॥ शिरके भारीपन तथा दर्दमें तथा इन्द्रियोंके अपने विषय संशोधननिश्चयः। ग्रहण करनेमें असमर्थ होनेपर जीर्ण ज्वरमें शिरोविरेचन (नस्य ) | देना चाहिये, इससे इन्द्रियोंको अपने विषय ग्रहणकी रुचि उत्पन्न ज्वरिभ्यो बहुदोषेभ्य ऊर्ध्व चाधश्च बुद्धिमान् । । होती है ॥ २६६॥ दद्यात्संशोधनं काले कल्पे यदुपदेक्ष्यते ॥ २६१ ॥ आधिक दोषयुक्त ज्वरवालोंके लिये संशोधनयोग्य कालमें अभ्यङ्गादिविभागः। ऊर्ध्वमार्ग तथा अधोमार्गसे संशोधन (वमन विरेचन ) करना अभ्यङ्गाश्च प्रदेहांश्च सस्नेहान्सानुवासनान् । चाहिये जो कि कल्पस्थानमें कहेंगे॥ २६१ ॥ . विभज्य शीतोष्णकृतान्दद्याज्ज्जीर्णज्वरे भिष२६७ वमनम् । तैराशु प्रशमं याति बहिर्मार्गगतो ज्वरः। . मदनं पिप्पलीभिर्वा कलिङ्गैर्मधुकेन वा। लभन्ते सुखमङ्गानि बलं वर्णश्च वर्धते ॥२६८ ॥ युक्तमुष्णाम्बुना पीतं वमनं ज्वरशान्तये ॥२६२॥ स्नेहके सहित अभ्यङ्ग ( मालिश ), लेप अथवा अनुवासन मैनफल, छोटी पीपल, इन्द्रयव, अथवा मोरेठकि महीन वस्ति शीत अथवा उष्ण पदार्थोंसे जेसी आवश्यकता हो, देना चूर्णके साथ गरम जल मिलाकर पिलानेसे वमन होकर घर चाहिये । शीतजन्य ज्वरमें उष्ण तथा उष्णजन्य ज्वरमें शीत शान्त होता है ॥ २६२॥ | १“शीतेनोष्णकृतानोगाञ्छ मयन्ति भिषग्विदः । ये च शीतकृता रोगास्तेषामुष्णं भिषग्जितम् ॥ १क्षीरपाकमें औषध महीन पीस पानी मिला छान दूधमें| अर्थात् वैद्यजन शीतद्वारा उष्णजन्य रोगोका शमन करते हैं मिलाकर पकाना चाहिये। और शीतजन्य रागोंके शमनकी उष्ण ओषधि है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] प्रrोग करना चाहिये । अभ्यङ्गादिसे त्वचामें प्राप्त ज्वर नष्ट हो जाता है, शरीरको सुख मिलता है, बल तथा वर्ण उत्तम होता द्वै ॥ २६७ ॥ २६८ ॥ भाषाको पैतः । षट्कदवरतैलम् । सुवर्चिकानागरकुष्ठमूर्वालाक्षा निशालोहितयष्टिकाभिः । तेलं ज्वरे षड्गुणकट्वसिद्धमभ्यञ्जनाच्छीत विदाहनुत्स्यात् ॥ दध्नः ससारकस्यात्र तक्रं कट्वरमिष्यते । घृतवत्तैलपाकोऽपि तैले फेनोऽधिकः परः ॥२७०॥ सज्जीखार, सौंठ, कूठ, मूर्वा, लाख, हलदी तथा मंजीठ ककसे चतुर्गुण तिलेका तैल तथा तैलसे षड्गुण महा मिलाकर पकाया गया तैल शीत तथा जलनको नष्ट करता है । मक्खनके सहित मथे गये दधिको ही ' कट्वर' कहते हैं । धीके समान ही तैलका भी पाक होता है । पर घीके पक जानेपर फेना नष्ट हो जाता है और तैलके पक जानेपर फेना उत्पन्न हो जाता है ॥ २६९ ॥ २७० ॥ १ यहां पर तिलतैलकी मूर्च्छा विधि भी नहीं लिखी है, अतः प्रतीत होता है कि श्रीमान् चक्रपाणिको मूर्च्छनकी आव श्यकता नहीं प्रतीत हुई, अतएव उनके अनुयायी श्रीयुत शिवदासजी ने भी अपनी तत्त्वचन्द्रिका नामक टीकामें नहीं किया । पर आजकल वङ्गदेशीय वैद्य विशेषकर मूर्च्छनकी आवश्यकता समझते हैं, अतः तिलतैलमूर्छा लिखी जाती है-“ कृत्वा तैलं कटाहे दृढतरविमले मन्दमन्दानलैस्तत् तैलं निष्फेनभावं गतमिह च यदा शैत्ययुक्तं तदैव । मञ्जिष्ठारात्रिलोधैर्जलधरनालकैः सामलैः साक्षपथ्यैः, सूचीपत्रांघ्रिनीरैरुपहितमथितैर्गन्धयोगं जहाति ॥ १ ॥ तैलस्येन्दुकलां शिकैक विकसाभागोऽपि मूर्छाविधौ, ये चान्ये त्रिफलापयोदरजनीहीबेरलोधान्विताः । सूचीपुष्पवटाव (२५) अंगारकतैलम् । मूर्वा लाक्षा हरिद्रे द्वे मञ्जिष्ठा सेन्द्रवारुणी । बृहती सैन्धवं कुष्ठं रास्ना मांसी शतावरी || २७१ ।। आरनालाढकेनैव तैलप्रस्थं विपाचयेत् । तैलमंगारकं नाम सर्वज्वरविमोक्षणम् ॥ २७२ ॥ मूर्वा, लाख, हलदी, दारुहलदी, मजीठ, इन्द्रायण, बड़ी कटेरी, सेंधानमक, कूठ, रासन, जटामांसी तथा शतावरीका कल्क १ कुड़व, तिलतैल १ प्रस्थ, कांजी १ आढक मिलाकर |पकाना चाहिये । तैलमात्र शेष रहनेपर उतार छान मालिश करनेसे ज्वर नष्ट होता है ।। २७१ ॥ २७२ ॥ लाक्षादितैलम् । लाक्षाहरिद्रामञ्जिष्ठा कल्कैस्तैलं विपाचयेत् । षड्गुणेनारनालेन दाहशीतज्वरापहम् ॥ २७३ ॥ उससे षड्गुण काजी मिलाकर पकाना चाहिये । यह तैल मालिश लाख, हल्दी व मञ्जीठका कल्क उससे चतुर्गुण तिलतैल और करनेसे जलन तथा शीतसहित ज्वरको नष्ट करता है ॥ २७३ ॥ यवचूर्णादितैलम् । यवचूर्णाकुडवं मञ्जिष्ठार्धपलेन तु । तैलप्रस्थः शतगुणे काञ्जिके साधितो जयेत् ॥ २७४ ज्वरं दाहं महावेगभंगानां च प्रहर्षनुत् ॥ यवका चूर्ण ८ तोला, मञ्जीठ २ तोला, तैल १ प्रस्थ (१ सेर तेल मात्र शेष रहनेपर उतार छानकर रखना चाहिये । यह तैल ९छ० ३ तो० ) काञ्जी १०० प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये । महावेगयुक्त ज्वर, दाह तथा शीत दोनोंको नष्ट करता है॥२७४॥ सर्जादितैलम् । सर्जकाञ्जिकसंसिद्धं तैलं शीताम्बुमर्दितम् ॥ २७५ ॥ ज्वरदाहापहं लेपात्सद्योवातास्रदाहनुत् ॥ राल तथा कासे सिद्ध किया गया तैल ठण्डे जलमें मर्दन नष्ट करता है ॥ २७५ ॥ रोहनलिकास्तस्याश्च पादांशिका, दुर्गन्धं विनिहत्य तैलमरुणं | कर लेप करनेसे तत्काल ज्वरके दाह तथा वातरक्तके दाहको सौरभ्यमाकुर्वते ॥ २ ॥ ” तिलतैलको कड़ाही में छोड़कर मन्द आंचपर उस समयतक पकावे, जबतक कि फेन जाता है । फिर उसे ठण्डा कर प्रथम तैलसे षोडशांश ने मजीठका कल्क छोड़ना चाहिये । फिर अन्य त्रिफला, नागरमोथा, हलदी, सुगन्धवाला, लोध्र, केवड़े की जड़, वटजटा तथा नाड़ीशाक प्रत्येक मजीठसे चतुथांश ले कल्क कर छोड़ना चाहिये । फिर तैलसे चतुर्गुण जल छोड़ पकाकर छान लेना चाहिये । इस प्रकार मूर्छा कर लेनेसे तैलकी दुर्गन्ध मिट जाती और सुगन्ध आ जाती तथा तैल ईषद्रक्त वर्ण हो जाता है । तैलान्तरम् । चन्दनाद्यमगुर्वाद्यं तैलं चरककीर्तितम् ॥ २७६ ॥ तथा नारायणं तैलं जीर्णज्वरहरं परम् ॥ चन्दनादितैल, अगुर्वाद्यतैल तथा नारायणतैलका प्रयोग जीर्णज्वरनाशनार्थ करना चाहिये ॥ २७६ ॥ - आगन्तुक ज्वरचिकित्सा । अभिघातज्वरो न स्यात्पानाभ्यङ्गेन सर्पिषः॥ २७७॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ज्वरातिसारा धोके पीने तथा मालिश करनेसे अभिधात ज्वर नहीं| क्रोधजन्य ज्वरमें पित्त शान्त करनेवाली चिकित्सा, इष्ट विषरहता ॥२७॥ ।योंकी प्राप्ति तथा मनोहर वार्तालाप लाभदायक होता है । काम, क्रोध तथा भयसे उत्पन्न ज्वर आश्वासन, इष्ट विषयोंकी प्राप्ति भतानां ब्रणितानां च क्षतव्रणचिकित्सया। लथा प्रसन्नताकारक उपायोंसे शान्त होते हैं । कामसे क्रोधज्वर, ओषधीगन्धविषजी विषपीतप्रबाधनैः ॥२७८ ॥ क्रोधसे कामज्वर और उन दोनोंसे भय-शोकजन्य ज्वर शान्त जयेत्कषायैर्मतिमीन्सर्वगन्धकृतस्तथा। हो जाता है ॥२८० ॥ २८१॥ २८२ ॥ जिनके क्षत (आगन्तुक व्रण) अथवा व्रण ( शारीर ) हो। भूतज्वरचिकित्सा। गया हो, उनकी क्षतव्रणकी चिकित्सा करनी चाहिये । ओषधिगन्धजन्य तथा विषजन्य ज्वर में विषपीतके लिये जो काथ| भूतविद्यासमुद्दिष्टेबन्धावेशनताडनैः। बताये गये हैं, उनका प्रयोग करना चाहिये । तथा सर्वगन्ध जयद् भूताभिषंगोत्थं मनःसान्त्वैश्व मानसम् २८३ द्रव्योंका काथ बनाकर पिलाना चाहिये ॥२७८॥-- | भूतविद्या ( मुश्रुत-उत्तर तन्त्रमें ) बताये बन्ध आवेशन, ताइन आदिसे भूतज्वरको शान्त करना चाहिये । तथा मानसिक चाभिशापोत्थी ज्वरी होमादिना जयत् ७९ भयशोकादिजन्य ज्वरको मनको प्रसन्न करनेवाले उपायों तथा दानस्वस्त्ययनातिथ्यैरुत्पातग्रहपीडजी। धैर्यात्मादिविज्ञानसे जीतना चाहिये ॥ २८३॥ अभिचार ( मारणक्रिया-इयेनयागादि ) तथा अभिशाप (क्रुद्ध महर्षिके अनिष्ट वचन ) तथा अशुभ वनादिपात अथवा ज्वरमुक्ते वज्यानि । प्रहकी पीड़ासे उत्पन्न ज्वरको होम बलि, माल दान, स्वस्ति- व्यायामं च व्यवायं च स्नानं चंक्रमणानि च । वाचन, अतिथिपूजन आदिसे जीतना चाहिये ॥२७९॥ . ज्वरमक्तो न सेवेत यावन्नो बलवान्भवेत ॥२ ॥ जब तक बलवान् न हो जाय, ज्वरमुक्त हो जानेपर भी क्रोधकामादिज्वरचिकित्सा । | कसरत, मैथुन व स्नान न करे, तथा विशेष टहले नहीं ॥२८४ ॥ क्रोधजे पित्तजित्काम्या अर्थाः सद्वाक्यमव च२८० आश्वासेनेष्टलाभेन वायोः प्रशमनेन च । विगतज्वरलक्षणम् । हर्षणैश्च शमं यान्ति कामक्रोधभयज्वराः ॥२८॥ देहा लघुर्व्यपगतलममोहतापः कामाक्रोधज्वरो नाशं क्रोधात्कामसमुद्भवः । पाको मुखे करणसौष्ठवमव्यथत्वम् । याति ताभ्यामुभाभ्यां च भयशोकसमुद्भवः २८२॥ स्वेदः क्षवः प्रकृतिगामिमनोऽन्नलिप्सा कण्डूश्च मूर्ध्नि विगतज्वरलक्षणानि ॥२८५।। १ सर्वगन्धसे “ चातुर्जातककर्पूरकंकोलागुरुशिलकम् । लत्र शरीर हलका हो जावे, ग्लानि, मूर्छा, तथा जलन शान्त हो सहितं चैव सर्वगन्धं विनिर्दिशेत् ॥ जावें, मुखमें दाने पड़कर पक जावें, इन्द्रियां अपने अपने | विषयोंको ग्रहण करने में समर्थ हों। किसी प्रकारकी पीड़ा न हो, यह निघण्टुक्त गण न लेना चाहिये । किन्तु सुश्रुतोक्त | पसीना तथा छींकें आती हों, मन प्रसन्न हो, भोजनमें रुचि हो -एलादि गण ही लेना चाहिये। क्योंकि यह गण बहिःपरि तथा मस्तकमें खुजली होना-यह ज्वर मुक्त के लक्षण हैं ॥२८५॥ मार्जनार्थ उद्वर्तनादिके लिये ही है। सुश्रुतोक्त एलादि:-एला ( एलायची) तगर, कुष्ठ (कूठ) मांसी ( जटामांसी ) ध्या इति ज्वराधिकारः समाप्तः । मक (रौहिषतृण) त्वक् (दालचीनी) पत्र ( तेज-पात ) नागपुष्प (नागकेशर) प्रियंगु ( गुजराती धेड़ला ) हरेणुका अथ ज्वरातिसाराधिकारः। (सम्भालूके, बीज ) व्याघ्रनख (नखभेदः) शुक्ति ( बदरपत्राकारा) चण्डा (चोरपुष्पी ) स्थौणेयक ( ग्रन्थिपर्ण) श्रीवेष्टक (गन्धाविरोजा ) चोच (कल्मीतज ) चोरक ( चोरपु- ज्वरातिसारे चिकित्साः। पीभेद) बालक (सुगन्धवाला ) गुग्गुल,सर्जरस ( राल ) तुरुष्क (शिलारस ) कुन्दुरुक ( कुन्दुरु खोटी बंगाली ) स्पृक्का ज्वरातिसारे पेयादिक्रमः स्यालयिते हितः (मालतीपुष्प ) अगर, उशीर ( खश ) भद्रादारु ( देवदारु ज्वरातिसारी पेयां वा पिबेत्साम्लां शृतां नरः॥१॥ पुन्नागकेशर (पुन्नागः पावेतीयो वृक्षविशेषस्तत्केशरम् )।' एला- प्रश्रिपीबलाबिल्वनागरोत्पलधान्यकी। दिको वातकफो निहन्याविषमेव च । वर्णप्रसादनः कण्डापिडि- ज्वरातिसारमें लंघन करनके अनन्तर पेया विलेपी आदिका काकाष्ठमाशनः" इति। क्रमशः सेवन करना हितकर होता है। तथा ज्वरातिसारवालेको Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः]: भाषाटीकोपेतः। (२७) सन्न्न्न्न्छ न् पिठिवन, खरेटी, बेलका गूदा, सोंठ, नीलोफर और धनियांवे खश, सुगन्धवाला, नागरमोथा, धनियां, सोंठ, लजाजलसे सिद्ध की हुई पेया अनार तथा निम्बूके रससे खट्टी कर वन्तीके बीज, धायके फूल, पठानीलोध, बेलका गूदा-इनका पिलानी चाहिये ॥१॥ क्वाथ अग्निको दीप्त तथा आमका पाचन करता है । अरुचि, लासेदार दस्तोंका आना, आम, विबन्ध, अधिक पीड़ा तथा पाठादिकाथः। रक्तके दस्तोंको “जो कि ज्वरके साथ अथवा ज्वरके विना हों," पाठेन्द्रयवभूनिम्बमुस्तपर्पटकामृताः। उन्हें नष्ट करता है ॥८॥९॥ जयन्त्याममतीसारं सज्वरं समहौषधाः ॥२॥ ! पञ्चमूल्याद्विक्वाथः। पाढ़ी, इन्द्रयव, चिरायता, नागरमोथा,, पित्तपापड़ा। गुर्च तथा सोंठका काथ ज्वरसहित आमातिसारको शान्त पञ्चमूलीबलाबिल्वगुडूचीमुस्तनागरैः। करता है ॥२॥ पाठाभूनिम्बहीबेरकुटजत्वक्फलैः शृतम् ॥ १० ॥ हन्ति सर्वानतीसारावरदोषं वर्मि तथा । नागरादिक्वाथः। सशूलोपद्रवं श्वासं कासं हन्यात्सुदारुणम् ॥ ११ ॥ नागरातिविषामुस्तभूनिम्बामृतवत्सकैः । । लघुपञ्चमूल, खरेटी, बेलका गूदा, गुर्च, नागरमोथा, सोंठ, सर्वज्वरहरः काथः सर्वातीसारनाशनः ॥ ३॥ पाढ़, चिरायता, सुगन्धवाला, इन्द्रयव, तथा कुडेकी छालसे सोंठ, अतीस, नागरमोथा, चिरायता, गुर्च तथा करैयाकी सिद्ध किया क्वाथ-समस्त अतीसार, ज्वरदोष, व छालसे बनाया गया क्वाथ सर्वज्वर तथा सर्वातिसारको नष्ट तथा कठिन कासको नष्ट करता है ॥ १० ॥११॥ करता है ॥३॥ कलिंगादिक्वाथः। हीबेरादिक्वाथः। कलिंगातिविषाशुण्ठीकिराताम्बुयवासकम् । हीबेरातिविषामुम्तबिल्वधान्यकनागरैः। । ज्वरातिसारसन्तापं नाशयेदविकल्पतः ॥ १२॥ पिबत्पिच्छाविबन्धनं शूलदोषामपाचनम् ॥४॥ इन्द्रयव, अतीस, सोंट, चिरायता, सुगन्धवाला तथा यवासरक्तं हन्त्यतीसारं सज्वरं वाथ विज्वरम ॥ ५॥साका काथ ज्वरातिसार और सन्तापको निःसन्देह नष्ट . सगन्धवाला, अतीस, नागरमोथा, बेलका गदा. धनियां तथा करता है ॥ १२ ॥ सोंठसे सिद्ध किया क्वाथ लासेदार मरोड़से तथा रक्तयुक्त दस्तोंके वत्सकादिक्वाथः। सहित ज्वरको नष्ट करता, शूलको नष्ट करता और दोष तथा वत्सकस्य फलं दारु रोहिणी गजपिप्पली । आमका पाचन करता है ॥४॥५॥ श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्यं बिल्वं पाठा यवानिका१३।। गुडूच्यादिक्वाथः। द्वावप्येती सिद्धयोगी श्लोकार्द्धनाभिभाषिती । गुडूच्यतिविषाधान्यशुण्ठीबिल्वाब्दबालकः। ज्वरातीसारशमनी विशेषाद्दाहनाशनौ ॥ १४ ॥ पाठाभूनिम्बकुटजचन्दनोशीरपद्मकैः ॥ ६॥ । इन्द्रयव, देवदारु, कुटकी, गजपीपल अथवा गोखरू, छोटी कषायशीतल पेयो रातीमारठशान्तये। पीपल, धनियां, बेलका गूदा, पाढ़, अजवाइन ये आधे आधे हल्लासारोचकच्छर्दिपिपासादाहनाशनः ॥७॥ श्लोकमें कहे गये दोनों योग ज्वरातिसार तथा दाहको नष्ट गुर्च, अतीस, धनियां, सोंठ, बेलका गूदा, नागरमोथा, करते हैं ॥ १३ ॥ १४ ॥ मुगन्धवाला, पाढ़, चिरायता, कुरैयाकी छाल, लाल चन्दन, नागरादिक्वाथः। खश तथा पद्माखका क्वाथ ठण्ढा कर, ज्वरातीसार, मिचलाई, नागरामृतभूनिम्बबिल्वबालकवत्सकैः। भरुचि, वमन, प्यास और जलन शान्त करनेके लिये पीना| चाहिये ॥६॥ ७॥ समुस्तातिविषोशीरेवरातीसारहजलम् ॥ १५ ॥ ___ सोंठ, गुर्च, चिरायता, बेलका गूदा, सुगन्धवाला, कुडेकी उशीरादिक्वाथः। छाल, नागरमोथा, अतीस तथा खशका क्वाथ-ज्वरातीसारको उशीरं वालकं मुस्तं धन्याकं विश्वभेषजम् । नष्ट करता है ॥१५॥ समंगा धातकी लोभ्रं बिल्वं दीपनपाचनम् ॥ ८॥ . मुस्तकादिक्वाथः। हन्त्यरोचकपिच्छामं बिबन्धं सातिवेदनम् । । मुस्तकबिल्वातिविषापाठाभूनिम्बबत्सकैः काथः। सशोणितमतीसारं सज्वरं वाथ विज्वरम् ॥९॥' मकरन्दगर्भयुक्तो ज्यरातिसारी जयेदोरी ॥१६॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) चक्रदत्तः। [ज्वरातिसारासन्मन्स सन्न्न्न् नागरमोथा, बेलका गूदा, अतीस, पाढ़, चिरायता तथा श्लक्ष्णचूर्णीकृतान्सस्तित्तुल्यां वत्सकवचम् । कुड़ेकी छालका काथ ठण्ढा कर शहद मिला पिलानेसे घोर ज्वर सर्वमेकत्र संयोज्य प्रपिबेत्तण्डुलाम्बुना ॥ २३ ॥ तथा अतिसारको नष्ट करता है ॥१६॥ सक्षौद्रं वा लिहेदेतत्पाचनं पाहि भेषजम् ॥ घनादिक्वाथः। तृष्णारुचिप्रशमनं ज्वरातीसारनाशनम् ॥ २४ ॥ कामलां ग्रहणीदोषान्गुल्मं प्लीहानमेव च । घनजलपाठातिविषापथ्योत्पलधान्यरोहिणीविश्वैः ।। सेन्द्रयवैः कृतमम्भःसातीसारं ज्वरं जयति ॥१७॥ प्रमेहं पाण्डुरोगं च श्वयधुं च विनाशयेत् ॥२५॥ नागरमोथा, सुगन्धवाला, पाढ, अतीस, छोटी हरी, सोंठ. काली मिर्च, छोटी पीपल, इन्द्रयव, नीमकी छाल, नीलोफर, धनियां, कुटकी, सोंठ तथा इन्द्रयवका काथ ज्वराति-चिरायता, भांगरा, चीतकी जड़, कुटकी, पाढ़ी, दारुहलदी, सारको नष्ट करता है ॥ १७ ॥ अतीस-सब चीजें समान भाग ले कूटकर कपड़छान करना __कलिङ्गादिगुटिका। चाहिये । जितना चूर्ण हो उतनी ही कुड़ेकी छालका चूर्ण मिलाकर चावलके जलसे पिलाना चाहिये । अथवा शहदके साथ कलिंगबिल्वजम्ब्वाम्रकपित्थं सरसाजनम् । चटाना चाहिये । यह चूर्ण आमका पाचन तथा दस्तोंको बन्द लाक्षाहारद्रे ह्रीबेरं कट्फलं शुकनासिकाम् ॥१८॥ करता है प्यास तथा अरुचिके सहित ज्वरातीसारको नष्ट लोभ्रं मोचरसं शंखं धातकीं वटशुङ्गकम् । करता है, कामला, संग्रहणी, गुल्म, प्लीहा, प्रमेह, पाण्डुरोग पिष्ट्वा तण्डुलतोयेन वटकानक्षसम्मितान् ॥९१॥ तथा सूजनको नष्ट करता है ॥ २२-२५ ॥ छायाशुष्कान्पिबेच्छीघ्र ज्वरातीसारशान्तये । रक्तप्रसादनाश्चैते शुलातीसारनाशनाः ॥२०॥ दशमूलीकषायः। इन्द्रयव, बेलका गूदा, जामुनकी गुठली, आमकी गुठली, दशमूलीकषायेण विश्वमक्षसमं पिबेत् । केथेका गूदा, रसोंत, लाख, हलदी, दारुहल्दी, मुगन्धवाला, कैफरा, सोना पाठाकी छाल, पठानी लोध, मोचरस, शंखकी ज्वरे चैवातिसारे च सशोथे ग्रहणीगदे ।। २६ ।। भस्म, धायके फूल, बरगदके नवीन पत्ते-सब समान भाग ले सोंठका चूर्ण १ तोला दशमूलके कोढेके साथ ज्वरातिसार महीन पीस चावेलके धोवनमें घोट एक तोलेकी गोली बनाकर तथा सूजन सहित ग्रहणी रोगको नष्ट करता है ॥२६॥ चावलके धोवनके साथ ही खिलाना चाहिये । इन गोलियोंसे ज्वरातिसार, शूलयुक्त अतीसार तथा रक्त विकार नष्ट ___विडंगादिचूर्ण क्वाथो वा। होते हैं ॥ १८-२०॥ विडंगातिविषामुस्तं दारु पाठा कलिंगकम । __ उत्पलादिचूर्णम् । मरिचेन समायुक्त शोथातीसारनाशनम् ॥ २७ ॥ उत्पलं दाडिमत्वक् च पद्मकेशरमेव च । बायबिडंग, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, पाढ़, इन्द्रयव पिबेत्तण्डुलतोयेन:ज्वरातीसारनाशनम् ॥२१॥ तथा काली मिर्च का चूर्ण कर सूजनयुक्त अतीसारमें देना नीलोफर, अनारके फलका छिलका, कमलका केशर चाहिये। अथवा क्वाथ बनाकर देना चाहिये ॥२७॥ इनका चूर्ण बना तण्डुलादकके साथ ज्वरातिसारकी शान्तिके लिये पीना चाहिये ॥२१॥ १ इसका अनुपान जो ऊपर लिखा है ज्वरातिसारका है। व्योषादिचूर्णम् । | भिन्न २ रोगोंमें भिन्न भिन्न अनुपानोंके साथ देना चाहिये । व्योषं वत्सकबीजं च निम्बभूनिम्बमार्कवम्। । २ यहांपर क्वाथकी प्रधानता होनेसे “कर्षचूर्णस्य कल्कस्य चित्रकं रोहिणी पाठां दामितिविषां समाम्।।२२॥ गुटिकानां च सर्वशः । द्रवशुक्त्या स लेढव्यः पातव्यश्च चतुर्दवः।" यह परिभाषा न लगेगी, किन्तु " क्वाथेन चूर्णपानं १ कलिङ्गके स्थानमें कुछ आचार्य कटवङ्ग" पढते हैं। यत्तत्र क्वाथप्रधानता। प्रवर्तते न तेनात्र चूणापेक्षी चतुर्द्रवः॥" कट्वज-सोनापाठा । २ तण्डुलोदकविधि-" जलमष्टगुणं दत्त्वा | इस सिद्धान्तसे क्वाथकी प्रधानता निश्चित हो जानेपर “प्रक्षेपः पलं काण्डततण्डुलात् । भावयित्वा ततो ग्राह्यं तण्डलो-पादिकः क्वाथ्यात् " के अनुसार क्वाथ्यद्रव्यसे चतुर्थांश चूर्णका दककर्मणि ॥" ४ तोला चावल पानी में मिला धोकर ३२ प्रक्षेप करना चाहिये । अतएव पूर्ण मात्राके लिये शुण्ठीचूर्ण १ तोला जलमें मिलाकर कुछ देर रखनेके अनन्तर छानकर कर्ष लिखा है, क्वाथकी मात्रा हीन होनेपर प्रक्षेपरूप चूर्ण भी काममें लाना चाहिये। उतनी ही कम मात्रामें छोड़ना चाहिये । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] _ भाषाटीकोपेतः। (२९) Horror किरातादिचूर्णद्वयं क्वाथद्वयं च ।। आमातिसारमें प्रथम लंघन तथा पाचन कराना चाहिये, किराताब्दामृताविश्वचन्दनोदीच्यवत्सकैः। लंघनके अनन्तर, शास्त्रोक्त द्रव पदार्थ भोजनके लिये देना चाहिये । बलवान पुरुषके लिये एक लंघन छोड़कर अन्य शोथातिसारशमनं विशेषाज्ज्वरनाशनम् ॥ २८॥ औषध नहीं है। लंघन बढे हुए दोषोंको शान्त तथा आमका किराताब्दामृतादाच्यमुस्तचन्दनधान्यका पाचन करता है ॥४॥५॥ शोथातीसारतृड्दाहशमनो ज्वरनाशनः ॥ २९ ॥ । चिरायता, नागरमोथा, गुर्च, सोंठ, सफेद चन्दन, सुगन्ध- अतिसारे जलविधानम् । वाला तथा कुरैयाकी छालका चूर्ण-शोथातिसार तथा ज्वरको। ह्रीबेरशृंगवेराभ्यां मुस्तपर्पटकन वा। नष्ट करता है । इसी प्रकार चिरायता, नागरमोथा, गुर्च, नेत्र-| मस्तोदीच्यकृतं तोयं देयं वापि पिपासवे ॥ वाला, नागरमोथा, सफेद चन्दन व धनियांका चूर्ण शोथातिसार, मुगन्धवाला, सोंठ अथवा नागरमोथा, पित्तपापड़ा अथवा प्यास, दाह तथा ज्वरको नष्ट करता है । अथवा इनका काथ नागरमोथा, सुगन्धवालासे सिद्ध किया हुआ जल पिपासावाबनाकर देना चाहिये ॥२८॥२९॥ लेके लिये देना चाहिये । इति ज्वरातिसाराधिकारः समाप्तः । अतिसारेऽन्न विधानम् । अथातिसाराधिकारः। युक्तऽन्नकाले क्षुत्क्षामं लघून्यन्नानि भोजयेत् ।।६।। औषधसिद्धाः पेया लाजानां सक्तवोऽतिसारहिताः। वस्त्रप्रसुतमण्डः पेया च मसूरयूषश्च ॥७॥ अतिसारविशेषज्ञानम्। गुर्वी पिंडी खरात्यर्थ लध्वी सैव विपर्यायान् । आमपक्कक्रमं हित्वा नातिसारे क्रिया यतः। । सक्तूनामाशु जीर्यंत मृदुत्वादवलेहिका ॥८॥ अतः सर्वातिसारेषु ज्ञेयं पक्कामलक्षणम् ॥ १॥ | जब रोगी भूखसे व्याकुल हो और अन्नका समय उपस्थित मजत्यामा गुरुत्वाद्विद् पक्का तूत्प्लवते जले । हो, तब हलके पदार्थ यथा ओषधि सिद्ध पेया अथवा खीळके विनातिद्रवसंघातशैत्यश्लेष्मप्रदूषणात् ॥२॥ . सत्तू अथवा कपड़ेसे छाना हुआ मण्ड अथवा पेया अथवा शकृद् दुर्गन्धि साटोपविष्टम्भार्तिप्रसेकिनः।। मसूरका यूष देना चाहिये । सत्तओंकी कड़ी पिंडी भारी और विपरीतं निरामं तु कफात्पकं च मजति ॥३॥ | पतला अवलेह हलका होता है, अत एव हलके होनसे पतले • अतिसारमें आम-पक्वज्ञान विना चिकित्सा नहीं हो सकती.. | सत्त जल्दी हजम होते हैं ॥ ६-८॥ अतः समस्त अतीसारोंमें प्रथम आम-पक्क लक्षण जानना आहारसंयोगिशालिपादिः। चाहिये । अतः उसका निर्णय कर देते हैं। आमयुक्त मल भारी होनेके कारण जलमें डूब जाता है तथा पक्क मल तैरता। शालिपर्णी पृश्निपर्णी बृहती कण्टकारिका ॥ ९ ।। है, पर बहुत पतले बहुत कठिन तथा शीतलता और कफसे | | बलाश्वदंष्ट्राबिल्वानि पाठानागरधान्यकम् ।। दूषित मलमें यह नियम नहीं लगता, अर्थात् अतिदव मल| एतदाहारसंयोगे हितं सर्वातिसारिणाम् ॥१०॥ आम सहित भी जलमें तैरता है और अतिकठिन तथा कफ सरिवन, पिठिवन, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, खरेटी, त पक्क भी जलमें डूब जाता है। आमयुक्त मल दुर्गन्धित गोखुरू, कच्चे वेलका गूदा, पाढी, सोंठ, धनियां-इन द्रव्योंका होता है । रोगीके पेटमें अफारा जकड़ाहट तथा पीडा होती है आहारके सिद्ध करने में प्रयोग करना चाहिये ॥९॥१०॥ और मुखसे पानी आता रहता है। इससे विपरीत लक्षण होनेपर निराम समझना चाहिये । कफसे दूषित मल पक्क भी. __ अपरः शालिपादिः। बैठ जाता है॥ १-३॥ शालिपर्णीबलाबिल्वैः पृश्निपा च साधिता॥ दाडिमाम्ला हिता पेया पित्तश्लेष्मातिसारिणाम् ११ आमचिकित्सा। आमे विलंघनं शस्तमादी पाचनमेव च। १ आमातिसारमें यद्यपि द्रव द्रव्य निषिद्ध है, यथा-" वर्जकार्य चानशनस्यान्ते प्रद्रवं लघु भोजनम् ॥४॥ येद्वैदलं शूली कुष्ठी मांसं क्षयी स्त्रियम् । द्रवमन्नमतीसारी सर्वे लंघनमेकं मुक्त्वा न चान्यदस्तीह भेषजं बलिनः। च तरुणज्वरी "॥ पर यहां ' प्रद्रव' पथ्य लिखा है, अतः प्रशब्द समुदीण दोषचयं शमयति तत्पाचयत्यपि च ॥५॥ शास्त्रोक्त द्रव द्रव्यका प्रतिपादक है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) चक्रदत्तः । सरिवन, खरेटी, बेलका गूदा, पिठवनसे सिद्ध की गयी तथा अनारका रस छोड़कर खट्टी की गयी पेया पित्तश्लेष्मातिसारवालोंके लिये हितकर होती है ॥ ११ ॥ व्यञ्जननिषेधः । यवागूमुपयुञ्जानो नैव व्यञ्जनमाचरेत् । शाकमांसफलैर्युक्ता यवाग्वोऽम्लाश्च दुर्जराः ||१२|| यवागूका सेवन करनेवाला किसी व्यञ्जनका प्रयोग न करे, क्योंकि शाक, मांस और फल - रसोंसे युक्त अथवा खट्टी यवागू कठिनता से हजम होती है ॥ १२ ॥ विशिष्टाहारविधानम् । धान्यपञ्चकसंसिद्धो धान्यविश्वकृतोऽथवा । आहारो भिषजा योज्यो वातश्लेष्मातिसारिणाम् ॥ १३ ॥ धान्यपञ्चक (धनियां, सोंठ, मोथा, सुगन्धवाला, बेल ) अथवा धनियां व सौंठसे सिद्ध किया आहार वैद्यको वातश्लेष्मातिसारवालेके लिये देना चाहिये ॥ १३ ॥ वातपित्ते पञ्चमूल्या कफे वा पञ्चकोलकैः । धान्योदीच्यशृतं तोयं तृष्णादाहातिसारनुत् ॥ १४ ॥ आभ्यामेव सपाठाभ्यां सिद्धमाहारमाचरेत् । . वातपित्तातिसारमें लघुपञ्चमूलसे, कफातिसारमें पञ्चकोल ( " पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्य चित्रकनागरैः " ) से तथा तृष्णा दाहयुक्त अतीसारमें धनियां व सुगन्धवालासे सिद्ध किया हुआ जल पीनेके लिये देना चाहिये । और धनियां सुगन्धवाला और पाढ़से सिद्ध जलसे पथ्य बनाकर देना चाहिये ॥ १४ ॥ सञ्चितदोषहरणम् । दोषाः सन्निचिता यस्य विदग्धाहारमूर्च्छिताः ॥ १५ ॥ अतसाराय कल्पन्ते भूयस्तान्सम्प्रवर्तयेत् । न तु संग्रहणं दद्यात्पूर्वमामातिसारिणे ॥ १६ ॥ दोषा ह्यादी रुध्यमाना जनयन्त्यामयान्बहून् । शोथ पांड्वा मयप्लीहकुष्ठगुल्मोदरज्वरान् ॥ १७ ॥ दण्डकालसकाध्मानान्प्रहण्यर्शोगदांस्तथा । जिसके अविपक्क आहारसे बढ़े हुए दोष इकट्ठे होकर अतीसार उत्पन्न करते हैं, उन दोषोंको विरेचन द्वारा निकाल ही देना चाहिये । आमातिसारखालेको प्रथम दस्त बन्द करनेवाली औषध न देना चाहिये । क्योंकि बढ़े हुए दोष रुक जानसे सूजन, पाण्डुरोग, प्लीहा, कुष्ठ, गुल्म, उदररोग, ज्वर, दण्डालसक, अफारा, ग्रहणी तथा अर्शआदि अनेक रोगोंको उत्पन्न कर देते हैं । १५-१७ ॥ [ अतिसारा स्तम्भनावस्था | क्षीणधातुबार्तस्य बहुदोषोऽतितिस्रुतः ॥ १८ ॥ आमोऽपि स्तम्भनीयः स्यात्पाचनान्मरणं भवेत् १९ जिसका धातु व बल क्षीण हो गया है, दस्त बहुत आचुके हैं, फिर भी दोष बढ़े हुए हैं और आम भी है, तो भी संग्राही औषध देना चाहिये, केवल पाचनसे मृत्यु हो सकती है ॥ १८ ॥ - विरेचनावस्था | स्तोकं स्तोकं विबद्धं वा सशूलं योऽतिसार्यते १९ ॥ अभयापिप्पली कल्कैः सुखोष्णैस्तं विरेचयेत् । जिसको पीड़ाके सहित थोड़ा थोड़ा बँधा हुआ दस्त उतरता है, उसे कुछ गरम गरम हर्र तथा छोटी पीपलका कल्क देकर विरेचन कराना चाहिये ॥ १९ ॥ -- धान्यपञ्चकम् । धान्यकं नागरं मुस्तं वालकं बिल्वमेव च ।। २० ।। आमशुलविबन्धन्नं पाचनं वह्निदीपनम् । इदं धान्यचतुष्कं स्यात्पित्ते शुण्ठीं विना पुनः ॥ २१॥ धनियां, सोंठ, नागरमोथा, सुगन्धवाला, बेलका गूदा, यह ' धान्यपञ्चक' कहा जाता है। यह आम, शूल तथा विबन्धको नष्ट कर अग्निको दीपन करता है । पित्तातिसार में सोंठको पृथक् कर शेष चार चीजें देनी चाहिये, इसे धान्यचतुष्क' कहते हैं ॥ २० ॥ २१ ॥ प्रमथ्याः । पिप्पली नागरं धान्यं भूतीकं चाभयां वचाम् । बेरभद्रमुस्तानि बिल्वं नागरधान्यकम् ॥ २२ ॥ पृश्निपर्णी वद्रंष्ट्रा च समंगा कण्टकारिका । तिस्रः प्रमथ्या विहिताः श्लोकार्थैरतिसारिणाम् २३॥ कफे पित्ते च वाते च क्रमादेताः प्रकीर्तिताः । संज्ञा प्रमध्या ज्ञातव्या योगे पाचनदीपने ॥ २४ ॥ (१) छोटी पीपल, सोंठ, धनियां, अजवाइन, हर्र तथा बचसे ( २ ) सुगन्धवाला, नागरमोथा, बेलका गूदा, सोंठ व धनियां (३) तथा पिठवन, गोखरू, लज्जालु, भटकटैया की जड़से बनायी गयी आधे आधे श्लोकमें कही गई तीन ' प्रमध्या ' क्रमशः प्रथम कफ, द्वितीय पित्त तथा तृतीय वातजन्य अतिसार में देना चाहिये ।' प्रमथ्या' पाचन दीपन योगको ही कहते हैं । १- धान्यपञ्चकम् - "धान्यकं नागरं मुस्तं बिल्वं बालकमेव च । अर्थात् यह तीनों प्रयोग चूर्ण अथवा कषायद्वारा दीपन पाचन धान्यपञ्चकमाख्यातमामातीसारशूलनुत् " । करते हैं ॥ २२-२४ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] . भाषाटीकोपेतः। - wrr or-wror-- -o-orderaw आमातिसारनचूर्णम् । नागरादिपानीयम्। त्र्यूषणातिविषाहिंगुबलासौवर्चलाभयाः। पीत्वोष्णेनाम्भसा हन्यादामातीसारमुद्धतम् ॥२५॥ नागरातिविषामुस्तैरथवा धान्यनागरैः। तृष्णातीसारशूलनं पाचनं दीपनं लघु ॥३०॥ सोंठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, अतीस, भूनी हांग, सोंठ, अतीस, नागरमोथा अथवा धनियां व सोंठसे सिद्ध खरेटी, काला नमक, बड़ी हरेका छिल्का कूट कपड़ छानकर किया जल प्यास, अतीसार तथा शुलको नष्ट करता है, हलका, गरम जलके साथ पीनसे उद्धत आमातीसार नष्ट होता है । पाचन तथा दीपन है ॥ ३० ॥ ( इसकी मात्रा ३ माशेसे ६ माशे तक है ) ॥ २५ ॥ . पाठादिकाथश्चूर्ण वा । पिप्पलीमूलादिचूर्णम् । पाठावत्सकबीजानि हरीतक्यो महौषधम् । अथवा पिप्पलीमूलपिप्पलीद्वयचित्रकान्। एतदामसमुत्थानमतीसारं सवेदनम् ॥ ३१ ॥ सौवर्चलवचाव्योषहिङ्गुप्रतिविषाभयाः ॥२६॥ कफात्मकं सपित्तञ्च वर्ची बध्नाति च ध्रुवम् । पिबेच्ल्छेष्मातिसारातश्चर्णिताश्चोप्णवारिणा । पाढ़, इन्द्रयव, बड़ी हर्रका छिल्का और सोठका चूर्ण अथवा अथवा पिपरामूल, दोनों पीपल, चीतकी जड़, काला नमक, काथ कफ अथवा पित्तसे उत्पन्न पीड़ा सहित आमातिसारको नष्ट बच-दूधिया, सोंठ, मिर्च, पीपल, भूनी हींग, अतीस, हर्रका करता तथा मलको गाढ़ा करता है ॥ ३१॥ छिलका कूट कपड़ छानकर श्लेष्मातिसारसे पीड़ित रोगीको गरम मुस्ताक्षीरम्। जलके साथ पीना चाहिये ॥ २६ ॥ पयस्युत्काथ्य मुस्तां वा विंशतिम्भद्रकाह्वयाः॥३२॥ __हरिद्रादिचूर्णम् । क्षीरावशिष्टं तत्पीतं हन्यादामं सवेदनम् । २. मोथेकी जड़ दूध तथा जल मिलाकर पकाना चाहिये. हरिद्रादिं वचादि वा पिबेदामेषु बुद्धिमाम् ॥२७॥ हारद्रादि वचादि वा पिबदामषु बुद्धिमान् ॥रणा दूध मात्र शेष रहनेपर पीनेसे पीडायुक्त आमातिसार नष्ट खडयूषयवागूषु पिप्पल्यादि प्रयोजयेत् । । होता है ॥ ३२॥आमातिसारमें हरिद्रादिगण (“ हरिद्रा दारुहरिद्र। कलशीकुटजबीजानि मधुकञ्चति") अथवा वचादिगण "(वचा मुस्ताति संग्रहणावस्था। विषाभवाभद्दारु नागरश्चेति") का प्रयोग करना चाहिये। तथा पक्कोऽसकृदतीसारो ग्रहणी मार्दवाद्यदा ॥ ३३ ॥ खड़ चटनीयां, अचार, यूष, यवागू आदिमें पिप्पल्यादिगण | प्रवर्तते तदा कार्यः क्षिप्रं सांग्राहिको विधिः । (ज्वराधिकारोक्त) का प्रयोग करना चाहिये ॥२७॥ ग्रहणीके कमजोर हो जानेपर जब पके हुए दस्त बारबार आते हैं, उस समय तत्काल संग्राहक औषधका प्रयोग करना खडयूषकाम्बलिको। चाहिये ॥ ३३ ॥तके कपित्थचाङ्गेरीमरिचाजाजिचित्रकैः ॥२८॥ पञ्चमूल्यादिकाथश्चूर्ण वा । सुपकः खडयूषोऽयमयं काम्बलिकोऽपरः। दध्यम्लो लवणस्नेहतिलमाषसमन्वितः ॥२९॥ पञ्चमूलीबलाविश्वधान्यकोत्पलबिल्वजाः ॥ ३४ ५ वातातिसारिणे देयास्तऋणान्यतमेन वा। मढेमें कैथा, अमलोनियां, काली मिर्च, जीरा, चीतकी जड़ तथा यूष होनेसे मूंग भी छोड़ना चाहिये, तीक्ष्ण द्रव्य छःछः लघुपञ्चमूल, खरेटी, सोंठ, धनियां, नीलोफर, बेलका गूदा, | सबका चूर्ण बनाकर मटेके साथ अथवा अन्य किसी द्रव माशे, साधारण द्रव्य एक एक पल, तक एक प्रस्थ छोड़कर पकाकर छान लेना चाहिये । यह "खडयूष" कहा जाता है और द्रव्यके साथ देना चाहिये । अथवा इनका काथ बनाकर पिलाना दही, लवण, स्नेह, तिल, उड़द मिलाकर पकाया गया " काम्ब चाहिये ॥ ३४ ॥लिक" कहा जाता है ॥ २८ ॥ २९ ॥ कञ्चटादिकाथः। कञ्चटजम्बूदाडिमशृङ्गाटकपत्रबिल्वहीबेरम् ॥ ३५॥ १ पिप्पल्यादिगणका पाठ सुश्रुतसंहितामें इसप्रकार है- जलधरनागरसहितं गङ्गामपि वेगिनी रुन्ध्यात् । " पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृंगवेरमरिचहस्तिपिप्पलीहरेणु-1कैलाजमोदन्द्रयवपाठाजीरकसर्षपमहानिम्बफलहिगुभार्गीमधुरसा- १क्षीरपाकविधिः-" द्रव्यादष्टगुणं क्षीरं क्षीरान्नीर चतुतिविषावचाविडंगानि कटुरोहिणी चति" । “पिप्पल्यादिकहरः1र्गुणम् । क्षीरावशेषः कर्तव्यः क्षीरपाके त्वयं विधिः॥" प्रतिश्यायानिलारुची। निहन्याद्दीपनो गुल्मलनश्चामपाचनः॥'यहां दूध बकरीका लेना चाहिये। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चक्रदतः। [ अतिसारा - - -- - चौलाई अथवा जलपिप्पली, जामुनके पत्ते, अनारके क्वाथान्तरम् । पत्ते, सिंघाड़ाके पत्ते, बेलका गूदा, सुगन्धवाला, नागरमोथा तथा सोंठका क्याथ · वेगयुक्त अतीसारको नष्ट | कुटजत्वक्फलं मुस्तं काथयित्वा जलं पिबेत् । करता है ॥३५॥ अतीसारं जयत्याशु शर्करामधुयोजितम् ॥४२॥ कुड़ेकी छाल, इन्द्रयव, तथा नागरमोथाका क्वाथ शकर तथा नाभिपूरणम् । शहद मिलाकर पीनेसे अतीसार नष्ट होता है ॥ ४२ ॥ कृत्वालवालं सुदृढं पिष्टैमिलकैभिषक् ॥ ३६॥ बिल्वादिक्वाथः। आईकस्वरसेनाशु पूरयेनाभिमण्डलम् । नदीवेगोपमं घोरमतीसारं निरोधयेत् ॥ ३७ ॥ बिल्वचूतास्थिनियूहः पीतः सक्षौद्रशकरः। आमलोंको महीन पीसकर नाभिके चारों ओर मेड बांधनी निहन्याच्छद्येतीसारं वैश्वानर इवाहुतिम् ॥ ४३॥ चाहिये, फिर अदरखका रस नाभिमण्डलमें भर देना चाहिये।। कच्च बलका गूदा तथा आमकी गुठलीका काथ शकर तथा इससे नदीके वेगके समान बढ़ा हुआ अतिसार नष्ट होश शहदके साथ पीनेसे आग्नि आहुतिके समान वमन तथा अतीजाता है॥३६॥३७॥ सारको नष्ट करता है ॥ ४३॥ किराततिक्तादिवाथः। पटोलादिक्वाथः। किराततिक्तकं मुस्तं वत्सक सरसाञ्जनम् ॥ | पटोलयवधान्याकक्काथः पेयः सुशीतलः । पिबेत्पित्तातिसारनं सक्षौद्रं वेदनापहम् ॥ ३८॥ शर्करामधुसंयुक्तश्छद्यतीसारनाशनः ॥४४॥ चिरायता, नागरमोथा, कुड़ेकी छाल, तथा रसौतका परवलके पत्ते, यव तथा धनियांका काथ ठण्डा कर शकर काथ शहद मिलाकर पीनेसे पीडायुक्त पित्तातिसार नष्ट हो तथा शहद मिलाकर पानसे वमन तथा अतीसार नष्ट होता जाता है । अथवा इसका चूर्ण बनाके शहद व चावलके जलसे | है ॥ ४४ ॥ सेवन करना चाहिये ॥३८॥ प्रियंग्वादिचूर्णम् । वत्सकबीजकाथः। प्रियंग्वजनमुस्ताख्यं पापयेत्तु यथाबलम् । पलं वत्सकबीजस्य श्रपयित्वा जलं पिबेत् । । तृष्णातीसारछर्दिघ्नं सक्षौद्रं तण्डुलाम्बुना ॥ ४५ ॥ यो रसाशी जयेच्छीघ्रं स पैत्तं जठरामयम् ॥३९॥ फलप्रियंगु, रसौत तथा नागरमोथाका चूर्ण बनाके शहद तथा एक पल इन्द्रयवका क्वाथ बनाकर पीने तथा मांस चावलके धोवनके साथ बलके अनुसार सेवन करनेसे प्यास, वमन रसके साथ भोजन करनेसे पैत्तिक अतीसार नष्ट हो जाता तथा अतीसार नष्ट होता है ॥४५॥ वातपित्तातिसारे कल्कः। मधुकादिचूर्णम् ॥ कलिंगकवचामुस्तं दारु सातिविषं समम् । मधुकं कट्रफलं लोधं दाडिमस्य फलत्वचम् । कल्क तण्डुलतोयेन पिबेत्पित्तानिलामयी ॥ ४६॥ पित्तातिसारे मध्वक्तं पाययेत्तण्डुलाम्बुना ॥४०॥ इन्द्रयव, वच दूधिया, नागरमोथा, देवदारु तथा अतीसका मौरेठी, कायफल, पठानी लोध, अनारका छिलका सब कल्क चावलके धोवनके साथ पीनेसे बातपित्तातिसारको नष्ट समान भाग ले, चूर्ण बना, शहद मिलाकर चटाना चाहिये | nrsm और ऊपरसे चावलका धोवन जल पिलाना चाहिये, इससे पित्तातिसार नष्ट होता है ॥ ४० ॥ कुटजादिकाथः। कुटजादिचूर्ण काथो वा। कुटजं दाडिमं मुस्तं धातकीबिल्ववालकम् । कुटजातिविषामुस्तं हरिद्रापणिनीद्वयम् । । लोध्रचन्दनपाठाश्च कषायं मधुना पिबेत् ।। ४७ ॥ सक्षौद्रशर्करं शस्तं पित्तश्लेष्मातिसारिणाम् ॥ ४१॥ सामे सशूले रक्तेऽपि पिच्छास्रावेषु शस्यते । कुड़ेकी छाल, अतीस, नागरमोथा, हलदी, दारुहलदी, कुटजादिरिति ख्यातः सर्वातीसारनाशनः ।। ४८ ।। माषपर्णी, मुद्रपर्णीका क्वाथ अथवा चूर्ण बनाकर शहद व कुडेकी छाल, अनारका छिलका, नागरमोथा, धायके फूल, मिश्री मिलाकर पीनेसे पित्तश्लेष्मातिसार नष्ट होता है॥४१॥बेलका गूदा, सुगन्धवाला, पठानी लोध, लाल चन्दन तथा पाढ़का Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ]. भाषाटीकोपेतः। - - - काढ़ा शहद मिलाकर पीनेसे आमशूल, रक तथा लासेदार हैं, पर प्रक्षेप होनेसे चतुर्थोश ही छोड़ना चाहिये, यह ग्रन्थदस्तोंको रोकता है तथा यह " कुटजादि क्वाथ समस्त कारका मत है। तथा अन्यत्र भी यही व्यवस्था समझना अतीसारोंको नष्ट करता है॥४७॥ ४८॥ चाहिये । यदुक्तम्-"लेहेतु यत्र नो भागो निर्दिष्टो द्रवकल्कयो। | तत्रापि पादिकः कल्क द्रवात्कार्यों विजानता "॥५३॥५४ ।।- समङ्गादिक्वाथः। समंगातिविषा मुस्तं विश्वं ह्रीबेरघातकी। अंकोठवटकः। कुटजत्वक्फलं बिल्वं काथः सर्वातिसारनुत् ॥४९॥ सदाव्यकोठपाठानां मूलं त्वक्कुटजस्य च ॥५५॥ लज्जावन्तीके बीज, अतीस, नागरमोथा, सोंठ, सुगन्धवाला, शाल्मलीशालानिर्यासधातकीलोध्रदाडिमम् । घायके फूल, कुड़ेकी छाल, इन्द्रयव, बेलका गूदा-सबका क्वाथ पिष्ट्वाक्षसम्मितान्कृत्वा वटकांस्तण्डुलाम्बुना ॥५६॥ बनाकर पीनेसे समस्त अतीसार नष्ट होते हैं। ४९ ॥ तेनैव मधुसंयुक्तानेकैकान्प्रातरुत्थितः । हिज्जलस्वरसः। पिबेदत्ययमापन्नो विड्विसर्गेण मानवः ॥५७ ॥ · दलोत्थः स्वरसः पेयो हिज्जलस्य समाक्षिकः। । अंकोठवटको नाम्ना सोतीसारनाशनः । जयत्याममतीसारं काथो वा कुटजत्वचः॥५०॥ दारुहलदी, अंकोहर, पाढ़की जड़, कुड़ेकी छाल, मोचरस, हिजल ( समुद्रफल ) के पत्तोंका स्वरस शहदके साथ राल, धायके फूल, पठानी लोध, अनारका छिलका, सब अथवा कुड़ेकी छालका क्वाथ आमातिसारको नष्ट करता है॥५०॥ समान भाग ले, महीन पीसकर चावलके धोवनके साथ वटारोहकल्कः । एक एक तोलेकी गोली बनानी चाहिये और उसी जलके वटारोहं तु सम्पिष्य श्लक्ष्णं तण्डुलवारिणा। साथ शहदमें मिलाकर प्रातःकाल सेवन करना चाहिये । यह · अंकोटवटक' समस्त अतीसारोंको नष्ट करता तं पिबेत्तकसंयुक्तमतीसाररुजापहम् ॥५१॥ | वरगदकी बौंको चावलके धोवनके साथ महीन पीस मठेके | साथ मिलाकर अतीसारकी पीड़ा नष्ट करनेके लिये पीना रक्तातिसारचिकित्सा। चाहिये ॥५१॥ पयस्यौंदके छागे हीबेरोत्पलनागरैः॥ ५८ ॥ अकोठमूलकल्कः। पेया रक्तातिसारनी पृभिपया च साधिता। तण्डुलजलपिष्टांकोठमूलकर्धिपानमपहरति । । आधे जल मिले हुए बकरीके दूधमें सुगन्धवाला, नीलोसर्वातिसारग्रहणीरोगसमूह महाघोरम् ॥ ५२ ।। फर. नागरमोथा तथा पिठिवनका क्वाथ मिलाकर बनायी गयी .६ माशे अंकोहरकी जड़को चावलके जलके साथ पीस-पेया रक्तातीसारको नष्ट करती है ॥ ५८ ॥ कर पीनेसे समस्त अतीसार तथा घोर ग्रहणीरोग नष्ट हो। जाते हैं ॥५२॥ रसाञ्जनादिकल्कः। बब्बूलदलकल्कः। रसाञ्जनं सातिविषं कुटजस्य फलं त्वयम् ॥५९ ॥ कल्कः कोमलबब्बूलदलात्पीतोऽतिसारहा। धातकी शृंगवेरं च प्रपिबेत्तण्डुलाम्बुना । कोमल बब्बूलकी पत्तीका कल्क जलमें छानकर पीनेसे अती- क्षौद्रेण युक्तं नुदति रक्तातीसारमुल्बणम् ॥ ६॥ सारको नष्ट करता है। मन्दं दीपयते चामिं शूलं चापि निवर्तयेत् । कुटजावलेहः। रसौत, अतीस, कुरैयाकी छाल, इन्द्रयव, धायके फूल, कुटजत्वक्कृतः काथो धनीभूतः सुशीतलः ॥५३॥ सोंठ-सब समान समान भाग ले महीन पीस चावलके धोवनसे लेहितोऽतिविषायक्तः सर्वातीसारनवेत। शहदके साथ चाटकर उतारनेसे बढ़ा हुआ रक्तातीसार नष्ट वदन्त्यत्राष्टमांशेन काथादतिविषारजः ॥५४॥हाता है । मन्द आमका दप्ति तथा शूलको नष्ट करता है॥ ५९॥६ ॥ प्रक्षेप्यत्वात्पादिकं तु लेहादिति च नो मतिः।। कुडेकी छालके क्वाथको गाढ़ा कर ठण्ढा होनेपर अतीस चर्ण मिलाकर चाटनेसे समस्त अतीसार नष्ट होते हैं । काथकी १ अत्र नागरम्मुस्तमेव न तु शुण्ठी "अजाक्षीरकोष्ट्रीअपेक्षा अष्टमांश अतीसका चूर्ण छोड़ना कुछ भावार्थ बतलाते | धनजलोत्पलेः" इति जतुकर्णसंवादात् शिवदासेनापि स्वीकतम् । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अतिसारा ramewor wr - - -- e w विडंगादिचूर्ण क्वाथो वा। जम्ब्वाम्रामलकीनां तु पल्लवानथ कुट्टयेत् संगृह्य स्वरसं तेषामजाक्षारण योजयेत् ॥ ६८ ॥ विडंगातिविषा मुस्तं दारु पाठा कलिंगकम्६१॥ तं पिबेन्मधुना युक्तं रक्तातीसारनाशनम् । मरिचेन च संयुक्तं शोथातीसारनाशनम्॥६२॥! जामुन, आम तथा आमलाके पत्तोंको कूट स्वरस निकाल वायविडंग, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, पाढ़, इन्द्रयव, बकरीका दूध तथा शहद मिलाकर पीना चाहिये । इससे रक्काकालीमिर्च, इनका चूर्ण अथवा क्वाथ पीनेसे सूजनयुक्त अती-तिसार नष्ट होगा ॥ ६८ ॥सार नष्ट होता है ॥६१ ॥३२॥ तण्डुलीयकल्कः। वत्सकादिकषायः। ज्येष्ठाम्बुना तण्डुलीयं पीतं च ससितामधु ॥६९॥ सवत्सकःसातिविषःसबिल्वः पीत्वा शतावरीकल्कं पयसा भीरभुग्जयेत् । सोदीच्यमुस्तश्च कृतः कषायः रक्तातिसारं पीत्वा वा तया सिद्धं घृतं नरः ॥७०॥ सामे सशूले सहशोणिते च चौलाईका कल्क मिश्री तथा शहद मिलाकर चावलके चिरप्रवृत्तेऽपि हितोऽतिसारे ॥ ६३ ॥ जलके साथ पीनेसे रक्तातिसार नष्ट होता है । इसी प्रकार शताकुडेकी छाल, अतीस, बेलका गूदा, मुगन्धवाला व नागर- वरीका कल्क दूधके साथ पीनेसे तथा दूधका पथ्य लेनेसे रक्तामोथासे बनाया गया काथ आमसूल, रक्त सहित तथा अधिक तीसार नष्ट होता है । इसी प्रकार इन्हीं औषधियों द्वारा सिद्ध समयसे उत्पन्न हुए अतीसारको नष्ट करता है॥३३॥ तसे भी रकातीसार नष्ट होता है ॥ ६९ ॥७॥ दाडिमादिकषायः। कुटजावलेहः। कषायो मधुना पीतस्त्वचो दाडिमवत्सकात्।। कुटजस्य पलं ग्राह्यमष्ठभागजले शृतम् । सद्यो जयेदतीसारं सरक्तं दुर्निवारकम् ॥६४॥ तथैव विपचेद भूयो दाडिमोदकसंयुतम् ॥ ७१ ॥ अनारके छिलकेका तथा कुडेकी छालका काथ शहदक साथ | यावश्चैव लसीकामं शृतं तमुपकल्पयेत् । पोनेसे तत्काल ही कठिन रक्तातीसार नष्ट होता है ॥६४॥ । तस्याद्धकर्ष तक्रेण पिबेद्रक्तातिसारवान् ।। ७२॥ बिल्वकल्कः । __ अवश्यमरणीयोऽपि मृत्योयाति न गोचरम् ।। गुडेन खादयद्वित्वं रक्तातीसारनाशनम् । कायतुल्यं दाडिमाम्बु भागानुक्ती समं यतः ॥७३॥ आमशूलविबन्धनं कुक्षिरोगविनाशनम् ॥६५॥ कुडेकी छाल एक पल लेकर महीन पीस अष्टगुण जलमें कच्चे बेलका कल्क गुड़के साथ खानेसे रक्तातीसार, आम पकाकर अष्टमांश रहनेपर इसीके बराबर अनारका रस मिलाकर दोष, शूल, मलकी रुकावट तथा अन्य उदररोग नष्ट जबतक गाढ़ा न हो जाय, तबतक पकाना चाहिये. गाढा हो जानेपर इसको उतारकर छः माशेकी मात्रा मटेके साथ पानी होते हैं । ६५॥ चाहिये । इससे मुमूर्षु भी रक्तातिसारी आरोग्य लाभ करता है। बिल्वादिकल्कः। इसमें काथके समानही अनारका रस छोड़ना चाहिये । क्योंकि बिल्वाब्दधातकीपाठाशुंठीमोचरसाः समाः। जहां भागका विशेष वर्णन न हो, वहां समान भाग ही छोड़ा जाता है । ७१-७३॥ पीता रुन्धन्त्यतीसारं गुडतक्रेण दुर्जयम् ६६ ॥ बेलका गूदा, नागरमोथा, धायके फूल, पाढ, सोंठ, मोच तिलकल्कः। रस-सब समान भाग ले कल्क कर गुड़ तथा मठे में मिलाकर पानसे कठिन रकातिसार नष्ट होता है॥६६॥ कल्कस्तिलानां कृष्णानां शर्कराभागसंयुतः । आजेन पयसा पीतः सद्यो रक्तं नियच्छति ॥७४॥ शल्लक्यादिकल्कः। काले तिलका कल्क १ भाग, शर्करा ४ भाग, दोनोंसे चतुर्गुण शल्लकीबदरीजम्बूप्रियालाम्रार्जुनत्वचः। बकरीका दूध मिलाकर पीनेसे तत्काल रक्तातीसार नष्ट पीताःक्षीरेण मध्वाढयाः पृथक्शोणितनाशनाः ६७ होता है ॥ ७४॥ शाल, बेर, जामुन, चिरौंजी, आम्र तथा अर्जुन-इनमेंसे | - किसीकी छालका कल्क दूध तथा शहदके साथ सेवन करनेसे| १इस अवलेहमें कुड़ेकी छालका काथ छाना नहीं जाता, रक्तातीसारको नष्ट करता है ॥६॥ अतः कल्क महीन छोड़ना चाहिये। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः । गुदप्रपाकादिचिकित्सा । गुददा प्रपाके वा पटोलमधुकाम्बुना । सेकादिक प्रशंसन्ति च्छागेन पयसाऽपि वा ॥७५॥ गुदभ्रंशे प्रकर्तव्या चिकित्सा तत्प्रकीर्तिता । गुदाकी जलन तथा गुदाके पक जानेपर परवलकी पत्ती तथा मुलहटीके क्वाथसे अथवा बकरीके दूधसे सिञ्चन ( तर ) करना चाहिये । गुदभ्रंश ( कांच निकलने) में गुदभ्रंशकी चिकित्सा ( क्षुद्ररोगाधिकारोक्त ) करनी चाहिये ॥ ७५ ॥ पुटपाकयोग्यावस्था । अवेदनं सुसम्पकं दीप्ताः सुचिरोत्थितम् । नानावर्णमतीसारं पुटपाकैरुपाचरेत् ॥ ७६ ॥ जिसकी अग्नि दीप्त है, पीड़ा भी नहीं होती, दोष परिपक्क हो गये हैं, पर अधिक समय से अनेक प्रकारके दस्त आ रहे हैं, उन्हें पुटपाक द्वारा आरोग्य करना चाहिये || ७६ ॥ कुटजपुटपाकः । स्निग्धं घनं कुटजवल्कमजन्तुजग्धमादाय तत्क्षणमतीव च पोथयित्वा । जम्बू पलाशपुटतण्डुलतोयसिक्तं 'बद्धं कुशेन च बहिर्घनपङ्कलिप्तम् ॥ ७७ ॥ स्विन्नमेतदवपीडयरसं गृहीत्वा क्षौद्रेण युक्तमतिसारवते प्रदद्यात् । कृष्णा त्रिपुत्रमतपूजित एष योग: सर्वातिसारहरणे स्वयमेव राजा ॥ ७८ ॥ स्वरसस्य गुरुत्वेन पुटपाकपलं पिबेत् । पुटपाकस्य पाके च बहिरारक्तवर्णता ॥ ७९ ॥ जो कीड़े आदिसे खराब न हुई हो, ऐसी चिकनी मोटी तथा ताजी कुड़ेकी छालको खूब कूट चावलके जलसे तरकर जामुन के पत्तों के सम्पुट में रख कुशोंसे लपेट बाहर गीली मिट्टीसे मोटा लेप कर कण्ड़ों में पकाना चाहिये, पक जानेपर मिट्टी पत्ते अलग | कर स्वरस निकालना चाहिये, फिर उसे शहदके साथ अतिसार - वालेको देना चाहिये । यह योग भगवान् पुनर्वसुद्वारा कहा गया समस्त अतीसारोंके नष्ट करनेमें श्रेष्ठ है । स्वरसकी अपेक्षा पुटपाक हल्का होता है, अतः इसे ४ तोला पीना चाहिये तथा पुटपाकको तबतक पकाना चाहिये, जबतक बाहर लाल न हो जावे ॥ ७७-७९ ॥ ( ३५ ) योनाकपुरपाकः । स्वपिण्डं दीर्घवृन्तस्य काश्मरीपत्रवेष्टितम् । मृदावलिप्तं सुकृतमङ्गारेष्ववकूलयेत् ॥ ८० ॥ स्विन्नमुद्धृत्य निप्पीडय रसमादाय यत्नतः । शीतीकृतं मधुयुतं पाययेदुदसमये ॥ ८१ ॥ सोनापाठ की छालके पिण्डको खम्भारके पत्तों में लपेट कुशोंसे बांध ऊपरसे मिट्टीका लेप करना चाहिये, पुनः अंगारों में पकाना चाहिये । पकजाने पर निकालकर रस निचोड़ ठण्डा कर शहद मिलाकर अतीसार में पिलाना चाहिये ॥ ८० ॥ ८१ ॥ कुटजलेहः । शतं कुटजमूलस्य क्षुण्णं तोयार्मणे पचेत् । काथे पादावशेषेऽस्मिल्लेहं पूते पुनः पचेत् ॥ ८२ ॥ सौवर्चलयवक्षारविड सैन्धवपिप्पलीः । धातकींद्रयवाजाजी चूर्ण दत्त्वा पलद्वयम् ॥ ८३ ॥ लिह्याइदरमात्रं तच्छीत क्षौद्रेण संयुतम् ॥ पक्कापक्कमतीसारं नानावर्ण सवेदनम् ॥ दुर्बारं ग्रहणी रोगं जयेच्चैव प्रवाहिकाम् ॥ ८४ ॥ कुड़ेकी छाल एक सौ १०० तोले, एक द्रोण जलमें पकाना चाहिये । क्वाथ चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर पुनः अवलेह पकाना चाहिये ।। अवलेह कुछ गाढ़ा हो जानेपर काला नमक, यवाखार, विड़नमक, सेंधानमक, छोटी पीपल, धायके फूल, इन्द्रयव, जीरा - सब मिलाकर आठ तोले अर्थात् प्रत्येक एक तोला डालना चाहिये । तैयार हो जानेपर उतार ठण्ढाकर अर्ध कर्षकी मात्रासे शहत मिलाकर चाटना चाहिये । इससे अनेक प्रकारकी पीड़ाओंसे युक्त अनेक प्रकारके, पक्क तथा अपक्क अतिसार तथा कठिन ग्रहणी रोग तथा प्रवाहिका रोग नष्ट होते हैं ॥ ८२-८४ ॥ कुटजाष्टकः । तुला माद्री गिरिमल्लिकायाः संक्षुध पक्त्वा रसमाददीत । तस्मिन्सुपूते पलसम्मितानि ऋक्ष्णानि पिष्ट्वा सह शाल्मलेन ॥ ८५ ॥ १ इस प्रयोगको सुश्रुतमें कुछ अधिक बढ़ा दिया है, यथा" त्वपिण्डं दीर्घवृन्तस्य पद्मकेशरसंयुतम् । काश्मरीपद्मपत्रैश्वावेष्टय सूत्रेण तं दृढम् ” । शेषम्पूर्ववत् । अर्थात् सोना पाठाकी छाल व कमलका केशर समान भाग के महीन पीस कमल व पूर्ववत् पुट पाक द्वारा पकाना १ तथा च शांर्गधरः-स्वरसस्य गुरुस्वाच पळमधे प्रयोज- काश्मरीके पत्तों से लपेट कर येत् । निशोषितं चामिसिद्धं पलमात्रं रसं पिबेत् ॥ | चाहिये । २ अर्मणो द्रोणः । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Forware (३६) चक्रदत्तः। [अतिसारा न्य पाठां समङ्गातिविषां समुस्तां इन्द्रयव, दारुहलदीकी उत्तम छाल, छोटी पीपल, सोंठ, बिल्वं च पुष्पाणि च धातकीनाम् । लाख, कुटकी-इन छः ओषधियोंके कल्कसे चतुर्गुण धृत प्रक्षिप्य भूयो विपचेत्तु तावद् और घृतसे चतुर्गुण जल छोड़कर सिद्ध करना चाहिये । इसे मण्डके साथ सेवन करनेसे त्रिदोषज अतीसार भी दप्रिलेपः स्वरसस्तु यावत् ॥ ८६ ॥ नष्ट होता है ॥ ८९ ॥९॥ पीतस्त्वसौ कालविदा जलेन मण्डेन चाजापयसाऽथवाऽपि । क्षीरिनुमाद्यं घृतम् । निहन्ति सर्व त्वतिसारमुग्रं क्षीरिदुमाभीरुरसे विपकं कृष्णं सितं लोहितपीतकं वा ॥ ८७॥ ___ तज्जैश्च कल्कैः पयसा च सर्पिः । दोषं ग्रहण्यां विविधं च रक्तं सितोपलाध मधुपादयुक्त शुलं तथाशीसि सशोणितानि । रक्तातिसारं शमयत्युदीर्णम् ॥ ९१॥ अमृग्दरं चैवमसाध्यरूपं क्षीरिवृक्ष ( वट, गूलर आदि) मिलित अथवा किसी एकके निहन्त्यवश्यं कुटजाष्टकोऽयम् ॥८८॥ क्वाथ भोर शतावरके रसमें घृत तथा घृतके समान दूध छोड़कर और इन्हीं ओषधियोंका कल्क छोड़ घत पकाना चाहिये । कुडेकी गीली छाल १ तुला ले, , द्रोण जलमें पकाकर इस घतको आधी मिश्री तथा चतुर्थाश शहद मिलाकर सेवन चतुर्थीश शेष रहनेपर उतार छानकर फिर पकाना चाहिये, करनेसे रक्तातिसार नष्ट होता है॥११॥ पकाते समय मोचरस १ पल, पाढ़ १ पल, लज्जालुके बीज १ पल, अतीस १ पल, नागरमोथा १ पल, बेलका गूदा क्षीरपानावस्था । १ पल धायके फूल १ पल सबका-चूर्ण कर छोड़ना चाहिये, जीर्णेऽमृतोपमं क्षीरमतीसारे विशेषतः। फिर जब कलछुलमों चिपकाने लग जाय, तब उतारकर रख | छागं तद्भेषजः सिद्धं देयं वा वारिसाधितम् ॥९२।। लेना चाहिये । इसको अवश्यकतानुसार ठण्ढे जल, मण्ड | पुराने अतीसारमें दूध विशेष हितकर होता है। अतः बकअथवा बकरी के दूधके साथ पीनेसे समस्त अतीसार, ग्रहणी-13 रीका दूध अतीसारनाशक औषधियोंके साथ सिद्धकर अथवा दोष, रक्तपिलशूल, रक्तार्श तथा प्रदररोग नष्ट होते | कवल जलके साथ सिद्ध कर पीना चाहिये ॥ ९२ ॥ हैं ।॥ ८५-८८ ॥ वातशुद्धयुपायः। अनुक्त-जलमानपरिभाषा। बालं विल्वं गुडं तैलं पिप्पली विश्वभेषजम् । तुलाद्रव्ये जलद्रोणो द्रोणे द्रव्यतुला मता। । लिह्याद्वाते प्रतिहते सशूले सप्रवाहिके ।। ९३ ॥ जहांपर एक तुला द्रव्यका काथ बनाना हो, वहां एक जिसकी वायु न खुलती हो, शूलके सहित बारबार दस्त द्रोण जल छोड़ना चाहिये । इसी प्रकार एक द्रोण जलमें एक आते हों, उसे कच्चे बेलका गूदा, गुड़, तैल, छोटी पीपल तथा तुला द्रव्य छोड़ना चाहिये। सोंठ मिलाकर चाटना चाहिये ॥ ९३ ॥ प्रवाहिकाचिकित्सा। षडङ्गवृतम् । __ पयसा पिप्पलीकल्कः पीतो वा मरिचोद्भवः । वत्सकस्य च बीजानि दाया॑श्च त्वच उत्तमाः ८९॥/ व्यहात्प्रवाहिका हन्ति चिरकालानुवन्धिनीम् ॥९४ पिप्पली शृंगेवरं च लाक्षा कटुकरोहिणी। । दूधके साथ पीपल अथवा काली मिर्चका कल्क तीन दिन षभिरेभिघृतं सिद्धं पेयं मण्डावचारितम ॥ पं.नेसे पुराना प्रवाहिकारोग नष्ट हो जाता है ॥ ९४ ॥ अतीसारं जयेच्छीघ्रं त्रिदोषमपि दारुणम ॥९॥ दन्नः सरोऽम्लः स्नेहाढयः खडा हन्यात्प्रवाहिकाम्। | बिल्वोषणं गुडं लोधे तैलं लिह्यात्प्रवाहणे ॥ ९५॥ १ यद्यपि यहांपर चूर्ण पकाते समय ही छोड़ना लिखा है,/पर वह आसन्नपाक हो जानेपर ही छोड़ना चाहिये, यही शिव. १ इसी घृतमें कुटजकी छालका कल्क भी छोड़ दिया जाय दासजीका मत है । इसकी मात्रा ४ माशेसे ८ माशेतक है। तो " सप्तांग घत" हो जाता है । यदुक्त वैद्यप्रदीपे-"मण्डेन' शहद मिलाकर चाटना चाहिये। पेयं तत्सर्पिः सप्तागं कुटजत्वचा"। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 घिकारः ] भाषाटीकोपेतः । खट्टे दहीका तोड़ तथा काले तिलका तेल मिला हुआ 'खड' कहा जाता है । यह प्रवाहिकारोगको नष्ट करता है । इसी प्रकार कच्चे बेलका गूदा, काली मिर्च, गुड़, पठानी लोध व काले तिलका तेल मिलाकर चाटनेसे प्रवाहिका रोग नष्ट होता है ॥ ९५ ॥ दध्ना ससारेण समाक्षिकेण भुञ्जीत निश्चारक पीडितस्तु । सुतप्तकुप्येकथितेन वापि क्षीरेण शीतेन मधुप्लुतेन ॥ ९६ ॥ प्रवाहिकावालेको विना मक्खन निकाले हुए दही शहदके साथ अथवा अच्छी तरह तपाये हुये सोने चान्दीसे भिन्न धातुसे बुझाकर ठण्डे किये हुए दूधमें शहद मिलाकर उसीके साथ भोजन करना चाहिये ॥ ९६ ॥ दीप्ताभिर्निष्पुरीषो यः सार्यते फेनिलं शकृत् । सपिबेत्फाणितं शुण्ठीदधितैलपयोघृतम् ॥ ९७ ॥ जिसकी अग्नि दीप्त है, मल भी अधिक नहीं हैं, पर फेनिल दस्त आते हैं, उसे राब - सोंठ, दही, तेल, दूध व घी मिलाकर पीना चाहिये ॥ १७ ॥ अतिसारस्यासाध्यलक्षणम् । शोथं शूलं ज्वरं तृष्णां श्वासं कासमरोचकम् । छर्दिमूर्च्छा च हिक्कां च दृष्ट्वातीसारिणं त्यजेत् । बहुमेही नरो यस्तु भिन्नविट्को न जीवति ॥ ९८ ॥ शोथ, शूल, ज्वर, तृष्णा, श्वास, कास, अरुचि, छर्दि, मूर्च्छा, हिक्कायुक्त अतिसारवालेकी चिकित्सा न करनी चाहिये । इसी प्रकार जिसे पेशाब अधिक लगता है और पतले दस्त आते हैं, वह भी असाध्य होता है ॥ ९८ ॥ अतीसारे वर्जनीयानि । स्नानाभ्यङ्गावगाहांश्च गुरुस्निग्धातिभोजनम् । व्यायाममग्निसन्तापमतीसारी विवर्जयेत् ॥ ९९॥ अतिसारवालेको स्नान, अभ्यङ्ग, जलमें बैठना, गुरु तथा स्निग्ध भोजन, अतिभोजन, व्यायाम तथा अग्निमें तापना निषिद्ध है ॥ ९९ ॥ इत्यतीसाराधिकारः समाप्तः । १ “कुप्य” शब्दका अर्थ सोना चांदीसे भिन्न धातु है । वैद्यक शब्दसिन्धुमें इसे जस्ता माना है । शिवदासजी विना आभूषणादिमें परिणत सुवर्णादिको भी ' कुप्य ' लिखते हैं । अथवा पाठभेद कर कूर्प मानते हैं और उसे दक्षिण देशमें होनेवाला शंखनाभिकी आकृतिवाला पाषाणभेद मानते हैं । निवारकको प्रवाहिका ही कहते हैं । यथा - " निर्वाहयेत्सफेनं च पुरीषं यो मुहुर्मुहुः । प्रवाहिकेति साख्याता कैश्विनिश्वारकच सः " । हिन्दीमें इस रोगको 'पेचिश ' कहते हैं । अथ ग्रहण्यधिकारः । -0-00 ग्रहणीप्रतिक्रियाक्रमः । ( ३७ ) ग्रहणीमाश्रितं दोषमजीर्णवदुपाचरेत् । अतीसारोक्तविधिना तस्यामं च विपाचयेत् ॥ १ ॥ शरीरानुगते सामे रसे लंघनपाचनम् । ग्रहणी में प्राप्त दोषकी अजीर्ण के समान चिकित्सा करनी चाहिये और अतीसारकी विधिसे आमका पाचन करना चाहिये । तथा यदि समस्त शरीरमें आमरस व्याप्त हो गया हो, तो लंघन, पाचन कराना चाहिये ॥ १॥ विशुद्धामाशयायास्मै पञ्चकोलादिभिर्युतम् । दद्यात्यादि लध्वन्नं पुनर्योगांश्च दीपकान् ॥ २ वमन, विरेचन तथा लंघनादि द्वारा आमाशय के शुद्ध हो जाने पर पंचकोलादिसे सिद्ध किया हुआ हल्का पेयादि अन्न तथा अग्निदीपक योगों का प्रयोग करना चाहिये ॥ २ ॥ ग्रहण्यां पेया । कापत्थाबेल्वचांगेरीतक्रदाडिमसाधिता । पाचिनी ग्राहिणी पेया सवाते पाश्र्वमूलिकी ॥३॥ कैथेका गूदा, बेलका गूदा, अमलोनिया, अनारका छिल्का अथवा दाना सब मिलाकर एक पल, रक्तशालि या साठीके चावल १ पल, मट्ठा १४ पल, अथवा मट्ठा, ७ पल, जल ७ पल मिलाकर पेया बनानी चाहिये । यह कफवातग्रहणी में हितकर होती है । केवल वातमणी में लघु पञ्चमूलकी पेया बनानी चाहिये ॥ ३ ॥ तकस्यात्र वैशिष्ट्यम् । ग्रहणीदोषिणां तक्रं दीपनं प्राहि लाघवात् । पथ्यं मधुरपाकित्वान्नच पित्तप्रकोपणम् ॥ ४ ॥ कषायोष्णविकाशित्वाद्रौक्ष्याचैव कफे हितम् । वाते स्वाद्वम्लसान्द्रत्वात्सद्यस्कमविदाहि तत् ॥५॥ मट्ठा अमिको दीप्त करनेवाला, दस्तको रोकनेवाला तथा हल्का होनेसे ग्रहणीवालों के लिये अधिक हितकर होता है, कसैला, गरम, पाकमें मीठा होनेसे पित्तको कुपित नहीं करता, विकाशि ( स्रोतों को शुद्ध करनेवाला ) तथा रूक्ष होनेसे कफमें हित करता है, वातमें मीठा, खट्टा तथा सान्द्र होनेसे हितकर १ पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चित्रक, सोंठ इनको 'पञ्चकोल' कहते हैं | Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) [ ग्रहण्य - होता है, तत्कालका बनाया हुआ मट्ठा विशेष जलन | श्रीफलपुटपाकः। नहीं करता ॥४॥५॥ जम्बूदाडिमश्रृंगाटपाठाकञ्चटपल्लवैः । शुण्ठ्यादिकाथः। पकं पर्युषितं बालबिल्वं सगुडनागरम् ॥१२॥ शुण्ठी समुस्तातिविषां गुडूची हन्ति सर्वानतीसारान्ग्रहणीमतिदुस्तराम् । पिबेजलेन कथितां समांशाम् । जामुन, अनार, सिंघाड़ा, पाढ, चौलाईके पत्तोंको लपेट मन्दानलत्वे सततामताया डोरेसे या कुशसे बांधकर अङ्गारोंमें भुना गया कच्चा बेल, मामानुबन्धे ग्रहणीगदे च ॥६॥ पर्युषित (बासी) समान भाग गुड़ तथा जितनेमें कटु हो जाय, सोंठ, नागरमोथा, अतीस, गुर्च सब चीजें समान उतनी सोंठ मिलाकर खानेसे समस्त अतिसार तथा ग्रहणी नष्ट भाग ले क्वाथ बनाकर मन्दाग्नि, आमदोष तथा ग्रहणीमें होती है ॥ १२॥ पीना चाहिये ॥६॥ नागरादिकाथः। धान्यकादिक्वाथः। नागरातिविषामुस्तकाथः स्यादामपाचनः ॥ १३ ॥ धान्यकातिविषोदीच्ययमानीमुस्तनागरम् । चूर्ण हिंग्वष्टकं वातग्रहण्यां तु घृतानि च । बलाद्विपर्णीबिल्वं च दद्यादीपनपाचनम् ॥७॥ सोंठ, अतीस, नागरमोथाका क्वाथ आमका पाचन करता धनियां, अतीस, सुगन्धवाला, अजवाइन, नागरमोथा, है । “हिंग्वष्टक" चूर्ण घीके साथ सेवन करनेसे वातग्रहणीको सोंठ, खरेटी, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, तथा बेलका गूदा अग्निको नष्ट करता है, तथा आगे लिखे धृत वातज ग्रहणीको शान्त दीप्त तथा आमका पाचन करता है ॥ ७ ॥ करते हैं ॥ १३ ॥ चित्रकादिगुटिका। नागरादिचूर्णम् । चित्रकं पिप्पलीमूलं द्वौ क्षारी लवणानि च । । नागरातिविषामुस्तं धातकी सरसाजनम् ॥ १४॥ व्योषहिंग्वजमोदा च चव्यं चैकत्र चूर्णयेत् ॥ ८॥ वत्सकत्वक्फलं बिल्वं पाठां कटुकरोहिणीम् ।। गुटिका मातुलंगस्य दाडिमाम्लरसेन वा। पिबेत्समांशं तच्चूर्ण सक्षौद्रं तण्डुलाम्बुना ॥१५।। कृता विपाचयत्यामं दीपयत्याशु चानलम् ॥ ९॥ पैत्तिके ग्रहणीदोषे रक्तं यश्चोपवेश्यते । चीतकी जड़, पिपरामूल, यवाखार, सज्जीखार, पांचों अस्यिथ गुदे शूलं जयेच्चैव प्रवाहिकाम् ॥१६॥ नमक, सोंठ, मिर्च, पीपल, भुनी हींग, अजवाइन, | __नागराद्यमिदं चूर्ण कृष्णात्रेयेण पूजितम् । और चव्य-सबको समान भागले कूट छान बिजौरे निम्बूके रस | शीतकषायमानेन तण्डुलोदककल्पना ॥ १७ ॥ अथवा खट्टे अनारके रससे गोली बना लेनी चाहिये । यह आमका केऽप्यष्टगुणतोयेन प्राहुस्तण्डुलभावनाम् । पाचन तथा अग्निको दीप्त करती है ॥८॥९॥ सोंठ, अतीस, नागरमोथा, धायके फूल, रसौत, कुड़ेकी पञ्चलवणगणना। छाल, इन्द्रयव, बेलका गूदा, पाढ़, कुटकी-समान भाग ले चूर्ण सौवर्चलं सैन्धवं च बिडमौद्धिदमेव च । बनाकर शहद तथा चावलके पानीके साथ सेवन करनेसे पैत्तिक ग्रहणी, रक्तके दस्त, रक्ताश, गुदाका शूल व प्रवाहिका रोग सामुद्रेण समं पञ्च लवणान्यत्र योजयेत् ॥१०॥ नष्ट होते हैं । शीतकषायकी विधि अर्थात् षड्गुण जलमें काला नमक, सेंधा नमक, विड़ नमक, खारी था साम्भर रक्खा गया छाना गया अथवा किसीके सिद्धान्तसे नमक, सामुद्र नमक-यह “पांच लवण" कहे जाते हैं ॥१०॥ अष्टगुणजलमें रखकर छाना गया " तण्डुलोदक" कहा जाता श्रीफलकल्कः। है॥ १४-१७ ॥श्रीफलशलाटुकल्को नागरचूर्णेन मिश्रितः सगुडः ।। भूनिम्बाद्यं चूर्णम् । ग्रहणीगदमत्युग्रं तक्रभुजा शीलितो जयति ॥ ११॥ - कच्चे बेलके गूदाका कल्क सोंठके चूर्ण तथा गुड़के साथ सेवन भूनिम्बकटुकाव्योषमुस्तकेन्द्रयवान्समान् ॥१८॥ करनेसे तथा मठेके पथ्यसे कठिन ग्रहणीरोग नष्ट हो द्वी चित्रकाद्वत्सकत्वग्भागान्षोडश चूर्णयेत् । जाता है ॥११॥ गुडशीताम्बुना पीतं ग्रहणीदोषगुल्मनुत् ॥ १९ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाकपेतः । कामलाज्वरपाण्डुत्वमेहारुच्यतिसारनुत् । गुडयोगाद् गुडाम्बु स्याद् गुडवर्णरसान्वितम् २०॥ चिरायता, कुटकी, त्रिकटु, नागरमोथा, इन्द्रयव, समान भाग, चीतकी जड़ दो भाग, कुड़ेकी छाल सोलह भाग लेकर चूर्ण बनावे | गुड़ मिले ठण्ढे जलके साथ पीने से यह चूर्ण ग्रहणीरोग तथा गुल्मको नष्ट करता है । कामला, ज्वर, पांडुरोग, प्रमेह, अरुचि, अतीसारको नष्ट करता है। गुड़ मिलाकर मीठा बनाया गया जल 66 " गुडाम्बु जाता है । १८-२० ॥ कहा कफग्रहण्याश्चिकित्सा | ग्रहण्यां श्लेष्मदुष्टायां वभितस्य यथाविधि । कट्वम्ललवणक्षारैस्तीक्ष्णैश्चाग्निं विवर्धयेत् ॥ २१ ॥ ग्रहणी में विधिपूर्वक वमन कराकर तीक्ष्ण, कटु, अम्ल, लवण, क्षार, पदार्थों से अनि दीप्त करना चाहिये ॥ २१ ॥ ग्रन्थिकादिचूर्णम् । मूलां पिप्पलीं क्षारौ द्वौ पञ्च लवणानि च । मातुलुंगाभयारास्नाशठीमरिचनागरम् ॥ २२ ॥ कृत्वा समांशं तच्चूर्ण पिबेत्प्रातः सुखाम्बुना । लैष्मि ग्रहणदोषे बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ॥ २३ ॥ ऐतेरेवौषधैः सिद्धं सर्पिः पेयं समारुते । पीपल छोटी, पिपरामूल, यवाखार, सज्जीखार, पांचों नमक, बिजौरे निम्बूकी ज़ड़, बड़ी हर्रका छिलका, रासन, कचूर, काली मिर्च, सोंठ – सब समान भाग ले चूर्ण बनाकर कुछ गर्म जलके साथ सेवन करनेसे कफजन्य ग्रहणीरोग नष्ट होता है, बल, वर्ण तथा अग्निकी वृद्धि होती है । इन्हीं औषधियोंद्वारा सिद्ध किया घृत वातग्रहणीको नष्ट करता है ॥ २२ ॥ २३॥- भल्लातकक्षारः । भल्लातकं त्रिकटुकं त्रिफला लवणत्रयम् ॥ २४ ॥ अन्तर्धूमं द्विपलिकं गोपुरीषाभिना दहेत् । सक्षारः सर्पिषा पेयो भोज्ये वाऽप्यवचारितः ॥ २५ ॥ हृत्पाण्डुग्रहणी दोषगुल्मोदावर्तशूलनुत् । ( ३९ ) सन्निपातग्रहणीचिकित्सा । सर्वजायां प्रहण्यां तु सामान्यो विधिरिष्यते ॥ २६॥ सन्निपातज ग्रहणी में सामान्य चिकित्सा करनी चाहिये ॥ २६ ॥ 'द्विगुणोत्तरचूर्णम् । चूर्ण मरिच महौषध कुटजत्वक्संभवं क्रमाद् द्विगुणम् । गुडमिश्रमथितपीतं ग्रहणीदोषापहं ख्यातम् ॥ २७॥ काली मिर्च, सोंठ, कुडेकी छाल क्रमशः एककी अपेक्षा दूसरा द्विगुणले चूर्ण बनावे | इसे गुड़ मिला विना मक्खन निकाले मथे हुए दही के साथ पीनेसे ग्रहणीदोष नष्ट होता हैं ॥ २७ ॥ पाठादिचूर्णम् । पाठाबिल्वानलव्योषजम्बूदाडिमघातकी । कटुकातिविषामुस्तदार्वी भूनिम्बवत्सकैः ॥ २८ ॥ सर्वैरेतैः समं चूर्ण कौटजं तण्डुलाम्बुना । सक्षौद्रं च पिबेच्छर्दिज्वरातीसारशूलवान् ॥ २९ ॥ तृड्दाग्रहणीदोषारोचकानलसाद जित् । पाढ़, वेलका गूदा, चीतेकी जड़, सोंठ, मिर्च, छोटी पीपल, जामुनकी गुठली, अनारका छिल्का, धायके फूल, कुटकी, अतीस, मोथा, दारूहल्दी, चिरायता, कुड़ेकी छाल-इन सबको समान भाग ले सबके समान इन्द्रयव ले कूट कपड़े छानकर शहद तथा चावलके जलके साथ सेवन करने से वमन, ज्वर, अतीसार, शूल, तृषा, दाह, ग्रहणीदोष, अरोचक तथा मन्दाग्नि नष्ट होती है ॥ २८ ॥ २९॥ कपित्थाष्टक चूर्णम् । यवानीपिप्पलीमूलचातुर्जातकनागरैः ॥ ३० ॥ मरिचानिजलाजाजीधान्यसौवर्चलैः समैः । वृक्षाम्लधातकी कृष्णा बिल्वदाडिमतिन्दुकैः ॥ ३१॥ त्रिगुणैः षड्गुणसितैः कपित्थाष्टगुणैः कृतः । चूर्णोऽतिसार ग्रहणीक्षयगुल्मगलामयान् ॥ ३२ ॥ कासं श्वास रुचि हिक्कां कपित्थाष्टमिदं जयेत् । १ यहां पर " षड्गुणसितैः " के अर्थ करनेमें अनेक प्रका भिलावा, सोंठ, मिर्च, पीपल, आमला, हर्ड, बहेड़ा, सेंधानमक, कालानमक, सामुदनमक प्रत्येक ८ तोले भंडिया में रकी शंकायें करते हैं । प्रथम यह कि यवान्यादि समस्त द्रव्यों से बन्दकर गाय के गोबरके कण्डोंकी आंचसे जलाना चाहिये । पुनः षड्गुण । दूसरी यह कि वृक्षाम्लादिसे षड्गुण । जैसा कि अरु महीन पीस छानकर घीके साथ पीने अथवा भोजनमें प्रयोग | णदत्तने वाग्भट टीका में लिखा है । तीसरी यह कि कपित्थसे करनेसे हृद्रोग, पाण्डुरोग, प्रहणीदोष, गुल्म, उदावर्त तथा षड्गुण । पर यह समग्र मत अव्यावहारिक हैं । अतः उपरोक लको नष्ट करता है ॥ २४ ॥ २५ ॥ - नियमसे ही छोड़ना चाहिये ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) चक्रदत्तः।... [ग्रहण्य - न्न्न्न्न्न्न अजवाइन, पिपरामूल, दालचीनी, तेजपात, इलायची, त्रिकटु तथा त्रिफलाका कल्क एक पल, गुड़ एक पल, धृत नागकेशर, सोंठ, काली मिर्च, चीतकी जड़, नेत्रवाला, सफेद आठ पल, चतुर्गुण जल छोड़कर पकाना चाहिये । घृतमात्र शेष जीरा, धनियां, काला नमक-प्रत्येक एक भाग, अम्लवेत, रहनेपर उतार छानकर मात्रासे सेवन करना चाहिये ॥३८॥ धाथके फूल, छोटी पीपल, बेलका गूदा, अनारका छिल्का, तेंदू-प्रत्येक तीन तीन भाग, मिश्री छः भाग, कैथेका गूदा मसूरघृतम् । आठ भाग ले कूट कपड़छान कर चूर्ण बनाना चाहिये । यह __ मसूरस्य कषायेण बिल्वगर्भ पचेद् घृतम् । चूर्ण अतीसार, ग्रहणी, क्षय, गुल्म, गलेके रोग, कास, श्वास, हन्ति कुक्ष्यामयान्सर्वान्प्रहणीपाण्डुकामलाः॥३९॥ अरुचि तथा हिक्काको नष्ट करता है ॥ ३०-३२ ॥ केवलं व्रीहिप्राण्यंगकाथो व्युष्टस्तु दोषलः । दाडिमाष्टकचूर्णम् । मसूरके काढ़ेके साथ कच्चे बेलके गूदेका कल्क छोडकर कर्षोंन्मिता तुगाक्षी दिकार्षिकम॥३३॥ पकाया गया घृत समस्त उदरविकार, ग्रहणी, पाण्डुरोग तथा व्योष पलांशिकम् । कामलाको नष्ट करता है। केवल धान्य या प्राण्यङ्ग (मांसादि) कामलाको नष्ट करता पलानि दाडिमादृष्टौ सितायाश्चैकतः कृतः । होता है, अतः यह घृत का क्वाथ बासी हो जानेसे दोषकारक होता है, अतः यह घृत गुणैः कपित्थाष्टकवच्चूर्णोऽयं दाडिमाष्टकः।। ३४॥ ताजा ही ( एक ही दिनमें ) पकाना चाहिये, कई दिन तक न पकाते रहना चाहिये ॥३९॥वंशलोचन १ तोला, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेशर-प्रत्येक दो तोला, अजवाइन, धनियां, सफेद शुण्ठीघृतम् । जीरा, पिपरामूल, त्रिकटु-प्रत्येक ४ तोला, अनारदाना ३२ तोला, मिश्री ३२ तोला, सबका विधिपूर्वक बनाया गया विश्वौषधस्य गर्भेण दशमूलजले शृतम् । चूर्ण कपित्थाष्टकके समान लाभदायक होता है ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ घृतं निहन्याच्छ्वयर्थै ग्रहणीसामतामयम् ॥४०॥ घृतं नागरकल्केन सिद्धं वातानुलोमनम् । वार्ताकुगुटिका। ग्रहणीपाण्डुरोगन्नं प्लीहकासज्वरापहम् ॥४१॥ चतुष्पलं सुधाकाण्डाधिपलं लवणत्रयात ॥ ३५॥ दशमूलका काथ तथा सौंठका कल्क मिलाकर पकाया गया वार्ताकुकुडवश्वादिष्टौ द्वे चित्रकात्पले। घृत सूजन तथा ग्रहण की सामताको नष्ट करता है। तथा केवल घृत सूजन दग्धानि वार्ताकुरसे गुटिका भोजनोत्तराः ॥३६॥ | सोंठके कल्कसे भी सिद्ध किया गया घृत प्रहणी, पाण्डुरोग, प्लीहा, कास, तथा ज्वरको नष्ट करता है ॥ ४०॥४१॥ भुक्तं भुक्तं पचन्त्याशु कासश्वासार्शसां हिताः । विषूचिकाप्रतिश्यायहृद्रोगशमनाश्च वाः ।। ३७॥ चित्रकघृतम् । थूहरकी लकड़ी १६ तोला, सेंधा नमक, काला नमक, सामुद्र | चित्रकक्वाथकल्काभ्यां ग्रहणीनं शृतं हविः । नमक मिलाकर १२ तोला, सूखा बैंगन १६ तोला, आककी गुल्मशोथोदरप्लीहशूलाशानं प्रदीपनम् ॥ ४२ ॥ जड ३२ तोला, चीतकी जड़ ८ तोला, सब चीजें कूट ताजे| चित्रकके क्वाथ तथा कल्कसे सिद्ध किया गथा घृत ग्रहणी, बैंगनके रसमें मिला भंडियामें बन्दकर पकाना चाहिये । फिर गुल्म, सूजन, उदररोग, प्लीहा, शूल तथा अर्शको नष्ट करता उस भस्मको बैंगनके ही रसमें घोटकर एक मासेकी गोली और अग्निको दीप्त करता है ॥४२॥ बना लेनी चाहिये । भोजनके अनन्तर सेवन करनेसे भोजनको तत्काल पचाती हैं, तथा कास, श्वास, प्रतिश्याय, अर्श, विधू बिल्वादिघृतम् । चिका और हृद्रोगको नष्ट करती हैं ॥३५-३७॥ "बिल्वाग्निचव्याकशृंगवेरज्यूषणादिघृतम् । काथेन कल्केन च सिद्धमाज्यम् । सच्छागदुग्धं ग्रणीगदोत्थत्र्यूषणात्रिफलाकल्के बिल्वमात्रे गुडात्पले । शोथाग्निमान्द्यारुचिनुद्वरिष्ठम् ॥४३॥ सर्पिषोऽष्टपलं पक्त्वा मात्रां मन्दानलः पिबेत्३८॥ बेलका गूदा, चीतकी, जड़, चव्य, अदरख, सोंठके क्वाथ |तथा कल्क तथा बकरी के दूधके साथ सिद्ध किया गया घृत १ पहिले सब चीजोंका चूर्ण कूट छान लेना चाहिये, तब | ग्रहणीरोगसे उत्पन्न सूजन, अमिमांद्य तथा अरुचिको नष्ट करमिश्री मिलाना चाहिये। 'नेमें श्रेष्ठ है ॥४३॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः]. भाषाटीकोपेतः। (४१) चांगेरीघृतम् । प्लीहा, कास, श्वास, क्षय, अर्श, भगन्दर तथा कफवात वे क्रिमिजन्य रोगोंको इस प्रकार नष्ट करता है जिस प्रकार सुखी नागरं पिप्पलीमूलं चित्रको हेस्तिपिप्पली। लकड़ीको अग्नि भस्म कर देता है ॥ ४७-५१॥श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्यं बिल्वं पाठा यवानिका॥४४ चांगेरीस्वरसे सर्पिः कल्कैरेतर्वपाचितम् । महाषट्पलकं घृतम् । चतुर्गुणेन ना च तद् घृतं कफवातनुत् ॥ ४५ ॥ सौवर्चलं पञ्चकोलं सैन्धवं हपुषां वाम् ॥५२॥ अशीसि ग्रहणीदोषं मूत्रकृच्छ्रे प्रवाहिकाम् ।। अजमोदां यवक्षारं हिंगु जीरकमौद्भिदम् । गुदभ्रंशतिमानाहं धृतमेतद्वथपोहति ॥ ४६॥ | कृष्णाजाजी सभूतीक कल्कीकृत्य पलार्धकम् । सोंठ, पिपरामूल, चीतकी जड़, चव्य, गोखरू, छोटी | आर्द्रकस्य रसं चुकं क्षीरं मस्त्वम्लकालिकम् । पीपल, थनियां कच्चे बलका गूदा, पाढ़ तथा अजवाइनका दशमूलकषायेण घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ५४ ॥ कल्क, अमलोनियाका स्वरस तथा चतुर्गुण दही मिलाकर सिद्ध भक्तेन सह दातव्यं निर्भक्तं वा विचक्षणैः। किया गया घृत कफ तथा वायुजन्य अर्श, ग्रहणीदोष, मूत्र क्रिमिप्लीहोदराजीणेज्वरकुष्ठप्रवाहिकाम् ॥ ५५ ॥ कृच्छ, प्रवाहिका, गुदभ्रंश, ( कांच निकलना ) तथा अफाराको | वातरोगान् कफव्याधीन्हन्याच्छूलमरोचकम् । नष्ट करता है ॥ ४४-४६ ॥ पाण्डुरोगं क्षयं कासं दोबल्यं ग्रहणीगदम् ॥५६॥ मरिचायं घृतम् । महाषट्पलकं नाम वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा । मरिचं पिप्पलीमूलं नागरं पिप्पली तथा । काला नमक, छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, चीतकी जड़, भल्लातकं यवानी च विडंगं हस्तिपिप्पली ॥४७॥ सोंठ, सेंधानमक, हाऊबेर, बच दूधिया, अजमोदा, यवाखार, हिगुसौवर्चलं चैव बिडसैन्धवदाय॑थ ।। हींग, सफेद जीरा, खारी नमक, काला जीरा, अजवाइन-प्रत्येक सामुद्रं सयवक्षारं चित्रको वचया सह ॥४८ ॥ वस्तु दो दो तोले लेके कल्क बनाकर तथा अदरखका रस, एतैरर्द्धपलैर्भागैघृतप्रस्थं विपाचयेत् । चुक्र, दूध, दहीका तोड़, खट्टी काजी तथा दशमूलका क्वाथ दशमूलीरसे सिद्धं पयसा द्विगुणेन च ॥४९॥ प्रत्येक एक एक प्रस्थ छोड़कर एक प्रस्थ घृत पकाना चाहिये। मन्दानीनां हितं चैतद् ग्रंहणीदोषनाशनम् । | यह घत भोजनके साथ अथवा केवल सेवन करना चाहिये। यह विष्टम्भमामं दौर्बल्यं प्लीहानमपकर्षति ॥ ५० ॥ घृत क्रिमि, प्लीहा, उदररोग, अजीर्ण, ज्वर, कुष्ठ, प्रवाहिका,वात रोग, कफरोग, शूल, अरोचक, पाण्डुरोग, क्षय, कास, दुर्बलता कास श्वासं क्षयं चैव दुर्नाम सभगन्दरम् । तथा ग्रहणीरोगको ऐसे नष्ट कर देता है जैसे इन्द्रवज्र वृक्षको कफजान् हन्ति रोगाश्च वातजान्क्रिामसम्भवान्५१ नष्ट करता है।५२-५६॥ तान्सर्वान्नाशयत्याशु शुष्कं दार्वनलो यथा । काली मिर्च, पिपरामूल, सोंठ, छोटी पीपल, भिलावा, चुक्रनिर्माणविधिः। अजवाइन, वायविडंग, गजपीपल, हींग, काला नमक, विडन यन्मस्त्वादि शुचौ भाण्डे सगुडझौद्रकाजिकम् ५७ मक, सेंधा नमक, दारुहल्दी, सामुद्र नमक, यवक्षार, चीतकी जड़ तथा बच प्रत्येक दो दो तोला, घी चौसठ तोला, (द्रवद्वै धान्यराशौ त्रिरात्रस्थं शुक्तं चुकं तदुच्यते । गुण्यात् १२८ ॥ तो =१ सेर ९ छ० ३ तो०) घीसे द्विगुण द्विगुणं गुडमध्वारनालमस्तुक्रमादिह ।। ५८ ॥ दूध तथा द्विगुण ही दशमूलका क्वाथ मिलाकर पकाना चाहिये । __शुद्ध पात्रमें गुड़ १ भाग, शहद २ भाग, काजी ४ भाग. दहीका तोड ८ भाग भरकर अनाजके ढेरमें तीन रात्रि तक रखयह घृत मन्दाग्नि, ग्रहणीदोष, कब्जियत, आमदोष, दुर्बलता, नसे सिरका रूप "चुक्र" बन जाता है ॥ ५७॥ ५८॥ १यहां पर"हस्तिपिप्पली"से चव्य ही लेना चाहिये । ऐसा ही बृहच्चुक्रविधानम् । जतुकर्णने भी माना है और हस्तिपिप्पली चव्यका पयार्य भी है। तद्यथा “चविका कोलवल्ली च हस्तिपापल्यपाध्यते " इति ।। प्रस्थं तण्डुलतोयतस्तुषजलात्प्रस्थत्रयं चाम्लतः (२) दुग्धे दनि रसे तके कस्को देयोऽष्टमांशकः ।। प्रस्थाध दधितोऽम्लमूलकपलान्यष्टी गुडान्मानिके । कल्कस्य सम्यक् पाकाथ तोयमत्र चतुर्गुणम् ॥ इस परिभाषाके अनुसार यहां कल्क चतुर्थांश और कल्कसे चतुर्गुण जल | १ इसमें 'वचाम् ' के स्थानमें 'विडम् ' भी पाठान्तर है। छोड़ना चाहिये। २ दघ्नस्तूपार थत्तोयं तन्मस्तु परिकीर्तितम् । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) मान्यौ शोधितश्रृंगवेरशकला द्वे सिन्ध्वजाज्यो: पले कृष्णोषणयोर्निश युगं निक्षिप्य भाण्डे दृढे५९ स्निग्धे : धान्ययवादिराशिनिहितं त्रीन्वासरान्स्थापयेद् प्रीष्मे तोयधरात्यये च चतुरो वर्षासु पुष्पागमे। बशीतेऽष्टदिनान्यतः परमिदं विस्रात्र्य सनचूर्णयेचातुर्जातपलेन संहितमिदं शुक्तं च चुक्रं च तत् ६० हन्याद्वातकफामदोषजनितान्नानाविधानामयान् । दुर्नामा निलगुल्मशुलजठरान्हत्वाऽनलं दीपयेत् ६१ ॥ चक्रदत्तः । तंडुलोदक ( पूर्ववर्णित विधिसे बनाया ) एक प्रस्थ, सुषोदक ( भूसी सहित यव व उड़दकी काजी ) तीन प्रस्थ, काजी तीन प्रस्थ, दही आधा प्रस्थ, काजी में उठायी गयी मूली आठ पल, गुड़ दो मानी अर्थात् एक प्रस्थ, साफ किये अदरक के टुकड़े एक प्रस्थ, सेंधा नमक 'पल, सफेद जीरा दो पल, छोटी पीपल दो पल, काली मिर्च दो पल, हल्दी ४ पल सब एक चिकने तथा दृढ़ बर्तनमें भर मुख बन्दकर धान्यराशिमें रख देना चाहिये । ग्रीष्म तथा शरदृतु में तीन दिन, वर्षा कालमें चार दिन, वसन्त ऋतुमें छः दिन तथा शीतकालमें आठ दिनतक रखना चाहिये । फिर निकाल छानकर दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेशरका चूर्ण प्रत्येकका एक एक पल मिलाना चाहिये । यह 'शुक्त ' तथा 'चुक' कहा जाता है । यह वातकफ तथा आमदोषजन्य अनेक प्रकारके रोग, अर्श, वातगुल्म, शूल, उदररोग आदिको नष्ट करता तथा अग्निको दीप्त करता है ॥ ५९-६१ ॥ तक्रारिष्टम् । यवान्यामलकं पथ्या मरिचं त्रिपलांशकम् । लवणानि पलांशानि पञ्च चैकत्र चूर्णयेत् ॥ ६२ ॥ तक्रकंसासुतं जातं तत्रारिष्टं पिबेन्नरः । काञ्जीसन्धानम् । वाट्यस्य दद्याद्यवशक्तकानां पृथक्पृथक्त्वाढकसम्मितं च । मध्यप्रमाणानि च मूलकानि । दद्याच्चतुःषष्टिसुकल्पितानि ॥ ६४ ॥ द्रोणेऽम्भसः प्लाव्य घटे सुधीते दद्यादिदं भेषजजातयुक्तम् । क्षारद्वयं तुम्बुरुवस्तगन्धाधनीयकं स्याद्विडसैन्धवं च ॥ ६५ ॥ सौवर्चलं हिंगु शिवाटिकां च चव्यं च दद्याद् द्विपलप्रमाणम् । इमानि चान्यानि पलोन्मितानि [ प्रहण्य विजर्जरीकृत्य घटे क्षिपेच ॥ ६६ ॥ कृष्णामजाजीमुपकुञ्चिकां च तथासुरीं कारविचित्रकं च । पक्षस्थितोऽयं बलवर्णदेह वयस्करोऽतीव बलप्रदश्च ॥ ६७ ॥ कां जीवयामीति यतः प्रवृत्तस्तत्काजिति प्रवदन्ति तज्ज्ञाः । आयामका लाज्जरयेच्च भक्त मायामिति प्रवदन्ति चैनम् ॥ ६८ ॥ दकोदरं गुल्ममथ प्लिहानं हृद्रोगमानाहमरोचकं च । मन्दाग्नितां कोष्ठगतं च शूल मर्शोविकारान्सभगन्दरांश्च ।। ६९ ।। तामानाशु निहन्ति सर्वान् संसेव्यमानो विधिवन्नराणाम् ॥ ७० ॥ | ) दीपनं शोथगुल्मार्शः क्रिमिमहोदरापहम् ॥ ६३॥ अजवाइन, आमला, छोटी हर्र, काली मिर्च प्रत्येक १२ तोला, पांचो नमक प्रत्येक ४ तोला सब महीन कपड़छान चूर्ण कर एक आढ़क ( २५६ तोला द्रवद्वैगुण्यात् ६ सेर ३२ तोला मट्ठा मिलाकर धान्यराशिमें रखकर खट्टा कर लेना चाहिये फिर इसे ४ तोलाकी मात्रासे पीना चाहिये । यह अग्मिको दीप्त करनेवाला तथा शोथ, गुल्म, अर्श, क्रिमिरोग, प्रमेह तथा उदररोगको नष्ट करता है ॥ ६२ ॥ ६२ ॥ । तुष रहित यवका बनाया गया मण्ड तथा यवोंके सत्तु अलग अलग एक एक आढक, मध्यम प्रमाणकी अर्थात् न अधिक पतली न मोटी मूलीके ६४ टुकड़े एक द्रोण जल-ये ओषधियां दुरकुचाकर छोड़ना चाहिये | यवाखार, सज्जीखार, सब एक साथ धोये हुए घड़े में भरना चाहिये, तथा नीचे लिखी तुमरू, नेपाली धनियां, अजवाइन, धनियां, विडनमक, सैंधापुनर्नवा, चव्य- प्रत्येक दो दो पल तथा छोटी पीपल, सफेद नमक, काला नमक, भुनी हींग, हिंगुपत्री या वंशपत्री ( नाड़ी ), जीरा, कलौंजी, राई, काला जीरा, चीतकी जड़-प्रत्येक एक एक पल छोड़कर घड़ेका मुख बन्द कर रख देना चाहिये । पन्द्रह दिनके बाद निकाल छानकर पीना चाहिये । यह बल, वर्ण तथा शरीरको बढ़ाता है, जीवनी शक्तिको प्रदान करता है, अतएव इसे ' काञ्जी' कहते हैं। भोजनको एक प्रहरके अन्दर ही पचा देता है, अतएव इसे ' आयामिका' कहते हैं। जलोदर, गुल्म, प्लीहा, हृद्रोग, अफारा, अरुचि, मन्दाग्नि, | तथा समस्त वातरोगोंको नष्ट ( १ ) बृहच्चुकोत ऋतुभेदसे समयका निश्चय करना कोष्ठशूल, अर्श, भगन्दर | करता है ।। ६४-७० ॥ चाहिये । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। ww- - कल्याणकगुडः। कूष्माण्डगुडकल्याणकः। प्रस्थत्रयेणामलकीरसस्य कूष्माण्डकानां रूढानां सुस्विन्नं निष्कुलत्वचाम् । शुद्धस्य दत्त्वाऽर्धतुलां 'गुडस्य । सर्पिःप्रस्थे पलशतं ताम्रभाण्डे शनैः पचेत् ॥७६।। चूर्णीकृतैप्रैथिकजीरचव्य पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली । धान्यकानि विडंगानि यवानी मरिचानि च॥७७|| व्योषेभकृष्णाहपुषाजमोदैः ।। ७१॥ त्रिफला चाजमोदा च कलिंगाजाजिसैन्धवम् । विडंगसिन्धुत्रिफलायमानी एकैकस्य पलं चैव त्रिवृदष्टपलं भवेत् ॥ ७८ ॥ पाठानिधान्यैश्च पलप्रमाणः । तैलस्य च पलान्यष्टौ गुडपञ्चाशदेव तु । दत्त्वा त्रिवृच्चूर्णपलानि चाष्टा प्रस्थैत्रिभिः समेतं तु रसेनामलकस्य च ॥ ७९ ॥ . वष्टौ च वैलत्य पचेद्यथावत् ॥७२॥ यदा दर्वीप्रलेपस्तु तदैनमवतारयेत् । तं भक्षयेदक्षफलप्रमाणं यथाशक्ति गुडान्कुर्यात्कर्षकर्षार्धमानकान् ॥ ८॥ यथेष्टचेष्टं त्रिसुगन्धियुक्तम् । अनेन विधिना चैव प्रयुक्तस्तु जयदिमान् । अनेन सा ग्रहणीविकाराः प्रसह्य ग्रहणीरोगान्कुष्ठान्यर्थीभगन्दरान् ॥८१ ॥ सश्वासकासस्वरभेदशोथाः ।। ७३ ॥ ज्वरमानाहहृद्रोगगुल्मोदरविषूचिकाः । कामलापाण्डुरोगांश्च प्रमेहांश्चैव विंशतिम् ॥ ८२॥ शाम्यन्ति चायं चिरमन्थराने वातशोणितवीसन्दिद्रुचर्महलीमकान् । ईतस्य पुंस्त्वस्य च वृद्धिहेतुः। कफपित्तानिलान्सर्वान्प्ररूढांश्च व्यपोहति ।। ८३ ॥ स्त्रीणां च वन्ध्यामयनाशनोऽयं व्याधिक्षीणा वयःक्षीणाः स्त्रीषु क्षीणाश्च ये नराः । कल्याणको नाम गुडः प्रदिष्टः ॥ ७४॥ तेषां वृष्यश्च बल्यश्व वयःस्थापन एव च ॥ ८४ ॥ तेले मनाग्मजयन्ति त्रिवृदत्र चिकित्सकाः। गुडकल्याणको नाम वन्ध्यानां गर्भदः परः। अत्रोक्तमानसाधाघिसुगन्धि पलं पृथक्७५/ अच्छे पके हुए कुम्हड़ोंके छिल्का तथा बीजरहित टुकड़े आमलेका रस तीन प्रस्थ ( १९२ तोला द्रवद्वैगुण्यात् | प्रथम मन्द आंचमें उबालना चाहिये, मुलायम होजानेपर ३८४ तोला ४ सेर १२ छ० ४ तोला), साफ गुड़ २॥ सेर, उतार ठण्डाकर रस निकाल कर अलग रखना चाहिये । फिर पिपरामूल, सफेद जीरा, चव्य, त्रिकटु, गजपीपल, हाऊबेर, ५ सेर सखे टुकड़ोंको ताम्रपात्रम ६४ तोला घृतमें मन्द अमिसे अजवाइन, वायविडंग, सेंधानमक, आमला, हरे, बहेड़ा, अज- पकाना चाहिये । जब सुगन्ध आने लगे, तब आमलेका रस ३ वाइन, पाढ़, चीतकी जड़, धनियां प्रत्येक चार तोला ले चूर्ण-1 प्रस्थ. गुड २॥ सेर. तिलका तेल ३२ तोला, छोटी पीपल, कर तथा निसोथका चूर्ण ३२ तोला तथा तिलका तैल ३२ पिपरामल, चीतकी जड़, गजपीपल, धनियां, बायविडंग, तोला एकमें छोड़ पकाकर अवलेह सिद्ध होनेपर दालचीनी,तेज- अजवाइन, काली मिर्च, त्रिफला, अजमोद, इन्द्रयव, जीरा, पात, इलायची प्रत्येकका चूर्ण ४ तोला छोड़कर १ तोलाकी सेन्धानमक प्रत्येक ४ तोला, निसोथ ३२ तोला तथा कुम्हडेका । मात्रासे सेवन करना चाहिये । इससे समस्त ग्रहणीरोग, श्वास, रस मिलाकर उस समय तक पकाना चाहिये, जबतक कास, स्वरभेद, शोथ नष्ट होते हैं, मदाग्नि तथा नष्ट पुंस्त्वको कलछीमें चिपकने न लग जाय । कड़ा होजानेपर एक तोला उद्दीप्त करता है तथा स्त्रियोंके वन्ध्यात्वदोषको नष्ट करता है। या छः माशाकी मात्रासे प्रयोग करना चाहिये । यह ग्रहणीरोग, इसे 'कल्याणकगुड' कहते हैं । इसमें निसोथ तैलमें कुछ कुष्ठ, अर्श, भगन्दर, ज्वर, अफारा, हृद्रोग, गुल्म, उदररोग, देर भूनकर छोड़ते हैं । त्रिसुगन्धिका परिमाण न लिखनेपर विषूचिका, कामला, पाण्डुरोग, प्रमेह, वातरक्त, वीसर्प, द्रु, भी उपरोक्त मानके अनुसार प्रत्येक एक पल लेते चर्मरोग, तथा हलीमकादि, कफ, पित्त व वातजन्य समस्त हैं॥७१-७५ ॥ । १ इसमें गुडको आमलेके रसमें छान लेना चाहिये, फिर १ यह अन्तःपरिमार्जन योग है, अतः अजमोदसे अज- तला हुआ पेठा उसी रसमें मिलाकर पाक करना चाहिये । वाइन ही लेना चाहिये। अतः अजवाइन दो भाग छोड़ना | सम्यक पक्वगुडलक्षणम्-“ सुखमर्दः सुखस्पर्शो गन्धवर्णरसान्वितः। चाहिये । यदुक्तम्-"एकमप्यौषधं योगे यस्मिन्यत्पुनरुच्यते । पीडितो भजते मुद्रां गुडः पाकमुपागतः ॥” इसकी मात्रा मानतो द्विगुणं प्राक्त तद् द्रव्यं तत्त्वदर्शिभिः" । १६ माशेकी शिवदासजीने लिखी है और वही उपयुक्त है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चक्रदत्तः ।' रोगोंको नष्ट करता है। यह 'गुड़ कल्याणक ' रोग, स्त्रीगमन तथा वृद्धावस्था होनेसे जो क्षीण हो गये हैं उनके लिये वाजीकर, बलदायक तथा वयःस्थापक है और वन्ध्यास्त्रियोंके गर्भ उत्पन्न करनेवाला है ॥ ७६-८४ ॥ सपर्पटी | केलेके पत्तेके ऊपर ढ़ालकर दूसरे केलेके पत्तेसे ढ़क ऊपरसे गोबरसे ढककर कुछ देर रहने देना चाहिये । फिर घोटकर २ रत्ती की मात्रासे बढ़ाकर क्रमशः बारह रत्ती तक सेवन करना चाहिये | इसके खानेके १॥ घण्टे बाद सुपारी खूब खाना चाहिये, पुनः तीसरे दिन से मांस, घृत, दूध आदि सेवन करना चाहिये । जलन करनेवाले पदार्थ, स्त्रीगमन, केलाकी जड़, सरसोंका तेल, याम्लपित्ते विधातव्या गुडिका च क्षुधावती ॥ ८५ ॥ छोटी मछली तथा अन्य जलके समीपके पक्षी सेवन न करे । तत्र प्रोक्तविधा शुद्धौ समानी रसगन्धको । निद्राके अनन्तर दूधका सेवन करे । यह ' रसपर्पटी ' ग्रहणी, संम कज्जलाभं तु कुर्यात्पात्रे दृढाश्रये ॥ ८६ ॥ क्षय, कुष्ट, अर्श, शोष तथा अजीर्णको नष्ट करती है । इस सपर्पटीका चक्रपाणिने आविष्कार किया है ।। ८५-९१ ॥ ततो बादरवह्रिस्थलोहपात्रे द्रवीकृतम् । गोमय पर विन्यस्तकदलीपत्रपातनात् ॥ ८७ ॥ कुर्यात्पर्पटिकाकारमस्य रक्तिद्वयं क्रमात् । द्वादशरक्तिका यावत्प्रयोगः प्रहरार्धतः ॥ ८८ ॥ तदूर्ध्व बहुपूगस्य भक्षणं दिवसे पुनः । तृतीय एव मांसाज्यदुग्धान्यत्र विधीयते ॥ ८९ ॥ वर्ज्य विदाहिखीरम्भामूलं तैलं च सार्षपम् । क्षुद्रमत्स्याम्बुजखगांस्त्यक्त्वान्निद्रः पयः पिबेत् ॥९०॥ ग्रहणीक्षयकुष्ठार्शः शोषाजीर्णविनाशिनी । ताम्रयोगः । पर्पटिका ख्याता निबद्धा चक्रपाणिना ।। ९१ ॥ (४४ ) अम्ल पित्ताधिकारोक्त क्षुधावती गुटिकाकी विधिसे शुद्ध पारद व गन्धक समान भाग लेकर दृढ पात्रमें कज्जली करे, पुनः | ariat लकड़ीकी निर्धूम अग्निमें लोह पात्र रखकर कज्जलीको छोड़े, जब कज्जली पतली हो जावे, तो गोबरके ऊपर बिछे " गुत्तमः ॥ ५ ॥ ग्रहणीं हन्ति शोषं च सुवर्णरसपर्पटी । सय बकरी शुक्रवर्द्धिनी वहिदीपनी ॥ ६ ॥ क्षयकासश्वासमे हशूलातीसारपः डुनुन् । ” इसमें नीज लिये है उससे वर्तमान वृद्ध वैद्योंका व्यवहार कुछ भिन्न है और वही उत्तम है। वह यह कि, प्रथम शुद्ध सोनेक वर्क एक तोला ४ तोला पारदकं साथ घोटना, फिर उसी में गन्धक मिलाकर कज्जली बनाना, शेष यथोक्त करना चाहिये । [ ग्रहण्य स्थाल्यां संमद्ये दातव्यो माषिको रसगन्धको । नखक्षुण्णं तदुपरि तण्डुलीयं द्विमाषिकम् ॥ ९३ ॥ ततो नेपाल ताम्रादि पिधाय सुकरालितम् । पांशुना पूरयेदूर्ध्व सर्वा स्थालीं ततोऽनलः ॥९३॥ स्थाल्यो नालिका यावद्देयस्तेन मृतस्य च । ताम्री ताम्रस्य रक्त्येका त्रिफला चूर्णरचिका ||९४ || त्र्यूषणस्य च रक्त्येका विडंगस्य च तन्मधु । घृतेनालोडय लेढव्यं प्रथमे दिवसे ततः ॥ ९५ ॥ रक्तवृद्धि: प्रतिदिन कार्या ताम्रादिषु त्रिषु । स्थिरा विडंगरक्तिस्तु यदा भेदो विवक्षितः ||९६ ॥ तदा विडंगं त्वधिकं दद्याद्रतिद्वयं पुनः । द्वादशाहं योगवृद्धिस्ततो ह्रासक्रमोऽप्ययम् ॥९७॥ ग्रहणीमम्लपित्तं च क्षयं शूलं च सर्वदा । ताम्रयोगो जयत्येष बलवर्णाग्निवर्धनः ।। ९८ । | १ रसग्रन्थोंमें अनेक प्रकारकी पर्पटी लिखी गयी हैं, पर उनके लिखनेसे ग्रन्थ बहुत बढ़ जायगा, अतः उन्हें न लिखकर अत्यन्त प्रसिद्ध तथा गुणकारी सुवर्णपर्पटीको लिख दता हूँ :- शुद्धसूतं पलमितं तुर्याशस्वर्णसंयुतम् । मर्दयेन्निम्बुनीरेण यावदेकत्वमाप्नुयात् ॥ १ ॥ प्रक्षाल्योष्णाम्बुना पश्चात्पलमात्रे तु गन्धके । द्रुते लोहमये पात्रे बादरानलयोगतः ॥ २ ॥ प्रक्षिप्य चालयेल्लोह्यां मन्दं लोहशलाकया । ततः पाकं विदित्वा तु रम्भापत्रे शनैः क्षिपेत् ॥ ३ ॥ गोमयस्थे तदुपरि रम्भापत्रेण यन्त्रयेत् । शीतं तच्चूर्णितं गुञ्जा क्रमवृद्धं निषेवयेत् ॥ ४ ॥ माषमात्रं भवेद्यावत्ततो मात्रां न वर्धयेत् । सक्षौद्रेणोषणेनैव लेहयेद्भि शुद्ध पारद १ माशा, शुद्ध गन्धक १ माशा दोनों को खरलमें घोट कजली मंडिया में छोड़ना चाहिये, उसके ऊपर महीन पिसी चौराईका चूर्ण दो माशा छोड़कर ऊपरसे कण्टकवेधी ताम्रपत्र १५ माशेकी कटोरी बन्दकर ऊपरसे दूसरी कटोरीसे ढ़क सन्धिबन्दकर देना चाहिये, ऊपरसे बालू भर देना चाहिये, फिर मंडिया चूल्हेपर चढ़ाकर नीचे अग्नि जलाना चाहिये, एक घण्टातक आंच देना चाहिये, इस प्रकार सिद्ध की गयी तो भस्म १ रत्ती, त्रिफला चूर्ण १ इसमें परद गन्धककी कज्जली २ मासे छोड़ना चाहिये तथा मात्रा की लिखी है, पर यह अधिक है, वर्तमान समय में आधी रतीस ही बढ़ना उम है । ताम्र भस्मकी अनेक विधियां हैं, उन्हें रसप्रन्थोंस जानना चाहिये । पर यहां के लिये जितना आवश्यक है, श्रीमान् चक्रपाणिजीने स्वयं लिख दिया है । विषय बढ़ाने की आवश्यकता नहीं । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। १ रत्ती, त्रिकटुचूर्ण १ रत्ती, वायविडंग , रत्ती, सब घृत: तथा (१) थूहरका दूध हलदीके चूर्णके साथ लेपकरनेसे अर्श को शहदसे मिलाकर चटाना चाहिये । इतनी मात्रा प्रथम दिन | नष्ट करता है। इसी प्रकार (२) कडुई तोरईका चूर्ण घिसनेसे देना चाहिये । फिर प्रतिदिन सब चीजें एक एक रत्ती बढ़ाना | मस्से कट जाते हैं। तथा (३) आकका दूध, थूहरका दूध, चाहिये, केवल वायविडंग न बढ़ाना चाहिये। पर यदि कब्जि- कडुई तोम्बीके पत्ते तथा कजाके बीज-सब बकरके मूत्रमें यत या अफारा आदि हो, तो विरेचनके लिये वायविडंग २] पीसकर लेप करनेसे मस्से नष्ट होते हैं । तथा(४)गुड़ व कडुई रत्ती छोड़ना चाहिये। इस प्रकार १२ दिन तक एक एक तोरईकी बत्ती बनाकर गुदामें लेप करनेसे अर्शके मस्से नष्ट रत्ती बढ़ाना चाहिये, और इसी प्रकार फिर एक एक रत्ती कम होते हैं । तथा कडुई तोरईकी जड़का कल्क लेप करनेसे करना चाहिये। यह ग्रहणी, अम्लपित्त, क्षय तथा शूलको 'रक्तार्श' को नष्ट करता है । कड़ई तोम्बीके बीज व खारीनष्ट करता है, बल, वर्ण तथा अग्मिको दीप्त करता नमक अथवा साम्भरनमक समान भाग ले काजीमें पीस है॥ ९२-९८॥ | गोली बनाकर गुदामें रखनेसे तीन गोलीमें ही बवासीर इति ग्रहण्यधिकारः समाप्तः। . नष्ट होता है । इस प्रयोगमें भैंसीके दहीका पथ्य लेना चाहिये ॥४-७॥ अथार्शोऽधिकारः। लिङ्गार्शसि लेपः। अपामार्गाविजः क्षारो हरितालेन संयुतः। अर्शसाश्चिकित्साभेदाः। लेपनं लिङ्गासम्भूतमी नाशयति ध्रुवम् ॥ ८॥ अपामार्ग (लटजीरा) की जड़का क्षार तथा हरताल एकमें दुर्नाम्नां साधनोपायश्चतुर्धा परिकीर्तितः। घोटकर लेप करनेसे “लिङ्गार्श" नष्ट होता है॥८॥ भेषजक्षारशस्खाग्निसाध्यत्वादाद्य उच्यते॥१॥ । अर्श (१) औषध, (२)क्षार, (३) शस्त्र तथा (४) अमि इन __अपरो लेपः। चार उपायोंसे अच्छा होता है , इनमें प्रथम औषधका | ___ महाबोधिप्रदेशस्य पथ्या कोशातकीरजः । वर्णन करते हैं ॥१॥ कफेन लेपतो हन्ति लिंगवर्तिमसंशयम् ॥९॥ यद्वायोरानुलोम्याय यदग्निबलवृद्धये। छोटी हर्र, कडुई तोरई, समुद्रफेन तीनों महीन पीस |पानीके साथ लेप करनसे 'लिङ्गार्श' निःसन्देह नष्ट होता अनुपानौषधद्रव्यं तत्सेव्यं नित्यमर्शसैः ।। २॥ पानी जिससे वायुका अनुलोमन तथा अग्नि व बलकी वृद्धि हो, वह अनुपान तथा औषध अर्शवालोको सदैव सेवन करना विशेषव्यवस्था। चाहिये ॥२॥ | वातातीसारवद्भिन्नवास्यास्युपाचरेत् । शुष्कार्शसां प्रलेपादिक्रिया तीक्ष्णा विधीयते । । उदावर्तविधानेन गाढविट्कानि चासकृत् ॥ १०॥ स्राविणां रक्तमालोक्य क्रिया कार्यास्रपैत्तिकी ।।३।। बवासीरके साथ यदि दस्त आते हों, तो अतीसारके बवासीरके सूखे मस्सोंमें तीक्ष्ण लेपादि करना चाहिये, तथा समान और यदि कड़े दस्त आते हों, तो उदावर्तके समान रक्त वहन करनेवाले मस्सों में रक्तपित्तनाशक लेपादि करना | चिकित्सा करनी चाहिये ॥१०॥ चाहिये ॥३॥ तक्रप्राधान्यम् । अर्शोघ्नलेपाः। विविबन्धे हितं तक्रं यमानीविडसंयुतम् । क्स्नुक्षीरं रजनीयुक्तं लेपाद् दुर्नामनाशनम् । वातश्लेष्मासां तक्रात्परं नास्तीह भेषजम् ॥११॥ कोशातकीरजोघर्षानिपतन्ति गुदोद्भवाः ॥ ४ ॥ तत्प्रयोज्यं यथादोषं सस्नेहं रूक्षमेव वा । अर्कक्षीरं सुधाक्षीरं तिक्ततुम्ब्याश्च पल्लवाः। न विरोहति गुदजाः पुनस्तक्रसमाहताः ॥१२॥ कर जो वस्तमूत्रेण लेपनं श्रेष्ठमर्शसाम् ॥ ५॥ मनकी रुकावटमें अजवाइन तथा विडनमक युक्त मट्ठा अशॉनी गुदगा वर्तिर्गुडघोषाफलोद्भवा । पिलाना चाहिये । वातकफ-जन्य अर्शके लिये मढेसे बढ़कर ज्योस्निकामूरकल्केन लेपो रक्तः शंसां हितः॥६॥ तुम्बीबीजं मोद्भिदं तु काजीपिष्टं गुटोत्रयम् । । १ तक्रळक्षणम् ।-" दधि प्रमथितं पादजलोपेतं सरोज्झितम् । अर्शोहरं गुदस्थं स्यादधि माहिषमतः॥७॥ तक्रमत्र समाख्यातं त्रिदोषशमनं परम् । अरुचौ विड्विबन्धे च Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) चक्रदत्तः । [ भर्शो असितानां तिलानां प्राक् प्रकुञ्चं शीतवार्यनु । खादतोऽसि नश्यन्ति द्विजदाढर्थाङ्गपुष्टिदम् २२ तिल तथा शुद्ध भिलावांका चूर्ण अग्निको दीप्त करता है, कुष्ट तथा अर्शको नष्ट करता है । तथा काले तिल, भिलावा, छोटी हर्र, गुड़ समान भाग ले चूर्ण अथवा गोली बनाकर सेवन होता है। इसी प्रकार गोमूत्र में बसायी ( रात्रिभर भिगोई गयी ) करनेसे अर्श, कास, श्वास, प्लीहा, पांडुरोग तथा ज्वर नष्ट बड़ी हर्र गुड़ मिलाकर सेवन करनेसे अथवा पञ्चकोलका चूर्ण मिलाकर मट्ठा पीनेसे अर्श नष्ट होता है । तथा जमीकन्दके ऊपर मिट्टीका लेपकर पुटपाकके विधानसे पका तैल तथा नमक मिलाकर सेवन करनेसे अर्श नष्ट होता है । तथा कडुई तोरई क्षार जलसे उबाले गये बैंगनको घीमें भूनकर गुड़के साथ तृप्ति पर्यन्त भोजन कर ऊपरसे मट्ठा पीनसे निस्सन्देह तत्काल ही अर्थ नष्ट हो जाता है तथा सात दिन सेवन करनेसे सहज अर्श भी नष्ट हो जाता है । काले तिल १ पल चबाकर ऊपरसे ठण्डा जल पीनेसे अर्श नष्ट होता है तथा दांत व शरीर पुष्ट होते हैं ॥ १६-२२ ॥ | कोई औषध नहीं है । वह वातजन्य बवासीर में विना मक्खन निकाले तथा कफजन्यमें मक्खन निकाल कर पीना चाहिये । मट्ठेके सेवन से नष्ट हुआ अर्श फिर नहीं उत्पन्न होता है ॥ ११ ॥ १२ विशेषतक्रविधानम् । ॥ त्वचं चित्रकमूलस्य पिष्ट्वा कुम्भं प्रलेपयेत् । तक्रं वा दधि वा तत्र जातमर्शोहरं पिबेत् ॥ १३ ताजी चीतकी जड़की छालको महीन पीसकर घड़े में लेप करना चाहिये, फिर उसी घडेमें जमाया गया दही अथवा उसी दहीका बनाया मट्ठा पीनेसे अर्श नष्ट होता है ॥ १३॥ अभयाप्रयोगाः । पित्तश्लेष्मप्रशमनी कच्छूकण्डूरुजापहा । गुदजान्नाशयत्याशु योजिता सगुडाभया ॥ १४ ॥ सगुड पिप्पलीयुक्तामभयां घृतभर्जिताम् । त्रिवृन्तीयुतां वापि भक्षयेदानुलोमिकीम् ॥ १५ ॥ गुड़के साथ-हर्रके चूर्णको खानेसे खुजली, छाले तथा बवासी रके मस्से नष्ट होते हैं । इसी प्रकार घी में भूजी गयी हरीतकी का चूर्ण पीके चूर्ण तथा गुड़के साथ सेवन करनेसे अथवा निसोथ वदन्तीकी जड़के चूर्णके साथ सेवन करनेसे दस्त साफ आता है। बवासीर नष्ट होती है ॥ १४ ॥ अन्ये योगाः । तिलारुष्करसंयोगं भक्षयेदग्निवर्धनम् । कुष्ठरोगहरं श्रेष्ठमर्शसां नाशनं परम् ॥ १६ ॥ तिलभल्लातकं पथ्या गुडश्चेति समांशकम् । दुर्नाम कासश्वासन्नं प्लीहपांडुज्वरापहम् ॥ १७ ॥ गोमूत्रव्युषितां दद्यात्सगुडां वा हरीतकीम् । पञ्चकोलकयुक्तं वा तक्रमस्मै प्रदापयेत् ॥ १८ ॥ मृल्लप्तं सूरणं कन्दं पक्त्वानी पुटपाकवत् । अद्यात्सतैललवणं दुर्नाम विनिवृत्तये ॥ १९ ॥ स्त्रिन्नं वार्ताकुफलं घोषायाः क्षारजन सलिलेन तद् घृतभृष्टं युक्तं गुडेनातृप्तितो योऽत्ति ॥ २० ॥ पिबति च तक्रं नूनं तस्याश्वेवातिवृद्धगुदजानि ॥ यान्ति विनाशं पुंसां सहजान्यपि सप्तरात्रेण ॥ २१ । ॥ -तकं स्यादमृतोपमम् । न तक्रदग्धाः प्रभवन्ति रोगा न तक्रसेवी व्यथते कदाचित् । यथा सुराणाममृतं हि स्वर्गे तथा नरागां भुवि तक्रमाद्दुः ॥ कैलासे यदि तक्रमस्ति गिरिशः किं नीलकण्ठो भवे - द्वैकुठे यदि कृष्णतामनुभवेदद्यापि किं केशवः । इन्द्रो दुर्भगतां क्षयं द्विजपतिर्लम्बोदरत्वं गणः कुष्ठित्वं च कुबेरको दहनतामग्निश्च किं विंदति " ॥ दन्त्यरिष्टः । दन्तीचित्रकमूलानामुभयोः पञ्चमूलयोः । भागान्पलांशानापोथ्य जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ २३ त्रिपलं त्रिफलायाश्च दलानां तत्र दापयेत् । रसे चतुर्थशेषे तु पूतशीते प्रदापयेत् ॥ २४ ॥ तुलां गुडस्य तत्तिष्ठेन्मासार्धं घृतभाजने । तन्मात्र या पिबन्नित्यमर्शोभ्यो विप्रमुच्यते । २५ ॥ ग्रहणी पाण्डुरोगघ्नं वातवर्चोऽनुलोमनम् । दीपनं चारुचिघ्नं च दन्त्यरिष्टमिदं विदुः । पात्रेऽरिष्टादिसंन्धानं धातकीलोध्रलेपिते ॥ २६ ॥ जमालगोटाकी जड़ अथवा छोटी दन्ती, चीतकी जड़, लघु पञ्चमूल, बृहत्पञ्चमूल प्रत्येक एक पल तथा त्रिफलाका | छिल्का तीन पल सब दुरकुचाकर एक द्रोण जलमें पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार ५ सेर गुड़ मिलाकर | घी के बर्तन में १५ दिन तक रखना चाहिये। फिर छानकर १ भल्लातक-शोधनविधिः- भल्लातकानि पक्वानि समानीय क्षिपेज्गले । मज्जन्ति यानि तत्रैव शुद्धयर्थं तानि योजयेत् । इष्टका चूर्णनिकरैर्घर्षणे निर्विषं भवेत् ॥ २ इस प्रयोगको ग्रन्थान्तर में महीने भर रखने के लिये लिखा है । यथा - " त्रिफलादशमूलाग्निनिकुम्भानां पलं पलम् । वारिद्रोणे स्थितः पादशेषो गुडतुलायुतः ॥ आज्यभाण्डे स्थितो मासं दन्त्यरिष्टो निषेवितः " ॥ श्रीयुत शिवदासजी स्मृति द्वैधका दृष्टान्त देकर दोनों को प्रमाणिक बताया है । मेरे विचारसे शीत, उष्ण, काल भेदसे १५ या १ मास रखना चाहिये, अर्थात् उष्ण कालमें १५ दिन और शीत कालमें एक महीना । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - wrror-e-wrwr-o धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (४७) - - - चार तोलाकी मात्रा पीनेसे अर्श नष्ट हो जाता है, तथा ग्रहणी, सोंठ १२ तोला, काली मिर्च ४ तोला, छोटी पीपल पाण्डुरोगोंको भी नष्ट कर मल व वायुकी शुद्धता, अग्निकी ८ तोला, चव्य ४ तोला, तालीशपत्र ४ तोला, नागकेशर दीप्ति तथा अरुचिको नष्ट करता है। इसे 'दन्त्यरिष्ट ' कहते २ तोला, पिपरामल ८ तोला, तेजपात ६ माशे, छोटी हैं । धायके फूल तथा पठानीलोधसे लेप किये पात्रमें आरष्टादि इलायची १ तोला, दालचीनी ६ माशे, खश ६ माशे, सन्धान करना चाहिये ॥२३-२६ ॥ गुड़ १॥ सेर-सब एकमें मिलाकर १ तोलाकी गोली बनाना चाहिये। इसे “प्राणदा वटी" कहते हैं। इसे भोजनके प्रथम तथा - नागरायो मोदकः। अनन्तर बलके अनुसार सेवन करना चाहिये । ऊपरसे मद्य, सनागरारुष्कर वृद्धदारुकं मांसरस, यूष, दूध अथवा जल पीना चाहिये । इससे सहज, गुडेन यो मोदकमत्त्युदारकम् । रक्तज तथा दोषज समस्त बवासीर नष्ट होते हैं । मदात्यय, अशेषदुनामकरोगदारकं मूत्रकृच्छ, वातरोग, स्वरभेद, विषमज्वर, मन्दाग्नि, पाण्डु रोग, क्रिमिरोग, हृदोग, गुल्म, शूल, श्वास, तथा काससे करोति वृद्धं सहसैव दारकम् ।। २७ ॥ पीडित मनुष्योंके लिये यह अमृतके तुल्य लाभदायक होती सोंठ, शुद्ध भिलावां तथा विधायरा तीनोंको गुड़के साथ है ।पित्तजन्य अर्शमें सोंठके स्थानमें बड़ी हर्रका छिल्का गोली बना सेवन करनेसे समस्त अर्श नष्ट होते हैं । तथा शरीर | इसमें छोड़ना चाहिये । “ इस प्राणदा वटी " को गुड़के स्थानमें वलवान होता है ॥ २७ ॥ चूर्णमानसे चतुर्गुण मिश्री छोड़ बनाकर अम्लपित्त तथा अग्निमुडमानम् । मांद्य आदिमें प्रयोग करना चाहिये । श्लेष्मजरोगमें अनुपान १ पल, वातजन्यमें २ पल तथा पित्तजन्यमें ३ पल सेवन चूर्णे चूर्णसमी ज्ञेयो मोदके द्विगुणो गुडः। . करना चाहिये ॥ २८-३७ ॥ गुड़ चूर्णमें चूर्णके समान तथा गोलियोंमें चूर्णसे दूना | छोड़ना चाहिये ॥२८॥ कांकायनगुटिका। प्राणदा गुटिका। पथ्यापञ्चपलान्येकमजाज्या मरिचस्य च ॥ ३८॥ त्रिपलं शृङ्गवेरस्य चतुर्थ मरिचस्य च ।। २८ ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागराः। पिप्पल्याः कुडवार्धं च चव्यायाः पलमेव च।। पलाभिवृद्धाः क्रमशो यवाक्षरपलद्वयम् ॥ ३९ ॥ तालीशपत्रस्य पलं पलाध केशरस्य च ॥ २९ ॥ भल्लातकपलान्यष्टौ कन्दस्तु द्विगुणो मतः । द्वे पले पिप्पलीमूलादर्धकर्ष च पत्रकात् । द्विगुणेन गुडेनेषां वटकानक्षसंमितान् ॥ ४० ॥ कृत्वेनं भक्षयेत्प्रातस्तक्रमम्भोऽनु वा पिबेत् । सूक्ष्मैलाकर्षमेकं तु कर्ष च त्वङ्मृणालयोः ॥३०॥ गुडात्पलानि तु त्रिंशच्चूर्णमेकत्र कारयेत् । मन्दाग्निं दीपयत्येषा ग्रहणीपाण्डुरोगनुत् ॥४१॥ कांकायनेन शिष्येभ्यः शस्त्रक्षाराग्निभिर्विना । अक्षप्रमाणा गुटिका प्राणदेति च सा स्मृता॥३१॥ पूर्व भक्ष्याऽथ पश्चाच भोजनस्य यथाबलम्।। मिषग्जितमिति प्रोक्तं श्रेष्ठमोविकारिणाम् ॥४२॥ मद्यं मांसरसं यूषं क्षीरं तोयं पिबेदनु ॥३२॥ | हरै २० तोला, जीरा सफेद ४ तोला, काली मिर्च ४ तोला, णि सहजान्यस्रजानि च। छोटी पीपल ४ तोला, पिपरामूल ८ तोला, चव्य १२ तोला, वातपित्तकफोत्थानि सन्निपातोद्भवानि च ॥ ३३ ।।। चीतकी जड़ १६ तोला, सोंठ २० तोला, यवाखार ८ तोला, भिलावा ३२ तोला, जमीकन्द २४ तोला, सबका चूर्ण बनाकर पानात्यये मूत्रकृच्छ्रे वातरोगे गलग्रहे। द्विगुण गुड़से गोली १ तोलेके बराबर बनाना चाहिये । प्रातःविषमज्वरे च मन्देऽमी पाण्डुरोगे तथैव च ॥३४॥ काल १ गोली खाके ऊपरसे मट्ठा या जल पीना चाहिये । यह क्रिमिहद्रोगिणां चैव गुल्मशूलार्तिनां तथा। गोली मन्दाग्निको दीप्त करती है, ग्रहणी तथा पांडुरोगको नष्ट श्वासकासपरीतानामेषा स्यादमृतोपमा ॥ ३५ ॥ करती है । कांकायनने यह गोली शस्त्रक्षारादिके बिना अर्शके शुण्ठयाः स्थानेऽभया देया विड्महे पित्तपायुजे । प्राणदेयं सितां दत्त्वा चूर्णमानाच्चतुर्गुणाम् ॥ ३६॥ १ ग्रन्थान्तरमें इसीको चाशनी बनाकर गोली बनाना लिखा अम्लपित्तामिमान्द्यादी प्रयोज्या गुदजातुरे। है। यथा वाग्भट:-"पक्त्वैनं गुटिका कार्या गुडेन सितयापि अनुपानं प्रयोक्तव्यं व्याधी श्लेष्मभवे पलम् ॥३७॥ वा । परं हि वहिसंयोगालघिमानं भजन्ति ताः ।" विभिन्न । पलद्वयं त्वनिलजे पित्तजे तु पलत्रयम् । ग्रन्थों में यह योग पाठभेदसे लिखा है। हन्यात जान च। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (४८) चक्रदत्तः। [भों -ware - -- - - - नष्ट करनेके लिये अपने शिष्योंके लिये बतलायी थी, अत एव गुरुवृष्यभोज्यरहितेष्वितरेषूपद्रवं कुर्यात् ॥५१॥ इसे 'काकायनबटी' कहते हैं ॥ ३८-४२॥ भस्मकमनेन जनितं पूर्वमगस्त्यस्य योगराजेन । माणिभद्रमोदकः। भीमस्य मारुतेरपि येन तौ महाशनी जाती ॥५२॥ अग्निबलबुद्धिहेतुर्न केवलं सूरणो महावीर्यः। विडंगसारामलकाभयानां प्रभवति शस्त्रक्षाराग्निभिविनाप्यर्शसामेषः ॥ ५३॥ पलं पलं स्यात्रिवृतस्त्रयं च । श्वयथुश्लीपदजिद्रहणीमपि कफवातसम्भूताम् । गुडस्य षड् द्वादशभागयुक्ता नाशयति वलीपलीतं मेधां कुरुते वृषत्वं च ॥५४॥ मासेन त्रिंशद गुटिका विधेयाः ॥४३॥ हिक्कां श्वासं कासं सराजयक्ष्मप्रमेहांश्च ।। निवारणे यक्षवरेण सृष्टः प्लीहानं चाथोग्रं हन्ति सदैतद्रसायनं पुंसाम्॥५५॥ समाणिभद्रः किल शाक्यभिक्षवे। अयं हि कासक्षयकुष्टनाशनो जमीकन्द १६ भाग, चीतकी जड़ ८ भाग, सोंठ ४ भाग, मिर्च २ भाग, त्रिफला, छोटी पीपल, पिपरामूल, तालीसपत्र, भगन्दरप्लीहजलोदरार्शसाम् ॥४४॥ | भिलावां, वायविडङ्ग प्रत्येक ४ भाग, स्याहमुसली ८ भाग, यथेष्टचेष्टान्नविहारसेवी विधायरा १६ भाग, भांगरा तथा छोटी इलायची प्रत्येक २भागअनेन वृद्धस्तरुणो भवेञ्च ॥ ४५ ॥ सबका चूर्णकर द्विगुण गुड़ मिला गोली बनाकर इसे धनी पुरुवायविडङ्ग, आमला, बड़ी हर्र प्रत्येक ४ तोला, निसोथ १२/पोंको सेवन करना चाहिये । गरीब लोगोंको इसे न खाना तोला. सब कूट छान २४ ताला गुड़ मिलाकर ३० गोली चाहिये, क्योंकि गुरु तथा वाजीकर द्रव्ये न खानेसे यह बनाना चाहिये । एक गोली प्रति दिन सेवन करना चाहिये। उपद्रव करता है । इस प्रयोगने प्रथम अगस्त्य यह माणिभद्र ' नामक गोली किसी यक्षने शाक्य भिक्षुके तथा भीम हनुमानके भस्मक उत्पन्न कर दिया था, जिससे लिये बतलायी थी। यह कास, क्षय, कुष्ठ, भगन्दर, प्लीहा, वे अधिक भोजन करनेवाले हए । यह अग्नि, बल, बद्धि तथा जलोदर तथा अशको नष्ट करती है । इसमें किसी प्रकारका पर-वीर्यको बढ़ता है, और शस्त्र क्षारादिके विना ही. अर्शको नष्ट हेज नहीं है । इसके सेवनसे वृद्ध पुरुष भी जवान हो जाता है| करता है । सूजन, स्लीपद तथा कफवात-जन्य ग्रहणीको अर्थात् वाजीकरण भी है ॥ ४३-४५॥ नष्ट करता है । शरीरकी झुर्रियां तथा बालोंकी सफेदीको दूर करता है । मेधा तथा मैथुनशक्तिको बढ़ाता है । स्वल्पशूरणमोदकः। हिचकी, श्वास, कास, राज्जयक्ष्मा, प्रमेह तथा बढ़े हुए मरिचमहौषधचित्रकसुरणभागा यथोत्तरं द्विगुणाः। प्लीहाको यह नष्ट करता तथा रसायन है ॥४८-५५ ॥ सर्वसमो गुडभागःसेव्योऽयं मोदकः प्रसिद्धफलः ॥४६ ज्वलनं ज्वलयति जाठरमुन्मूलयति शूलगुल्मगदान् । सूरणपिण्डी। निःशेषयति श्लीपदमशास्यपि नाशयत्याशु ॥४७॥ | चूर्णीकृताः षोडश सूरणस्य काली मिर्च १ भाग, सोंठ २ भाग, चीतकी जड़ ४ ___ भागास्ततोऽर्धेन च चित्रकस्य । भाग, जमीकन्द ८ भाग, गुड़ १५ भाग-सब मिलाकर महौषधाब्दी मरिचस्य चैको गोली बनानी चाहिये । इसका फल प्रसिद्ध है। अग्निको दीप्त गुडेन दुर्नामजयाय पिण्डी ।। ५६॥ करती है, उदररोग, शूल, गुल्म, लीपद तथा अर्श को शीघ्र ही। नष्ट करती है ॥ ४६॥ ४७ ॥ पिण्डयां गुडो मोदकवत्पिण्डत्वापत्तिकारकः॥५७॥ सूरणका चूर्ण १६ भाग, चीतकी जड़ ८ भाग, सोंठ, बृहच्छूरणमोदकः। नागरमोथा, काली मिर्च-प्रत्येक एक भाग, चूर्णकर गुड़ सरणषोडशभागा वढेरष्टौ महौषधस्यातः। मिला गोली बनाकर अर्शके नाशार्थ सेवन करना चाहिये। अर्धन भागयुक्तिर्मरिचस्य ततोऽपि चार्धेन ॥४८॥ इसमें गुड़ मोदकके समान अर्थात् समस्त चूर्णसे दूना छोड़ना त्रिफलाकणासमूलातालीशारुष्करक्रिमिन्नानाम् । चाहिये ॥ ५६ ॥ ५५ ॥ भागा महोषधसमा दहनांशा तालमूली च ॥४९॥ भागः सूरणतुल्यो दातव्यो वृद्धदारुकस्यापि । व्योषायं चूर्णम् । भंगेले मरिचांशे सर्वाण्येकत्र संचूर्ण्य ॥५०॥ | व्योषाग्न्यरुष्करविडंगतिलाभयानां द्विगुणेन गुडेन युतः सेन्योऽयं मोदकः प्रकामधनैः।। चूर्ण गुडेन सहितं तु सदोपयोज्यम् । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। - ---- - arror-error-are दुर्नामकुष्ठगरशोथशकृद्विबन्धा जन्तुदष्टं तु तोयेन त्वग्दोषं खदिराम्बुना । ननेजेयत्यबलतां क्रिमिपाण्डुतां च ॥ ५८ ॥ । मूत्रकृच्छं तु तोयेन हृद्रोगं तैलसंयुता ॥ ६५ ।। सोंठ, कालीमिर्च, छोटी पीपल, चीतकी जड़, भिलावां, इन्द्रस्वरससंयुक्ता सर्वज्वरविनाशिनी । वायविडंग, काले तिल, बड़ी हर्रका छिल्का-सबका चूर्ण मातुलुंगरसेनाथ सद्यः शूलहरी स्मृता ॥ ६६ ॥ बना गुड़के साथ सेवन करनेसे अर्श, कुष्ठ, कृत्रिम विष, सूजन | मलकी रुकावट, क्रिमि तथा पाण्डुरोग नष्ट होते हैं। तथा अग्नि | कपित्थतिन्दुकानां तु रसेन सह मिश्रिता । दीप्त होती है ॥ ५८॥ विषाणि हन्ति सर्वाणि पानाशनसुयोगतः ॥६७।। गोशकृद्रससंयुक्ता हन्यात्कुष्ठानि सर्वशः । समशर्करं चूर्णम् । श्यामाकपायसहिता जलोदरविनाशिनी ॥ ६८॥ शुण्ठीकणामारचनागदलत्वगेलं भक्तच्छन्दं जनयति भुक्तस्योपरि भक्षिता । ' चूर्णीकृतं क्रमविवर्धितमूर्ध्वमन्त्यात् । अक्षिरोगेषु सर्वेषु मधुना घृष्य चाजयेत् ॥ ६९॥ खादेदिदं समसितं गुदजाग्निमान्ध लेहमात्रेण नारीणां सद्यः प्रदरनाशिनी।। __ कासारुचिश्वसनकण्ठहृदामयेषु ॥ ५९॥ व्यवहारे तथा द्यूते संग्रामे मृगयादिषु ॥ सोंठ, छोटी पीपल, काली मिर्च, पान, दालचीनी, छोटी | मोटी पीपल काली मिर्च पान. दालचीनी. छोटी। समालभ्य नरो घनां क्षिप्रं विजयमाप्नुयात॥७॥ इलायची क्रमशः छः पांच, चार, तीन, दो, एक-भाग ले कूट | त्रिफला, पांचोनमक, कूठ, कुटकी, देवदारु, वायविडंग, छान सबके समान भाग मिश्री मिलाकर अर्श, अग्निमान्य, चनीमके बीज, खरेटीके बीज, कंघी, हल्दी, दारुहल्दी, हुलहुल, कास, अरुचि, श्वास, कण्ठ तथा हृदयके रोगोमें खाना सब कूट कजाकी छालके रसमें घोटकर बेरकी गुठलीके बराबर चाहिये ॥ ५९॥ गोली बना लेना चाहिये । एक एक गोली भिन्न भिन्न लवणोत्तमाद्यं चूर्णम् । | रोगोंमें भिन्न भिन्न अनुपानोंके साथ देना चाहिये। गरम जलके साथ मन्दाग्निको, मछे साथ अर्शको, काजीके लवणोत्तमवह्निकलिङ्गयवान साथ गुल्मको, जलके साथ कीडोंके, विषको, खदिर काथके चिरबिल्वमहापिचुमर्दयुतान् । | साथ त्वचाके रोगोंको, जलके साथ मुत्र कृछको. तैलके पिब सप्तदिनं मथितालुलितान् साथ हृद्रोगको, इन्द्रयवके क्वाथके साथ समस्त ज्वरोंको, बिजौरे यदि मर्दितुमिच्छति पायुरुहान् ॥ ६०॥ निम्बूके रसके साथ शूलको, केथा तथा तेन्दूके रसके साथ समस्त बवासीर नष्ट करनेके लिये सेंधानमक, चीतकी जड़, इन्द्रयव, विषोंको, गायके गोबरके रसके साथ समस्त कुष्ठोंको तथा निसोकजा, बकायनके बीज महीन पीस महामें मिलाकर सात दिन | थके काढ़ेके साथ जलोदरको नष्ट करती है । भोजनके अनन्तर तक पीना चाहिये ॥६॥ सेवन करनेसे शीघ्र ही भोजनकी इच्छा उत्पन्न करती है । समस्त नेत्ररोगोंमें शहदमें घिसकर लगाना चाहिये । शहदमें ही मिला नागार्जुनयोगः। चाटनेसे स्त्रियोंका प्रदररोग नष्ट होता है। व्यवहार, यूत, संग्राम त्रिफला पञ्चलवणं कुष्ठं कटुकरोहिणी । तथा शिकार आदिमें इस गोलीको पास रखनेसे शीघ्र ही देवदारुविनानि पिचुमदेफलानि च ॥ ६१॥ | सफलता प्राप्त होती हैं ॥ ६१-७० ॥ बला चातिबला चैव हरिद्रे द्वे सुवर्चला।। एतत्सम्भृत्य सम्भारं कर खत्वग्रसेन च ॥६२॥ विजयचूर्णम् । पिष्ट्वा च गुटिकां कृत्वा बदरास्थिसमां बुधः । त्रिकत्रयवचाहिशुपाठाक्षारनिशाद्वयम् । एकैकां तां समुद्धृत्य रोगे रोगे पृथक् पृथक्॥६॥ चव्यतिक्ताकलिङ्गाग्निशताह्वालवणानि च ॥७॥ उष्णेन वारिणा पीता शान्तमग्निं प्रदीपयेत् ।। प्रन्थिविल्वाजमोदा च गणोऽष्टाविंशतिर्मतः। अशासि हन्ति तक्रेण गुल्ममम्लेन निहरेत् ॥६४॥ एतानि समभागानि लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् ॥७२॥ ततो बिडालपदकं पिबेदुष्णेन वारिणा । १ इस प्रयोगमें आमला व बहेड़ा भी मिलाकर गोली बनानेके लिये ग्रन्थान्तरमें लिखा है । यथा-" गुडव्यो एरंडतेलयुक्तं वा सदा लिह्यात्ततो नरः ॥७३॥ षवराचित्रतिलारुष्कावडंगकैः । कृता तु गुडिका हन्ति गुद- कासं हन्यात्तथा शोथमशीसि च भगन्दरम् । जानि विशेषतः।" हृच्छूलं पार्श्वशूलं च वातगुल्मं तथोदरम् ॥ ७४ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) चक्रदत्तः। [ अशे -- - -- - -- - - - - arrowroom हिक्काश्वासप्रमेहांश्च कामलां पाण्डुरोगताम् । । रसायनवर श्वैष मेधाजनन उत्तमः । आमान्वयमुदावर्तमन्त्रवृद्धिं गुदाक्रिमीन् ॥ ७५ ॥ गुडः श्रीबाहुशालोऽयं दुर्नामारिः प्रकीर्तितः ८८।। अन्ये च ग्रहणीदोषा ये मया परिकीर्तिताः।। महाज्वरोपसृष्टानां भूतोपहतचेतसाम् ।। ७६ ।। । निसोथ, चव्य, जमालगोटाकी जड़ या छोटी दन्ती, गोखुरू, चीतकी जड़, कचूर, इन्द्रायणकी जड़, नागरमोथा, अप्रजानां तु नारीणां प्रजावर्धनमेव च। | सोंठ, वायविडंग, हरड़ प्रत्येक ४ तोला, भिलावां ३२ तोले, विजयो नाम चूर्णोऽयं कृष्णात्रेयण पूजितः ॥७७॥ विधायरा २४ तोला, जमीकन्द ६४ तोला सब दुरकुचाकर २ त्रिकटु, त्रिफला तथा त्रिमद ( नागरमोथा, चीतकी जड.. द्रोण जलमें पचाकर चतुर्थांश शेष रख, छानकर क्वाथ्य औषधियोंसे वायविडंग) वच मीठी, भुनी हीङ्ग, पाढ़, यवाखार, हल्दी, त्रिगुण (अर्थात् ४९२ तोला ) गुड मिलाकर अवलेह बनाना दारुहल्दी, चव्य, कुटकी, इन्द्रयव, चीतकी जड़, सौंफ, पांचों | चाहिये । जब गाढ़ा हो जाय, तब उतारकर निम्न लिखित नमक, पिपरामूल, बेलका गूदा, अजबाइन यह अट्ठाइस चीजें औषधियोंका चूर्ण छोड़ना चाहिये । निसोथ, चव्य, जमीकन्द प्रत्येक समान भाग ले.महीन चूर्ण कर १ तोलाकी मात्रा गरम | चीतकी जड़ प्रत्येक ८ तोला, इलायची, दालचीनी, काली जलके साथ सेवन करना चाहिये । अथवा एरण्डतैल मिलाकर | मिर्च तथा गजपीपल प्रत्येक २४ तोला का चूर्ण बना छोड़कर चाटना चाहिये । यह चूर्ण कास, सूजन, हृद्रोग, अर्श, भगन्दर, | रखना चाहिये । फिर मात्रासे इसका सेवन करना चाहिये । हजम पसलियोंका दर्द, वातगुल्म, उदररोग, हिक्का, श्वास. प्रमेह, हो जानेपर दूध तथा मांस रसादि सेवन करना चाहिये । यह कामला, पाण्डुरोग, आमयुक्त उदावर्त, अन्त्रवृद्धि, गुदाके कीडे | पाचागुल्म, प्रमेह, पाण्डुरोग, हलीमक, अर्श, उदररोग, ग्रहणी, तथा ग्रहणीदोषोंको नष्ट करता है । ज्वर तथा भूतोन्मादसे | यक्ष्मा, पानस, प्रतिश्याय तथा ऊरुस्तम्भको नष्ट करता है । यह पीड़ित तथा वन्ध्या स्त्रियोंके लिये परम उपकारी है । यह समस्त रोगोंमें लाभ पहुंचाता है पर अर्शको विशेषतया नष्ट 'विजयचूर्ण' भगवान् पुनर्वसुने कहा है ॥ ७१-७७ ॥ करता है। यह हजारों बारका अनुभूत है । इसके प्रयोग करने वाले १०० वर्षतक नीरोग होकर जीते हैं। यह आयुको बढ़ाता, बाहुशालगुडः। झरियों तथा बालों की सफेदीको नष्ट करता तथा मेधाको बढ़ाता है । यह अर्शको नष्ट करने में श्रेष्ठ 'बाहुशालनामक गुड ' उत्तम त्रिवृत्तेजोवती दन्ती श्वदंष्ट्रा चित्रकं शटी। रसायन है॥७८-८८ ॥ गवाक्षीमुस्तविश्वाह्रविडंगानि हरीतकी ॥७८ ॥ पलोन्मितानि चतानि पलान्यष्टावरुष्करात् । गुडपाकपरीक्षाः। षट्पलं वृद्धदारस्य सुरणस्य तु षोडश ॥ ७९ ॥ तोयपूर्णे यदा पात्रे क्षिप्तो न प्लवते गुडः । जलद्रोणद्वये काथ्यं चतुर्भागावशेषितम् । क्षिप्तश्च निश्चलस्तिष्ठेत्पतितस्तु न शीर्यते ॥ ८९॥ पूतं तु तं रसं भूयःकाथ्येभ्यस्त्रिगुणो गुडः ।।८०॥ यदा दर्वीप्रलेपः स्याद्यावद्वा तन्तुली भवेत् । लेहं पचेत्तु तं तावद्यावद्दप्रिलेपनम् । एष पाको गुडादीनां सर्वेषां परिकीर्तितः ॥ ९० ॥ अवतार्य ततः पश्चाच्चूर्णानीमानि दापयेत् ॥ ८१॥ सुखमदः सुखस्पर्शो गुडः पाकमुपागतः । पीडितो भजते मुद्रां गन्धवर्णरसान्वितः ॥ ९१ ॥ त्रिवृत्तेजोवतीकन्दचित्रकान्द्विपलांशिकान् । जलसे भरे हुए पात्रमें छोड़नेपर जब उतरावे नहीं और एलात्वङ्मरिचं चापि गजाह्वां चापि षट्पलाम्८२] जहां गिरे वहीं बैठ जावे तथा जलमें फैले नहीं और कलछीमें द्वात्रिंशतं पलान्येवं चूर्ण दत्त्वा निधापयेत् । । चपकने लग जावे अथवा तार बन्धने लग जावें तथा मर्दन नतो मात्रां प्रयुजीत जीर्ण क्षीररसाशनः ।। ८३ ।। करनेमें. स्पर्श करनेमें अच्छा प्रतीत हो और दो अंगुलियोंक पञ्च गुल्मान्प्रमेहांश्च पाण्डुरोगं हलीमकम् । बीचमें दबानेसे अंगुलियोंकी रेखायें बनजावें तथा गन्ध वर्ण व जयेदर्शासि सर्वाणि तथा सर्वोदराणि च ।। ८४ ॥ रस उत्तम हो, तब समझना चाहिये कि गुड़ पाक दीपयेद ग्रहणीं मन्दा यक्ष्माणं चापकर्षति । उत्तम हुआ ॥ ८९-९१ ॥ पीनसे च प्रतिश्याये आढयवाते तथैव च ॥८५॥ अयं सर्वगदेष्वेव कल्याणो लेह उत्तमः । गुडभल्लातकः। दुर्नामारिरयं चाशु दृष्टो वारसहस्रशः ॥८६॥ भल्लातकसहस्र द्वे जलद्रोणे विपाधयेत् । भवन्त्येनं प्रयुञ्जानाः शतवर्ष निरामयाः। | पादशेषे रसे तस्मिन्पचेद् गुडतुलां भिषक् ॥ ९२॥ आयुषो दैर्घ्यजननो वलीपलितनाशनः ॥ ८७॥ भल्लातकसहस्रार्ध छित्त्वा तत्रैव दापयेत् । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। - सिद्धेऽस्मित्रिफलाव्योषयमानीमुस्तसैन्धवम् ॥९३॥ दशमूल, गुर्च, भारङ्गी, गोखुरू, चीतकी जड़, कचूर प्रत्येक कांशसंमितं दद्यात्त्वगेलापत्रकेशरम् । द्रव्य ४ तोला, भल्लातक अधकुटे १००० एक हजार सब एक खादेदग्निबलापेक्षी प्रातरुत्थाय मानवः ॥ ९४ ॥ द्रोण जलमें पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छान ५ कुष्ठार्शःकामलामेहग्रहणीगुल्मपाण्डुताः । सेर गुड़ छोड़कर पकाना चाहिये। जब अवलेह तैयार हो जावे, तो हन्यात्प्लीहोदरं कासक्रिमिरोगभगन्दरान् ।। ठण्ढाकर शहद १६ तोला, छोटी पीपलका महीन चूर्ण १६ | तोला, शुद्ध एरण्डतैल १६ तोला, दालचीनी १६ तोला, तेजगडभल्लातको ह्येष श्रेष्ठश्वार्थीविकारिणाम् ॥९५॥ |पात १६ तोलां, छोटी इलायची १६ तोला, सबका महीन धकुटे शुद्ध भल्लातक २००० दो हजार एक द्रोण जलमें चूर्ण छोड़कर रख लेना चाहिये । यह अर्श, कास, उदावर्त, पकाना चाहिये । चतुर्थीश शेष रहनेपर उतार छानकर ५ सेर पाण्डुरोग, शोथ, अग्निमान्द्यको नष्ट करता है । मात्रादि ऊपरके गुड़ तथा ५०० पांच सौ भिलावा कूटे हुए डालकर पकाना प्रयोगके अनुसार है ॥ ९६-९९ ॥ चाहिये । पाक तैयार हो जानेपर त्रिफला, त्रिकटु, अजवाइन, नागरमोथा, सेंधानमक, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नाग चव्यादिघृतम्। केशर-सब एक एक तोला ले चूर्ण बना (कपड़छान किया )। चव्यं त्रिकटुकं पाठां क्षारं कुस्तुम्बुरूणि च । छोड़ उतारकर रख लेना चाहिये । अग्नि तथा बलके अनुसार यमानी पिप्पलीमलमुभे च विडसैन्धवे ॥१०॥ इसकी मात्राका प्रातःकाल सेवन करना चाहिये। यह कुष्ठ, अश, चित्रकं बिल्वमभयां पिष्टवा सपिर्विपाचयेत् । कामला, प्रमेह, ग्रहणी, गुल्म, पाण्ड, प्लीहोदर, कास, क्रिमि.| शकृद्वातानुलोम्याथै जातं दनि चतुर्गुणे ॥१७१॥ रोग तथा भगन्दरको नष्ट करता है। तथा अर्शरोगवालों के लिये प्रवाहिकां गुदभ्रंशं मूत्रकृच्छ्रे परिस्रवम् । विशेष हितकर है॥ ९२-९५॥ गुदवंक्षणशूलं च घृतमेतद्वथपोहति ॥ १०२ ॥ द्वितीयगुडभल्लातकः। चव्य, सोंठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, पाढ़, यवाखार, दशमूल्यमृता भाी श्वदंष्ट्रा चित्रकं शटी। धनियां, अजवाइन, पिपरामूल, विडनमक, सेंधानमक, चीतकी भल्लातकसहस्रं च पलांशं काथयेद् बुधः ॥९६ ॥ जड़, बेलका गूदा, बड़ी हर्रका छिल्का सबका कल्क तथा चतुपादशेषे जलद्रोणे रसे तस्मिन्विपाचयेत् । र्गुण दही तथा चतुर्गुण जल मिलाकर घृत पकाना चाहिये। यह दत्त्वा गुडतुलामेकां लेहीभूतं समुद्धरेत् ॥९७ ॥ घृत प्रवाहिका, गुदन्नंश, मूत्रक्लच्छ्र, दस्तोंका आना, गुदा तथा माक्षिकं पिप्पली तैलमारुबूकं च दापयेत् । वंक्षणके शूलको नष्ट करता है ॥ १००-१०२॥ कुडवं कुडवं चात्र त्वगेलामरिचं तथा ॥ ९८ ॥ पलाशक्षारघृतम् । अर्शः कासमुदावर्त पाण्डुत्वं शोथमव च । व्योषगर्भ पलाशस्य त्रिगुणे भस्मवारिणि । नाशयेद्वह्रिसादं च गुडभल्लातकः स्मृतः ॥९९॥ साधितं पिबतः सपिः पतन्त्यस्यसंशयम् १०३।। घृतसे त्रिगुण पलाशक्षार जल, घृतके समान जल और चतु१ इसकी मात्रा ६ माशेसे प्रारम्भ कर २ तोला तक क्रमशः थोश सोंठ, मिर्च, पीपलका कल्क छोड़कर पकाया गया घृत बढाना चाहिये, और तैल, मिर्चा( लाल ) खटाई, गुड़ आदि सेवन करनेसे अर्शके मस्सोंका अवश्य पातन होता है ॥१०३ ॥ गरम चीजोंका परहेज रखना चाहिये तथा प्रतिश्यायमें नहीं। खाना चाहिये और धूपमें कम निकलना चाहिये। __उदकषट्पलकं घृतम् । सक्षारैः पञ्चकोलेस्तु पलिकेत्रिगुणोदके । २ भल्लातकके अनेक प्रयोग अनेक ग्रन्थों में कुछ पाठान्तर समक्षीरं घृतप्रस्थं ज्वरार्शः प्लीहकासनुत् ॥१०४॥ या प्रकरणान्तरसे हैं और सभी रसायन वाजीकरण बताये गये हैं। यथा-योगरत्नाकरवाजीकरणाधिकारमें अमृतभल्लातकतथा अर्शोs Is भल्लातककी छीटे आदि पड़ जानेसे शोथ हो जावे, तो धिकारमें भल्लातकावलेह, गदनिग्रह, लेहाधिकार इत्यादि । पर | करना चाहिये। भल्लातक सेवन करानेके समय यह ध्यान रखना चाहिये कि. करना किसी किसीको भल्लातकसे शोथ हो जाता है, अतः जिसे शोथ। १ क्षारपक्वघृतलक्षणम्-“यस्मिन्नवसरे क्षारतोयसाध्यघृतादिषु । हो जावे, उसे इसका सेवन न कराना चाहिये । तथा भल्लातक-| फेनोद्गमस्य निर्वृत्तिनष्टदुग्धसमाकृतिः ॥ स एव तस्य पाकस्य दोषनाशार्थ कच्ची गरी खिलाना चाहिये । और काले तिल व कालो नेतरलक्षणः ।" अर्थात् क्षारजलसाध्य घृतोंमें जब फेनोद्गम गरीका उबटन लगवाना चाहिये । तथा इमलीके पत्तेसे गरम हो जावे और बिगडे दूधके समान उसकी आकृति हो जावे, जलसे स्नान कराना चाहिये । यही विधि यदि बनाते समय | तभी सिद्ध घत ससझना चाहिये । दूसरा लक्षण नहीं। . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) चक्रदत्तः। [अर्शो पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चीतकी जड़, सोंठ तथा यव- निकलना, शूल, मूत्रकृच्छ्र, प्रवाहिका, कमर, ऊरु और पीठकी क्षार प्रत्येक एक पल, घत एक प्रस्थ, दूध एक प्रस्थ तथा जल दुर्बलता, अफारा, लासेदार दस्तोंका आना, गुदाकी सूजन, ३ प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये, घत मात्र शेष रहनेपर उतार मल तथा वायुका विबन्ध तथा दोषयुक्त बहुत दस्तोंका आना छानकर रखना चाहिये। यह घृत ज्वर, अर्श, प्लीहा तथा आदि रोगोंको नष्ट करता है ॥ १०७-११० ॥ कासको नष्ट करता है ॥ १०४ ॥ रक्तार्शश्चिकित्सा। सिंह्यमृतं घृतम् । रक्तार्शसामुपेक्षेत रक्तमादी स्रवद्भिषक् । पचेद्वारिचतुद्रोणे कण्टकार्यमृताशतम् । दुष्टाने निगृहीतेतु शूलानाहावमृगगदाः ।। १११॥ तत्राग्नित्रिफलाव्योषपूतिकत्वक्कलिंगकैः ॥१०५॥ बहते हुए रक्तकी प्रथम उपेक्षा ही करना चाहिये । क्योंकि सकाश्मयविडंगैस्तु सिद्धं दुर्नाममेहनुत् । दुष्ट रक्त रोक देनेसे शुल होजाता है तथा रक्तजन्य अन्य रोग घृतं सिंह्यमृतं नाम बोधितत्त्वेन भाषितम् ।।१०६॥ | भी हो जाते हैं ॥ १५१ ॥ छोटी कटेरीका पञ्चांग ५ सेर, गुर्च ५ सेर, जल ५१ सेर रक्तस्रावनी पेया। १६ तोला छोड़कर पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर लाजैः पेया पीता चुक्रिकाकेशरोत्पलैः। उतार छानकर घृत ३ सेर १६ तोला तथा नीचे लिखी ओषधियोंका मिलित कल्क एक प्रस्थ छोड़कर पकाना चाहिये ।। हन्त्यस्रस्ताव सा तथा बलाश्निपर्णीभ्याम्॥११२॥ कल्क द्रव्य-(चीता, त्रिफला, त्रिकटु, कञ्जाकी छाल, इन्द्रयव, अमलोनिया, नागकेशर तथा नीलोफरके जलमें अथवा खम्भारकी छाल, वायविडंग)। यह घृत अर्श तथा प्रमेहको ख खरेटी और पिठिवनके जलमें धानकी खीलसे बनायी गयी पेया नष्ट करता है। इसका सर्व प्रथम किसी बौद्ध महात्माने प्रचार सेवन करनेसे रक्तस्राव नष्ट होता है ॥ ११२॥ किया था॥१०५॥१०६ ॥ रक्ताशीनाशकसामान्ययोगाः। पिप्पलाद्यं तैलम्। शंक्रकाथः सविश्वो वा किंवा बिल्वशलाटवः । पिप्पली मधुकं बिल्वं शताहां मदनं वचाम् । । योज्या रक्तार्शसांतद्वज्योत्स्निकामूललेपनम्॥११३।। कुष्ठं शटी पुष्कराख्यं चित्रकं देवदारु च ॥१०७।। नवनीततिलाभ्यासात्केशरनवनीतशर्कराभ्यासात् । पिष्टवा तैलं विपक्तव्यं द्विगुणक्षीरसंयुतम् । दधिसरमथिताभ्यासाद्गुदजाः शाम्यन्ति रक्तवहाः१४ अर्शसां मूढवातानां तच्छ्रेष्ठमनुवासनम् ॥ १०८ ॥ समंगोत्पलमोचाह्वतिरीटतिलचन्दनैः। गुदनिःसरणं शूलं मूत्रकृछं प्रवाहिकाम् । छागक्षीरं प्रयोक्तव्यं गुदजे शोणितापहम् ॥ ११५ ॥ कट्यूरुपृष्ठदौर्बल्यमानाहं वङ्क्षणाश्रयम् ॥१०९॥ पिच्छास्रावं गुदे शोथं वातवर्धेविनिप्रहम् ।। |-वचाबिल्वहुताशनैः । सुपिष्टं द्विगुणं क्षीरं तैलं तोयं चतुर्गुणम् । उत्थानं बहुदोषं च जयेच्चैवानुवासनात् ॥११०॥ पक्त्वा बस्ती निधातव्यं मूढवातानुलोमनम् । " एतदनुसारेण 'तच्छ्रेष्ठमनुवासनम् ' इत्यस्य स्थानेऽपि तच्छ्रेष्ठमनुलोमनम् । छोटी पीपल, मौरेठी, बेलका गूदा, सौंफ, मैनफल, वच | अर्थात् इसी सिद्धान्तसे 'तच्छ्रेष्ठमनुवासनम् ' इसके स्थानमें भी दूधिया, कूठ, कचूर, पोहकरमूल, चीतकी जड़, देवदारु-सब समान भाग ले कल्क बनाकर कल्कसे चतुर्गुण तेल और तैलसे ।' तच्छेष्टमनुलोमनम् ' यही होना चाहिये । यदि यह कहो कि यह तैल अनुवासनके लिये है, तो यह अर्थ 'जयेचैवानुवासनात्' द्विगुण दुग्ध और दुग्धसे द्विगुण जल मिलाकर पका लेना चाहिये। यह तैले अनुवासनसे अर्श, वायुकी रुकावट, कांच |से ही सिद्ध हो जायगा । और अनुवासन दो बार लिखनेसे पुनरुक्ति दोष भी आता है। १ यद्यपि इस ग्रयोगमे । एफेनापि चातुर्गुण्यं द्वाभ्यामपि १ यहां "शक" शब्दका अर्थ निश्चल नामक आचार्यके सिद्धाचातुर्गुण्यम् ' इस परिभाषाके अनुसार द्विगुण ही जल सिद्ध |न्तसे लिखा गया है और वह विशेषतया रक्तसंग्राहक है । पर होता है, पर कुछ आचार्योंका मत है कि-"क्षीरदध्यारनालस्तु शक्रका अर्थ इन्द्रयव (कुटजबीज ) न होकर कुटजछाल ही पाको यत्रेरितः क्वचित् । जलं चतुर्गुणं तत्र वीर्याधाना- होता है और चरकमें लिखा भी है " कुटजत्वनियूहः सनागरः र्थमावपेत् ॥” यही उचित भी है क्योंकि यही प्रयोग- स्निग्धो रक्तसंग्रहणः" । और वाग्भटमें भी इसीका अनुवाद सुश्रुतमें लिखा है । वहांपर कण्ठरवसे ही चतुर्गुण जल लिखा है। किया गया है । यथा-सकफे प्रपिबेत्पाक्यं शुण्ठीकुटजयथाशीनुष्करणालामदनामरदारुभिः । शताबकुष्ठयष्टयाह्व- वल्कजम् इति दिक् । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। इन्द्रयवका क्वाथ सोंठके चूर्णके साथ अथवा बेलके कच्चे कुटजरसक्रिया। गूदेका क्वाथ पीनेसे और कड़वी तोरईकी जड़ पीसकर लेप करनेसे "रक्तार्श" नष्ट होता है। इसी प्रकार मक्खन व कालेतिला कुटजत्वचो विपाच्यं शतपलमा महेन्द्रसलिलेन। अथवा कमलका केशर अथवा नागकेशर, मक्खन व मिश्री| यावत्स्यादरसं तद् द्रव्यं स्वरसस्ततो ग्राह्यः ॥ १२३ ॥ अथवा दहीका तोड़ व मथे हुए दही (विना मक्खन निकाले मोचारस: समंगा फलिनी च पलांशिभित्रिमिस्तैश्च । मठे ) के साथ सेवन करनेसे 'रक्तार्श' शान्त होता है। इसी वत्सकबीजं तुल्यं चूर्णीकृतमत्र दातव्यम् ॥ १२४ ॥ प्रकार मजीठ, नील कमल, मोचरस, लोध, काले तिल व चन्द- पूतोत्कथितः सान्द्रः सरसो दर्वीप्रलेपनो ग्राह्यः। नसे सिद्ध अजादुग्धके पीनेसे रक्तार्शसे वहनेवाला खून बन्द होता| मात्राकालोपहिता रसक्रियैषा जयत्यसृक्स्रावम्।।१२५ है । अथवा उपरोक्त औषधियोंका चूर्ण बकरीके दूधके साथ सेवन | छागलीपयसा युक्ता पेया मण्डेन वा यथाग्निबलम् । करना चाहिये ॥ ११३-११५॥ जीर्णौषधश्च शालीन्पयसा कथितेन भुञ्जीत ॥२२६ ॥ कुटजावलेहः। रक्तगुदजातिसारं शूलं सामृगुजो निहन्त्याशु। बलवच्च रक्तपित्तं रसक्रियैषा ह्युभयभागम् ॥ १२७ ॥ कुटजत्वकपलशतं जलद्रोणे विपाचयेत। ___गीली कुड़ेकी छाल ५ सेर आकाशसे बसे हुए एक द्रोण अष्टभागावशिष्टं तु कषायमवतारयेत् ॥११६॥ परिमित माहेंद्र जलमें पकाना चाहिये । जब छालका रस जलमें वस्त्रपूतं पुनः काथं पचेल्लेहत्वमागतम् । आ जावे, तब उतार छानकर गाढ़ा करना चाहिये । गाढ़ा हो जानेपर मोचरस, मजीठ, प्रियङ्गु प्रत्येक ४ तोले, इन्द्रयव १२ भल्लातकं विडंगानि त्रिकटु त्रिफलां तथा ॥११॥ तोला चूर्णकर छोड़ना चाहिये । इसकी मात्रा प्रातःकाल बकरसाजनं चित्रकं च कुटजस्य फलानि च । रीके दध या मण्डके साथ सेवन करनेसे रक्तस्रावको बन्द वचामतिविषां बिल्वं प्रत्येकं च पलं पलम् ॥११८॥ करती है । औषध पच जानेपर शालि चावलोंका भात त्रिंशत्पलानि गुडतः चूर्णीकृत्य निधापयेत् । गरम किये दूधके साथ खाना चाहिये । रक्तार्श, शूल मधुनः कुडवं दद्याद् घृतस्य कुडवं तथा ॥ ११९ ॥ तथा रक्तका बहना तथा बलवान् रक्तपित्त इससे नष्ट होता एष लेहः शमयति चार्मो रक्तसमुद्भवम् । है ॥ १२३-१२७॥ वातिक पैत्तिकं चैव श्लैष्मिकं सान्निपातिकम्॥१२०/ कुटजाद्यं घृतम् । ये च दुर्नामजा रोगास्तान्सर्वान्नाशयत्यपि । | कुटजफलत्वक्केशरनीलोत्पललोध्रधातकीकल्कैः । अम्लपित्तमतीसारं पाण्डुरागमरोचकम् । ग्रहणीमार्दवं कार्य श्वयथु कामलामपि ॥१२१ ॥ ../सिद्धं घृतं विधेयं शूले रक्तार्शसां भिषजा ॥ १२८ ॥ इन्द्रयव, कुड़ेकी छाल, नागकेशर, नीलोफर, पठानी लोध. अनुपानं घृतं दद्यान्मधु तकं जलं पयः। धायके फूल, इनका कल्क तथा कल्कसे चतुर्गुण घृत और घृतसे रोगानीकविनाशाय कौटजो लेह उच्यते ॥ १२२॥ चतर्गण जल मिलाकर सिद्ध किया गया घृत रक्तार्शको नष्ट करता है ॥ १२८ ॥ कुडेकी छाल ५ सेर, जल २५ सेर ४८ तोलामें पकाना चाहिये । अष्टमांश शेष रहनेपर उतार छानकर १॥ सेर गुड़ सुनिषण्णकचांगेरीघृतम् । और १६ तोले घी मिलाकर पकाना चाहिये । जब लेह सिद्ध| अवाक्पष्पी बला दार्वी पृश्निपी त्रिकण्टकम् । हो जाय, तो भिलावां, वायविडंग त्रिकटु, त्रिफला, रसौत, न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थशुङ्गाश्च द्विपलोन्मिताः॥१२९॥ चीतकी जड़, इन्द्रयव, बच, अतीस, बेलका गूदा प्रत्येक चार । कषाय एष पेष्यास्तु जीवन्ती कटुरोहिणी । चार तोला छोड़ उतार लेना चाहिये । ठण्डा हो जानेपर शहद १६ तोला छोड़कर रख लेना चाहिये । यह लेह रक्तार्श, पिप्पली पिप्पलीमूलं मरिचं देवदारु च ॥ १३०।। वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक, सानिपातिक तथा सहज अर्शको भी नष्ट करता है। और अम्लपित्त, अतीसार, पाण्डरोग, अरोचक, १ माहेन्द्र-सलिल ग्रहण करनेकी विधि यह है कि घृष्टि ग्रहणीरोग, दुर्बलता, सूजन, कामलाको भी नष्ट करता है। प्रारम्भ होनेके डेढ़ घंटे बाद आकाशसे बरसता हुआ अनुपानके लिये गोघृत, शहद, मट्ठा, जल अथवा दूध जो जल साफ बर्तन में लेना चाहिये । यदुक्तम्-" यामाोध उचित हो, देना चाहिये । यह “कुटजावलेह रोगसमूहको | गृहीतं यदू वृष्टिप्रारम्भकालतः। शुद्धपात्रे वृष्टिजलं तन्माहेन्द्रनष्ट करता है ॥ ११६-१२२ ॥ |जलं मतम् । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [अर्शी W ww ww -ore ख orror छ 80 कलिङ्गं शाल्मलीपुष्पं वीरा चन्दनमञ्जनम् । । __ आढकं त्वेकमादाय जलद्रोणे पचेद्भिषक् । कट्फलं चित्रक मुस्तं प्रियङ्ग्वतिविषे स्थिरा ॥१३१/ चतुर्भागावशिष्टेन वस्त्रपूतेन वारिणा ॥ १३९ ॥ पद्मोत्पलानां किञ्जल्कः समंगा सनिदिग्धिका। शहचर्णस्य कुडवं प्रक्षिप्य विपचेत्पुनः । बिल्वं मोचरसंपाठाभागाः स्युः कार्षिकाः पृथक्१३, शनैः शनैस्तु मृद्वग्नौ यावत्सान्द्रतनुर्भवेत् ॥ १४०॥ चतुष्प्रस्थशृतं प्रस्थं कषायमवतारयेत् । । सर्जिकाया सर्जिकायावशूकाभ्यां शुण्ठी मरिचपिप्पली । त्रिंशत्पलानि तु प्रस्थो विज्ञेयो द्विपलाधिकः ॥१३३/ वचा चातिविषा चैव हिंगुचित्रकयोस्तथा ॥१४१॥ सुनिषण्णकचाङ्गर्योः प्रस्थौ द्वौ स्वरसस्य च। एषां चूर्णानि निक्षिप्य पृथक्त्वेनाष्टमाषकम् । सँवरेतैर्यथोद्दिष्टघृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ १३४ ॥ दया संघट्टितं चापि स्थापयेदायसे घट । एतदर्शःस्वतीसारे त्रिदोषे रुधिरसुतौ । एष वह्निसमः क्षारः कीर्तितः काश्यपादिभिः॥१४॥ प्रवाहणे गुदभ्रंशे पिच्छासु विविधासु च ॥ १३५॥ अच्छे दिन तथा मुहूर्तमें मालाचरण आदि करके इतना उत्थाने चापि बहुशः शोथशूलगुदामये । काला मोखा लाकर जलाना चाहिये कि एक आढ़क अर्थात् मूत्रग्रहे मूढवाते मन्दानावरुचावपि ॥ १३६॥ तीन सेर १६ तोला भस्म तैयार हो जावे । फिर उस भस्मको प्रयोज्यं विधिवत्सर्पिबलवर्णाग्निवधनम् । एक द्रोण अर्थात् १२ सेर ६४ तोला जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार कर कई बार छान लेना चाहिये । विविधेष्वन्नपानेषु केवलं वा निरत्ययम् ।। १३७ ।। फिर उस जलमें १६ तोला शंखकी भस्मका चूर्ण छोड़कर मन्द सौंफ या सोवाके बीज, खरेंटीके बीज, दारुहल्दा, पिठिवन, आंचसे पकाना चाहिये, जब तक कि कुछ गाढ़ा न हो जाय । गोखरू, बरगद, गूलर, पीपलके नवीन अंकुर प्रत्येक ८ तोला, पुनः सजीखार, यवाखार, सोंठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, ६ सेर ३२ तोला जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर दूधिया बच, अतीस, भुनी हींग, चीतकी जड़ प्रत्येकका चूर्ण उतारकर छान लेना चाहिये । फिर इतना ही पतियाका स्वरस ६ माशे ( वर्तमानतोलसे ) छोड़ कलछीसे चलाकर लोहपात्रमें और इतना ही अमलोनियाका स्वरस तथा इतना ही धृत और रखना चाहिये। यह अग्निके समान तेज क्षार काश्यपादि इतनाही जल तथा नीचे लिखी ओषधियोंका कल्क छोड़कर घृत सिद्ध | महर्षियोंने बतलाया है ॥ १३८-१४१॥ करना चाहिये। कल्कद्रव्य-जीवंती,कुटकी, छोटीपीपल,पिपरामूल, प्रतिसारिणीयक्षारविधिः। काली मिर्च, रसौत, देवदारु, इन्द्रयव, सेमरक फूल, शतावरी,|. लाल चन्दन, कायफल, चीतकी जड़, नागरमोथा, प्रियङ्गु, तोये कालकमुष्ककस्य विपचेद्भस्माढ षड्गुणे । अतीस, शालपर्णी, नील कमलका केशर, मीठ, छोटी कटेरी, पात्रे लोहमये दृढे विपुलधीर्दा शनैर्घट्टयन् । बेलगिरी, लाल कमल तथा मोचरस और पाढ प्रत्येक एक एक | दग्ध्वाग्नी बहुशतनाभिशकलान्पूतावशेषे क्षिपेतोला ले कल्क बना कर छोड़ना चाहिये । त्रिदाषज अतिसार, धोरण्डजनालमेष दहति क्षारो वरो वाक्शतात् ॥१४३ रक्तस्राव, प्रवाहिका, गुदभ्रंश, लासेदार दस्तोंका आना, बहुत | प्रायस्त्रिभागाशष्टेऽस्मिन्नच्छपैच्छिल्यरक्तता। दस्तोंका आना, सूजन, शूल, अश, मूत्रावरोध, वायुकी रुकावट, सजायते तदा स्राव्यं क्षाराम्भो ग्राह्यमिष्यते ॥१४४॥ मन्दाग्नि, अरुचि आदि रोगोंमें अनेक प्रकारक अन्न पाना देके तर्येणाष्टमकेन षोडशभवेनांशेन संव्यूहिमो । साथ अथवा केवल इस घृतका प्रयोग करना चाहिये १२९-१३७ मध्यः श्रेष्ठ इति क्रमेण विहितःक्षारोदकाच्छंखकः१४५ क्षारविधिः। काले मोखाकी भस्म ३ सेर १६ तोला, जल षड्गुण छोड़प्रशस्तेऽहनि नक्षत्रे कृतमंगलपूर्वकम् । कर मजबूत लोहेकी कढ़ाईमें कल्छीसे धीरे धीरे चलाते हुए कालमुष्ककमाहृत्य दग्ध्वा भस्म समाहरेत् ॥१३८॥ पकाना चाहिये । तृतीयांश शेष रहनेपर उतार छान शंखकी नाभिकी भस्म छोड़कर पुनः उस समय तक पकाना चाहिये १" चतुगुणं त्वष्टगुणं द्रवद्वैगुण्यतो भवेत् " इस परिभाषाके कि एरन्डनाल इसमें १०० मात्रा उच्चारण काल तक रखनेसे अनुसार यद्यपि ४ प्रस्थका प्रस्थ ही लिया जाता अर्थात् ३२ जल जाय । यह उत्तम क्षार होगा । प्रायः तृतीयांश पलका ही द्रवद्रव्यका प्रस्थ माना जाता है, फिर “त्रिंशत्पलानि क्षारजल रह जानेपर स्वच्छता, लालापन तथा लालिमा आतु प्रस्थो विज्ञयो द्विपलाधिकः " इससे सिद्ध होता है कि द्रव-जाती है। उस समय छानकर क्षारजल लेना चाहिये । क्षारोद्वैगुण्य कारक परिभाषा अनित्य है अर्थात् सब जगह नहीं लगती। दकसे चतुर्थाश, अष्टमांश, षोडशांश शंख भस्म छ उनसे पर कुछ आचायोंका मत है कि इसे शिष्योंके सुगम बोधार्थ क्रमशः संव्यूहिम ( अर्थात्-मृदु ) मध्यम तथा श्रेष्ठ क्षार ही लिखा है। बनता है ॥ १४२-१४५॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] · भाषाटीकोपेतः । क्षारपाकनिश्चयः । नातिसान्द्रो नातितनुः क्षारपाक उदाहृतः । दुर्नामक दो निर्दिष्टः क्षारोऽयं प्रतिसारणः ॥ १४६॥ पानीयो यस्तु गुल्मादी तं वारानेकविंशतिम् । स्रावयेत्षड्गुणे तोये केचिदाहुचतुर्गुणे ॥ १४७ ॥ प्रतिसारण ( लगानेवाला ) क्षार न बहुत पतला न बहुत गाढ़ा पकाना चाहिये । अर्श आदिपर इसका प्रयोग होता है । पीनके योग्य जो गुल्मादि नाशार्थं क्षारं बनाया जाता है, उसमें भस्म षड्गुण या चतुर्गुण जलमें २१ वार छान ली जाती है ॥ १४६ ॥ १४७ ॥ क्षारसूत्रम् । वितं रजनी चूर्णैः स्नुहीक्षिीरे पुनः पुनः । बन्धनात्सुदृढं सूत्रं भिनत्त्यर्शो भगन्दरम् ॥१४८॥ हल्दी के चूर्णके साथ थूहरके दूधमें अनेक बार भावित सूत्र कसकर अर्शके ऊपर बांध देनेसे अर्श कटकर गिर जाता है ॥ १४८ ॥ क्षारपातनविधिः । प्राग्दक्षिणं ततो वामं पृष्ठजं च (प्रजं क्रमात् । पञ्चतिक्तेन संस्निह्य दहेत्क्षारेण वह्निना ॥ १४९ ॥ वातजं श्लेष्मजं चारों: क्षारेणास्रजपित्तजे । महान्ति तनुमूलानि छिन्त्वैव बलिनो दहेत् ॥ १५०॥ चर्मकील तथा छित्त्वा दहेदन्यतरेण वा । पक्कजम्बूपमो वर्णः क्षारदग्धः प्रशस्यते ॥ १५१ ॥ गोजीशेफालिकापत्रैरर्शः संलिख्य लेपयेत् । क्षारेण वाक्शतं तिष्ठेद्यन्त्रद्वारं पिधाय च ॥ १५२॥ १ क्षारविधि सुश्रुत तथा वाग्भटसे विस्तारपूर्वक समझनी चाहिये । यहां सामान्य वर्णन किया गया । पानीय क्षारमें विशेषता यह है कि कुछ आचार्यों का मत है कि चतुर्गुण या षड्गुण जलमें २१ बार छान लेनेसे ही पानीय क्षार तयार हो जाता पर कुछ आचार्यों का मत है कि भस्मको चतुगुण जलमें २१ बार छानकर छना हुआ जल कल्क सहित पकाना चाहिये, आधा बाकी रहनेपर कल्क पृथक् कर २१ बार छान लेना चाहिये । यही विधि विश्वामित्रने भी लिखी है । यथा - " पानाय भावनायाथ परिस्राव्यं चतुर्गुणे । जले चार्घावशिष्टे च क्षाराम्भो ग्राह्यमिष्यते ॥ " पानीथक्षारकी मात्रा पल, तीन कर्ष, या अर्द्ध पलरूप श्रीशिवदासजीने लिखी है । पर आजकलके लिये यह भी अधिक है । आजकल ६ माशे १ तोला और २ तोले क्रमशः हीन मध्यम उत्तम मात्रा समझना चाहिये । ( ५५ ) प्रथम दक्षिणसे क्षार कर्म या दाह प्रारम्भ करना चाहिये । प्रथम दक्षिण फिर वाम फिर पृष्ठवंशकी ओरका फिर अग्रभागके मस्सेको पश्ञ्चतिक्तघृतसे स्निग्ध कर क्षार अथवा अभिसे वातज या कफज अर्श दागना चाहिये । पित्तसे तथा रक्तसे बड़े हों और उनकी जड़ पतली हो, उन्हें शत्रुद्वारा काट उत्पन्न अर्श क्षारसे दग्ध करना चाहिये । पर जो मस्से कर ही जलाना चाहिये । तथा चर्मकीलको शखसे काटकर क्षार अथवा अग्निसे जला देना चाहिये । क्षारसे जला हुआ यदि पके जामुनके सदृश नीला हो जाय, तो उसे उत्तम समझना चाहिये । अर्शको गाजुवा या सम्भालू आदि किसी कर्कश पत्रसे खुरचकर यन्त्र लगा सलाईसे क्षार लेपकर १०० मात्रा उच्चारण कालतक यन्त्रको बन्द रखन चाहिये ॥ १४९ - १५२ ॥ क्षारेण सम्यग्दग्धस्य लक्षणम् । तं चापनीय वीक्षेत पैक्कजम्बूफलोपमम् । यदि च स्यात्ततो भद्रं नो चेल्लिम्पेत्तथा पुनः ॥ १५३ फिर उस यन्त्रको निकालकर देखना चाहिये । यदि पके जामुनके फलके समान हो गया हो, तो ठीक, अन्यथा फिर उसी प्रकार लेप करना चाहिये ॥ १५३ ॥ क्षारदग्ध उत्तरकर्म | तत्तषाम्बुप्लुतं साज्यं यष्टीकल्केन लेपयेत् । सम्यग्दग्ध व्रणको भूसीयुत धानकी काजीसे सिंचित कर घी चुपर मौरेठीके कल्कका लेप करना चाहिये । अग्निदग्धलक्षणम् । न निम्नं तालवर्णाभं वह्रिदग्धं स्थितासृजम् ॥ सम्यग्दग्धमें नीचा नहीं होता तालके वर्णयुक्त अर्थात् मुलायम सफेदी लिये होता है और रक्त रुक जाता है ॥ १५४ ॥ अग्निदग्ध उत्तरकर्म | निर्वाय मधुसर्पि वह्निसञ्जातवेदनाम् । सम्यग्दग्धे तुगाक्षीरीप्लक्षचन्दनगैरिकैः ॥ १५५ ॥ सामृतेः सर्पिषा युक्तैरालेपं कारयेद्भिषक् । मुहूर्तमुपवेश्योऽसौ तोयपूर्णेऽथ भाजने ।। १५६ ।। १ क्षारदग्ध सम्बन्ध में वाग्भटने लिखा हूं-" पक्कजम्ब्व सितं सन्नं सम्यग्दग्धं विपर्यये । ताम्रतातोदकण्ड्वाद्यैर्दुर्दग्धं त पुनर्दहेत् ॥ अतिदग्धे सवेद्रक्तं मूर्छादाहज्वरादयः । विशेषादत्र सेकोऽम्लैर्लेपो मधु घृतं तिलाः ॥ वातपित्तहरा चेष्टा सर्वैव शिशिरा क्रिया । आम्लो हि शीतः स्पर्शेन क्षारस्तेनोपसंहितः॥ यात्याशु, स्वादुतां तस्मादम्लैर्निर्वापयेत्तराम् ॥ " Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [ अर्शी wrior wrror-arroreverer अग्निसे उत्पन्न हुई पीडाको घी और शहद लगा कर। त्रिफलायाः पञ्च पलं शिलाजतु पलं न्यसेत् । शान्त करना चाहिये । तथा सम्यग्दग्धमें वंशलोचन प्लक्षकी| दिव्यौषधिहतस्यापि वैकंकतहतस्य वा ॥१६२॥ छाल, सफेद चन्दन, गेरू और गुर्च सब महीन पीस घी मिला-| कर लेप करना चाहिये। फिर जलसे भीगे हए टबमें कुछ देर पलद्वादशक देयं रुक्मलौहे सुचूर्णितम् । (दो घड़ीतक ) बैठना चाहिये ॥ १५५॥ १५६ ॥ पलैश्चतुर्विंशतिमिर्मधुशर्करयोर्युतम् ॥ १६३॥ घनीभूते सुशीते च दापयेदवतारिते । उपद्रवचिकित्सा। एतदग्निमुखं नाम दुनोमान्तकरं परम् ॥ १६४॥ क्षारमुष्णाम्बुना पाय्यं विबन्धे मूत्रवर्चसोः।। सममाग्निं करोत्याशु कालाग्निसमतेजसम् । दाहे बस्त्यादिजे लेपः शतधौतेन सर्पिषा ॥१५७॥ पर्वता अपि जीर्यन्ते प्राशनादस्य देहिना ॥ १६५।। नवान्नं माषतकादि सेव्यं पाकाय जानता। गुरुवृष्यान्नपानानि पयोमांसरसो हितः। पिबेद् व्रणविशुद्धयर्थ वराकाथं सगुग्गुलुम् ॥१५८॥ दुर्नामपांडुश्वयथुकुष्ठप्लीहोदरापहम् ।। १६६ ॥ मल और मूत्रकी रुकावटमें गरम जलके साथ क्षार पिलाना | अकालपलितं चैतदामवातगुदामयम् । चाहिये । यदि बस्त्यादिमें जलन हो तो १०० बार धोये नस रोगोऽस्ति यं चापि न निहन्यादिदं क्षणात्१६७ हुए घृतका लेप करना चाहिये । यदि व्रण पकता हुआ जान करीरकाञ्जिकादीनि ककारादीनि वर्जयेत् । पड़े, तो नवान्न, उड़द और मट्ठा आदि सेवन करना चाहिये । व्रणफी शद्धिके लिये त्रिफलाक्वाथ शुद्ध गुग्गुलुके साथ स्रवत्यतोऽन्यथा लौहं देहात्किट्टं च दुर्जरम् ॥१६८ पीना चाहिये ॥ १५७ ॥ १५८ ॥ निसोथ, चीतकी जड़, सम्भालूका पञ्चाङ्ग, थूहर, मुण्डीकी जड़ प्रत्येक आठ पल एक द्रोण जलमें पकाना चाहिये। पथ्यम् । चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर वायविडंग १२ तोला, जीर्णे शाल्यन्नमुद्गादि पथ्यं तिक्ताज्यसैन्धवम् ॥१५९॥ सोंठ, काली मिर्च, छोटी पीपल प्रत्येक तीन तोला, आमला, भूख लगनेपर उत्तम चावलोंका भात, मुंगको दाल, तिक्त हर्र, बहेड़ा प्रत्येक २० तोला, शिलाजतु ४ तोला, मनःशिला औषधियां अथवा उनसे सिद्ध पञ्चतिक्त घृत, सेंधानमक अथवा विकंकतसे भस्म किया हुआ तीक्ष्ण लौह ४८ तोला आदि पथ्य लेना चाहिये ॥ १२९ ॥ छोड़कर पकाना चाहिये । जब गाढ़ा पाक होजाय, तो उतार ठण्ढाकर मधु ४८ तोला और शकर शुद्ध ४८ तोला मिलाकर अनुवासनावस्था। रखना चाहिये । यह · अग्निमुख लौह ' अर्शको नष्ट करनेमें रूढसर्वत्रणं वैद्यः क्षारं दत्त्वानुवासयेत् । उत्तम है, शीघ्र ही समाग्निको दप्ति कर देता है । इसके सेवनसे पिप्पल्याधेन तैलेन सेवेहीपनपाचनम ॥ १६०॥ मनुष्य कठिन चीजोंको भी हजम कर डालता हैं । इसमें समस्त व्रण ठीक हो जानेपर क्षार मिलाकर पिप्पल्यादि | भारी, वाजीकर, अन्नपान दुग्ध तथा मांसरस हितक तैलसे अनुवासन वस्ति देना चाहिये । और दीपन पाचन औष- पाण्डु, सूजन, कुष्ठ तथा प्लीहाको नष्ट करता हैं। असमय धियोंका सेवन करना चाहिये ॥१६॥ बालोंका सफेद हो जाना और आमवात आदि ऐसा कोई रोग नहीं है, जिसे यह शीघ्र ही नष्ट न कर दे । करीर, कांजी, अग्निमुखं लौहम् । करेला आदि ककारादि द्रव्य न सेवन करना चाहिये। अन्यथा त्रिवृच्चित्रकनिर्गुण्डीस्नुहीमुण्डतिकाजटौः। लौह और किट्ट दुर्जर होनेसे विना पचे ही निकल प्रत्येकशोऽष्टपलिका जलद्रोणे विपाचयेत् । जाता है ॥ १६१-१६८॥ पलत्रयं विडंगस्य व्योषात्कर्षत्रयं पृथक् ॥१६१ ॥ १ यहां उक्त न होनेपर भी वैद्यलोग २४ पल घी छोड़ते १ यद्यपि शिवदासजीने यहां पर ' क्षारं दत्त्वा ' का | हैं। क्योंकि घीके विना लौह पाक नहीं होता, शक्कर और घकि अर्थ क्षारवस्ति देकर किया है, पर श्रीमान् चक्रपाणिजीने | साथ पाक करना चाहिये और शहद ठण्डा हो जानेपर छोड़ना क्षारवस्तिका कोई स्वतन्त्र विधान नहीं लिखा। अतः प्रतीत | चाहिये । मनःशिलासे सांक्षिप्त लौह मारणविधि-"लोहचूर्णे होता है कि उनको क्षार मिलाकर पिप्पल्यादि तैलसे ही अनु- सुविमले पादांशां विमलां शिलाम् । दत्त्वा कुमारीपयसा वैकङ्कवासन दना अभीष्ट था॥२"अज्झटेत्यपि पाठः । अज्झटातजलेन वा ॥ सम्पेष्य भिषजां वर्यः पुटयेत्सम्पुटस्थितम् । एवं भूम्यामलकी।। नातिचिरेणैव लौहं तु सुमृतं भवत् ॥" Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (५७) - wrary ___ भल्लातकलौहम् । बढ़ाता तथा शरीरके सिमटे व बालोंकी सफेदीको नष्ट करता है। चित्रकं त्रिफला मुस्तं ग्रन्थिक चविकामृता।। यह श्रेष्ठ रसायन समस्त रोगोंको दूर करता है ॥ १६९-१७६॥ हस्तिपिप्पल्यपामार्गदण्डोत्पलकुठेरकाः ॥ १५९ ॥ अर्शीनी वटी। एषां चतुष्पलान्भागाजलद्रोणे विपाचयेत् । । रसस्तु पादिकस्तुल्या विडंगमरिचाभ्रकाः। भल्लातकसहस्रे द्वे छित्त्वा तत्रैव दापयेत् ॥१७०।।। गंगापालंकजरसे खल्वयित्वा पुनः पुनः॥१७७॥ तेन पादावशेषेण लोहपात्रे पचेद्भिषक् । रक्तिमात्रा गुदार्शोन्नी वढेरत्यर्थदीपनी । तुलाध तीक्ष्णलोहस्य घृतस्य कुडवद्वयम् ॥ १७१॥ रस ( रससिन्दुर ) १ तोला, वायविडंग, काली मिर्च अभ्रकध्यूषणं त्रिफलावहिसैन्धवं विडमौद्भिदम् । भस्म प्रत्येक ४ तोला जलपालकके रसमें अनेक बार घोटकर १ सौवर्चलविडंगानि पलिकांशानि कल्पयेत ॥१७२॥ रत्तीकी बनायी गयी गोली अग्निको दीप्त करती तथा अर्शको कुडवं वृद्धदारस्य तालमूल्यास्तथैव च। | नष्ट करती है ॥ १७७ ॥ सूरणस्य पलान्यष्टौ चूर्ण कृत्वा विनिक्षिपेत् ॥१७३ परिवर्जनीयानि । सिद्धे शीते प्रदातव्यं मधुनः कुडवद्वयम् । प्रातर्भोजनकाले च ततः खादेद्यथाबलम् ॥ १७४॥ वेगावरोधस्त्रीपृष्ठयानमुत्कटकासनम् । अर्शीसि ग्रहणीदोष पाण्डुरोगमरोचकम् । ___ यथास्वं दोषलं चान्नमर्शसः परिवर्जयेत् ॥ १७८ ॥ क्रिमिगुल्माश्मरीमेहाशूलं चाशु व्यपोहति ॥१७५/ मूत्रपुरीषादिवेगावरोध, मैथुन, घोड़े आदिकी सवारी, उटकरोति शुक्रोपचयं वलीपलितनाशनम् ।। कुरुआं बैठना तथा जिस दोषसे अर्श हो,तद्दोषकारक अन्नपानारसायनमिदं श्रेष्ठं सर्वरोगहरं परम् ॥ १७६॥ |दिका त्याग करना चाहिये ॥ १७८ ॥ इत्यर्थोऽधिकारः समाप्तः। चीतकी जड़, आमला, हर्र, बहेड़ा, नागरमोथा, पिपरामूल, चव्य, गुर्च, गजपीपल, लटजीराकी जड़, सफेद फूलकी सहदेवी, सफेद तुलसी प्रत्येक १६ तोला ले दुरकुचाकर दुरकुट किये हुए अथानिमांद्याधिकारः। मिलावें २००० डालकर एक द्रोण (१२ से० ६४ तोला - - दवद्वैगुण्यात् २५ सेर ९ छ०३ तो०) जलमें पकाना चाहिये ।। चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर तीक्ष्ण लौहभस्म २॥ सेर, . चिकित्साविचारः। घी ३२ तोला, सोंठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, त्रिफला, समस्य रक्षणं कार्य विषमे वातनिग्रहः। चीतकी जड़, सेंधानमक, विड़लवण, खारी नमक, काला नमक, तीक्ष्णे पित्तप्रतीकारो मन्दे श्लेष्मविशोधनम् ॥ १॥ बायविडंग-प्रत्येक चार चार तोला विधायरा १६ तोला, मुसली१६ समाग्निकी रक्षा करनी चाहिये, विषमाग्निमें वातनाशक, तोला, जमीकन्द ३२ तोला ले सबका महीन चूर्ण छोड़कर तीक्ष्णाग्निमें पित्तनाशक और मन्दाग्निमें कफशोधक चिकित्सा पकाना चाहिये । तैयार हो जानेपर उतार ठण्डाकर मधु ३२ करनी चाहिये ॥१॥ तोला छोड़कर रखना चाहिये । इसे प्रातः काल तथा भोजनके समय बलानुसार २ माशेसे १ तोला तक सेवन करना चाहिये। हिंग्वष्टकं चूर्णम् । यह अर्श, ग्रहणीदोष, पाण्डुरोग, अरोचक, क्रिमिरोग, गुल्म, त्रिकटुकमजमोदा सैन्धवं जीरके द्वे पथरी, प्रमेह तथा शुलको शीघ्र ही नष्ट करता है । वीर्यको ___समधरणधृतानामष्टमो हिगुभागः। प्रथमकवलभुक्तं सर्पिषा चूर्णमेत१ भल्लातक शुद्ध कर छोड़ना चाहिये। उसकी शोधन विधि। जनयति जठराग्निं वातरोगांश्च हन्यात् ॥२॥ आयुर्वेदविज्ञानमें निम्न लिखित है:-" भल्लातकानि पक्कानि समानीय क्षिपेज्जले । मज्जन्ति यानि तत्रैव शुद्धयर्थं तानि १ रससिन्दूरनिर्माणविधिः-" पलमात्रं रसं शुद्धं तावन्मानं योजयेत् ॥ इष्टिकाचूर्णनिकषर्मर्दनानिमलं भवेत् । अर्थात् भल्लातक तु गन्धकम् । विधिवत्कञ्जलीं कृत्वा न्यग्रोधाकुरवारिभिः॥ प्रथम जलमें छोड़ना चाहिये। जो जलमें डूब जावें, उन्हें भावनात्रितयं दत्त्वा स्थालीमध्ये निधापयेत् । विरच्य कवचीयन्त्रं निकालकर ईटके चूरेके साथ रगड़वाना चाहिये । पर हाथसे न वालुकाभिः प्रपूरयेत् ॥ दद्यात्तदनु मन्दाग्नि भिषग्यामचतुष्टयम् । रगड़कर किसी पात्र द्वारा रगड़ना अधिक उत्तम है। जायते रससिन्दुरं तरुणादित्यसनिभम् ॥" Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) सोंठ, मिर्च, पीपल, अर्जमोदा, संधानमक, सफेद जीरा, स्याह जीरा और भूनी हींग - सब ममान भाग ले कूट कपड़छान कर चूर्ण बना लेना चाहिये । भोजनके समय प्रथम प्रासमें घीके साथ खानेसे यह चूर्ण अभिको दीप्त तथा वातरोगों को नष्ट रता है ॥ २ ॥ अग्निदीपकाः सामान्याः योगाः । समयवशुक महौषधचूर्ण लीढं घृतेन गोसर्गे । कुरुते क्षुधां सुखोदकपीतं सद्यो महौषधं वैकम् ॥३॥ अन्नमण्डं पिबेदुष्णं हिङ्गु सौवर्चलान्वितम् । विषमोऽपि समस्तेन मन्दो दीप्येत पावकः ॥ ४ ॥ प्रातःकाल के साथ समान भाग यवाखार और सोंठका चूर्ण चाटने से अथवा केवल सोंठका चूर्ण चाटनेसे अथवा केवल सोंठका चूर्ण गरम जलके साथ पीनसे अनि दीप्त होता है । भातका मांड गरम गरम भूनी हींग व काला नमकका चूर्ण छोड़कर पीना चाहिये । इससे विषमामि सम और मन्दाग्नि दीप्त होती है ॥ ३ ॥ ४॥ मण्डगुणाः । क्षुद्बोधनो वस्तिविशोधनश्च प्राणप्रदः शोणितवर्धनश्च । चक्रदत्तः । ज्वरापहारी कफपित्तहन्ता वायुं जयेदष्टगुणो हि मण्डः ॥ ५ ॥ माँ में आठ गुण होते हैं । यह (१) भूखको बढ़ाता, (२) मूत्राशय को शुद्ध करता, ( ३ ) बल तथा रक्तको बढ़ाता, ज्वर (४) तथा कफ, पित्त, वायु तीनोंको (५-८) नष्ट करता है ॥५॥ अत्यग्निचिकित्सा | [ अग्निमांद्या मुहुर्मुहुरजीर्णेऽपि भोज्यमस्योपकल्पयेत् । निरिन्धनोऽन्तरं लब्ध्वा यथेनं न निपातयेत् ॥ ८ ॥ स्त्री के दूध के साथ गूलरकी छालका चूर्ण अथवा इसीसे सिद्ध की हुई खीर अत्यग्निशान्तिके लिये खाना चाहिये । जो द्रव्य गुरु, मेध्य, कफको बढ़ानेवाले होते हैं, वे सब अत्यनिवालोंके लिये हितकर हैं, तथा दिनमें भोजन कर सोना भी हितकर है। अजीर्ण में भी इसे बार बार भोजन कराना चाहिये । जिससे कि अनि अवकाश पाकर इसे नष्ट न कर दे ॥ ६-८ ॥ विश्वादिकाथः । नारीक्षीरेण संयुक्ता पिबेदौदुम्बरीं त्वचम् | आभ्यां वा पायसं सिद्धं पिबेदत्यनिशान्तये ॥ ६ ॥ यत्किञ्चिद् गुरु मेध्यं च श्लेष्मकारि च भेषजम् । सर्वं तदत्यग्निहितं भुक्त्वा प्रस्वपनं दिवा ॥ ७ ॥ विश्वाभयागुडूचीनां कषायेण षडूषणम् । पिबेच्छ्लेष्मणि मन्देऽग्नौ त्वक्पत्रसुरभीकृतम् ॥९॥ पञ्चकोलं समरिचं षडूषणमुदाहृतम् । सोंठ, बड़ी हर्रका छिल्का तथा गुर्वके काढ़ेमें षडूषणक चूर्ण व दालचीनी, तेजपातका चूर्ण छोड़ पनिसे कफका नाश तथा अग्नि दीप्त होती है । काली मिर्च के सहित पञ्चकोल ( पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चित्रक, सोंठ ) को ' षडूषण कहा जाता है ॥ ९ ॥ - " afrate योगाः । हरीतकी भक्ष्यमाणा नागरेण गुडेन वा । सैन्धवोपहिता वापि सातत्येनाग्निदीपनी १० सिन्धूत्थपथ्यमगधोद्भववह्निचूर्ण मुष्णाम्बुना पिबति यः खलु नष्टवह्निः । तस्यामिषेण सघृतेन युतं नवान्नं भस्मीभवत्यशितमात्रमिह क्षणेन ॥ ११ ॥ सिन्धूत्थहिङ्गुत्रिफलायमानी व्योषेर्गुडांशैर्गुडिकान्प्रकुर्यात् । तैर्भक्षितैस्तृप्तिमनाप्नुवन्ना भुञ्जीत मन्दाग्निरपि प्रभूतम् ॥ १२ ॥ विडंगभल्लातकचित्रकामृताः सनागरास्तुल्यगुडेन सर्पिषा । भजन्ति ये मन्दहुताशना नरा १ यहां पर अंतःपरिमार्जन होनेसे "अजमोद" शब्दसे अजवाइन ही लेना चाहिये । ऐसा ही समग्र खानेके प्रयोगों में लेना चाहिये । केवल लगानेके लिये अजमोद लेना चाहिये । इस प्रयोग में हिंगुके विषय में भी बड़ी शङ्काये हैं । कुछ लोगों का कथन है कि एक भागसे अष्टमांश हिंगु । कुछ लोगों का कथन है। कि, सातोंसे अष्टमांश । पर मेरे बिचारसे " अष्टम” शब्द विबन्धेषु च नित्यमद्यात् ॥ १४ ॥ पूरणार्थक प्रत्ययसे निष्पन्न होने के कारण “ सप्त भागाः पूर्वमुक्ता भोजनाप्रे हितं हृद्यं दीपनं लवणार्द्रकम् । अष्टमो हिंगुभागः " इस सिद्धान्तसे हींग बराबर ही छोड़ना बड़ी हर्रका चूर्ण सर्वदा सोंठ अथवा गुड़ अथवा सेंधानम चाहिये । इसकी मात्रा १ ॥ माशेसे ३ माशे तक देना चाहिये | | | कके साथ खानेसे अभिको दीप्त करता है। जो मन्दाभिपीड़ित भवन्ति ते वाडव तुल्यवह्नयः ॥ १३ ॥ गुडेन शुण्ठीमथवोपकुल्यां पथ्यां तृतीयामथ दाडिमं वा । वर्णेषु गुदामयेषु Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकार: ] भाषाटीकोपेतः । मनुष्य सेंधा नमक, हर्र, छोटी पीपल, चीतकी जड़का चूर्ण गरम जलके साथ सेवन करता है, वह मांस तथा घृतसे युक्त नवान भी शीघ्र ही हजम कर जाता है । सेंधा नमक, भूनी हींग, आमला, हर्र, बहेड़ा, अजवाइन, सोंठ, मिर्च, छोटी पीपल प्रत्येक समान भाग, सबसे द्विगुण गुड़ मिलाकर १ माकी गोली बना लेनी चाहिये । इनके खानेसे मनुष्य भोजनसे तृप्त नहीं होता और मन्दाग्निवाला भी बहुत खा जाता है । वायविडंग, शुद्ध भल्लातक, चीतकी जड़, गुर्च और सोंठ सवका महीन चूर्ण वना सबके समान गुड़ तथा घी मिलाकर जो मन्दानिवाले सेवन करते हैं, वे वाडवानिके समान दीप्ताग्नि हो ' हैं। गुड़के साथ सोंठ अथवा छोटी पीपल अथवा हर्र अथवा अनार दानाका चूर्ण-आमाजीर्ण, अर्श, तथा मलकी bara में नित्य सेवन करना चाहिये । भोजनके पहिले नमक और अदरख खाना सदा हितकर होता है ॥ १०-१४ ॥कपित्थादिखडः । कपित्थबिल्वचांगेरी मरिचाजाजिचित्रकैः ॥ १५॥ कफवातहरो ग्राही खडो दीपनपाचनः । कैथाका गूदा, बेलगिरी, अमलोनिया, काली मिर्च, सफेद चीतकी जड़ इनसे बनायी चटनी कफवातनाशक, ग्राही जीरा, तथा दीपन पाचन होती है ॥ १५ ॥ - शार्दूलकाञ्जिकः । पिप्पली शृंगवेरं च देवदारु सचित्रकम् ॥ १६ ॥ चविकां बिल्वपेशीं चाजमोदां च हरीतकीम् । महौषधं यमानीं च धान्यकं मरिचं तथा ॥ १७ ॥ जीरकं चापि हिंगुं च काञ्जिकं साधयेद्भिषक् । एष शार्दूलको नाम काञ्जिकोऽग्निबलप्रदः ॥ १८ ॥ सिद्धार्थतैलसंभृष्टो दश रोगान्व्यपोहति । कासं श्वासमतीसारं पाण्डुरोगं सकामलम् ॥ १९॥ १ उपरोक्त सैन्धवादि तथा विडंगादिमें गुड़के सम्बन्धमें सन्देह हैं | सैन्धवादिमें गुड़ांश पद है, अतः सिद्ध हुआ कि गुड़का योग्य अंश अर्थात् द्विगुण देना चाहिये । यदुक्तम्“ चूर्णे गुडसमो देयो मोदके द्विगुणो गुडः ।" परन्तु शिवदासजीका मत है कि, गुड़ श्लेष्माधिक अग्निमान्द्यमें अधिक देना उचित नहीं, अतः एक द्रव्यके समान ही छोड़ना चाहिये तथा विडंगादि लेहमें ' तुल्यगुडेन सर्पिषा' का विशेषण कर समस्त चूर्णके समान भाग गुड़ और उतना ही घी मिलाना चाहिये । यही नागार्जुनका भी मत है । यथा “ संचूर्णिता गुडूची विडंगभल्लातकनागरहुताशाः । ज्वलयन्ति जठरवहिं समेन गुडसर्पिषा लीढाः ॥ " । ( ५९ ) आमं च गुल्मशूलं च वातगुल्मं सवेदनम् । शश्वियथुं चैव भुक्ते पीते च सात्म्यतः ॥२०॥ क्षीरपाकविधानेन काञ्जिकस्यापि साधनम् । पीपल छोटी, अदरख, देवदारु, चीतकी जड़, चव्य, बेलका गूदा, अजमोद, बड़ी हर्रका छिलका, सोंठ, अजवाइन, धनियां, काली मिर्च, सफेद जीरा, भूनी हींग - सब चीजें समान भाग ले अष्टगुण जलमें मिट्टी के बर्तनमें ७ दिनतक बन्दकर रखना चाहिये, फिर इसमें कड़वे तैलका छौके लगाना चाहिये । यह शार्दूलकाञ्जिक' पीनेसे अभि तथा बलको बढ़ाता, कास, श्वास, अतीसार, पाण्डुरोग, कामला, आमदोष, गुल्म, शूल, तथा पीड़ा युक्त वातगुल्म, अर्श, सूजनको नष्ट करता है । इसे भोजनके अनन्तर जितनी रुचि हो, उतना पीना चाहिये । क्षीरपाक विधानसे ( अर्थात् द्रव्यसे अष्टगुण जल छोड़कर ) काजी सिद्ध करना चाहिये ॥ १६-२० ॥ अग्निमुखचूर्णम् । हिङ्गुभागो भवेदेको वचा च द्विगुणा भवेत् ॥ २१ पिप्पली त्रिगुणा चैव शृंगवेरं चतुर्गुणम् । मानिका पचगुणा षड्गुणा च हरीतकी ॥ २२॥ चित्रकं सप्तगुणितं कुष्ठं चाष्टगुणं भवेत् । एतद्वातहरं चूर्ण पीतमात्रं प्रसन्नया ।। २३ ।। पिबेदना मस्तुना वा सुरया कोष्णवारिणा । सोदावर्तमजीर्ण च प्लीहानमुदरं तथा ॥ २४ ॥ अंगानि यस्य शीर्यन्ते विषं वा येन भक्षितम् । अर्शोहरं दीपनं च श्लेष्मघ्नं गुल्मनाशनम् ॥ २५ ॥ कासं श्वासं निहन्त्याशु तथैव यक्ष्मनाशनम् । चूर्णमभिमुखं नाम न कचित्प्रतिहन्यते ॥ २६ ॥ भुनी हींग १ भाग, दूधिया वच २ भाग, छोटी पीपल ३ भाग, सौंठ ४ भाग, अजवाइन ५ भाग, बड़ी हर्रका छिल्का ६ भाग, चीतकी जड़ ७ भाग, कूट ८ भाग सबको कूट कपड़ छान करना चाहिये। यह चूर्ण शराबके साथ सेवन करनेसे शीघ्र ही वायुको नष्ट करता है । इसे दही, दहीके तोड़, शराब या गरम जलके साथ पीना चाहिये । यह उदावर्त, अजीर्ण, प्लीहा, उदररोगको नष्ट करता है। जिसके अंग गल रहे हों, या जिसने विष खा लिया है, उसके लिये भी यह लाभदायक है । अर्श, गुल्म, कास, श्वास तथा यक्ष्मा और कफको यह चूर्ण नष्ट करता तथा अग्निको दीप्त करता है । यह ' अभिमुख ' नमक चूर्ण कभी व्यर्थ नहीं होता । अर्थात् मन्दाग्निजन्य सभी रोगोंको नष्ट करता है ॥ २१-२६ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) चक्रदत्तः । पानीयभक्त गुटिका | सोऽर्धभागिकस्तुल्या विडंगमरिचाभ्रकाः । भक्तोदकेन संम कुर्याद् गुञ्जासमां गुटीम् ||२७|| भक्तोदकानुपाने का सेव्या वह्निप्रदीपनी । वार्यन्नभोजनं चात्र प्रयोगे सात्म्यमिष्यते ॥ २८ ॥ रससिन्दूर आधा भाग, वायविडंग, काली मिर्च, अभ्रक भस्म प्रत्येक एक एक भाग सब घोटकर चाबलके मांड़में गोली १ रत्तीकी मात्रा से बनाना चाहिये । और चावलके मांड़के ही साथ एक एक गोली प्रातः सायं खाना चाहिये । तथा जल चाव लका भात ही पथ्य लेना चाहिये ॥ २७ ॥ २८ ॥ बृहदग्निमुखचूर्णम् । क्षारौ चित्रक करञ्जलवणानि च । सूक्ष्मैलापत्रकं भांग क्रिमिघ्नं हिंगु पौष्करम् ॥ २९ ॥ शटी दार्वी त्रिवृन्मुस्तं वचा सेन्द्रयवा तथा । धात्रीजीरकवृक्षाम्लं श्रेयसी चोपकुञ्चिका ॥ ३०॥ अम्लवेतसमम्लीका यमानी सुरदारु च । अभयातिविषा श्यामा हबुषारग्वधं समम् ॥ ३१ ॥ तिलमुष्ककशिणां कोकिलाक्षपलाशयोः । क्षाराणि लोहकिट्टे च तप्तं गोमूत्रसेचितम् ॥ ३२॥ समभागानि सर्वाणि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । मातुलुंगरसेनैव भावयेच्च्, दिनत्रयम् ॥ ६३ ॥ दिनत्रयं च शुक्तेन चार्द्रकस्वरसेन च । अत्यनिकारकं चूर्ण प्रदीप्ताग्निसमप्रभम् ॥ ३४॥ उपयुक्त विधानेन नाशयत्यचिराद्गदान् । अजीर्णकमथो गुल्मान्प्लीहानं गुद्जानि च ॥ ३५ ॥ उदराण्यन्त्रवृद्धिं चाप्यष्ठीलां वातशोणितम् । प्रणुदत्युल्बणान्रोगान्नष्टं वह्निं च दीपयेत् ॥ ३६॥ समस्तव्यञ्जनोपेतं भक्तं दत्त्वा सुभाजने । दापयेदस्य चूर्णस्य बिडालपदमात्रकम् ॥ ३७ ॥ गोदोहमात्रात्तत्सर्व द्रवीभवति सोष्मकम् । यवाखार, सस्तीखार, चीतकी जड़, पाढ़, कञ्जा, पांचों छोटी इलायची, तेजपात, भारङ्गी, वायविडंग, भुनी नमक, हींग, पोहकरमूल, कचूर, दारूहल्दी, निसोथ, नागरमोथा, मीठा वच, इन्द्रयव, आमला, सफेद जीरा, कोकम अथवा जम्बीरी नीम्बू, गजपीपल, कलौंजी, आम्लवेत, इमली, अजवाइन, १ यहांपर कुछ लोग “रस" शब्दसे शुद्ध पारद ही लेते हैं और अकेले पारदका प्रयोग न होनेके कारण समान भाग कभी मिला जी कर छोड़ते हैं ॥ [ अग्निमांद्या देवदारु, बड़ी हर्रका छिल्का, अतीस, काला निसोथ, हाऊवेर, | अमलतासका गूदा - सब समान भाग तथा तिल, मोखा, सहिजन, तालमखाना तथा ढाक सबके क्षार तथा तपा तपा कर गोमूत्रमें बुझाया हुआ मण्डूर, सब समान भाग लेकर महीन चूर्ण करना चाहिये । फिर बिजौरे निम्बू के रससे ही तीन दिन भावना देनी चाहिये । फिर तीन दिन, सिरकेसे तथा ३ दिन अदरख के रससे भावना देनी चाहिये । यह चूर्ण अग्निको अत्यन्त दीप्त करता तथा नियमसे सेवन करनेसे शीघ्र ही अजीर्ण, गुल्म, प्लीहा, अर्श, उदररोग, अन्त्रवृद्धि, अष्टीला, वातरक्तको नष्ट करता तथा मन्द अग्निको दीप्त करता है । हरतरहके भोजन बनाकर थाली में रखिये और यह चूर्ण १ तोला उसीमें मिला दीजिये, तो जितनी देरमें गाय दुही जाती है, उतनी ही देर में सब अन्न गरम होकर पिघल जायगा ॥ २९-३७ ॥ भास्करलवणम् । पिप्पलीपिप्पलीमूलं धान्यकं कृष्णजीरकम् ॥३८॥ सैन्धवं च बिडं चैव पत्रं तालीशकेशरम् । एषां द्विपलिकाभागान्पञ्च सौवर्चलस्य च ॥३९॥ मरिचाजाजिशुण्ठीनामेकैकस्य पलं पलम् । गेले चार्धभागे च सामुद्रात्कुडवद्वयम् ॥ ४० ॥ दाडिमात्कुडवं चैव द्वे चाम्लवेतसात् । एतच्चूर्णीकृतं लक्ष्णं गन्धाढ्यममृतोपमम् ॥ ४१ ॥ लवणं भास्करं नाम भास्करेण विनिर्मितम् । जगतस्तु हितार्थाय वातश्लेष्मामयापहम् ॥ ४२ ॥ वातगुल्मं निहन्त्येतद्वातशूलानि यानि च । तक्रमस्तुसुरासीधुशुक्तकाजिकयोजितम् ॥ ४३ ॥ जांगलानां तु मांसेन रसेषु विविधेषु च । मन्दाग्नेरश्नतः शक्तो भवेदावेव पावकः ॥ ४४ ॥ अर्शासि ग्रहणीदोषकुष्ठामयभगन्दरान् । हृद्रोगमा मदोषांश्च विविधानुदर स्थितान् ॥ ४५ ॥ प्लीहानमश्मरी चैव श्वासकासोदरक्रिमीन् ॥४५॥ विशेषतः शर्करादीन्रोगान्नानाविधांस्तथा ॥ ४६ ॥ पाण्डुरोगांश्च विविधान्नाशयत्यशनिर्यथा । छोटी पीपल, पिपरामूल, धनियां, काला जीरा, सेंधानमक, विड़नमक, तेजपात्र, तालीशपत्र, नागकेशर प्रत्येक ८ तोला, काला नमक २० तोला, काली मिर्च, सफेद जीरा, सोंठ प्रत्येक ४ तोला, दालचीनी, छोटी इलायची प्रत्येक २ दो तोला, सामुद्र नमक ३२ तोला, अनारदाना १६ तोला, अम्लवेत ८ तोला - सबको कूटकर कपड़छान चूर्ण करना चाहिये । यह ' भास्करलवण ' भगवान् भास्करने संसारके कल्याणार्थ बनाया Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। था । यह उत्तम गन्धयुक्त तथा अमृततुल्य गुणदायक है । इसका| पञ्चकोल तथा यवाखार प्रत्येक ४ तोला का कल्क तथा प्रयोग मट्ठा, दहीका तोड, सीधु,शराब,सिरका, काजी, जांगल कल्कसे चतुर्गुण घृत और घतसे चतुर्गुण दहीका तोड़ मिलाकर प्राणियोंके मांसरस या अन्य रसोंके साथ करना चाहिये । इससे | पकाना चाहिये। यह घत मन्दाग्नि तथा कफ, गुल्मको नष्ट मन्दाग्नेि शीघ्र ही दीप्त होती है । यह चूर्ण वातगुल्म तथा करता है ॥५३॥ वातशूल, अर्श, ग्रहणी, कुष्ठ, भगन्दर, हृद्रोग, आमदोष, प्लीहा, अश्मरी, श्वास, कास, उदररोग, क्रिमिराग, शर्करा तथा बृहदग्निवृतम् । पांडुरोगको इस प्रकार नष्ट करता है जैसे वज्र अन्य पदार्थोंको भल्लातकसहस्रार्ध जलद्रोणे विपाचयेत् ।। नष्ट करदेता है * ॥ ३८-४६ ॥ अष्टभागावशेषं च कषायमवतारयेत् ॥५४॥ अग्निघृतम् । घृतप्रस्थं समादाय कल्कानीमानि दापयेत् । पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली॥४७॥ ज्यूषणं पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली ॥५५॥ हिङ्गु चव्याजमोदा च पञ्चैव लवणानि च । हिंगु चव्याजमोदा च पञ्चैव लवणानि च । द्वौ क्षारी हपुषा चैव दद्यादर्धपलोन्मितान् ॥४८॥ द्वी क्षारौ हपुषा चैव दद्यादर्धपलोन्मितान् ॥५६॥ दधिकाजिकशुक्तानि स्रेहमात्रासमानि च। दधिकाजिकशुक्तानि स्नेहमात्रासमानि च । आर्द्रकस्वरसप्रस्थं घृतप्रस्थं विपाचयेत् ।। ४९ ॥ आईकस्वरसं चैव सौभाजनरसं तथा ॥ ५७ ।। लत्सर्वमेकतः कृत्वा शनैर्मृद्वग्निना पचेत् । एतदनिघतं नाम मन्दाग्नीनां प्रशस्यते एतदनिघृतं नाम मन्दाग्नीनां प्रशस्यते ॥ ५८॥ अर्शसां नाशनं श्रेष्ठं तथा गुल्मादरापहम् ॥५०॥ अर्शसां नाशनं श्रेष्ठ मूढवातानुलोमनम् । प्रन्ध्यर्बुदापचीकासकफमेदोऽनिलानपि । कफवातोद्भवे गुल्मे श्लीपदे च दकोदरे ॥ ५९॥ नाशयेद् ग्रहणीदोष श्वयधुं सभगन्दरम् ॥५१॥ शोथं पाण्ड्वामयं कासं ग्रहणीं श्वासमेव च। ये च बस्तिगता रोगा ये च कुक्षिसमाश्रिताः। । सर्वास्तान्नाशयत्याशु सूर्यस्तम इवोदितः ॥ ५२ ॥ एतान्विनाशयत्याशु सूर्यस्तम इवोदितः ॥ ६९ ॥ छोटी पीपल, पिपरामूल, चीतकी जड़, गजपीपल, हींग, भिलावां ५०० दुरुकुट कर एक द्रोण जलमें पकाना चाहिये। चव्य, अजमोद, पांचों नमक, यवाखार, सज्जीखार, तथा | अष्टमांश शेष रहनेपर उतारकर छान लेना चाहिये, फिर इसमें हाऊवेर प्रत्येक २ तोलाका कल्क, दही काजी, सिरका तथा| त्रिकटु, पिपरामूल, चीतकी जड़, गजपीपल, हींग, चव्य, अदरखका रस प्रत्येक १'प्रस्थ और घी एक प्रस्थ छोड़कर अजमोद, पांचों नमक, यवाखार, सज्जीखार, हाऊवेर प्रत्येक पकाना चाहिये, यह घत मन्दाग्निवालोंके लिये हितकर होता है। २ तोलाका कल्क घृत ६४ तोला, दही, काजी, सिरका, तथा अर्श. गुल्म, उदर, ग्रन्थि, अर्बुद, अपची, कास, कफ, अदरखका रस, सहिजनका रस प्रत्येक घृतके समान मिलाकर मेद, वातरोग, ग्रहणीदोष, सूजन, भगन्दर आदि रोगोंको | मन्दाग्निसे पकाना चाहिये । यह घृत, अर्श, कफवातोत्पन्न गुल्म, इस प्रकार नष्ट करता है जैसे सूर्योदयसे अन्धकार नष्ट हो | श्लीपद, जलोदर, सूजन, पाण्डुरोग, कास, ग्रहणी तथा श्वासको आता है ॥ ४७-५२॥ नष्ट करता तथा वायुका अनुलोमन इस प्रकार करता है जैसे सूर्य अन्धकारको नष्ट करता है ॥ ५४-६०॥ मस्तुषट्पलकं घृतम् । पलिकैःपञ्चकोलेस्तु घृतं मस्तु चतुर्गुणम् । क्षारगुडः। सक्षारैः सिद्धमल्पानि कफगुल्मं विनाशयेत् ॥ ५३ | द्वे पञ्चमूले त्रिफलामर्कमूलं शतावरीम् । दन्ती चित्रकमास्फोतां रास्त्रां पाठां सुधां शटीम्६१, * कुछ पुस्तकोंमें “वडवामुख चूर्ण'" मस्तुषट्पलकघृतके अन पृथग्दशपलान्भागान्दग्ध्वा भस्म समावपेत् । न्तर है । पर वह घृतके प्रकरणमें रखना उचित नहीं प्रतीत होता।। अतः यहीपर लिखता हूं-“पथ्यानागरकृष्णाकरजाबल्वानाभः विःसप्तकृत्वस्तद्स्म जलद्रोणेन गालयेत् ॥६२॥ सितातुल्यैः । वडवामुखं विजयते गुरुतरमपि भोजनं चूर्णम् ॥" तसं साधयेदग्नौ चतुर्भागावशेषितम् । अर्थात् हरी, सोंठ, छोटी पीपल, कजा, बेलका गूदा, चीतकी ततो गुडतुलां दत्त्वा साधयेन्मृदुनाग्निना ॥ ६३ ॥ जड़ प्रत्येक समान भाग ले चूण कर चूर्णके समान मिश्री मिला सिद्धं गुडं तु विज्ञाय चूर्णानीमानि दापयेत् । देना चाहिये । यह चूण गुरुतर भोजनका भी पचा देता है। वृश्चिकाली द्विकाकोल्यो यवक्षारं समावपेत्॥६४॥ इसका — वडवामुख ' नाम है। मात्रा २ माशस ४ माशे तक।। एते पंचपला भागाः पृथक् पंच पलानि च । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) चक्रदत्तः। [अग्निमांद्या wwwww w हरीतकी त्रिकटुकं सर्जिकां चित्रकं वचाम् ॥६५॥ बच और लवणका चूर्ण गरमः जलमें मिला पीकर वमन हिंग्वम्लवेतसाभ्यां च द्वे पले तत्र दापयेत् । करनेसे आमाजीर्ण नष्ट होता है ॥ अक्षप्रमाणां गुटिकां कृत्वा खादेद्यथाबलम् ॥६६॥ विदग्धाजीर्णचिकित्सा। अजीर्ण जरयत्येषार्जीणे सन्दीपयत्यपि । भुक्तं भुक्तं च जीर्येत पाण्डुत्वमपकर्षति ॥ ६७ ।। अन्नं विदग्धं हि नरस्य शीघ्र प्लीहार्शःश्वयधुं चैव श्लेष्मकासमरोचकम् ।। शीताम्बुना वै परिपाकमोति । मन्दाग्निविषमाग्नीनां कफे कण्ठोरसि स्थिते ॥६८॥ तद्धयस्य शैत्येन निहन्ति पित्तकुष्ठानि च प्रमेहांश्च गुल्मं चाशु नियच्छति ।। माक्लेदिभावाच्च नयत्यधस्तात् ॥ ७१ ॥ ख्यातः क्षारगुडो ह्येष रोगयुक्त प्रयोजयेत् ॥६९॥ | विदह्यते यस्य तु भुक्तमात्रं दह्येत हृत्कोष्ठगलं च यस्य । सरिवन, पिठिवन, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, गोखरू, बेलका | द्राक्षासितामाक्षिकसंप्रयुक्तां गूदा, सोनापाठा, खम्भारकी छाल, पाढ़ल, अरणी, आमला, हर्र, लीढ्वाभयां वै स सुखं लभेत ॥ ७२ ॥ बहेड़ा, आककी जड़, शतावरी, दन्ती, चीतकी जड़, ऑस्फोता, हरीतकी धान्यतुषोदसिद्धा रासन, पाढी, थूहर, कचूर प्रत्येक ४० तोला जलाकर भस्म कर लेना चाहिये । इस भस्मको एक द्रोण जलमें २१ सपिप्पली सैन्धवहिंगुयुक्ता । बार छानना चाहिये। फिर इस जलको अग्निपर पकाना चाहिये, सोद्वारधूमं भृशमप्यजीर्ण चतुर्थीश शेष रहनेपर गुड़ ५ सेर छोड़कर मन्द आंचसे विजित्य सद्यो जनयेत्क्षुधां च ॥७३॥ पकाना चाहिये । पाक तैयार हो जानेपर विछुआ, काकोली, मनुष्यका विदग्ध अन्न ठण्डे जलके पीनेसे पच जाता है। क्षारकाकाला, यवाखार, बड़ा हरका छिल्का, साल, मच, ठण्डा जल ठण्डे होनेसे पित्तको शान्त करता तथा गीला पीपल, सज्जीखार, चीतकी जड़, वच-प्रत्यक २० ताला, होनेसे नीचेको ले जाता है। जिसके भोजन करते ही अन्न भुनी हींग तथा अम्लवेत प्रत्येक ४ तोला सबका कपड़छान | |विदग्ध हो जाता है, हृदय, कोष्ठ और गलेमें जलन होती है, किया हुआ चूर्ण छोड़कर १ तोलाकी मात्रासे गोली बना| | वह मुनक्का, मिश्री और बड़ी हर्रका चूर्ण शहतसे चाटकर लेना चाहिये। यह गोली बलानुसार सेवन करनेसे अजीर्णको], सुखी होता है । इसी प्रकार काजीमें पकाई हर्रका चूर्ण, नष्ट करती, अग्निको दीप्त करती, भोजनको पचाती तथा छोटी पीपल, सेंधानमक और भुनी हींगका चूर्ण मिलाकर पाण्डुरोगको नष्ट करती है । तथा प्लीहा, अशे, सूजन, कफ- फाकनेसे सधूम डकार और अजीर्णको नष्ट कर शीघ्र ही जन्य कास तथा अरुचि, कुष्ठ, प्रमेह तथा गुल्मको शीघ्र ही| भूखको उत्पन्न करता है ॥ ७१-७३ ॥ नष्ट करती है। मन्दाग्नि तथा विषमाग्निवालोंको लाभ पहुँचाती है।। कण्ठ तथा छातीके कफको दूर करती है। इसे "क्षारगुड़" विष्टब्धाजीर्ण-रसशेषाजीर्णचिकित्सा । कहते हैं ॥६१-६९॥ विष्टब्धे स्वेदनं पथ्यं पेयं च लवणोदकम् । चित्रकगुडः। रसशेषे दिवास्वप्नो लङ्घनं वातवर्जनम् ।। ७४॥ नासारोगे विधातव्या या चित्रकहरीतकी ॥ विष्टब्धाजीर्णमें पेट सेकना तथा नमक मिला गरम जल पीना हितकर होता है । रसशेषाजीर्णमें दिनमें सोना, लंघन और विना धात्रीरसंसोऽस्मिन्प्रोक्तश्चित्रगुडोऽनिदः॥७० ७० निर्वात स्थानमें रहना हितकर होता है ॥ ७४ ।। नासारोगमें जो चित्रक हरीतकी लिखेंगे, उसमें आमलेका रस न छोड़नेसे 'चित्रक गुड' तैयार होता है, यह अग्निको दिवा स्वप्नयोगाः। दीप्त करता है ॥ ७॥ व्यायामप्रमदाध्ववाहनरतक्लान्तानतीसारिणः आमाजीर्णचिकित्सा। शूलश्वासवतस्तृषापरिगतान्हिक्कामरुत्पीडितान । वचालवणतोयेन वान्तिरामे प्रशस्यते । क्षीणान्क्षीणकफाञ्छिशून्मदहतान्वृद्धान् रसाजोर्णिनो रात्री जागरितांस्तथा निरशनान्कामंदिवा स्वापयेत् ७५ १ "आस्फोता" विष्णुकान्ताके नामसे ही प्रासद्ध द्रव्यका कसरत, स्त्रीगमन, मार्ग, तथा सवारीसे थके हुए, अतीविशेषतः मानते हैं। पर वङ्गदेशीय वैद्य एक दूसरी लताको सारवालों तथा शुल, श्वास, तृषा, हिक्का व वायुसे पीड़ित ही मानते हैं। पुरुषोंको, क्षीण तथा क्षीणकफवालोंको, बालकों, वृद्धों, रसा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (६३) जीर्णवालों तथा रात्रिमें जागरण करनेवालोंको और जिन्होंने मर्दनम् । भोजन नहीं किया, उन्हें दिनमें यथेष्ट सोना चाहिये ॥ ७५ ॥ कुष्ठसैन्धवयोः कल्कं चुक्रतैलसमन्वितम् । अजीर्णस्य सामान्यचिकित्सा। । विषूच्यां मर्दनं कोष्णं खल्लीशूलनिवारणम् ।।८३ ॥ आलिप्य जठरं प्राज्ञो हिंगुत्र्यूषणसैन्धवैः। कूठ, सेंधानमकका कल्क चूका और तैल मिला कुछ दिवास्वप्नं प्रकुर्वात सर्वाजीर्णप्रशान्तये ॥७६॥ गरम कर मर्दन करना-हाथ पैर आदिके शुल नष्ट करधान्यनागरसिद्धं तु तोयं दद्याविचक्षणः । |ता है ॥८३॥ आमाजीर्णप्रशमनं दीपनं वस्तिशोधनम ॥७७॥ वमनम्। पथ्यापिप्पलिसंयुक्तं चूर्ण सौवर्चलं पिबेत् । मस्तुनोष्णोदकेनाथ बुद्ध्वा दोषगति भिषक् ॥७८॥ करजनिम्बशिखरिगुडूच्यर्जकवत्सकैः। चतुर्विधमजीर्ण च मन्दानलमथोऽरुचिम् ।। पीतः कषायो वमनाद् घोरां हन्ति विषूचिकाम् ८४ कजा, नीमकी छाल, लटजीरा, गुर्च, श्वेत तुलसी कुड़ेकी आध्मानं वातगुल्मं च शूलं चाशु नियच्छति ॥७९॥ छाल-इनका क्वाथ पीकर वमन करनेसे घोर विषूचिका नष्ट भवेदजीणे प्रति यस्य शंका होती है ॥८४॥ स्निग्धस्य जन्तोर्बलिनोऽन्नकाले। पूर्व सशुण्ठीमभयामशंकः । अञ्जनम् । ___ संप्राश्य भुजीत हितं हिताशी ॥ ८॥ व्योष करञ्जस्य फलं हरिद्रां किञ्चिदामेन मन्दाग्निरभयागुडनागरम् । मूलं समावाप्य च मातुलुंग्याः । जग्ध्वा तक्रेण मुजीत युक्तनानं षडूषणैः ८१ छायाविशुष्का गुडिकाः कृतास्ता भुनी हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल, सेंधानमक सब गरम जलमें| हन्युर्विषूची नयनाञ्जनेन ॥ ८५॥ महीन पीस पेटपर लेप कर दिनमें सोनेसे समस्त अजीर्ण त्रिकटु, कजा, हल्दी, बिजौरे निम्बूकी जड़ सब समभाग शान्त होते हैं । तथा धनियां और सोंठका क्वाथ आमाजीर्णको ल, |ले कूट छान जलमें घोट गोली बनाकर छायामें सुखा लेनी चाहिये। ये गोलियां आंखमें लगानेसे विचिकासे उत्पन्न बेहोशान्त करता, अग्नि को दीप्त करता तथा मूत्राशयको| शद्ध करता है। हर्र व छोटी पीपलका चूर्ण काला नमक शीको नष्ट करती हैं ॥ ८५ ॥ मिलाकर दहकि तोड़ अथवा गरम जलके साथ जैसा आव अपरमञ्जनम् । श्यक हो, पीवे । इससे अजीर्ण, मन्दाग्नि, अरुचि, पेटकी| गुडपुष्पसारशिखरिगुड़गुड़ाहट तथा बातगुल्म शीघ्र दूर होते हैं । यदि स्निग्ध तण्डुलगिरिकर्णिकाहरिद्राभिः। तथा बलबान् मनुष्यको भोजनके समय अजीर्णकी शंका | हो, तो पहिले सोंठ और हर्रके चूर्णको खाकर हितकारक अञ्जनगुटिका विलयति हल्का पथ्य लेवे । यदि आमके कारण कुछ आमिमन्द विचिकां त्रिकटुकसनाथा ।। ८६ ॥ हो. तो हर्र, गुड, और सोंठको खाकर षडूषण (पिप्पली| | गुड, मधु, अपामार्गके चावल, श्वेतपुष्पा-विष्णुकान्ता,हल्दी गुड़, मधु, पिप्पलीमल चव्य चित्रक सोंठ कालीमि त था त्रिकटु मिलाकर बनायी गयी गोली नेत्रमें लगानेसे विषचि. साथ भात खावे ॥ ७६-८१॥ काको नष्ट करती है ॥ ८६ ॥ विषूचिकाचिकित्सा। उतनं तैलमर्दन वा। विचिकायां वमितं विरिक्त त्वपत्ररास्नागुरुशिकुष्ठसुलंधितं वा मनुजं विदित्वा । रम्लेन पिष्टैः सवचाशताः। पेयादिभिर्दीपनपाचनैश्च उद्वर्तनं खल्लिविषूचिकानं तैलं विपक्कं च तदर्थकारि ॥८७ ॥ सम्यक्क्षुधातै समुपक्रमेत ॥ ८२॥ दालचीनी, तेजपात, रासन, अगर, कूठ, सहिजनेकी छाल, हैजेमें वमन, विरेचन तथा लंघन हो जानेके अनन्तर जब वच, सौंफ सबको महीन पीस काजीमें मिलाकर उबटन लगा. खूब भूख लगे, तो दीपन पाचन औषधियोंसे सिद्ध पेया विलेपी नेसे खल्लीयुक्त विषूचिका नष्ट होती है । तथा इन्हीं चीजोंसे आदि देना चाहिये ॥२॥ | सिद्ध तैल भी यही गुण करता है ॥ ८७॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [क्रिमिरोगा- - - उपद्रवचिकित्सा। पारिभद्रार्कपत्रोत्थं रसं क्षौद्रयुतं पिबेत् । केबुकस्य रसं वापि पत्तूरस्याथ वा रसम् । पिपासायामनूत्लेशे लवंगस्याम्बु शस्यते ।। लिह्यात्क्षौद्रेण वैडंग चूर्ण क्रिमिविनाशनम् ॥२॥ जातीफलस्य वा शीतं शृतं भद्रघनस्य वा ॥ ८८॥ विषूच्यामतिवृद्धायां पायर्योर्दाहः प्रशस्यते। | नीम तथा आकके पत्तोंका रस शहदके साथ अथवा वमनं त्वलसे पूर्व लवणेनोष्णवारिणा ॥ ८९॥ केबुक अथवा जलपिप्पली (या पीतचन्दन ) का रस अथवा स्वेदो वर्तिलंघनं च क्रमश्चातोऽग्निवर्धनः बायविडंगका चूर्ण शहदके साथ चाटनेसे क्रिमि नष्ट होते हैं॥२॥ सरक् चानद्धमुदरमम्लपिष्टैः प्रलेपयेत् । मुस्तादिकाथः । दारुहेमवतीकुष्ठशताबाहिंगुसैन्धवैः॥९० ॥ तक्रेण युक्तं यवचूर्णमुष्णं मुस्ताखुपर्णीफलदारुशिग्रुसक्षारमाति जठेर निहन्यात् । __ काथः सकृष्णाक्रिमिशत्रुकल्कः। स्वेदो घटैर्वा बहुबाष्पपूणे मार्गद्वयेनापि चिरप्रवृत्तान् रुष्णैस्तथान्यैरपि पाणितापैः ॥ ९१ ॥ क्रिमीनिहन्ति क्रिमिजांश्च रोगान् ॥३॥ यदि मिचलाहट और प्यास अधिक हो, तो लवंगका जल | नागरमोथा, मूसाकानी, मैनफल, देवदारु, सहिजनके अथवा जायफलका जल अथवा नागरमोथाका जल पीना | बीजका काथ, छोटी पीपल तथा बायविडंगका चूर्ण छोड़कर "पीनेसे दोनों मागोंसे अधिक समयसे आते हए क्रिमियों तथा चाहिये । बहुत बढ़ी विषूचिकामें एडियोंको दाग देना चाहिये। पान अलसक (जिसमें न वमन हो न दस्त) में पहिले नमक मिले काड़ासे उत्पन्न होनेवाले रोगोंको नष्ट करता है॥३॥ गरम जलसे वमन कराना चाहिये । फिर स्वेदन, फलवर्तिधारण पिष्टकपूपिकायोगः। और लंघन कराकर अग्निवर्द्धक उपाय करने चाहिये । यदि पेटमें पीड़ा तथा अफारा हो, तो देवदारु, वच, कूट, सौंफ, हींग, आखुपर्णीदलैः पिष्टैः पिष्टकेन चा पूपिकाम् । सेंन्धानमकको काजीमें पीसकर पेटपर लेप करना चाहिये । जग्ध्वा सौवीरकं चानु पिबेक्रिमिहरं परम् ॥४॥ मठेके साथ यवचूर्ण व यवाखार गरम कर लेप करनेसे उदरकी | | मसोकानीके पत्तोंको पीस आटेमें मिलाकर पूड़ी बनानी पीडाको नष्ट करता है। तथा भापसे भरे घटसे स्वेदन | स्वदन | चाहिये। इन पूड़ियोंको खाकर ऊपरसे काजी पीनेसे क्रीड़े नष्ट करना अथवा हाथ आदि गरमकर सकनेसे उदरशूल नष्ट होते हैं । होता है॥८८-९१॥ तीब्रार्तिरपि नाजीर्णी पिबेच्छूलन्नमषिधम् । पलाशबीजयोगः। दोषाच्छन्नोऽनलो नालं पक्तुं दोषोषधाशनम्॥९२॥ पलाशबीजस्वरसं पिबेदा क्षौद्रसंयुतम् । अजीर्णी तीव्र पीड़ा होनेपर भी शूलग्न औषध न खावे, पिबेत्तद्वीजकल्कं वा तक्रेण क्रिमिनाशनम् ॥ ५॥ क्योंकि आमसे ढका अग्नि दोष औषध और भोजनको नहीं ढाकके बीजोंका स्वरस शहदके साथ अथवा उन्हींका कल्क पका सकता ॥ ९२॥ मठेके साथ पानसे क्रिमिरोग नष्ट होता हैं ॥५॥ इत्यग्निमान्याधिकारः समाप्तः । सुरसादिगणकाथः विडंगादिचूर्णं च । अथ क्रिमिरोगाधिकारः। सुरसादिगणं वापि सर्वथैवोपयोजयेत् । विडंगसैन्धवक्षारकाम्पिल्लकहरीतकीः ॥६॥ पिबेत्तऋण सपिष्टाः सर्वाक्रिमिनिवृत्तये । पारसीकयवानिकाचूर्णम् । १ यहां मूसाकानीके पत्तोंके ३ भाग और पिष्टक ( यवका पारसीकयवानिका पीता पर्युषितवारिणा प्रातः। आटा): भाग लेना शिवदासजीने सुश्रुतके टीकाकारका मत गुडपूर्वा क्रिमिजातं काष्ठगतं पातयत्याशु ॥ १॥ | दिखलाते हुए लिखा है । निश्चलके मतसे पिष्टकसे चावलकी प्रथम गुड खाकर ऊपरसे खुरासानी अजवाइन बासी पानीके पिही होना चाहिये । पर क्रिमिनाशक होनेसे यवपिष्टक ही साथ उतारनेसे कोष्ठगत क्रिमिसमूहको गिरा देती है ॥१॥ श्रेष्ठ है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] सुरसादिगणकी ओषधियोंका काथ कल्क आदि बनाकर प्रयोग करना चाहिये | अथवा वायबिडंग, सेंधानमक, यवाखार, कबीला, बड़ी हरेका छिलका सबका चूर्ण बनाकर मट्ठेके साथ पीना चाहिये । इससे सब प्रकारके क्रिमि नष्ट होते हैं ॥ ६ ॥ - विडंगादियवागूः । भाषाटीकोपैतः । विडंगपिप्पलीमूल शिशुभिर्मरिचेन च ॥ ७ ॥ तसिद्धा यवागूः स्यात्किमिनी ससुवर्चिका । वायविडंग, पिपरामूल, सहिजनके बीज, काली मिर्चका कल्क छोड़कर मद्रे में सिद्ध की गई यवागू, सखार छोड़कर खानेसे सब तरहके कीड़े नष्ट होते हैं ॥ ७ ॥ बिम्बीघृतम् । पीतं बिम्बीघृतं हन्ति पक्कामाशयगान्क्रिमीन् ॥ ८ ॥ कड़वी कुन्दरूसे सिद्ध किया घी पनिसे पक्काशय तथा आमाशय में होनेवाले कीड़े नष्ट होते हैं ॥ ८ ॥ त्रिफलादिघृतम् । त्रिफला त्रिवृता दन्ती वचा काम्पिल्लकं तथा । सिद्धमेभिर्गवां मूत्रे सर्पिः क्रिमिविनाशनम् ॥ ९ ॥ त्रिफला, निसोथ, दन्ती, बच, कबीला-इनसे सिद्ध किया कीड़ों को नष्ट करता है । इसमें घृतसे चतुर्गुण गोमूत्र छोड़कर पकाना चाहिये ॥ ९ ॥ विडंगघृतम् । त्रिफलायास्त्रयः प्रस्था विडंगप्रस्थ एव च । द्विपलं दशमूलं च लाभतश्च विपाचयेत् ॥ पादशेषे जलद्रोणे शृते सर्पिर्विपाचयेत् ॥ १० ॥ प्रस्थोन्मितं सिन्धुयुतं तत्पलं क्रिमिनाशनम् ॥११॥ विडंगघृतमेतच्च लेह्यं शर्करया सह । सर्वान्क्रिमन्प्रणुदति वज्रं मुक्तमिवासुरान् ॥१२॥ (44) त्रिफला (तीनों मिलकर ) ३ प्रस्थ, वायबिडंग १ प्रस्थ, दशमूलकी प्रत्येक ओषधि २ पल सब तुरकुचाकर १ द्रोण जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थाश शेष रहनेपर १ प्रस्थ घृत छोड़कर पकाना चाहिये, तथा सेंधानमकका कल्क छोड़ना चाहिये । इस घृतको शर्कराके साथ सेवन करनेसे सब तरहके कीड़े इस प्रकार नष्ट होते हैं जैसे वज्रसे राक्षस ॥ १०-१२ ॥ यूकाचिकित्सा | रसेन्द्रेण समायुक्तो रसो धत्तूरपत्रजः । ताम्बूलपत्रजो वापि लेपो यूकाविनाशनः ॥ १३ ॥ पारद के साथ धतूरे के पत्तेका रस अथवा पानका रस लेप करनेसे जुएँ नष्ट होती हैं ॥ १३ ॥ " विडंगादितैलम् । विडंगगन्धकशिल। सिद्धं सुरभीजलेन कटुतैलम् । आजन्म नयति नाशं लिक्षासहिताश्च यूकास्तु ॥ १४ बायबिडंग, आमलासारगन्धक, मैनशिलका कल्क तथा गोमूत्र छोड़कर सिद्ध किया गया कटुतैल लगानेसे यावद्देह | यूका तथा लीखें नही होतीं ॥ १४ ॥ इति क्रिर्मरोगाधिकारः समाप्तः । अथ पाण्डुरोगाधिकारः । - चिकित्साविचारः । साध्यं तु पाण्ड्वामयिनं समीक्ष्य स्निग्धं घृतेनोर्ध्वमधश्व शुद्धम् । १ शिला = मनः शिला । कुछ लोगोंका सिद्धान्त है कि "गन्धकशिला" एक ही पद है। अतः गन्धक शिला गन्धकका ठेला। पर शिलाका मनःशिला ही अर्थ करना ठीक है, क्योंकि योगरत्नाकरमें पाठभेदसे यही तैल लिखा है । पर उसमें भी मनःशिला आवश्यक है । यथा - " सविडंगं च शिलया सिद्धं सुरभिजले त कटुतैलम् । निखिला नयति विनाशं लिक्षासहिता दिनैर्यूकाः॥ " यहांपर यद्यपि “ कटुतैल-मूर्छनविधि” नहीं लिखी । पर वैद्यलोग प्रायः मूर्च्छन करके ही तैल-पाक करते हैं । अतः कटुतैलमूर्छनविधि, लिखता हूं | वयस्था रजनी मुस्तबिल्वदाडिमकेशरैः । कृष्णजीरकहीबेरनालिकैः सविभीतकैः ॥ एतैः समाशैः प्रस्थे च कर्षमात्रं प्रयोजयेत् । अरुणा द्विपलं तत्र तोयं चाढकसम्मितम् । | १ सुश्रुतमें इस प्रकार है- सुरसा (काली तुलसी), श्वेतसुरमा ( सफेद तुलसी ), फणिज्झक ( मरुवा), अर्जक ( बबई ), भूस्तृण ( छातियेतिप्रसिद्धम् । भूस्तृणं तु भवेच्छन्नं मालातृणकाम त्यपि ), सुगन्धक ( रौहिष ), सुमुख ( वनबबई ), कालमाल ( अयमपि तुलसीभेदः), कासमर्द ( कसौंदी ), क्षवक ( नकछिकवी), खरपुष्पा ( बबईभेद ), विडंग ( वायविडंग ), कट्फल ( कैफरा ), सुरसी ( कपित्थपत्रा तुलसी ), निर्गुण्डी (सम्भालू), कुलाहलोन्दुरकर्णिका (कुकुरशुङ्ग व मूसाकानी) फजी ( भारङ्गी ), प्राचीवल ( काकजंघा ), काकमाच्यः ( मकोय) कटुतैलं पचेत्तेन आमदोषहरं परम् ॥ " अस्यार्थः-विषमुष्टिकश्चेति ( कुचिला ) " सुरसादिर्गणो ह्येष कफहृत्कृमि - आमला, हल्दी, नागरमोथा, बेलकी छाल, अनारकी सूदनः । प्रतिश्यायारुचिश्वासकासन्नो व्रणशोधनः " ॥ छाल, मागकेशर, काला जीरा सुगन्धवाला, नाड़ी, ९ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [पाण्डुरोगा सम्पादयेत्क्षौद्रघृतप्रगाढे फलत्रिकादिकाथः। - हरीतकीचूर्णमयैः प्रयोगः ॥ १॥ साध्य पाण्डुरोगीको देखकर प्रथम घृतपान द्वारा स्नेहन कर फलत्रिकामृतावासातिक्ताभूनिम्बनिम्बजः । वमन तथा विरेचन कराना चाहिये, तदनन्तर शहद और घीके काथः क्षौद्रयुतो हन्यात्पाण्डुरोगं सकामलम् ॥७॥ साथ हर्र मिले चूर्ण खिलाना चाहिये ॥१॥ त्रिफला, गुर्च, रुसाहके फूल, कुटकी, चिरायता, नीमकी पिबेद् घृतं वा रजनीविपक्कं सत्रैफलं तैलकमेव चापि । छालका क्वाथ शहदके साथ पीनेसे पाण्डुरोग सहित कामलारोग विरेचनद्रव्यकृतान्पिबेद्वा योगांश्च वैरेचनिकान्घृतेन २ नष्ट होता है ॥७॥ हल्दीका कल्क छोड़ सिद्ध किया घृत अथवा त्रिफला और लोधसे सिद्ध किया घृत अथवा घृतके साथ दस्त लानेवाले अयस्तिलादिमोदकः । योगीका प्रयोग करना चाहिये ॥२॥ अयस्तिलत्र्यूषणकोलमार्गः विधिः स्निग्धोऽथ वातोत्ये तिक्तशीतस्तु पैत्तिके । ___ सर्वैः समं माक्षिकधातुचूर्णम् । श्लैष्मिके कटुरूक्षोष्णः कार्यों मिश्रस्तु मिश्रके ॥३॥ __ तैौदकः क्षौद्रयुतोऽनुतक्र: वातजन्य-पाण्डुरोगमें स्निग्ध विधि, पित्तजमै तिक्त, शीत पांड्वामये दूरगतेऽपि शस्तः ॥ ८॥ और कफजमें कटु, रूक्ष, उष्ण और मिले हुए दोषोंमें मिली लोहभस्म, काले तिल, सोंठ, काली मिर्च, छोटी चिकित्सा करनी चाहिये ॥३॥ पीपल प्रत्येक ६ मासे सबके समान स्वर्ण-माक्षिक भस्म । पांडुनाशकाः केचन योगाः। सबको शहदमें सानकर गोली बना लेनी चाहिये । इसे मछेके द्विशर्करं त्रिवृच्चूर्ण पलार्ध पैत्तिके पिबेत् । साथ सेवन करनेसे पुराना पाण्डुरोग भी नष्ट होता है * ॥ ८॥ कफपाण्डुस्तु गोमूत्रयुक्तां क्लिन्नां हरीतकीम् ॥४॥ मण्डूराविधिः। नागरं लोहचूर्ण वा कृष्णां पथ्यामथाश्मजम् । गुग्गुलुं वाऽथ मूत्रेण कफपाण्ड्वामयी पिबेत् ॥५॥ अयोमलं तु सन्तप्तं भूयो गोमूत्रवापितम् । सप्तरात्रं गवां मू भावितं वाप्ययोरजः। मधुसर्पिर्युतं चूर्ण सह भक्तेन योजयेत् ॥९॥ पाण्डुरोगप्रशान्त्यर्थ पयसा प्रपिबेन्नरः ॥६॥ | दीपनं चाग्निजननं शोथपाण्ड्वामयापहम् । पैत्तिक पाण्डुरोगमें २ तोला निसोथ द्विगुण शक्कर मिलाकर मण्डूरका तपा तपा कर गोमूत्रम बुझा लेना चाहिय पीना चाहिये । कफज पाण्डुरोगमें गोमूत्रके साथ पकायी हई | उसका चूर्णकर शहद और धीमें मिलाकर भोजनके साथ हर्र गोमूत्रके साथ ही खाना चाहिये । सोंठ, लौहभस्म अथवा खिलाना चाहिये । इससे अग्नि दीप्त होती है और सूजन तथा छोटी पीपल, अथवा हर्र व शिलाजतु अथवा शुद्ध गुग्गुल पाण्डुरोग नष्ट होते हैं ॥९॥ गोमूत्रके साथ कफज-पांडु रोगीको पीना चाहिये । अथवा ७ दिन नवायसं चूर्णम् । गोमूत्रमें भावित लौह भस्म दूधके साथ पाना चाहिये ॥४-६॥ ब्यूषणत्रिफलामुस्तविडंगचित्रकाः समाः ॥१०॥ --बहेडा प्रत्येक १ तोला, मजीठ ८ तोला, कडुवा (सर- नवायोरजसो भागास्तच्चूर्ण मधुसर्पिषा । सांका ) तैल (१ सेर .९ छ ३ तोला, वर्तमान ) बंगाली ४ भक्षयेत्पांडुहृद्रोगकुष्ठार्श:कामलापहम् ॥ ११ ॥ सेर तथा जल ६ सेर ३२ तो० (बंगाली १६ सेर) छोडकर सोंठ, गिर्च, पीपल, आमला, हर्र, बहेड़ा, नागरमोथ पका लेना चाहिये। १" न वामयेत्तमिरिकं न गुल्मिनं न चापि पाण्डूदररोग. पीडितम् " । यद्यपि यह वमनका निषेध करता है, पर वहाँ 1-"अमृतायाः कषायेण स्वेदयित्वाऽथ गुग्गुलम् । गृह्णीयादातपे शुष्क “पीडित"शब्दसे विदित होता है कि चरमावस्था में ही निषेध | तथावकरवर्जितम् ॥” ग्राह्यगुग्गुलुलक्षणम्-" स नवो बहणो युक्त है, अतः प्रथम अवस्थामें वमन कराना विरुद्ध नहीं ।। वृष्यः पुराणस्त्वातलखना वृष्यः पुराणस्त्वातलेखनः । स्निग्धः काञ्चनसंकाशः पक्वजम्बूफअतएव सुश्रुतने लिखा है-“ अवम्या अपि ये प्रोक्तास्तेऽप्यजी-लोपमः ॥ नूतनो गुग्गुलुः प्रोक्तः सुगन्धिर्यस्तु पिच्छिलः। शुष्को र्णव्यथातुराः । विषार्ताश्चोल्बणकफा वामनीयाः प्रयत्नतः" दुर्गन्धिकश्चैव त्यक्तप्राकृतवर्णकः ॥ पुराणः स तु विज्ञेयो गुग्गु २ गुग्गुल शोधनविधिसे शुद्ध कर ही लेना चाहिये शोधलुवीयवजितः "॥ नविधिः-" दुग्धे वा त्रिफलाक्काथे दोलायन्त्रे विपाचितः। * लौह तथा स्वर्ण-माक्षिकका शोधन-मारण रसप्रन्थोंसे वाससा गालितो प्रायः सर्वकर्मसु गुग्गुलः । ॥ अथवा-कीजिये ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] चीतकी जड़, वायविडङ्ग सब भस्म मिलाना चाहिये । इस भाषाटीकोपेतः । समान भाग सबके समान लौहचूर्णको शहद और घीके साथ खानेसे पाण्डु, हृद्रोग, कुष्ठ अर्श और कामलारोग नष्ट होते हैं ॥ १० ॥ ११ ॥ मिलित त्रिफला ३ भाग, मिलित त्रिकटु ३ भाग, चीतकी जड़ १ भाग, वायविडंग १ भाग, शिलाजतु ५ भाग, रौप्य माक्षिक भस्म ५ भाग, स्वर्णमाक्षिक भस्म ५ भाग, लौहभस्म ५ भाग, मिश्री ८ भाग सबका महीन चूर्णकर शहद में अबलेह सरीखा बनाकर लौह-पात्रमें रखना चाहिये । फिर इससे १ तोलाकी मात्रा तथा अग्निबलके अनुसार सेवन करना चाहिये औषधका परिपाक हो जानेपर यथेप्सित भोजन करना चाहिये । । योगराजः । त्रिफलायास्त्रयो भागास्त्रयस्त्रिकटुकस्य च । भागश्चित्रकमूलस्य विडंगानां तथैव च ॥ १२ ॥ पश्चाश्मजतुनो भागास्तथा रूप्यमलस्य च । माक्षिकस्य विशुद्धस्य लोहस्य रजसस्तथा ॥ २३॥ अष्टी भागाः सितायाश्च तत्सर्व लक्ष्णचूर्णितम् । माक्षिकेणाप्लुतं स्थाप्यमायसे भाजने शुभे ॥ १४ ॥ उदुम्बरसमां मात्रां ततः खादेद्यथाग्निना । दिने दिने प्रयोगेण जीर्णे भोज्यं यथेप्सितम् ॥ १५ ॥ वर्जयित्वा कुलत्थांश्च काकमाचीकपोतकान् । योगराज इति ख्यातो योगोऽयममृतोपमः ॥ १६ ॥ तक पीवे ॥ २१ ॥ रसायनमिदं श्रेष्ठं सर्वरोगहरं परम् । पाण्डुरोगं विषं कासं यक्ष्माणं विषमज्वरम् ॥१७॥ कुष्ठान्यजरकं मेहं श्वासं हिक्कामरोचकम् । विशेषाद्धन्त्यपस्मारं कामलां गुदजानि च ॥ १८॥ विशालाद्यं चूर्णम् । विशाल कटुकामुस्तकुष्ठदा रुकलिंगकाः । कर्षाशाद्वि पिचुर्मूर्वा कर्षार्धा च घुणप्रिया ॥ १९ ॥ ( ६७ ) पीत्वा तच्चूर्णमम्भोभिः मुखैलिह्यात्ततो मधु । पाण्डुरोगं ज्वरं दाहं कासं श्वासमरोचकम् ॥२०॥ गुल्मानाहामवातांश्च रक्तपित्तं च तज्जयेत् । इन्द्रायणकी जड़, कुटकी, नागरमोथा, कूठ, यव प्रत्येक एक तोला मूर्वा २ तोला, अतीस ६ महीन चूर्णकर गरम जलके साथ खाना चाहिये शहद चाटना चाहिये । यह पांडुरोग, ज्वर, दाह, कास, श्वास, अरोचक, गुल्म, आनाह, आमवात तथा रक्तपित्तको नष्ट करता है ॥ १९२० ॥ १ यह चूर्ण यकृत, प्लीहा और शोथमें विलक्षण प्रभाव दिखाता है । देवदारु, इन्द्रमाशे सबका । फिर कुछ लौहक्षीरम् । लोहपात्रे शृतं क्षीरं सप्ताहं पथ्यभोजनः ॥ २१ ॥ पिवेत्पाण्ड्वामयी शोषी ग्रहणीदोषपीडितः । लोहपात्र में पकाया गया दूध पथ्य भोजन करता हुआ पाण्डुरोगी, शोषी तथा ग्रहणीसे पीड़ित मनुष्य ७ दिन कामलानाशका योगाः । पर कुलथी, मकोय और कबूतर नहीं खाना चाहिये । यह त्रिफलाया गुडूच्या वा दार्व्या निम्बस्य वा रसः ॥२४ 6 योगराजनामक योग ' अमृतके तुल्य गुणदायक होता है । प्रातर्माक्षिकसंयुक्तः शीलितः कामलापहः । समस्त रोगों को नष्ट करनेवाला यह उत्तम रसायन विशेषकर पाण्डुरोग, विष, कास, यक्ष्मा, विषमज्वर, कुष्ठ, अजीर्णता, प्रमेह, श्वास, हिक्का, अरोचक, अपस्मार, कामला तथा अर्शको नष्ट करता है ॥ १२-१८ ॥ कामलाचिकित्सा | कल्याणकं पञ्चगव्यं महातिक्तमथापि वा ॥ २२ ॥ स्नेहनार्थं घृतं दद्यात्कामलापाण्डुरोगिणे । रेचनं कामलार्तस्य स्निग्धस्यादौ प्रयोजयेत् ॥ २३॥ ततः प्रशमनी कार्या क्रिया वैद्येन जानता । कामला तथा पांडुरोगवालेको स्नेहनके लिये कल्याणक, पञ्चगव्य अथवा महातिक्त घृत देना चाहिये । स्नेहनके अनन्तर विरेचन देना चाहिये । फिर दोषोंको शान्त करनेवाली चिकित्सा करनी चाहिये ॥ २२ ॥ २३ ॥ - त्रिफला अथवा गुर्च या दारूहल्दी या नीमका स्वरस प्रातःकाल शहदके साथ चाटने से कामलाको नष्ट करता है ॥ २४ ॥ - अञ्जनम् । कामलार्तस्य द्रोणपुष्पीरसः स्मृतः ॥ २५ ॥ गूमाका रस कामलावालेकी आंखोंमें आंजना चाहिये ॥२५॥ अपरमञ्जनं नस्यं च । निशागैरिकधात्रीणां चूर्ण वा संप्रकल्पयेत् । नस्यं कर्कोटमूलं वा प्रेयं वा जालिनीफलम् ॥२६॥ हल्दी, गेरू और आमलेके चूर्णका अञ्जन लगाना चाहिये । २ इसमें कुछ आचार्य ' द्विपिचुः ' से २ तोला नीमकी छाल अथवा खेखसाका चूर्ण अथवा कडुई तोरईके फलका चूर्ण सूंघना भी डालते हैं । चाहिये अर्थात् नस्य लेना चाहिये ॥ २६ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) चक्रदत्तः । लेहाः । सशर्करा कामलिनां त्रिभण्डी हिता गवाक्षी सगुडा स शुण्ठी ॥ २७ ॥ दाव सत्रिफला व्योषविडंगान्ययसो रजः । मधुसर्पिर्युतं लिह्यात्कामलापाण्डुरोगवान् ॥ २८ ॥ तुल्या अयोरजः पथ्याहरिद्राः क्षौद्रसर्पिषा । चूर्णिताः कामली लिह्याद् गुडक्षौद्रेण वाभयाम् २९ धात्रीलोहर जो व्योषनिशाक्षीद्राज्यशर्कराः । लढा निवारयन्त्याशु कामलामुद्धतामपि ॥ ३० ॥ कामलावालोंको शक्कर के साथ निसोधका चूर्ण अथवा गुड़ और सोंठके साथ इन्द्रायणकी जड़का चूर्ण खाना चाहिये । तथा दारूहल्दी, त्रिफला, त्रिकटु, वायविडंग, लौहभस्म सब समान भाग ले शहद घी मिलाकर कामला तथा पाण्डुरोगवालेको चाटना चाहिये। तथा लौहभस्म, हर्र, हल्दी सब समान भाग ले शहद, व घीके साथ अथवा केवल बड़ी हरेका चूर्ण गुड़ और शहदके साथ चाटना चाहिये । आमला, लौहभस्म, त्रिकटु, हल्दी, शहद, घी व शक्कर मिलाकर चाटने से कामला शीघ्र ही नष्ट होती है ।। २७-३० ॥ कुम्भकामलाचिकित्सा । दग्ध्वाक्षकाष्ठैर्मलमायसं तु गोमूत्रनिर्वापितमष्टवारान् । विचूर्ण्य लीढं मधुना चिरेण कुम्भाह्वयं पाण्डुगदं निहन्ति ॥ ३१ ॥ लौह्रकिष्टको बहेड़ेकी लकड़ियोंसे तपाकर ८ बार गोमूत्रमें लेना चाहिये | फिर महीन चूर्णकर शहदके साथ चाटने से कामला - नामक पाण्डुरोग नष्ट होता है ॥ ३१ ॥ [ पाण्डुरोगा | चूर्णकर सबके समान लौहभस्म मिलाकर अठ गुने गोमूत्रमें पकाना चाहिये । इसकी एक एक तोलाकी गोली बनाकर प्रतिदिन खाना चाहिये । इससे कामलावान् तथा पाण्डुरोगी शीघ्र ही आरोग्यतारूपी सुख पाते हैं ॥ ३३-३४ ॥ बुझा कुम्भ हलीमक चिकित्सा | पाण्डुरोगक्रियां सर्वां योजयेच हलीमके | कालायां च या दृष्टा सापि कार्या भिषग्वरैः || ३२॥ पाण्डुरोग तथा कामलाकी जो चिकित्सा कही गयी है, वही हलीमकमें भी करनी चाहिये ॥ ३२ ॥ मण्डूरवटकाः । त्र्यूषणं त्रिफला मुस्तं विडंग चव्यचित्रकौ । दात्व माक्षिको धातुर्ग्रन्थिकं देवदारु च ॥ ३५ ॥ एषां द्विपलिकाभागांश्चूर्ण कृत्वा पृथक् पृथक् । मण्डूरं द्विगुणं चूर्णाच्छुद्धमञ्जनसन्निभम् ॥ ३६ ॥ मूत्रे चाष्टगुणे पक्त्वा तस्मिंस्तु प्रक्षिपेत्ततः । उदुम्बरसमान्कुर्याद्वटकांस्तान्यथाग्नितः ॥ ३७ ॥ उपयुञ्जीत तक्रेण सात्म्यं जीर्णे च भोजनम् । मण्डूका ह्येते प्राणदाः पाण्डुरोरोगिणाम् ||३८ ॥ कुष्ठान्यजरकं शोथमूरुस्तम्भकफामयान् । अर्शासि कामलामेहान्प्लीहानं शमयन्ति च ॥३९॥ निर्वाप्य बहुशो मूत्रे मण्डूरं ग्राह्यमिष्यते । प्राहयन्त्यष्टगुणितं मूत्रं मण्डूरचूर्णतः ॥ ४० ॥ सोंठ, कालीमिर्च, छोटी पीपल, त्रिफला, नागरमोथा, वायविडंग, चव्य, चीतकी जड़, दारूहल्दी, दालचीनी, सोनामक्खीकी भस्म, पिपरामूल, देवदारु प्रत्येक ८ तोले ले चूर्ण करना चाहिये । चूर्णसे द्विगुण मण्डूर मिलाकर अठगुने गोमूत्रमें पकाना चाहिये । गाढ़ा हो जानेपर चूर्ण छोड़कर एक तोलाकी गोली बना लेना चाहिये । ओषधि पच जानेपर महके साथ हितकर अन्न भोजन करे । यह लड्डू पाण्डुरोगवालेको प्राणदायक होते हैं । यह कुष्ठ, अजीर्ण, सूजन, ऊरुस्तम्भ, कफके रोग, अर्श, कामला, प्रमेह, प्लीहाको शान्त करते हैं। मण्डूर, गोमूत्रमें | अनेक बार बुझाया हुआ लेना चाहिये, तथा पकानेमें मण्डूर - अष्टगुण गोमूत्र छोड़कर पकाना चाहिये और आसन्न पाक होनेपर चूर्ण मिलाना चाहिये ॥ ३५-४० ॥ १ कुछ वैद्यों का मत है कि यहां पर लौह प्रधान है, अतः लोहसे ही अठगुना गोमूत्र लेकर प्रथम लोह गोमूत्रमें पकाना चाहिये । गाढ़ा हो जानेपर चूर्ण मिलाकर गोलियां बनानी | चाहियें। क्योंकि चूर्ण मिलाकर पकानेसे चूर्ण जल जायगा । पर कुछ बैद्योंका मत है कि चूर्णके समान लोहभस्म मिलाकर सबसे अठगुने गोमूत्रमें पकाना चाहिये । यही मत उचित प्रतीत होता है । चक्रपाणिजी के शब्दोंसे यही अर्थ निलकता है । पर शिवदासजीने दोनों मतों का निदर्शन किया है, अपना निश्चय नहीं लिखा । तथा यहां द्रवद्वैगुण्य नहीं होता, इसकी मात्रा विडंगाद्यं लौहम् । विडंग मुस्ताफला देवदारुषडूषणैः । तुल्यमात्रमयश्चूर्ण गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् ॥ ३३ ॥ तैरक्षमात्रां गुडिकां कृत्वा खादद्दिने दिने । कामलापाण्डुरोगार्तः सुखमापद्यतेऽचिरात् ॥ ३४ ॥ वायविडंग, नागरमोथा, त्रिफला, देवदारु, षडूषण ( पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, कालीमिर्च ) सब समान भाग | वर्तमानकालके लिये ४ रतीसे १ माशेतक है ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। पुनर्नवामण्डूरम् । २००० दो हजार आमलोंका रस निकाल कर रससे पनवनि अष्टमांश शहद और छोटी पीपलका चूर्ण ८ तोला, शक्कर २॥ शेर मिलाकर, चिकने बर्तनमें रख देना चाहिये । विडंगं देवकाष्ठं च चित्रक पुष्कराह्वयम् ॥४१॥ अरिष्ट सिद्ध होजानेपर पाण्डुरोगीको इसे पिलाना चाहिये । त्रिफलां द्वे हरिद्रे च दन्ती च चविकं तथा। इसके हजम हो जानेपर हितकारक थोड़ा भोजन करना कुटजस्य फलं तिक्ता पिप्पलीमूलमुस्तकम् ॥ ४२ ॥ चाहिये । यह अरिष्ट कामला. पाण्ड, हृद्रोग, वातरक्त, एतानि समभागानि मण्डूरं द्विगुणं ततः। विषमज्वर, कास, हिक्का, अरुचि, श्वासको नष्ट करता गोमूत्रेऽष्टगुणे पक्त्वा स्थापयेस्निग्धभाजने ॥४३ ॥ है ॥ ४९-५१ ॥ पाण्डुशोथोदरानाहशूलार्श:क्रिमिगुल्मनुत् । पुनर्नवा, निसोथ, सोंठ, छोटी पीपल, काली मिर्च, द्राक्षाघृतम् । वायविडंग, देवदार, चीतकी जड़, पोहकरमूल, आमला, हर पुराणसर्पिषः प्रस्थो द्राक्षाधेप्रस्थसाधितः। बहेड़ा, हल्दी, दारुहल्दी, दन्तीकी जड़, चव्य, इन्द्रयव, कुटकी, कामलागुल्मपाण्ड्वर्तिज्वरैमेहोदरापहः ॥५२॥ पिपरामूल, नागरमोथा-प्रत्येक समान भाग और सबसे द्विगुण पुराना घी प्रस्थ, मुनक्काका कल्क आधा प्रस्थ, चतुमण्डूर मिलाकर अठगुने गोमत्रमें पकाकर चिकने वर्तनमें रखना | गुण जल डालकर पका लना चाहिये । यह घृत कामला, चाहिये । यह पाण्डुरोग, शोथ, उदररोग, आनाह, शूल, अर्श, गुल्म, पाण्डुरोग, ज्वर, प्रमेह तथा उदररोगको नष्ट क्रिमि और गुल्मको नष्ट करता है ॥ ४१-४३ ॥ | करता है ॥ ५२ ।। मण्डूरवज्रवटकः। हरिद्रादिघृतम्। पञ्चकोलं समरिचं देवदारु फलत्रिकम् ॥ ४४ ॥ हरिद्रात्रिफलानिम्बबलामधुकसाधितम् । विडङ्गमुस्तयुक्ताश्च भागास्त्रिपलसंमिताः। सक्षीरं माहिषं सर्पिः कामलाहरमुत्तमम् ॥ ५३॥ यावन्त्येतानि चूर्णानि मण्डूरं द्विगुणं ततः ॥४५॥| हल्दी, त्रिफला, नीमकी छाल, खरेटी और मौरेठीके दूधके साथ सिद्ध किया भैसका घी-कामलाको नष्ट करपक्त्वा चाष्टगुणे मूत्रे घनीभूते तदुद्धरेत् । ता है ॥५३॥ ततोऽक्षमात्रान् गुडकान्पिबेत्तक्रेण तक्रभुक् ॥४६॥ पाण्डुरोगं जयत्येष मन्दाग्नित्वमरोचकम् । मूर्वाद्यं घृतम् । अर्शासि प्रहणीदोषमूरुस्तम्भमथापि वा ।। ४७ ।। मूर्वातिक्तानिशायासंकृष्णाचन्दनपर्पटैः । क्रिमि प्लीहानमुदरं गररोगं च नाशयेत् । त्रायन्तीवत्सभूनिम्बपटोलाम्बुददारुभिः ॥ ५४॥ मण्डूरवनामायं रोगानीकविनाशनः ॥४८॥ | अक्षमात्रैघृतप्रस्थं सिद्धं क्षीरे चतुर्गुणे । . पञ्चकोल, काली मिर्च, देवदारु, आमला, हर्र, बहेडा, पाण्डुताज्वरविस्फोटशोथार्शोरक्तपित्तनुत् ॥ ७५ ॥ वायविडंग, नागरमोथा-सब मिलाकर-१२ तोला, इसमें २४/ मूर्वा, कुटकी, हल्दी, जवासा, छोटी पीपल, लालचन्दन, तोला शुद्ध मण्डूर मिलाकर अष्टगुण गोमूत्रमें पकाना चाहिये। पित्तपापड़ा, त्रायमाण, इन्द्रयवकी छाल, चिरायता, परवगाढ़ा हो जानेपर १ तोलाकी मात्रा मटेके साथ सेवन करना | लकी पत्ती, नागरमोथा देवदारु-प्रत्येक एक एक कर्ष ले चाहिये और मट्ठा पीना चाहिये। यह 'मण्डरवज्रवटक' मन्दाग्नि कल्क बनाकर एक सेर ९ छटांक ३ तोला घी, दूध ६ सेर पांडुरोग, अरुचि, अर्श, ग्रहणी, ऊरुस्तम्भ, कीड़े, प्लीहा, ३२ तोला और सम्यक् पाकार्थ इतना ही जल मिलाकर उदररोग तथा गरदोषको नष्ट करता है ॥ ४४-४८ ॥ | पकाना चाहिये । यह पाण्डुरोग, ज्वर, फफोले, शोथ, अर्श और रक्तपित्तको नष्ट करता है ॥ ५४ ॥५५॥ धाव्यरिष्टः। व्योषाधं घृतम् । धात्रीफलसहस्र द्वे पीडयित्वा रसं भिषक् । व्योषं बिल्वं द्विरजनी त्रिफला द्विपुनर्नवाः । सौदाष्टभागं पिप्पल्याश्चूर्णार्धकुडवान्वितम् ॥४९॥ मुस्तान्ययोरजः पाठा विडङ्गं देवदारु च ॥ ५६ ॥ शर्करार्धतुलोन्मिश्रं पक्कं स्निग्धघटे स्थितम् । वृश्चिकाली च भाङ्गी च सक्षीरेस्तैघृतं शृतम् । प्रपिबेत्पाण्डुरोगा” जीर्णे हितमिताशनः ।। ५० ॥ सर्वान्प्रशमयत्येतद्विकारान्मृत्तिकाकृतान् ॥ ५७ ॥ कामलापाण्डुहृद्रोगवातासग्विषमज्वरान् । कासहिकारुचिश्वासानेषोऽरिष्टः प्रणाशयेत् ॥५१॥ ... वासेति पाठान्तरम् । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [रक्तपित्ता त्रिकटु, बेलका गूदा, हल्दी, दारुहल्दी, त्रिफला, दोनों | रक्तपित्त तथा ज्वरको नष्ट करते हैं। इससे विरेचन होता पुनर्नवा, नागरमोथा, लोहभस्म, पाढ़, वायविडंग, देवदारु, है ॥ ६ ॥ विछुवा, भारङ्गी-इन सबका कल्क बना कल्कसे चतुर्गुण घृत . अधोगामि रक्तपित्तचिकित्सा । और घृतसे चतुर्गुण दूध और इतना ही जल मिलाकर पकाना . चाहिये । यह घृत मृत्तिकासे उत्पन्न समस्त विकारोंको नष्ट शालपादिना सिद्धा पेया पूर्वमधोगते । करता है ॥ ५६ ॥ ५७॥ वमनं मदनान्मिश्री मन्थः सक्षौद्रशर्करः ॥७॥ इति पाण्डुरोगाधिकारः समाप्तः। अधोगामि-रक्तपित्तमें पहिले शालपादि लघुपञ्चमूलके जलसे सिद्ध पेया देनी चाहिये । फिर मैनफल, शहद और शक्कर मिला पानीसे पतला कर पिलाना चाहिये । इससे वमन . अथ रक्तपित्ताधिकारः। होगा और अधोगामि-रक्तपित्त नष्ट होगा ॥ ७ ॥ पथ्यम्। रक्तपित्तचिकित्साविचारः। शालिषष्टिकनीवारकोरदूषप्रशातिकाः । नौद्रिक्तमादी संग्राह्यं बलिनोऽप्यश्नतश्च यत् । श्यामाकाश्च प्रियगुश्च भोजनं रक्तपित्तिनाम् ॥८॥ मसूरमुद्गचणकाः मकुष्ठाश्चाढकीफलाः। हृत्पाण्डुग्रहणीदोषप्लीहगुल्मज्वरादिकृत् ॥१॥ ऊर्ध्व प्रवृत्तदोषस्य पूर्व लोहितपित्तिनः। प्रशस्ताः सूपयूषार्थ कल्पिता रक्तपित्तिनाम् ॥९॥ शाकं पटोलवेत्राग्रतण्डुलीयादिकं हितम् । अक्षीणबलमांसाग्नेः कर्तव्यमपतर्पणम् ॥२॥ मांसं लावकपोतादिशशैणहरिणादिजम् ॥१०॥ उर्ध्वगे तर्पणं पूर्व कर्तव्यं च विरेचनम् ।। विना शुण्ठी षडंगेन सिद्धं तोयं च दापयेत् । प्रागधोगमने पेया वमनं च यथाबलम् ॥ ३॥ शालिके चावल, साठी, नीवार, कोदई, पसई, सावां, तर्पणं सघृतक्षौद्रलाजचूर्णैः प्रदापयेत् । काकुनका पथ्य-मसूर, मूंग, चना, मोथी, अरहरकी दालके ऊर्ध्वगं रक्तपित्तं तत्पीतं काले व्यपोहति ॥४॥ साथ देना चाहिये। तथा परवल, बेतकी कॉपल, चौराई जलं खजूरमृद्विकामधुकैः सपरूषकैः। आदिका शाक और लवा, कबूतर, खरगोश तथा हरिणका. शृतशीतं प्रयोक्तव्यं तपणाथै सशर्करम् ॥५॥ मांस देना चाहिये । तथा षडंगकी औषधियोंसे सोंठ कम कर पांच औषधियोंसे सिद्ध जल पीनेको देना बलवान् तथा पूर्ण भोजन करते हुए, रोगीके बढ़े हुए चाहिये ॥८-१०॥ रक्तपित्तको रोकना नहीं चाहिये । अन्यथा हृद्रोग, पाण्डरोग, ग्रहणी, प्लीहा, गुल्म, और ज्वरादि उत्पन्न कर देता स्तम्भनावस्था । है। जिसका बल, मांस तथा अग्नि क्षीण नहीं है और क्षीणमांसबलं बालं वृद्धं शोषानुबन्धिनम् ॥११॥ ऊर्ध्वगामि-रक्तापत्त है, ऐसे रोगीको पहिले लंघन कराना। अवम्यमविरेच्यं च स्तम्भनैः समुपाचरेत् । चाहिये । जो क्षीणबलादि हो, उसे प्रथम तर्पण कराना चाहिये, जिसका बल, मांस क्षीण है, जो बालक वृद्ध अथवा राजफिर विरेचन कराना चाहिये । और जिसे अधोगामि-रक्तपित्त यक्ष्मासे पीडित और वमन तथा विरेचनके अयोग्य है, उसे है, उसे पहिले पेया पिलाकर फिर वमन कराना चाहिये । तर्प-स्तम्भनद्वारा रोकना चाहिये ॥ ११ ॥णके लिये खीलके सत्त बनाकर घी शहदके साथ चटानेसे | तर्पण होता तथा ऊर्ध्वगामिरक्तपित्त नष्ट होता है । तथा स्तम्भकयोगाः। खजूर (छुहारा ), मुनक्का, मौरेठी और फाल्सासे सिद्ध। वृषपत्राणि निष्पीड्य रसं समधुशर्करम् ।। १२॥ जल शक्कर मिलाकर तर्पणके लिये पिलाना चाहिये ॥ १-५॥॥ पिबेत्तेन शमं याति रक्तपित्तं सुदारुणम् । आटरूषकनियूहे प्रियङ्गुर्पत्तिकालने । त्रिवृतादिमोदकः । विनीय लोधं सक्षौद्र रक्तपित्तहरं पिबेत् ॥ १३ ॥ त्रिवृता त्रिफला श्यामा पिप्पली शर्करा मधु। । वासाकषायोत्पलमृत्प्रियङ्गुमोदकः सन्निपातोर्वरक्तपित्तज्वरापहः॥६॥ । __लोध्राजनाम्भोरुहकेसराणि । निसोथ, त्रिफला, काला निसोथ, छोटी पीपल, शक्कर| पीतानि हन्युर्मधुशर्कराभ्यां और शहद इनसे बनाये गये मोदक सन्निपात, ऊर्ध्वग| पित्तासृजो वेगमुदीर्णमाशु ॥१४॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (७१) तालीशचूर्णयुक्तः पेयः क्षौद्रेण वासकस्वरसः।। छालका चूर्ण जलके साथ उतारनेसे और मूंगकी दालके यूषके कफवातपित्ततमकश्वासस्वरभेदरक्तपित्तहरः॥१५॥ साथ पथ्य लेनेसे रक्तपित्त शान्त होता है ॥ १८ ॥ १९॥ आटरूषकमृद्वीकापथ्याकाथ क्षीरविधानम् । क्षीदाढयः कसनश्वासरक्तपित्तनिबर्हणः ॥ १६ ॥ कषाययोगैर्विविधैर्दीप्तेऽनौ निर्जिते कफे। अइसेके पत्तोंका स्वरस निकालकर शहद और शक्करके | रक्तपित्तं न चेच्छाम्येत्तत्र वातोल्बणे पयः॥२०॥ साथ चाटना चाहिये । इससे कठिन रक्तपित्त शान्त हो जाता | है। अथवा अडूसाके क्वाथमें प्रियंगु ( अभावमें कमलगट्टा या छागं पयोऽथवा गव्यं शृंतं पञ्चगुणे जले। मेंहदीके बीज ) पिंडोरामिट्टी, सफेद सुरमा अथवा रसौंत अभ्यसेत्ससिताक्षीद्रं पञ्चमूलीशृतं पयः ॥ २१ ॥ और पठानी लोधका चूर्ण छोड़कर पिलाना चाहिये । तथा द्राक्षया पर्णिनीभिवा बलया मधुकेन वा। अडूसेका काथ, नीलोफर, मिट्टी, प्रियंगु, पठानीलोध,सफेदसुरमा श्वदंष्ट्रया शतावर्या रक्तजित्साधितं पयः ॥ २२ ॥ अथवा रसात कमलका कशर-इनका चूर्ण आर शहद व शक्कर। अनेक काढे इत्यादि पिलाकर अग्निके दीप्त तथा कफके मिलाकर पीनेसे बढ़ा हुआ रक्तपित्त शान्त होता है। ताली-क्षीण हो जानेपर यदि रक्तपित्त शान्त न हुआ हो, तो वाताधिशपत्रके चूणेसे युक्त अडूसेका स्वरस शहदके साथ पीनेसे कफ क्यमें बकरी अथवा गायका दूध पञ्चगुण जलमें पकाकर देना वात, पित्त, तमक श्वास और रक्तपित्त नष्ट होता है । इसीलियो शता इसा चाहिये । अथवा पञ्चमूल (लघु ) से सिद्ध ध, मिश्री और प्रकार अडूसा, मुनक्का, और हरेका क्वाथ शहद और शक्कर शहद मिलाकर पीना चाहिये । अथवा मनका. शालिपर्णी, मिलाकर पीनेसे कास, श्वास और रक्तपित्त नष्ट होता। पृष्टपर्णी, मुद्गपणी, माषपर्णी, अथवा खरेटी, मौरेठी, गोखरू है ॥ १२-१६ ॥ और शतावर इनमेंसे किसी एकसे सिद्ध दूध रक्तपितको शान्त करता है ॥ २०-२२॥ - वासाप्राधान्यम् । वासायां विद्यमानायामाशायां जीवितस्य च । केचन लेहाः। रक्तपित्ती क्षयी कासी किमर्थमवसीदति ॥ १७॥ पक्कोदुम्बरकाश्मर्यपथ्याखर्जूरगोस्तनाः । वासाके रहते हुए और जीवनकी आशा रहते हुए मधुना नन्ति संलीढा रक्तपित्तं पृथक् पृथक् ॥२३॥ रक्तपित्त, क्षय, तथा कासवालोंको दुःखी नहीं होना चाहिये १७ मुस्ताशाखोटकत्वग्रसबिन्दुद्वितययुग्द्विगुणिताज्यः । अन्ये योगाः। भूनिम्बकल्क ऊर्ध्वगपित्तास्रश्वासकासहानिकरः२४ खदिरस्य प्रियङ्गूनां कोविदारस्य शाल्मलेः । समाक्षिकः फल्गुफलोद्भवो वा पुष्पचूर्ण तु मधुना लीढ्वा चारोग्यमश्नुते ॥२५॥ पीतो रसः शोणितमाशु हन्ति । अभया मधुसंयुक्ता पाचनी दीपनी मता। मदयन्त्यधिजः काथस्तद्वत्समधुशर्करः॥१८॥ श्लेष्माणं रक्तपित्तं च हन्ति शूलातिसारकम् ॥२६॥ अतसीकुसुमसमङ्गा वटावरोहत्वगम्भसा पीता । । वासकस्वरसे पथ्या सप्तधा परिभाविता । प्रशमयति रक्तपित्तं यदि भुंक्ते मुद्गयूषेण ॥ १९ ॥ कृष्णा वा मधुना लोढा रक्तपित्तं द्रुतं जयेत् ॥२७ शहदके साथ अजीरका रस अथवा शहद और शक्करके | इसी प्रकार पके गूलर, खम्भारके फल, हर्र, छुहारा, मुनक्का साथ नेवारीकी जड़का काथ रक्तको शीघ्र नष्ट करता है । इसी इनमेंसे किसी एकका कल्क शहदके साथ चाटनेसे रक्तपित्त नष्ट प्रकार अलसीके फूल, लज्जावन्तीके बीज, बरगदकी वों और होता है। चिरायताका कल्क, नागरमोथा और सिहोरेका दो | बिन्दु रस और सबसे द्विगुना घृत मिलाकर चाटनेसे ऊर्ध्वग १ वासाके पत्तोंको महीन पीसकर कपड़ेमें रखकर | रक्तपित्त, श्वास, कास नष्ट होते हैं । कत्था प्रियंगु, कचनार, निचोडनेसे रस निकलता है । यह अनुभत है। पर सेमर इनमेंसे किसी एकके फूलोंका चूर्ण शहदके साथ चाटनेसे शिवदासजीने लिखा है कि बासेके पत्तोंका स्वेदन कर आरोग्य प्राप्त होता है। इसी प्रकार बड़ी हर्रका चूर्ण शहदके रस निकालना चाहिये । अन्यथा रस निकालना कठिन है। साथ चाटनेसे पाचन तथा दीपन होता है और कफ, रक्तपित्त, यह बात कुछ अंशोंमें ठीक भी हैं । रस कठिनतासे ही शूल तथा अतिसार नष्ट होते हैं। इसी प्रकार अडूसेके स्वरसमें निकलता है, पर असम्भव नहीं है, परिश्रमसे निकलता है ७ वार भावित हरे अथवा पिप्पली शहदके साथ चाटनेसे रकऔर वही विशेष लाभदायक होता है। पित्तको शीघ्र ही नष्ट करती है ॥ २३-२७॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) चक्रदत्तः। [ रक्तपिचा द्रवमानम् । मूर्ध्नि लेपः। भावनायां द्रवो देयः सम्यगार्द्रत्वकारकः । भावनामें इतना द्रव छोड़ना चाहिये, जिससे चूर्ण अच्छी नासाप्रवृत्तरुधिरं धृतभृष्टं लक्ष्णपिष्टमामलकम् । तरह तर हो जाय । सेतुरिव तोयवेगं रुणद्धि मूर्ध्नि प्रलेपेन ॥ ३३ ॥ आमला महीन पीस घीमें भूनकर शिरमें लेप करनेसे नासासे एलादिगुटिका। बहते हुए रक्तको जलवेगको बान्धके समान रोकता है ॥ ३३॥ एलपत्रत्वचोऽर्धाक्षाः पिप्पल्यर्धपलं तथा ॥२८॥ सितामधुकखर्जूरमृद्वीकानां पलं पलम् । नस्यम् । संचूर्ण्य मधुना युक्ता गुटिकाः कारयेद्भिषक् ॥२९॥ ब्राणप्रवृत्ते जलमेव देयं अक्षमात्रां ततश्चैकां भयक्षेन्ना दिने दिने । सशर्करं नासिकया पयो वा। कासंश्वासंज्वरं हिक्कां छर्दि मूर्छा मदं भ्रमम्॥३०॥ द्राक्षारसं क्षीरघृतं पिबेद्वा रक्तनिष्ठीवनं तृष्णां पार्श्वशुलमरोचकम् ।। सशर्करं चक्षुरसं हितं वा ॥ ३४ ॥ शोथप्लीहाढयवातांश्च स्वरभेदं क्षतक्षयम् ॥ ३१ ॥ नस्यं दाडिमपुष्पोत्थो रसो दूर्वाभवोऽथवा । गुटिका तर्पणी वृष्या रक्तपित्तं च नाशयेत् । । आम्रास्थिजः पलाण्डोर्वा नासिकातरक्तजित् ॥३५ छोटी इलायची के दाने, तेजपात, दालचीनी प्रत्येक ६ माशे. नाकसे बहते हुए रक्तको रोकनेके लिये नासिकासे-शक्करके छोटी पीपल २ तोला, मिश्री, मोरेठी, खजर अथवा छहारा. सहित जल, अथवा दूध, अथवा अंगुरका रस, अथवा शक्कर मुनक्का प्रत्येक ४ तोला-सब चीजें महीन पीस हदमशें मिलाकर मिला दूध, व घी, अथवा ईखका रस, अथवा अनारके फूलोंका गोली बना लेनी चाहिये । इसकी १ तोलेकी मात्रा प्रतिदिन | रस, अथवा दूर्वाका रस, अथवा आमकी गुठलीका रस, या लेना चाहिये । यह कास, श्वास, ज्वर, हिक्का, वमन, मी, प्याजका रस पीना चाहिये । अर्थात् नस्य लेना चाहिये ३४।३५ मद, भ्रम, रक्तपित्त, प्यास, पसलियोंका दर्द, अरुचि, सूजन, उत्तरवस्तिः । प्लीहा, ऊरुस्तम्भ, स्वरभेद तथा क्षतक्षयको नष्ट करती है और तर्पण तथा वाजीकर है ॥ २८-३१॥ मेढ़गेऽतिप्रवृत्ते तु बस्तिरुत्तरसंज्ञितः । शृतं क्षीरं पिबेद्वापि पश्चमूल्या तृणाह्वया ॥३६॥ पृथ्वीकायोगः। लिङ्गसे अधिक रक्त आनेपर उत्तरवस्ति देना चाहिये । लोहगन्धिनि निःश्वासे उद्गारे रक्तगन्धिनि ॥ ३२॥ अथवा तृणपञ्चमूल (कुश, काश, शरधानकी जड़ और ईखकी पृथ्वीका शाणमात्रां तु खादेद् द्विगुणशर्कराम्। जड़) से सिद्ध दूध पीना चाहिये ॥ ३६॥ श्वास तथा डकारमें लोहकी गन्ध आनेपर बड़ी इलायचीका चूर्ण ३ माशे द्विगुण शक्कर मिलाकर फाकना चाहिये ॥ ३२ ॥ दूर्वायं घृतम् । दूर्वा सोत्पलकिजल्का मञ्जिष्ठा सैलवालुका । १ भावनाविधिः-" दिवा दिवातपे शुष्क रात्रौ रात्री च सिता शीतमुशीरं च मुस्तं चन्दनपद्मको ।। ३७ ॥ बासयेत् । शुष्कं चूर्णीकृतं द्रव्यं सप्ताहं भावनाविधिः ॥ द्रव्येण विपचेत्कार्षिकैरेतेः सर्पिराजं सुखाग्निना। यावता द्रव्यमेकीभूयाद्रेतां व्रजेत् । तावत्प्रमाणं निर्दिष्टं भिषग्भि- तण्डुलाम्बु त्वजाक्षीरं दत्त्वा चैव चतुर्गुणम् ॥३८॥ र्भावनाविधौ ॥". तत्पानं वमतो रक्तं नावनं नासिकागते । २ इससे सूखी चीजें कूट कपड़छानकर लेना चाहिये ।। कर्णाभ्यां यस्य गच्छेत्तु तस्य कौँ प्रपूरयेत् ॥३९॥ गीली चीजें सिलपर महीन पीसकर मिलाना चाहिये । चक्षुःस्राविणि रक्ते तु पूरयेत्तेन चक्षुषी । ३ यहांपर श्रीशिवदासजीने 'पृथ्वीका' शब्दसे काला जीरा | मेढ़पायुप्रवृत्ते तु बस्तिकर्मसु योजयेत् ॥ ४०॥ लिखा है। वह भी इस लिये कि टीकाकारोंने नहीं व्याख्यान | रोमकूपप्रवृत्ते तु तदभ्यंगे प्रयोजयेत् ॥४१॥ किया। आगे आप लिखते हैं कि यद्यपि काला जीरा उष्ण | दूध, कमलकी केशर, मजीठ, एलवालुक, सफेद दूब, कपूर, होता है, पर द्विगुण शक्कर मिलनेके कारण अथवा प्रभावसे खस, नागरमोथा, सफेद चन्दन, पद्माख-प्रत्येक एक एक तोला रोगनाशक होता है। पर इलायचीका प्रयोग क्यों न किया ले कल्क बना करकसे चतुर्गुण बकरीका घी और घीसे . चतुर्गुण जाय ? इसका कुछ हेतु आपने नहीं लिखा, अतः मैंने बड़ी दूध व चतुर्गुण चावलका जल मिलाकर पकाना चाहिये । यह इलायची ही लिखना उचित समझा। |घृत जिसे रकका वमन होता हो, उसे पिलाना चाहिये। जिसके Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषार्टीकोतः। (७३) - - नाकसे आता हो, उसे नस्य देना चाहिये । जिसके कानोंसे आता पकाना चाहिये । घृत सिद्ध हो जानेपर घृतसे चतुर्थांश शहद हो, उसके कानों में छोड़ना चाहिये । यदि नेत्रसे खून आता हो, और मिश्री मिलाकर छान लेना चाहिये । पर मिश्रीका चूर्ण तो नेत्रोंमें भरना चाहिये । गुदा या लिङ्गसे यदि रक्त आता कुछ गरममें और शहद ठण्ढा होनेपर छोड़ना चाहिये । यह हो, तो वस्तिं देना चाहिये और रोमकूपोंसे आता हो, तो इसकी घृत रक्तपित्त, वातरक तथा क्षीणशुक्रवालोंको लाभ करता है। मालिश करना चाहिये ॥ ३७-४१॥ कन्धों तथा शिरकी जलन, पित्तज्वर, योनि-शूल, दाह, पैत्तिक | मूत्र कृच्छ्रको यह घृत जैसे छोटे छोटे मेघोंके टुकड़ोंको वायु शतावरीघृतम्। वैसे ही नष्ट करता है। तथा बल, वर्ण और अनिको उत्तम शतावरीदाडिमतिन्तिडीकं बनाता है। ४४-४९ ॥. काकोलिभेद मधुकं विदारीम् । प्रक्षेपमानम्। पिष्ट्वा च मूलं फलपूरकस्य स्नेहपादः स्मृतः कल्कः कल्कवन्मधुशर्करे।। घृतं पचेत्क्षीरचतुर्गुणं ज्ञः ॥४२॥ इति वाक्यबलात्स्नेहे प्रक्षेपः पादिको भवेत्॥५०॥ कासवरानाहविबन्धशूलं "स्नेहसे चतुर्थांश कल्क और कल्कके समान ही शहद और तद्रक्तपित्तं च घृतं निहन्यात् ।। ४३॥ शबर मिलित छोड़ना चाहिये " इस परिभाषासे प्रक्षेप नेहसे शतावर, अनारदाना, अमली, काकोली, * मेदा, मारठा, चतुर्थाश छोड़ना चाहिये ॥५०॥ विदारीकन्द तथा बिजौरे निम्बूकी जड़का कल्क छोड़ चतुर्गुण | दूध मिलाकर घृत पकाना चाहिये । यह घृत कास, ज्वर, पेटका | वासाघृतम् । दर्द, अफारा और रक्तपित्तको नष्ट करता है ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ बासां सशाखां सपलाशमूलां महाशतावरीघृतम् । कृत्वा कषाय कुसुमानि चास्याः। प्रदाय कल्कं विपचेद् घृतं तत्शतावर्यास्तु मूलानां रसप्रस्थद्वयं मतम् । सक्षौद्रमाश्वेव निहन्ति रक्तम् ॥५१॥ तत्समं च भवेत् क्षीरं घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ४४॥ अडूसेके पञ्चांगका क्वाथ और अडूसेके फूलोंका करक छोड़जीवकर्षभको मेदा महामेदा तथैव च। कर घृत पकाना चाहिये । यह घृत शीघ्र ही रक्तपित्तको नष्ट काकोली क्षीरकाकोली मृद्वीका मधुकं तथा ॥४५॥ करता है ॥२१॥ मुद्रपर्णी माषपर्णी विदारी रक्तचन्दनम् । पुष्पकल्कमानम्। शर्करामधुसंयुक्तं सिद्धं विस्रावयेद्भिषक् ॥४६॥ शणस्य कोविदारस्य वृषस्य ककुभस्य च । रक्तपित्तविकारेषु वातरक्तगदेषु च । कल्काढयत्वात्पुष्पकल्कं प्रस्थे पलचतुष्टयम् ॥५२॥ क्षीणशक्रेषु दातव्यं वाजीकरणमुत्तमम् ॥ ४७ ॥ शण, कचनार, अडूसा तथा अर्जुनके फूलोंका कल्क अधिक अंसदाहं शिरोदाहं ज्वरं पित्तसमुद्भवम् । | होनेके कारण १ प्रस्थ (द्रवद्वैगुण्यात्-१सेर ९ छ० ३ तो०) योनिशलं च दाहं च मूत्रकृच्छंच पैत्तिकम् ॥४८॥ में इनका कल्क ४ पल अर्थात् १६ तो. ही छोड़ना एतान्रोगानिहन्त्याशु छिन्नाभ्राणीव मारुतः। चाहिये ॥५२॥ शतावरीसापरिदं बलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ ४९॥ कामदेवघृतम् । ताजी शतावरी की जड़का रस २ प्रस्थ और दूध दो प्रस्था अश्वगन्धापलशतं तदधै गोक्षुरस्य च । और घी १ प्रस्थ तथा जीवक, ऋषभक, तथा मेदा, महामेदा, शतावरी विदारी च शालिपी बला तथा ॥५३॥ काकोली, क्षीरकाकोली, मुनक्का, मौरेठी, मुद्गपर्णी, माषपणी, अश्वत्थस्य च शुङ्गानि पद्मवीजं पुनर्नवा। विदारीकन्द, लालचन्दनका कल्क घृतसे चतुर्थाश छोड़कर घृत काश्मरीफलमेवं तु माषबीज तथैव च ॥५४॥ पृथग्दशपलान्भागांश्चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत् । * इसमें काकोलीके अभावमें असगन्ध और भेदाके अभा चतुर्भागावशेषे तु कषायमवतारयेत् ॥ ५५ ॥ वमें शतावर छोड़ना चाहिये । तिन्तिडीकके बीज छोटे लाल चिरौंजीके समान होते हैं। पसारी इन्हें त्रायमाणके नामसे देते हैं। मृद्वीका पनकं कुष्ठं पिप्पली रक्तचन्दनम् । कोई कोई इमली ही छोड़ते हैं । तथा सम्यक् पाकार्थ चतुर्गुण | बालकं नागपुष्पं च आत्मगुप्ताफलं तथा ॥ ५६॥ जल भी छोड़ना चाहिये। नीलोत्पलं शारिवे द्वे जीवनीयं विशेषतः। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [ रक्तपित्ता पृथक्कर्षसमं चैव शर्करायाः पलद्वयम् ॥ ५७ ॥ सप्तप्रस्थं घृतम् । रसस्य पौण्डकेक्षणामाढकं तत्र दापयेत् । चतुर्गुणेन पयसा घृतप्रस्थं विपाचयेत् ।। ५८ ॥ शतावरीपयोद्राक्षाविदारीक्ष्वामलैः रसैः ॥ ६४ ॥ रक्तपित्तं क्षतक्षीणं कामला. वातशोणितम् । सर्पिषा सह संयुक्तः सप्तप्रस्थं पचेद् घृतम् । हलीमकं तथा शोथं वर्णभेदं स्वरक्षयम् ॥ ५९॥ । शर्करापादसंयुक्त रक्तपित्तहरं पिबेत् ।। ६५ ॥ अरोचकं मूत्रकृच्छं पार्श्वशूलं च नाशयेत् ।। उरःक्षते पित्तशूले योनिवातेऽप्यमृग्दरे। एतद्राज्ञां प्रयोक्तव्यं बह्वन्तः पुरचारिणाम् ॥६० ॥ बल्यमूर्जस्करं वृष्यं क्षुधाहृद्रोगनाशनम् ॥ ६६ ॥ स्त्रीणां चैवानपत्यानां दुर्बलानां च देहिनाम् । । शतावरीका रस, दूध, अङ्गुरका रस, विदारीकन्दका रस, क्लीबानामल्पशुक्राणां जीर्णानां यक्ष्मिणां तथा ॥६१ / ईखका रस, आमलेका रस, प्रत्येक एक एक प्रस्थ, घी एक श्रेष्ठं बलकरं हृद्यं वृष्यं पेयं रसायनम् । प्रस्थ, मिश्री १ कुड़व मिलाकर पकाना चाहिये । यह रक्तपित, ओजस्तेजस्करं चैव आयुःप्राणविवर्धनम् ॥ ६२॥ उरःक्षत, पित्तशूल, योनिरोग रक्तप्रदरको नष्ट कर बल, ओज, संवधर्यति शुक्रं च पुरुषं दुर्बलेन्द्रियम् । वीर्यको बढ़ाता और क्षुधा तथा हृद्रोगको शान्त करता है ॥६४-६६॥ सर्वरोगविनिर्मुक्तं तोयसिक्तो यथा द्रुमः ॥ ६३ ॥ कामदेव इति ख्यातः सर्वरोगेषु शस्यते । कूष्माण्डकरसायनम् । असगन्ध ५ सेर, गोखरू २॥ सेर, शतावरी, विदारीकन्द, शालिपर्णी, खरेटी, पीपलकी कोंपल, कमलगट्टाकी मांगी, पुन कूष्माण्डकात्पलशतं सुस्विनं निष्कुलीकृतम् । र्नवा, खम्भारके फल तथा उड़द प्रत्येक ४० तोला सब दुरकु पचेत्तप्ते घृतप्रस्थे शनस्ताम्रमये दृढे ॥ ६७ ॥ बाकर २ मन २२ सेर ३२ तोला जलमें पकाना चाहिये। यदा मधुनिभः पाकस्तदा खण्डशतं न्यसेत् । चतुथांश शेष रहनेपर उतारकर छान लेना चाहिये । इस काथमें पिप्पलीशृङ्गवराभ्यां द्वे पले जीरकस्य च ॥ ६८॥ १प्रस्थ (१सेर ९ छ० ३ तो०) घी तथा मुनक्का, पद्माख, त्वगेलापत्रमारचधान्यकानां पलार्धकम् । कूठ, छोटी पीपल, लालचन्दन, सुगन्धवाला, नागकेशर, न्यस्येच्चूर्णीकृतं तत्र दया संघट्टयेन्मुहुः ॥ ६९ ॥ काँचके बीज, नीलोफर, सफेद शारिवा तथा काली सारिवा | तत्पक स्थापयेद्भाण्डे दत्त्वा क्षौद्रं घृतार्धकम् । और जीवनीय गणकी औषधियां प्रत्येक एक एक तोलेका कल्क, तद्यथाग्निबलं खादेद्रक्तपित्ती क्षतक्षयी ॥ ७० ।। शकर ८ तोला, पौंडाका रस ६ सेर ३२ तोला तथा दूध कासश्वासतमश्छदितृष्णाज्वरनिपीडितः । सेर ३२ तोला तथा इतना ही जल मिलाकर सिद्ध करना वृष्यं पुनर्नवकरं बलवर्णप्रसाधनम् ॥ ७१॥ चाहिये । यह घृत रक्तपित्त, क्षतक्षीण, कामला, वातरक्त, हलीमक, शोथ, स्वरभेद, वर्णभेद, अरोचक, मूत्रकृच्छ, तथा उरःसन्धानकरणं बृंहणं स्वरबोधनम् । पसुलियोंके शूलको नष्ट करता है। यह जिनके बहुत स्त्रियां हैं अश्विभ्यां निर्मितं सिद्धं कूष्माण्डकरसायनम॥७२॥ ऐसे राजाओंके लिये तथा जिनके सन्तान नहीं होती, ऐसी पेठा (छिल्का तथा बीज निकाला हुआ) मन्द आंचमें स्त्रियोंके लिये, दुर्बल मनुष्योंके लिये, नपुंसक तथा अल्पवीय उबालकर रस निचोड़कर अलग रखना चाहिये । फिर पेठाको वालोंके लिये, पृद्धोंके तथा यक्ष्मावालोंके लिये विशेष लाभ ममहीन पीसकर ५ सेर में ६४ तोला घी डालकर मन्द आंच में दायक है। बलको बढ़ाता, हृदयको बल देता है, वाजीकर हैं, खब सेंकना चाहिये । जब पक जाय और सुगन्ध उठने लगे, ओज, तेज, आयु तथा वीर्यको बढ़ाता है । दुर्बल पुरुषोंको तब वही पेठेका जल और ५ सेर मिश्री मिलाकर पकाना सप्रकार रोगरहित तथा बलवान् बनाता है जैसे जलसे | चाहिये । जब सिद्ध होनेपर आ जाय, तब छोटी पीपल ८ सींचा गया वृक्ष । यह " कामदव घृत" सब रागाम लाभ तोला, सोंठ ८ तोला, सफेद जीरा ८ तोला, दालचीनी, करता है ॥ ५३-६३॥-- |तेजपात, इलायची, काली मिर्च, धनियां प्रत्येक २ तोलाका - महीन पिसा हुआ चूर्ण छोड़ना चाहिये और खूब कल्छीसे १जीवनीयगणः-"जीवकर्षभको मेदा महामदा काकोली मिलाकर उतार लेना चाहिये । ठण्डा हो जानेपर शहद ३२ क्षीरकाकोली मुद्गमाषपण्यौ जीवन्ती मधुकमिति दशेमानि जीव- तोला मिलाकर रख लेना चाहिये । इसे अग्नि और बलके अनुनीयानि भवन्ति "। यह प्रयोग परम वाजीकर है, अत एव सार सेवन करना चाहिये । यह रक्तपित्त, क्षतक्षय, कास, श्वास, इसका"कामदेव घृत" नाम है। और अन्य ग्रन्थोंमें इसे वाजी-नेत्रोंके सामने अन्धकारका आ जाना, वमन, प्यास, ज्वरको नष्ट करणाधिकारमें लिखा है। करता है । वाजीकरण, शरीरको नवीन बनाता, बल और वर्ण Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः । उत्तम करता, शरीरको वढ़ाता, स्वरको उत्तम बनाता तथा उरः क्षतको जोड़ता है । यह कूष्माण्डकरसायन " भगवान अश्विनीकुमारने निर्माण किया है ॥ ६७-७२ ॥ कूष्माण्डकरसायने द्रवमानम् । खण्डामलकमानेन रसः कूष्माण्डकद्रवात् । पात्र पाकाय दातव्यं यावान्वा तद्रसो भवेत् ॥७३ अत्रापि मुद्रया पाको निस्त्वचं निष्कुलीकृतम् । खण्डामलके अनुसार कूष्माण्डेका रस एक आढ़क छोड़ना चाहिये | अथवा रस जितना निकले उतना ही छोड़ना चाहिये । निष्कुलीकृत माने छीले और पाक जब हुए मुद्रा बनने लग जाय, तब समझना चाहिये ॥ ७३ ॥ वासाकूष्माण्डखण्डः । • पञ्चाशश्च पलं स्विन्नं कूष्माण्डात्प्रस्थमाज्यतः ॥७४॥ ग्राह्यं पलशतं खण्डं वासाक्काथाढके पचेत् । मुस्ता धात्री शुभा भाङ्ग त्रिसुगन्धेश्व कार्षिकैः ७५ ॥ ऐलेय विश्वधन्याकमरिचैश्च पलांशिकैः । पिप्पलीकडवं चैव मधुमानीं प्रदापयेत् ॥ ७६ ॥ कासं श्वासं क्षयं हिक्कां रक्तपित्तं हलीमकम् । हृद्रोगमम्लपित्तं च पीनसं च व्यपोहति ॥ ७७ ॥ पेठा (छिला हुआ तथा बीज निकाला हुआ ) उबालना चाहिये, फिर इसको निचोड़कर रस अलग रखना चाहिये, फिर पेठेको महीन पीसकर घी में भूनना चाहिये, ५० पल (२॥ सेर) पेठे में घी १ प्रस्थ छोड़ना चाहिये । भुन जानेपर मिश्री ५ सेर, पेठेका रस और वासा क्वाथ १ आढ़क मिलाकर पकाना चाहिये । सिद्ध होनेपर नागरमोथा, आमला, वंशलोचन, भारजी, दालचीनी, तेजपात, इलायची- प्रत्येक एक तोला एल बालुक, सोंठ, धनियां, काली मिर्च प्रत्येक ४ तोला तथा पीपल १६ तो० का महीन चूर्ण छोड़ मिलाकर उतार लेना चाहिये | फिर ठण्डा होनेपर शहद ३२ तोला छोड़ना चाहिये । यह अवलेह -- कास, श्वास, क्षय, हिक्का, रक्तपित्त, हलमिक, हृद्रोग, अम्लपित्त, और पीनसको नष्ट करता है ॥ ७४-७७ ॥ वासाखण्डः । तुलामादाय वांसायाः पचेदष्टगुणे जले । तेन पादावशेषेण पाचयेदाढकं भिषक् ॥ ७८ ॥ १ योगरत्नाकरमें इसी प्रयोगको कुछ बढ़ा दिया है । अर्थात् इसमें “ क्षौद्रं घृताधर्कम् ” से समाप्त हो जाता है । पर उन्होंने आगे लिखा है " क्षौद्रार्धिकां सितां केचित्कचिद् द्राक्षां सितार्धि काम् । द्राक्षार्धानि लवङ्गानि कर्षे कर्पूरकं क्षिपेत् । तथा कूष्माण्ड उबालकर निचोड़ने पर जितना स्वरस निकलता है, उसीसे पाक करमेका व्यवहार है । (04) चूर्णानामभयानां च खण्डाच्छुद्धात्तथा शतम् । द्वेल पिप्पलीचूर्णात्सद्धशीते च माक्षिकात् ॥७९ कुडवं पलमात्रं तु चातुर्जातं सुचूर्णितम् । क्षिप्त्वा विलोडितं खादेद्रक्तपित्ती क्षतक्षयीं । कासश्वासपरीतश्च यक्ष्मणा च प्रपीडितः ॥ ८० ॥ अडूसेका पञ्चांग ५ सेर ४० सेर जलमें पकानां चाहिये, | १० सेर शेष रहनेपर उतार छानकर बड़ी हर्रका चूर्ण ३ सेर १६ तोला, मिश्री ५ सेर, पीपलका चूर्ण ८ तोला मिलाकर पकाना चाहिये । पाक हो जानेपर उतार ठण्डाकर शहद ३२ तोला, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेशर - प्रत्येकका चूर्ण ४ तोला छोड़ मिलाकर रक्तपित्त, क्षतक्षय, कास, श्वास यक्ष्मासे पीड़ित रोगीको यह " वासाखण्ड " खाना चाहिये ॥ ७८-८० ॥ तथा खण्डको लौहः । शतावरीच्छिन्नरुहावृष मुण्डतिकाबलाः । तालमूली च गायत्री त्रिफलायास्त्वचस्तथा ॥ ८१ ॥ भाङ्ग पुष्करमूलं च पृथक् पञ्च पलानि च । जलद्रोणे विपक्तव्य मष्टमांशावशेषितम् ॥ ८२ ॥ दिव्योषधहतस्यापि माक्षिकेण हतस्य वा । पलद्वादशकं देयं रुक्मलौहं सुचूर्णितम् ॥ ८३ ॥ खण्डतुल्यं घृतं देयं पलषोडशिकं बुधैः । पचेत्ताम्रमये पात्रे गुडपाको यथा मतः ॥ ८४ ॥ प्रस्था मधुनो देयं शुभाश्मजतुकं त्वचम् । शृङ्गी विडङ्गं कृष्णा च शुण्ठथजाजी पलं पलम् ८५ त्रिफला धान्यकं पत्रं द्वयक्षं मरिचकेशरम् । चूर्ण दत्त्वा सुमथितं स्निग्धे भाण्डे निधापयेत् ८६ ॥ यथाकालं प्रयुञ्जीत बिडालपदकं ततः । गव्य क्षीरानुपानं च सेव्यं मांसरसः पयः ॥ ८७ ॥ गुरुवृष्यान्नपानानि स्निग्धं मासादि बृंहणम् । रक्तपित्तं क्षयं कासं पक्तिशूलं विशेषतः ॥ ८८ ॥ १ यहां वासा आर्द्र ही लेना चाहिये और " शुष्कद्रव्येष्विदं मानं द्विगुणं तद् द्रवाईयोः । " इस सिद्धान्तसे द्विगुण नहीं करना चाहिये क्योंकि " गुडूची कुटजो वासा कूष्माण्डव शतावरी । अश्वगन्धा सहचरः शतपुष्षा प्रसारणी ॥ प्रयोक्तव्याः सदैवार्द्रा द्विगुणा नैव कारयेत् " ॥ इसी प्रकार अष्टगुण जलको भी द्विगुण नहीं करना चाहिये । " मानं तथा तुला यास्तु द्विगुणं न क्वचिन्मतम् । " तथा मधु कुड़व होनेपर भी द्विगुण लिया जाता है । “सर्पिः खण्डजलक्षौद्रतैलक्षीरासवादिषु । अष्टौ पलानि कुव नारिकेले च शस्यते ॥ " Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) . . चक्रदत्तः। [राजयक्ष्मा D वातरक्तं प्रमेहं च शीतपित्तं वमि लमम् । __ वर्जनीयं विशेषेण खण्डकाद्यं प्रकुर्वता । श्वयथु पाण्डुरोग च कुष्ठं प्लीहोदरं तथा ।। ८९॥ लोहान्तरवदत्रापि पुटनादिक्रियेष्यते ॥ ९५॥ आनाहं रक्तसंस्रावं चाम्लपित्तं निहन्ति च ।। बकरी, कबूतर, तीतर, कैकड़ा, खरगोश, काला मृग, चक्षुष्यं बृहणं वृष्यं माङ्गल्यं प्रीतिवर्धनम् ॥ १०॥ "तथा मृग इनका मांस, नरियलका जल, चौपतिया, आरोग्यपुत्रदं श्रेष्ठ कामाग्निबलवर्धनम्। | बथुवा, सूखी मूली, जीरा, परवल, बड़ी कटेली, बैंगन, श्रीकर लाघवकरं खण्डकाद्यं प्रकीर्तितम् ॥ ९१ ॥ पके आम, छुहारा, मीठा अनार खाना चाहिये। जिन वस्तु ओंके नामके आदिमें ककार है ऐसी चीजें तथा अनूपमांस शतावरी, गुर्च, अडूसा, मुण्डी, खरेटी, मुसली, कत्था, ""| खण्डकाय' सेवन करनेवालोंको त्याग देना चाहिये । दूसरे त्रिफला, भारंगी, पोहकरमूल प्रत्येक ५ पल (२० तोला ) एक प्रयोगोंके समान इसमें भी लौहभस्म ही छोड़ना चाहिये९२-९५ द्रोण जलमें पकाना चाहिये । अष्टमांश शेष रहनेपर उतारकर छान लेना चाहिये। फिर इसमें मनःशिला अथवा स्वर्ण माक्षिकके। परिशिष्टम् । योगसे बनाया कान्तलौहभस्म ४८ तोला, घी ६४ तोला, ___ यच्च पित्तवरे प्रोक्तं बाहरन्तश्च भेषजम् । मिश्री ६४ तोला छोड़कर पकाना चाहिये । अवलेह सिद्ध हो जानेपर वंशलोचन, शिलाजतु, दालचीनी, काकड़ासिंही, रक्तपित्ते हितं तच्च क्षीणक्षतहितं च यत् ॥ ९६ ॥ वायविडंग, छोटी पीपल, सोंठ, जीरा, प्रत्येक ४ तोला, जो पित्तज्वरके लिये बाहरी तथा भीतरी चिकित्सा कही गई त्रिफला, धनियां, तेजपात, काली मिर्च, नागकेशर प्रत्येक है, वह तथा क्षतक्षीणकी जो चिकित्सा है, वह रक्तपित्तमें २ तोला चूर्ण छोड़ ठंढा हो जानेपर शहद ३२ तोला छोड़ लाभदायक होती है ॥ ९६ ॥ मिलाकर चिकने बर्तन में रख लेना चाहिये । इसका १ तोला प्रतिदिन सेवन करना चाहिये। अनुपान-गायका दूध, पथ्य-दूध, इति रक्तपित्ताधिकारः समाप्तः। । मांसरस, भारी तथा वाजीकर अन्नपान तथा बृंहण मांसादि सेवन करना चाहिये । यह " खण्डकाद्यावलेह " रक्तपित्त,क्षय, कास, अथ राजयक्ष्माधिकारः। परिणामशूल, वातरक्त, प्रमेह, शीतपित, वमन, ग्लानि, सूजन, पांडुरोग, कुष्ठ, प्लीहा, आनाह, रक्तस्राव तथा, अम्लपित्तको नष्ट करता, नेत्रबल शरीखुद्धि, वीर्य, मङ्गल तथा प्रसन्नता उत्पन्न राजयक्ष्मणि पथ्यम् । करनेवाला, आरोग्य, पुत्र, काम, अग्नि तथा बलको बढ़ानेवाला, शरीरकी शोभा तथा लाघव करनेवाला है॥८१-९१ ।। शालिषष्टिकगोधूमयवमुद्रादयः शुभाः। मद्यानि जाङ्गलाः पक्षिमृगाः शस्ता विशष्यताम॥१ अत्र पथ्यापथ्यम्। शुण्यतां क्षीणमांसानां कल्पितानि विधानवित् । छागं पारावतं मांसं तित्तिरिः कराः शशाः।। दद्यात्क्रयादमांसानि बृंहणानि विशेषतः ॥२॥ शालि तथा साठीके चावल, गेहूं, यव, मूंग, शराब, जांगल कुरङ्गाः कृष्णसाराश्च तेषां मांसानि योजयेत्॥१२॥ प्राणियोंका मांस हितकर है। जिनका मांस क्षीण हो गया है, नारिकेलपयःपानं सुनिषण्णकवास्तुकम् । उन्हें मांस खानेवाले प्राणियोंका मांस खिलाना अधिक पौष्टिक शुष्कमूलकजीराख्यं पटोलं बृहतीफलम् ॥ ९३॥ होता है ॥ १ ॥२॥ फलं वार्ताकु पक्कानं खरं स्वादु दाडिमम् ।। शोधनम् । ... ककारपूर्वकं यच्च मांसं चानूपसम्भवम् ।। ९४॥ । दोषाधिकानां वमनं शस्यते सविरेचनम् । स्नेहस्वेदोपपन्नानां स्नेहनं यन्न कर्षणम् ॥३॥ १ कुछ आचाय इस प्रयोगमें गन्धक, अभ्रक और रसको। भी मिलाते हैं और इसीके अनुकूल प्रमाण देते हैं । “न रसेन जिनके दोष अधिक बढे हैं, उन्हें नेहन स्वेदन कराकर स्निग्ध विना लोहं गन्धकं चाभ्रक विना । तथा चपलेन विना लोहं यः पदाथोंसे वमन अथवा विरेचन कराना चाहिये । पर शोधन ऐसा करोति पुमानिह ॥ उदरे तस्य किटानि जायन्ते नात्र संशयः।" हो, जिससे कृशता न बढ़े॥३॥ पर यह व्यवहार सिद्ध नहीं है। उपरोक्त प्रमाण केवल चतुःसमलौहके लिये है । अतएव वहां 'इह' शब्द भी पढ़ा है । यह शुद्धकोष्ठस्य युजीत विधि बृंहणदीपनम् । शिवदासजीका मत है ॥ कोष्ठ शुद्ध हो जानेपर बृंहण तथा दीपन प्रयोग करना चाहिये। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकोपेतः । धिकारः ] (७७) दशसूल, खरेटी, रास्ना, पोहकरमूल, देवदारु, व सांठका राजयक्ष्मणि मलरक्षण प्रयोजनम् । शुक्रायत्तं बलं पुंसां मलायत्तं हि जीवितम् ॥ ४ ॥ क्वाथ -पसली तथा कन्धों व शिरकी पीड़ा व क्षयज कासादिकी शांतिके लिये पीना चाहिये ॥ १० ॥ तस्माद्यत्नेन संरक्षेद्यक्ष्मिणो मलरेतसी । ककुभत्वगाद्युत्कारिका । मनुष्योंका बल वीर्यके अधीन और जीवन मलके अधीन रहता है | अतः मल और वीर्यकी यत्नसे रक्षा करनी चाहिये ॥ ४ ॥ षडंगयूषः । सपिप्पली सवं सकुलत्थं सनागरम् ॥ ५ ॥ दाडिमामलकोपेतं सिद्धमाजरसं पिबेत् । तेन षड् विनिवर्तते विकाराः पीनसादयः ॥ ६॥ रसे द्रव्याम्बुपेयावत्सूपशास्त्रवशादिह । पलानि द्वादश प्रस्थे घनेऽथ तनुके तु षट् ॥ ७ ॥ मांसस्य वटकं कुर्यात्पलमच्छतरे रसे । छोटी पीपल, सोंठ, यव, कुलथी, अनारदाना, आमला - इनका जल बना बकरीका मांस छोड़ घीके साथ पकाकर यूष छानकर पिलाना चाहिये । इससे पीनस, स्वरभेद आदि नष्ट होते हैं । रस बनानेके लिये जिस भांति पेया आदिमें जल और औषधियां ( अर्थात् १ कर्ष औषधि १ प्रस्थ जल ) छोड़ी जाती हैं, उसी प्रकार छोड़ना चाहिये । यदि रस गाढ़ा बनाना हो, तो प्रस्थ जलमें १२ पल मांस और पतले ६ पल मांस और बहुत पतला बनानेमें १ पल ही मांस छोड़ना चाहिये। ( इसमें सोंठ व पपिल इतना छोड़े, जिससे कटुता आ जाय, आमला व अनारदाना इतना छोड़े, जिससे खट्टा हो जाय, यव और कुलथी यूषद्रव हैं, अतः इन्हें अधिकछोड़े ) ॥ ५-७ ॥ - धान्यकादिकायः । धन्याकपिप्पलीविश्व दशमूलीजलं पिबेत् ॥ ८ ॥ पार्श्वशूलज्वरश्वासपीनसादिनिवृत्तये । धनियां, छोटी पीपल, सोंठ, तथा दशमूलका क्काथपार्श्वशूल, ज्वर, श्वास तथा पीनसादिकी निवृत्ति के लिये पिलाना चाहिये ॥ ८ ॥ - अश्वगन्धादिक्वाथः । अश्वगन्धामृताभीरुदशमूली बलावृषाः । पुष्करातिविषा नन्ति क्षयं क्षीररसाशिनः ॥ ९ ॥ असगन्ध, गुर्च, शतावरी, दशमूल, खरेटी, अडूसा, पोहक - मूल तथा अतीसका क्वाथ पीने तथा दूध या मांसरस सेवन करनेसे क्षय नष्ट होता है ॥ ९ ॥ दशमूलादिक्वाथः । दशमूलबलारास्नापुष्करसुरदारुनागरैः कथितम् । पेयं पार्श्वासशिरोरुक्षयकासादिशान्तये सलिलम् ककुभत्वङ्नागबलावानरिबीजानि चूर्णितं पयासे । पक्कं घृतमधुयुक्तं ससितं यक्ष्मादिकासहरम् ॥ ११॥ अर्जुनकी छाल, खरेटी तथा कौंच के बीजों का चूर्ण दूधमें पकाकर घी शहद व मिश्री मिलाकर खानेसे यक्ष्मा और कासादि नष्ट होते हैं ॥ ११ ॥ मांसचूर्णम् । पारावत्तकपिच्छागकुरङ्गाणां पृथक् पृथक् । मांसचूर्णमजाक्षीरं पीतं यक्ष्महरं परम् ।। १२ ।। कबूतर, बन्दर, बकरा, मृग-इनमें से किसी एकके मांसका चूर्ण खाकर बकरीका दूध पीनेसे यक्ष्मा नष्ट होता है ॥ १२॥ नागबलावलेहः । घृतकुसुमसारलीढं क्षयं क्षयं नयति गजबलामूलम् । दुग्धेन केवलेन तु वायसजङ्घा निपीतैव ॥ १३ ॥ नागबलाकी जड़का चूर्ण, घी और शहदके साथ चाटने से अथवा काकजंघा का चूर्ण केवल दूधके साथ पीने से क्षय नष्ट होता है ॥ १३ ॥ हद्वयम् । कृष्णाद्राक्षासितालेहः क्षयहा क्षीद्रतैलवान् । मधुसर्पिर्युतो वाश्वगन्धाकृष्णासितोद्भवः ॥ १४ ॥ छोटी पीपल, मुनक्का व मिश्रीको तैल व शहदके साथ चाटनेसे तथा असगन्ध, छोटी पीपल, व मिश्रीका चूर्ण घी व शहदके साथ चाटने से क्षत्र नष्ट होता है ॥ १४ ॥ नवनीतप्रयोगः | शर्करामधुसंयुक्तं नवनीतं लिहन् क्षयी | क्षीराशी लभते पुष्टिमतुल्ये चाज्यमाक्षिके ॥ १५ ॥ मक्खनको शहद व शक्कर के साथ चाटने से अथवा विषम भाग घी व शहद चाटने से क्षय नष्ट होता और पुष्टि होती है ॥ १५ ॥ सितोपलादिचूर्णम् । सितोपलातुगाक्षीरीपिप्पली बहुलात्वचः । अन्त्यादूर्ध्वं द्विगुणितं लेहयेत्क्षौद्रसर्पिषा ॥ १६ ॥ चूर्णितं' प्राशयेदेतच्छ्वासका सक्षयापहम् । सुप्तजिह्वारोचकिनमल्पानि पार्श्वशूलिनम् ॥ १७ ॥ हस्तपादांसदाहेषु ज्वरे रक्ते तथोर्ध्वगे ॥ १८ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) [ राजयक्ष्मान्च्चसन्न् दालचीनी, १ भाग, छोटी इलायचीके दाने २ भाग, हृत्पाण्डुग्रहणीरोगप्लीहशोषज्वरापहम् । छोटी पीपल ४ भाग, वंशलोचन ८ भाग, मिश्री १६ छर्यतीसारशूलनं मूढवातानुलोमनम् ॥ २४ ॥ भाग सबका चूर्ण कपड़छानकर घी व शहदके साथ चाटनेसे कल्पयेद् गुटिकां चै पक्वा सितोपलाम् । श्वास, कास, क्षय, जिह्वाकी सुप्तता, अरोचक, मन्दाग्नि, गटिका ह्यग्निसंयोगाच्चूर्णाल्लघुतराः स्मृताः। पसलियोंका दर्द, हाथ, पैर और कन्धोंकी जलन तथा ऊर्ध्वग। पैत्तिके ग्राहयन्त्येके शुभया वंशलोचनम् ॥ २५ ॥ रक्तपित्त नष्ट होते हैं ॥१६-१८॥ तालीशपत्र १ भाग, काली मिर्च २ भाग, सोंठ ३ भाग, लवङ्गाद्यं चूर्णम् । छोटी पीपल ४ भाग, वंशलोचन ५ भाग, दालचीनी तथा लवङ्गकक्कोलमुशीरचन्दनं छोटी इलायचीके दाने प्रत्येक आधा आधा भाग, मिश्री नतं सनीलोत्पलजीरकं समम् । ३२ भाग मिलाकर चूर्ण बना लेना चाहिये । यह चूर्णत्रुटिः सकृष्णागुरुभृङ्गकेशरं | श्वास, कास, अरुचिको नष्टकर आग्निको दीप्त करता तथा कणा सविश्वा नलदं सहाम्बुदम् ॥ १९॥ हृद्रोग, पाण्डुरोग, ग्रहणीरोग, प्लीहा, राजयक्ष्मा, ज्वर, वमन, अहीन्द्रजातीफलवंशलोचना अतीसार और शुलको नष्ट करता तथा मूढ वायुका अनुलोमन करता है। इसी चूर्णको पकाकर गोली बना लेनेसे गोलियां सिताष्टभागं समसूक्ष्मचूर्णितम् । हलकी होती हैं, क्योंकि इनमें अग्निका संयोग होता है। कुछ सुरोचनं तर्पणमग्निदीपनं लोगोंका मत है कि शुभासे वंशलोचन पैत्तिक रोगोंके लिये बलप्रदं वृष्यतमं त्रिदोषनुत् ॥ २०॥ लेना चाहिये ॥२२-२५॥ उरोविबन्धं तमकं गलग्रहं सकासहिकारुचियक्ष्मपनिसम् । शृंग्यादिचूर्णम् । ग्रहण्यतीसारभगन्दराबुदें शृङ्गथर्जुनाश्वगन्धानागबलापुष्करामयाच्छन्नरुहाः । प्रमेहगुल्मांश्च निहन्ति सज्वरान् ॥ २१ ॥ तौलीशादिसमेता लेह्या मधुसार्पभ्या यक्ष्महरा: २६ लवङ्ग, कंकोल, खश, सफेदचन्दन, तगर, नीलोफर, सफेद | काकड़ासिंही, अर्जुनकी छाल, असगन्ध, नागबला, पोहजीरा, छोटी इलायची, छोटी पीपल, अगर, भांगरा, नाग-1 | करमूल, कूठ, गुर्च-सब समान भाग, सबके समान तालीकेशर, छोटी पीपल, सोंठ, जटामांसी, नागरमोथा, शारिवा, शादिचूर्ण मिलाकर घी, शहदके साथ चाटनेसे राजयक्ष्मा जायफल, वंशलोचन--प्रत्येक समान भाग, मिश्री ८ भाग " नष्ट होता है ॥ २६ ॥ मिलाकर चूर्ण बना लेना चाहिये । यह चूर्ण रोचक, तर्पक, अग्निदीपक, बलदायक, वाजीकर और त्रिदोषनाशक है ।छाती मधुताप्यादिलौहम् । की जकड़ाहट, नेत्रोंके सामने अन्धेरा छा जाना, गलेकी जकड़ाहट, खांसी, हिक्का, अरुचि, राजयक्ष्मा, पानस, ग्रहणी- मधुताप्यविडङ्गाश्मजतुलोहघृताभयाः। रोग, अतीसार, भगन्दर, प्रमेह, गुल्म, और ज्वर इससे नष्ट नन्ति यक्ष्माणमत्युग्रं सेव्यमाना हिताशिना ॥२७॥ होते हैं ॥. १९-२१॥ शहद, स्वर्णमाक्षिक भस्म, वायविडङ्ग, शिलाजतु, लोहतालीशाचं चूर्ण मोदकश्च । | भस्म, घृत, बड़ी हर्रका छिलका-सब साथ मिलाकर तालीसपत्रं मरिचं नागरं पिप्पली शुभा। चाटनेस तथा भोजन पथ्यकारक करनेसे राजयक्ष्मा नष्ट होता है ॥२७॥ यथोत्तरं भागवृद्धथा त्वगेले चार्धभागिके ॥ २२ ॥ पिप्पल्यष्टगुणा चात्र प्रदेया शितशर्करा। १पर वास्तवमें वंशलोचन ही लिया जाता है । दूसरे भीश्वासकासारुचिहरं तच्चूर्ण दीपनं परम् ॥२३॥ तालीशं मरिच शुण्ठी पिप्पली बंशलोचना इत्यादि " |ऐसे ही पाठान्तर हैं ॥२ यहां " तालीशादिसमेताः " १ यहां सिताष्टभागसे एकभागकी अपेक्षा ही अष्टगुण | शब्दसे तालीशादि चूणाक्त द्रव्यमान लिय जाते हैं, वहांका समझना चाहिये । समस्त चूर्णसे अष्टगुण नहीं । क्योंक भागक्रम आवश्यक नहीं है । जैसा कि चैतसघृतमें 'कल्याणअन्यत्र शार्ङ्गधरादिमें समस्त चूर्णका आधा भाग मिश्री लिखी काय चाङ्गेन' यह लिखनेपर भी कल्याणवृतोक्त कल्क मात्र है और वह प्रायः अष्टभागके समान ही है। यही शिवदा लिया जाता है । अतः यहां शृंगादिके समान ही तालीशादि सजीका भी मत है। प्रत्येक द्रव्य छोड़ना चाहिये । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाकोपेतः । विन्ध्यवासियोगः । व्योषं शतावरी त्रीणि फलानि द्वे बले तथा । सर्वामयहरो योगः सोऽयं लोहरजोऽन्वितः ॥२८ एष वक्षःक्षतं हन्ति कण्ठजांश्च गदांस्तथा । राजयक्षाणमत्युग्रं बाहुस्तम्भमथार्दितम् ॥ २९॥ सोंठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, शतावरी, त्रिफला, खरेटी, कंधी - प्रत्येक एक भाग, तथा लोहे भस्म सबके समान मिला सेवन करनेसे समस्त रोग नष्ट होते हैं। यह उरःक्षत, कण्ठजरोग, कासादि, बाहुस्तम्भ, अर्दित तथा राजयक्ष्माको नष्ट करता है ॥ २८ ॥ २९ ॥ . सेन्द्रका | कर्षः शुद्धरसेन्द्रस्य स्वरसेन जयार्द्रयोः । शिलायां खल्वयेत्तावद्यावत्पिण्डं घनं ततः ॥३०॥ जलकणाकाकमाचीरसाभ्यां भावयेत्पुनः । सौगन्धिकपलं भृङ्गस्वरसेन विभाविताम् ॥ ३१ ॥ चूर्णितं रससंयुक्तमजाक्षीरपलद्वये । खल्वितं घनपिण्डं तु गुटीं स्विन्नकलायवत् ॥३२॥ कृत्वादी शिवमभ्यर्च्य द्विजातीन्परितोष्य च । जीर्णानो भक्षयेदेकां क्षीरमांसरसाशनः ॥३३॥ सर्वरूपं क्षयं कासं रक्तपित्तमरोचकम् । अपि वैद्यशतैस्त्यक्तमम्लपित्तं नियच्छति ॥ ३४ ॥ १ तोला शुद्ध पारद खरलमें अरणी व अदरख के स्वरससे उस समय तक घोटना कि घनता आजाय अर्थात् गोला बन जाय । फिर जलपिप्पली, मकोय के रससे भावना देनी चाहिये फिर इसी में भांगरेके रससे भावित गन्धक ४ तोला छोड़ना चाहिये और बकरीका दूध ८ तोला मिला घोटकर गाढ़ा हो जाने पर मटरके बराबर गोली बना लेनी चाहिये। फिर शंकरजीका पूजन तथा ब्राह्मणों को सन्तुष्ट कर अन्न पाक हो जाने पर गोली खानी चाहिये । दूध या मांस रसका पथ्य लेना चाहिये | यह समस्त प्रकारके क्षय, कास, रक्तपित्त, अरोइनको तथा सैकड़ों वैद्योंसे त्यक्त अम्लपित्तको नष्ट करता है ॥ ३०-३४ ॥ । १ एलादिमन्थः । एलाजमोदामलकाभयाक्षगायत्रिनिम्बाशनशालसारान् । १ - यहां लोह अधिक गुणकारक होनेसे सबके समान ही छोड़ना चाहिये । तथा यहां घृत मधु नहीं लिखा 1 पर लेह प्रकरण में कहा है । अतः लेह ही बनाकर प्रयोग करना चाहिये ऐसा ही शिवदासजीका भी मत है । (७९) विडंगभल्लातकचित्रकांश्च कटुत्रिकाम्भोदसुराष्ट्रिकाश्च ॥ ३५ ॥ पक्त्वा जले तेन पचेत्तु सर्पिस्तस्मिन्सुसिद्धे त्ववतारिते च । त्रिंशत्पलान्यत्र सितोपलाया दद्यात्तुगाक्षीरिपलानि षट् च ॥ ३६ ॥ प्रस्थे घृतस्य द्विगुणं च दद्यात् क्षौद्रं ततो मन्थहतं निदध्यात् पलं पलं प्रातरतो लिहच्च पश्चात्पबेत्क्षीरमतन्द्रितश्च ॥ ३७ ॥ एतद्धि मेध्यं परमं पवित्रं चक्षुष्यमायुप्यतमं तथैव । यक्ष्माणमाशु व्यपहन्ति शूलं पांड्वामयं चापि भगन्दरं च । न चात्र किञ्चित्परिवर्जनीयं रसायनं चैतदुपास्यमाहुः ॥ ३८ ॥ इलायची, अजवायन, आमला, बड़ी हर्र, बहेड़ा, कथा, नीमकी छाल, विजेसार, शाल, वायविडंग, भिलावां, चीतकी जड़, त्रिकटु, नागरमोथा, सुराष्ट्रिका ( सोरठी मिट्टी इसके अभाव में भुनी फिटकरी ) जलमें पका क्वाथ बनाकर इसी काथसे घृत पाक करे । इस १ प्रस्थ घृतमें ३० पल मिश्री, ६ पल वंशलोचन और घृतसे द्विगुण शहद मिला मथकर रखना चाहिये । इससे १ पलकी मात्रा प्रातःकाल चाटना चाहिये । ऊपर से दूध पीना चाहिये | यह मेधाको बढ़ानेवाला, पवित्र, नेत्रोंके लिये हितकर, आयु बढ़ानेवाला, यक्ष्मा, शूल, पाण्डुरोग, तथा भगन्दरको नष्ट करता है। इसमें कुछ परहेज भी करने की आवश्यकता नहीं । यह रसायन है ॥ ३५-३८ ॥ सर्पिर्गुडः । बला विदारी ह्रस्वा च पञ्चमूली पुनर्नवा । पश्चानां क्षीरिवृक्षाणां शुंगा मुष्टयंशिकाः पृथक् ॥ एषां कषाये द्विक्षीरे विदार्याजरसांशिके जीवनीयैः पचेत्कल्कैरक्षमात्रैर्धृताढकम् ॥ ४० ॥ सितापलानि पूते च शीते द्वात्रिंशदावपेत् । गोधूमपिप्पलीवांशीचूर्ण शृङ्गाटकस्य च ॥ ४१ ॥ १ यहां पर ' द्विक्षीरे' का अर्थ " द्विप्रकारकं क्षीरं यत्रेति तथा । क्षीरद्वयं चात्र प्राधान्यादाजं गव्यं च प्रात्यम् ” ऐसा किया है । अर्थात् १ भाग गायका दूध, तथा १ भाग बकरीका दूध छोड़ना चाहिये । । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) चक्रदत्तः। [राजयक्ष्मा - समाक्षिक कौडविक तत्सर्व खजमूछितम् । एषां पलोन्मितान्भागान् शतान्यामलकस्य च । स्त्यानं सर्पिर्गुडान्कृत्वा भूर्जपत्रेण वेष्टयेत् ॥ ४२॥ पञ्च दद्यात्तदैकध्यं जलद्रोणे विपाचयत् ॥ ४९ ॥ ताजग्ध्वा पलिकान्क्षीरे मद्यं चानुपिबेत्तथा। । ज्ञात्वा गतरसान्येतान्योषधान्यथ तं रसम् । शोषे कासे क्षतक्षीणे श्रमस्त्रीभारकर्षिते ॥ ४३ ॥ तच्चामलकमुद्धृत्य निष्कुलं तैलसर्पिषोः ॥५०॥ रक्तनिष्ठीवने तापे पीनसे चोरसि क्षते । पलद्वादशके भृष्ट्वा दत्त्वा चार्धतुलां भिषक् । शस्ताः पार्श्वशिरःशुले भेदे च स्वरवर्णयोः ॥४४॥ । मत्स्यण्डिकायाः पूताया लेहवत्साधु साधयेन्॥५१ काथ्ये त्रयोदशपले द्रव्याल्पत्वभयाजलम् । षट्पलं मधुनश्चात्र सिद्धशीते प्रदापयेत् । अष्टगुणं काथसमो विदार्याजरसौ पृथक् ॥४५॥ चतुष्पलं तुगाक्षीर्याः पिप्पल्या द्विपले तथा ॥५२॥ केचिद्यथोक्तक्काथ्ये तु काथं घृतसमं जगुः ।। पलमेकं निदध्याच त्वगेलापत्रकेशरात् । खरेटी, विदारीकन्द, लघुपञ्चमूल, पुनर्नवा, पांचों क्षीरिवृक्षों इत्ययं च्यवनप्राश: परमुक्तो रसायनः ।। ५३ ॥ (कपीतन, वट, गूलर, पीपल, प्लक्ष ) के कोमल पत्ते प्रत्येक ४| _बेलका गूदा, अरणी, सोनापाठा, खम्भार, पाढल, खरेटी, चार तोला उनका क्वाथ तथा घीसे द्विगुण दूध और विदारा-गवन. मघवन, छोटी पीपल, सरिवन, पिाठवन, गोखुरू, कन्दका रस तथा बकरेके मांसका रस घोके समान मिलाकर | छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, काकड़ाशिंगी, भू, आंवला, मुनक्का, तथा जीवनीयगणकी ओषधियांका कल्क प्रत्येकका १ तोला| | जीवन्ती, पोहकरमूल, अगर, बड़ी हर्रका छिल्का, गुर्च, ऋद्धि, मिलाकर एक आढ़क घृत पकाना चाहिये । घृत सिद्ध होती जीवक, ऋषभक, कपूरकचरी या. कपूर, नागरमोथा, पुनर्ववा, आनेपर उतार छानकर मिश्री ३२ पल तथा गेहूँका आटा, आटा, मेदा, छोटी इलायची, नीलोफर, लाल चन्दन, विदारीकन्द, छोटी पीपल, वंशलोचन, सिंघाड़ेका चूर्ण तथा शहद प्रत्येक अंडसकी छाल, काकोली, काकनासा प्रत्येक द्रव्य आठ आठ एक कुडव अर्थात् १६ तोला छोड़कर मिलाना चाहिये । लड्डू छ तो और ५०० ताजे पके हुए आंवलोंको छोड़कर एक द्रोण बनानके योग्य हो जानेपर एक एक पलके लड्डू बनाकर ऊपरसे जल अर्थात् (५१ सेर १६ तो० जल ) में पकाना चाहिये । भोजपत्र लपेट देना चाहिये । इनको खाकर दूध या मध पीना आमला पक जानेपर उतार ठपढाकर क्वाथ छानकर अलग रख चाहिये । यह राजयक्ष्मा, कास, क्षतक्षीण, थके तथा स्त्रीगमन लेना चाहिये । आंवले निकालकर उनकी गुठली निकाल कपव बोझा ढोनेसे कृश, खून थूकनेवालों तथा दाह व पीनससे इसे रगड़कर छना हुआ गूदा लेना चाहिये । और जो नसें पीड़ित व उरःक्षतसे युक्त पुरुषोंके लिये विशेष हितकर है । निकलती हैं, उन्हें अलग कर देना चाहिये । फिर इस गूदेको पसलियों तथा शिरका दर्द, स्वरभेद, वर्णविकृति भी इससे नष्ट काले तिलका तैल ४८ तोला और घी ४८ तोला छोड़कर होती है । क्वाथ्य द्रव्य घृतसे कम है, अतः अष्टगुण जल छोड़ना सेकना चाहिये। जब कुछ सुर्सी आ जावे और सुगन्ध उठने और चतुर्थांश शेष रखना तथा क्वाथके समान विदारीकन्दका | लगे तब, मिश्री ५ सेर और काढ़ा छोड़कर पकाना चाहिये । रस और बकरेके मांसका रस छोड़ना चाहिये । कुछका मत | अवलेह सिद्ध हो जानेपर उतार ठण्ढ़ा कर शहद ४८ तोला, है कि क्वाथ्य द्रव्य कम होनेपर भी क्वाथ घीके समान ही वंशलोचन ३२ तोला, छोटी पीपल १६ तोला, दालचीनी, बनाना चाहिये ॥ ३९-४५॥ | छोटी इलायची, तेजपात, नागकेशर प्रत्येक ८ तोला चूर्ण | किया हुआ मिलाना चाहिये । यह "च्यवनप्राश "तैयार हुआ। च्यवनप्राशः। यह परम रसायन है ॥४६-५३॥ बिल्वाग्निमन्थश्योनाककाश्मयः पाटली बला।। पर्ण्यश्चतस्रः पिप्पल्यः श्वदंष्ट्रा बृहतीद्वयम् ॥ ४६॥ च्यवनप्राशस्य गुणाः। शृङ्गीतामलकीद्राक्षाजीवन्तीपुष्करागुरु। कासश्वासहरश्चैष विशेषेणोपदिश्यते । अभया सामृता ऋद्धिर्जीवकर्षभको शठी ॥४७॥ क्षीणक्षतानां वृद्धानां बालानां चाङ्गवर्धनः ॥५४।। मुस्तं पुनर्नवा मेदा सूक्ष्मैलोत्पलचन्दने । स्वरक्षयमुरारोग हृद्रोगं वातशोणितम् । विदारी वृषमूलानि काकोली काकनासिका ॥४८॥ पिपासां मूत्रशुक्रस्थान्दोषांश्चैवापकर्षति ॥ ५५॥ अस्य मात्रां प्रयुजीत योपरुन्ध्यान्न भोजनम् । (१) ऋद्धि जीवक, ऋषभक, मेदा तथा काकोलीके | अस्य प्रयोगाच्च्यवनः सुवृद्धोऽभूत्पुनर्युवा ।।५६ ॥ अभावमें क्रमशः प्रतिनिधि द्रव्य ( बाराहीकन्द विदारी- मेधां स्मृति कान्तिमनामयत्वं कन्द, बिदारीकन्द, शतावर असगन्ध) छोड़ना चाहिये ।। वपुःप्रकर्ष बलमिन्द्रियाणाम् । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] परमवृद्धि वर्णप्रसाद पवनानुलोम्यम् ॥ ५७ ॥ रसायनस्यास्य नरः प्रयोगालभेत जीर्णोऽपि कुटीप्रवेशात् । जराकृतं रूपमपास्य सर्व बिभर्ति रूपं नवयौवनस्य ॥ ५८ ॥ सितामत्स्यण्डिकालाभे धात्र्याश्च मृदुभर्जनम् । चतुर्भागजले प्रायो द्रव्यं गतरसं भवेत् ॥ ५९ ॥ पाराशरं घृतम् । ( उपयुक्त मात्रा सेवित हुआ यह कास तथा श्वासको नष्ट करनेवाला, क्षीणक्षत, वृद्ध तथा बालकों के शरीरको पुष्ट करनेवाला, स्वरभेद, उरःक्षत, द्रोग, वातरक्त, पिपासा तथा मूत्र और वीर्यके दोषोंको नष्ट करता है । इसकी मात्रा उतनी ही सेवन करनी चाहिये, जो भोजनको कम न करे । इसके प्रयोग से वृद्ध च्यवन फिर जवान हुए थे । इस रसायनके सेवनसे मेघा, स्मृति, कान्ति, नीरोगता, शरीरवृद्धि, इन्द्रियशक्ति, स्त्रीगमनशक्ति, अभिवृद्धि, वर्णकी उत्तमता तथा वायुकी अनुलोमता होती है । इसको " कुटी प्रावेशिक " विधिसे सेवन करनेसे वृद्ध पुरुष भी वृद्धता के लक्षणों को छोड़कर नवयोवनके रूपको धारण करता । मत्स्यण्डिकाके अभाव में मिश्री छोड़ना तथा आवलोको मन्द आंचसे मृदु भर्जन करना चाहिये । चतुर्थांश काथ रहनेपर प्रायः द्रव्य गतरस हो जाता है । ( यह प्रयोग चरकसंहिताका है | अतः उन्हीं के मानके अनुसार सब चीजों का मान लिखा है ) ॥ ५४-५९ ॥ यष्टी बलागुडूच्यल्प पञ्चमूलीतुलां पचेत् । शुपेंऽपामष्टभागस्थे तत्र पत्रं पचेद् घृतम् ॥ ६४ ॥ धात्रीविदारीक्षुर से त्रिपात्रे पयसोऽर्मणे । सुपिष्टेर्जीवनीयैश्च पाराशरमिदं घृतम् ॥ ६५ ॥ ससैन्यं राजयक्ष्माणमुन्मूलयति शीलितम् । अर्थात् प्रत्येक १० छ०) जल २ द्रोण ( ५१ सेर १८ मौरेठी, खरेटी, गुर्च, लघु पञ्चमूल सब मिलाकर ५ सेर तो ० ) जल छोड़कर पकना चाहिये । अष्टमांश शेष रहनेपर उतार छानकर १ आढक घी, १ आढक आंवलोंका रस, १ आढक विदारीकन्द रस, १ आढ़क ईखका रस, दूध १ मिलाकर पकाना चाहिये । यह पराशर महर्षिका बनाया घृत और घृतसे चतुर्थांश जीवनीय गणकी औषधियों का कल्क सेवन करने से ससैन्य राजयक्ष्माको नष्ट करता है ॥६४॥६५॥छागलाद्यं घृतम् । छागमांसतुलां दत्त्वा साधयेन्नवणेऽम्भसि । पादशेषेण तेनैव घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ६६ ॥ ऋद्विवृद्धी च मेदे द्वे जीवकर्षभकौ तथा । काकोली क्षीरकाकोली कल्कैः पलमितैः पृथक् ||६७ सम्यक् सिद्धेऽवतार्याथ शीते तस्मिन्प्रदापयेत् । शर्करायाः पलान्यष्टौ मधुनः कुडवं तथा ॥ ६८ ॥ पलं पलं पिबेत्प्रातर्यक्ष्माणं हन्ति दुर्जयम् । क्षतक्षयं च कासं च पार्श्वशुलमरोचकम् ॥ ६९ ॥ स्वरक्षयमुरोरोगं श्वासं हन्यात्सुदारुणम् । जीवन्त्याद्यं घृतम् । जीवन्तीं मधुकं द्राक्षां फलानि कुटजस्य च । शटीं पुष्करमूलं च व्याघ्रीं गोक्षुरकं बलाम् ॥६०॥ नीलोत्पलं: तामलकीं त्रायमाणां दुरालभाम् । पिप्पलीं च समं पिष्ट्वा घृतं वैद्यो विपाचयेत् ॥ ६१ ॥ एतद्वयाधिसमूहस्य रोगेशस्य समुत्थितम् । रूपमेकादशविधं सर्पिरम्यं व्यपोहति ॥ ६२ ॥ कोपेतः । ( ८१ ) छोटी पीपल व गुड़का कल्क दोनोंसे चतुर्गुण घी और घीसे चतुर्गुण बकरीका दूध तथा दूधके समान जल मिलाकर पकाना चाहिये । यह क्षय तथा कासवालोंको अभिवृद्धिके लिये सेवन करना चाहिये ॥ ६३ ॥ जीवन्ती, मौरेठी, मुनक्का, इन्द्रयव, कचूर, पोहकरमूल, छोटी कटेरी, गोखरू, खरेटी, नीलोफर, भूमि आंवला, त्रायमाण, यवासा, छोटी पीपल - सब समान भाग ले पीस जल मिलाकर कल्क बनाना चाहिये । कल्क द्रव्यसे चतुर्गुण घी और घीसे चतुर्गुण जल मिलाकर घी पकाना चाहिये । यह घी राजयक्ष्मा के समग्र लक्षणों को नष्ट करनेमें श्रेष्ठ है ॥ ६० - ६२ ॥ पिप्पलीघृतम् । पिप्पलीगुडसंसिद्धं छागक्षीरयुतं घृतम् । एतदभिविवृद्धयर्थं सव्यभ्व क्षयकासिभिः ॥ ६३ ॥ 49 बकरे का मांस ५ सेर जल २५ सेर ४८ तोले छोड़कर पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर १ प्रस्थ घी तथा ऋद्धि, वृद्धि, मेदा, महामेदा, जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीरकाकोली, ( शतावर, विदारीकन्द, असगन्ध, वाराहीकन्द ये उनके अभाव में छोड़ने चाहियें ) प्रत्येक ४ तोलाका कल्क छोड़कर घी पकाना चाहिये । सिद्ध हो जानेपर उतार छान ठण्ढाकर मिश्री ३२ तोला, शहद १६ तोला मिलाकर रखना चाहिये। इससे प्रतिदिन ४ तोलाकी मात्रा सेवन करना चाहिये । यह राजयक्ष्मा, क्षतक्षय, कास, पार्श्वशूल, अरोचक, स्वरभेद, उरःक्षत तथा कठिन श्वासको नष्ठ करता है ॥ ६६-६९ ॥ - १ पात्रम् - आढकम् । २ नत्वणो = द्रोणः । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • चक्रदत्तः। [राजयक्ष्मा wwwr" -wrwww - - - कधी, खरेटी, मोना चाहिये । तथा -जन्य रोग, कास, छागघृतम् । पलार्धिकैश्वातिबलाबलायष्टिपुनर्नवैः। तोयद्रोणद्वितये मांसं छागस्य पलशतं पक्त्वा । प्रपौण्डरीककाश्मयपियालकपिकच्छुभिः ॥ ७७ ॥ जलमष्टांशं सुकृतं तस्मिन्विपचेद् घृतप्रस्थम् ॥७॥ अश्वगन्धासिताभीरुमेदायुग्मात्रिकण्टकैः । कल्केन जीवनीयानां कुडवेन तु मांससर्पिरिदम् । मृणालविसशालकशृङ्गाटककशेरुकैः॥ ७८ ।। पित्तानिलं निहन्यात्तजानपिरसकयोजितं पीतम्७१] एतन्नागबलासपी रक्तपित्तं क्षतक्षयम् । । कासश्वासावुनो यक्ष्माणं पार्श्वहृद्रुजं घोराम्। । हन्ति दाहं भ्रमं तृष्णां बलपुष्टिकरं परम् ॥ ७९ ॥ अध्वव्यवायशोषं शमयति चैवापरं किञ्चित्॥७२॥ बल्यमीजस्यमायुष्यं वलीपलितनाशनम् । उपयुजीत षण्मासान्वृद्धोऽपि तरुणायते ।। ८०।। बकरेका मांस ५ सेर जल २ द्रोण छोड़कर पकाना चाहिये। अष्टमांश शेष रहनेपर उतार, छान, १ प्रस्थ घी मिला तथा| नागबलाका पञ्चांग ५ सेर, १ द्रोण जलमें पकाना चाहिये। जीवनीय गणकी ओषधियों ( जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीर-चतुर्थांश रहनेपर उतार छान क्वाथके बराबर घी और इतना काकोली, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवन्ती, मौरेठी, मेदा, महा- ही दूध तथा घीसे द्विगुण जल मिलाकर पकाना चाहिये । तथा मेदा ) का मिलित कल्क १ कुड़व छोड़कर घृत पकाना चाहिये । पकाते समय कधी, खरेटी, मौरेठी, पुनर्नवा, पुण्डरिया, यह घत मांसरसके साथ पीनेसे वातपित्त-जन्य रोग, कास, खम्भार, चिरोंजी, काँचके बीज, असगन्ध, सफेद दूर्वा, शताश्वास, यक्ष्मा, पसलियों तथा-हृदयकी पीड़ा तथा अध्वशोष वरी, मेदा, महामेदा, गोखुरू, कमलकी डण्डी, तन्तु तथा और व्यवायशोषको नष्ट करता है ॥ ७०-७२ ॥ कन्द, सिंघाड़ा और कशेरू-प्रत्येक २ दो तोला ले कल्क वना कर छोड़ना चाहिये । यह "नागबलात"-रक्तपित्त, उरक्षित, अजापञ्चकं घृतम् । दाह, भ्रम तथा प्यासको नष्ट करताहै और बल व पुष्टिको | बढ़ाता है। ओज तथा आयुको बढ़ाता और वदनकी झुरियों छागशकृद्रसमूत्र-क्षीरदेना च साधितं सार्पः। |तथा बालोंकी सफेदीको नष्ट करता है । इसका ६ मासतक सक्षारं यक्ष्महरं कासश्वासोपशान्तये पेयम् ।।७३।। प्रगोग करनेसे वृद्ध भी जवानोंके समान बलवान होता बकरीकी लेंडियोंका रस तथा उसीका मूत्र, दूध और दही है॥७६-८०॥ प्रत्येक घीके समान मिलाकर घी सिद्ध करना चाहिये । यह घी यवाखार मिलाकर चाटनेसे यक्ष्मा तथा-कास, श्वासको शान्त निर्गुण्डीघृतम् । करनेमें श्रेष्ठ होता है । यहां घी भी बकरीका ही छोड़ना समूलफलपत्राया निर्गुण्डयाः स्वरसैघृतम् । चाहिये ॥७३॥ सिद्धं पीत्वा क्षयक्षीणो निर्व्याधि ति देववत् ८१ बलागर्भ घृतम् । सम्भालूके पञ्चाङ्गसे सिद्ध घृत सेवन करनेसे मनुष्य | क्षय रोगसे मुक्त होकर देवताओंके समान शोभायमान द्विपञ्चमूलस्य पचेत्कषाये होता है ॥ ८१॥ प्रस्थद्वये मांसरसस्य चैके। कल्कं बलायाः सुनियोज्य गर्भ बलाचं घृतम् । सिद्धं पयः प्रस्थयुतं घृतं च ॥ ७४ ।। बलाश्चदंष्ट्राबृहतीकलशोधावनीस्थिराः । सर्वाभिघातोत्थितयक्ष्मशूल निम्बं पर्पटकं मुस्तं त्रायमाणां दुरालभाम् ॥ ८२॥ क्षतक्षयोत्कासहरं प्रदिष्टम् ॥ ७५॥ कृत्वा कषायं पेष्यार्थ दद्यात्तामलकी शटीम् । दशमूलका क्वाथ २ प्रस्थ, मांसरस १ प्रस्थ, दूध १ प्रस्थ, द्राक्षां पुष्करमूलं च मेदामामलकानि च ॥ ८३ ॥ खरेटी १ कुड़वका कल्क सब एकमें मिलाकर पकाना चाहिये ।। घृतं पयश्च तत्सिद्धं सर्पिवरहरं परम् । घृतमात्र रहनेपर उतार छानकर सेवन . करना चाहिये । यह क्षयकासप्रशमनं शिरःपाश्चरुजापहम् ॥ ८४ ॥ समस्त प्रकारके चोटके रोग, राजयक्ष्मा, शुल, क्षतक्षय और कासको नष्ट करता है ॥ ७४ ॥ ७५ ॥ चरकोदितवासाद्यवृतानन्तरमुक्तितः ।। वदन्तीह घृतात्कार्थ पयश्च द्विगुणं पृथक ॥ ८५॥ नागबलाघृतम् । खरेटी, गोखुरू, बड़ी कटेरी, शालिपर्णी, छोटी. कटेरी, पादशेषे जलद्रोणे पचेन्नागबलातुलाम् । पृष्ठपर्णी, नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, नागरमोथा, त्रायमाण, तेन काथेन तुल्यांशं घृतं क्षीरं च साधयेत् ॥७६॥ यवासा इनका काढ़ा और भूमिआंवला, कचूर, मुनक्का, पोहकर Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (८३) मूल, मेदा, आँवला इनका कल्क और दूध मिलाकर घी पकाना | यह सिद्ध तैल ग्रहन्न, वलवर्णकारक, अपस्मार, ज्वर, उन्माद, चाहिये । यह घृत ज्वरको नष्ट करता, क्षय, कास, शिर व महर्षिशाप तथा कुरूपताको नष्ट करता, आयु और पुष्टिको पसलियोंकी पीडाको शान्त करता है । इसको चरकमें वासाद्य करता तथा वाजीकर है ॥ ८६-८९ ॥ घृतके अनन्तर लिखा है, अतः उसीके अनुसार घृतसे दूना क्वाथ तथा दूना ही दूध छोड़ना चाहिये ॥ ८२-८५॥ छागसेवोत्कृष्टता। चन्दनाद्यं तैलम् । छागं मांसं पयश्छागं छागं सर्पिः सशर्करम् । चन्दनाम्बु नखं वाप्यं यष्टीशैलेयपद्मकम् । छागोपसेवा शयनं छागमध्ये तु यक्ष्मनुत् ॥९०॥, मजिष्ठा सरलं दारु शटथला पूतिकेशरम् ॥ ८६ ॥ पत्र तैलं मुरामांसी कक्कोलं वनिताम्बुदम् । बकरीका मांस, बकरीका दूध, बकरीका घी, शक्करके साथ तथा बकरियोंके बीचमें रहना तथा बकारीयोंके मध्यमें सोना हरिदे शारिवे तिक्ता लवङ्गागुरुकुङ्कुमम् ॥ ८७ ॥ यक्ष्माको नष्ट करता है ॥ ९० ॥ स्वग्रेणु नलिका चैभिस्तैलं मस्तु चतुर्गुणम्। . लाक्षारससमं सिद्धं ग्रहन्नं बलवर्णकृत् ॥ ८८॥ उरःक्षतचिकित्सा। अपस्मारज्वरोन्मादकृत्यालक्ष्मीविनाशनम् । उरो मत्वा क्षतं लाक्षां पयसा मधुसंयुताम् । आयुःपुष्टिकरं चैव वाजीकरणमुत्तमम् ॥ ८९ ॥ सद्य एव पिबेजीर्णे पयसाद्यात्सशर्करम् ।। ९१ ॥ लालचन्दन, सुगन्धवाला, नख, कूठ, मौरेठी, शिलारस, इक्ष्वालिकाबिसग्रन्थिपद्मकेशरचन्दनः। पद्माख, मजीठ, सरल, देवदारु, कचूर, इलायची, खट्टाशी शृतं पयो मधुयुतं सन्धानार्थ पिबेत्क्षती ॥ ९२ ॥ (अभावे लताकस्तूरी), नागकेशर, तेजपात, छरीला, मरोड़ बलाश्वगन्धाश्रीपर्णीबहुपुत्रीपुनर्नवाः । फली, जटामांसी, कंकोल, प्रियङ्गु, नागरमोथा, हलदी, दारुहल्दी, शारिवा, काली शारिवा, कुटकी, लवङ्गा, अगर, पयसा नित्यमभ्यस्ताः क्षपयन्ति क्षतक्षयम् ॥ ९३॥ केशर, दालचीनी, सम्भालूके बीज, नलिका इन सबका उरःक्षत जानकर तत्काल ही लाखको शहदमें मिलाकर कल्क, कल्कसे चतुर्गुण तैल तथा तैलसे चतुर्गुण दहीका | चाटना चाहिये, ऊपरसे दूध पीना चाहिये । तथा पच जानेपर तोड तथा तैलके बराबर लोखका रस मिलाकर पकाना चाहिये। दूध शक्करके साथ ही पथ्य लेना चाहिये । तथा उरःक्षतको - जोड़नेके लिये काशकी जड़, कमलके तन्तु, गांठ, कमलके १ लाक्षारस बनानेके सम्बन्धमें कई मत हैं । भैषज्य- फूलका केशर तथा लाल चन्दनसे सिद्ध दूध, शहद मिलाकर रत्नावलीकारका मत है कि-" लाक्षायाः षड्गुणं तोयं दत्त्वैक-पीना चाहिये । इसी प्रकार खरेटी, असगन्ध, शालपर्णी अथवा विंशतिवारकम् । परिस्राव्य जलं प्राचं किं वा क्वाथ्यं यथो- गम्भारीफल, शतावरी, व पुनर्नवाको प्रतिदिन दूधके साथ दितम् ॥ " अर्थात् लाखको छः गुने जलमें घोलकर २१ वार सेवन करनेसे उरःक्षत नष्ट होता है । ( श्वेत सुरमाको कूट छान लेनेसे लाक्षारस तैयार होता है । अथवा क्वाथकी विधि-कपड़छानकर लाखके रसकी २१ भावना देकर रखे । इसकी " आदाय शुष्कद्रव्यं वा स्वरसानामसम्भवे । वारिण्यष्टगुणे क्वाथ्यं | १ माशेकी मात्रा दिनमें ४ बार मक्खन व शहद मिलाकर सेवन प्राचं पादावशेषितम् ॥” इस सिद्धान्तसे अष्टगुण जलमें पकाकर करनेसे अवश्य लाभ होता है । यह कितने ही बार अनुभव चतुर्थाश शेष रखना चाहिये। योगरत्नाकरकारने दूसरी ही पद्धति किया गया है । इसी प्रकार यक्ष्माके रोगीको अभ्रक भस्म बतायी है। उनका मत है कि “ दशांशं लोध्रमादाय तद्दशांशां| १ रत्ती, विद्रुम भस्म १ रत्ती मिलाकर लिसोड़ेके शर्बतके साथ च सर्जिकाम् । किश्चिच बदरीपत्रं वारि षोडशधा स्मृतम् ॥ चटाते रहनेसे रोगीको सुख मिलता है अर्थात् उपद्रव नहीं वस्त्रपूतो रसो ग्राह्यो लाक्षायाः पादशेषितः।" अर्थात् लाखसे बढ़ते । लिसोड़ाका शर्बत इस भांति बनाना चाहिये । ४ छ. दशांश लोध्र, लोध्रसे दशांश सज्जी और कुछ बेरकी पत्ती मिला | लसोढ़ा सूखे हुए साफ लेकर दुरकुचाकर रातमें दो सेर जलमें सोलह गुने जलमें पकाकर चतुर्थीश शेष रहनेपर उतार छानकर मिट्टीके पात्रमें भिगोदेन चाहिये । सबेरे कुछ गरम कर छान काममें लाना चाहिये । पर शिवदासजीने लिखा है-“लाक्षारसो | लेना चाहिये । लुगदी फेंक देना चाहिये । इसमें १ सेर मिश्री लाक्षाकाथः, लाक्षायाः षोडशपलम्, पाकार्थजलं षोडशशरावम् । मिलाकर पतली चाशनी बना लेनी चाहिये।यही"शर्बत लिसोडा" शेष प्रस्थैकम् " अर्थात् लाख ६४ तोला, जल ६ सेर ३२ है । इसे हकीम लोग “ लउकसपिश्ता" के नामसे व्यवहार करते तोला, शेष ६४ तोला रखना चाहिये । यह पद्धति सरलताके हैं। यह जुखाम, सूखी खांसी, रक्तपित्त आदिमें अकेले ही विचारसे ही उन्होंने लिखी है और रस भी निकल आवेगा।अतः बड़ा लाभ करता है । इसकी मात्रा दिनभरमें २ तोलासे ४ यही विधि काममें लानी चाहिये । तोलेतक कई बारमें देना चाहिये ॥९१-९३ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) चक्रदत्तः। [कासरोगा बलाचं घृतम् । विश्वादिलेहः। घृतं बलानागबलार्जुनाम्बु चूर्णिता विश्वदुस्पर्शशृङ्गीद्राक्षाशटीसिताः । सिद्धं सयष्टीमधुकल्कपादम् । लीढास्तैलेन वातोत्थं कासं नन्तीह दारुणम् ॥६॥ हृद्रोगशूलक्षतरक्तपित्त सोंठ, यवासा, काकड़ाशिंगी, मुनक्का, कचूर, मिश्री इनको कासाऽनिलामृक् शमयत्युदीर्णम् ॥ ९४॥ तैलके साथ चाटनेसे वातज कास नष्ट होता है ॥६॥ खरेटी, गङ्गेरन और अर्जुनकी छालका क्वाथ तथा मोरे-! भाङ्गादिलेहः। ठीका कल्क छोड़कर सिद्ध किया घृत-घृतहृद्रोग, शूल, उरःक्षत, भाङ्गीद्राक्षाशटशृिङ्गीपिप्पलीविश्वभेषजैः । रक्तपित्त, कास और वातरक्तको नष्ट करता है ॥ ९४ ॥ गुडतैलयुतो लेहो हितो मारुतकासिनाम् ॥ ७॥ इति राजयक्ष्माधिकारः समाप्तः। भारङ्गी, मुनक्का, कचूर, काकड़ाशिंगी, पीपल, सोंठ इनका चूर्ण गुड़ तैल मिलाकर चाटनेसे वातज कास नष्ट होता है ॥ ७ ॥ अथकासरोगाधिकारः। पित्तजकासचिकित्सा। पित्तकासे तनुकफे त्रिवृतां मधुरैर्युताम् । वातजन्यकासे सामान्यतः पथ्याधुपायाः।। दद्याद्धनकफे तिक्तैर्विरेकाथै युतां भिषक् ।। ८॥ पित्तज कासमं यदि कफ पतला आता हो, तो मधुर औषधिवास्तूको वायसीशाकं मूलकं सुनिषण्णकम् ।। योंके साथ और यदि कफ गाढ़ा हो, तो तिक्त औषधियों के साथ स्नेहास्तैलादयो भक्ष्याः क्षीरेक्षुरसगौडिकाः॥१॥ निसोथका चूर्ण विरेचनके लिये देना चाहिये ॥ ८॥ दध्यारनालाम्लफलं प्रसन्नापानमेव च । शस्यते वातकासेषु स्वाद्वम्ललवणानि च ॥ २॥ पथ्यम् । श्यामाकयवकोद्रवाः। ग्राम्यानूपोदकैः शालियवगोधूमषष्टिकान् । रसैौषात्मगुप्तानां यूपैर्वा भोजयेद्धितान् ॥ ३ ॥ मुद्रादियूषैः शाकैश्च तिक्तकैर्मात्रया हिताः ॥९॥ मीठे पदार्थ, जांगलप्राणियोंके मांसरस, मूंग आदिके यूष बथवा मकोय, मूली, चौपतिया, तैल आदि स्नेह,दूध, ईखके और तिक्तशाकों के साथ सांवा, कोदो तथा यवके पदार्थ खिलाने रस और गुडसे बनाये गये भोजन, दही, काजी, खट्टेफल, शरा-चाहियें ॥९॥ बका पान, मीठे, खट्टे और नमकीन पदार्थ सेवनसे वातज कास शान्त होता है । प्राम्य, आनूप और औदक प्राणियोंके मांस बलादिकाथः। रस तथा उड़द व केंवाचके यूषसे शालि, साठिके| बलाद्विबृहतीवासाद्राक्षाभिः कथितं जलम् ।। चावलोंका भात, यव, गेहूंसे बनाये पदार्थ सेवन करने | पित्तकासापहं पेयं शर्करामधुयोजितम् ॥ १०॥ चाहिये ॥ १-३॥ खरेटी, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, अडूसा, मुनक्का-इनका काथ शकर व शहद मिलाकर पीनेसे पित्तजकासको नष्ट पञ्चमूलीकाथः। करता है ॥१०॥ पञ्चमूलीकृतः काथः पिप्पलीचूर्णसंयुतः। रसान्नमनतो नित्यं वातकासमुदस्यति ॥४॥ शरादिक्षीरम् । लघुपञ्चमूलके क्वाथमें पीपलका चूर्ण छोड़कर पीने तथा शरादिपञ्चमूलस्य पिप्पलाद्राक्षयोस्तथा। नित्य मांसरसके साथ भात खानेसे वातज कास नष्ट होता है॥४॥ कषायेण शृतं क्षीरं पिबेत्समधुशर्करम् ॥११॥ शरादि पञ्चमूल (शर, दर्भ, काश, इक्षु तथा शालिकी मूल) शृंग्यादिलेहः। छोटी पीपल मुनक्का-इनके क्वाथसे सिद्ध किया दूध शहद व शृङ्गीशटीकणाभाीगुडवारिदयासकैः। शक्कर मिलाकर पीना चाहिये ॥११॥ सतैलैतिकासनो लेहोऽयमपराजितः ॥५॥ काकड़ाशिंगी, कावूर, छोटी पीपल, भारङ्गी, गुड़, नागरमोथा, विशिष्टरसादिविधानम् । यवासा तथा तैल-इनका लेह बनाकर चाटनेसे वातज कास| काकोलीबृहतीमेदायुग्मैः सवृषनागरैः नष्ट होता है॥५॥ | पित्तकासे रसक्षारयुषांश्चाप्युपकल्पयेत् ॥ १२॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। काकोली, बड़ी कटेरी, मेदा, महामेदा, अडूसा व सोंठके मिलाये गये मांसरसके साथ हल्के अन्नका भोजन कराना क्वाथसे रस, क्षीर, युष बनाकर पित्तजकासमें सेवन करना चाहिये* ॥ १६ ॥ १७॥चाहिये ॥१२॥ पौष्ककरादिकाथः। द्राक्षादिलेहः। पौष्करं कट्फलं भाङ्गविश्वपिप्पलिसाधितम् । द्राक्षामलकखर्जूरं पिप्पलीमरिचान्वितम् । । पिबेत्काथं कफोद्रेके कासे श्वासे च हृद्रहे ॥ १८॥ पित्तकासापहं ह्येतल्लिह्यान्माक्षिकसर्पिषा ॥ १३ ॥ पोहकरमल, कायफल, भारङ्गी, सोंठ व छोटी पीपलका क्वाथ __ मुनक्का, आमला, छुहारा, पिण्डखज़र अथवा छोटी पीपल, कफकी आधिकतासे उत्पन्न कास, श्वास तथा हृदयके दर्द व काली मिर्च-इनकी चटनी बना घी व शहद मिलाकर पित्तज- जकड़ाहटको नष्ट करता है॥ १८॥ कासके नाशार्थ चाटनी चाहिये ॥१३॥ शृङ्गवेरस्वरसः। खर्जूरादिलेहः। स्वरसं शृङ्गवेरस्य माक्षिकेण समन्वितम् । खर्जूरपिप्पलीद्राक्षासितालाजाः समांशिकाः। । पाययेच्छ्वासकासन्नं प्रतिश्यायकफापहम् ॥ १९॥ अदरखका स्वरस शहद मिलाकर चाटनेसे श्वास, कास, मधुसर्पियुतो लेहः पित्तकासहरः परः ॥ १४॥ | प्रतिश्याय तथा कफ नष्ट होते हैं । खजूर अथवा छुहारा, छोटी पीपल, मुनक्का, मिश्री, धानकी नवाङ्गयूषः। लाई-समान भाग लेकर घी व शहद मिलाकर चाटनेसे पित्तजकास शान्त होता है ॥ १४ ॥ मुगामलाभ्यां यवदाडिमाभ्यां कर्कन्धुना मूलकशुण्ठकेन । शव्यादिरसः। शटीकणाभ्यां च कुलत्थकेन शटीहीबेरबृहतीशर्कराविश्वभेषजम् । यूषो नवाङ्गः कफरोगहन्ता ॥२०॥ पिष्ट्वा रसं पिबेत्पूतं सघृतं पित्तकासनुत् ॥ १५॥| मूंग, आंवला, यव, अनार, बेर, मूलीके टुकड़े, कचूर, छोटी मधुना पद्मबीजानां चूर्ण पैत्तिककासनुत् । पीपल तथा कुलथीका यूष कफरोगको नष्ट करता है । इसे नवाकचर, सुगन्धवाला, बड़ी कटेरी, शक्कर, सोंठ-इनको जलमें गयूष ' कहते हैं ॥ २० ॥ महीन पीस रस निकालकर घीके साथ पीनेसे पित्तजकास नष्ट ____दशमूलक्वायः। होता है। शहदके साथ कमलके बीजोंका चूर्ण चाटनेसे भी पैत्तिक पार्श्वशूले ज्वरे श्वासे कासे श्लेष्मसमुद्भवे ।। कास नष्ट होता है ॥ १५ ॥ पिप्पलीचूर्णसंयुक्तं दशमूलीजलं पिबेत् ॥ २१ ॥ __ कफकासचिकित्सा। दशमूलका काढ़ा पीपलका चूर्ण छोड़कर पीनेसे पार्श्वबलिनं वमनेनादी शोधितं कफकासिनम् ॥ १६॥ शूल, ज्वर, श्वास, कास आदि कफजन्य रोग नष्ट होते यवान्नैः कटुरूक्षोष्णः कफन्त्रैश्चाप्युपाचरेत् । हैं ॥२१॥ पिप्पलीक्षारकै!षैः कौलत्थैर्मूलकस्य च ॥ १७ ॥ कट्फलादिक्वाथः। लघून्यन्नानि भुजोत रसैर्वा कटुकान्वितैः ।। कट्फलं कत्तृणं भाी मुस्तं धान्यं वचाभया । बलवान् कफकासवालेको प्रथम वमन कराकर कटु, रूक्ष,उष्ण, शृङ्गी पर्पटकं शुंठी सुराह्वा च जले शृतम् ॥२२॥ कफनाशक यवादि अन्न सेवन कराना चाहिये । तथा कुलथी मधुहिंगुयुतं पेयं कासे वातकफात्मके। अथवा मूलीके यूषमें पीपल व क्षार मिलाकर अथवा कटुद्रव्य | कण्ठरोगे क्षये शूले श्वासहिक्काज्वरेषु च ॥ २३ ॥ १ यद्यपि यहां इस योगमें पित्तजकासके लिये लिखा है, ____* पञ्चकोलसाधितं क्षीरम्--" पञ्चकोलैः शृतं क्षीरं तथापि कफसहित पित्तज कासमें इसे देना उचित है। पर केवल | कफनं लघु शस्यते । श्वासकासज्वरहरं बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ॥" पित्तजमें मरिचके स्थानमें शर्करा छोड़नी चाहिये। यदाह क्षीर-.-अर्थात् पञ्चकोलसे सिद्ध दूध कफनाशक, हल्का और पाणिः-“पिप्पल्यामलको. द्राक्षा खर्जुरं शर्करा मधु । लेहोऽयं श्वास, कास, ज्वरको नष्ट करनेमें तथा बल, वर्ण व अग्नि सघृतो लीढ़ः पित्तक्षयजकासजित् ॥ बढ़ानेमें श्रेष्ठ है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) चक्रदत्तः। [कासरोगा - .worror -www-re-Prerrorariawwwww orrow कायफल, रोहिशघास, भारङ्गी, नागरमोथा, धनियां, वच, सर्वोषधैरसाध्या ये कासाः सर्ववैद्यसंत्यक्ताः । बड़ी हर्रका छिल्का, काकड़ाशिंगी, पित्तपापडा, सोंठ, तुलसी| अपि पूयं छर्दयतां तेषामिदं महौषधं पथ्यम् ॥३१ सबका काथ बनाकर शहद व भूनीहींग मिलाकर पीनेसे वात- काली मिर्च १ तोला, छोटी पीपल ६ माशे, कफात्मक कास, कण्ठरोग, क्षय, शूल, श्वास, हिक्का तथा ज्वर अनारका छिल्का ४ तोला, गुड़ ८ तोला, यवाखार नष्ट होता है ॥ २२॥ २३ ॥ ६ माशे मिला गोली बनाकर सेवन करनेसे आधिक कफ अन्येयोगाः। युक्त असाध्य कास भी नष्ट होते हैं ॥३०॥ ३१ ॥ कण्टकारीकृतः काथः सकृष्णः सर्वकासहा । समशर्करचूर्णम् । बिभीतकं घृताभ्यक्तं गोशकृत्परिवेष्टितम् ॥ २४ ॥ लवङ्गजातीफलपिप्पलीनां स्विन्नमग्नौ हरेत्कासं ध्रुवमास्यविधारितम् ।। भागान्प्रकल्प्याक्षसमानमीषाम् । वासकस्वरस: पेयो मधुयुक्तो हिताशिना ॥२५॥ पलार्धमेकं मरिचस्य दद्यात् पित्तश्लेष्मकृते कासे रक्तपित्ते विशेषतः । पलानि चत्वारि महीषधस्य ॥ ३२ ॥ पिप्पली मधुकं द्राक्षा लाक्षा शृङ्गी शतावरी ॥२६ सितासमं चूर्णमिदं प्रसह्य द्विगुणा च तुगाक्षीरी सिता सर्वैश्चतुर्गुणा।। रोगानिमानाशु बलान्निहन्यात् । तं सिह्यान्मधुसर्पिभ्या क्षतकासनिवृत्तये ॥ २७ ॥ कासज्वरारोचकमेहगुल्मपिप्पली पद्मकं लाक्षा सपक्कं बृहतीफलम् । श्वासानिमान्द्यग्रहणीप्रदोषान् ॥ ३३ ॥ घृतक्षौद्रयुतो लेहः कासश्वासनिबर्हणः॥ २८॥ लवङ्ग, जायफल, छोटी पीपल प्रत्येक १ तोला, काली भटकठैयाका क्वाथ छोटी पीपलके चूर्णके साथ पीनेसे समस्त | | मिर्च २ तोला, सोंठ १६ तोला, सबके बराबर मिश्री कास नष्ट होते हैं । बहेड़ेके ऊपर घी चुपड़कर गायका गोबर ऊपरसे लपेटकर अग्निमें पकाना चाहिये, पक जानेपर निकाल | मिला चूर्ण बनाकर सेवन करनेसे कास, ज्वर, अरोचक, टुकड़े कर मुखमें रखना चाहिये । इससे कास अवश्य नष्ट प्रमेह, गुल्म, श्वास, अग्निमांद्य, प्रहणीरोग नष्ट होते होता है । अड्सेका स्वरस शहद मिलाकर पीने तथा पथ्य हैं ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ भोजन करनेसे पित्तकफजन्य कास तथा रक्तपित्त नष्ट होता हरितक्यादिमोदकः। है। छोटी पीपल, मौरेठी मुनक्का, लाख, काकड़ाशिंगी, शतावर समभाग, वंशलोचन २ भाग, मिश्री सबसे चतुर्गुण मिला | हरीतकी कणा शुण्ठी मरिचं गुडसंयुतम् । चूर्ण बनाकर घी, शहदके साथ चाटनेसे क्षतकास नष्ट होता कासन्नो मोदकः प्रोक्तस्तृष्णारोचकनाशनः ॥३४॥ है। छोटी पीपल, पद्माख, लाख, बड़ी कटेरीके फल सबका बडी हर्रका छिल्का. छोटी पीपल, सौंठ, तथा मिर्चका महीन चूर्ण कर घी, शहद मिलाकर चाटनेसे कास, श्वास नष्ट चूर्ण गुड़ मिलाकर सेवन करनेसे तृष्णा, अरोचक तथा कास होता है ॥ २४-२८॥ नष्ट होते हैं ॥३४॥ हरीतक्यादिगुटिका। व्योषांतिका गुटिका। हरीतकीनागरमुस्तचूर्ण तालीशवह्निदीप्यकचविकाशुंठ्यम्लवेतसव्योषैः। गुडेन तुल्यं गुटिका विधेया । तुल्यस्त्रिसुगंधियुतैर्गुडेन गुटिका प्रकर्तव्या ॥३५॥ निवारयत्यास्यविधारितेयं कासश्वासारोचकपीनसहृत्कण्ठवानिरोधेषु । श्वासं प्रवृद्धं प्रबलं च कासम् ॥ २९ ॥| ग्रहणीगुदोद्भवेषु गुटिका व्योषान्तिका नाम ॥३६ बडी हर्रका छिल्का, सोंठ तथा नागरमोथाका चूर्ण गुड़के| त्रिसुगन्धमत्र संस्कारत्वाच्चतुमाषिकं ग्राह्यम् । साथ मिला गोली बनाकर मुखमें रखनेसे श्वास तथा कास नष्ट होता है ॥ २९॥ तालीसपत्र, चीता, अजवाइन, चव्य, सोंठ, अम्लवेत, सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, तेजपात, इलायची-सब मरिचादिगुटिका । समान भाग ले, सबसे द्विगुण गुड़ मिलाकर गोली बनानी कर्षः कर्षाधमथो पलं पलद्वयं तथार्धकर्षश्च । चाहिये । यह-कास, श्वास, अरोचक, पीनस, हृदय, कण्ठ मरिचस्य पिप्पलीनां दाडिमगुडयावशूकानाम् ॥३० | तथा वाणीकी रुकावट ( स्वरभेद ), प्रहणी तथा अर्शको नष्ट Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकोपेतः । धिकारः ] करती है । त्रिसुगन्ध संस्कार होनेसे प्रत्येक ४ माशा लेना चाहिये ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ मनःशिलादिधूमः । मनःशिलालमधुकमांसी मुस्तेङ्गुदैः पिबेत् । धूमं त्र्यहं च तस्यानु सगुडं च पयः पिबेत् ॥३७॥ एष कासान्पृथग्द्वन्द्वसर्वदोषसमुद्भवान् । शतैरपि प्रयोगाणां साधयेदप्रसाधितान् ॥ ३८ ॥ मनाशल, हरताल, मौरेठी, जटामांसी, नागरमोथा, तथा इंगुदीकी बत्ती बनाकर धूम पीना चाहिये, ऊपरसे गुड़का शर्वत पीना चाहिये । यह अनेकों प्रयोगोंसे न सिद्ध होनेवाले हजारों कासोंको नष्ट करता है ॥ ३७-३८ ॥ अपरो धूमः । मनःशिलालिप्तदलं बदर्या धर्मशोषितम् । सक्षीरं धूमपानात् महाकासनिर्बहणम् ॥ ३९ ॥ बेरी पत्तीपर मनशिलका लेप कर धूपमें सुखा कर धूम पान करनेसे महाकास नष्ट होता है । मनाशलको दूधमें पीस कर लेप करना चाहिये ॥ ३९ ॥ अन्यो धूमः । अर्कच्छलाशले तुल्ये ततोऽर्धेन कटुत्रिकम् । चूर्णितं वह्निनिक्षिप्तं पिबेद् धूमं तु योगवित् ॥४०॥ भक्षयेदथ ताम्बूलं पिबेद् दुग्धमथाम्बु वा । कासाः पञ्चविधा यान्ति शान्तिमाशु न संशय: ४१ आककी छाल और मनशिल समान भाग ले दोनोंसे आधामिलित त्रिकटु चूर्ण मिला कर अग्निमें जलाकर धूम पान करनेके बाद ऊपरसे पान खाने या दूध या जल पीनेसे शीघ्र ही पांचों कास नष्ट होते हैं ॥ ४० ॥ ४१ ॥ वार्ताकीधूमः । मरिचशिलार्क क्षीरैर्वार्ताकीं त्वचमाशु भावितां शुष्काम् । कृत्वा विधिना धूमं पिबतः कासाः शमं यान्ति ॥ ४२ ॥ मिर्च, मनःशिला और बैंगनकी छालको आकके दूधमें भावना देकर बत्ती बना सुखाकर धूम्रपान करनेसे समस्त कास शान्त होते हैं ॥ ४२ ॥ दशमूलघृतम् । दशमूलीकषायेण भाङ्गीकल्कं पचेद् घृतम् । दक्षतित्तिरिनिर्यूहे तत्परं वातकासनुत् ॥ ४३ ॥ दशमूलके काढ़े और मुर्गा व तीतरके मांसरसमें भारं - गोका कल्क छोड़कर सिद्ध किया घृत वातकासको नष्ट है ॥ ४३ ॥ करता (८७) १ यहां पर " त्रिसुगन्ध " के शम्बन्धमें शिवदासजीने लिखा है- ' सर्वचूणापेक्षया चतुर्थांशेन मिलितं त्रिसुगन्धिचूर्णम् । अर्थात् समस्त चूर्णकी अपेक्षा चतुर्थांश मिलित त्रिसुगन्धि ( दालचीनी, तेजपात, इलायची ) का चूर्ण लेना चाहिये । अपरं दशमूलघृतम् । दशमूलाढके प्रस्थं घृतस्याक्ष समेः पचेत् । पुष्कराहटीबिल्वसुरसव्योषहिङ्गुभिः ॥ ४४ ॥ पेयानुपानं तद्देयं कासे वातकफाधिके । श्वासरोगेषु सर्वेषु कफवातात्मकेषु च ।। ४५ । दशमूलका काथ एक आढक, पोहकरमूल, कचूर, बेलका गूदा और तुलसी तथा त्रिकटु व हींग प्रत्येक एक कर्ष मिला कल्क बनाकर एक प्रस्थ श्री मिलाकर पकाना चाहिये । इसे पेया के अनुपानके साथ देनेसे वातकफात्मक कास तथा श्वास नष्ट होते हैं ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ दशमूलषट्पलकं घृतम् । दशमूलीचतुःप्रस्थे रसे प्रस्थोन्मितं हविः । सक्षारैः पञ्चकोलैस्तु कल्कितं साधु साधितम् ॥४६ कासहृत्पार्श्वशूलघ्नं हिक्काश्वासनिबर्हणम् । कल्कं षट्पलमेवात्र ग्राहयन्ति भिषग्वराः ॥ ४७ ॥ दशमूलका काथ ४ प्रस्थ, घी १ प्रस्थ, यवाखार व पञ्चकोल प्रत्येक एक पल कल्क बना छोड़कर घी पकाना चाहिये । यह घी - कास, हृदय व पसलियों का शूल, हिका, श्वास नष्ट करता है । इसमें प्रत्येक कल्क द्रव्यका कल्क १ एक पल अर्थात् मिलकर ६ पल ही कल्क वैद्य छोड़ते हैं ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ कण्टकारीद्वयम् । कण्टकारीगुडूचीभ्यां पृथक् त्रिंशत्पलाद्रसे । प्रस्थः सिद्धो घृताद्वातकासनुद्वह्निदीपनः ।। ४८ ।। घृतं रास्नाबलाव्योवश्वदंष्ट्राकल्कपाचितम् । कण्टकारीर से पीतं पञ्चकास निषूदनम् ॥ ४९ ॥ कण्टकारी तथा गुर्च प्रत्येकका १२० तोला क्वाथ ( या रस ) घी १ प्रस्थ मिलाकर सिद्ध करनेसे वातकासको नष्ट तथा अभिको दीप्त करनेवाला होता है । इसी प्रकार चतुर्गुण कण्टकारीके रस में १ भाग घृत और घृतसे चतुर्थाश रासन, खरेटी, त्रिकटु, गोखरूका कल्क मिलाकर सिद्ध किया घृत- पांचों प्रका के कासको नष्ट करता है ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) चक्रदत्तः । बृहत्कण्टकारीघृतम् । सपत्रमूलशाखायाः कण्टकार्या रसाढके । घृतप्रस्थं बलान्योषविडङ्गशटिचित्रकैः ॥ ५० ॥ सौवर्चलयवक्षार बिल्वामलकपुष्करैः वृश्चीर बृहतीपध्यायमानीदाडिमधिभिः ॥ ५१ ॥ द्राक्षापुनर्नवाचव्यधन्वयासाम्लवेतसैः । शृङ्गीता मलकी भाङ्गरास्नागोक्षुरकैः पचेत् ॥ ५२ ॥ कल्कैस्तु सर्वकासेषु हिक्काश्वासे च शस्यते । कण्टकारीघृतं सिद्धं कफव्याधिविनाशनम् ॥ ५३ ॥ घी और खरेटी, त्रिकटु, विडंग, कचूर, चीतकी जड़ कालानमक, यवाखार, बेलका गूदा, आंवला, पोहकर मूल, पुनर्नवा, बड़ी कटेरी, हर्र, अजवायन, अनारदाना, ऋद्धि, मुनक्का, पुनर्नवा, चव्य, यवासा, अम्लवेत, काकड़ाशिंगी, भूम्यामलकी, भारंगी, रासन, गोखरूका मिलित कल्क घी से चतुर्थांश छोड़कर पकाना चाहिये । इससे कफरोग, कास, श्वास विका आदि नष्ट होते हैं ॥ ५०-५३ ॥ [ कासरोगा रास्नाद्यं घृतम् । द्रोणेऽपां साधयेद्रास्नां दशमूलीं शतावरीम् । पलिकां मानिकांशांस्त्रीन्कुलत्थान्बदान्यवान् ॥५४ तुला चाजमांसस्य तदशेषेण तेन च । घृताढकं समक्षीरं जीवनीयैः पलोन्मितैः ॥ ५५ ॥ सिद्धं तद्दशभिः कल्कैर्नस्यपानानुवासनैः । समीक्ष्य वातरोगेषु यथावस्थं प्रयोजयेत् ॥ ५६ ॥ पञ्चकासान् क्षयं श्वासं पार्श्वशूलमरोचकम् । सर्वाङ्गैकाङ्गरोगांश्च सप्लीहोर्ध्वानिलं जयेत् ।। ५७ जीवकर्षभको मेदे काकोल्यो शूर्पपर्णिके । जीवन्ती मधुकं चैव दशको जीवको गणः ॥ ५८ ॥ अगस्त्यहरितकी । दशमूलीं स्वयंगुप्तां शंखपुष्पीं शटीं बलाम् । हस्ति पिप्पल्यपामार्गपिप्पलीमूलचित्रकान् ॥ ५९ ॥ भाङ्गपुष्करमूलं च द्विपलांशं यवाढकम् । हरीतकीशतं चैकं जलपश्वाढके पचेत् ॥ ६० ॥ यः स्विन्नैः कषायं तं पूतं तच्चाभयाशतम् । पचेद् गुडतुलां दत्त्वा कुडवं च पृथग्घृतात् ॥ ६१ ॥ तैलात्सपिप्पलीचूर्णात्सिद्धशीते च माक्षिकात् । लिह्याद् द्वे चाभये नित्यमतः खादेद्रसायनात् ॥ ६२॥ तद्वलीपलितं हन्यान्मेघायुर्बलवर्धनम् । पञ्चकासान्क्षयं श्वासं हिक्काः सविषमज्वरान् ॥ ६२ हन्यात्तथा ग्रहण्यर्शोहृद्रोगारुचिपीनसान् । अगस्त्य विहितं धन्यमिदं श्रेष्ठ रसायनम् ॥ ६४ ॥ दशमूल, कौंच के बीज, शंखपुष्पी, कचुर, खरेटी, गजपीपल, लटजीरा, पिपरामूल, चीतकी जड़, भारंगी, पोहकरमूल प्रत्येक ८ तोला, यव एक आढ़क, बड़ी हरे १००, जल ५ आढ़क | मिलाकर पकाना चाहिये । यव पक जानेपर काढ़ा उतारकर छान लेना चाहिये और हर्र अलग निकाल लेना चाहिये । फिर काढा व हर्र व गुड़ ५ सेर तथा घी व तैल प्रत्येक ३२ तोला, छोटी पीपलका चूर्ण १६ तोला छोड़कर पकाना चाहिये । सिद्ध हो जानेपर ठण्ढाकर ३२ तोला शहद मिलाना चाहिये । फिर प्रतिदिन २ हरें इसकी खाकर ऊपरसे २ तोला अवलेह चाटना चाहिये । यह रसायन है। बालोंकी सफेदी तथा झुर्रियों को नष्ट करता, मेधा, आयु व बलको बढ़ाता है। पांचों का क्षय, श्वास, हिक्का, विषमज्वर, ग्रहणी, अर्श, हृद्रोग, अरुचि, व पीनसको नष्ट करता है । महर्षि अगस्त्यका बताया यह श्रेष्ठ रसायन है । ५९-६४ ॥ हरीतकी । समूलपुष्पच्छदकण्टकार्यास्तुलां जलद्रोणपरिप्लुतां च । हरीतकीनां च शतं निदध्या रासना, दशमूलकी औषधियां, शतावर प्रत्येक एक पल, कुलथी, बेर व यव प्रत्येक ३२ तोला, बकरीका मांस २ ॥ सेर एक द्रोण जल मिला पका छानकर क्वाथमें एक आढ़क घी एक आढक दूध और २ आढ़क जल तथा जीवनीय गण ( जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीर काकोली, मेदा महामेदा, मुद्रपर्णी, माषपर्णी, जीवन्ती मधुक ) इनका कल्क प्रत्येक ४ तोला छोड़कर घी पकाना चाहिये । यह घी - नस्य, पान, अनुवासन वस्तिद्वारा जहां जैसा उचित हो, वातरोगों में प्रयोग करना चाहिये । यह पांच प्रकारके कास, क्षय, पाश्व शूल, अरोचक, सर्वांग, एकांग रोग, प्लीहा, तथा ऊर्ध्ववातको नष्ट करता है । जीवनीयगण कोष्ठ में लिखा समझिये ॥ ५४-५८ ॥ | १ यहांपर यवोंका स्वेदन चतुर्थांश रह जानेपर हो जाता है । यद्यपि कुछ आचार्यांने अष्टमांश शेष लिखा है, पर वह सुश्रुत विरुद्ध पड़ता है । अतएव शिवदासजीको अभीष्ट नहीं है । तथा घृत, तैल व शहद यहां द्विगुण ही लिये जाते हैं । यद्यपि घृतके समान शहद यहां पड़ता है, पर द्रव्यान्तरसे संयुक्त होनेके कारण विरुद्ध नहीं होता । दथात्र पक्त्वा चरणावशेषे ।। ६५ ।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मापाठोपेतः। • गुडस्य दत्त्वा शतमेतदनौ केचन लेहाः। विपकमुत्तार्य ततः सुशीते । कोलमज्जाजन लाजातिक्ताकाश्चनगरिकम् ॥२॥ कटुत्रिक च द्विपलप्रमाणं कृष्णा धात्री सिता शुण्ठी कासीसं दधि नाम च । पलानि षट् पुष्परसस्य तत्र ॥ ६६॥ पाटल्याः सफलं पुष्पं कृष्णा खजूरमुस्तकम् ॥३॥ क्षिपेचतुर्जातपलं यथानि षडेते पादिका लेहा हिक्काना मधुसंयुताः। प्रयुज्यमानो विधिनावलेहः। (१) बेरकी गुठली, काला सुरमा व खील । (२)कुटकी, वातात्मक पित्तकफोद्भवं च सुनहला गेरू । ( ३ ) छोटी पीपल, आंवला, मिश्री, व सोंठ । द्विदोषकासानपि तांत्रिदोषान् ।। ६७ ॥ (४) कसीस व कैथा । (५)पाढलके फल व फूल । क्षयोद्भवं च क्षतजं च हन्यात (६) पीपल, छुहारा नागरमोथा। ये छ: लेह श्लोकके एक एक पादमें कहे गये शहद के साथ चाटनेसे हिकाको नष्ट करते सपीनसश्वासमुरःक्षतं च । हैं ॥२॥३॥यक्ष्माणमेकादशरूपमुग्रं भृगूपदिष्टं हि रसायनं स्यात् ॥ ६८ ॥ नस्यानि । कटेरीका पञ्चांग ५ सेर, जल एक द्रोण तथा बड़ी हरै १०० मधुक मधुसंयुक्त पिप्पली शर्करान्विता ॥४॥ मिलाकर पकाना चाहिये । चतुर्थीश बाकी रहनेपर उतार छान नागरं गुडसंयुक्तं हिक्कानं नावनत्रयम् । हरें अलग निकाल काथमें मिला उसीमें गुड़ ५ सेर मिलाकर स्तन्येन मक्षिकाविष्ठा नस्यं वालक्तकाम्बुना ॥५॥ पकाना चाहिये । अवलेह बन जानेपर उतार ठण्डनकर त्रिकटु योज्यं हिक्काभिभूताय स्तन्यं वा चन्दनान्वितम् । प्रत्येक ८ तोला, शहद २४ तोला, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेशर प्रत्येक ४ तोला, मिलाकर रखना चाहिये। शहदके साथ मौरेठीका चूर्ण अथवा शक्करके साथ छोटी अनिके अनुसार इसका प्रयोग करनेसे समस्त कास, पीनस, पीपलका चूर्ण अथवा सोंठ गुड़के साथ अथवा मक्षिकाविष्ठा, श्वास, उरःक्षत तथा उग्र यक्ष्मा भी नष्ट होता है । ६५-६८॥ नीदुग्ध व लाक्षा रसके साथ अथवा बीदुग्ध, चन्दन मिलाकर सूंघनेसे हिका नष्ट होती है ॥४॥५॥ इति कासरोगाधिकारः समाप्तः। केचन योगा। मधुसौवर्चलोपेतं मातुलुङ्गरसं पिबेत् ॥६॥ हिक्कातस्य पयश्छागं हितं नागरसाधितम् । कृष्णामलकशुण्ठीनां चूर्ण मधुसितायुतम् ॥७॥ मुहुर्मुहुः प्रयोक्तव्यं हिक्कावासनिवारणम् ।। हिक्काश्वासयोश्चिकित्साक्रमः। हिक्काश्वासी पिबेदाङ्गो सविश्वामुष्णवारिणा। नागरं वा सिता भाङ्गी सौवर्चलसमन्वितम् ॥८॥ हिकाश्वासातुरे पूर्व तैलोक्त स्वेद इष्यते। मधु व काला नमक मिला बिजौरे निम्बूका रस पीनेसे स्निग्धैर्लवणयोगैश्च मृदु वातानुलोमनम् ॥ १॥ अथवा सोंठसे सिद्ध दूध पीनेसे अथवा छोटी पीपल, आंवला, ऊर्ध्वाधःशोधनं शक्त दुर्बले शमनं मतम् । सोंठका चूर्ण शहदके साथ बारबार चाटनेसे अथवा सोंठके साथ हिक्का तथा श्वाससे पीड़ित रोगीको प्रथम तैलसे मालिश भाङ्गीका चूर्ण गरम जलके साथ पीनेसे अथवा सोंठ, मिश्री. कर स्वेदन करना चाहिये । तथा स्निग्ध व लवणयुक्त पदार्थोंसे भारजी, व काला नमक मिलाकर गरम जलसे उतारनेसे हिक्का. वायुका अनुलोमन करनेवाले वमन व विरेचन बलवान्को तथा श्वास नष्ट होते हैं ॥६-८॥ निर्बलको शमनकारक उपाय करने चाहिये ॥१॥ श्रृंग्यादिचूर्णम् । शृङ्गीकटुत्रिकफलत्रयकण्टकारी१ यह प्रयोग ग्रन्थांतरमें कुछ पाठभेदसे मिलता है। वहां “त्रिकटु" त्रिपल लिखा है। कटुत्रिक च त्रिपलप्रमाणम् ।' भाी सपुष्करजटालवणानि पश्च । चूर्ण पिबेदशिशिरेण जलेन हिक्कापर शिवदासजीने प्रत्येक २ पल ही लिखा है। इस प्रकार ६ पल | कटुत्रिक होता है। श्वासोवातकसनारुचिपानसेषु ॥ ९॥ अर्थ हिकावासाधिकारः। १२ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) चक्रदत्तः। [ हिक्काश्वासा wwwr wp- www काकड़ाशिंगी, त्रिफला, त्रिकटु, भटकटैया, भारङ्गी, पोहकर- काकडाशिंगी, सौंठ, छोटी पीपल, नागरमोथा, पोहकर• मूल, पांचो लवण समान भाग ले चूर्ण बनाकर गरम जलके मूल, कचूर, काली मिर्च, तथा शक्कर सब समान भाग ले साथ पानसे हिक्का, श्वास, डकार, कास और अरुचि व पीनस चूर्ण अडूसा तथा लघु पञ्चमूलके क्वाथके साथ पीनेसे ३ दिनमें नष्ट होते हैं ॥९॥ उप्रश्वासको नष्ट करता है ॥१५॥ कल्कद्वयम्। हरिद्रादिलेहः अभयानागरकल्कं पौष्करयवशूकमरिचकल्क वा। | हरिद्रां मरिचं द्राक्षां गुडं रानां कणां शटीम् । तोयेनोष्णेन पिबेच्छवासीहिक्कीच तच्छान्स्य।।१० जहाचैलेन विलिहाल्छवासान्प्राणहरानपि॥ १६॥ बड़ी हर्र व सोंठका कल्क अथवा पोहकरमूल, यवाखार व| काली मिर्चका कल्क गरम जलके साथ पीनेसे हिक्का तथा हल्दी, काली मिर्च, मुनक्का, गुड़, रास्ना, पीपल, कचूरश्वास नष्ट होते हैं॥१०॥ इनका चूर्ण तैलके साथ चाटनेसे प्राणहर श्वास भी नष्ट होते __ अमृतादिक्वाथः। मयूरापिच्छभूतिः। अमृतानागरफजीव्याघ्रीपर्णाससाधितः काथः। पीतः सकणाचूर्णः कासश्वासी जयत्याशु ॥११॥ हिकां हरति प्रबलां प्रबलं श्वासं च नाशयत्याशु । गुर्च, सोंठ, भारंगी, छोटी कटेरी तथा तुलसीका क्वाथ, शिखिपिच्छभूतिपिप्पलिचूर्ण मधुमिश्रितं लीढम्१७ छोटी पीपलका चूर्ण मिलाकर पीनेसे कास, श्वास शीघ्र नष्ट मयूर पिच्छ भस्म और पीपल चूर्ण मिलाकर शहदके साथ होते हैं ॥ ११॥ चाटनेसे हिक्का तथा श्वास नष्ट होते हैं ॥१७॥ दशमूलक्वाथः। बिभीतकचूर्णम् । दशमूलीकषायस्तु पुष्करेण विचूर्णितः । कर्ष कलिफलचूर्ण लीढं चात्यन्तमिश्रितं मधुना । श्वासकासप्रशमनः पार्श्वहृच्छूलनाशनः ॥ १२॥ । अचिराद्धरति श्वासं प्रबलामुद्धंसिकां चैव ॥१८॥ दशमूलका क्वाथ, पोहकरमूलका चूर्ण मिलाकर पीनेसे श्वास, __ बहेड़ेका चूर्ण १ तोला शहदमें मिलाकर चाटनेसे प्रबल श्वास कास, पसली तथा हृदयंका शूल नष्ट होते हैं। १२॥ तथा हिक्का नष्ट होती है ॥१८॥ कुलत्यादिक्वाथः। हिंस्रायं घृतम्। कुलत्थनागरव्याघ्रीवासाभिः कथितं जलम् । । हिंस्राविडङ्गपूतीकत्रिफलाव्योषचित्रकैः । पीतं पुष्करसंयुक्तं हिक्काश्वासनिबर्हणम् ॥ १३ ॥ द्विक्षीरं सर्पिषः प्रस्थं चतुर्गुणजलान्वितम् ॥ १९ ॥ कुलथी, सोंठ, छोटी कटेरी तथा अडूसासे बनाया गया कोलमात्रैः पचेत्तद्धि कासश्वास व्यपोहति । क्वाथ पोहकरमूल चूर्ण मिलाकर पीनेसे हिक्का, श्वास नष्ट | अस्थिरोचकं गुल्मं शकृढ़ेदं क्षयं तथा ॥२०॥ होते हैं ॥१३॥ जटामांसी अथवा हैंस, तथा वायविडंग, पूतिकरज गुडप्रयोगः। 1( कजी), त्रिफला, त्रिकटु तथा चीतकी जड़का कल्क, ६४ गुडं कटुकतैलेन मिश्रयित्वा समं लिहेत् । तोला घी तथा घीसे द्विगुण दूध और चतुर्गुण जल मिला त्रिसप्ताहप्रयोगेण श्वासं निमूलतो जयेत् ॥ १४॥ सिद्ध कर सेवन करनेसे कास, श्वास, अर्श अरोचक, गुल्म, गुड, कडुआ तैल मिलाकर चाटनेसे २१ दिनमें श्वास | दस्तोंका पतला आना तथा क्षय नष्ट होते हैं। कल्ककी प्रत्येक निर्मूल हो जाता है। दोनों समान भाग मिलाकर चार तोलातक औषधि ६ माशे छोड़नी चाहिये ॥ १९ ॥२०॥ घाट सकते हैं ॥ १४॥ तेजोवत्याद्यं घृतम् । ____ अपरं शृंग्यादिचूर्णम् । तेजोवत्यभया कुष्ठं पिप्पली कटुरोहिणी । शृङ्गीमहौषधकणाधनपुष्कराणां भूतीकं पौष्करं मूलं पलाशं चित्रकं शटी ।। २१ ॥ चूर्ण शटीमरिचशर्करया समेतम् । सौवर्चलं तामलकी सैन्धवं बिल्वपेशिका । काथेन पीतममृतावृषपञ्चमूल्याः तालीसपत्रं जीवन्ती वचा तैरक्षसंमितैः ॥ २२ ॥ श्वासं त्र्यहेण शमयेदतिदोषमुग्रम् ॥ १५॥ | हिगुपादैघृतप्रस्थं पचेत्तोयचतुर्गुणे । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। - -- स्न्न्न्न्न् एतद्यथावलं पीत्वा हिकाश्वासौ जयेन्नरः ॥२३ ॥ पादावशेषे तस्मिस्तु गुडस्यार्धतुलां क्षिपेत् । शोथानिलाशीग्रहणीहत्पार्श्वरुज एव च । शीतीभूते च पक्के च मधुनोऽष्टौ पलानि च ॥३२॥ चव्य, वड़ी हर्रका छिल्का, कूठ, छोटी पीपल, कुटकी. अज-| षट् पलानि तुगाक्षीर्याः पिप्पल्याश्च पलद्वयम् । वाइन, पोहकरमूल, ढाकके बीज, चीतकी जड़, कचूर, काला त्रिसुगन्धिकयुक्तं तत्खादेदग्निवलं प्रति ॥ ३३॥ नमक, भुंइआंवला, सेंधानमक, बेलका गूदा, तालीशपत्र, श्वासं कासं ज्वरं हिक्कां नाशयेत्तमकं तथा । जीवन्ती, वचा प्रत्येक १ एक तोला, हींग ३ माशेका कल्क घी प्रतिशतं द्रोणनियमाझंयं द्रोणत्रयं त्विह ॥ ३४ ॥ ६४ तोला और जल चतुर्गुण मिलाकर, पकाना चाहिये । इस घृतक बलानुसार सेवनसे हिका तथा :श्वास,शोथ, वातार्श, प्ररुणी, कुलथी, दशमूल, भारङ्गी प्रत्येक ५ सेर, जल ३ 'द्रोण हृदय तथा पार्श्वशूल नष्ट होता है ॥ २१-२३ ॥ (अर्थात् ३८ सेर ३२ तोला) मिलाकर पकाना, चतुर्थाश शेष रहनेपर उतार छान गुड २॥ सेर मिलाकर अवलेह बनाना भाीगुडः। चाहिये । सिद्ध हो जानेपर शहद ३२ ते.ला, वंशलोचन २४ शंतं संगह्य भागस्त दशमल्यास्तथापरम् ॥२४॥ तोला, छोटी पीपल ८ तोला, दालचीनी, तेजपात, इलायची ८ तोला प्रत्येक मिलाकर अग्निबलानुसार खाना चाहिये । यहशतं हरीतकीनां च पर्चत्तोये चतुर्गुणे। श्वास, कास, ज्वर, हिका तथा निर्बलताको नष्ट करता है। पादावशेषे तस्मिंस्तु रसे वस्त्रपरिष्कृते ॥ २५ ॥ प्रतितुलापर १ द्रोणके सिद्धान्तसे जल ३ द्रोण ही आलोडथ च तुलां पूतां गुडस्य त्वभयां ततः। पड़ेगा ॥ ३१-३४ ॥ पुनः पचेत्तु मृद्वनी यावल्लेहत्वमागतम् ॥ २६ ॥ सुशीते मधुनश्चात्र षट्पलानि प्रदापयेत् । इति हिक्काश्वासाधिकारः समाप्तः। त्रिकटु त्रिसुगन्धं च पलिकानि पृथक् पृथक्॥२७॥ कर्षद्वयं यत्रक्षारं संचूर्ण्य प्रक्षिपेत्ततः । अथ स्वरभेदाधिकारः। भक्षयेदभयामेकां लेहस्यार्धपलं लिहेत् ॥ २८ ।। श्वासं सुदारुणं हन्ति कासं पञ्चविधं तथा। स्वरवर्णप्रदो ह्येष जठरामेश्व दीपनः ॥२९॥ स्वरभेदे चिकित्साक्रमः। पलोल्लेखागते माने न द्वैगुण्यामिहेष्यते । वाते सलवणं तैलं पित्ते सर्पिः समाक्षिकम् । हरितकीशतस्यात्र प्रस्थत्वादाढकं जलम् ॥ ३० ॥ कफे सक्षारकटुकं क्षौद्र कवल इष्यते ॥ १ ॥ भारङ्गी ५ सेर, दशमूल मिलित ५ सेर, हर १०० सबसे गले तालुनि जिह्वायां दन्तमूलेषु चाश्रितः । चतुर्गुण जल मिलाकर पकाना चाहिये। चतुर्थांश शेष रहने- सेन निष्कृष्यते श्लेष्मा स्वरश्वास्य प्रसीदति ॥ २॥ पर उतार छान, हरें निकाल काथमें मिला उसीमें ५ सेर गुडा आधे कोष्णं जलं पेयं जग्ध्वा घृतगुडीदनम् । मिलाकर पकाना चाहिये । लेह सिद्ध हो जानेपर ठण्डाकर क्षीरानपानं पित्तोत्थे पिबेत्सपिरतन्द्रितः ॥ ३॥ शहद २४ तोला, त्रिकटु, त्रिसुगन्ध (दालचीनी, तेजपात, पिप्पली पिप्पलीमूलं मारेचं विश्वभेषजम् । इलायची) प्रत्येक पृथक् पृथक् ४ तोले तथा यवाखार २ तोले मिलाना चाहिये । फिर इससे १ हरै खाकर ऊपरसे २ तोला पिबेन्मूत्रेण मतिमान्कफजे स्वरसंक्षये ॥ ४॥ चटनी चाटनी चाहिये । यह कास तथा श्वासको नष्ट करता, स्वरोपघाते मेदोजे कफवद्विधिरिष्यते । अग्नि दीप्त करता तथा स्वर व वर्णको उत्तम बनाता है। यहां क्षयजे सर्वजे चापि प्रत्याख्याय समाचरेत् ॥ ५॥ पलसे परिमाण लिखा है, अतः चतुर्गुणको ही छोडना चाहिये, चतुर्गुणको द्विगुण कर अष्टगुण नहीं डालना चाहिये । हरीतकी वातजन्य स्वरभेदमें लवणके सहित तैल, पित्तजन्य स्वरभे१०० होनेसे १ प्रस्थ होगी, उनका भी चतुर्गुण एक आढ़क | दमें शहदके सहित घी और ककजन्यमें क्षार और कटपदाही जल छोढ़ना चाहिये ॥ २४-३०॥ थोंके साथ शहदका कवल धारण करना चाहिये । इससे गला, तालु, जिला तथा दन्तमूलामें जमा हुआ कफ निकलता है कुलत्थगुडः। और स्वर उत्तम होता है । इसी प्रकार वातजन्यमें घी, गुड मिलाकर भात खाना चाहिये, ऊपरसे गरम जल पाना चाहिये। कुलत्य दशमूलं च तथैव द्विजयष्टिका। पित्तजन्यमें दूधके साथ भोजन तथा दूध और घी पीना चाहिये। शतं शतं च संगम जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ ३१॥ | कफजन्यमें छोटी पीपल, पिपरामूल, काली मिर्च, सोंठका पूर्ण Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [अरोचका गोमूत्र मिलाकर पीना चाहिये । मेदोजन्य स्वरभेदमें कफके कण्टकारीघृतम् । समान ही चिकित्सा करनी चाहिये । तथा क्षयज व व्याघ्रीस्वरसविपकं रानावाट्यालगोक्षुरव्योषः। सन्निपातज स्वरभेदमें प्रत्याख्यान ("असाध्य है, अच्छा हो, या सर्पिः स्वरोपघातं हन्यात्कासं च पञ्चविधम् ॥१२ न हो," ऐसा कह) कर चिकित्सा करनी चाहिये ॥१-५॥ छोटी कटेरीका स्वरस तथा रासन, खरेटी, गोखरू और चव्यादिचूर्णम्। मिर्च, पीपलके कल्कसे सिद्ध घृत-कास तथा स्वरभेदको नष्ट करता है ॥ १२॥ चव्याम्लवेतसकटुत्रिकतिन्तिडीकतालीसजीरकतुगादहनैः समांशैः। स्वरसाभावे ग्राह्यद्रव्यम्। चूर्ण गुडप्रमृदितं त्रिसुगन्धियुक्तं शुष्कद्रव्यमुपादाय स्वरसानामसम्भवे । वैस्वयंपीनसकफारुचिषु प्रशस्तम् ॥६॥ वारिण्यष्टगुणे साध्यं ग्राह्यं पादावशेषितम् ॥ १३॥ चव्य, अम्लवेत, सोंठ, मिर्च, पीपल, तिन्तिडीक, स्वरसके अभावमें सूखा द्रव्य अठगुणे जलमें पकाना चाहिये, तालीशपत्र, सफेद जीरा, वंशलोचन, चीतकी जड़, दाल-चतुर्थाश शेष रहनेपर छानकर काममें लाना चाहिये ॥१३॥ बीनी, तेजपात, इलायची-समान भाग, सबके समान गुड़ मिलाकर सेवन करनेसे स्वरभेद, पीनस तथा कफजन्य अरुचि, भुंगराजघृतम् । नष्ट होती है ॥६॥ भृङ्गराजामृतावल्लीवासकदशमूलकासमदरसैः। सर्पिः सपिप्पलीक सिद्धं स्वरभेदकासजिन्मधुना। केचन योगाः। भांगरा, गुर्च, अडूसा, दशमूल और कासमर्दका स्वरस तथा तैलाक्त स्वरभेदे वा खदिरं धारयेन्मुखे । छोटी पीपलके कल्कसे सिद्ध घृत शहदके साथ चाटनेसे स्वरभेद पथ्यां पिप्पलियुक्तां वा संयुक्तां नागरेण वा ॥७॥ तथा कासको नष्ट करता है ॥ १४ ॥ अजमोदां निशां धात्रीं क्षारं वन्हि विचूर्ण्य च । इति स्वरभेदाधिकारः समाप्तः। मधुसर्पिर्युतं लीढ़वा स्वरभेदं व्यपोहति ॥ ८॥ कलितरुफलसिन्धुकणाचूर्ण वक्रेण लीढमपहरति । अथारोचकाधिकारः। स्वरभेदं गोपयसा पीतं वामलकचूर्ण च ॥९॥ -atबदरीपत्रकल्कं वा घृतभृष्टं ससैन्धवम् । स्वरोपघाते कासे च लेहमेनं प्रयोजयेत् ॥ १० ॥ अरोचके चिकित्सोपायाः। वान्ति समीरणे पित्ते विरेकं वमनं कफे। कत्थेके चूर्णको तिलतैलमें डुबाकर अथवा हर्र छोटी पीपलके। कुर्याद् धृद्यानुकूलानि हर्षणानि मनोनजे ॥१॥ साथ अथवा सोंठके साथ मुखमें रखना चाहिये । अजवा- | इन, हल्दी, आंवला, यवाखार, व चीतकी जड़का चूर्ण वान्तो वचाद्भिरनिले विधिवपिबेत्तु बनाकर घी व शहदके साथ चाटनेसे स्वरभेद नष्ट होता है ।। स्नेहोष्णतोयमदिरान्यतमेन चूर्णम् । इसी प्रकारसे बहेड़ेके फलका छिल्का सेंधानमक छोटी पीपलका कृष्णाविडङ्गयवभस्महरेणुभाङ्गीचूर्ण मटेके साथ चाटनेसे अथवा आंबलेका चूर्ण गोदुग्धके साथ रास्नेलहिङ्गुलवणोत्तमनागराणाम् ।।२।। सेवन करनेसे स्वरभेद नष्ट होता है । अथवा बेरकी पत्तीकी पैत्ते गुडाम्बुमधुरैर्वमनं प्रशस्तं चटनी घीमें भून संधानमक मिलाकर स्वरभेद तथा कासमें लेहः ससैन्धवसितामधुसर्पिरिष्टः । चाटना चाहिये ॥७-१०॥ निम्बाम्बु छर्दितवतः कफजे तु पानं उच्चैाहरणज-स्वरभेदचिकित्सा । राजद्रुमाम्बु मधुना सह दीप्यकाव्यम् ॥३॥ शर्करामधुमिश्राणि शृतानि मधुरैः सह । चूर्ण यदुक्तमथवानिलजे तदेव पिबेत्पयांसि यस्योच्चैवेदतोऽभिहतः स्वरः ॥११॥ सर्वैश्च सर्वकृतमेवमुपक्रमेच ।। ४॥ | वातारोचक वमन, पित्तमें विरेचन तथा कफमें वमन और मधुर गणकी औषधियोंसे सिद्ध दूधमें शक्कर व शहद मिला- मनके विकार, तथा घृणा आदिसे उत्पन्न अरोचकमें हृदयके लिये कर पीना चाहिये ॥११॥ हितकर अनुकूल प्रसन्नताकारक पदार्थोंका सेवन करना चाहिये। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - धिकारः] भाषाटीकोपेतः। न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न् वातारोचकमें वचाके क्वाथसे वमन कर विधिपूर्वक स्नेह गरम | काला जीरा, सफेद जीरा, मिर्च, मुनक्का, अम्लवेत, जल अथवा शराबमेंसे किसी एकके साथ छोटी पीपल, वायविडंग, अनारदाना, काला नमक, गुड़, शहद-इनका कवल धारण करना यवाखार, सम्भालके बीज, भारङ्गी, रासन, इलायची, भुनी | हितकर है ॥ ११॥ हींग, सेंधानमक तथा सोंठका चूर्ण पीना चाहिये । पित्तारोचकमें गुड़का शर्बत व मीठी चीजोंसे वमनकर सेंधानमक, मिश्री, शहद ब्यूषणादिकवलः। और घी मिलाकर चाटना चाहिये । कफारोचकमें नीमके क्वाथसे | त्रीण्यूषणानि त्रिफला रजनीद्वयं च वमन कर अमलतासका क्वाथ अजवाइनका चूर्ण व शहद डालकर चूर्णीकृतानि यवशूकविमिश्रितानि । पीना चाहिये । अथवा वातारोचकमें जो चूर्ण लिखा है, वही क्षौद्रान्वितानि वितरेन्मुखधारणार्थखाना चाहिये । और सन्निपातजको सभी प्रयोगोंके सम्मिश्रणसे मन्यानि तिक्तकटुकानि च भेषजानि॥१२॥ शान्त करना चाहिये ॥१-४॥ त्रिकटु, त्रिफला, हल्दी, दारुहल्दी, यवाखारका चूर्ण बना | शहद मिलाकर मुखमें धारण करनेसे तथा अन्य तिक कटु कवलग्रहाः। पदार्थ मुखमें धारण करनेसे अरोचक नष्ट होता है ॥१२॥ कुष्ठसौवर्चलाजाजी शर्करामरिचं विडम् । धाव्येलापद्मकोशीरपिप्पलीचन्दनोत्पलम् ॥५॥ दाडिमरसः। लोधं तेजोवती पथ्या त्र्यूषणं सयवाप्रजम् । । विट्चूर्णमधुसंयुक्तो रसो दाडिमसम्भवः । आईदाडिमनिर्यासश्वाजाजीशर्करायुतः ॥ ६ ॥ असाध्यामपि संहन्यादरुचिं वक्रधारितः ॥ १३ ॥ सतैलमाक्षिकाश्चैते चत्वारः कवलप्रहाः। बिड़लवणका चूर्ण व शहद अनारके रसमें मिलाकर कवल धारण करनेसे असाध्य अरुचिको भी नष्ट करता है॥१३॥ चतुरोऽरोचकान्हन्युर्वाताचेकजसर्वजान् ॥७॥ त्यमुस्तमेला धान्यानि मुस्तमामलकानि च । यमानीपाडवम् । त्वक्च दार्वी यमान्यश्च पिप्पल्यस्तेजोवत्यपि ॥८॥ यमानी तिन्तडीकं च नागरं चाम्लवेवसम् । यमानी तिन्तिडीकं च पञ्चैते मुखशोधनाः। दाडिमं बदरं चाम्लं कार्षिकाण्युपकल्पयेत् ॥१४॥ श्लोकपादरभिहिताः सर्वारोचकनाशनाः ॥९॥ धान्यसौवर्चलाजाजी वराङ्गं चार्धकार्षिकम् । (१) कूठ, काला नमक, सफेद जीरा, शक्कर, मिर्च, पिप्पलीनां शतं चैकं द्वे शते मरिचस्य च ।। १५॥ बिड़लवण (२) आंवला, इलायची, पद्माख, खश, छोटी| शर्करायाश्च चत्वारि पलान्येकत्र चूर्णयेत् । पापल, सफेद चन्दन, नीलोफर ( ३ ) लोध, चव्य, हर्र, त्रिकटु, जिहाविशोधनं हृद्यं तच्चूर्ण भक्तरोचनम् ॥१६॥ यवक्षार (४) ताजे अनारका रस, जीरा व शक्करके साथ इस हृत्पीडापार्श्वशूलनं विबन्धानाहनाशनम् । प्रकार यह चार प्रयोग क्रमशः वात, पित्त, कफ तथा सन्निपातज अरोचकमें तैल व शहदके साथ कवलके रूपमें प्रयुक्त करना कासश्वासहरं प्राहि ग्रहण्यशोविकारनुत् ॥ १७॥ चाहिये । दालचीनी, नागरमोथा, छोटी इलायची, धनियां.] अजवाइन, तिन्तिड़ी, सोंठ, अम्लवेत, अनारदाना, खट्टे नागरमोथा, आंवला,दालचीनी, दारुहलदी, अजवाइन, छोटी | बर प्रत्येक एक तोला, धनियां, काला नमक, सफेद जीरा, पीपल, व चव्य, अजवाइन, तिन्तिडीक इन पांच प्रयोगमेंसे दालचीनी प्रत्येक ६ माशे, छोटी पीपल १०० गिनतीमें, काली सिद्ध किसी एक औषधका कवल धारण करनेसे समस्त अरोचक मिर्च २००, मिश्री १६ तोला-सवका चूर्ण बना लेना चाहिये। नष्ट होजाते हैं ॥५-९॥ . यह “यमांनीषाडव" चूर्ण जिह्वाको शुद्ध करता, हृद्य तथा भोजनमें रुचि करता, हृदयका दर्द, पसलीका दर्द, मलकी रुकावटे, ___ अम्लिकादिकवलः। अफारा, कास, श्वास तथा ग्रहणी और अशको नष्ट अम्लिका गुडतोयं च त्वगेलामरिचान्वितम। करता है ॥१४-१७॥ अभक्तच्छन्दरोगेषु शस्तं कवलधारणम् ॥ १०॥ । षाडव इति मधुरानयोगस्य संज्ञा । यमान्यपलक्षितः अम्ली, गुड़, जल, दालचीनी, इलायची, मिर्च मिलाकर कवल धारण करनेसे अरोचक नष्ट होता है ॥ १०॥ पाडवः यमानीषाडवः । इति शिवदासः ।" तिन्तिडीक इम्लीका भी पर्यायवाचक है, अतः इम्ली भी वैद्यलोग छाड़त हैं। पर मेरे कारव्यादिकवलः । विचारसे तिन्तिडीक एक स्वतन्त्र खट्टा द्रव्य होता है, इसके बीज कारव्याजाजीमरिचं द्राक्षावृक्षाम्लदाडिमम् । लाल लाल चिरौंजीके दानेसे कुछ छोटे होते हैं, उन्हें ही सौवर्चलं गुडं क्षौद्रं सर्वारोचकनाशनम् ॥ ११ ॥ छोड़ना चाहिये। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) चक्रदत्तः। [छर्य - - कलहंसकः। पित्तच्छर्दिचिकित्सा। अष्टादश शिग्रुफलान्यथै दश मरिचानि पित्तात्मिकायां त्वनुलोमनार्थ विंशतिश्च पिप्पल्याः। आर्द्रकपलं द्राक्षाविदारीखुरसैनिवृत्स्यात् । गुडपलं प्रस्थत्रयमारनालस्य ॥१८॥ एतद्विडलवणयुतं खजाहतं सुरभि गन्धादयम् ।। कफाशयस्थं त्वतिमात्रवृद्धं पित्तं जयेत्स्वादुभिरूवमेव ॥ ४ ॥ व्यजनसहस्रघाति ज्ञेयं कलहंसकं नाम ॥ १९ ॥ अठारह सहिजनके बीज, १० काली मिर्च, २० छोटी। शुद्धस्य काले मधुशर्कराभ्यां पीपल, अदरख ४ तोला, गुड़ ४ तोला, काजी ३ प्रस्थ सब लाजैश्च मन्थं यदि वापि पेयाम् । एकमें मिला तथा लवणसे नमकीन हो इतना बिड़लवण मिला प्रदापयेन्मुद्गरसेन वापि मथनीसे मथकर रखना चाहिये । यह सुगन्धित, भोजनमें रुचि शाल्योदनं जाङ्गलजै रसैर्वा ॥५॥ . करनेवाला तथा पाचक "कलहंस" नामक पना है ॥८॥१९॥ चन्दनेनाक्षमात्रेण संयोज्यामलकीरसम् । इत्यरोचकाधिकारः समाप्तः । पिबेन्माक्षिकसंयुक्तं छर्दिस्तेन निवर्तते ॥६॥ चन्दनं च मृणालं च बालकं नागरं वृषम् । अथ छाधिकारः। सतण्डुलोदकक्षौद्रं पीतः कल्को वमिं जयेत् ॥७॥ कषायो भृष्टमुद्गस्य सलाजमधुशर्करः । छद्यतीसारतृड्दाहज्वरघ्नः संप्रकाशितः॥८॥ लंघनप्राशस्त्यम् । हरीतकीनां चूर्ण तु लिह्यान्माक्षिकसंयुतम् । आमाशयोत्लेशभवा हि सर्वा अधोभागीकृते दोषे छर्दिः क्षिप्रं निवर्तते ॥ ९॥ श्छ? मता लंघनमेव तस्मात् । गुडूचीत्रिफलारिष्टपटोले: कथितं पिबेत् । प्राक्कारयेन्मारुतजां विमुच्य क्षौद्रयुक्तं निहन्त्याशु छदि पित्ताम्लसम्भवाम् ॥ संशोधनं वा कफपित्तहारि ॥१॥ काथः पटज: पीतः सक्षौद्रश्छर्दिनाशनः ॥ १०॥ समस्त छर्दियां आमाशयमें दोष बढ़ जानेसे ही होती हैं,। पित्तच्छामें मुनक्का, विदारीकन्द और ईखके रसके साथ अतः वातजको छोडकर सबमें प्रथम लंघन ही कराना चाहिये । ज स लेला जागि अथवा कफ, पित्तनाशक संशोधन अर्थात्, वमन विरेचन | AM अथवा कफाशयस्थ अधिक बढ़े पितको मधुर द्रव्यों द्वारा वमन कराना चाहिये ॥१॥ | कराकर ही निकाल देना चाहिये । शुद्ध हो जानेपर भोजनके वातच्छर्दिचिकित्सा। समय शहद व शक्करके साथ धानकी लाईकी पेया अथवा मन्थ अथवा मूंगके यूषके साथ या जांगल प्राणियोंके मांस रसके हन्यात्क्षीरोदकं पीतं छार्दै पवनसम्भवाम् ।। साथ शालि चावलोंका भात खिलाना चाहिये। चन्दनका चूर्ण ससैन्धवं पिबेत्सर्पिर्वातच्छर्दिनिवारणम् ॥२॥ १ तोला, आंबलाका रस ४ तोला, शहद १ तोला मिलाकर मुद्रामलकयूषं वा ससर्पिष्कं ससैन्धवम् । पीनसे वमन बन्द हो जाता है । इसी प्रकार सफेद चन्दनका यवागू मधुमिश्रां वा पञ्चमूलीकृतां पिबेत् ॥३॥ कल्क, कमलकी डण्डी, सुगन्धवाला, सोंठ, अडूसा इनका कल्क दूध व जल मिलाकर पीना अथवा सेंधानमकके साथ घी चावलोंके धोवन व शहदके साथ पीनेसे पित्तज वमन शान्त पीना अथवा मूंग व आंवलेका यूष, घी, सेंधानमक मिलाकर होता है । इसी प्रकार भुनी मूंगका काढ़ा खील, शहद व अथवा पञ्चमूलसे सिद्ध की हुई यवागू शहद मिलाकर पीनेसे शक्कर मिलाकर पीनसे वमन, अतीसार, तृषा, दाह व ज्वरको वातच्छर्दि नष्ट होती है ॥२॥३॥ शान्त करता है । अथवा हर्रका चूर्ण शहद मिलाकर चाटनेसे | विरेचनसे दोष शुद्ध हो जाते हैं और वमन शान्त होती है। १ यहांपर 'क्षीरोदकम् ' के स्थानमें पाठान्तर ' क्षीरघृतम्' अथवा गुर्थ, त्रिफला, नीमके पत्ते, परबलके पतेका क्वाथ बना ऐसा सुश्रुत टीकाकार डहणने किया है। और उसका अर्थ"क्षीरा- शहद मिलाकर पीनेसे पित्तज छर्दि शीघ्र ही शान्त दुद्भुतं घृतम् " किया है। पर वाग्भटने "पीतं तुल्याम्बु वा पित्तपापड़ाका काथ शहदके साथ पानसे वमन शान्त होती पब कहा है, अतः वही यहां लिखा गया है। है॥४-१.॥ -निल Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः ] भाषाटीकोपतः । कफच्छर्दिचिकित्सा | कफात्मिकायां वमनं प्रशस्तं सपिप्पली सर्षप निम्बतोयेः । पिण्डीतकैः सैन्धवसंप्रयुक्त श्छद्य कफामाशयशोधनार्थम् ॥ ११ ॥ विडङ्गत्रिफला विश्वचूर्ण मधुयुतं जयेत् । विडङ्गलवशुण्ठीनामथवा श्लेष्मजां वमिम् १२ ।। सजाम्बवं वा बदरस्य चूर्ण मुस्तायुतां कर्कटकस्य शृङ्गीम् । दुरालभां वा मधुसंप्रयुक्तां लिह्यात्क फच्छर्दिविनिग्रहार्थम् ॥ १३ ॥ कफात्मक वमनमें कफ और आमकी शुद्धिके लिये छोटी पीपल, सरसों, नीमका काथ, मैनफल व सेंधानमकका चूर्ण मिला पीकर वमन करना चाहिये । वायविडंग, त्रिफला व सोंठका चूर्ण अथवा वायविडंग, नागरमोथा व सोंठका चूर्ण शहद मिलाकर चाटनेसे कफज छर्दि शान्त होती है। जामुनकी गुठली और बेरकी गुठली का चूर्ण अथवा नागरमोथा व काकडशिंगीका चूर्ण अथवा जबासाका चूर्ण शहद मिलाकर चाटने से कफज छर्दि शान्त होती है ॥ ११-१३॥ सन्निपातजच्छर्दिचिकित्सा | तर्पणं वा मधुयुतं तिसृणामपि भेषजम् । कृतं गुडूच्या विधिवत्कषायं हिमसंज्ञितम् ॥ १४ ॥ तिसृष्वपि भवेत्पथ्यं माक्षिकेण समायुतम् । शहद युक्त तर्पण ( लाईके ससुओंका ) त्रिदोषज छर्दिको हितकर है। इसी प्रकार गुर्वका शीत कषाय बना शहद मिलाकर पीनेसे त्रिदोषज छर्दि शान्त होती है ॥ १४ ॥ शीतकषायविधानम् । द्रव्यादापोथितात्तोये प्रतप्ते निशि संस्थितात् १५ ॥ कषायो योऽभिनिर्याति स शीतः समुदाहृतः । षड्भिः पलैश्चतुर्भिर्वा सलिलाच्छीतफाण्टयोः १६ ॥ आप्लुतं भेषजपलं रसाख्यायां पलद्वयम् । द्रव्यको कुचल कर गरम जलमें रातमें भिगोना चाहिये, प्रातः मलकर छाननेसे जो काढ़ा निकले वही "शीतकषाय " है । द्रव्य एक पल शीतकषाय या फाण्ट बनानेके लिये ६ पल या ४ पल जलमें भिगोना चाहिये और यदि रस बनाना हो तो उतने ही जल में २ पल औषध छोड़ना चाहिये ॥ १५ ॥ १६ ॥ (१५) जम्ब्वाम्रपल्लवगवेधुकधान्यसेव्यवार मधुनापितोऽल्पमल्पम् । छर्दिः प्रयाति शमनं त्रिसुगन्धियुक्ता लीडा निहन्ति मधुनाथ दुरालभा वा ॥ १८ ॥ जातो रसः कपित्थस्य पिप्पलीमरिचान्वितः । क्षौद्रेणः युक्तः शमयेलेहोऽयं छर्दिमुल्बणाम् ॥ १९ ॥ पिष्ट्वा धात्रीफलं द्राक्षां शर्करां च पलोन्मिताम् । दत्त्वा मधुपलं चात्र कुडवं सलिलस्य च । वाससा गालितं पीतं हन्ति छर्दि त्रिदोषजाम् २०॥ बेल अथवा गुर्चका शीतकषाय शहद के साथ अथवा मूर्वाका चूर्ण चावल के जलके साथ पीनेसे त्रिदोषज छर्दि शान्त होती | जामुन, आमके पत्ते, पसहीके चावल, खश, तथा सुगन्धवालाका काथ शहद मिलाकर थोड़ा थोड़ा पीनेसे अथवा दालचीनी, तेजपात, इलायची व जवासाका चूर्ण शहद के साथ चाटने से त्रिदोषज छर्दि शान्त होती है। कैथेका रस छोटी पीपल व काली मिर्चका चूर्ण तथा शहद मिलाकर च बढ़ी हुई छर्दि शान्त होती है। आंवला, मुनक्का व शक्कर तीनों मिलाकर ४ तोला, शहद ४ तोला व जल १६ तोला मिला छानकर पीनेसे त्रिदोषज छर्दि शान्त होती है ॥ १७-२० ॥ एलादिचूर्णम् । श्रीफलादिशीतकषायाः । श्रीफलस्य गुडूच्या वा कषायो मधुसंयुतः । पेयश्छर्दित्रये शीतो मूर्वा वा तण्डुलाम्बुना ॥ १७ ॥ । एलालवङ्गगजकेशरकोलमज्जा लाजा प्रियङ्गुघन चन्दन पिप्पलीनाम् । चूर्णानि माक्षिकसितासहितानि लीवा छार्द निहन्ति कफमारुतपित्तजां च ।। २१ ।। छोटी इलायची, लवङ्ग, नागकेशर, बेरकी गुठलीकी गुदी, खील, प्रियंगु ( इसके अभाव में कमल गट्टेकी मींगी ); नागरमोथा, सफेद चन्दन, छोटी पीपलका चूर्ण शहद व मिश्री मिलाकर चाटनेसे त्रिदोषज छर्दि शान्त होती है ॥ २१ ॥ कोलमज्जादिहः । कोलामलकमज्जानी माक्षिका विसितामधु । सकृष्णातण्डुलो लेहश्छर्दिमाशु नियच्छति ॥ २२|| बेर व आंवलेकी गुठली की गूदी, मोम, मिश्री, शहद तथा छोटी पीपलका बनाया गया अवलेह छर्दिको शान्त करता है ॥ ३२ ॥ पेय जलम् । अश्वत्थवल्कलं शुष्कं दग्ध्वा निर्वापितं जले । तज्जलं पानमात्रेण छर्दि जयति दुस्तराम् ॥ २३ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तृष्णा पीपलकी सुखी छालको जलाकर जलमें बुझा देना चाहिये । तृण-कण्टकि-वल्ली-भेदात् ) के पञ्चाङ्गका जल अथवा प्रथम गण यह जल पीने मात्रसे छर्दि नष्ट होती है ॥२३॥ (लघुपञ्चमूल) में सिद्ध किया जल कुछ गरम पीना चाहिये। प्यास कभी न रोकना चाहिये ॥१॥रक्तच्छर्दिचिकित्सा। ययाई चन्दनोपंतं सम्यक क्षीरप्रपेषितम । पित्तजतृष्णाचिकित्सा। तेनैवालोब्य पातव्यं रुधिरच्छर्दिनाशनम् ॥ २४॥ पित्तोत्थितं पित्तहरैर्विपकं - मौरेठी तथा सफेद चन्दनको दूधमें पीस तथा दूधमें ही| निहन्ति तोयं पय एव चापि ॥ २ ॥ मिलाकर पीनेसे रक्तच्छर्दि शान्त होती है ॥ २४ ॥ काश्मर्यशर्करायुक्तं चन्दनोशीरपद्मकम् । त्रयो लेहाः। द्राक्षामधुकसंयुक्तं पित्ततर्षे जलं पिबेत् ॥३॥ लाजाकपित्थमधुमागधिकोषणानां पित्तजायां तु तृष्णायां पक्कोदुम्बरजो रसः॥ क्षौद्राभयात्रिकटुधान्यकजीरकाणाम् । तत्काथो वा हिमस्तद्वच्छारिवादिगणाम्बु वा ॥४॥ पथ्यामृतामरिचमाक्षिकपिप्पलीनां स्याज्जीवनीयसिद्धं क्षीरघृतं वातपित्तजे तर्षे लेहास्त्रयः सकलवम्यरुचिप्रशांत्यै ॥ २५ ॥ तद्वद् द्राक्षाचन्दनखजूंरोशीरमधुयुतं तोयम् ॥५॥ सशारिवादी तृणपञ्चमूले (१) खील, कैथा, शहद, छोटी पीपलं, काली मिर्च,(२) तथोत्पलादी मधुरे गणे वा। अथवा शहद, बड़ी हरे, त्रिकटु, धनियां, जीरा (३) अथवा छोटी हर्र, गुर्च, काली मिर्च, शहद, छोटी पीपल, यह तीनों कुर्यात्कषायांस्तु तथैव युक्ताम् अवलेह-समस्त वमन-तथा अरुचिको शान्त करते हैं ॥२५॥ ___ मधूकपुष्पादिषु चापरेषु ॥ ६ ॥ पद्मकाचं घृतम्। पित्तज तृष्णाको पित्तहर ओषधियोंसे सिद्ध दूध अथवा पनकामृतनिम्बानां धान्यचन्दनयोः पचेत । जल नष्ट करता है । खम्भार, मिश्री, चन्दन, खश, पाख, कल्के काथे च हविषः प्रस्थं छार्दनिवारणम् । मुनका, मौरेठीसे सिद्ध जल पीना चाहिये । पके गूलरका रस |अथवा उसीका हिम कषाथ अथवा शारिवादिगणका कषाय तृष्णारुचिप्रशमनं दाहज्वरहरं परम् ॥ २६ ॥ पित्तज तृष्णाको नष्ट करता है । जीवनीय गणसे सिद्ध दूध पद्माख, गुर्च, नीमकी छाल, धनियां, लालचन्दनके कल्क तथा घृत वातपित्तज-तृष्णाको शान्त करता है । तथा मुनक्का और क्वाथमें सिद्ध किया घृत-छर्दि, तृष्णा, अरुचि, दाह तथा चन्दन, छुहारा, खश और शहदका शर्बत तथा शारिवादिगण ज्वरको शान्त करता है ॥ २६ ॥ अथवा तृणपञ्चमूल, उत्पलादि गण और मधुरगण तथा महुआ इति छधिकारः समाप्तः। आदिमेंसे किसी एकका कषाय बनाकर पित्तज तृष्णासे पीड़ित अथ तृष्णाधिकारः। पुरुषको पिलाना चाहिये ॥२-६॥ कफजतृष्णाचिकित्सा। वातजतृष्णाचिकित्सा। बिल्वाढकीधातकिपञ्चकोल दर्भेषु सिद्धं कफजां निहन्ति । तृष्णायां पवनोत्थायां सगुडं दधि शस्यते । हितं भवेच्छर्दनमेव चात्र रसाश्च बृहणाः शीता गूडूच्या रस एव च ॥१॥ तप्तेन निम्बप्रसवोदकेन ॥७॥ पञ्चाङ्गकाः पञ्चगणा य उक्ता सजीरकाण्याकशृङ्गवेरस्तेष्वम्बु सिद्धं प्रथमे गणे वा । सौवर्चलान्यर्धजलाप्लुतानि । पिबेत्सुखोष्णं मनुजोऽल्पमात्रं मद्यानि हृद्यानि च गन्धवन्ति तृष्णोपराधं न कदापि कुर्यात् । पीतानि सद्यः शमयन्ति तृष्णाम् ॥८॥ वातजन्य तृष्णामें गुड़के साथ दही तथा ब्रहण शीतलरस | तथा गुर्चका रस लाभदायक होता है । पञ्चगण (लघु-महत्- इक्षुश्चोत गणो वरः । तृणपञ्चमूलमाख्यातम् ।" " गुडूची. - | मेषभंगी-शारिवा-विदारी-हरिद्रासु वल्लीपञ्चमूलमिति संज्ञा । " १“पञ्चगणसे" लघुपञ्चमूल, बृहत्पश्चंमूल, अर्थात् दशमूलके२/“करमदः श्वदंष्टा च हिंसा मिण्टी शतावरी इति कण्टकि. गण हुए तथा तीसरा तृणपञ्चमूल, " कुंशः काशः शरा दर्भ पञ्चमूलम् ।" Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - विकारः] मापाटीकोतः। --- w w w - - - वेलका गूदा, अरहरकी पत्ती, व धायके फूल, पञ्चकोल, गण्डूषस्तालशोथे। तथा कुशसे सिद्ध जल कफज तृष्णाको दूर करता है । तथा नीमके क्वाथसे वमन करना इसमें विशेष हित करता है । मद्यमें क्षीरेक्षुरसमाध्वीकैः क्षौद्रशीधुगुडोदकैः। आधा जल और जीरा, अदरख, सोंठ व काला नमक मिलाकर | वृक्षाम्लाम्लैश्च गण्डूषस्तालुशोषनिवारणः ।। १५॥ पीनेसे तृष्णा शीघ्र ही शान्त होती है ॥७॥८॥ दूध, ईखका रस, माध्वीक ( मधुका आसव ) शहद, शीधु क्षतक्षयजचिकित्सा। (मधुर द्रव्योंका आसव) शर्वत अम्लवेत, काली इनमेंसे किसी । एकसे गंडूष धारण करना-तालु शोषको नष्ट करता है ॥१५॥ क्षतोत्थितां रुग्विनिवारणेन जयद्रसानामसृजश्च पानः। __ अन्ये योगाः। क्षयोस्थितां क्षीरजलं निहन्या तालुशोषे पिबेत्सर्पिघृतमण्डमथापि वा। न्मांसोदकं वाथ मधूदकं वा ॥ ९॥ क्षतोत्थित तृष्णामें पीड़ा शान्तकर मांसरस रक्त पिलाना मूच्छोंच्छर्दितृषादाहस्त्रीमद्यभृशकर्शिताः ॥ १६ ॥ चाहिये । क्षयोत्थित तृष्णाको दूध और जल अथवा मांसरस | पिबेयुः शीतलं तोयं रक्तपित्ते मदात्यये । तथा शहदका शर्बत शान्त करता है.॥९॥ धान्याम्लमास्यवैरस्यमलदोर्गन्ध्यनाशनम् ॥ १७ ॥ तदेवालवणं पीतं मुखशोषहरं परम् । सर्वजतृष्णाचिकित्सा। वैशा जनयत्यास्थे संदधाति मुखवणान् ॥ १८॥ गुर्वन्नजामुल्लिखनैर्जयेत्तु.क्षयाहते सर्वकृतां च तृष्णाम्॥ दाहतृष्णाप्रशमनं मधुगण्डूषधारणम् । लाजोदकं मधुयुतं शीतं गुडविमार्दतम् । तालुशोषमे घृत अथवा धृतमण्ड पीना चाहिये । काश्मर्यशर्करायुक्तं पिबेत्तृष्णादितो नरः ॥ १०॥ मूर्छा, छर्दि, तृष', दाह, स्त्रीगमन व मद्य पीनेसे कुश गुर्वन्नजन्य तृष्णामें वमन कराना चाहिये । तथा क्षयजको पुरुषोंको तथा रक्तपित्त व मदात्ययमें ठण्ढा ही जल छोडकर समस्त तृष्णाओंको वमन शान्त करता है । खीलसे पीना चाहिये । काजी मुखकी विरसता, मल तथा दुर्गन्धिको सिद्ध जलको ठंढाकर गुड़, खम्भार व शकर मिला कर पानसे नष्ट करती तथा बिना नमक पीनेसे मुखशोषको शान्त करती समस्त तृष्णाएँ शान्त होती हैं ॥१०॥ है । इसी प्रकार मधुका गण्डूष मुखको साफ करता, मुखके घावोंको भरता तथा दाह व तृष्णाको शान्त करता है ॥१६॥१८ सामान्यचिकित्सा। अतिरूक्षदुबैलानां तर्षे शमयेन्नृणामिहाशु पयः। मुखालेपः। छागो वा घृतभृष्टः शीतो मधुरो रसो हृद्यः।। ११॥ कोलदाडिमवृक्षाम्लचक्रीकाचक्रिकारसः॥ १९ ॥ आम्रजम्बूकषायं वा पिबेन्माक्षिकसंयुतम् । पश्चाम्लको मुखालेपः सद्यस्तृष्णां नियच्छति । छदि सर्वा प्रणुदति तृष्णां चैवापकर्षति ॥ १२॥ वेर, अनार, वृक्षाम्ल, चूका और इमलीके रसका मुखके वटशुङ्गसितालोध्रदाडिमं मधुकं मधु । भीतर लेप करनेसे तत्काल तृष्णा शान्त होती है ॥ १९॥- . पिबेत्तण्डुलतोयेन छर्दितृष्णानिवारणम् ।। १३ ॥ वारिणा वमनम्। गोस्तनेक्षुरसक्षीरयष्टीमधुमधूत्पलैः । वारि शीतं मधुयुतमाकण्ठाद्वा पिपासितम् ॥२०॥ नियतं नस्यतः पानेस्तृष्णा शाम्यति दारुणा॥१४॥ पाययेद्वामयेचापि तेन तृष्णा प्रशाम्यति । अतिरूक्ष तथा दुर्बल पुरुषोंकी तृष्णाको दूध अथवा बक-1. • ठण्ढा जल शहद मिला कण्ठ पर्यन्त पिलाकर वमन करानेसे रेका मांसरस घीमें भून ठंडा कर मधुर द्रव्य मिलाकर पीनेसे | दृष्णा शान्त होती है ॥ २० ॥शान्त करता है । इसी प्रकार आम और जामुनकी पत्तीका काढा शदद मिलाकर पीनसे समस्त छर्दि तथा तृष्णाएँ नष्ट वटशुङ्गादिगुटीः। होती हैं । बरगदके कोमल पत्ते, मिश्री, लोध, अनारदाना, मोरेठी, शहद-सब मिला चावलके जलके साथ पानसे छर्दि वडशुङ्गामयक्षौद्रलाजनीलोत्पलैईढा ॥ २१ ॥ तथा तृष्णा नष्ट होती है । तथा मुनक्का, ईखका रस, दूध, गुटिका वदनन्यस्ता क्षिप्रं तृष्णां नियच्छति । मोठी, शहद और नीलोफरको मिलाकर नाकके द्वारा पीनसे वरगदकी कोंपल, कूठ, शहद, खील तथा नीलोफरकी दृढ कठिन तृष्णा शान्त होती है॥११-१४॥ गोली बनाकर मुखमें रखनेसे तत्काल तृष्णा शान्त होती है २१॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) [ मच्छी - चिरोत्थतृष्णाचिकित्सा। मद्यजायां वमेन्मद्यं निन्द्रां सेवेद्यथासुखम् । ओदन रक्तशालीनां शीतं माक्षिकसंयुतम् । । विषजायां विषनानि भेषजानि प्रयोजयेत् ॥ ४॥ भोजयेत्तेन शाम्येत्त छर्दिस्तृष्णा चिरोत्थिता ॥२२ दोषज मूमें यथादोष ज्वरनाशक काढ़े तथा रक्तजन्य लाल चावलोंका भात ठण्डा कर शहद मिलाकर भोजन | मू में शीत क्रियाएँ हितकर हैं । मद्यजन्य मूछामें मद्यका वमन करनेसे चिरोत्थ तृष्णा शान्त होती है ॥ २२ ॥ कर सुखपूर्वक सोना चाहिये । विषजन्य मूर्छा में विषनाशक , औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये ॥ ३ ॥४॥ जलदानावश्यकता। पूर्वामयातुरः सन्दीनस्तृष्णार्दितो जलं याचन् । कोलादिचूर्णम् । न लभेत चेदाश्वेव मरणमाप्नोति दीर्घरोग वा॥२३/ कोलमज्जोषणोशीरकेशरं शीतवारिणा । तृषितो मोहमायाति मोहात्प्राणान्विमुञ्चति । । पीतं मूच्छी जयेल्लीढं तृष्णां वा मधुसंयुतम् ॥५॥ तस्मात्सर्वास्ववस्थामु न कचिद्वारि वार्यते ॥२४॥ बेरकी गुठली, काली मिर्च, खश तथा नागकेशरका चूर्ण ठंढे जलके साथ पीनेसे अथवा शहद मिलाकर चाटनेसे छर्दि पहिले किसी रोगसे पीड़ित हुआ और उसी में तृष्णा बढ़| व तृष्णा शान्त होती है ॥५॥ गयी और जल मांगता, है, ऐसी अवस्थामें जल न मिलनेसे | शीघ्रही मर जाता है । अथवा कोई बड़ा रोग हो जाता है । महौषधादिक्वाथः। प्यास अधिक लगने पर मूर्छा होती है । मूर्छासे प्राणत्याग कर महीषधामृताक्षुद्रापौष्करग्रन्थिकोद्भवम् । देता है।अतः किसी अवस्थामें जलका निषेध नहीं है ॥२३॥२४॥ पिवेत्कणायुतं काथं मूछायेषु मदेषु च ॥६॥ इति तृष्णाधिकारः समाप्तः॥ सोंठ, गुर्च, छोटी करेंटी, पोहकरमूल तथा पिपरामूलका क्वाथ पिप्पलीका चूर्ण मिलाकर पीनसे मूर्छा व मद शान्त चूर्ण मिलाकर पानाल तथा पिपराम अथ मूर्छाधिकारः। / होता है भ्रमचिकित्सा। शतावरीबलामूलद्राक्षासिद्धं पयः पिबेत् । सामान्यचिकित्सा। ससितं भ्रमनाशाय बीजं वाट्यालकस्य वा॥७॥ सेकावगाही मणयः सहाराः पिबेद् दुरालभाकाथं सघृतं भ्रमशान्तये। शीताः प्रदेहा व्यजनानिलश्च । त्रिफलायाः प्रयोगो वा प्रयोगः पयसोऽपि वा । शीतानि पानानि च गन्धवन्ति रसायनानां कौम्भस्य सर्पिषो वा प्रशस्यते ॥ ८॥ स्वनिवारितानि ॥१॥ शतावरी, खरेटीकी जड़ तथा मुनक्कासे सिद्ध दूध मिश्रीके सिद्धानि वर्गे मधुरे पयांसि साथ पीनेसे चक्कर आना बन्द होता है । इसी प्रकार खरेटीके बीजोंका चूर्ण मिश्री दूधके साथ भ्रमको नष्ट करता है । अथवा सदाडिमा जाङ्गलजा रसाश्च । यवासाका काथ घी मिलाकर अथवा त्रिफलाका प्रयोग अथवा तथा यवा लोहितशालयश्च द्धका प्रयोग अथवा रसायन औषधियोंका प्रयोग अथवा मूर्छासु शस्ताश्च सतीनमुद्राः ॥२॥ "कौम्भ" संज्ञक (१० वर्ष या १०० वर्ष पुराने ) घृतका प्रयोग शीतल दवदव्यांसे सिञ्चन तथा अवगाह ( जलादिमें | हितकर है ॥७॥८॥ बैठना ) शीतल मणि तथा हार तथा शीतल लेप व पंखे त्रिफलाप्रयोगः। की वायु तथा गन्धयुक्त शीतल पानक समस्त मूर्छाओंमें | हितकर हैं । तथा मधुरवर्गमें सिद्ध दूध तथा जांगल प्राणि- मधुना हन्त्युपयुक्ता त्रिफला रात्री गुडाकं प्रातः। योंका मांसरस तथा लाल चावल, यव व मटर, मूगका पथ्य सप्ताहात्पथ्यभुजो मदमूछोकासकामलोन्मादान्९ हितकर है॥१॥२॥ शहदके साथ त्रिफला रातमें तथा गुड़ अदरख प्रात: काल सेवन करनेसे पथ्य भोजन करनेवालेके सात दिनमै यथादोषं चिकित्साक्रमः। यथादोषं कषायाणि ज्वरनानि प्रयोजयेत् । १ स्थितं वर्शतं श्रेष्ठं काम्भं सर्पिस्तदुव्यते । " इति रक्तजायां तु मूर्छायां हितः शीतक्रियाविधिः।।शा तत्त्वमन्द्रिका । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। - - - मद, मूर्छा, कास, कामला, तथा उन्मादरोग नष्ट होते | पित्तपानात्यये योज्यः सर्वतश्च क्रिया हिमाः । पानात्यये कफोद्भूते लंघनं च यथाबलम् ॥ ६॥ संन्यासचिकित्सा। सर्वजे सर्वमेवेदं प्रयोक्तव्यं चिकित्सितम् ॥ ७ ॥ अजनान्यवपीडाश्च धूमः प्रधमनानि च । आभिः क्रियाभिर्मिश्राभिः शांतिं याति मदात्ययः। सूचीभिस्तोदनं शस्तं दाहः पीडा नखान्तरे ॥१०॥ वातजन्यमें मद्य कुछ जल तथा काला नमक व त्रिकटुलुञ्चनं केशरोम्णां च दन्तैर्दशनमेव च। चूर्ण मिलाकर पीना चाहिये । पित्तजन्य मदात्ययमें मूंगका आत्मगुप्तावघर्षश्च हितास्तस्यावबोधन ॥ ११॥ | यूष मिश्री मिलाकर अथवा मांसरस मीठा मिलाकर पीना तीक्ष्ण अजन, तीक्ष्ण द्रव तथा शुष्क नस्य, धूमपान, सुई। चाहिये। तथा समस्त शीतल चिकित्सा करनी चाहिये । कोचना, जलाना, नाखूनोंके बीच में सुई आदि माना. कफात्मक मदात्ययमें बलानुसार लंघन तथा दीपनीय औषधि• बाल व रोमोंका उखाड़ना, दातोंसे काटना, काँचका घिसना योसे युक्त मद्य पीना चाहिये । तथा सर्वजमें यह सभी 'बहाशाको दूर करता है॥१०॥११॥ चिकित्सा करनी चाहिये । इन क्रियाओंसे मदात्यय शान्त हो जाता है ॥ ४-७॥ इति मूर्छाधिकारः समाप्तः। दुग्धप्रयोगः। मदात्ययाधिकारः। न चेन्मद्यक्रम मुक्त्वा क्षीरमस्य प्रयोजयेत् ॥८॥ लंघनाद्यैः कफे क्षीणे जातदौर्बल्यलाघवे । ओजस्तुल्यगुणं क्षीरं विपरीतं च मद्यतः॥९॥ खजूरादिमन्थः। क्षीरप्रयोग मद्यं वा क्रमेणाल्पाल्पमाचरेत् । मम्थः खजूरमृद्वीकावृक्षाम्लाम्लीकदाडिमैः। । यदि पूर्वोक्त चिकित्सासे मदात्यय शान्त न हो, तो मद्यका परूषकैः सामलकैर्युक्तो मद्यविकारनुत् ।। १॥ कम छोड़कर दूधका प्रयोग करना चाहिये । लंघनादिसे कफके छुहारा, मुनक्का, बिजौरा, नीम्बू या अम्लवेत या कोकम, क्षीण हो जानेपर तथा दुर्बलता व लघुता बढ़ जाने पर दूध इमली, अनार, फालसा व आंवला मिलाकर बनाया गया मन्थ-ही पीना चाहिये। दूध ओजके समान तथा मद्यसे विपरीत मद्यविकारको नष्ट करता है ॥१॥ है। अतः क्षीर या मद्यका प्रयोग क्रमशः थोड़ा थोड़ा 'मन्थविधिः। करना चाहिये ॥८॥९॥ जले चतुष्पले शीते क्षुण्णद्रव्यपलं क्षिपेत् ।। पुनर्नवाचं घृतम्। मृत्पात्रे मर्दयत्सम्यक्तस्माञ्च द्विपलं पिबेत् ॥२॥ १६ तोला ठण्ढे जलमें ४ तोला कुटी औषधि छोड़, मल, पयः पुननेवाकाथयष्टीकल्कप्रसाधितम् । छानकर ८ तोला पीना चाहिये ॥२॥ घृतं पुष्टिकरं पानान्मद्यपानहतौजसः ।। १०॥ पुनर्नवा क्वाथ, दूध, तथा मोरेठीके कल्कसे सिद्ध घृत तर्पणम् । पुष्टिकारक तथा मद्यपानसे क्षीण ओजवालेको हितकर है॥१०॥ सतीनमुद्रमिश्रान्वा दाडिमामलकान्वितान् । अष्टाङ्गलवणम् । द्राक्षामलकखजूरपरूषकरसेन वा ॥३॥ कल्पयेत्तर्पणान्यूषान् रसांश्च विविधात्मकान् ।। सौवर्चलमजाज्यश्च वृक्षाम्लं साम्लवेतसम् । मटर, मूंग, आंवला, अनार मिलाकर मुनक्का, आंवला,। त्वगेलामरिचार्धाशं शर्कराभागयोजितम् ॥ ११ ॥ छुहारा, फालसाके रससे तर्पण, यूष तथा अनेक प्रकारके मांस-1 हितं लवणमष्टाङ्गमनिसन्दीपनं परम् । रस बनाना चाहिये ॥ ३ ॥- . मदात्यये कफप्राये दद्यात्स्रोतोविशोधनम् ॥ १२॥ काला नमक, () जीरा, (२) बिजौरा (३) निम्बू, सर्वमदात्ययचिकित्सा। (४) अम्लवेत प्रत्येक एक भाग, (५) दालचीनी, मधं सौवर्चलव्योषयुक्तं किश्चिजलान्वितम् ॥४॥(६) इलायची, (७) काली मिर्च, प्रत्येक आधा भाग, जीर्णमद्याय दातव्यं वातपानात्ययापहम् । शक्कर १ भाग, मिलाकर बनाया गया चूर्ण कफज मदात्ययको मुद्यूषः सितायुक्तः स्वादुर्वा पैशितो रसः ॥ ५॥ नष्ट, अग्नि दीप्त तथा स्रोतोंको शुद्ध करता है ॥ १॥ १२ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) चक्रदत्तः। [दाहा wwww चव्यादिचूर्णम् । कोद्रवधुस्वरमदचिकित्सा। धव्यं सौवर्चलं हिंगु पूरकं विश्वदीप्यकम् । । कूष्माण्डकरसः सगुडः शमयति मदनकोद्रवजम् । चूर्ण मधेन दातव्यं पानात्ययरुजापहम ॥ १३॥ धौस्तुरं च दुग्धं सर्शकरं पानयोगेन ॥ १८ ॥ मदकारक कोदवके नशेको गुड़के साथ पेठेका रस तथा चव्य, काला नमक, भूनी हींग, बिजौरा निम्बू, सोंठ धतूरेके नशेको शक्करके साथ दूध पीनेसे नष्ट करता है ॥१८॥ अजवाइनका चूर्ण मद्यके साथ पानसे मदात्ययको नष्ट कर करता है ॥ १३ ॥ इति मदात्ययाधिकारः समाप्तः । मद्यपानरिधिः। अथ दाहाधिकारः। जलाप्लुतश्चन्दनरूषिताङ्गः स्रग्वी सभक्तां पिशितोपदंशाम् । पिबन सुरां नैव लभेत रोगान् दाहे सामान्यक्रमः। मनोमतिघ्नं च मदं न याति ॥ १४॥ शतधौतघृताभ्यक्तं दिह्याद्वा यवसक्तुभिः । शीतजलमें स्नान कर चन्दन लगा, माला पहिन भोजनके | कोलामलकयुक्तर्वा धान्याम्लैरपि बुद्धिमान् ॥१॥ साथ मांस खाते हुए शराब पीनेसे कोई रोग उन्माद मदात्य- छादयेत्तस्य सर्वाङ्गमारनालार्द्रवाससा ॥ यादि नहीं होते ॥१४॥ लामजेनाथ शुक्तेन चन्दनेनानुलेपयेत् ।। २॥ पानविभ्रमाचकित्सा। चन्दनाम्बुकणास्यन्दितालवृन्तोपबीजितः।। सुप्याहाहार्दितोऽम्भोजकदलीदलसंस्तरे ॥ ३ ॥ द्राक्षाकपित्थफलदाडिमपानकं यत् । परिषेकावगाहेषु व्यजनानां च सेवने । तत्पानविभ्रमहरं मधुशर्कराढयम् । । शस्यते शिशिर तोयं तृष्णादाहोपशान्तये ॥ ४ ॥ मुनक्का, कैथा तथा अनारके रसका पना, शहद, शक्कर क्षीरैः क्षीरिकषायैश्च सुशोतैश्चन्दनान्वितैः । मिलाकर पीनेसे पानविभ्रम नष्ट होता है । अन्तर्दाहं प्रशमयेदेतेश्चान्यैश्च शीतलैः ॥५॥ पथ्याघृतम् । १०. बार धोये हुए घृतसे मालिश कर यवसत्तुओंसे अथवा बेर और आंवले मिली काजीके साथ लेप करना चाहिये । पथ्याकाथेन संसिद्धं घृतं धात्रीरसेन वा। समस्त शरीर काजीसे तर कपड़ेसे ढक देना चाहिये । अथवा सर्पिः कल्याणकं वापि मदमूछोहरं पिबेत् ।। १५॥ खश. चन्दन और सिरकासे लेप करना चाहिये । चारपाईपर छोटी हर्रके काढ़े अथवा आंवलेके काढ़ेके साथ सिद्ध घृत कमल व केलाके पत्ते बिछाकर सुलाना चाहिये । तथा चन्दनके अथवा "कल्याणक" घृत मद मूर्छाको नष्ट करता है ॥ १५॥ जलसे तर ताड़के पंखसे इस प्रकार हवा करना कि रोगीका शरीर जलबिन्दुओंसे तर हो जाय । प्यास और जलनकी शान्तिके पूगमदचिकित्सा। लिये परिषेक, अवगाह तथा पंखाके तर करनेमें ठण्ढा जल सच्छर्दिमूर्छातीसारं मदं पूगफलोद्भवम् । हितकर होता है । शीतल दूध, क्षीरि वृक्षोंके क्वाथ ठण्ढ़े किये, सद्यः प्रशमयेत्पीतमातृप्तारि शीतलम् ।। १६॥ चन्दन मिले हुए तथा अन्य शीतल पदाथोंको पिला तथा वन्यकरीषघ्राणाजलपानाल्लवणभक्षणाद्वापि।। | सेकादि कर अन्तर्दाह शान्त करना चाहिये ॥ १-५॥ शाम्यति पूगफलमदश्चूर्णरुजा शर्कराकवलात् १७/ शंखचूर्णरजोघ्राणं स्वल्पं मदमपोहति । कुशाद्यं घृतं तैलं च। कुशादिशालपर्णीभिर्जीवकायेन साधितम । सुपारीके नशेको जिसमें वमन, मूर्छा तथा अतीसारतक होता। हो तृप्तिपर्यन्त ठण्डा जल पीनेसे नष्ट करता है, वनकण्डेको | - तैलं घृतं वा दाहनं वातपित्तविनाशनम् ॥६॥ सूंघनेसे, जल पीनेसे तथा नमक खानेसे सुपरीका नशा तथा कुशादिपञ्चमूल, शालपर्णी तथा जीवकादिगणकी ओषशक्कर का कवल धारण करनेसे चूनेके खानेसे उत्पन्न पीड़ा नष्ट होती है। शंखका चूर्ण मुंघनेसे भी इसका नशा , यहां 'शालपर्णी" शब्दसे घृन्दके सिद्धान्तसे सुश्रुतोक उतरता है ।।१६ ॥१७॥ विदारिगन्धादि गण लेना चाहिये। दूसरे चायाँने लघुपबमूल पवमा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (१०१) Pow- worwar ore धियोंसे सिद्ध तैल व घृत दाह तथा वातपित्तको नष्ट | अपस्मारमें कहेंगें, वह उन्मादमें भी करनी चाहिये। क्योंकि दोनोंमें करता है ॥६॥ | दोष तथा धातु समान ही दूषित होते हैं ॥१॥२॥ ___ फलिन्यादिप्रलेपः। __स्वरसप्रयोगाः। फलिनी लोध्रसेव्याम्बु हेमपत्रं कुटन्नटम् । ब्राह्मीकूष्माण्डीफलषड्मन्थाशङ्खपुष्पिकास्वरसाः। कालीयकरसोपेतं दाहे शस्तं प्रलेपनम् ॥ ७॥ | उन्मादहृतो दृष्टाः पृथगेते कुष्ठमधुमिश्राः ॥ ३ ॥ . प्रियंगु ( इसके अभावमें मेंहदी अथवा कमलगट्टागिरीके | ब्राह्मी, कूष्माण्ड, वच तथा शंखपुष्पीमेंसे किसी एकका स्वरस कूठका चूर्ण व शहद मिला चाटनेसे उन्माद नए वर्टी ) लोध, खश, सुगन्धवाला, नागकेशर, तेजपात, होता है ॥ ३॥ मोथा, इनके चूर्णको पीले चन्दनके रसमें पीसकर लेप करना चाहिये ॥७॥ दशमूलक्काथः। हीबराद्यवगाहः। दशमूलाम्बु सघृतं युक्तं मांसरसेन वा । ससिद्धार्थकचूर्ण वा पुराणं वैककं घृतम् ॥ ४॥ हीबेरपद्मकोशीरचन्दनक्षीदवारणा। दशमूलका क्वाथ घी अथवा मांसरसके साथ अथवा सम्पूर्णमवगाहेत द्रोणी दाहार्दितो नरः॥८॥ सफेद सरसोंके चूर्णके साथ अथवा केवल पुराना घी सेवन सुगन्धवाला, पद्माख, खश, चन्दनके चूर्णसे युक्त जलसे करना चाहिये ॥ ४ ॥ भरे टबमें बैठना चाहिये ॥८॥ पुराणघृतलक्षणम् । इति दाहाधिकारः समाप्तः । उपगन्धं पुराणं स्याद्दशवर्षस्थितं घृतम् । लाक्षारसनिभं शीतं प्रपुराणमतः परम् ॥५॥ अथोन्मादाधिकारः। दश वर्षका पुराना घी लाक्षारसके समान लाल तथा उग्र गन्धयुक्त होता है, इससे अधिक दिनका "प्रपुराण" कहा जाता है ॥५॥ सामान्यत उन्मादचिकित्सोपायाः। पायसः। उन्मादे वातिके पूर्व स्नेहपानं विरेचनम् ।। श्वेतोन्मत्तोत्तरदिङ्मूलसिद्धस्तु पायसः। पित्तजे कफजे वान्तिः परो बस्त्यादिकः क्रमः॥१॥ गुडाज्यसंयुतो हन्ति सर्वोन्मादास्तु दोषजान् ॥६॥ यच्चोपदेक्ष्यते किञ्चिदपस्माराचिकित्सिते । । सफेद धतूरेकी उत्तर दिशाको गयी जड़से सिद्ध दूधमें गुड़, उन्मादे तच्च कर्तव्यं सामान्यादोषदुष्ययोः॥ २॥ घी तथा चावल मिलाफर बनायी गयी खीर समस्त दोषज उन्मादोंको शान्त करती है ॥६॥ वातोन्मादमें पहिले स्नेहपान, पित्तोन्मादमें पहिले विरेचन तथा कफोन्मादमें प्रथम वमन कराना चाहिये। तदनन्तर उन्मादनाशकनस्यादि। वस्त्यादि क्रमका सेवन करना चाहिये । जो जो चिकित्सा उन्मादे समधुः पेयः शुद्धो वा तालशाखजः। रसो नस्येऽभ्यजने च साषेपं तैलमिष्यते ॥७॥ माना है। पर निश्चलका मत है कि यहां आदि शब्द नहीं है, अपक्कचटकी क्षीरपीतोन्मादविनाशिनी। अतः केवल शालपर्णी ही लेना चाहिये। शिवदासजीने इस मतको | बद्धं सार्षपतलाक्तमुत्तानं चातपे न्यसेत् ॥ ८॥ अन्तमें लिखकर छोड़ दिया है, अतः प्रतीत होता है उन्हें भी उन्मादमें शहदके साथ ताड़ी पीना चाहिये । अथवा केवल यही मत अभीष्ट था । यहांपर यद्यपि विभिन्न टीकाकारीने कल्क ताड़ी पीना चाहिये । नस्य और मालिशमें सरसोंके तैलका और क्वाथ दोनों छोड़ना लिखा है, उसमें "कुशादिशालिपीभिः प्रयोग करना चाहिये । कच्ची गुञ्जा पीसकर दूधके साथ क्वाथः जीवकाद्येन कल्कः ” अथवा “ कल्कक्काथावनिर्देशे पिलानी चाहिये । तथा शरीरमे तैल लगवा बान्धकर उताना गणात्तस्मात्समावपेत् " इस वचनसे सभीसे कल्क क्वाथ लेना धूपमें सुलाना चाहिये ॥७॥८॥ लिखा है । पर मेरे विचारसे चक्रपाणि लिखित पूर्व परिभाषा| " यत्राधिकरणे नोक्तिर्गणे स्यात्स्नेहसंविधौ । तत्रैव कल्कनि!हा सिद्धार्थकाद्यगदः। विष्यते स्नेहवेदिना ॥ एतद्वाक्यबलेनैव कल्कसाध्यपरं घृतम्" के सिद्धार्थको हिङगु वचा करखो देवदारु च। सिद्धान्तसे केवल कल्क छोड़कर पाक करना चाहिये। मशिधा त्रिफला श्वेता कटभीत्वकूकदात्रिकम् ॥९॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३) चक्रदत्तः। [उन्मादाच्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्च्च न्छन् समांशानि प्रियगुश्च शिरीषो रजनीद्वयम् । तथा शासन द्वारा मन, बुद्धि व स्मरणशक्तिको शुद्ध करना वस्तमूत्रेण पिष्टोऽयमगदः पानमजनम् ॥ १०॥ चाहिये । डाटना, दुःख देना, दान, शान्ति देना, प्रसन्न करना, नस्यमालेपनं चैव स्नानमुद्वर्तनं तथा । डराना, आश्चर्यकी बातें कहना, यह उपाय स्मरणशक्तिको उत्पन्न अपस्मारविषोन्मादकृत्यालक्ष्मीज्वरापहः ।। ११ ।। |कर मनको शुद्ध करते हैं । काम, क्रोध, शोक, भय, हर्ष, ईर्षा, भूतेभ्यश्च भयं हन्ति राजद्वारे च शस्यते । लोभसे उत्पन्न उन्मादोंको परस्पर विरुद्ध इन्हीं ( यथा कामो न्मादीको क्रोधोत्पन्न कराकर ) से शान्त करना चाहिये । इसी सपिरेतेन सिद्धं वा सगोमूत्रं तदर्थकृत् ।। १२ ।। प्रकार जिसको इष्ट द्रव्य आदिके नाशसे उन्माद हुआ है, उसे • सफेद सरसों, भुनी हींग, वच, कजा, देवदारु, उसीके सदृश प्राप्ति, शांति तथा आश्वासनसे जीतना चाहिये । मजीठ, त्रिफला, सफेद विष्णुकान्ता, मालकांगनी, लेप, उबटन, मालिश, धूम तथा घृतपान कराना चाहिये । दालचीनी, त्रिकटु, प्रियङ्गु, सिरसाकी छाल, हल्दी तथा दारुहल्दी इनसे मन, बुद्धि, स्मरणशक्ति तथा ज्ञान प्रबुद्ध होता है। चूर्ण कर बकरके मूत्रमें पास गोली बना लेनी चाहिये । इसका कल्याणघृत, महाकल्याणवृत, चैतसघृत, नारायणतैल तथा प्रयोग अन्जन कर, पिलाकर, नस्य देकर,, आलेप कर, उद्वर्तन महानारायणतैलका प्रयोग करना चाहिये ॥ १५-२० ॥ कर तथा स्नानके जलमें मिलाकर करना चाहिये । यह-अपस्मार, उन्माद, विष, शाप, कुरूपता, ज्वर तथा भूतबाधाको कल्याणकंघृतं क्षीरकल्याणकं च । नष्ट करता हैं। राजद्वारमें मान होता है। इन्हीं औषधियों के विशालात्रिफलाकौन्तीदेवदार्वेलवालुकम् । कल्क तथा गोमूत्रमें सिद्ध घृत भी यही गुण करता है ॥९-१२॥ स्थिरानतं रजन्यौ द्वे शारिवे द्वे प्रियङ्गुकाः ॥२१॥ त्र्यूषणाद्यवर्तिः। नीलोत्पलैलामञ्जिष्ठादन्तीदाडिमकेशरम् । त्र्यूषणं हिङगु लवणं वचा कटुकरोहिणी। तालीशपत्रं बृहती मालत्याः कुसुमं नवम् ॥ २२ ।। शिरीषनक्तमालानां बीजं श्वेताश्च सर्षपाः ॥ १३ ॥ विडङ्गं पृश्निपी च कुष्टं चन्दनपद्मको । गोमूत्रपिष्टरेतैर्वा वतिर्नेबाजने हिता। अष्टाविंशतिभिः कल्करेतैरक्षसमन्वितैः ॥२३ ॥ चातुर्थिकमपस्मारमुन्मादं च नियच्छति ॥१४॥ चतुर्गुणं जलं दत्त्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत् । त्रिकटु, हींग, नमक, वच, कुटकी, सिरसाकी छाल, कजाके अपस्मारे ज्वरे कासे शोषे मन्दानले क्षये ॥ २४ ॥ बीज, सफेद सरसों-इनको गोमूत्रमें पीस बत्ती बनाकर आंखमें| वातरक्त प्रतिश्याये तृतीयकचतुर्थके । लगानेसे चातुर्थिक ज्वर, अपस्मार• तथा उन्माद रोग नष्ट | वम्यर्शोमूत्रकृच्छ्रे च विसर्पोपहतेषु च ॥ २५ ॥ होता है ॥ १३ ॥ १४ ॥ कण्डूपाण्ड्वामयोन्मादे विषमेहगरेषु च । सामान्यप्रयोगाः। भूतोपहतचित्तानां गद्गदानामरेतसाम् ॥ २६ ।। शस्तं स्त्रीणां च वन्ध्यानां धन्यमायुबेलप्रदम् । शुद्धस्याचारविभ्रंशे तीक्ष्णं नावनमजनम् । अलक्ष्मीपापरक्षोन्नं सर्वग्रहनिवारणम् ॥ २७ ॥ ताडनं च मनोबुद्धिस्मृतिसंवेदनं हितम् ॥१५॥ तर्जनं त्रासनं दानं सान्त्वनं हर्षणं भयम् । कल्याणकमिदं सर्पिः श्रेष्ठ पुंसवनेषु च । विस्मयो विस्मृतेर्हेतोनयन्ति प्रकृतिं मनः ॥१६॥ द्विजलं सचतुःक्षीरं क्षीरकल्याणक त्विदम् ॥ २८॥ कामशोकभयक्रोधहर्षालोभसम्भवान् । इन्द्रायणकी जड़, त्रिफला, सम्भालूक बीज, देवदारु, एलपरस्परप्रतिद्वन्द्वरोभरेव शमं नयेत् ॥ १७॥ वालुक, शालिपर्णी, तगर, हल्दी, दारुहल्दी, सारिवा, काली इष्टद्रव्यविनाशात्तु मनो यस्योपहन्यते । सारिवा, प्रियङ्गु, नीलोफर, छोटी इलायची, मजीठ, दन्ती. अनारदाना, नागकेशर, तालीशपत्र, बड़ी कटेरी, मालती फूल, तस्य तत्सदृशप्राप्त्या शान्त्याश्वासैश्च ताञ्जयेत् १८॥ वायविडंग, पिठिवन, कूठ, चन्दन, पद्माख प्रत्येक १ तोलाका प्रदेहोत्सादनाभ्यङ्गधूमाः पानं च सर्पिषः। कल्क, घी १ प्रस्थ, जल ४ प्रस्थ मिलाकर सिद्ध करना चाहिये। प्रयोक्तव्य मनाबुद्धिस्मृतिसज्ञाप्रबाधनम् ॥ १९॥ यह घत अपस्मार, ज्वर, कास, शोष, मन्दाग्नेि, क्षय, वातरक्त कल्याणक महद्वापि दद्याद्वा चैतसं घृतम्। प्रतिश्याय, तृतीयक चातुर्थिकज्वर, वमन, अर्श, मूत्रकृच्छ्र, तैलं नारायणं चापि महानारायणं तथा ॥२०॥ विसर्प, खुजली, पाण्डुरोग, उन्माद, विष, प्रमेह, गरविष, भूतोजिस मनुष्यको (वमन विरेचन द्वारा) शुद्ध होनेपर भी न्माद तथा स्वरभेदको नष्ट करता है। यह वन्ध्या स्त्रियोंको अपने आचार आदिका ज्ञान न रहे, उसे तीक्ष्ण नस्य, अन्जन लाभ करता है। धन, आयु तथा बल देता है। कुरूपता, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः भाषाटीकोपेतः। (१०) For पापरोग,राक्षसदोष तथा ग्रहदोष नष्ट होते हैं । यह "कल्याणक" जटामांसी, छोटी हर्र, जटामांसी, नील, काँचके बीज, वच, घृत सन्तान उत्पन्न करने में तथा वाजीकरणमें उत्तम है। त्रायमाण, अरणी, शतावरी, भटेउर, कुटकी, गुर्च, बाराहीद्विगुण जल तथा चतुर्गुण दूध मिलाकर सिद्ध करनेसे यही घृत कन्द, सौंफ, सोवाके बीज, गुग्गुलु अथवा लाक्षा, शतावरी, “क्षीरकल्याणक " कहा जाता है ॥ २१-२८॥ | ब्राह्मी, राना, गन्धरास्ना, मालकांगनी, विछुआ तथा शालप णीका कल्क और कल्कसे चतुर्गुण घी और घीसे चतुर्गुण जल महाकल्याणकं घृतम्। . मिलाकर सिद्ध किया यह घृत चातुर्थिक ज्वर, उन्माद, प्रहएभ्य एव स्थिरादीनि जले पक्त्वैकविंशतिम्। दोष, ब अपस्मारको नष्ट करता तथा मेधा, बुद्धि और बालरसे तस्मिन्पचेत्सर्पिष्टिक्षीरचतुर्गुणम् ॥ २९ ॥ । कोंके शरीरको बढ़ाता है ॥ ३४-३७॥ वीराद्विमाषकाकोलीस्वयंगुप्तर्षभर्द्धिभिः। हिंग्वायं घृतम् । मेदया च समैः कल्कैस्तत्स्यात्कल्याणकं महत् ॥ | हिंगुसौवर्चलव्योपैपिलांशेर्पताढकम् । ब्रहणीयं विशेषेण सन्निपातहरं परम् ।। ३०॥ | चतुर्गुणे गवां मूत्रे सिद्धमुन्मादनाशनम् ॥ ३८ ॥ पूर्वोक्त विशाला आदि २८ औषधियोंसे पहिलेकी ७ अलग | कर शालपर्णी आदि २१ औषधियोंका काथ, घृतसे चतर्गण| होग, काला बमक, त्रिकटु प्रत्येक ८ तोला, घी ६ सेर तथा चतुर्गुण एकबार व्याई गायका दूध और घृतसे चतुर्थाश | ३२ तोला, गोमूत्र २५ सेर ४८ तो० मिला सिद्ध कर सेवन शतावर, दोनों उडद, काकोली, कौंच, ऋषभक ऋदि. मेदाका| करनसे उन्माद रोग नष्ट होता है ॥ ३८ ॥ कल्क छोड़कर घी पकाना चाहिये। यह “ महाकल्याणक" घृत लशुनाचं घृतम् । विशेषकर ब्रहणीय तथा सनिपातको नष्ट करता है ॥२९॥३०॥ लशुनस्याविनष्टस्य तुलाधैं निस्तुषीकृतम् । चैतसं वृतम् । तदर्ध दशमूल्यास्तु द्वथाढकेऽपां विपाचयेत् ॥३९॥ पञ्चमूल्यावकाश्मयौँ रात्रैरण्डात्रवृद्धला। पादशेषे घृतप्रस्थं लशुनस्य रसं तथा । मूर्वा शतावरी चेति काथ्यैर्द्विपलिकैरिमैः ॥३१॥ कोलमूलकवृक्षाम्लमातुलुङ्गाकै रसैः ॥ ४० ॥ कल्याणकस्य चाङ्गेन तद् घृतं चैतसं स्मृतम् । दाडिमाम्बुसुरामस्तुकालिकाम्लैस्तदर्धिकः। सर्वचतोविकाराणां शमनं परमं मतम् ॥ ३२॥ साधयेत्रिफलादारुलवणव्योषदीप्यकैः ॥४१॥ घृतप्रस्थोऽत्र पक्तव्यः काथो द्रोणाम्भसा घृतात् ।। यमानीचव्यहिंग्वस्लवेतसैश्च पलार्धिकैः। चतुर्गुणोऽत्र सम्पाद्यः कल्कः कल्याणके रितः।। सिद्धमेतत्पिबेच्छूलगुल्माशोंजठरापहम् ॥ ४२ ॥ बध्नपाण्ड्वामयप्लीहयोनिदोषक्रिमिज्वरान् । काश्मरीको छोड़कर शेष दोनों पञ्चमूल, रासन, एरण्डकी वातश्लेष्मामयांश्चान्यानुन्मादांश्चापकर्षति ॥ ४३ ॥ छाल, निसाथ, खरेटी, मूर्वा, शतावरी प्रत्येक ८ तोला १ द्रोण जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थाश शेष रहनेपर उतार छानकर १ लहसुन छिला हुआ २॥ सेर, दशमूल १। सेर, जल २ प्रस्थ घी तथा कल्याणक घृतमें कही ओषधियोंका कल्क छोड़कर आढक ( यहां “द्विगुणं तद् द्रवायोः" से १२सेर६४ तोला) में पकाना चाहिये । यह घृत समस्त मनोविकारजन्य रोगोंको शान्त मिलाकर पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर करने में श्रेष्ठ है ॥ ३१-३३॥ क्वाथमें , प्रस्थ घृत, लशुनका रस १ प्रस्थ, बेर, मूली, बिजौरा निम्बू, कोकम, अदरखका, रस, अनारका रस, शराब, दहीका महापैशाचिकं घृतम् । तोड़, काजी प्रत्येक ६४ तोला, त्रिफला, देवदारु, लवण, जटिला पूतना केशी चारटी मर्कटी वचा। |त्रिकटु, अजवाइन, अजमोद, चव्य, हींग, अम्लवेत, त्रायमाणा जया वीरा चोरकः कटुरोहिणी ॥३४॥ प्रत्येक २ तोलाका कल्क मिलाकर सिद्ध किया गया वयस्था शूकरी छत्रा सातिच्छत्रा पलङ्कषा। घृत पानसे, शूल, गुल्म, अर्श, उदररोग, बद, पाण्डुरोग, महापुरुषदन्ता च वयस्था नाकुलीद्वयम् ॥ ३५॥ | प्लीहा, योनिदोष, क्रिमिरोग, ज्वर, वातकफके अन्य रोग तथा उन्मादको नष्ट करता है । ३९-४३ ॥ कटुम्भरा वृश्चिकाली स्थिरा चैव च तैघृतम्। । सिद्धं चातुर्थकोन्मादग्रहापस्मारनाशनम् ।। ३६॥ आगन्तुकोन्मादचिकित्सा। महापैशाचिकं नाम घृतमेतद्यथामृतम् । सर्पिःपानादिरागन्तोर्मन्त्रादिश्चेष्यते विधिः । मेधाबुद्धिस्मृतिकरं बालानां चाङ्गवर्धनम् ॥ ३७॥ पूजाबल्युपहारेष्टिहोममन्त्राजनादिमिः ॥४४॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) चक्रदत्तः। [ अपस्मारा Wrvwrwww% , जयेदागन्तुमुन्मादं यथाविधिः शुचिभिषक् । । देव, ऋषि, पितृ, तथा गन्धर्वादि ग्रहोंसे तथा (ब्रह्मरा• आगन्तुकोन्मादमें घृतपान, मन्त्रजप, पूजा, बलि, उपहार, क्षससे ) उन्मत्तको तीक्ष्ण अअनादि कर चिकित्सा न करनी यज्ञ, होम, अञ्जन पवित्रतासे करना चाहिये ॥ ४ ॥ चाहिये ॥५१॥ अञ्जनम् । विगतोन्मालक्षणम् । कृष्णामरिचसिन्धूत्थमधुगोपित्तनिर्मितम् ॥ ४५ ॥ प्रसादश्चेन्द्रियार्थानां बुद्धथात्ममनसां तथा । अञ्जनं सर्वभूतोत्थमहोन्मादविनाशनम् । धातूनां प्रकृतिस्थत्वं विगतोन्मादलक्षणम् ।। ५२॥ दारुमधुभ्यां पुष्यः कृतं च गुडिकाञ्जनम्॥४६॥ उन्माद शान्त हो जानेपर इन्द्रियां अपने विषयको ठीक मरिचं वातपे मासं सपित्तं स्थितमञ्जनम् । |ग्रहण करने लग जाती हैं । बुद्धि, आत्मा व मन प्रसन्न होते हैं वैकृतं पश्यतः कार्य भूतदोषहतस्मृतेः ।। ४७॥ और शरीरस्थ धातु अपने रूपमें हो जाते हैं ॥ ५२ ॥ छोटी पीपल, काली मिर्च, सेंधानमक, शहद, गोरोचनसे | इत्युन्मादाधिकारः समाप्तः । बनाया अञ्जन समस्त भूतोन्मादोंको नष्ट करता है । इसी प्रकार दारुहल्दी व शहदसे बनायी गोलीको आजनेसे भी उन्माद नष्ट अथापस्माराधिकारः। होता है। काली मिर्च व गोरोचनको महीने भर धूपमें रखकर भतदोषसे उन्मत्तकी आंखोंमें लगाना चाहिये ॥ ४५-४७ ॥. वाातकादिक्रमेण सामान्यतश्चिकित्साः । धूपाः । वातिकं बस्तिभिः प्राय: पैत्तं प्रायो विरेचनैः। निम्बपत्रवचाहिंगुसपनिमोकसषपैः। श्लैष्मिकं वमनप्रायैरपस्मारमुपाचरेत् ।। १॥ डाकिन्यादिहरो धूपो भूतोन्मादविनाशनः ॥४८॥ सर्वतः सुविशुद्धस्य सम्यगाश्वासितस्य च । कासास्थिमयूरपिच्छ बृहतीनिर्माल्यपिण्डीतकै- | अपस्मारविमोक्षार्थ योगान्संशमनाञ्छृणु ॥२॥ स्त्वग्वांशीवृषदंशविट्तुषवचाकेशाहिनिर्मोंककैः। । वातिक अपस्मारको वस्तिसे, पित्तजको विरेचनसे तथा गोशृंङ्गद्विपदन्तहिंगुमरिचैस्तुल्यैस्तु धूपः कृतः कफजको प्रायः वमन कराकर चिकित्सा करनी चाहिये । शुद्ध स्कन्दोन्मादपिशाचराक्षससुरावेशज्वरघ्नः स्मृतः४९ हो जानेपर संसर्जन क्रमके अनन्तर शान्त करनवाले योगोंका सेवन करना चाहिये ॥ १ ॥२॥ नीमकी पत्ती, वच, हींग, सांपकी केंचुल तथा सरसोंसे बनाया धूप डाकिनी तथा भूतादिजन्य उन्मादको नष्ट करता अञ्जनानि । है। इसीप्रकार कपासकी गुठली, मयूरका पंख, बड़ी कटेरी, मनोह्वा तामंजं चैव शकृत्पारावतस्य च। शिवनिर्माल्य, मैनफल, दालचीनी, वंशलोचन, बिलाड़की विष्ठा, अञ्जनं हन्त्यपस्मारमुन्मादं च विशेषतः ॥ ३॥ धानकी भूसी, वच, केश, सांपकी केंचल, गौका सींग, हाथीके दांत, हींग, कालीमिर्च-इन सब औषधियोंसे बनाया गया धूप, यष्टीहिंगुवचावक्रशिरीषलशुनामयैः । स्कन्दोन्माद, पिशाच, राक्षस, मुरावेश तथा ज्वरको नष्ट साजामूत्रैरपस्मारे सोन्मादे नावनाञ्जने ॥४॥ करता है ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ षुष्योद्धृतं शुनः पित्तमपस्मारनमञ्जनम् । तदेव सर्पिषा युक्तं धूपनं परमं स्मृतम् ॥ ५ ॥ नस्यम् । मनशिल, रसौंत, कबूतरकी विष्ठा तीनोंका अञ्जन अपस्मार ब्रह्मराक्षसजिन्नस्यं पक्कैन्द्रीफलमूत्रजम् । तथा उन्मादको नष्ट करता है । तथा मरेठी, हीङ्ग, वच, साज्यं भूतहरं नस्यं श्वेताज्येष्ठाम्बुनिमितम् ॥५०॥ तगर, सिरसाकी छाल, लहसुन, कूठ इसको वकरेके मूत्र में पके इन्द्रायणके फल तथा गोमूत्रका नस्य अथवा सफेद पीसकर अजन तथा नस्य देना चाहिये । इसी प्रकार पुष्य विष्णुकान्ता आर चावलका जल मिलाकर बनाया गया नस्य नक्षत्रमें निकाला गया कुत्तेका पित्त अपस्मारको अअनसे नष्ट घोके साथ लेनेसे भूतदोष नष्ट होता है ॥५०॥ करता है । वही घीमें मिलाकर धूप देना चाहिये ॥ ३-५॥ तीक्ष्णौषधनिषेधः। धूपोत्सादनलेपाः। देवर्षिपितृगन्धर्वैरुन्मत्तस्य च बुद्धिमान् । नकुलोलूकमार्जारगृध्रक्रीटाहिकाकः। वर्जयेदञ्जनादीनि तीक्ष्णानि क्रूरमंव च ॥५१॥ तुण्डैः परः पुरीषैश्व धूपनं कारयेद्भिषक् ॥६॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकोपतः। कायस्थाञ्शारदान्मुद्रान्मुस्तोशीरयवांस्तथा।। मेढ़ासिंही व अमरवेलका रस निकाल जलाकर काज में पकाकर सव्योषान्बस्तमूत्रेण पिष्ट्वा वर्ति प्रकल्पयेत् ॥७॥ खानेसे अपस्मार नष्ट होता है। जिसके हृत्कम्प, अक्षिरुजा, अपस्मारे तथोन्मादे सर्पदष्टे गर्दिते । पसीना तथा हाथ पैरोंमें ठण्ढक हो, उसे दशमूलक्वाथ तथा विषपीते जलमृते चैताः स्युरमृतोपमाः॥८॥ कल्याणघृत पिलाना चाहिये ॥ १२-१५॥ अपेतराक्षसीकुष्ठपूतनाकेशिचोरकैः। स्वल्पपश्चगव्यं धृतम् । उत्सादनं मूत्रपिष्टैमूत्ररेवावसेचनम् ॥९॥ गोशकृद्रसदध्यम्लक्षीरमूत्रैः समैधुतम् । जतुकाशकृतस्तद्वद्दग्धैर्वा बस्तरोमभिः। । सिद्धं चातुर्थिकोन्मादग्रहापस्मारनाशनम् ॥१६॥ अपस्मारहरो लेपो मूत्रसिद्धार्थशिग्रुभिः ॥ १०॥ घीके बराबर गायके गोबरका रस, दही, दूध व मूत्र मिलाकर नेवला, उल्लू, बिल्ली, गृध्र, कीट, सर्प, तथा काककी चोंच, | सिद्ध करना चाहिये । यह घृत चातुर्थिक ज्वर, उन्माद, प्रह पंख और मलसे धूप देना चाहिये । सम्भालू, शरदऋतुकी मूंग, तथा अपस्मारको नष्ट करता है ॥ १६ ॥ नागरमोथा, खश, यव तथा त्रिकटुको बकरेके मूत्रमें पीस बत्ती बृहत्पश्चगव्यं घृतम् । बनाकर अजन तथा धूपसे ये अपस्मार, उन्माद, सर्पके काटे द्वे पञ्चमूले त्रिफला रजन्यौ कुटजत्वचम् । हुएको तथा विष पिये हुए, कृत्रिम विष खाये हुए तथा जलसे सप्तपर्णमपामार्ग नीलिनी कटुरोहिणीम् ।। १७॥ मरे हुएको अमृततुल्य गुण देते हैं। इनका अजन लगाना चाहिये तथा धूप देनी चाहिये । तथा तुलसी, कूठ, छोटी शम्याकं फल्गुमूलं च पौष्करं सदुरालभम् । हर्र, जटामांसी, भटेउर, इनको गोमूत्रमें पीसकर उबटन लगाना द्विपलानि जलद्रोणे पक्त्वा पादावशेषिते ॥ १८॥ चाहिये तथा गोमूत्रसे ही स्नान कराना चाहिये । लाख व काश भाङ्गो पाठां त्रिकटुकं त्रिवृतां निचुलानि च । तथा जलाये हुए बकरेके रावां अथवा गोमूत्र, सरसों व सहि- श्रेयसीमाढकी मूर्वा दन्ती भूनिम्बचित्रको ॥१९॥ जनकी छालसे लेप करना चाहिये ॥६-१०॥ द्वे शारिवे रोहिषं च भूतिकं मदयन्तिकाम् । वचाचूर्णम् । क्षिपोपिष्ट्वाक्षमात्राणि तेः प्रस्थं सर्पिषः पचेत्॥२०॥ गोशकृद्रसदध्यम्लक्षीरमूत्रैश्च तत्समैः । यः खादेत्क्षीरभक्ताशी माक्षिकेण वचारजः । पञ्चगव्यमिति ख्यातं महत्तदमृतोपमम् ॥ २१ ॥ अपस्मारं महाघोरं सुचिरोत्थं जयेद् ध्रुवम् ॥११॥ अपस्मारे ज्वरे कासे श्वयथावुदरेषु च । जो शहदके साथ वचका चूर्ण चाटता तथा दूध भातका | गुल्मार्श:पाण्डुरोगेषु कामलायां हलीमके ॥ २२॥ पथ्य लेता है, उसका पुराना महाघोर अपस्मार भी नष्ट अलक्ष्मीग्रहरक्षोन्नं चातुर्थिकविनाशनम् । होता है ॥११॥ दशमूल, त्रिफला, हल्दी, दारुहल्दी, कुड़ेकी छाल, अन्ये योगाः। सातवन, लटजीरा, नील, कुटकी, अमलतासका गूदा, अञ्जीरकी जड़, पोहकरमूल, यवासा प्रत्येक ८ तोला, एक उल्लम्बितनरप्रीवापाशं दग्ध्वा कृता मसी । द्रोण जलमें मिलाकर पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष रहशीताम्बुना समं पीता हन्त्यपस्मारमुद्धतम् ॥१२॥ नेपर उतार छानकर क्वाथमें घी १ प्रस्थ, भारङ्गी, पाढ़, त्रिकटु, प्रयोज्यं तेल लशुनं पयसा वा शतावरी । निसोथ, जलवेतस अथवा समुद्रफल, गजपीपल, अरहर, मूर्वा ब्राह्मीरसश्च मधुना सर्वापस्मारभेषजम् ॥ १३॥ दन्ती, चिरायता, चीतकी जड़, सारिवा, काली सारिवा, रोहिष निर्दा निवां कृत्वा छागिकामरनालिकाम् ।। | घास, अजवायन तथा नेवारी प्रत्येक १ तोला पीस कल्क कर तामम्लसाधितां खादन्नपस्मारमुदस्यति ॥ १४॥ छोड़ना चाहिये । तथा गायके गोबरका रस, खट्टा दही. हत्कम्पोऽक्षिरुजा यस्य स्वेदो हस्तादिशीतता। दूध, गोमूत्र घीके समान छोड़कर पकाना चाहिये । यह 1. दशमूलीजलं तस्य कल्याणाज्यं च योजयेत् ॥१५॥बृहत्पश्चगव्य घृत" अपस्मार, ज्वर, कास, सूजन, उदररोग, गुल्म, अर्श, पाण्डुरोग, कामला, हलीमक, कुरूपता, ग्रहदोष, जिस रस्सीसे मनुष्य फांसीपर लटकाया गया हो, उस राक्षसदोष, तथा चातुर्थिक ज्वरको नष्ट करता है। १७-२२॥ रस्सीको जलाकर ठंढे जलके साथ पीनसे उद्धत अपस्मार नष्ट होता है। तैलके साथ लहसुन तथा दूधके साथ शतावरी अथवा महाचैतसं घृतम् । शहदके साथ ब्राह्मीरस समस्त अपस्मारोंको नष्ट करता है। शणखिवृत्तथैरण्डो दशमूली शतावरी ॥ २३ ॥ १४ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mer-wor "or-emprewwww वातव्याध्यw er ' रास्ना मागधिका शिग्रुः काथ्यं द्विपलिकं भवेत् ।। लशुनातिविषाचित्राकुष्ठविभिश्च पक्षिणाम् ॥३२॥ विदारी मधुकं मेदे द्वे काकोल्यो सिता तथा ॥२४| मांसाशिनां यथालाभं बस्तमूत्रे चतुर्गुणे । एभिः खजूरमृद्वीकाभीरुयुजातगोक्षुरैः। सिद्धमभ्यजने तैलमपस्मारविनाशनम् ॥ ३३ ॥ चैतसस्य घृतस्याङ्गः पक्तव्यं सर्पिरुत्तमम् ।।२५ ॥ गुग्गुल, बच, हरे, विछुआ, आक, सरसों, जटामांसी, महाचैतससंज्ञं तु सर्वापस्मारनाशनम् । | कारयारी, जटामांसी, छोटी हर्र, हींग, मटेउर, लहसुन, गरोन्मादप्रतिश्यायतृतीयकचतुर्थकान् ॥ २६॥ अतीस, दन्ती, कूठ तथा मांस खानेवाले पक्षियोंकी पापालक्ष्म्यौ जयेदेतत्सर्वग्रहनिवारणम् । विष्ठाका कल्क तथा चतुर्गुण गोमूत्र मिलाकर सिद्ध किया गया कासश्वासहरं चैव शुक्रावविशोधनम् ॥ २७॥ घृत मालिश करनेसे अपस्मारको नष्ट करता है ॥ ३१-३३ ॥ घृतमानं क्वाथविधिरिह चैतसवन्मतम् । अभ्यङ्गः। कल्कश्चैतसकल्कोक्तद्रव्यैः सार्ध च पादिकः ॥२८॥ ___ अभ्यङ्गः साप तैलं बस्तमूत्रे चतुर्गुणे । नित्यं युजातकाप्राप्तौ ताल मस्तकमिष्यते । सिद्धं स्याद्गोशकृन्मूत्रैः पानोत्सादनमेव च ॥३४॥ सन, निसोथ, एरण्डकी छाल, दशमूल, शतावर, रासन, - चतुर्गुण बकरेके मूत्रमें मिलाकर सिद्ध किया गया सरसोंका छोटी पीपल, सहिजन यह प्रत्येक ८ तोला ले १ द्रोण जलमें | पकाना चाहिये । चतुर्थाश रहनेपर उतार छानकर विदारी-1 | तैल मालिश करने तथा गायके गोबरके रसका गोमूत्रके साथ | पीना तथा उबटन लगाना हितकर है ॥ ३४ ॥ कन्द, मौरेठी, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, इत्यपस्माराधिकारः समाप्तः । मिश्री, छुहारा, मुनक्का, शतावर, गोखरू, युआत, तथा कल्याणकघृतका कल्क घृतसे चतुर्थांश मिलाकर घृत पकाना चाहिये । यह " महाचैतसधृत" समस्त अपस्मार, कृत्रिम विष, अथ वातव्याध्यधिकारः। उन्माद, जुखाम, तृतीयक चातुर्थिक ज्वर, पाप, कुरूपता, प्रहदोष, कास, तथा श्वासको नष्ट करता और रजवीर्यको शुद्ध करता है । घीका मान तथा क्वाथ चैतसके समान तत्र सामान्यतश्चिकित्सा। समझना चाहिये । कल्क कुल मिलाकर घृतसे चतुर्थांश ही हो । युञ्जातकके अभावमें ताड़का मस्तक लेना स्वाद्वम्ललवणैः स्निग्धैराहारैतिरोगिणः । चाहिये ॥ २३-२८॥ अभ्यङ्गस्नेहबस्त्यायैः सर्वानेवोपपादयेत् ॥ १॥ समस्त वातरोगियोंको मीठे खट्टे नमकीन तथा स्नेहयुक्त कूष्माण्डकघृतम् । भोजन तथा मालिश व स्नेहयुक्त वस्ति आदि देना हित कर है ॥१॥ कूष्माण्डकरसे सर्पिरष्टादशगुणे पचेत् ।। २९॥ यष्टयाह्वकल्कं तत्पानमपस्मारविनाशनम् । भिन्नभिन्नस्थानस्थवातचिकित्सा । घीसे चतुर्थाश मौरेठीका कल्क तथा अठारह गुणा कुम्हड़ेका रस मिलाकर सिद्ध किया गया घृत अपस्मारको नष्ट करता विशेषतस्तु कोष्ठस्थे वाते क्षारं पिबेन्नरः । - है॥२९॥ आमाशयस्थे शुद्धस्य यथा दोषहरी क्रिया ॥२॥ आमाशयगते वाते छर्दिताय यथाक्रमम् । ब्राह्मीघृतम् । देयःषड्धरणो योगः सप्तरात्रं सुखाम्बुना ॥ ३॥ ब्राह्मीरसे वचाकुष्ठशङ्खपुष्पीभिरेव च ॥ ३०॥ यदि वायु कोष्ठगत हो, तो क्षार पिलाना चाहिये । यदि पुराणं मेध्यमुन्मादग्रहापस्मारनुद् घृतम् । | आमाशयमें हो, तो शोधन कर वात नाशक क्रिया करनी चाहिये ब्राह्मीके रसमें पुराना घी, वच, कूठ, व शंखपुष्पीका कल्क अर्थात् आमाशयगत वायुमें प्रथम स्नेहन स्वेदन कराकर वमन छोडकर पकानेसे उन्माद ग्रहदोष, अपस्मारको नष्ट करता तथा कराना चाहिये। फिर षड्धरण योग ७ दिनतक गरम जलसे मेधाको बढ़ाता है ॥ ३० ॥ देना चाहिये ॥२॥३॥ पलंकषायं तैलम् । षड्धरणयोगः। पलंकषावचापथ्यावृश्चिकायर्कसर्षपैः ॥ ३१ ॥ | चित्रकेन्द्रयवाः पाठाकटुकातिविषाभयाः । जटिलापूतनाकेशीलाङ्गलीहिङगुचोरकैः। महाव्याधिप्रशमनो योगः षड्धरणः स्मृतः ॥४॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] पलदशमांशो धरणं योगोऽयं सौश्रुतस्ततस्तस्य । माषेण पंचगुञ्जकमानेन प्रत्यहं देयः ।। ५ ।। भाषाटीकोपेतः । चीतकी जड़, इन्द्रयव, पाढ़, कुटकी, अतीस, बड़ी हर्रका छिल्का यह वातव्याधिको नष्ट करनेवाला " षड्धरण " योग कहा जाता है । यह योग सुश्रुतका है, अतः उन्हींके मान ( ५ रतीके माशा ) से पलके दशमांश ( ३२ रत्ती ) एक खुराक बनाना चाहिये ॥ ४ ॥ ५ ॥ पक्वाशयगतवातचिकित्सा । पक्काशयगते वाते हितं स्नेहविरेचनम् । बस्तयः शोधनीयाश्च प्राशाश्च लवणोत्तराः ॥ ६ ॥ पक्वाशयगत वातमें स्नेहयुक्त विरेचन, शोधनीय वस्ति तथा नमकीन चटनी हितकर है ॥ ६ ॥ स्नेहलवणम् । स्नुहीलवणवार्ताकुस्नेहांश्छन्ने घटे दहेत् । गोमयेः स्नेहलवणं तत्परं वातनाशनम् ॥ ७ ॥ थूहर, बैंगन, नमक, तिलतैल समान भाग बन्दकर वनकण्डोंकी आंचमें पकाना चाहिये । करनेमें उत्तम " स्नेहलवण" है ॥ ७ ॥ एक भण्डिया में यह वात नष्ट विभिन्नस्थानस्थवातचिकित्सा | कार्यो बस्तिगते चापि विधिर्वस्तिविशोधनः । त्वङ्मांसासृशिराप्राप्ते कुर्याच्चासृग्विमोक्षणम् ॥ ८ स्नेहोपनाहाद्मिकर्मबन्धनोन्मर्दनानि च । स्नायुसन्ध्यस्थिसम्प्राप्ते कुर्याद्वाते विचक्षणः ॥ ९॥ स्वेदाभ्यङ्गावगाहांश्च हृद्यं चान्नं त्वगाश्रिते । शीताः प्रदेहा रक्तस्थे विरेको रक्तमोक्षणम् ॥ १०॥ विरेको मांसमेदःस्थे निरूहाः शमनानि च । बाह्याभ्यन्तरतः स्नेहेरस्थिमज्जगतं जयेत् ॥ ११ ॥ हर्षोऽन्नपानं शुकस्थे बलशुक्रकरं हितम् । विबद्धमार्ग शुक्रं तु दृष्ट्वा दद्याद्विरेचनम् ॥ १२ ॥ ( १०७) बाह्य व अभ्यन्तर स्नेहका प्रयोग करना चाहिये । शुक्रगतवायुमें प्रसन्नता तथा बलशुककारक अन्न पान हितकर हैं, चाहिये ॥ ८-१२ ॥ पर यदि शुकका मार्ग मन्द हो तो शुक्र बिरेचन औषध देना शुष्कगर्भचिकित्सा | गर्भे शुष्के तु वान बालानां चापि शुष्यताम् । सितामधुक काश्मर्यैर्हितमुत्थापने पयः ।। १३ ।। गर्भके सूखने तथा बालकों के शोष रोगमें मिश्री, मौरेठी तथा खम्भारके चूर्णके साथ दूध पीना हितकर है ॥ १३ ॥ शिरोगतवाताचिकित्सा । शिरोगतेऽनिले वातशिरोरोगहरी क्रिया । शिरोगत वायुमें वात शिरोरोगनाशक चिकित्सा करनी चाहिये । हस्तम्भचिकित्सा | व्यादितास्ये हनुं स्विन्नामङ्गुष्ठाभ्यां प्रपीडय च१४ प्रदेशिनीभ्यां चोन्नम्य चिबुकोन्नामनं हितम् । जिसका मुख खुला ही रह गया हो, उसकी ठोढ़ीको स्वेदित कर अंगूठोंसे दबाकर उसी समय दोनों तर्जनियोंसे ठोढ़ीको ऊपरकी ओर उठावे ॥ १४ ॥ - अर्दितचिकित्सा | अर्दिते नवनीतेन खादेन्माषेण्डरी नरः ।। १५ ॥ क्षीरमांसरसेर्भुक्त्वा दशमूलीरसं पिबेत् । स्नेहाभ्यङ्गशिरोबस्तिपाननस्यपरायणः ॥ १६॥ अर्दितं स जयेत्सर्पिः पिबेदौत्तरभक्तकम् । अर्दितरोगमं मक्खनके साथ उड़दके बड़े खाने चाहियें, तथा दूध व मांसरसके साथ भोजन कर दशमूलका क्वाथ पीना चाहिये । तथा जो मनुष्य स्नेहाभ्यङ्ग शिरोबस्ति, स्नेहपान तथा | स्नेहयुक्त नस्य लेता है तथा घीके साथ भोजन करता है, उसका अर्दितरोग नष्ट होता है ॥ १५ ॥ १६ ॥– मन्यास्तम्भचिकित्सा | पञ्चमूलीकृतः क्काथो दशमूलीकृतोऽथवा ॥ १७ ॥ रूक्षः स्वेदस्तथा नस्यं मन्यास्तम्भे प्रशस्यते । पञ्चमूलका काढ़ा अथवा दशमूलका काढ़ा तथा रूक्ष स्वेद व बस्तिगत वायुमें बस्तिशोधक विधि और त्वचा, मांसरक्त तथा शिराओं में प्राप्त वायुमें रक्तमोक्षण करना चाहिये । तथा यदि वायु स्नायु सन्धि व अस्थिमें प्राप्त हो, तो स्नेहन, रूक्ष नस्य मन्यास्तम्भको दूर करता है ॥ १७ ॥ उपवाहन, अभिकर्म, बन्धन, व मर्दन करने चाहियें । त्वग्गतवायुमें स्वेद, अभ्यंग, अवगाह तथा हृदयके लिये हितकर अन्न सेवन करना चाहिये । रक्तगत वायुमें शीतल लेप बिरेवन तथा रक्तमोक्षण हितकर है। तथा मांसभेदः स्थित वायुमें निरूहणबस्ति तथा शमनप्रयोग और अस्थि व मज्जागत वायुमें जिह्वास्तम्भचिकित्सा । वाताद्वाधमनीदुष्टी स्नेह गण्डूषधारणम् ॥ १८ ॥ वायुसेवा वाहिनी शिराओंके दूषित होनेपर स्नेहका गण्डूषधारण करना चाहिये ॥ १८ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) चक्रदत्तः। [वातन्याध्य - कल्याणको लेहः। | (१) दशमूल, खरेटी, उड़दका क्वाथ, तैल व घी मिलाकर सायंकाल भोजन करनेके अनन्तर पीनेसे विश्वाची तथा सहरिद्रा वचा कुष्ठं पिप्पली विश्वभेषजम् । अपबाहुक रोग नष्ट होता है । तथा (२) खरेटीका रस मजाजी चाजमोदा च यष्टीमधुकसैन्धवम् ॥१९॥ व (३) नीमका रस (४) अथवा कौंचका रस जो पीता एतानि समभागानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । है तथा (५) मांसरससे नस्य लेता है, उसके विश्वाची तच्चूर्ण सर्पिषालोड्य प्रत्यहं भक्षयेन्नरः ॥ २० ॥ व अपबाहुक रोग नष्ट होते हैं ॥ २५ ॥ २६ ॥ एकविंशतिरात्रेण भवेच्छ्रतिधरो नरः। । पक्षाघातचिकित्सा। मेघदुन्दुभिनिर्घोषो मत्तकोकिलनिःस्वनः ।। २१ ।। माषात्मगुप्तकैरण्डवाटयालकशृतं पिबेत् । जडगद्गदमूकत्वं लेहः कल्याणको जयेत् । । हिगुसैन्धवसंयुक्तं पक्षाघातनिवारणम् ॥ २७ ॥ हरिद्रा, वच, कूठ, छोटी पीपल, सौंठ, जीरा, अजवाइन, बाहुशोषे पिबेत्सर्पिभुक्त्वा कल्याणकं महत् । मोरेठी, सेंधानमक सबका महीन चूर्णकर घोके साथ प्रतिदिन हृदि प्रकुपिते वाते चांशुमत्याः पयो हितम्॥२८॥ चाटना चाहिये । इक्कीस रात्रतक इसके प्रयोग करनेसे मनुष्य | उड़द, कौंचके बीज, एरण्डकी छाल तथा खरेटीका श्रुतिधर (एकवार मुनकर सदा याद रखनेवाला ), मेघ तथा " काथ भुनी: हींग व सेंधानमक मिलाकर पीनेसे पक्षाघातरोग दुंदुभीके समान गरजनेवाला तथा मत्त कोकिलके समान स्वर नष्ट होता है। बाहुशोषमें भोजनके अनन्तर महाकल्याणकघृतका वाला होता है । जड़ता, गद्गदकण्ठ तथा मूकताको यह "कल्या सेवन करना चाहिये। तथा हृदयमें वायुके कुपित होनेपर णक" लेह नष्ट करता है ॥ १९-२१॥ ( अपतन्त्रकवातमें ) शालिपींसे सिद्ध किया दूध पीना त्रिकस्कन्धादिगतवायुचिकित्सा । चाहिये ॥२७॥२८॥ हरीतक्यादिचूर्णम् । रूक्षं त्रिकस्कन्धगतं वायुं मन्यागतं तथा । वमनं हन्ति नस्यं च कुशलेन प्रयोजितम् ॥२२॥ हरीतकी वचा रास्ना सैन्धवं चाम्लवेतसम् । त्रिक, स्कन्ध तथा मन्यागतवायुको कुशल पुरुषद्वारा प्रयुक्त घृतमात्रासमायुक्तमपतन्त्रकनाशनम् ॥ २९॥ . सूक्ष वमन तथा नस्य शान्त करता है ॥ २२ ॥ बड़ी हर्रका छिल्का, वच, रासन, सेंधा नमक तथा अम्ल |वेतका चूर्ण घीमें मिलाकर चाटनेसे अपतन्त्रक रोग नष्ट होता माष लादिवायनस्यम् । माषबलाशूकशिम्बीकत्तृणगस्नाश्वगन्धोरुबूकाणाम् । स्वल्परसोनपिण्डः। काथो नस्यनिपीतो रासठलवणान्वितः कोष्णः।।२३ पलमधे पलं चैव रसोनस्य सुकुट्टितम् । अषहरति पक्षवातं मन्यास्तंभं सकर्णनादरुजम् । । हिंगुजीरकसिन्धूत्थैः सौवर्चलकटुत्रयैः ॥ ३०॥ दर्जयमर्दितवातं सप्ताहाज्जयति चावश्यम् ॥२४॥ चूर्णितैर्माणकोन्मानैरवचूर्ण्य विलोडितम् ।। उड़द, खरेटी, कौंचके बीज, रोहिष घास, रासन, यथाग्नि भक्षितं प्राता रुबूक्काथानुपानतः ॥ ३१ ॥ असगन्ध तथा एरण्डकी छालका क्वाथ, भूनी हींग व दिने दिने प्रयोक्तव्यं मासमेकं निरन्तरम् । नमक मिलाकर कुछ गरम गरम नासिका द्वारा पीनेसे ( नस्य वातरोगं निहन्त्याशु अर्दितं सापतन्त्रकम् ॥ ३२॥ लेनेसे) अवश्यमेव पक्षाघात, मन्यास्तम्भ, कानका दर्द तथा| सनसनाहट व कठिन अर्दितरोग ७ दिनमें नष्ट होजाता। एकाङ्गरोगिणे चैव तथा सर्वाङ्गरोगिणे । है ॥ २३ ॥ २४ ॥ ऊरुस्तम्भे च गध्रस्यां क्रिमिकोष्ठे विशेषतः ॥३३॥ विश्वाचीचिकित्सा। कटीपृष्ठामयं हन्यादुदरं च विशेषतः। दशमूलीबलामाषक्काथं तैलाज्यमिश्रितम् । साफ कुटा हुआ लहसुन ६ तोला, भुनी हींग, जीरा, सेंधानमक, काला नमक, सोंठ, मिर्च, पीपल प्रत्येक १ माशे सायं भुक्त्वा पिबेन्नक्तं विश्वाच्यामपबाहुके ॥२५॥ चूर्णकर अपनी अग्नि तथा बलके अनुसार सेवन करने तथा रसं बलायास्त्वथ पारिभद्रा ऊपरसे एरण्डकी छालका क्वाथ पीनेसे १ मासमें वातरोग, __ त्तथात्मगुप्तास्वरसं पिबेद्वा । अर्दित, अपतन्त्रक, पक्षाघात, सर्वाङ्गग्रह, ऊरुस्तम्भ, गृध्रसी, नस्यं तु यो मांसरसेन दद्या क्रिमिकाष्ठ, कमर, पीठके रोग तथा उदर रोगोंको नष्ट करता न्मासादसी वज्रसमानबाहुः॥२६॥ है ॥ ३०-३३ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकार] भाषाटीकोपतः। (१०९) - विविधा योगाः। वार्ताकं गृध्रसीखिन्नः पूर्वामाप्नोत्यसो गतिम् ॥ ४५ हन्ति प्राग्भोजनात्पीतं दध्यम्लं सवचोषणम् ॥३४॥| पिष्ट्वैरण्डफलं क्षीरे सविश्वं वा फलं रुबोः। अपतानकमन्योऽपि वातव्याधिक्रमो हितः । पायसो भक्षितः सिद्धो गृध्रसीकटिशूलनुत् ॥४६॥ वातन्त्रैर्दशमल्या च नरं कुब्जमपाचरेत ॥ ३५॥ दशमूल, खरेटी, रासन, गुर्च, सोंठेका चूर्ण एरण्डतैलके स्नेहासरसैर्वापि प्रवृद्धं तं विवर्जयेत् । साथ गृध्रसी, खज तथा पंगुतामें पीना चाहिये । अथवा सम्मापिप्पल्यादिरजस्तूनीप्रतितून्योः सुखाम्बुना ॥३६॥ लकी पत्तीका काथ मन्द आंचपर पकाकर पीना चाहिये । इससे पिबेद्वा स्नेहलवणं सघृतं क्षारहिंगु वा। | शीघ्रही गृध्रसीरोग नष्ट होता है । अथवा पञ्चमूलका काथ, एरण्डतैलके साथ अथवा निसोथ व घीके साथ अथवा केवल आध्माने लंघनं पाणितापश्च फलवर्तयः ॥ ३७ ॥ निसोथके साथ पीना चाहिये । इससे गृध्रसी, गुल्म, व शूल दीपनं पाचनं चैव बस्तिश्चाप्यत्र शोधनः । नष्ट होता है। इसी प्रकार तैल अथवा घी अदरख व विजौरे प्रत्याध्माने तु वमनं लंघनं दीपनं तथा ।। ३८ ॥ निम्बूके रस तथा चूकाके साथ अथवा गुड़के साथ पीनेसे कमर, प्रत्यष्ठीलाष्ठीलिकयोरन्तर्विद्रधिगुल्मवत् । | ऊरू, पाठ, त्रिक तथा गुल्मका शूल, गृध्रसी व उदावर्त रोग वच व कालीमिर्चके चूर्णके साथ खद्य दही भोजनके पहिले नष्ट होते हैं । अथवा एरण्डका तैल गोमूत्रके साथ एक मासतक पीनेसे अपतन्त्रक नष्ट होता है तथा दूसरा भी वातव्याधिक्रम | पीनेसे गृध्रसी तथा ऊरुस्तम्भ रोग नष्ट होता है । छोटी पीपसेवन करना चाहिये । कुब्ज पुरुषको वातनाशक स्नेह व मांस लका चूर्ण गोमूत्र व एरण्डतैलके साथ पीनेसे कफवातज पुरानी रस तथा दशमूलका सेवन कराकर अच्छा करना चाहिये । तथा गृध्रसी नष्ट होती है । जो मनुष्य एरण्डतैलमें भूने बैंगन प्रतिपुराने व बढे हुए कुब्जत्वकी चिकित्सा न करनी चाहिये ।। | देन खाता है । उसका गृध्रसी रोग नष्ट होता तथा तूनी तथा प्रतितूनीमें कुछ गरम जलके साथ पिप्पल्यादिगणका | पूर्वक समान शरार हाता है । एरण्ड़क कवल बाज अथवा सोठ चूर्ण पीना चाहिये । अथवा स्नेहलवण अथवा घीके साथ | सहित पीस दूधमें मिलाकर खीर बना खानसे गृध्रसी तथा भुनी हींग व लवण खाना चाहिये । पेटमें अफारा होनेपर | कमरका दर्द नष्ट होता है ॥ ३९-४६ ॥ •लंघन कराना, हाथ गरम कर पेटपर फिराना तथा फलवर्ति रास्त्रागुग्गुलुः । (जिससे दस्त साफ हो) धारण कराना चाहिये । दीपन, पाचन औषधियोंका तथा शोधनबास्तका भी प्रयोग करना रास्त्रायास्तु पलं चैकं कर्षान्पञ्च च गुग्गुलोः । चाहिये । प्रत्याध्मानमें वमन, लंघन तथा दीपन औषध सेवन सर्पिषी वटिकां कृत्वा खादेद्वा गृध्रसीहराम् ॥४७॥ करना चाहिये । प्रत्यष्ठीला तथा अष्ठीलिकामें अन्तर्विदधि व रासन ४ तोला, गुग्गुलु २० तोला दोनों एकमें मिला घीके गुल्मके समान चिकित्सा करनी चाहिये ॥३४-३८॥ साथ गोली बनाकर खानेसे गृध्रसी रोग नष्ट होता है ॥४७॥ गृध्रसीचिकित्सा । दशमूलीबलारास्नागुडूचीविश्वभेषजम् ॥ ३९ ॥ गृध्रस्या विशेषचिकित्सा। पिबेदेरण्डतेलेन गृध्रसीखजपंगुषु । गृध्रस्यात नरं सम्यक्पाचनायैर्विशोधितम् । शेफालिकादलैः काथो मृद्वग्निपरिसाधितः ॥ ४०॥ ज्ञात्वा नरं प्रदीप्ताग्निं बस्तिभिः समुपाचरेत् ॥४८॥ दुर्वारं गृध्रसीरोगं पीतमात्रं समुद्धरेत् । नादौ बस्तिविधिं कुर्याद्यावदूर्ध्व न शुध्यति । पञ्चमूलकषायं तु रुबूतैलं त्रिवृद्धृतम् । स्नेहो निरर्थकस्तस्य भस्मन्येवाहुतियथा ॥ ४९ ॥ त्रिवृतैवाथवा युक्तं गृध्रसीगुल्मशूलनुत् ।। ४१॥ गृध्रास्यार्तस्य जंघायाः स्नेहस्वेदे कृते भृशम् । तैलं घृतं वाकमातुलङ्गयो रसं सचुकं सगुडं पिबेद्वा।। पद्भयां निर्मर्दितायाश्च सूक्ष्ममार्गेण गृध्रसीम् ॥५०॥ कटथूरुपृष्ठत्रिकगुल्मशूलगृध्रस्युदावतहरः प्रदिष्टः४२] अवतार्याङ्गुलो सम्यक्कनिष्ठायां शनैः शनैः। तैलमेरण्डजं वापि गोमूत्रेण पिबेन्नरः । ज्ञात्वा समुन्नतं प्रथिं कण्डरायां व्यवस्थितम् ॥५१॥ मासमेकं प्रयोगोऽयं गृध्रस्यूरुग्रहापहः ॥ ४३॥ । तं शस्त्रेण विदार्याशु प्रवालाकुरसन्निभम् । गोमूत्ररण्डतैलाभ्यां कृष्णा पीता सुचूर्णिता। | समुद्धृत्यानिना दग्ध्वा लिम्पेद्यष्टयावचन्दनैः ॥५२ दीर्घकालोत्थितां हन्ति गृध्रसी कफवातजाम् ॥४४॥ विध्योच्छिरामिंद्रबस्तेरधस्ताच्चतुरङ्गुले । अनाति यो नरो नित्यमेरण्डतैलसाधितम् ! | यदि नोपशमं गच्छेहहेत्पादकनिष्ठिकाम् ॥५३॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) चक्रदत्तः। [वातव्याध्य गृध्रसीसे पीड़ित पुरुषको पहिले पाचनादिसे शुद्ध कर अग्नि पादहर्षचिकित्सा। दीप्त हो जानेपर बस्ति देना चाहिये । जबतक ऊर्ध्वभाग शुद्ध न अग्नितप्तेष्टिकाखण्डं काजिकैः परिषिच्य तु । हो जाय, तबतक बस्ति न देना चाहिये। क्योंकि विना शुद्धि स्नेह तद्वाष्पस्वेदनं कार्य पादहर्षविनाशनम् ॥ ५९॥ भस्ममें आहुतिके समान व्यर्थ होता है । तथा जंघामें स्नेहन व | अग्निमें तपाये गये ईंटके टुकड़ेको काजीमें बुझाने पर जो स्वेदन खूब करनेके अनन्तर पैरोंसे दबवाना चाहिये, फिर ऊपरसे बाप्प उठता है, उससे स्वेदन करनेसे पादहर्ष शान्त दवा दबाकर गृध्रसीकी गांठको धीरे धीरे कनिष्ठिका अगुलीमें होता है ॥ ५९॥ लाकर जब यह विदित हो जाय कि गांठ नसमें आकर ऊंची उठ गयी है, तब उसे शस्त्रसे काटकर निकाल देना चाहिये । झिञ्झिनिवातचिकित्सा। वह मूंगेके अंकुरके सदृश निकलेगी, उसे निकालकर उस स्थानको | दशमूलस्य नि!हो हिंगुपुष्करसंयुतः । अग्निसे जलाकर मोरेठी व चन्दनका लेप करना चाहिये । अथवा शमयेत परिपीतस्त वातं झिम्झिनिसंज्ञितम् ॥६॥ इन्द्रबस्तिके ४ अंगुल नीचे शिराव्यध करना चाहिये। और यदि दशमूलका क्वाथ भुनी हींग व पोहकरमूलका चूर्ण मिलाकर न शान्त हो तो परका कानष्ठा अगुलाका जलापीनेसे शिञ्झिनी वात नष्ट होता है ॥६॥ देना चाहिये ॥४८-५३ ॥ क्रोष्ठकशीर्षवातकण्टकखल्लीचिकित्सा । वंक्षणशूलादिनाशकाः योगाः। गुग्गुलु क्रोष्टशीर्षे तु गुडूचीत्रिफलाम्भसा । तगरस्य शिफामाद्री पिष्टवा तक्रेण यः पिबेत् । क्षीरेणैरण्डतैलं वा पिबेद्वा वृद्धदारकम् ॥ ६१ ॥ वझणानिलरोगातः स क्षणादेव मुच्यते ॥५४॥ रक्तावसेचनं कुर्यादभीक्ष्णं वातकण्टके । दशमूलीकषायेण पिबेद्वा नागराम्भसा । पिबेदेरण्डतैलं वा दहेत्सूचिभिरेव वा ।। ६२ ।। कटिशूलेषु सर्वेषु तैलमेरण्डसम्भवम् ॥ ५५॥ खल्लयां स्निग्धाम्ललवणैः स्वेदनमर्दोपनाहनम् । वंक्षण सन्धिमें जिसके शूल हो, उसे तगरकी जड़ पीसकर मटठेके साथ पीना चाहिये। तथा दामलके काढके साथ अशा गुर्च व त्रिफलाके काढेके साथ गुग्गुलु अथवा दूधके साथ सोंठके काढ़ेके साथ समस्त कटिशूलोंमें एरण्ड तैल पिलाना एरण्डतैल अथवा विधारेका चूर्ण पीना चाहिये। वातकण्टक रोगमें, चाहिये ॥५४ ॥ ५५ ॥ बार बार रक्तमोक्षण (फस्त खुलाना ) कराना चाहिये । अथवा एरण्डतैल पीना चाहिये । अथवा सुईसे जला देना चाहिये । शिराव्यधः। खल्लीरोगमें चिकने खट्टे व नमकीन पदार्थोंसे स्वेदन, मर्दन व विश्वाच्यां खञ्जपङ्ग्वोश्च दाहे हर्षे च पादयोः। | उपनाहन करना चाहिये ॥ ६१ ॥ ६२॥क्रोष्टुशीर्षविकारे च विकारे वातकण्टके ॥५६॥ आदित्यपाकगुग्गुलुः। शिरां यथोक्तां निर्विध्य चिकित्सा वातरोगनुत् । पृथक्पलांशा त्रिफला पिप्पली चेति चूर्णितम्॥६२॥ विश्वाची, खजवात, पङ्गुता, पादहर्ष तथा पाददाह व कोष्टकशीर्ष व वातकण्टक रोगमें जो शिरा उचित हो, उसका दशमूलाम्बुना भाव्यं त्वगेलार्धपलान्वितम् । व्यध कर वातरोगनाशक चिकित्सा करनी चाहिये ॥५६ ॥ दत्त्वा पलानि पञ्चैव गुग्गुलोवेटकीकृतः ।। ६४ ॥ एष मांसरसाभ्यासाद्वातरोगान्विशेषतः। पाददाहचिकित्सा। हन्ति सन्ध्यस्थिमज्जस्थान्वृक्षभिन्द्राशनिर्यथा॥६५॥ शिराव्यधः पाददाहे वाते कण्टकवत् क्रिया ॥५७॥ त्रिफला, छोटी पीपल प्रत्येक ४ तोला, दालचीनी, इलायची शतधौतघृतोन्मित्रैर्नागकेशरकण्टकैः। प्रत्येक २ तोला मिला चूर्णकर २० तोला गुग्गुल मिलाकर दशमूलके काढ़ेसे सात भावना देनी चाहियें, फिर गोली बना पिष्टैः प्रलेपः सेकश्च दशमूल्यम्बुनेष्यते ॥ ५८॥ लेनी चाहिये । यह मांसरसके साथ खानेसे सन्धि, अस्थि आलिप्य नवनीतेन स्वेदो हस्तादिदाहहा। तथा मज्जागत वातरोगोंको वृक्षको इन्द्रवज्रके समान नष्ट पाद दाहमें शिराव्यध करना चाहिये तथा वातकण्टक रोगके | करता है ॥६३-६५॥ समान चिकित्सा करनी चाहिये । नागकेशरके काण्टोंको महीन पीस सौ वार धोये हुए घीमें मिलाकर लेप करने तथा दशमूल भावनाविधिः। काथका सिञ्चन करनेसे पाद दाह शान्त होता है । मक्खनसे लेप भाव्यद्रव्यसमं काथ्यं काथोऽष्टांशस्तु तेन च । कर स्वेदन करनेसे हस्तादि दाह नष्ट होता है ॥ ५७-५८॥ । आर्द्र यावद्दिनं भाव्यं सप्ताहं भावनाविधिः ॥६६॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] मापाटीकोपतः। तावरीमीयमाना ।। ६ जितने द्रष्यको भावना देनी हो, उतने ही क्वाथ्य द्रव्य मिश्रित वायुमें प्रथम बढे हुए दोषको जीतकर वातहर(जिसका काढ़ा बनाया जाय) लेना चाहिये और उसका चिकित्सा करनी चाहिये । अन्नसे आवृत वायुमें अर्थात् आमाअष्टमांश क्वाथ रखकर उतार छान भिगोना चाहिये, ऐसा शयमें बढ़े वायुमें पहिले वमनद्वारा शुद्ध कर दीपन, पाचन तथा कि जिससे दिनभर गीला रहे । सात दिनतक भावना | लघु (हलके) औषधका सेवन करना चाहिये । स्पर्शज्ञान न देनी चाहिये ॥६६॥ होनेपर बार बार फस्त खुलाना तथा तैलमें मिलाये हुए नमक तथा गृह धूमका लेप करना चाहिये ॥७२॥७३॥ आभादिगुग्गुलुः। आहा (भा) श्वगन्धाहपुषागुडूची आहारविहाराः। __ शतावरीगोक्षुरवृद्धदारकम् । सर्पिस्तैलवसामजपानाभ्यञ्जनबस्तयः॥ रास्नाशताबासशठीयमानी स्वेदाः स्निग्धा निवातं च स्थान प्रावरणानि च ॥ - सनागरा चेति समैश्च चूर्णम् ॥ ६७ ॥ तुल्यं भवेत्कौशिकमत्र मध्ये रसाः पयांसि भोज्यानि स्वाद्वम्ललवणानि च । देयं तथा सर्पिरतोऽर्धभागम् । बृंहणं यत्तु तत्सर्व प्रशस्तं वातरोगिणाम् ।। ७५ ।। अर्धाक्षमात्रं त्वथ तत्प्रयोगात् पटोलपालकैर्युषो वृष्यो वातहरो लघुः। कृत्वाऽनुपानं सुरयाथ यूपैः ॥ ६८॥ वाट्यालककृतो यूषः परं वातविनाशनः ।। ७६ ॥ मद्येन वा कोष्णजलेन वाथ बलायाः पञ्चमूलस्य दशमूलस्य वा रसे। क्षीरेण वा मांसरसेन वापि । अजाशीर्षाम्बुजानूपक्रव्यादपिशितैः पृथक् ।। ७७ ॥ कटिग्रहे गृध्रसिबाहुपृष्ठे साधयित्वा रसान्निग्धान्दध्यम्लव्योषसंस्कृतान् । हनुग्रहे जानुनि पादयुग्मे ॥ ६९॥ भोजयेद्वातरोगात तैर्व्यक्तलवणेनरम् ॥ ७८॥ सन्धिस्थिते चास्थिगते च वाते पञ्चमूलीबलासिद्धं क्षीरं वातामये हितम् । मज्जागते स्नायुगते च कोष्ठे । घी, तैल, वसा, मजाका पीना तथा मालिश करना व रोगाजयेद्वातकफानुविद्धान् बस्ति देना, स्निग्ध स्वेदन, वातरहित स्थान,गरम ओढ़ना, मांसवातेरितान् हृद्ग्रहयोनिदोषान् ।। ७०॥ | रस, दूध तथा उससे बनाये पदार्थ, मीठे, खट्टे, नमकीन भग्नास्थिविद्वेषु च खजवाते पदार्थ तथा जो शरीरको बढ़ाते हैं वे सब वातरोगको नष्ट करते त्रयोदशाङ्गं प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥७१ ॥ हैं । तथा परवल व पालकका यूष वाजीकर, लघु तथा वात नाशक होता है । खरेटीका यूष वातनाशक द्रव्योंमें श्रेष्ठ है। आहा अथवा आमा ( बबूलकी छाल अथवा लशुन ), (यहांपर कुछ आचार्योंका मत है कि यूष होनेसे युषप्रधान असगन्ध, हाऊबेर, गुचे, शतावरी, गोखुरू, अजवाइन, विधारा, मदादिभी छोडना चाहिये, कुछका मत है कि नहीं । पर यदि रासन, सोंफ, कचूर, साठ सब समान भाग ले कूट, छान चूर्ण छोडी ही जाय तो उडद छोडना चाहिये ) तथा खरेंटी, कर सबके समान शुद्ध गुग्गुलु तथा गुग्गुलुसे आधा घी मिलाना |पञ्चमूल तथा दशमूलके काथमें बकरेकी मंडी अथवा जलीय चाहिये। इसकी ६ माशा मात्रा शराब अथवा यूष अथवा प्राणी अथवा आनूपदेशके प्राणी तथा मांसभक्षक प्राणियोंका मच अथवा कुछ गरम जल अथवा दूध अथवा मांसरसके साथ मांस पकाकर रस छान स्नेह तथा दही व त्रिकट मिलाना सेवन करनेसे सन्धि, अस्थि, मज्जा, स्नायु तथा कोष्ठगत वात, चाहिये तथा इन्हीं में नमक मिलाकर भोजनके साथ खाना तथा कफवातके अन्यरोग, हृद्रोग, योनिदोष, भन, अस्थिविद्ध, चाहिये । इससे वातरोग नष्ट होते हैं। तथा पञ्चमल व खरेंटीसे खजवात आदि नष्ट होते हैं । इसे " त्रयोदशाज गुग्गुलु "सिद्ध दूध वातरोगको नष्ट करता है ॥७४-७८॥ कहते हैं॥६७-७१॥ मिश्रितवातचिकित्साः। वातनाशकगणः। जित्वा वरकममे तु वाते वातहरं हितम् । वाजिगन्धा बलास्तिस्रो दशमूली महौषधम् । अन्नावृते तदुल्लेखो दीपनं पाचनं लघु ॥७२॥ | द्वे गृध्रनख्यौ रास्ना च गणो मारुतनाशनः ॥७९॥ सुप्तिवाते त्वसृङ्मोक्षं कारयेद्बहुशो भिषक् । । असगन्ध, तीनों बला (खरेटी, कंघी, गंगरने ) दशमूल, दियाच लवणागारधूमस्तैलविमर्दितः॥७३॥ । सोंठ, नखनखी, रासन यह गण वायुको नष्ट करता है ॥ ७९ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) [ वातव्याध्य कोलादिप्रदेहः। मांस तथा जितमेसे खट्टा हो जावे, उतना काजी आदि खट्टा द्रव्य छोड़ना चाहिये । तथा इसको बांधकर ऊपरसे पट्टी बांधनी कोलं कुलत्थं सुरदारुराना चाहिये । स्नेह चारों मिलाकर इतने ही छोड़ने चाहिये जिससे माषा उमातेलफलानि कुष्ठम् । अच्छी तरह पक जावे । इसमें समस्त अथवा आधे अथवा वचाशताह्वे यवचूर्णमम्ल यथालाभ द्रव्य मिलाने चाहिये । यही नियम सब गणोंमें मुष्णानि वातामयिनां प्रदेहः ।। ८०॥ | समझना चाहिये ॥ ८२-८६ ॥आनूपवेशवारोष्णप्रदेहो वातनाशनः । अश्वगन्धाघृतम् । बेर, कुलथी, देवदारु, रासन, उड़द, अलसी तथा तिल| आदि तैलद्रव्य, कूठ, वच, सौंफ, सोवा, यवचूर्ण, कांजी सबको अश्वगन्धाकषाये च कल्के क्षीरचतुर्गुणम् ॥ ८७ ॥ गरम कर वातरोगवालोंके लेप करना चाहिये । अथवा आनूप- घृतं पक्कं तु वातघ्नं वृष्यं मांसविवर्धनम् । मांसके वेशवारका गरम गरम लेप करना चाहिये ॥८॥ | असगन्धके काढ़े तथा कल्कमें चतुर्गुण दूधके साथ सिद्ध वेशवारः। हुआ घृत वातनाशक, वाजीकर तथा मांसवर्द्धक होता है॥८॥निरस्थि पिशितं पिष्टं स्विन्नं गुडघृतान्वितम्।।८१॥ दशमूलघृतम् । कृष्णामरिचसंयुक्तं वेशवार इति स्मृतम् । हडी रहित मांसको पीस पकाकर गुड़, घी, मिर्च, व पीपल | | दशमूलस्य नियुहे जीवनीयैः पलोन्मितः ॥ ८८॥ मिलानेसे "वेशवार" बनता है ॥ ८१ ॥ क्षीरेण च घृतं पकं तर्पणं पवनातिनुत् । २ प्रस्थ घी, २ प्रस्थ दूध, ६ प्रस्थ दशगूलका क्वाथ शाल्वणभेदः। तथा जीवनीय गणकी औषधियां प्रत्येक ४ तोला छोडकाकोल्यादिः स वातनः सर्वाम्लद्रव्यसंयुतः।।८२॥ कर सिद्ध किया घृत तृप्तिकारक तथा वातनाशक होता सानूपमांसः सुस्विन्नः सर्वस्नेहसमन्वितः। है ॥ ८८ ८९॥ सुखोष्णः स्पष्टलवणः शाल्वणः परिकीर्तितः ॥८३॥ आजघृतम् । तेनोपनाहं कुर्वीत सर्वदा वातरोगिणाम् । आज चर्मविनिर्मुक्तं त्यक्तशृङ्गखुरादिकम् । वातन्नो भद्रदादिः काकोल्यादिस्तु सौश्रुतः ८४ | पञ्चमूलीद्वयं चैव जलद्रोणे विपाचयेत् ।। ९० ॥ मांसेनात्रीषधं तुल्यं यावताम्लेन चाम्लता। तेन पादावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत् । पढ्वी स्यात्स्वेदनार्थ च कालिकाद्यम्लमिष्यते॥८५ जीवनीयैः सयष्टयाहैः क्षीरं चैव शतावरीम् ॥ ९१ चतुःस्नेहोऽत्र तावान्स्यात्सुस्विन्नत्वं यतो भवेत् । छागलाद्यमिदं नाम्ना सर्ववातविकारनुत् । समस्तं वर्गमध वा यथालाभमथापि वा ॥८६॥ अर्दिते कर्णशूले च बाधिर्ये मूकमिन्मिने ॥ ९२॥ प्रयुजीतेति वचनं सर्वत्र गणकर्मणि। जडग गदपंगूनां खन्ने गृध्रसिकुब्जयोः । काकोल्यादिगण, वातन भद्रदादिगण तथा अम्लद्रव्य, अपतानेऽपतन्त्रे च सर्पिरेतत्प्रशस्यते ॥ १३ ॥ काजी, आनूपमांस चारों स्नेहोंमें सेंक कुछ नमक मिलाकर गरम गरम उपनाहन (पुल्टिस) करना चाहिये । इसमें वातघ्न गण द्रोणे द्रव्यतुलाश्रुत्या स्याच्छागदशमूलयोः । देवदादिगण, काकोल्यादिगण, सुश्रुतोक्त इनके चूर्णके समान | पृथक तुलाधै यष्टथाह्वद्वयं देयं द्विधोक्तितः ।।९४॥ चर्म, सींग, तथा खुर आदिसे रहित बकरेका मांस २॥ सेर १ काकोल्यादिगण, तथा वातन्न भद्रदादिगण यहां सुश्रु- तथा दशमूल मिलित २॥ सेर २५ सेर ४८ तो० जलमें तोक्त लेना चाहिये । उनके पाठ इस प्रकार हैं। " काकोल्यौ | पकाना चाहिये, चतुर्थांश रहनेपर उतार छानकर १ प्रस्थ घी मधुकामेदे जीवकर्षभको सहे । ऋद्धिद्धिस्तुगाक्षारी पुण्डरीकं | तथा जीवनीय गणकी औषथियां व मौरेठी व शतावरका सपद्मकम् ॥ जीवन्ती सामृता शृङ्गी मृद्वीका चेति कुत्रचित् । कल्क तथा घीके बराबर दूध मिलाकर पकाना चाहिये । यह काकोल्यादिरयं पित्तशोणितानिलनाशनः ॥” इति काकोल्यादिः । “ छागलादि घृत " समस्त वातरोग यथा-अर्दित, कर्णशूल, " भद्दारु निशे भाी वरुणो मेषङ्गिका। जटाझिण्टी चार्तगलो बाधिर्य, मूकता, मिन्मिनापन, जड़ता, गद्गदवाणी तथा पंगुता, वरा गोक्षुरतण्डुलाः ॥ अर्को श्चदंष्ट्रा गणिका धत्तूरश्वाश्मभेदकः । खञ्ज, गृध्रसी, कुब्जता, अपतानक व अपतन्त्रकको नष्ट करता वरी स्थिरा पाटला रुग्वर्षाभूर्वसुको यवः ॥ भददादिरित्येष है। १ द्रोण जलमें १ तुला क्वाथ्य छोड़ना चाहिये, अतएव गणो वातविकारनुत् ॥" | मांस व दशमूल दोनों आधा तुला पृथक् पृथक मिलानेसे १ तुला Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - --- विकारः] मापाजकापतः। न्हुआ । मौरेठी दोनों छोड़ना चाहिये । क्योंकि दो मौरेठीको प्रक्षिप्य कलशे सम्यक्सुनिगुप्त निधापयेत् ॥१०२।। जातियां हैं ॥९०-९४ ॥ बलतिलमिदं नाम्रा सर्ववातविकारनुत् । एलादितैलम् । यथाबलमितो मात्रां सूतिकार्य प्रदापयेत् ॥ १०३॥ या च गर्भार्थिनी नारी क्षीणशुक्रश्च यः पुमान् । एलामुरासरलशैलजदारुकोन्ती क्षीणवाते मर्महतेऽभिहते मथितेऽथवा ॥१०४॥ चण्डाशटीनलदचम्पकहेमपुष्पम् । भने श्रमाभिपन्ने च सर्वथैवोपयोजयेत् । स्थोणेयगन्धरसपूतिदलामृणाल सर्वानाक्षेपकादींश्च वातव्याधीव्यपोहति ।।१०५॥ श्रीवासकुन्दुरुनखाम्बुवराङ्गकुष्ठम् ॥ ९५ ॥ हिक्काकासमधीमन्थं गुल्मश्वासं सुदुस्तरम् । कालीयकं जलदकर्कटचन्दनश्री षण्माषानुपयुज्यैतदन्त्रवृद्धिमपोहति ॥ १०६॥ र्जात्याः फलं सविकसं सहकुंकुम च । प्रत्यप्रधातुः पुरुषो भवेच्च स्थिरयौवनः । स्पृकातुरुष्कलघु लाभतया विनीय एतद्धि राज्ञा कर्तव्यं राजमात्राश्च ये नराः॥१०७॥ तैलं बलाक्कथनदुग्धयुतं च दशा ॥९६ ॥ सुखिनः सुकुमाराश्च बलिनश्चापि ये नराः। सार्ध पचेत्तु हितमेतदुदाहरन्ति वातामयेषु बलवर्णवपुःप्रकारि ॥ खरेटीकी जड़का क्वाथ, दशमूलका काथ, यव; बेर, कुलथीका क्वाथ तथा दूध प्रत्येक ८ भाग, तिलछोटी इलायची, मुरामांसी, सरल ( देवदारुविशेष ) भूरि तैल १ भाग तथा जीवकादि मधुर गणकी औषधियाँ व सेंधाछरीला, देवदारु, सम्भालूके बीज, चोरक, कधूर, जटामांसी, नमक, अगर, राल, सरल, देवदारु, मीठ, चन्दन, कूठ, चम्पा, नागकेशर, थुनेर बोल, खट्टाशी, तेजपात, कमलकी इलायची, काली शारिवा, जटामांसी, छरीला, तेजपात, तगर, डण्डी, गन्धाविरोजा, तापनि, नख, सुगन्धवाला, दालचीनी, शारिवा, वच, शतावरी, असगन्ध, सौंफ, पुनर्नवाकी जड़ कूठ, तगर, नागरमोथा, काकड़ाशिंगी, सफेद चन्दन, जायफल, | सबका कल्क, तैलसे चतुर्थांश मिलाकर सिद्ध किया तैल सोने, मजीठ, केशर, चतुर्गुण खरेटीका काथ तथा उतना दूध व | चांदी अथवा मिट्टीके बर्तनमें रखकर समयपर प्रयोग करना उतना ही दही मिलाकर पकाना चाहिये । यह तैल वातरोगोंको चाहिये । यह वातरोगोंको नट करनेवाला "बलातैल" है। इसकी नष्ट करता तथा बल, वर्ण व शरीरको उत्तम बनाता मात्रा बलके अनुसार सूतिका स्त्रीको देना चाहिये । जो स्त्री गर्भकी इच्छा करती है अथवा जो पुरुष क्षीण हो गया है तथा क्षीणतासे बढ़े हुए वायु तथा मर्माभिघात अथवा कहीं आभबलाशैरीयकतैले। घात या मथित हो, टूट गया हो अथवा थकावट हो इनमें बलानिष्काथकल्काभ्यां तैलं पक्कं पयोऽन्वितम् । इसका प्रयोग करना चाहिये । आक्षेपकादि समस्त बातरोगोंको सर्वबातविकारघ्रमेवं शैरीयपाचितम ॥९७॥ नष्ट करता तथा हिक्का, कास, अधिमन्थ, गुल्म, श्वासको नष्ट बलाके क्वाथ व कल्क अथवा कटसैलाके काथ व कल्कसे सिद्ध करता है । इसके ६ मासतक प्रयोग करनेसे अन्त्रवद्धि नष्ट तेल समस्त वातरोगोंको नष्ट करता है । इसमें तैलके समान दूध | होती है, नवीन धातु बनते हैं, यौवन स्थिर होता है । यह भी छोड़ना चाहिये ॥९॥ राजाओं, धनिकों, सुखी पुरुषों, सुकुमार तथा बलवानोंके लिये बनाना चाहिये ॥९८-१०७॥ - महावलातैलम् । बलामूलकषायस्य दशमूलीकृतस्य च । नारायणतैलम् । यवकोलकुत्थानां काथस्य पयसस्तथा ॥ ९८॥ बिल्वामिमन्थश्योनाकपाटलापारिभद्रकाः । अष्टावष्टी शुभा भागास्तैलादेकस्तदेकतः। प्रसारण्यश्वगन्धा च बहती कण्टकारिका ॥१०८।। पचेदावाप्य मधुरं गणं सैन्धवसंयुतम् ॥ ९९ ॥ बला चातिबला चैव श्वदंष्ट्रा सपुनर्नवा । तथागुरु सर्जरसं सरलं देवदारु च। एषां दशपलान्भागीश्चतुद्रोणेऽम्भसः पचेत्॥१०९॥ माजिष्ठां चन्दन कुष्ठमेलां कालानुशारिवाम् ॥१००/मांशी शैलेयकं पत्रं तगरं शारिवां वचाम् । । -इसके आगे नवीन पुस्तकोंमें विष्णुतैल नामक एक तैल शतावरीमश्वगन्धा शतपुष्पां पुनर्नवाम् ।। १०१॥ लिखा है । पर प्राचीन प्रातियोंमें न होनेके कारण उसे यहां न तत्साधु सिद्धं सौवर्णे राजते मृण्मयेऽपि वा। लिखकर प्रकरणके अन्तमें लिखा है ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चक्रदत्तः। [ वातव्याध्यमन्न्न्न्न्च्न पादशेष परिस्राव्य सैलपात्र प्रदापयेत् । अन्त्रवाद्ध है, उनके लिये यह उत्तम "नारायण" तैल लिखा है। शतपुष्पा देवदारु मांसी शैलेय वचा ॥११०॥ तगर न मिलनेपर शीतली जटा (शीतकुंभी नामक जलजवृक्ष) चन्दन तगरं कुष्ठमेला पर्णीचतुष्टयम् । छोड़नी चाहिये ॥१०८-११८ ॥रास्ना तुरगगन्धा च सैन्धवं सपुनर्नवम् ॥१११॥ महानारायणतैलम् । एषां द्विपलिकान्भागान्पेषयित्वा विनिक्षिपेत् ।। शतावरी चांशुमती पृश्निपर्णी शटी वरा । शतावरीरसं चैव तेलतुल्यं प्रदापयेत् ॥ ११२ ॥ एरण्डस्य च मूलानि बृहत्योः पूतिकस्य च॥११९॥ आज वा यदि वा गव्यं क्षीरं दत्त्वा चतुर्गुणम् । गवेधुकस्य मूलानि तथा सहचरस्य च । पाने बस्ती तथाभ्यङ्गे भोज्ये चैव प्रशस्यते ॥११३।। एषां दशपलान्भागाजलद्रोणे विपाचयेत् ॥१२०॥ पादावशेषे पूते च गर्भ चैनं समावपेत् । अधो वा वातसम्भनो गजो वा यदि वा नरः। पुनर्नवा वचा दारु शताह्वा चन्दनागरु।। १२१ ॥ पगुलः पीठसपी च तैलेनानेन सिध्यति ।।११४॥ शैलेयं तगरं कुष्ठमेला मांसी स्थिरा बला। अधोभागे च ये वाताः शिरोमध्यगताश्च ये।। अश्वाह्वा सैन्धवं रास्ना पलार्धानि च पेषयेत्॥१२२।। दन्तशुले हनुस्तम्भे मन्यास्तम्भे गलग्रहे ॥११५॥ गव्याजपयसोः प्रस्थी द्वौ द्वावत्र प्रदापयेत् । यस्य शुष्यति चैकाङ्गं गतिर्यस्य च विह्वला।। शतावरीरसप्रस्थं तेलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ १२३ ॥ क्षीणोन्द्रिया नष्टशुक्रा ज्वरक्षीणाश्च ये नराः ११६॥ अस्य तैलस्य सिद्धस्य शृणु वीर्यमतः परम् । बधिरा लल्लजिह्वाश्च मन्दमेधस एव च । अश्वानां वातभग्नानां कुञ्जराणां नृणां तथा॥२२४॥ अल्पप्रजाच या नारी या च गर्भ न विन्दति११७/ तेलमेतत्प्रयोक्तव्यं सर्ववातनिवारणम् । वातातौं वृषणी येषामन्त्रवृद्धिश्च दारुणा। आयुष्मांश्च नरः पीत्वा निश्चयेन दृढो भवेत् १२५ एतत्तैलवरं तेषां नाम्ना नारायणं स्मृतम् ।। ११८ ॥ गर्भमश्वतरी विन्देत्कि पुनर्मानुषी तथा । सगरं नतमत्र स्यादभावे शीतली जटा। हृच्छूलं पार्श्वशूलं च तथैवार्धावभेदकम् ॥ १२६ ॥ अपची गण्डमालां च वातरक्तं हनुग्रहम् । बेलकी छाल या गूदा, अरणी, सोनापाठा, पाढ़ल, नीम या| कामलां पाण्डुरोगं च ह्यश्मरी चापि नाशयेतू१२७ फरहद, गन्धप्रसारणी, असगन्ध, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, तैलमेतद्भगवता विष्णुना परिकीर्तितम् । खरेटी, कंघी, गोखुरू, पुनर्नवा प्रत्येक आधा सेर १०२ सेर नारायणमिति ख्यातं वातान्तकरणं परम् ॥१२८।। ३२ तोला जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थांश रहनेपर उतार शतावर, शालपर्णी, पिठिवन, कचूर, त्रिफला, एरण्डकी छानकर ६ सेर ३२ तो० तिलतल तथा सौंफ, देवदारु, जटा- जड़की छाल, छोटी बड़ी कटेरीकी जड़, पूतिकरञ्जकी जड़, मांसी, छरीला, वच, चन्दन, तगर, कूठ, इलायची, मुद्गपणी, नागबलाकी जड़, पियवासाकी जड़ प्रत्येक ४० तोला जल माषपर्णी, शालपर्णी, पृष्ठिपणी, रासन, असगन्ध, सेंधानमक, २५ सेर ४८ तोला छोड़कर पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष पुनर्नवा प्रत्येक ८ तोलाका कल्क तथा शतावरीका रस ६ सेर रहनेपर उतार छानकर क्वाथमें पुनर्नवा, वच, देवदारु, सौंफ, ३२ तोला और गाय अथवा बकरीका दूध २५ सेर ४८ तोला | चन्दन, अगर, छरीला, तगर, कूट, इलायची, जटामांसी, मिलाकर पकाना चाहिये। यह तेल पीने बस्ति देने तथा शालपर्णी, खरेटी, असमन्ध, सेंधानमक, रासन प्रत्येक २ मालिश व भोजनके साथ दमेके लिये हितकर है। वातसे तोलाका कल्क तथा गायका दूध २ प्रस्थ तथा बकरीका दूध पीड़ित घोड़ा, हाथी अथवा मनुण्य इससे सभी सुखी होते हैं। २ प्रस्थ तथा बकरीका दूध २ प्रस्थ, शतावरका रस १ प्रस्थ तथा मग तथा लकडियों पोलोंके सहारे घसीटक नातिलतैल १ प्रस्थ छोड़कर पकाना चाहिये । यह तैल वातपीड़ित भी अच्छा होता है । जो वातरोग अधोभागमें तथा जो शिरमें घोड़ों, हाथियों तथा मनुष्योंको लाभ पहुंचाता है। इसके पीनेसे होते हैं, वे नष्ट होते हैं । दन्तशूल, हनुस्तम्भ, मन्यास्तम्भ. आयु वढती तथा शरीर दृढ़ होता है । खच्चरी भी गर्भ धारण गलग्रह इससे अच्छे होते हैं । जिसका एक अंग सूख रहा है करती है फिर स्त्रीके लिये तो क्या कहना। हृदयका दर्द, पार्श्वशुल, अथवा जिसकी गति ठीक नहीं है जिसकी इन्द्रियां शिथिल. अधविभेद, अपची, गण्डमाला, वातरक्त, "हनुग्रह, कामला, वीर्य नष्ट तथा जो ज्वरसे क्षीण हैं, जो बहिरे, जिह्वाशक्ति राहत. तथा मन्दबुद्धिवाले हैं, जिनके संतान कम होती अथवा .१"शीतली, शीतकुम्भी च शक्लपुष्पा जलोद्भवा।" इति होती ही नहीं, जिनके अण्डकोष वायुसे पीड़ित कठिन | रत्नमालायाम् । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (१६) नट पाण्डुरोग तथा अश्मरीको नष्ट करता है । यह तैल साक्षात् , सोनतेलम् । भगवान विष्णुका बनाया हुआ समस्त वातरोगोंको नष्ट करनेवाला है ॥ ११९-१२८ ॥ रसोनकल्कस्वरसेन पक्वं तैलं पिबेद्यस्त्वनिलामयातः । अश्वगन्धातैलम् । तस्याशु नश्यन्ति हि वातरोगा . शतं पक्त्वाश्वगन्धाया जलद्रोणेऽशशेषितम् । । प्रथा विशाला इव दुर्गृहीताः॥१३७ ॥ विस्राव्य विपचेचैलं क्षीरं दत्त्वा चतुर्गुणम्॥१२९॥ जो वातव्याधिसे पीड़ित पुरुष लहसनके कल्क व स्वरससे कल्कैर्मृणालशालूकबिसकि जल्कमालती । | पकाया हुआ तेल पीता है, उसके वातरोग इस प्रकार शीघ्र ही पुष्पहीबेरमधुकशापरवापद्मकेशरैः ॥ १३० ॥ नष्ट हो जाते हैं जैसे दुष्टके हाथमें पड़े हुए · अथवा ज्ञानपूर्वक मेदापुनर्नवाद्राक्षामजिष्ठाबृहतीद्वयैः । न पढ़े गये विशाल प्रन्थ ॥१३७॥ एलैलवालुत्रिफलामुस्तचन्दनपद्मकैः ॥ १३१ ॥ पकं रक्ताश्रयं वातं रक्तपित्तमसृग्दरम् । केतक्याचं तैलम् । हन्यात्पुष्टिबलं कुर्यात्कृशानां मांसवर्धनम् ॥१३२॥ रेतोयोनिविकारनं घ्राणशोषापकर्षणम् । केतकिनागबलातिबलानां .........। षण्ढानपि वृषान्कुर्यात्पानाभ्यङ्गानुवासनैः॥१३३॥ यद्वहुलेन रसेन विपकम् । तैलमनल्पतुषोदकसिद्धं . असगन्ध ५ सेर जल १ द्रोणमें पकाना तथा चतुर्थांश .. मारुतमस्थिगतं विनिहन्ति ।। १३८॥ रहनेपर उतार छान १ प्रस्थ तिलतैल, ४ प्रस्थ दूध तथा कम- अनल्पवचनात्तत्र तुल्ये काथतुषोदके। लकी डण्डी, कमलकी जड़, कमलके तन्तु तथा कमलका केशर, अकल्कोऽपि भवेत्नेहो यः साध्यः केवले द्रवे.१३९ मालतीके फूल, सुगन्धवाला, मैरेठी, शारिवा, कमलके फूल, नागकेशर, मेदा, पुनर्नवा, मुनक्का, मजीठ, छोटी कटेरी, बडी केबड़ा, गङ्गेरन व कंघीके क्वाथ तथा काजीमें सिद्ध किया कटेरी, छोटी बड़ी इलायची, एलवालुक, त्रिफला, नागरमोथा गया तैल अस्थिगत वायुको शान्त करता है । इसमें चन्दन, पाख, प्रत्येकका मिला हुआ कल्क तैलसे चतर्थी प्रत्येक द्रव्यका क्वाथ तथा तुषोदक ( काजी) तैलके छोड़कर पकाना चाहिये। यह तैल रक्ताधित वात. रक्तपित्त बराबर छोड़ना चाहिये । कल्कके बिना भी स्नेह रक्तप्रदरको नष्ट करता, पुष्टि तथा बल बढ़ाता और कृश पुरु सिद्ध होता है, जो केवल द्रवमें सिद्ध किया जाता बाँके मांसको बढाता, रज व वीर्यके दोषों को नष्ट करता. है ॥ १३८॥ १३ ॥ नाकका सूखना नष्ट करता तथा नपुंसकोंको भी पीने, मालिश तथा अनुवासन वस्तिसे पुरुषत्व प्रदान करता है॥१२९-१३३॥ सैन्धवाद्यं तैलम् । मूलकाद्यं तैलम् । द्वे पले सैन्धवात्पश्च शुण्ठया प्रन्धिकचित्रकात् । मूलकस्वरसं तैलं क्षीरदध्यम्लकालिकम् । द्वे द्वे भल्लातकास्थिनी विंशतिढे तथाढके ॥ १४ ॥ तुल्यं विपाचयेत्कल्केबेलाचित्रकसैन्धवैः॥ २३ आरनालात्पचत्प्रस्थ तैलमेतरपत्यदम्।। पिप्पल्यतिविषारास्नाचविकागुरुचित्रकैः। गृध्रस्यूरुग्रहार्थोऽर्तिसर्ववातविकारनुत् ॥ १४१ ॥ भल्लातकवचाकुष्ठश्वदंष्ट्राविश्वभेषजैः॥१३५ ॥ सेंधानमक २ पल, सोंठ ५ पल, पिपरामूल २ पल, पुष्कराहशटीबिल्वशताबनतदारुभिः। चीतकी जड़ २ पल, भिलावांकी गुठली २० गिनी हुई, कामी . तत्सिद्धं पीतमत्युग्रान्हन्ति वातात्मकान्गदान १३६ | |२ माढक तथा तल प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये ।यह मूलीका स्वरस, तिलतैल, खट्टा दही, काजी प्रत्येक समान | तले सन्तानदायक तथा गृध्रसी, ऊरुग्रह, अर्श और बासरोगोंको भाग तथा खरेटी, चीतकी जड़, सेंधानमक, छोटी पीपल.| नष्ट करता है ॥१४०॥ १४१॥ . अतीस, रासन, चव्य, अगर, चीतकी जड़, भिलावां, बच, कूठ, गोखुरू, सोंठ, पोहकरमूल, कचूर, बेलका गूदा, सौंफ, १इसमें कल्क अधिक है, अतः " द्विगुणं तद् द्रवाईयोः" तगर, देवदारुका मिलित करक तेलसे चतुर्शीश छोड़कर इस परिभाषाको लगाकर द्विगुण तैल अर्थात् ११८ तोला पकाना चाहिये । यह तेल पीनेसे उग्रवातात्मक रोगोंको नष्ट और द्विगुण काजी अर्थात् १२ सेर ६४ तोला छोड़ना करता है ।। १३४-१३६ ॥ चाहिये। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। (वातव्याध्य चन्च माससैन्धवतैलम् । तृतीयं मापतैलम् । तेलं सङ्कुचितेऽभ्यंगो माषसैन्धवसाधितम् । माषातसीयवकुरण्टककण्टकारीबाहो शीर्षगते नस्य पानं चौत्तरभाक्तिकम् ॥ गोकण्टटुण्टुकजटाकपिकच्छुतोयैः । काथोऽत्र माषनिष्पाद्यः सैन्धवं कल्कमेव च १४२/ कार्पासकास्थिशणबीजकुलत्थकोलउड़दका क्वाथ तथा सेंधानमकका कल्क छोड़कर सिद्ध | काथेन बस्तपिशितस्थ रसेन चापि ॥१४९।। किया तैल संकुचित अंगोंमें मालिश करनेके लिये तथा बाहु शुण्ठया समागधिकया शतपुष्पया च पा शिरोगत वायुमें नस्य तथा भोजनके साथ पिलानां हित. सैरण्डमूलसपुनर्नवया सरण्या । कर होता है ॥ १४२ ॥ रास्नाबलामृतलताकटुकैर्विपकं माषाख्यमेतदवबाहुहरं च तैलम् ॥ १५० ॥ माषादितैलम् । अर्धाङ्गशोषमपतानकमाढयवात. भाषात्मगुप्तातिविषारबूक माक्षेपकं सभुजकम्पशिरःप्रकम्पम् । रास्नाशताहालवणैः सुपिष्टैः। नस्येन बस्तिविधिना परिषेचनेन चतुर्गुणे माषवलाकषाये हन्यात्कटीजघनजानुरुजश्व सर्वाः ॥१५१॥ तैलं कृतं हन्ति च पक्षवातम् ॥ १४३ ॥ | उड़द, अलसी, यव, पियावांसा, भटकटैया, गोखरू, सोनापाठेकी जड़की छाल तथा कौंचके बीज व विनौले, उड़द तथा खरेटीका क्वाथ तथा उड़द, कौंच, अतीस, सनके बीज, कुलथी व बेरका क्वाथ तथा बकरेके मांस एरण्ड, रासन, सौंफ सेंधानमकका कल्क छोड़कर सिद्ध किया रस तथा सोंठ, छोटी पीपल, सौंफ, एरण्डकी जड़, पुनगया तेल पक्षाघातको नष्ट करता है॥ १४३॥ नेवा, गन्धप्रसारणी, रासन, खरेटी, गुर्च, कुटकीका कल्क द्वितीयं माषतैलम् । छोड़कर पकाये गये तेलको अभ्यङ्ग, नस्य, बस्तिकर्म तथा परिषेचनके द्वारा प्रयोग करनेसे अवबाहुक, अर्धाङ्गशोष, अपमाषप्रस्थं समावाप्य पचेत्सम्यग्जलाढके। तानक, ऊरुस्तम्भ, आक्षेपक, भुजा, तथा शिरके कम्पनको पादशेषे रसे तस्मिन्क्षीरं दद्याश्चतुर्गुणम् ॥ १४४ ॥ दूर करता है । तथा कमर, जंघा व घुटनोंकी पीडाको नष्ट प्रस्थं च तिलतैलस्य कल्कं दत्त्वाक्षसम्मितम् । करता है ॥ १४९-१५ ॥ जीवनीयानि यान्यष्टौ शतपुष्पां ससैन्धवाम् १४५/ रानात्मगुप्तामधुकं बलाव्या त्रिकण्टकम । चतुर्थ मापतैलम् । पक्षघातेऽर्दिते वाते कर्णशूले सुदारुणे ॥ १४६ ॥ मापका बलाकाथे रास्नाया दशमूलजे । मन्दश्रुतौ चाश्रवणे तिमिरे च त्रिदोषजे। यवकोलकुलत्थानां छागमांसभवे पृथक् ।। १५२ ॥ हस्तकम्पे शिरःकम्पे विश्वाच्यामवबाहुके ।।१४७॥ प्रस्थे तैलस्य च प्रस्थं क्षीरं दत्त्वा चतुर्गुणम् । शस्तं कलायखजे च पानाभ्यजनबस्तिभिः । रास्नात्मगुप्तासिन्धूत्थशताहरण्डमुस्तकैः ॥१५० ।। माषतैलमिदं श्रेष्ठमूर्ध्वजत्रुगदापहम् ॥ १४८ ॥ जीवनीयैबलाव्योषैः पचेदक्षसमैभिषक् । १ प्रस्थ उड़द १ आढ़क जलमें पकाना, चतुर्थाश शेष | हस्तकम्पे शिरःकम्पे बाहुशोषेऽवबाहुके ॥ १५०॥ रहनेपर उतार छान लेना चाहिय, फिर इसमें ४ प्रस्थ बाधिर्ये कर्णशूले च कर्णनादे च दारुणे । दूध, तैल १ प्रस्थ तथा जीवनीय गणकी औषधियां तथा विश्वाच्यामर्दिते कुब्जे गृध्रस्यामपतानके ॥ १५५।। सौंफ, सेंधानमक, रासन, कौंचके बीज, मौरेठी, खरेटी, बस्त्यभ्यञ्जनपानेषु नावने च प्रयोजयेत् । त्रिकटु, गोखरू प्रत्येक १ तोलाका कल्क छोड़कर पकाना माषतैलमिदं श्रेष्ठमूर्ध्वजत्रुगदापहम् ।। १५६ ।। चाहिये । यह तेल पक्षाघात, आर्दत, कर्णशूल, कम सुनाई काथप्रस्थाः षडेवात्र विभक्त्यन्तेन कीर्तिताः। पड़ना या न सुनाई पड़ना, त्रिदोषज तिमिररोग, हस्त तथा शिरके कम्प, विश्वाची, अवबाहुक तथा कलायखजको पीने, उड़दका क्वाथ ६४ तोला, खरेटीका क्वाथ ६४ तोला. मालिश तथापिचकारी लगानेसे नष्ट करता है । तथा जत्रुके ऊपर रासनका क्वाथ ६४ तोला, दशमूलका काथ ६४ तो० यव, के समस्त रोगोंको नष्ट करता है ॥ १४४-१४८॥ |बेर व कुलथीका क्वाथ ६४ तोला तथा बकरेके मासका काथ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। . (११७) ६४ तोला, तैल, ६४ तोला, दूध ३ सेर १६ तोला तथा को ही क्या समस्त वातरोगोंको नष्ट करता है * ॥ रासन, कौंचके बीज, सेंधानमक सौंफ, एरण्डकी छाल, ॥१५७-१६४ ॥ नागरमोथा, जीवनीयगणकी औषधियां खरेटी, तथा त्रिकटु प्रत्येक १ तोलाका कल्क छोड़कर पकाना चाहिये । यह षष्ठं महामाषतैलम् । तैल बस्ति, अभ्यङ्ग, नस्य तथा पानसे हस्त व शिरके कम्प, द्विपञ्जमूली निष्काध्य तैलाषोडशभिर्गुणैः । बाहुशोष, अवबाहुक, बाधिर्य कर्णशूल, कर्णनाद, विश्वांची, अर्दित, कुब्ज, गृध्रसी, अपतानक तथा शिरके रोगोंको नष्ट माषाढकं साधयित्वा तन्नि!हं चतुर्गुणम् ॥१६५।। करता है। द्रव द्रव्य अर्थात् क्वाथ तैल द्विगुण मात्रामें छोड़ना ग्राहयित्वा तु विपचेत्तैलप्रस्थं पयः समम् । चाहिये ॥१५२-१५६ ॥ कल्काथै च समावाप्य भिषग्द्रव्याणि बुद्धिमान् १६६ अश्वगन्धां शटी दारु बलां रानां प्रसारणीम् । पञ्चमं माषतैलम् । कुष्ठं परूषकं भाी द्वे विदायौं पुनर्नवाम् ।।१६७।। माषस्यार्धाढकं दत्त्वा तुलाध दशमूलतः ॥ १५७ ॥ मातुलुङ्गफलाजाज्यौ राम; शतपुष्पिकाम् । पलानि छागमांसस्य त्रिंशद् द्रोणेऽम्भसः पचेत् । शतावरी गोक्षुरकं पिप्पलीमूलचित्रकम् ।। १६८॥ पूतशीते कषाये च चतुर्थाशावतारिते ॥ १५८ ॥ जीवनीयगणं सर्व संहृत्यैव ससैन्धवम् । तत्साधु सिद्धं विज्ञाय माषतैलमिदं महत् ॥१६९॥ प्रस्थं च तिलतैलस्य पयो दद्याश्चतुर्गुणम्। बस्त्यभ्यजने पाननावनेषु प्रयोजयेत् ।। आत्मगुप्तोरुबूकश्च शताला लवणत्रयम् ॥ १५९।। पक्षाघाते हनुस्तम्भे अर्दिते सापतन्त्रके ।। १७० ।। जीवनीयानि मजिष्ठा चव्यचित्रककट्फलम् । अबबाहुकविश्वाच्योः खजपॉलयोरपि । . सव्योष पिप्पलीमूलं रास्त्रामधुकसैन्धवम् ॥१६०॥ हनुमन्याग्रहे चैवमधिमन्थे च वातिके ॥ १७१ ॥ देवदार्वमृता कुष्ठं वाजिगन्धा वचा शटी। शुक्रक्षये कर्णनादे कर्णशुले च दारुणे । एतैरक्षसमैः कल्कैः साधयेन्मृदुनाग्निना ।। १६१ ॥ कलायखजशमने भैषज्यामिदमादिशेत्॥ १७२ ॥ दशमूलाढकं द्रोणे निष्काथ्य पादिको भवेत् । पक्षाघातार्दिते वाते बाधिर्ये हनुसंग्रहे । काथश्चतुर्गुणस्तैलान्माषकाथेऽप्ययं विधिः ॥१७३॥ कर्णनादे शिरःशूले तिमिरे च त्रिदोषजे ॥ १६२॥ दशमूल .३ सेर १६ तो०, जल २५ ‘सेर ४८ तोले में पाणिपादशिरोप्रीवाभ्रमणे मन्दचक्रमे । पकाकर क्वाथ ६ सेर ३२ तो०, उड़द ४ प्रस्थका क्वाथ ६ सेर कलायखजे पाङ्गुल्ये गृध्रस्यामवबाहुके ॥१६३ ॥ ३२ तोला, तैल १२८ तोला, दूध .१२८ तोला, असगन्ध, पाने बस्ती तथाभ्यङ्गे नस्ये कर्णाक्षिपूरणे। कचूर, देवदारु, खरेटी, रासन, गन्धप्रसारणी, कूठ, फाल्सा, तेलमेतत्प्रशंसन्ति सवेवातरुजापहम् ।। १६४।। भाी, विदारीकन्द, क्षीरविदारी, पुनर्नवा, बिजौरे निम्बूका फल, सफेद जीरा. भनी हींग, सौंफ, शतावरी, गोखुरू, पिपरामूल, उड़द १॥ सेर ८ तोला, दशमूल २॥ सेर, बकरेका मांस | चीतकी जड़, जीवनीयगण, सेंधानमक सब समानभाग का कल्क १॥ सेर, सब २५ सेर ४८ तोला जलमें पकाना चाहिये । छोड़कर तेल पकाना चाहिये। यह “महामाषतैल "-बस्ति, चतुर्थांश शेष रहने पर उतार छान १ प्रस्थ तिल तैल, दूध मालिश, पान तथा नत्यके लिये प्रयुक्त करना चाहिये। यह ६ सेर ३२ तोला, कौंचके बीज, एरण्डकी छाल, सौंफ, तीनों पक्षाघात, हनुस्तम्भ, अर्दित, अपतन्त्रक, अवबाहुक, विश्वाची, नमक, जीवनीयगणकी औषधियां, मजीठ, चव्य, चीतकी जड़, कैफरा, त्रिकटु, पिपरामूल, रासन, मौरेठी, सेंधानमक, * इसी तैलके अनन्तर त्रिशतीप्रसारिणी तैल दूसरी देवदारु, गुर्च, कूठ, अश्वगन्ध, बच. कचूर, प्रत्येक १ तोलाका प्रतियोंमें लिखा है, पर माष तैलोंके मध्यमें प्रसारिणीतैल • कल्क छोड़कर मन्द आंचपर पकाना चाहिये । इस तलको लिखना उचित नहीं समझा गया, किन्तु आगे त्रिशतीपिलाने, बस्ति देने, मालिश नस्य, कान तथा नेत्रों में डाल- | प्रसारिणी तैल दूसरा लिखेंगे। उसमें और इसमें पाठभेदके नेके लिये प्रयोग करना चाहिये। यह पक्षाघात, अर्दित, सिवाय कोई दूसरा अन्तर नहीं है। हां, इसमें गुण अधिक - बाधिर्य, ठोढ़ीकी जकड़ाहट, कर्णनाद, शिरःशूल, तिमिर, लिख दिये गये हैं उतने उसमें नहीं लिखे । पर तैल एक हाथ, पैर, शिर, गर्दनके घूमने तथा पैरोंकी शक्ति कम ही होनेसे गुणोंमें अन्तर नहीं हो सकता, अतः वहींपर इसका , हो जाने, कलायखज, पांगुल्य, गृध्रसी, और अवबाहुक-भी पाठ देखिये ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) चक्रदत्तः। [वातव्याध्यसन्न्न्न्न्न्न्न्न्न् खजता, पाङ्गुल्य, हनुग्रह, मन्याग्रह, वातिक अधिमन्थ, काजी ६४ तोला, दहीका तोड़ ६४ तोला, सौवीरक तुषो. शुक्रक्षय, कर्णनाद, कर्णशूल तथा कलायखञ्जको शान्त करता है । | दक, बेर, अनार तथा बिजौरे निम्बूका रस प्रत्येक द्रव ६४ ऊपर जो " षोड़शभिर्गुणैः" है उसका अर्थ यह है कि तैलसे तोला, तैल, घी, ची, मज्जा तथा दूध प्रत्येक ६४ तोला तथा १६ गुण जल छोड़कर क्वाथ बनाना चाहिये ॥ १६५-१७३॥जीवनीयगणकी ओषधियां मिलित २४ तोलाका कल्क छोड़कर पकाना चाहिये । यह महास्नेह मालिशके लिये शिरा, मज्जा तथा मन्जस्नेहः। | अस्थिगत वात, सर्वाङ्गरोग, एकाङ्गरोग, कम्प, आक्षेप तथा प्राम्यानूपौदकानां तु भिन्नास्थीनि पचेजले । शूलमें प्रयुक्त करना चाहिये ॥ १७८-१८२ ॥ तं स्नेहं दशमूलस्य कषायेण पुनः पचेत् ॥ १७४॥ कुब्जप्रसारणीतैलम् । जीवकर्षभकास्फोताविदारीकपिकच्छुभिः । प्रसारणीशतं क्षुण्णं पचेत्तोयामणे शुभे । वातन्नेर्जीवनीयैश्च कल्कैक्षिीरभागिकम् ॥१७॥ पादशिष्टे समं तैलं दधि दद्यात्सकाजिकम् ॥ १८३ तत्सिद्धं नावनाभ्यगात्तथा पानानुवासनात् । द्विगुणं च पयो दत्त्वा कल्कान्द्विपलिकांस्तथा । शिरः पार्थास्थिकोष्ठस्थं प्रणुदत्याशु मारुतम्१७६॥| चित्रकं पिप्पलीमूलं मधुकं सैन्धवं वचाम् ॥१८४॥ ये स्युः प्रक्षीणमजानः क्षीणशुक्रोजसश्च ये।। शतपुष्पां देवदारु रानां वारणपिप्पलीम् । बलपुष्टिकरं तेषामेतत्स्यादमृतोपमम् ॥ १७७ ॥ प्रसारण्याश्च मूलानि मांसीं भल्लातकानि च॥१८५।। ग्राम्य, आनूप तथा औदक प्राणियोंकी हड्डियोंको चूर्ण कर | पचेन्मृद्वग्निना तैलं वातश्लेष्मामयाञ्जयेत् । जलमें पकाना चाहिये, जितना इसका स्नेह निकले उससे चतुगुण अशीतिं नरनारीस्थान्वातरोगानपोहति ॥ १८६॥ दशमूलक्वाथ तथा द्विगुण दूध तथा जीवक, ऋषभक, आस्फोता | कुब्जं स्तिमितपंगुत्वं गृध्रसीं खुडकार्दितम् । (विष्णुकान्ता या हापरमाली ) विदारीकन्द, कौंचके बीज, हनुपृष्ठशिरोग्रीवास्तम्भ वापि नियच्छति ॥ १८७।। वातघ्न ( देवदादि ) तथा जीवनीयगणकी ओषधियोंका कल्क स्नेहसे चतुर्थांश छोड़कर पकाना चाहिये । यह स्नेह नस्य, अनु- गन्धप्रसारणी ५ सेर जल १द्रोणमें पकाना चाहिये । चतुबासन, बस्ति, मालिश तथा पीनेसे शिर, पसली, हड्डी तथा र्थोशं शेष रहनेपर उतार छान क्वाथके समान तैल तथा उतना कोष्ठगत वायुको नष्ट करता है, जिनके मज्जा, ओज तथा शुक्र ही दही और उतना ही काजी और तैलसे दूना दूध तथा क्षीण हो गये हैं, उनके लिये यह स्नेह अमृततुल्य बल तथा पुष्टि चीतकी जड़, पिपरामूल, मौरेठी, सेंधानमक, वच, सौंफ, देवकरनेवाला है ॥ १७४-१७७ ॥ दारु, रासन, गजपीपल, गन्धप्रसारणीकी जड़, जटामांसी, भिलावां प्रत्येक ८ तोलाका कल्क छोड़कर मन्दाग्निसे पकाना महास्नेहः। चाहिये । यह तेल वातकफके रोगोंको जीतता तथा अस्सी प्रकारके पुरुष तथा स्त्रियोंके वातरोगों तथा कुब्जता, जकड़ाहट, 'प्रस्थास्यात्रिफलायास्तु कुलत्थकुडवद्वयम् । कृष्णगन्धात्वगाढक्योः पृथक्पञ्चपलं भवेत्। |पंगुता, गृध्रसी, वातकंटक, हनु, पृष्ठ, शिर व गर्दनकी जकड़ाहट इत्यादिको नष्ट करता है ॥ १८३-१८७ ॥ रास्नाचित्रकयोद्धे द्व दशमूलं पलोन्मितम् । जलद्रोणे पचेत्पादशेष प्रस्थोन्मितं पृथक् ॥ १७९॥ त्रिशतीप्रसारणीतैलम् । सुरारनालध्यम्लसौवीरकतुषोदकम् । प्रसारण्यास्तुलामश्वगन्धाया दशमूलतः । कोलदाडिमवृक्षाम्लरसं तैलं घृतं वसाम् ॥१८०॥ तुला तुलां पृयग्वारि द्रोणे पादांशशेषिते ॥१८८ ॥ मज्जानं च पयश्चैव जीवनीयपलानि षट् । कल्कं दत्त्वा महास्नेहं सम्यगेनं विपाचयेत् ॥१८१] १ सौवीर तथा तुषोदककी निर्माणावीध-“ सौवीरस्तु यवै. शिरामज्जास्थिगे वाते सर्वाङ्गैकाङ्गरोगिषु । रामः पक्कैर्वा निस्तुः कृतः । गोधूमैरपि सौवीरमाचार्थाः केचिदूवेपनाक्षेपशुलेषु तमभ्यङ्गे प्रदापयेत् ॥ १८२॥ | चिरे" अर्थात् कच्चे या पक भूसीरहित यवोंको अष्टगुण जल पूरित घड़ेमें बन्द कर १५ दिनतक रख छानकर काममें लाना त्रिफला ६४ तोला, कुलथी ३२ तोला, सहिंजनेकी छाल चाहिये । कुछ लोग गेहुओंसे भी सौवीरक बनाना कहते हैं। २० तोला, अरहर २० तोला, रासन ८ तोला, चीतकी जड ८" तुषाम्बु संधित ज्ञेयमामैर्विदलितर्यवैः । तुषोदकं तुषजलं तोला, दशमूल प्रत्येक द्रव्य ४ तोला, जल १२ सेर ६४ तोला तदेव परिकीर्तितम् ॥” अथवा-"भृष्टान्माषतुषान्सिद्धान्यवांस्तु छोड़कर पकाना चाहिये, चतुर्थांश शष रहनेपर उतार छान- चूर्णसंयुतान् । आभूतानम्भसा तद्वज्जातं तच तुषोदकम् । तुषोक्वाथ अलग रखना चाहिये । उसी काथमें शराब ६४ तोला, दकं यवैरामैः सतुषैः शकली कृतैः॥" Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः 1. भाषाटीकोपेतः। तैलाढक चतुःक्षीरं दधितुल्यं द्विकालिकम् । सप्तशतीकं प्रसारणीतलम् । द्विपलैन्थिकक्षारप्रसारण्यक्षसैन्धवैः ॥ १८९॥ समञ्जिष्ठानियष्टयाह्नः पलिकैर्जीवनीयकैः।। समूलपत्रामुत्पाट्य शरत्काले प्रसारणीम् ॥१९२॥ शुण्ठथाः पञ्च पलं दत्त्वा त्रिंशद्भल्लातकानि च १८९ शतं ग्राह्यं सहचराच्छतावर्याः शतं तथा । बलात्मगुप्ताश्वगन्धाकेतकीनां शतं शतम् ॥१९३॥ पचेद्वस्त्यादिना वातं हन्ति सन्धिशिरास्थितम् । । पचेच्चतुर्गुणे तोये द्रवैस्तैलाढकं भिषक् । पुंस्त्वोत्साहस्मृतिप्रज्ञाबलवर्णानिवृद्धये ॥ १९१॥ मस्तु मांसरसं चुकं पयश्चाढकमाढकम् ॥१९४॥ प्रसारणीयं त्रिशती अक्षं सौवर्चलं विह। । दध्याढकसमायुक्तं पाचयेन्मृदुनामिना । गंधप्रसारणी ५ सेर, असगंध ५ सेर, दशमूल ५ सेर द्रव्याणां च प्रदातव्या मात्रा चार्धपलांशिका ॥१९॥ प्रत्येक अलग अलग २५ सेर ४८ तोला जलमें मिला तगरं मदनं कुष्ठं केशरं मुस्तकं त्वचम् । चतुर्थांश शेष क्वाथ बनाना चाहिये, फिर काथमें तैल ६ सेर रास्ना सैन्धवपिापल्यौ मांसी मञ्जिष्ठयष्टिका १९६ ३२ तोला, दूध २५ सेर ४८ तोला, दही ६ सेर ३२ तथा मेदा महामेदा जीवकर्षभको पुनः । तोला, काजी १२ सेर ४८ तोला तथा पीपरामूल, यवाखार, · शतपुष्पा व्यावनखं शुण्ठी देवाह्वमेव च ॥१९७॥ गन्धप्रसारणी, सौवर्चलनमक, सेंधानमक, मजीठ, चीतकी जड़, काकोली क्षीरकाकोली वचा भल्लातकं तथा। मोरेठी प्रत्येक ८ तोला तथा जीवनीयगणकी प्रत्येक औषधियां पेषयित्वा समानेतान्साधनीया प्रसारणी ॥१९८॥ ४ तोला, सोंठ २० तोला, लिभावां. ३० गिनतीके छोड़कर पकाना चाहिये। यह तैल बस्ति आदिद्वारा सन्धि तथा शिराओंमें नातिपक्कं न हीनं च सिद्धं पूतं निधापयेत् । स्थित वायुको नष्ट करता है । पुरुषत्व, उत्साह, स्मृति, बुद्धि, यत्र यत्र प्रदातव्या तन्मे निगदतः शृणु ॥१९९॥ बल, वर्ण तथा अमिकी वृद्धि करता है। यह “त्रिशतीप्रसा-1 कुब्जानामथ पशूनां वामनानां तथैव च । रणी " तैल है। इसमें "अक्ष" शब्दका अर्थ सौवर्चल नमक | यस्य शुष्यति चैकाङ्गं ये च भग्नास्थिसन्धयः॥२०० है ॥ १८८-१९१॥ वातशोणितदुष्टानां वातीपहतचेतसाम् । स्त्रीषु प्रक्षीणशुक्राणां वाजीकरणमुत्तमम् ॥ २०१॥ यही तैल दूसरी प्रतियों में इस प्रकार पाठभेदसे लिखा बस्ती पाने तथाभ्यङ्गे नस्ये चैव प्रदापयेत् । है--" समूलपत्रशाखां च जातसारां प्रसारणीम् । कुदृयित्वा | प्रयुक्तं शमयत्याशु वातजान्विविधान्गदान् २०२।। पलशतं दशमूलशतं तथा ॥ अश्वगन्धापलशतं कटाहे समधिक्षिपेत् । वारिद्रोणे पृथक्पक्त्वा पादशेषावतारतम् ॥ कषायाः। शरदऋतुमें मूल पत्ते सहित उखाड़ी गयी प्रसारणी ५ सेर. सममात्रास्त तैलपानं प्रदापयेत् । दधनस्तथाढकं दत्त्वा दिगणं] पियावांसा (कटसैला)५ सेर, शतावरी ५ सेर, खरेटी, काँच, चैव काजिकम् ॥ चतुर्गुणेन पयसा जीवनीयैः पलोन्मितैः । असगन्ध तथा केवड़ा प्रत्येकका पञ्चाङ्ग ५ सेर सबसे चतुर्गुण भगवेरपलान्पञ्च त्रिंशद्भलातकानि च ॥ द्वे पले पिप्पलीमलाच्चि-जल मिलाकर क्वाथ बनाना चाहिये। चतुर्थांश रहनेपर उतार प्रकस्य पलद्वयम् । यवक्षारपले द्वे च मधुकस्य पलयम ॥छानकर तैल ८ सेर ३२ तोला, दहीका तोड़ मांसरस, चूका प्रसारणी पले द्वे च सैन्धवस्य पलद्वयम् । सौवर्चललवणे च तथा दूध प्रत्येक एक आढ़क तथा दही एक आढक मिला मजिष्ठायाः पलद्वयम् ॥ सर्वाण्येतानि संस्कृत्य शनैर्मुद्रग्निना | मृदु आंचसे पकाना चाहिये । तथा तगर, मैनफल, कूठ, पचेत् । एतदभ्यजनं श्रेष्ठं बस्तिकर्मनिरूहणे ॥ पाने नस्ये च नागकेशरं, नागरमोथा, दालचीनी, रासन, सेंधानमक, छोटी दातव्यं न कचित्प्रतिहन्यते । अशीतिं वातजान रोगांश्चत्वारिशच | पीपल, जटामांसी, मजीठ, मौरेठी, मेदा, महामेदा, जीवक, पैत्तिकान् ॥ विंशतिं श्लैष्मिकांश्चैव सर्वानेतान्व्यपोहति । गृध्र-/ऋषभक, सौंफ, नख, सोंठ, देवदार | ऋषभक, सौंफ, नख, सोंठ, देवदारु, काकोली, क्षीरकाकोली, सीमस्थिभंगं च मन्दाग्नित्वमरोचकम् । अपस्मारमथोन्माद विभ्रमं वच, भिलावां प्रत्येक २ तोलाका कल्क छोड़कर मन्द आंचसे मन्द्गामिताम् । त्वग्गताश्चैव ये वाताः शिरासन्धिगताश्च ये। यह "प्रसारणीतैल" सिद्ध करना चाहिये । यह न जलने पावे न जानुसन्धिगताश्चैव पादपृष्ठगतास्तथा। अश्वो वाताच संभग्नो गजो मृदु रहे अर्थात् मध्यपाक करना चाहिये। सिद्ध हो जानेपर वा यदि वा नरः॥प्रसारयति यस्माद्धि तस्मादेषा प्रसारणी।इन्द्रियाणां प्रजननी वृद्धानां च रसायनी ॥ एतेनान्धकवृष्णीनां कृतं पुंसवनं इसकी निर्माणपद्धति उपरोक्त तलसे भिन्न नहीं अर्थात् यह महत् । प्रसारणीतैलमिदं बलवर्णानिवर्धनम् ॥ अपनथति वली- और वह तैल एक ही है ।अतः उसीके अशुसार इसका भी अर्थ पलितमुत्पाटथति पक्षाघातम् । वातस्तम्भं सर्वाङ्गगतं वायुगुल्म समझना । पर इसमें गुण आधिक लिखे गये हैं। उन्हें समास च नाशयति ॥ एतदुपसेवमानः प्रसन्नवणेन्द्रियो भवति ॥ लेना चाहिये। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . www (१२०) [ শাখাउन्न्न्न् उतार छानकर रखना चाहिये । इसे कुबड़े, पशु तथा वाम- काजी २ द्रोण दहीका तोड़ ६ सेर ३२ तोला, सिरका, बकरेका नोंको देना चाहिये, जिनका एकांग सूखता है, जिनकी अस्थियाँ मांसरस, ईखका रस, दूध प्रत्येक ६ सेर ३२ तोला, मालतांके तथा जोड़ टूट गये हैं, वातरक्त, वातोन्माद तथा क्षीणशुक्र- फूल, काकड़ाशिंगी, जीवकादिगणकी औषधियां, मजीठ, वालोंको अत्यन्त हितकर है, बस्ति, पान मालिश, तथा नस्यमें | काकोली कौंचके बीज, छोटी इलायची, कपूर, कुन्दके फूल, इसका प्रयोग करना चाहिये । प्रयोग करनेसे यह वातज अनेक | सरल, कूठ या पोहकरमूल, जटामांसी, नख, तगर, नीलोफर, रोगोंको नष्ट करता है । ( इन प्रसारणी तैलोंको यद्यपि एक ही पद्माख, हल्दी, कंकोल, पिपरामूल, चम्पावती, खश, कलमी बड़े पात्रमें पकाना लिखा है और उत्तम भी यही है, पर इतने तज, सुपारी, लताकस्तुरी जायफल, शतावरी, गन्धविरोजा, बड़े पात्रोंका यदि प्रबंध न हो सके तो एक एक द्रवके साथ | देवदारु, चन्दन, वच, छरीला, सेंधानमक, शिलारस, नागरकई बारमें मंद आंचसे पका लेना चाहिये ॥ १९२-२०२॥ मोथा, प्रसारणीकी जड़, नाड़ी, पुनर्नवा, कचूर, कस्तूरी, दशमूल, | केवड़ाके फूल, तगर, रोहिषघास, असगन्ध, सुगन्धवाला, एकादशशतिकं प्रसारणीतैलम् । सम्भालूके बीज, रसौत, शाल, जायफल, अगर, निसोथ, सौंफ शाखामूलदलैःप्रसारणितुलास्तिस्रः कुरण्टात्तुले कूठ, भिलावां, त्रिफला, कमलका केशर, विधारा, लवङ्ग, छिन्नायाश्च तुले तुले रुबुकतो रास्नाशिरीषात्तुलाम | त्रिकटु, त्रिफला, सबका कल्क मिलित तेलसे चतुर्थांश छोड़कर देवाह्वाच्च सकेतकाद् घटशते निष्क्वाथ्य कुम्भांशिके। | बड़े कड़ाहमें मन्द आंचसे पकाना चाहिये । यह तैल पान, तोये तैलपट तषाम्बकलशो दवाढ मस्तन:२०३ अभ्यग, बस्ति तथा नस्यविधिसे वायुको नष्ट करता, सर्वाङ्गगत, अर्धाङ्गगत तथा सन्धि, अस्थि, मजागत वायु तथा कफ व शुक्ताच्छागरसादथेक्षुरसतः क्षीराच्च दत्त्वाढकं पित्तके रोग नष्ट करता, धातुओंको बढ़ाता, नवीन यौवनको स्पृक्काकर्कटजीवकाद्यविकसाकाकोलिकाकच्छुरा। स्थायी करता, वृद्धको भी बलवान् बनाता, बन्ध्याको भी सूक्ष्मैलाधनसारकुन्दसरलाकाश्मीरमांसीनखैः ।। गर्भवती बनाता है । वृद्धा भी इस तेलको पीकर बालक उत्पन्न कालीयोत्पलपद्मकाह्वयनिशाकक्कोलकग्रन्थिक:२०४ करे । इससे सींचनेसे सूखे वृक्ष भी फलयुक्त हो सकते हैं, चाम्पेयाभयचोचपूगकटुकाजातीफलाभारुभि । भग्नांग मनुष्य, बैल, घोड़ा, हाथी इससे दृढांग और स्थिर श्रीवासामरदारुचन्दनवचाशैलेयसिन्धूद्भवैः । होते हैं । २०३-२०८॥ सैलाम्भोदकटम्भरांघ्रिनलिकावृश्चीरकच्चारकः । अष्टादशशतिकं प्रसारणीतलम् ।। कस्तूरीदशमूलकेतकनतध्यामाश्वगन्धाम्बुभिः॥२०५| कौन्तीताय॑जशल्लकीफललघुश्यामाशताह्वामयै- समूलदलशाखायाः प्रसारण्याः शतत्रयम् । भेल्लातत्रिफलाब्जकेशरमहाश्यामालवङ्गान्वितैः। शतमेकं शतावर्या अश्वगन्धाशतं तथा ॥ २०९ ॥ सम्योपैत्रिफलमहीयास पचेन्मन्देन पत्रिऽग्निना केतकीनां शतं चैकं दशमूलाच्छतं शतम् । पानाभ्यंजनबास्तिनस्यविधिना तन्मारुतं नाशयेत्॥ शतं वाट्यालकस्यापि शतं सहचरस्य च।। २१०॥ सर्वाङ्गार्धगतं तथावयवगं सन्ध्यस्थिमज्जान्वितं । जलद्रोणशतं दत्वा शतभागावशेषितम् । श्लेप्मोत्थानथ पैत्तिकांश्च शमयेन्नानाविधानामयान्।। ततस्तेन कषायेण कषायद्विगुणेन च ॥ २१११ ॥ धातून्य ति स्थिरं च कुरुते पुंसां नवं यौवनं सुव्यक्तेनारनालेन दधिमण्डाढकेन च । वृद्धस्यापि बलं करोति सुमहद्वन्ध्यासुगर्भप्रदम्२०७ | क्षीरशुक्क्षुनिर्यासच्छागमांसरसाढकैः ॥ २१२॥ पीत्वा तैलमिदं जरत्यपि सुतं सूतेऽमुना भूरुहाः तैलाद् द्रोणं समायुक्तं दृढे पाने निधापयेत् । सिक्ताःशौषमुपागताश्च फलिनः स्निग्धा भवन्ति स्थिराः द्रव्याणि यानि पेष्याणि तानि वक्ष्याम्यतः परम् ।। भनाङ्गाः सुदृढा भवन्ति मनुजा गावो हयाः कुञ्जराः॥ भल्लातकं नतं शुण्ठी पिप्पली चित्रकं शटी। वचा स्पृका प्रसारण्याः पिप्पल्या मूलमेव च।।२१४ गन्धप्रसारणीका पञ्चांग १५ सेर ( ३ तुला ) पियावांसा १० देवदारु शताह्वा च सूक्ष्मैला त्वक्च बालकम् । सेर, गुर्च १० सेर, एरण्डका पञ्चांग १० सेर रासन व सिरसाकी छाल मिलाकर ५ सेर, देवदारु व केवड़ा मिलाकर ५ सेर, सब कुंकुमं मदमञ्जिष्ठा तुरुष्कं नखिकागुरु ॥ २१५ ।। मिलाकर १०० द्रोण (आजकलकी तौलसे ६४ मन ) जलमें कर्पूरकुन्दुरुनिशालवङ्गध्यामचन्दनम् । मिलाकर पकाना चाहिये । क्वाथ पकते पकते जब १ द्रोण (२५॥ कक्कोलं नलिका मुस्तं कालीयोत्पलपत्रकम् ॥२१६ सेर ४८ तोला ) रह जावे, तब उतार छानकर इसी क्वाथमें| शटीहरेणुशैलेयश्रीवासं च सकेतकम् । तैल १ द्रोण अर्थात् २५ सेर ४८ तोला, सतुष धान्यकी | त्रिफला कच्छुराभीरुः सरला पाकेशरम् ॥२१७॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .. .. धिकारः भाषाटीकोपतः। - - प्रियंगूशीरनलदं जीवकाचं पुनर्नवा । मोथा, तगर, नीलोफर, तेजपात, कचूर, सम्भालूके बीज, दशमूल्यश्वगन्धे च नागपुष्पं रसाजनम् ॥२१८॥ छरीला, गन्धाबिरोजा, केवड़ाके फूल, त्रिफला, कौंचके बीज, कटुकाजातिपूगानां फलानि शल्लकारसम् ।। शतावरी, सरल, कमलका केशर, प्रियंगु, खश, जटामांसी, भागांत्रिपलिकान्दत्त्वा शनैर्मेद्वग्निना पचेत् ॥ १२९ जीवकादिगणकी ओषधियां, पुनर्नवा, दशमूल, असगन्ध, नागविस्तीर्णे सुदृढे पात्रे पाक्यैषा तु प्रसारणी। केशर, रसौतं, लताकस्तुरी, जायफल, सुपारी, राल प्रत्येक ट्रॅव्य १२ तोले ले कल्क बना मिलाकर एक बड़े विशाल पात्रमें प्रयोगः षड्विधश्चात्र रोगार्तानां विधीयते ॥२२०॥ मन्द आंच से पकाना चाहिये । इसका प्रयोग ६ प्रकारसे होता है। अभ्यङ्गात्त्वग्गतं हन्ति पानात्कोष्ठगतं तथा। (१) मालिश करनेसे त्वचाके रोगोंको तथा (२) पीनसे कोष्ठगत भोजनात्सूक्ष्मनाडीस्थान्नस्यादूर्ध्वगतांस्तथा ॥२२१॥ बातको(३)भोजनके साथ सूक्ष्म नाड़ियोंमें प्रविष्ट वायुको,(४)नस्यसे पक्काशयगते बस्तिनिरूहः सार्घकायिके। ऊर्ध्वजत्रुगतवातको,(५)पक्काशयगत वायुको अनुवासन वस्ति तथा एतद्धि वडवाश्वानां किशोराणां यथामृतम् ॥२२२॥ (६)समस्त देहगत वायुको निरुहण बस्ति द्वारा नष्ट करता है। यह एतदेव मनुष्याणां कुञ्जराणां गवामपि। घोड़ी, घोड़े, हाथी, गाय तथा मनुष्य सभीके लिये अमृततुल्य अनेनैव च तैलेन शुष्यमाणा महादुमाः॥२२३॥ गुणदायक है । इस तैलके सींचनेसे सूखे हुए वृक्ष फिर हरे होते सिक्ताः पनः प्ररोहन्ति भवन्ति फळझाविमो तथा अंकुर और फल तथा शाखाओंसे युक्त होते हैं । इस तैलसे वृद्धोऽप्यनेन तैलेन पुनश्च तरुणायते ॥ २२४ ॥ | वृद्ध भी बलवान् होता तथा जिस स्त्रीके सन्तान नहीं होती उसके सन्तान होती है। शुक्रदोषसे जिसे सन्तान नहीं होती उसे भी न प्रसूते च या नारी सापि पीत्वा प्रसूयते । . यह सन्तान देता है। हर प्रकारके वात, पित्त, कफ तथा अप्रजः पुरुषो यस्तु सोऽपि पीत्वा लभेत्सुतम् २२५ | सन्निपातसे होनेवाले रोग इससे नष्ट होते हैं। इससे अन्धक और अशीतिं वातजारोगान्पत्तिकालष्मिकानपि । वृष्णिके वंशमें बहुत बालक उत्पन्न हुए। विष्णु भगवानका पूजन सन्निपातसमुत्थांश्च नाशयेत्क्षिप्रमेव तु ।। २२६॥ | कर इस तैलका प्रयोग करना चाहिये । इस क्वाथमें रासन एतेनान्धकवृष्णीनां कृतं पुंसवनं महत् । २॥ खेर और देवदारु २॥ सेर और छोड़ना चाहिये । यदि क्रत्वा विष्णोबेलिं चापि तैलमेतत्प्रयोजयेत् ॥२२७ मिलावां सहन न हो (किसीको भिलावां विशेष विकार करता काथे तुलार्ध रास्त्रायाः किलिमस्य च दीयते।। है अतः ऐसे रोगीके लिये यदि बनाना हो ) तो भिलावांके भल्लातकासहत्वे तु तत्स्थाने रक्तचन्दनम् ॥२२८॥ स्थानमें लाल चन्दन छोड़ना चाहिये। तथा दालचीनी, तेजपात, सोवाकी पत्ती, कूठ, चम्पा, गेरू, प्रन्थिपर्ण, जावित्री और त्वक्पत्रं पत्रमधुरीकुष्ठचम्पकगैरिकाः। प्रन्थिकोषो मरुबकमधिकत्वेन दीयते ॥ २२९ ॥ मरुकब भी छोड़ना चाहिये । कपूर और कस्तूरी सिरकेके साथ मिलाकर छोड़ना चाहिये। द्रव्योंकी शुद्धि तथा पाककी विधि कर्पूरमददानं च शुक्तैर्गन्धोदकक्रिया। आगे लिखे प्रसारणी तैलकी भांति करना चाहिये । (तैल द्रव्यशद्धिः पाकविधिभाविप्रसारणीसमः ॥२३०॥पाकमें गन्ध द्रव्य जब तैल परिपक्क होनेके समीप पहुँच जाय तभी छोड़ना उत्तम होगा। क्योंकि पहिले छोड़नेसे गन्ध गन्धप्रसारणीका पञ्चांग १५ सेर, शतावरी ५ सेर, अस उड़ जायगा)॥ २०९-२३०॥ गंध ५ सेर, केवड़ाका पञ्चांग ५ सेर, दशमूलकी प्रत्येक ओषधि ५ सेर, खरेटीका पञ्चांग ५ सेर, पियावाँसा ५ सेर, __ महाराजप्रसारणीतैलम् । 'सब दुरकुचाकर ६४ मन जलमें पकाना चाहिये । २५ सेर ४८ तोला बाकी रहनेपर उतार छानकर क्वाथ अलग करना चाहिये।। शतत्रय प्रसारण्या द्वे च पीतसहाचरात् । फिर इसी क्वाथमें क्वाथसे दूनी काजी तथा १ आढक दहीका अश्वगन्धैरण्डबला वरी रास्ना पुनर्नवा ॥२३१॥ तोड़, दूध १ आढ़क (अर्थात् ६ सेर ३२ तोला०) तथा| केतकी दशमूलं च पृथक्त्वक्पारिभद्रतः । सिरका. ईखका रस तथा बकरका मांस रस प्रत्येक १ आढक, प्रत्येकमेषां तु तुला तुलाधै किलिमात्तथा ॥२३२॥ तैल १ द्रोण अर्थात् २५ सेर ४८ तो० तथा भिलावां, तुलाध स्याच्छिरीषाच्च लाक्षायाः पञ्चविंशतिः। तगर, सोंठ, छोटी पीपल, चीतकी अड़, कचूर, पलानि लोध्राञ्च तथा सर्वमेकत्र साधयेत् ॥२३३ ।। वच, मालतीके फूल, गंधप्रसारणी, पिपरामूल, देवदारु, सौंफ, छोटी, इलायची, कलमी तज, सुगंधवाला, जलपञ्चाटकशते सपादे तत्र शेषयेत् ।। केशर, कस्तूरी, मजीठ, शिलारस, नख, अगर, कपूर, कुंदरुगोंद, द्रोणद्वयं काञ्जिकं च षड्विंशत्याढकोन्मितम् २३४ हल्दी, लवंग रोहिषधास, लालचन्दन, कंकोल, नाड़ी, नागरं- क्षीरदनोः पृथक्प्रस्थान्दश मस्त्वाढकं तथा। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - wwwwwww (१२२) चक्रदत्तः। [ वातव्याध्य -ree इक्षुरसाढको चैव छागमांसतुलात्रयम् ॥ २३५ ॥ ५ सेर, देवदारु २॥ सेर, सिरसाकी छाल २॥ सेर, लाख, १॥ जलपञ्चचत्वारिंशत्प्रस्थान्पक्के तु शेषयेत् । सेर, तथा लोध ११ सेर तथा जल ५२५ आढक अर्थात् ४२ सप्तदशरसप्रस्थान्मञ्जिष्ठाक्वाथ एव च ॥२३६॥ मन मिलाकर पकाना चाहिये, २ द्रोण अर्थात् २५ सेर ४८ कुडवोनाढकोन्मानो द्रवैरतस्तु साधयेत् ।। | तोला शेष रहनेपर उतारकर छान लेना चाहिये । फिर इसमें सुशुद्धतिलतैलस्य द्रोणं प्रस्थेन संयुतम् ॥ २३७॥ काजा २६ आढ़क अर्थात् १ मन ३ सेर १६ तोला छोड़ना काञ्जिकं मानतो द्रोणं शुक्तेनात्र विधीयते।। चाहिये ( यद्यपि यहां काजी २६ आढक लिखी है, तथापि आगे “काजिक मानतो द्रोणम्" इस श्लोकसें पूर्वका खण्डन आद्य एभिर्देवैः पाकः कल्को भल्लातकं कणा।।२३८, कर १ द्रोण ही लिखा है ) अतःकाजी १ द्रोण (१२ सेर ६४ नागरं मरिचं चैव प्रत्यके षटपलोन्मितम् । | तोला), दूध ८ सेर, दही ८ सेर, दहीका तोड़ १ आढ़क भल्लातकासहत्वे तु रक्तचन्दनमुच्यते॥२३९ ॥ (३ सेर १६ तोला ), ईखका रस ६ सेर ३२ तोला, बकपथ्याक्षधात्री सरलं शताह्वा, कर्कटी वचा। |रेका मांस १५ सेर जल ३६ सेरमें पकाकर शेष १७ प्रस्थ चोरपुष्पी शटी मुस्तद्वयं पद्मं च सोत्पलम् ।।२४०॥ अर्थात् १३ सेर ४८ तोला छानकर सिद्ध किया रस, मजी. पीप्पलीमूलमञ्जिष्ठा साश्वगन्धा पुनर्नवा । | ठका काढ़ा ३ सेर तथा तिलतैल १३ सेर ४८ तोला तथा दशमूलं समुदितं चक्रमर्दो रसाञ्जनम् ॥ २४१॥ भिलावां छोटी पीपल, सौंठ, कालीमिर्च प्रत्येक २४ तोला, गन्धतृणं हरिद्रा च जीवनीयो गणस्तथा। भल्लातक यदि बर्दाश्त न हो तो उसके स्थानमें लाल चन्दन एषां त्रिपालिकभागरायः पाको विधीयते ॥२४१।। छोड़ना चाहिये । तथा हर्र, बहेड़ा, आंवला, सरल, सौंफ, | काकड़ाशिंगी, वच, चोरपुष्पी (चोरहुली), कचूर, मोथा, देवपुष्पी बोलपत्रं शल्लकारसशैलजे। नागरमोथा, कमल, नीलोफर, पिपरामूल, मजीठ, असगन्ध, प्रियङ्गशीरमधुरीमांसीदारुबलाचलम् ॥ २४३ ॥ पुनर्नवा मिलित दशमूल, चौड़ा, रसौत, रोहिषघास, हल्दी श्रीवासो नलिका खोटि: | तथा जीवनीयगणकी औषधियां प्रत्येक १२ तोला छोड़कर नखीत्रयं च त्वक्पत्री पमरा पूतिचम्पकम ॥२४४॥ पकाना चाहिये । यह पहिला पाक हुआ। पाक तैयार होजाने पर उतार छानकर फिर कड़ाहामें चढ़ाना चाहिये)। (२) फिर मदन रेणुका स्पृक्का मरुवं च पलत्रयम् । लवङ्ग, बोल, तेजपात, शालका रस, छारछीला, प्रियङ्गु, प्रत्येक गन्धतोयेन द्वितीयः पाक इप्यते ॥ २४५ ॥ खश, सौंफ, जटामांसी, देवदारु, खरेटी, सुनहली चम्पा, गन्धोदकं तु त्वक्पत्रीपत्रकोशीरमुस्तकम् । गंधाविरोजा, नाडीशाक, कुन्दरू खोटी, छोटी इलायची, मुरा, शान पञ्चावशातः ।। २४६ ।। तीन प्रकारका नख, काला जीरा, पमरा ( देवदारुभेद ) खटाशी, कुष्ठार्धभागोऽत्र जलप्रस्थास्तु पञ्चविंशतिः। चम्पा, मैनफल, सम्भालूके बीज, मालतीके फूल, मरुवा अर्घावशिष्टाः कर्त्तव्याः पाके गन्धाम्बुकर्माण।।२४७ | प्रत्येक १२ तोला तथा गंधोदक मिलाकर द्वितीय पाक करना गन्धाम्बुचन्दनाम्बुभ्यां तृतीयः पाक इप्यते । चाहिये । गन्धोदकविधिः-तेजपात, दालचीनी, खश, कल्कोऽत्र केशरं कुष्ठं त्वक्कालीयककुंकुमम ॥२४८ मोथा, खरेटीकी जड़ प्रत्यक १। सेर कूठ १० छ. भद्रश्रियं ग्रन्थिपर्ण लताकस्तूरिका तथा । जल २० सेर मिलाकर पकाना चाहिये, आधा रह लवङ्गागुरुकक्कोलजातीकोषफलानि च ॥३४९॥ जानेपर उतार छान लेना चाहिये । यही गंधोदक एला लवङ्गं छल्ली च प्रत्येकं त्रिपलोन्मितम् ।। छोड़ना चाहिये । इस प्रकार द्वितीय पाक करना चाहिये । फिर (३) गंधोदक तथा चंदनका जल छोड़ तथा नागकेशर, कठ, कस्तूरी चट्पला चन्द्रात् पलं साधै च गृह्यते॥२५०/ दालचीनी, तगर, केशर, चंदन, भटेउर, लताकस्तूरी, लवंग, वेधार्थ च पुनश्चन्द्रमदो देयो तथोन्मितौ। अगर, कंकोल, जावित्री, जायफल, इलायची, लवंग, छल्लीका महाप्रसारणी सेयं राजभोग्या प्रकीर्तिता ॥२५१॥ फूल लवंगके पेड़की छाल प्रत्येक १२ तोला, कस्तूरी २४ तो०, गुणान्प्रसारणीनां तु वहत्येषा बलोत्तमान् । कपूर ६ तोला छोड़कर तृतीय पाक करना चाहिये। इसमें चन्द. नोदकका विशेष वर्णन नहीं है, अतः चंदनका क्वाथ ही तैलसे (१) गध्रप्रसारणीका पञ्चांग १५ सेर, पीले फूलका पियावांसा समान भाग छोड़ना चाहिये। सिद्ध हो जानेपर उतार छानकर १० सेर, असगन्ध, एरण्ड़, खरेटी, शतावरी, रासन, पुनर्नवा, विशेष सुगंधित बनानके लिये कस्तूरी तथा कपूर उतना ही फिर केबड़ा, दशमूलकी प्रत्येक औषधि, नीमकी, छाल, प्रत्येक द्रव्य छोड़ना चाहिये। यह "महाराजप्रसारणी" तैल महाराजाओंके ही लिये बनाया जा सकता है। यह पूर्वोक्त प्रसारणी तैलोंके समय लवजछल्लीति पाठान्तरम् । गुणोंको विशेषताके साथ करता है ।। २३१-२५१॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] .. भाषाटीकोपेतः। शुक्तविधिः। गन्धोया शुध्यते ह्येवं रजनी च विशेषतः । अत्र शुक्तविधिमण्डः प्रस्थः पञ्चाढकोन्मितम् २५२, मुस्तकं तु मनाक् क्षुण्णं काजिके त्रिंदिनोषितम् ।। कालिकं कुडवं दध्नो गुडप्रस्थोऽम्लमूलकात् । । पञ्चपल्लवपानीयस्विन्नमातपशोषितम् । पलान्यष्टौ शोधितात्पलषोडशकं तथा ॥२५३॥ गुडाम्बुना सिच्यमानं भर्जयेच्चूर्णयेत्ततः॥२६२॥ . कणाजीरकसिन्धूत्थहरिद्रामरिचं पृथक् । आजशोभाजनजलैर्भावयेञ्चेति शुध्यति । द्विपलं भाविते भाण्डे घृतेनाष्टदिनस्थितम् ॥२५४॥ काजिके क्वथितं शैलं भृष्टपथ्यागुडाम्बुना॥२६३॥ सिद्धं भवति तच्छुक्तं यदा विस्राव्य गृह्यते । | सिञ्चदेवं पुनः पुष्पैर्विविधैरधिवासयेत् । सदा देयं चतुतिं पृथक्कर्षत्रयोन्मितम् ॥ २५५ ॥j मांड ६४ तोला, काजी १६ सेर, दही १६ तोला, गुड ६४| गोमूत्र, मुण्डीके क्वाथ तथा पञ्चपल्लवके जलमें पकाकर फिर तोला, खट्टी मूली ३२ तोला, अदरख छिली हुई ६४ तोला, गन्धोदक द्वारा बाप्पस्वेदसे स्वेदन करना चाहिये,इस प्रकार "वच" छोटी पीपल, जीरा, सेंधानमक, हल्दी, कालीमिर्च प्रत्येक आर "हल्दा" शुद्ध होती हैं । माथाको दुरकुचाकर काजीमें ३ ८ तोला सब एकमें मिलाकर घीसे भावित बर्तनमें ए दिनतक दिन रखना चाहिये, फिर पञ्चपल्लवके जलमें दोलायन्त्रसे स्वेदित रखना चाहिये, फिर इसे छानकर इसमें दालचीनी, तेजपात, कर धूपमें सुखाना चाहिये। फिर गुड़का शर्बत छोड़कर पकाना इलायची, नागकेशर प्रत्येक ३ तोले छोडने चाहियें यह शक्ताचाहिये । शर्बत जल जानेपर उतार महीन चूर्णकर बकरके मत्र हुआ । यही काजीके स्थानमें महाराजप्रसारणीतैलमें छोड़ना तथा सहिजनके क्वाथमें भावना देनी चाहिये । इस प्रकार चाहिये। इस तैलमें द्रवद्वैगुण्यकी परिभाषाके अनुसार समस्त द्रव | "मोथा"शुद्ध होता है। शिलारसको काजीमें पकाना चाहिये, फिर द्रव्य (क्वाथ व तेलादि) द्विगुण छोड़न चाहिये ॥२५२-२५५॥ भुनी छोटी हरे व गुड़के जलमें मिलाना चाहिये । फिर अनेक सुगन्धित पुष्पोंसे अधिवासित करना चाहिये ॥२६०-२६३॥ गन्धानां क्षालनम्। पूतिशोधनम् । पञ्चपल्लवतोयेन गन्धानां क्षालनं तथा । शोधनं चापि संस्कारो विशेषश्चात्र वक्ष्यते॥२५६॥ यथालाभमपामार्गस्नुह्यादिक्षारलेपितम् ॥ २६४ ॥ गन्धद्रव्योंका क्षालन, शोधन तथा संस्कार पञ्चपल्लवसे सिद्ध | बाष्पस्वेदेन संस्वेद्य पूर्ति निर्लोमतां नयेत् । जलसे करना चाहिये । विशेष आगे लिखेंगे ॥ २५६ ॥ दोलापकं पचेत्पश्चात्पञ्चपल्लववारिणि ।। २६५ ॥ खलः साधुमिवोत्पीड्य ततो निःस्नेहतां नयेत् । पञ्चपल्लवम् । आजशोभाजनजलैर्भावयेच्च पुनः पुनः ॥ २६६॥ आम्रजम्बूकपित्थानां बीजपूरकबिल्वयोः । शिमूले च केतक्याः पुष्पपत्रपुटे च तम् । गन्धकमणि सर्वत्र पत्राणि पञ्चपल्लवम् ॥२५७ ॥ पचेदेवं विशुद्धः सन्मृगनामिसमो भवेत् ॥२६७॥ आम, जामुन, कैथा, बिजौरा तथा बेलके पत्ते गन्धादि कर्ममें “पञ्चपल्लव" नामसे लेना चाहिये ॥ २५७ ॥ खट्टाशी (गन्धमार्जाराण्ड ) को अपामार्गादि जितने क्षार मिल सके उनसे लेप कर पञ्चपल्लवके जलमें (दोलायन्त्रसे) नखशुद्धिः। स्वेदन करना चाहिये । फिर लोम साफ कर देना चाहिये । फिर चण्डीगोमयतोयेन यदि वा तिन्तिडीजलैः।। पश्चपल्लवके क्वाथमें पका निचोड़कर निस्नेह करना चाहिये । फिर • नखं संक्वाथयेदेमिरलाभे मृण्मयेन तु ॥ २५८ ॥ | अजमूत्र तथा सहिजनके क्वाथमें ७ भावनायें देनी चाहिये । पुनरुद्धृत्य प्रक्षाल्य भर्जयित्वा निषेचयेत् ।। फिर सहिजनके क्वाथमें केवड़ेके पुष्प वा पत्रोंके सम्पुट में रखकर गुडपथ्याम्बुना ह्येवं शुध्यते नात्र संशयः ॥२५९॥ पकाना चाहिये । इस प्रकार "खट्टाशी" शुद्ध होकर कस्तूरीके भैंसके गोबरके रस अथवा इमलाके काथ अथवा मिट्टी समान होती है ॥ २६४-२६७॥ मिले पानीसे नख पकाना चाहिये। फिर निकालकर धोना तुरुष्कादिशोधनम्। चाहिये। फिर तपाकर गुड़ मिले छोटी हर्रके काढ़ेमें बुझाना तुरुष्कं मधुना भाव्यं काश्मीरं चापि सर्पिषा । चाहिये ॥ २५८ ॥२५९ ॥ रुधिरेणायसं प्रा.गोमूत्रैर्ग्रन्थिपर्णकम् ॥२६८॥ वचाहरिद्रादिशोधनम् । मधूदकेन मधुरी पत्रकं तण्डुलाम्बुना। गोमूत्रे चालम्बुषके पक्त्वा पञ्चदलोदके। __ तुरुष्ककी शहदसे भावना, केशरकी घीसे भावना, केशरके पुनः सुरभितोयेन बाष्पस्वेदेन स्वेदयेत् ॥ २६०॥ जलसे अगरकी भावना, गोमूत्रसे भटेउरकी भावना, शहदके Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वातन्याध्य जलसे सौंफकी, चावलके जलसे तेजपातकी भावना देनी महासुगन्धितैलम् । चाहिये ॥२६८॥ जिङ्गीचोरकदेवदारुसरलं व्याघ्रीवचा चेलककस्तूरीपरिक्षा। त्वपत्रैः सह गन्धपत्रकशटीपथ्याक्षधात्रीचनैः। एतैः शोधितसंस्कृतैः पलयुगेत्याख्यातया संख्यया : ईषत्क्षारानुगन्धा तु दग्धा याति न भस्मताम् २६९ पीता केवकगन्धा च लघुस्निग्धा मृगोत्तमा । तैलप्रस्थमवास्थितैः स्थिरमति:कल्कैः पचेगान्धिकम् मांसीमुरामदनचम्पकसुन्दरीत्वक्जिसका केवड़ेके समान गंध तथा कुछ क्षार अनुगन्ध हो प्रन्थ्यम्बुरुङ्मरुबकैपिलैः सपृक्कैः । और जलानेसे भस्म न हो, रगड़नेसे पीली, हल्की तथा चिकनी श्रीवासकुन्दुरुनखीनलिकामिषीणां हो, वह कस्तूरी उत्तम होती है ॥ २६९ ॥ प्रत्येकतः पलमुपाय्य पुनः पचेत्तु ॥२७८ ।। कर्पूरश्रेष्ठता। एलालवङ्गचलचन्दनजातिपूतिपक्कात्कर्पूरतः प्राहुरपक्कं गुणवत्तरम् ।। २७० ॥ कक्कोलकागुरुलताघुसृणैः पलाधैः । तत्रापि स्याद्यदक्षुद्रं स्फटिकाभं तदुत्तमम् । कस्तूरिकाक्षसहितामलदीप्तियुक्तैः पक्कं च सदलं स्निग्धं हरितद्युति चोत्तमम् ॥२७१॥ पक्वं तु मन्दशिखिनैव महासुगन्धम् ॥ २७९ ॥ भने मनागपि न चेन्निपतन्ति ततः कणाः। '| पञ्चद्विकेन चान मदात्कर्पूरमिष्यते । कर्पूरमदयोरध पत्रकल्कादिहेष्यते ॥ २८०॥ पकाये कपूरकी अपेक्षा विना पका अच्छा होता है । कच्चा | (१) मजीठ, भटेड़ा, देवदारु, धूपसरल, छोटी कटेरी, कपर भी जो चूरा न हो तथा स्फटिकके समान साफ हो, वह दूधिया वच, सुपारीकी छाल, तेजपात, गन्धपत्र ( यूकेलिअच्छा होता है। पकाया हुआ भी दलके सहित, चिकना,प्टस ), कचूर, हर, बहेड़ा, आंवला, नागरमोथा यह प्रत्येक हरितवर्णयक्त और टूटनेसे यदि कुछ भी कण अलग न हो, वह पूर्वोक्त शोधनादिसे शुद्ध कर १६ तोला सब मिले हुए उत्तम होता है ॥२७०-२७२ ॥ कल्क बनाकर १ प्रस्थ (१ सेर ४८ तो०) तैलमें चतुर्गुण पञ्चपल्लवोदक छोड़कर पकाना चाहिये । प्रथम पाक हो कुष्ठादिश्रेष्ठता। जानेपर (२) तैलसे चतुर्गुण गन्धोदक तथा मांसी, मुरा, देवना, चम्पा, प्रियंगु, दालचीनी, पिपरामूल, सुगन्धवाला, कूठ, मरुवा मृगशृङ्गापमं कुष्ठं चन्दनं रक्तपीतकम् ॥ २७२॥ | तथा मालतीके फूल सब मिलाकर ८ तोला, तार्पिन, गन्धाकाकतुण्डाकृतिः स्निग्धो गुरुश्चैवोत्तमोऽगुरुः। विरोजा, नखनखी, नाड़ी तथा सौंफ प्रत्येक ४ तोलाका कल्क स्निग्धाल्पकेशरं त्वत्रं शालिजो वृत्तमांसलः॥२७३॥ छोड़कर फिर पकाना चाहिये । यह द्वितीय पाक हुआ। फिर (३) वरा प्रोक्ता मांसी पिङ्गजटाकृतिः। तैलसे चतुर्गुण गन्धोदक अथवा गन्ध द्रव्योंसे धूपित जल रेणुका मुद्गसंस्थाना शस्तमानूपजं घनम् ॥ ३७४॥ तथा इलायची, लौंग, सुनहली चम्पा, चन्दन, जावित्री, खट्टाशी, जातीफलं सशब्दं च स्निग्धं गुरु च शस्यते । कंकाल, अगर, लताकस्तूरी, केशर, कस्तूरी, बहेड़ा, आंवला, एला सूक्ष्मफला श्रेष्टा प्रियङ्गु श्यामपाण्डरा २७५ अजवाइन प्रत्येक २ तोला, मिलाकर मन्द आंचसे पकाना चाहिये । इसमें कस्तूरीसे पञ्चमांश कपूर मिलाना चाहिये । नखमश्वखुरं हस्तिकणे चैवात्र शस्यते । कस्तूरी और कपूरसे आधा इसमें पत्र कल्क छोड़ना एतेषामपरेषां च नवता प्रबलो गुणः ॥२७६ ॥ चाहिये ॥ २७७-२८०॥ कूठ, मृगके सींगके समान, लाल, पीला चन्दन, कौआकी | पत्रकल्कविधिः। चोंचकी आकृतिवाला तथा भारी अगर उत्तम होता है। चिकना पकपूतेऽप्युष्ण एव सम्यक्पेषणवर्तितम् । तथा पतली केशरवाला केशर, पूति गोल तथा मोटी, मुरा दीयते गन्धवृद्धयर्थ पत्रकल्कं तदुच्यते ॥ २८१ ॥ पीली तथा मांसी पिलाई लिये हुए उत्तम होती है। सम्भालूके पक जानेपर छानकर गरममें ही पीसकर जो द्रव्य गन्धबीज मूंगके बराबर तथा आनूपस्थलका नागरमोथा, जायफल घृद्धि के लिये छोड़े जाते हैं वे “पत्रकल्क' कहे जाते हैं ॥२८१॥ शब्द करनेवाला भारी तथा चिकना, छोटे फलवाली इलायची, प्रियंगु आसमानी तथा सफेद पीली, नख अश्वखुर तथा हस्ति लक्ष्मीविलासतैलम् । कर्णके सदृश, उत्तम होते हैं । यह तथा अनुक्त नवीन ओषधियां प्रागुक्ती शुद्धिसंस्कारो गन्धानामिह तैः पुनः। अधिक उत्तम होती हैं ॥२७२-२७६ ॥ द्विगुणैर्लक्ष्मीविलासः स्यादयं तैलेषु सत्तमः।।२८२॥ मुरापीता व Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषादीकोपेतः । धिकारः ] पहिले गन्धद्रव्यों के जो शोधन तथा संस्कार बताये हैं, उनसे शुद्ध तथा मात्रामें जो पत्रकल्क महाराज प्रसारणीतैलमें लिखा है, उससे दूना महासुगन्ध तैलमें छोड़नेसे “लक्ष्मीविलास ” तैल बनता है ॥ २८२ ॥ द्रवदानपरिभाषा | पचपत्राम्बुना चाद्य द्वितीयो गन्धवारिणा । तृतीयोऽपि च तेनैव पाको वा धूपिताम्बुना ||२८३ पहिला पाक पञ्चपलवोदकसे द्वितीय पाक गन्धोदकसे तथा तृतीय पाक भी गन्धोदक अथवा धूपित जलसे करना चाहिये ॥ २८३ ॥ अनयोर्गुणाः । तैलयुग्ममिदं तूर्ण विकारान्वातसम्भवान् । क्षपयेज्जनयेत्पुष्टिं कान्ति मेधां धृतिं धियम् ॥ २८४॥ यह दोनों तैल वातरोगों को शीघ्र ही नष्ट करते तथा पुष्टि, कान्ति, मेधा, धैर्य व बुद्धि बढ़ाते हैं ॥ २८४ ॥ विष्णुतैलम् । शालपर्णी पृश्निपर्णी बला च बहुपुत्रिका । एरण्डस्य च मूलानि बृहत्योः पूतिकस्य च ॥ २८५ गवेधुकस्य मूलानि तथा सहचरस्य च । एषां तु पैलिकैः कल्केस्तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ २८६ आजं वा यदि वा गव्यं क्षीरं दद्याच्चतुर्गुणम् । अस्य तैलस्य कस्य शृणु वीर्यमतः परम् ॥ २८७ अश्वानां वातभग्नानां कुञ्जराणां तथा नृणाम् । तैलमेतत्प्रयोक्तव्यं सर्वव्याधिनिवारणम् ॥ २८८ ॥ आयुष्मांश्च नरः पीत्वा निश्चयेन दृढो भवेत् । गर्भमश्वतरी विन्द्यात्किम्पुनर्मानुषी तथा ॥ २८९ ॥ 'हृच्छूलं पार्श्वशूलं च तथैवार्द्धावभेदकम् । कामलापाण्डुरोगघ्नं शर्कराश्मरिनाशनम् ॥ २९० ॥ क्षीणेन्द्रिया नष्टशुक्रा जरया जर्जरीकृताः । येषां चैव क्षयो व्याधिरन्त्रवृद्धिश्च दारुणा ||२९१॥ अर्दितं गलगण्डं च वातशोणितमेव च । स्त्रियो या न प्रसूयन्ते तासां चैव प्रयोजयेत् । एतद्धन्यं वरं तैलं विष्णुना परिकीर्तितम् ॥ २९२ ॥ शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, खरैटी, शतावर, एरण्डकी जड़, छोटी कटेरी तथा बड़ी कटेरीकी जड़, पूतिकरञ्जकी जड़की छाल, कंघी की जड़ तथा कटसरैयाकी जड़ प्रत्येक ४ तोले ले कल्क बना १ सेर ९ छटांक ३ तोला तिलतैल तथा ६ सेर ३२ तो० गाय अथवा बकरीका दूध तथा इतना ही जल मिलाकर सिद्ध ( १२५ ) करना चाहिये । इस तैलकी शक्ति वर्णन करते हैं । सुनो-वातसे पीड़ित घोड़े, हाथी तथा मनुष्यों को इस तैलका प्रयोग करना चाहिये । यह समस्त रोगोंको नष्ट कर देता है । आयुष्मान् तथा दृढ़ बनाता है। इससे खच्चरी ( जिसके गर्भ रहता ही नहीं ) के भी गर्भ रह सकता है । फिर स्त्रियोंके लिये क्या कहना ? यह हृदयके दर्द, पसलियोंके दर्द तथा अर्धावभेदको नष्ट करता है । तथा कामला, पाण्डुरोग, शर्करा व अश्मरीको नष्ट करता है। जिनकी इन्द्रियां शिथिल हो गयी हैं, वीर्य, नष्ट हो चुका है, वृद्धावस्था से जर्जर हो रहे हैं, जिनके क्षय अथवा अन्त्रवृद्धि, अर्दित, गलगण्ड तथा वातरक्तरूपी कठिन रोग हैं। तथा जिन स्त्रियोंके सन्तान नहीं होती, उनके लिये इसका प्रयोग करना चाहिये। यह धन्यवादाह श्रेष्ठ तैल विष्णु भगवानूने कहा है ।। २८५-२९२ ॥ इति वातव्याध्यधिकारः समाप्तः । अथ वातरक्ताधिकारः । बाह्यगम्भीरादिचिकित्सा । बाह्यं लेपाभ्यङ्गसेकोपनाहैवतिशोणितम् । विरेकास्थापनस्नेहपानर्गम्भीरमाचरेत् ॥ १ ॥ द्वयोर्मुश्वेदसृक् शृङ्गसूच्यलाबुजलोकसा | देशाद्देशं व्रजेत् स्राव्यं शिराभिः प्रच्छनेन वा । अङ्गग्लानी च न स्राव्यं रूक्षे वातोत्तरे च यत् ॥२॥ उत्तान वातरक्तको लेप, अभ्यङ्ग, सेक तथा उपनाहसे और गम्भीरको विरेचन, आस्थापन तथा स्नेहपनसे दूर करना चाहिये । दोनों प्रकारक वातरक्त में शृंग, सूची, तोम्बी अथवा जोंक, द्वारा रक्त निकलवा देना चाहिये । जो एक स्थानमें फैल रहा हो उसे शिराव्यधद्वारा अथवा पछने लगा खून निकालकर लगा खून निकालकर शान्त करना चाहिये । पर यदि रोगी शिथिल अथवा वाताधिक्यसे रूक्ष हा, तो रक्त न निकालना चाहिये ॥ १ ॥ २ ॥ अमृतादिकाथद्वयम् । अमृतानागरधन्याककर्षत्रयेण पाचनं सिद्धम् । जयति सरक्तं वातं सामं कुष्ठान्यशेषाणि ॥ ३ ॥ वत्सादन्युद्भवः काथः पीतो गुग्गुलुसंयुतः । समीरणसमायुक्तं शोणितं संप्रसाधयेत् ॥ ४ ॥ (१) गुर्व, सोंठ तथा धनियां प्रत्येक १ तोला ले क्वाथ बनाकर पीनेसे आमसहित वातरक्त तथा समस्त कुष्ठोंको नष्ट करता है । इसी प्रकार ( २ ) कवल गुर्वका क्वाथ गुग्गुलुके साथ पीनेसे वातरक्तको अवश्य नष्ट करता हैं ॥ ३ ॥ ४ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। - [बातरक्ता वासादिकाथः। वातप्रधानचिकित्सा। दशमलीशृतं क्षीरं सद्यः शलनिवारणम । बासागुडूचितुरङ्गुलानामेरण्डतैलेन पिबत्कषायम् । परिषेकोऽनिलप्राय तद्वत्कोष्णेन सर्पिषा ॥ १०॥ क्रमेण सर्वाङ्गजमप्यशेष दशमूलसे सिद्ध दूध शीघ्र ही शुलको नष्ट करता है। इसी जयेदमृग्वातभवं विकारम् ॥ ५॥ प्रकार वातप्रधानमें गुनगुने घीसे सेक करना चाहिये ॥ १०॥ अडूसा, गुर्च तथा अमलतासके गूदाका क्वाथ एरण्डतैल| पित्तरक्ताधिक्ये पटोलादिकाथः । मिलाकर पीनेसे समस्त शरीरमें भी फैला हुआ वातरक्त नष्ट | पटोलकटकाभीरुत्रिफलामृतसांधितम् । होता है ॥ ५॥ काथं पीत्वा जयेजन्तुः सदाहं वातशोणितम् ॥११॥ मुण्डितिकाचूर्णम् । परवलके पत्ते, कुटकी, शतावरी, त्रिफला तथा गुर्चसे लीढ्वा मुण्डितिकाचूर्ण मधुसर्पिःसमन्वितम्। सिद्ध किया गया क्वाथ पीनेसे दाहके सहित वातरक्तको नष्ट छिन्नाकाथं पिबन्हन्ति वातरक्तं सुदुस्तरम् ॥६॥ करता है ॥ ११ ॥ मुण्डकि चूर्णको शहद और घौके साथ चाटकर ऊप-1 लेपसेकाः। रसे गुर्चका काढा पीनेसे कठिन वातरक्त निसन्देह नष्ट गोधूमचूर्णाजपयो घृतं वा होता है ॥६॥ ___ सच्छागदुग्धो रुबुबीजकल्कः । पथ्याप्रयोगः। लेपे विधेयं शतधौतसर्पिः तिस्रोऽथवा पञ्च गुडेन पथ्या सेके पयश्चाविकमेव शस्तम् ॥ १२॥ जग्ध्वा पिबेच्छिन्नरहाकषायम् । लेपः पिष्टास्तिलास्तद्वद् भृष्टाः पयसि निर्वृताः। तद्वातरक्तं शमयत्युदीर्ण गेहूँका आटा, बकरीका दूध और घी अथवा बकरीके माजानुसंभिन्नमपि ह्यवश्यम् ॥७॥ दूधके साथ एरण्डबीजका कल्क अथवा सौबार धोये हुए घोका लेप करना चाहिये । तथा बकरीके दूधका सेक करना ३ अथबा ५ छोटी हरड़ोंका चूर्ण गुड मिला खाकर चाहिये । इसी प्रकार तिल पीस भून दूधमें पकाकर लेप करना ऊपरसे गुर्चका क्वाथ पीनसे जानुपर्यन्त भी फैला हुआ वात-चाहिये ॥ १२॥ रक्त शान्त होता है ॥७॥ कफाधिक्यचिकित्सा। गुडूचीप्रयोगा। कटुकामृतयष्टयाशुण्ठीकल्कं समाक्षिकम् ॥१३॥ घृतेन वातं संगुडा विबन्ध गोमुत्रपीतं जयति सकर्फ वातशोणितम् । पित्तं सिताढथा मधुना कर्फ वा। धात्रीहारद्रामुस्तानां कषायो वा कफाधिके ॥१४॥ वातासृगुमं रुबुतैलमिश्रा कोकिलाक्षामृताकाथे पिबेत्कृष्णां कफाधिके । शुण्ठयामवातं शमयेद् गुडूची ॥८॥ पथ्यभोजी त्रिसप्ताहान्मुच्यते वातशोणितात्॥१५॥ (१)गुडूची घीके साथ वायुको, (२)गुड़के साथ विबन्ध | कफरक्तप्रशमनं कच्छ्रवीसर्पनाशनम् । (मलावरोध ) को, (३) मिश्रीके साथ पित्त, (४) शहदके साथ | वातरक्तप्रशमनं हृद्यं गुडघृतं स्मृतम् । कफ, (५) एरण्डतेलके साथ वातरक्त तथा (६) सोंठके साथ कुटकी, गुच, मौरेठी तथा सोंठका कल्क शहदके साथ चाटआमवातको नष्ट करती है ॥८॥ कर ऊपरसे गोमूत्र पीनेसे सकफ वातरक्त नष्ट होता है । गुडूच्याश्चत्वारो योगाः। अथवा आंवला, हल्दी, व नागरमोथाका क्वाथ अथवा तालगुडूच्याः स्वरसं कल्कं चूर्ण वा काथमेव वा। मखाना व गुचका क्वाथ पीपलका चूर्ण छोड़कर पानसे और प्रभूतकालमासेव्य मुच्यते वातशोणितात् ॥९॥ पथ्यसे रहनेसे २१ दिनमें कफ-प्रधान वातरक्त नष्ट हो जाता है । इसी प्रकार गुड़ मिलाकर घी खानेसे कफज वात(१) गुर्चका स्वरस, (२) कल्क, (३) चूर्ण या (४) क्वाथ रक्त कच्छू तथा विसर्प शान्त होते तथा हृदय बलवान अधिक समयतक सेवन करनेसे वातरक्त नष्ट हो जाता है ॥९॥ होता है ॥ १३-१५॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिकारः] भाषाटीकोतः। (१२७) FF w संसर्गसन्निपातजचिकित्सा। शतावरीघृतम् । संसर्गेषु यथोद्रेक मित्रं वा प्रतिकारयेत् ॥ १६॥ शतावरीकल्कगर्भ रसे तस्याश्चतुर्गुणे। सर्वेषु सगुडां पथ्यां गुडूचीकाथमेव वा। क्षीरतुल्यं घृतं पकं वातशोणितनाशनम् ॥२२॥ पिप्पलीवर्धमानं वा शीलयेत्सुसमाहितः ॥ १७ ॥ शतावरीका कल्क चतुर्थांश और रस चतुर्गुण तथा समान इन्द्रजमें जो दोष बढा हुआ हो उसकी प्रधान चिकित्सा भाग दूध मिलाकर सिद्ध किया गया घृत वातरक्तको नष्ट करता अथवा मिलित चिकित्सा करनी चाहिये। सनिपातजमें गुड़के है॥ २२॥ साथ हर अथवा गुर्चका काढ़ा अथवा वर्द्धमान पिप्पलीका अमृताचं घृतम् । प्रयोग करना चाहिये * ॥ १६ ॥१७॥ अमृता मधुकं द्रौक्षा त्रिफला नागरं बला । . नवकार्षिक: क्वाथः। वासारग्वधवृश्चीरदेवदारुत्रिकण्टकम् ॥ २३ ॥ त्रिफलानिम्बमजिष्ठावचाकटुकरोहिणी। कटुका शवरी कृष्णा काश्मर्यस्य फलानि च । रास्ताक्षरकगन्धर्ववृद्धदारघनोत्पलैः। वत्सादनीदारुनिशाकषायो नवकार्षिकः ॥ १८ ॥ कल्कैरेभिः समैः कृत्वा सर्पिःप्रस्थं विपाचयेत् ॥३४ वातरक्तं तथा कुष्ठं पामानं रक्तमण्डलम् । धात्रीरसं समं दत्त्वा वारि त्रिगुणसंयुतम् । कुष्ठं कापालिकाकुष्ठं पानादेवापकर्षति ॥ १९ ॥ पञ्चरक्तिकमाषेण कार्योऽयं नवकार्षिकः । सम्यक् सिद्धं तु विज्ञाय भोज्ये पाने च शस्यते२५ किंत्वेवं साधिते काथे योग्यमात्रा प्रदीयते ॥२०॥ बहुदोषान्वितं वातं रक्तेन सह मूर्छितम् । उत्तानं चापि गम्भीरं त्रिकजसोरुजानुजम् ॥२६॥ त्रिफला, नीमकी छाल, मञ्जीठ, वच, कुटकी, गुर्च, क्रोष्टशीर्षे महाशूले चामवाते सुदारुणे। हल्दी एक एक कर्ष पारिमित इन नौ औषधियोंका बनाया नेव वातरोगोपसृष्टस्य वेदनां चातिदुस्तराम् ॥ २७ ॥ कर्षका क्वाथ पीनेसे वातरक्त, कुष्ठ, पामा, लाल चकत्ते, कापा मूत्रकृच्छ्रमुदावर्त प्रमेहं विषमज्वरम् ।। लिक कुष्ट नष्ट होते हैं। यह पांच रत्तिके माषासे नव कर्ष लेकर क्वाथ बनाना चाहिये और इस प्रकार सिद्ध क्वाथ भी उचित । एतान्सान्निहन्त्याशु वातपित्तकफोत्थितान् ॥२८॥ मात्रामें ही पीना चाहिये॥१८-२०॥ सर्वकालोपयोगेन वर्णायुबलवर्धनम् । अश्विभ्यां निर्मितं श्रेष्ठं घृतमेतदनुत्तमम् ॥ २९ ॥ गुडूचीघृतम्। गुर्च, मौरेठी, मुनक्का, त्रिफला, सोंठ, खरेटी, अइसाके गुडूचीकाथकल्काभ्यां सपयस्क शृतं घृतम् । फूल, अमलतासका गुदा, पुनर्नवा, देवदारु, गोखरू कुटकी, हन्ति वातं तथा रक्तं कुष्ठं जयति दुस्तरम् ॥२१॥ हल्दी, छोटी पीपल, खम्भारके फल, रासन, तालमखाना, गुर्चका क्वाथ व कल्क तथा दूध मिलाकर सिद्ध किया गया एरण्डकी छाल, विधारा, नागरमोथा, नीलोफर सब समान भाग ले कल्क कर छोड़ना चाहिये, तथा आंवलेका रस १ प्रस्थ तथा घृत वातरक्त तथा कुष्ठको नष्ट करता है ॥२१॥ घी १ प्रस्थ और जल ३ प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये, ठीक सिद्ध हो जानेपर उतार छानकर पीना चाहिये। तथा भोजनके * गुडूचीतैलम्-" गुडूचीक्काथकल्काभ्यां पचेत्तैलं तिलस्य | साथ प्रयोग करना चाहिये । बहुदोषयुक्त, उत्तान तथा गहरा च। पयसा च समं पक्त्वा भिषङ्मन्देन वह्निना ॥ हन्ति वातं तथा त्रिक, जंधा, ऊरु, जानुतक फैला हुआ वातरक्त इससे तथा रक्तं कुष्ठं जयति दुस्तरम् । त्वग्दोष व्रणवीसपैकण्डूदवि नष्ट होता है। तथा कोष्टुकशीर्ष,आमवात, वातव्याधिकी पीड़ा, नाशनम् ॥" गुर्चका क्वाथ तथा कल्क तथा समान भाग दूध मूत्रकृच्छ्र, उदावर्त, प्रमेह, विषमज्वर आदि वात, पित्त, कफके मिलाकर तिल तेल मन्द आंचसे वैद्यको पका लेनी चाहिये । समस्त रोगांको शीघ्र ही नष्ट करता है। हर समय प्रयोग यह तैल · वातरक्त, कुष्ट, त्वग्दोष, व्रण, वीसर्प, कण्डू करते रहनेसे वर्ण, आयु तथा बलकी वृद्धि होती है । भगवान्, तथा दनुको नष्ट करता है । अश्विनीकुमारने यह घृत बनाया है ॥२३-२९॥ . १इसे प्रन्थान्तरमें "भजिष्ठादिकाथ"के नामसे लिखा है, इसमें बलाबलके अनुसार आधी छंटाकसे, छटाकतक क्वाथ्य द्रव्य दशपाकबलातैलम् । छोड़कर क्वाथ बनाकर पिलाना चाहिये । इसके पनिसे ४ या ५ बलाकषायकल्काभ्यां तैलं क्षीरचतुर्गुणम् । . तक दस्त प्रतिदिन आते हैं। दशपाकं भवेदेतद्वातामृग्वातपित्तजित् ॥३०॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) धन्यं पुंसवनं चैव नराणां शुक्रवर्धनम् । रेतोयोनिविकारन्नमेतद्वातविकारनुत् ॥ ३१ ॥ खरेटीका क्वाथ तथा कल्क और घीसे चतुर्गुण दूध मिलाकर तैल पकाना चाहिये, एक बार पक जानेपर फिर उतार छानकर इसी क्रमसे क्वाथ, कल्क व दूध मिलाकर पकाना चाहिये, इस प्रकार दश वार पकाना चाहिये । इसमें क्वाथ प्रतिवार घीसे चतुर्गुण ही छोड़ना चाहिये । यह तैल वातरक्त तथा वातपित्तको नष्ट करता, वीर्य व, पुरुषत्वको बढ़ाता, वात रोग तथा शुक्र और रजके दोषों को नष्ट करता है ॥ ३० ॥३१॥ चक्रदत्तः । गुडूच्यादितैलम् । गुडूचीका दुग्धाभ्यां तैलं लाक्षारसेन वा । सिद्धं मधुक काश्मर्यरसैर्वा वातरक्तनुत् ॥ ३२ ॥ गुचेके काढ़े और दूधके साथ अथवा लाखके रसके साथ अथवा मौरेठी व खम्भारके रसके साथ सिद्ध तैल वातरक्तको नष्ट करता है ॥ ३२ ॥ खुड्डाकपद्मकतैलम् । पद्मकोशीरयष्टयाहारजनाक्काथसाधितम् । स्यात्पिष्टैः सर्जमञ्जिष्ठावी काकोलिचन्दनैः । खुड्डाकपद्मकमिदं तैलं वातास्रदोषनुत् ॥ ३३ ॥ पद्माख खश, मौरेठी व हल्दीका क्वाथ तथा राल, मजीठ, शीरकाकोली, काकोली, व चन्दनसे सिद्ध किया गया तैल खुड्डाक- पद्मक " तैल कहा जाता है और वात रक्तको नष्ट करता है ॥ ३३ ॥ 66 नागबलातैलम् । शुद्धां पचेन्नागबलातुलां तु विस्राव्य तैलाढकमत्र दद्यात् । अजापयस्तुल्यविमिश्रितं. तु नतस्य यष्टीमधुकस्य कल्कम् ॥ ३३ ॥ पृथक्पचेत्पञ्चपलं विपक्कं तद्वातरक्तं शमयत्युदीर्णम् । वस्तिप्रदानादिह सप्तरात्रात् पीतं दशाहात्प्रकरोत्यरोगम् ॥ ३५ ॥ तुलाद्रव्ये जलद्रोणो द्रोणे द्रव्यतुला मता । [ वातरक्ता ७ दिन तथा पानसे १० दिनमें आरोग्यकर है। तुला अर्थात् ४०० तोलेभर द्रव्यमें एक द्रोणें जल इसी प्रकार १ द्रोण जलमें १ तुला द्रव्य छोड़ना चाहिये ॥ ३४-३५ ॥ - पिण्डतैलत्रयम् । समधूच्छिष्टमञ्जिष्ठं ससर्जरसशारिवम् । पिंडतैलं तदद्भ्यङ्गाद्वातरक्तरुजापहम् ॥ ३६ ॥ शारिवासर्जमञ्जिष्ठायष्टी सिक्थैः पयोऽन्वितैः । 'तैलं पक्कं विमञ्जिष्ठैः रुबोर्वा वातरक्तनुत् ॥ ३७ ॥ (१) मोम, मीठ, राल और शारिखाका कल्क तथा जल मिलाकर सिद्ध किया गया तैल वातरक्तको नष्ट करता है। इसी प्रकार ( २ ) शारिवा, राल, मजीठ, मौरेठी व मोमका कल्क व दूध 'मिलाकर पकाया गया तैल अथवा (३) मजीठके बिना और सब होता है । यह " पिंड़तेल " है ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ चीजें मिलाकर पकाया गया एरण्डतैल लगानेसे वातरक्त नष्ट י कैशोर गुग्गुलुः । वरमहिषलोचनोदरसन्निभवर्णस्य गुग्गुलोः प्रस्थम् । प्रक्षिप्य तोयराशी त्रिफलां च यथोक्तपरिमाणाम् ३८ द्वात्रिंशच्छिन्नरुहापलानि देयानि यत्नेन । विपचेदप्रमत्तो दर्व्या संघट्टयन्मुहुर्यावत् ॥ ३९ ॥ अर्धक्षयितं तोयं जातं ज्वलनस्य सम्पर्कात् । अवतार्य वस्त्रपूतं पुनरपि संसाधयेदयःपात्रे ॥४०॥ सान्द्रीभूते तस्मिन्नवतार्य हिमोपलप्रख्ये । त्रिफला चूर्णार्थपलं त्रिकटोश्चूर्ण षडक्षपरिमाणम् ४१ क्रिमिरिपुचूर्णार्धपलं कर्षकर्ष त्रिवृदन्त्योः । पलमेकं च गुडूच्याः सर्पिषश्च पलाष्टकं क्षिपेदमलम् । उपयुज्य चानुपानं यूषं क्षीरं सुगन्धि सलिलं च । इच्छाहारविहारी भेषजमुपयुज्य सर्वकालमिदम् ४३ तनुरोधि वातशोणितमेकजमथ द्वन्द्वजं चिरोत्थं च । जयति स्रुतं परिशुष्कं स्फुटितं चाजानुजं चापि ४४ व्रणका सकुष्ठ गुल्मश्वयथूदर पांडुमेहांश्च । मन्दाग्निं च विबन्धं प्रमेहपिडकांश्च नाशयत्याशु ४५ सततं निषेव्यमाणः कालवशाद्धन्ति सर्वगदान् । आभभूय जरादोषं करोति कैशोरकं रूपम् ॥४६॥ प्रत्येक त्रिफलाप्रस्थो जलं तत्र षडाढकम् । गुडवद् गुग्गुलोः पाकः सुगन्धिस्तु विशेषतः ॥४७॥ साफ नागबलाका पञ्चाङ्ग ५ सेर, २५ सेर ४८ तोला जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थांश रहनेपर उतार छानकर १ आढ़क उत्तम भैंसके नेत्र तथा उदरके समान नीला तथा कुछ अर्थात् ६ सेर ३.२ तोला तैल तथा इतना ही बकरीका हरापन व लालिमा युक्त गुग्गुलु १ प्रस्थ, आंवला, हर्र, बहेडा दूध तथा तगर व मौरेठी प्रत्येक २० तोलाका कल्क मिलाकर प्रत्येक १ प्रस्थ, गुर्च २ प्रस्थ, जल ६ आढ़क मिलाकर कलंमकाना चाहिये । यह बढ़े हुए वातरक्तको शांत करता, बस्तिसे । छीसे चलाते हुए पकाना चाहिये । जब आधा जल जल 1 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः भाषाटीकोपेतः। Pr F ow-oner जाय, तब उतार छानकर फिर लोहके बर्तन में पकाना चाहिये । चाहिये, पाक हो जाने पर दन्ती, त्रिकटु, वायविडङ्ग, गुर्च, गाढ़ा हो जानेपर उतारना चाहिये । फिर ठण्डा तथा कड़ा त्रिफला प्रत्येकका कुटा हुआ चूर्ण २ तोला निसोथका चूर्ण १ हो जानेपर कूट कूटकर त्रिफलाका चूर्ण प्रत्येक २ तोला, ताला मिलाकर गोली बना रखनी चाहिये । इसकी मात्रा त्रिकटुका चूर्ण प्रत्येक २ तोला, वायविडंगका चूर्ण २ अग्निबलके अनुसार देनी चाहिये । वातरक्क, कुष्ठ, अर्श, अग्नितोला, निसोथ व दन्ती प्रत्येकका चूर्ण १ तोला व गुर्च ४ मांद्य, दुष्टत्रण, प्रमेह, आमवात, भगन्दर, नाडीव्रण, आढयवात तोला मिलाना चाहिये, फिर घी ३२ तोला मिलाकर १(ऊरुस्तम्भ) तथा सूजनको नष्ट करता है । इसे भगवान माशेकी मात्रासे गोली बनानी चाहिये । इसको खाकर अश्विनीकुमारने बनाया था ॥ ४८-५४ ॥ ऊपरसे युष दूध था सुगन्धित ( दालचीनी आदिसे सिद्ध) जल पीना चाहिये। इस ओषधिका सेवन करते हुए इच्छानुकूल| अमृताख्यो गुग्गुलुः। आहार विहार करनेपर भी समस्त शरीरमें फैला हुआ, एकज __ अमृतायाश्च द्विप्रस्थं प्रस्थमेकं च गुग्गुलोः। तथा द्वन्द्वज, बहता हुआ तथा सूखा, अधिक समयका भी। वातरक्त नष्ट होता है। तथा व्रण, कास, कुष्ठ, गुल्म, सूजन, प्रत्येकं त्रिफलाप्रस्थं वर्षाभूप्रस्थमेव च ॥ ५५ ॥ उदररोग, मन्दाग्नि, विबन्ध व प्रमेहपिड़का नष्ट होती हैं । सदा सर्वमेतच्च संक्षुद्य काथयेन्नल्वणेऽम्भसि । सेवन करनसे कुछ समयमें सभी रोगोंको नष्ट करता है। वृद्धता। पुनः पचेत्पादशेषं यावत्सान्द्रत्वमागतम् ॥ २६ ॥ मिटती तथा जवानी आ जाती है। ऊपर लिखे अनुसार त्रिफला दन्तीचित्रकमूलानां कणाविश्वफलत्रिकम् । प्रत्येक एक प्रस्थ तथा जल ६ आढ़क छोड़ना चाहिये तथा| गुडूचीत्वग्विडङ्गानां प्रत्येकापलोन्मितम् ॥ ५७ ॥ गुड़के समान ही गुग्गुलुका पाक करना चाहिये, पर गुग्गुलुकी जब | त्रिवृताकर्षमेकं तु सर्वमेकत्र चूर्णयेत् । सुगांध उठने लगे, तब उतारना चाहिये ॥३८-४७॥ सिद्धे चोष्णे क्षिपेत्तत्र त्वमृता गुग्गुलोःपरम्॥६॥ अमृताद्यो गुग्गुलुः। यथावहिबलं खादेदम्लपित्ती विशेषतः । वातरक्तं तथा कुष्ठं गुदजान्यग्निसादनम् ॥५९॥ प्रस्थमेकं गुडूच्यास्तु अर्धग्रस्थं च गुग्गुलोः । दुष्टत्रणप्रमेहांश्च सामवातं भगन्दरम् । प्रत्येकं त्रिफलायाश्च तत्प्रमाणं विनिर्दिशेत् ॥४८॥ नाडयाढयवातश्चयथून्हन्यात्सर्वामयानयम् ॥६०॥ सर्वमेकत्र संक्षुद्य साधयेत्त्वमणेऽम्भसि । अश्विभ्यां निर्मितो ह्येषोऽमृताख्यो गुग्गुलुः पुरा । पादशेषं परिस्राव्य पुनरमावधिश्रयेत् ॥ ४९ ॥ तावत्पचेत्कषायं तु यावत्सान्द्रत्वमागतम् । गुर्च २ प्रस्थ, गुग्गुलु १ प्रस्थ, त्रिफला प्रत्येक १ प्रस्थ, पुनर्नवा १ प्रस्थ सबको दुरकूचाकर १ द्रोण जलमें मंद अग्निसे दन्तीव्योषविडङ्गानि गुडूचीत्रिफलात्वचः ॥५०॥ ५०पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर फिर पकाना चाहिये, पाक ततश्चापिलं पूतं गृह्णीयाच प्रति प्रति। | सिद्ध हो जानेपर, दन्ती, चीतकी जड़, छोटी पीपल, सोंठ कर्ष तु त्रिवृतायाश्च सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ ५१ ॥ त्रिफला, गुर्च दालचीनी, वायविडंग प्रत्येक २ तोला, निसोथ तस्मिन्सुसिद्धे विज्ञाय कवोष्णे प्रक्षिपेद् बुधः। १ तोला सबको चूर्ण कर गरम गुग्गुलु में ही मिला देना चाहिये। ततश्चाग्निबलं ज्ञात्वा तस्य मात्रां प्रदापयेत् ॥५२॥ | यह “अमृतागुग्गुलु" अग्निबलादिके अनुसार सेवन करनेसे अम्ल पित्त, वातरक्त, कुष्ठ, अर्श, अग्निमांद्य, दुष्टत्रण, प्रमेह, आमवात, वातरक्तं तथा कुष्ठं गुदजान्यग्निसादनम्। भगन्दर नाडीव्रण, ऊरुस्तम्भ, सूजन आदि समस्त रोगोंको दुष्टव्रणप्रमेहांश्च सामवातं भगन्दरम् ॥ ५३॥ नष्ट करता है । सर्व प्रथम भगवान् अश्विनीकुमारने इसे नाड्याढयवातश्वयथून्सर्वानेतान्व्यपोहति । बनाया था ॥५५-६० ॥आश्विभ्यां निर्मितः पूर्वममृतायो हि गुग्गुलुः॥ अर्धप्रस्थं त्रिफलायाः प्रत्येकमिह गृह्यते ॥ ५४॥ योगसारामृतः। गुर्च ६४ तोला, गुग्गुलु ३२ तोला, त्रिफला प्रत्येक ३२ शतावरी नागबला वृद्धदारकमुच्चटा । तो सबको कूटकर १ द्रोण (२५ सेर ४८ तो० ) जलमें पुनर्नवामृता कृष्णा वाजिगन्धा त्रिकण्टकम्॥६१॥ पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर फिर पकाना पृथग्दशपलान्येषां लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । तदर्धशर्करायुक्तं चूर्ण संमर्दयेत् बुधः॥६२॥ ..१ गुग्गुलुका पाक कड़ाही करना चाहिये, अन्यथा फोफन्दी स्थापयेत्सुदृढे भाण्डे मध्वर्धाढकसंयुतम् । (सफेदी) लग जानसे शीघ्र ही सड़ जाता है। घृतप्रस्थ समालोडपत्रिसुगन्धिपलेन तु ।। ६३ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [ ऊरुस्तम्मा wroorvser धन तथा। तं खादेदिष्टचेष्टान्नो यथावहिबलं नरः। | पर्णी, आंवला, तगर, नागकेशर, सुगन्धवाला, पद्माख, नीलोफर, वातरक्तं क्षयं कुष्ठं काय पित्तास्रसम्भवम् ॥६४॥ तथा चन्दन प्रत्येक एक तोलेका कल्क बना छोड़कर तैलपाक वातपित्तकफोत्थांश्च रोगानन्यांश्च तद्विधान् । | करना चाहिये । यह तैल पीने, मालिश तथा अनुवासन वस्तिहत्वा करोति पुरुषं वलीपलितवर्जितम् ॥६५॥ द्वारा प्रयोग करनेसे वातरक्तज तथा सन्निपातज अन्तरस्थ रोगोंको नष्ट करता है। यह सन्तान उत्पन्न करता, स्त्रियोंको गर्भधारण योगसारामृतो नाम लक्ष्मीकान्तिविवर्धनः। करता तथा वातपित्तज रोगोंको नष्ट करता, तथा स्वेद, खुजली, दिवास्वप्नाग्निसन्तापं व्यायाम मै पीड़ा, पामा, शिरःकम्प, अर्दित तथा वणदोषोंको नष्ट करता है, कटूष्णगुभिष्यन्दिलवणाम्लानि वर्जयेत् ॥६६॥ यह उत्तम “गुडूचीतैल" है ॥६७-७२॥ शतावरी, नागबला, विधारा, भुईआंवला पुनर्नवा, गुर्च, इति वातरक्ताधिकारः समाप्तः। छोटी पीपल, असगन्ध, गोखुरू, प्रत्येक ८ छ० कूट छानकर जितना चूर्ण तयार हो, उससे आधी शकर तथा शहद १॥ सेर ८ तोला, घी ६४ तो० और दालचीनी, तेजपात, इलायची अथोरुस्तम्भाधिकारः। प्रत्येकका चूर्ण ४ तोला मिलाकर रखना चाहिये । इसको अग्निबलादिके अनुसार सेवन करने तथा यथेष्ट आहार विहार करनेसे वातरक्त, क्षय, कुष्ठ, कार्य, पित्तरक्त वात-पित्त-कफजन्य सामान्यतश्चिकित्साविचारः। अन्य रोग नष्ट होते हैं और शरीर वलीपलिल रहित होता है ।। यह “ योगसारामृत " शोभा व कान्ति बढ़ानेवाला है । इस | श्लेष्मणः क्षपणं यत्स्यान्न च मारुतकोपनम् । औषधके सेवन कालमें दिनमें सोना, अग्नि तापना, व्यायाम, तत्सर्वं सर्वदा कार्यमूरुस्तम्भस्य भेषजम् ॥ १॥ मेथुन तथा कटु, उष्ण, गुरु, अभिष्यन्दि, नमकीन और खट्टे तस्य न स्नेहनं कार्य न बस्तिने च रेचनम् । पदार्थोंको त्यागना चाहिये ॥६१-६६ ॥ सर्वो रूक्षः क्रमः कार्यस्तत्रादौ कफनाशनः ॥२॥ बृहद् गुडूचीतैलम् । पश्चाद्वातविनाशाय कृत्स्नः कार्यः क्रियाक्रमः । तुला पचेजलद्रोणे गुडूच्याः पादशेषितम् । जो कफको शान्त करे और वायुको न बढ़ावे, ऐसी चिकित्सा क्षीरद्रोणं च ताभ्यां तु पचेत्तैलाढकं शनैः ॥ ६७॥ सदा ऊरुस्तम्भकी करनी चाहिये । इसमें स्नेहन, वस्ति और कल्कैर्मधुकमञ्जिष्ठाजीवनीयगणैस्तथा । विरेचन न करना चाहिये । प्रथम कफको शान्त करनेके लिये कुष्ठलागरुमृद्रीका मांसी व्याघ्रनखं नखी॥an | समस्त रूक्ष चिकित्सा करनी चाहिये । फिर वातनाशक चिकित्सा करनी चाहिये ॥१॥२॥हरेणु स्राविणी व्योषं शताहा भङ्गशारिवे। त्वपत्रे वचविक्रान्ता स्थिरा चामलकी तथा ॥६९/ केचन योगाः। नतं केशरहीबेरपनकोत्पलचन्दनः। सिद्धं कर्षसमै गैः पानाभ्यङ्गानुवासनः ॥७॥ शिलाजतुं गुग्गुलुं वा पिप्पलीमथ नागरम् ॥ ३ ॥ परं वातास्रजान्हन्ति सर्वजानन्तरास्थितान् । ऊरुस्तम्भे पिबेन्मूत्रैर्दशमूलीरसेन वा। । धन्यं पुंसवनं स्त्रीणां गर्भदं वातपित्तनुत् ॥ ७१ ॥ भल्लातकामृताशुण्ठीदारुपथ्यापुनर्नवाः ॥ ४॥ स्वेदकण्डूरुजापामाशिरःकम्पार्दितामयान् ।। पञ्जमूलीद्वयोन्मिश्रा ऊरुस्तम्भनिबर्हणाः। पिप्पलीपिप्पलीमूलभल्लातकाथ एव वा ॥५॥ हन्याद् व्रणकृतान्दोषान्गुडूचीतैलमुत्तमम् ॥७२॥ कल्को वा समधुर्देय ऊरुस्तम्भविनाशनः। गुर्च ५ सेर जल २५ से० ४८ तो मिलाकर पकाना त्रिफलाचव्यकटुकं ग्रन्थिकं मधुना लिहेत् ॥६॥ चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतारकर छान लेना चाहिये । ऊरुस्तम्भविनाशाय पुरं मूत्रेण वा पिबेत् । फिर उसी क्वाथमें दूध २५ सेर ४८ तो०, तिलतैल ६ सेर लिह्याद्वा त्रिफलाचूर्ण क्षौद्रेण कटुकायुतम् ॥७॥ ३२ तो० तथा मोरेठी, मजीठ, जीवनीयगण (जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीर काकोली, मेदा, महामेदा, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, सुखाम्बुना पियेद्वापि चूर्ण षड्धरणं नरः। जीवंती, मौरेठी) कूठ, इलायची, अगर, मुनक्का, जटामांसी, पिप्पलीवर्धमानं वा माक्षिकेण गुडेन वा ॥ ८॥ व्याघ्रनख, नखी, सम्भालुके बीज, ऋद्धि, त्रिकटु, सौंफ, ऊरुस्तम्भे प्रशंसन्ति गण्डीरारिष्टमेव वा । भांगरा, सारिवा, दालचीनी, तेजपात, वच, वराहकान्ता, शाल-I चव्याभयाग्निदारूणां समधुः स्यादूरुग्रहे ॥९॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। शिलाजतु, गुग्गुल, छोटी पीपल अथवा सोंठ, गोमूत्रके सक्षौद्रं मात्रया तस्मादूरुस्तम्भार्दितः पिबेत् । साथ अथवा दशमूलके काढ़ेके साथ पीना चाहिये । इसी प्रकार सैन्धवाद्यं हितं तैलं वर्षाभ्वमृतगुग्गुलुः॥ १५ ॥ भिलावां, गुर्च, सोंठ, देवदारु, हर्र, तथा पुनर्नवाका चूर्ण कूठ, गन्धाविरोजा, सुगन्धवाला, सरल धूप, देवदारु, दशमूलके क्वाथके साथ पीनेसे ऊरुस्तम्भ नष्ट होता है । अथवा नागकेशर. अजवाइन सरसोंके तैलसे चतुर्थांश तथा तैलसे चतुछोटी पीपल, पिपरामूल व भिलावेका क्वाथ अथवा कल्क गुण जल मिलाकर पकाना चाहिये । सिद्ध हो जानेपर उतार शहदके साथ चाटना चाहिये । अथवा त्रिफला, चव्य, कुटकी, छानकर मात्राके अनुसार शहद मिलाकर इसे पीना चाहिये । रामूलका चूर्ण शहदसे चाटना चाहिय । अथवा (इन्हाक | सैन्धवादि तैल अथवा पुनर्नवायुक्त अमृता गुग्गुलुका सेवन साथ सिद्ध ) गुग्गुलु गोमूत्रके साथ पीना चाहिये । अथवा | करना हितकर है ॥ १४-१५॥ त्रिफला व कुटकीका चूर्ण शहदके साथ चाटना चाहिये । अथवा इत्युरुस्तम्भाधिकारः समाप्तः। कुछ गरम जलके साथ षड्धरण ( वातव्याधिमें कहा) योगका सेवन अथवा वर्धमान पिप्पलीका शहद अथवा गुड़के साथ, अथवा गण्डीरारिष्ट अथवा चव्य, बड़ी हर्रका छिल्का, चीतकी अथामवाताधिकारः। जड़ और देवदारुका कल्क शहदके साथ सेवन करना चाहिये ॥३-९॥ लेपदयम् । सामान्यतश्चिकित्सा। . कल्क दिहेच्च मूत्राढथैः करञ्जफलसर्षपैः। । लङ्घनं स्वेदनं तिक्तं दीपनानि कटूनि च । क्षौद्रसर्षपवल्मीकमृत्तिकासंयुतं भिषक् ॥ १०॥ विरेचनं स्नेहपानं बस्तयश्चाममारुते ॥१॥ गाढमुत्सादनं कुर्यादुरूस्तम्भे सलेपनम् । सैन्धवाद्येनानुवास्यः क्षारबस्तिः प्रशस्यते । आमवाते पश्चकोलसिद्धं पानान्नामिष्यते ॥२॥ (१) कजा और सरसोंका गोमूत्रके साथ कल्क कर लेप | करना चाहिये अथवा (२) शहद, सरसों, बल्मीककी मिट्टीका! रूक्षः स्वंदा विधातव्यो बालुकापुटकैस्तथा । उबटन लगाना तथा इसीका लेप करना चाहिये ॥१०॥- लंघन, स्वेदन, तिक्त, कटु, अग्निदीपक, विरेचन, स्नेहपान और बस्ति आमवातमें हितकर होती है । सैन्धवादि तैलसे विहारव्यवस्था। अनुवासन, क्षारवस्ति तथा पञ्चकोलसे सिद्ध अन्नपान तथा बालूकी कफक्षयार्थ व्यायामेष्वेनं शक्येषु योजयेत् ॥११॥ पोटलीसे रूक्ष ( गरम करके वेदनायुक्त अङ्गोंमें ) स्वेदन करना स्थलान्याकामयेत्कल्यं प्रतिस्रोतो नदीस्तरेत् । चाहिये ॥१॥२॥ कफके क्षीण करनेके लिये जितना हो सके, व्यायाम कराना शव्यादिपाचनम् । चाहिये । प्रातःकालः कुदाना तथा बहाव जिस तरफका हो उससे शटी शुण्ठयभया चोप्रा देवाह्वातिविषामृता ॥६॥ उल्टा नदियोंमें तैराना चाहिये ॥११॥ कषायमामवातस्य पाचनं रूक्षभोजनम्। अष्टकट्वरतैलम् । कचूर, सोंठ, बड़ी हर्रका छिल्का, दूधिया वच, देवदारु, अतीस तथा गुर्च इनका क्वाथ आमवातका पाचन करता है पलाभ्यां पिप्पलीमूलनागरादष्टकट्वरः ॥१२॥ तैलप्रस्थः समो दना गृध्रस्यूरुमहापहः । " तथा इस रोगमें रूखा ही भोजन करना चाहिये॥३॥अष्टकटवरतैलेऽत्र तैलं सार्षपमिष्यते ॥ १३ ॥ शट्यादिकल्कः। छोटी पीपल, सोंठ प्रत्येक एक पल, सरसों का तैल १ प्रस्थ, शटीविश्वौषधीकल्कं वर्षाभूक्काथसंयुतम् ॥४॥ दही १ प्रस्थ तथा मट्ठा (मक्खनसहित मथा ) ८ प्रस्थ सप्तरात्रं पिबजन्तरामवातविपाचनम। मिलाकर पकाया गया तैल मालिश करनेसे गृध्रसी और ऊरु- कचूर तथा सोंठका कल्क, पुनर्नवाके क्वाथके साथ दिनस्तम्भको नष्ट करता है ॥ १२ ॥ १३ ॥ . तक आमवातके पाचनके लिये पीना चाहिये ॥४॥ कुष्ठादितैलम्। रास्नादशमूलंक्वाथः। कुष्ठश्रीवेष्टकोदाच्यं सरलं दारु केशरम् । दशमूलामृतैरण्डरास्नानागरदारुभिः॥५॥ अजगन्धाश्वगन्धा च तैलं तैः सार्षपं पचेत् ॥१४॥ काथो रुबूकतैलेन सामं हन्त्यनिलं गुरुम्। गा । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) चक्रदत्तः। [आमवाता दशमूल, गुर्च, एरण्डकी छाल, रासन, सोंठ तथा देवदारुका | क्वाथ अथवा बड़ी हर्रका छिल्का व सौंठ, अथवा गुर्च, व क्वाथ एरण्डतैलके साथ पीनेसे कठिन आमवात नष्ट होता| सोंठ अथवा एरण्ड तैलके साथ हरके छिल्केके चूर्णको आम वात, गृध्रसी वृद्धि तथा अदितसे पीड़ित पुरुष नित्य खावे । सोंठका चूर्ण १ तोला का के साथ सदा पानसे आमवात एरण्डतैलप्रयोगः। तथा कफवात नष्ट होता है । इसी प्रकार पञ्चकोलका चूर्ण गरम दशमूलीकषायेण पिबेद्वा नागराम्भसा । जलके साथ पानसे मन्दाग्निशूल, गुल्म, आम, कफ, तथा अरुचि कुक्षिबस्तिकटीशूले तैलमेरण्डसम्भवम् ॥६॥ नष्ट होती है।९-१३॥ ' दशमूलके क्वाथ अथवा सोंठके क्वाथके साथ एरण्ड-1 तैल पीनेसे पेट मूत्राशय तथा कमरका दर्द शान्त होता। अमृतादिचूर्णम् । अमृतानागरगोक्षुरमुण्डतिकावरुणकः कृतं चूर्णम् । मस्त्वारनालपीतमामानिलनाशनं ख्यातम् ॥ १४ ॥ रास्नापञ्चकम् । गुर्च, सोंठ, गोखरू, मुण्डी, तथा वरुणकी छालका · रास्नां गुडूचीमेरण्डं देवदारु महोषधम् । चूर्ण दहीके तोड़ अथवा काजीके साथ पीनेसे आमवात नष्ट पिबेत्सर्वाङ्गगे वाते सामे सन्ध्यस्थिमज्जगे ॥७॥ होती है ॥ १४ ॥ रासन, गुर्च, एरण्डकी छाल, देवदारु, तथा साँठका क्वाथ सर्वाङ्गवात, सन्ध्यस्थि तथा मज्जागत बात तथा आमवात वैश्वानरचूर्णम् । पीना चाहिये ॥७॥ माणिमन्थस्य भागो द्वौ यमान्यास्तद्वदेव तु । रास्नासप्तकम् । भागास्त्रयोऽजमोदाया नागराद्भागपञ्चकम् ॥१५॥ दश द्वौ च हरीतक्याः श्लक्ष्णचूर्णीकृताः शुभाः। रास्नामृतारग्वधदेवदारु मस्त्वारनालतक्रेण सर्पिषोष्णोदकेन वा ॥१६॥ त्रिकण्टकरण्डपुनर्नवानाम् । पीतं जयत्यामवातं गुल्मं हृद्वस्तिजान् गदान् । क्वाथं पिबेन्नागरचूर्णमिदं प्लीहानं हन्ति शूलादीनानाहं गुदजानि च ॥१७॥ जङ्घोरुपृष्ठत्रिकपार्श्वशूली ॥८॥ विबन्धं जाठराम् रोगांस्तथा वै हस्तपादजान् । रासन, गुर्च, अमलतासका गूदा, देवदारु, गोखरू, वातानुलोमनमिदं चूर्ण वैश्वानरं स्मृतम् ॥ १८॥ एरण्डकी छाल तथा पुनर्नवाका काढ़ा, सोंठका चूर्ण मिलाकर जंघा, ऊरु, पृष्ठ, कमर व पसलियोंके शूलमें पीना सेंधानमक २ भाग, अजवाइन २ भाग, अजमोद चाहिये ॥८॥ ३ भाग, सोंठ ५ भाग, बड़ी हर्रका छिल्का १२ भाग सबका महीन चूर्ण कर दहीके तोड़, काजी, मट्टा, विविधा योगा। घी, अथवा गरम जलके साथ पीनेसे आमवात, गुल्म, शुण्ठीगोक्षुरकक्वाथः प्रातः प्रातर्निषेवितः।। | हृदय तथा बास्तिके रोग, प्लीहा, शूल, अफारा, बवासामवाते कटीशूले पाचनो रुक्प्रणाशनः ॥९॥ सीर, मलकी बद्धता, उदर तथा हाथ, पैरोंके रोग नष्ट होते हैं। इसका नाम “वैश्वानर " चूर्ण, है । यह वायुका अनुलोमन आमवाते कणायुक्तं दशमूलरसं पिबेत् । करता है ॥१५-१८॥ खादेद्वाप्यभयाविश्वं गुडूची नागरेण वा ॥ १०॥ एरण्डतैलयुक्तां हरीतकी भक्षयेन्नरो विधिवत् । ___ अलम्बुषादिचूर्णम् । आमानिलार्तियुक्तो गृध्रसीवृद्धर्दितो नित्यम्॥११॥ अलम्बुषां गोक्षुरकं गुडूची वृद्धदारकम् । कर्ष नागरचूर्णस्य काजिकेन पिबेत्सदा।। पिप्पली त्रिवृतां मुस्तं वरुणं सपुनर्नवम् ॥ १९ ॥ आमवातप्रशमनं कफवातहरं परम् ॥ १२॥ त्रिफलां नागर वेष सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । पञ्चकोलकचूर्ण च पिबेदुष्णेन.वारिणा।। मस्त्वारनालतऋण पयोमांसरसेन वा ॥ मन्दाग्निशूलगुल्मामकफारोचकनाशनम् ॥ १३ ॥. आमवातं निहन्त्याशु श्वयधुं सन्धिसंस्थितम् ॥२०॥ सोंठ व गोखरूका काढ़ा प्रातःकाल सेवन करनेसे आमका | गोरखमुण्डी, गोखरू, गुर्च, विधारा, छोटी पीपल, निसोथ, पाचन व पीडाका नाश करता है । कटिशूलमें इसे विशेषतया नागरमोथा, वरुणाकी छाल, पुनर्नवा, त्रिफला, सोंठ इनका पीना चाहिये । अथवा छोटी पीपलके चूर्णके साथ दशमूलका महीन चूर्णकर दहीके तोड़, काजी, मट्ठा, दूध अथवा मांस. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। रसके साथ सेवन करनेसे यह "अलम्बुषादिचूर्ण" आमवात तथा तेजपात सबका महीन चूर्ण करना चाहिये । जितना यह हो सन्धिगत सूजनको नष्ट करता है ॥ १९ ॥२०॥ उतना ही गुग्गुल छोड़ मिलाकर घीसे गोली बना लेनी चाहिये। इसकी मात्रा सेवन करते हुए यथेष्ट आहार विहार करना शतपुष्पादिचूर्णम् । चाहिये । यह "योगराजनामक" योग अमृतके तुल्य गुण करता शतपुष्पा विडङ्गश्च सैन्धवं मरिचं समम्। है । यह आमवात, ऊरुस्तम्भ, क्रिमिरोग, दुष्ट व्रण, प्लीहा, चूर्णमुष्णाम्बुना पीतमग्निसन्दीपनं परम् ॥ २१ ॥ गुल्म, उदर, आनाह, अर्शको नष्ट करता, आमिको दीप्त, तेज, सौंफ, वायविडङ्ग, सेंधानमक, काली मिर्च समान भाग तथा बलकी वृद्धि तथा सन्धि व मज्जागत वातरोगोंको भी नष्ट ले चूर्ण कर गरम जलके साथ पीनेसे जठराग्नि दीप्त करता ह ॥ २३-२८ ॥ होती है ॥२१॥ सिंहनादगुग्गुलुः। भागोत्तरचूर्णम् । पलत्रयं कषायस्य त्रिफलायाः सुचूर्णितम् । हिंगु चव्यं विडं शुण्ठी कृष्णाजाजी सपौष्करम् ।। सौगन्धिकपलं चैकं कौशिकस्य पलं तथा ॥२९॥ भागोत्तरमिदं चूर्ण पीतं वातामजिद्भवेत् ॥२२॥ कुडवं चित्रतैलस्य सर्वमादाय यत्नतः। भुनी हींग, चव्य, बिड़नमक, सोंठ, कालाजीरा, तथा पाचयेत्पाकविद्वैद्यः पात्रे लौहमये दृढे ॥३०॥ पोहकरमूल उत्तरोत्तर भागवृद्ध (अर्थात् हींग १ भाग, चव्य २ हन्ति वातं तथा पित्तं श्लेष्माणं खजपंगुताम् । भाग, बिड़नमक ३ भाग आदि ) लेकर चूर्ण करना चाहिये। श्वासं सुदुर्जयं हन्ति कासं,पञ्चविधं तथा ॥३१॥ यह आमवातको नष्ट करता है ॥ २२॥ कुष्ठानि वातरक्तं च गुल्मशुलोदराणि च । योगराजमुग्गुलुः। आमवातं जयेदेतदपि वैद्यविवर्जितम् ॥ ३२॥ एतदभ्यासयोगेन जरापलितनाशनम् । चित्रकं पिप्पलीमूलं यमानी कारवीं तथा । सर्पिस्वैलरसोपेतमश्नीयाच्छालिषष्टिकम् ॥ ३३ ॥ विडङ्गान्यजमोदाच जीरकं सुरदारु च ॥ २३ ॥ सिंहनाद इति ख्यातो रोगवारणदर्पहा । चव्यैलासैन्धवं कुष्ठं रास्नागोक्षुरधान्यकम् । वतिधुद्धिकरः पंसां भाषितो दण्डपाणिना ॥३४॥ त्रिफलामुस्तकं व्योषं त्वगुशीरं यवाग्रजम् ॥२४॥ तालीसपत्रं पत्रं च सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । । त्रिफलाका क्वाथ १२ तोला, शुद्ध गन्धक ४ तोला, गुग्गुलु यावन्त्येतानि चूर्णानि तावन्मात्रं तु गुग्गुलुम् ॥२५/४ तोला, एरण्डतल १६ तोला • सबको लोहेकी कढाईमें पकाना संमर्थ सर्पिपा गाढं स्निग्धे भाण्डे निधापयेत । चाहिये । यह गुग्गुलु वातपित्तकफके रोग, तथा खज, पंगुता, काठन श्वास, पांचों प्रकारके कास, कुष्ठ, वातरक्त, गुल्म, शूल, ततो मात्रां प्रयुजीत यथेष्टाहारवानपि ॥२६॥ उदररोग, तथा आमवातको नष्ट करता है । तथा सदैव सेवन योगराज इति ख्यातो योगेऽयममृतोपमः। | करनेसे रसायन होता, वृद्धावस्था व बालोंकी सफेदीको दूर आमवावाढयवातादीन्क्रिमिदुष्टवणानपि ॥२८॥ | करता है। इसमें घी, तैल, मांसरस युक्त शालि या साठीके • प्लीहगुल्मोदरानाहदुर्नामानि विनाशयेत् । चावलोंका पथ्य देना चाहिये । यह “ सिंहनादनामक " गुग्गुलु अनिं च करते दीप्तं तेजोवृद्धिं बलं तथा । रोगरूपी हाथ के दर्पको चर्ण करता तथा अग्निवादि करता है। वातरोगाञ्जयत्येष सन्धिमजगतानपि ॥ २८॥ | इसे दण्डपाणिने प्रकाशित किया है * ॥२९-३४.॥ चीतकी, जड़, पिपरामूल, अजवाइन, काला जीरा, वायविडंग, अजमोद, सफेद जीरा, देवदारु, चव्य, छोटी इला- * बहत्सिंहनादगुग्गुल यहांपर एक बृहत्सिंहनादगुग्गुयची, सेंधानमक, कूठ, रासन, गोखुरू धनियां त्रिफला, नाग-1 ला, नाग-|लुका भी पाठ मिलता है । वह इस प्रकार है-"पिण्डितां गुग्गुरमोथा, त्रिकटु, दालचीनी, खश, यवक्षार, तालीशपत्र, तथा लोर्माणी कटतैलपलाष्टके । प्रत्येक त्रिफलाप्रस्थौ सार्द्धद्रोणे जले. पचेत् ॥ पादशेषे च पूतं च पुनरमावधिश्रयेत् । त्रिकटु त्रिफला १ कुछ पुस्तकों में इसके गुणोंमें इतना और बढ़ाया | मुस्तं विडंगामरदारु च ॥ गुडूच्यामित्रिवदन्तीचवीशूरणमानकम् । गया है “प्लीहगुल्मोदरानाहदुर्नामानि विनाशयेत् । अग्निं च | पारदं गन्धकं चैव प्रत्येक शक्तिसम्मितम् ॥ सहस्रं कानकफलं कुरुते दीप्तं तेजोवृद्धिं बलं तथा ॥ वातरोगाजयत्यष सन्धि-सिद्धं संचूर्ण्य निक्षिपेत् । ततो माषद्वयं जग्ध्वा पिबेत्तप्तजलामजागतानपि॥" दिकम् ॥"गुग्गुल ३२ तोला, कडुआ तल ३२ तोलाम Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) चक्रदत्तः। [आमवाताwww--- - भागोत्तरमलम्बुषादिचूर्णम् । अजमोदाद्यवटकः। अलम्बुषागोक्षुरकत्रिफलानागरामृताः। यथोत्तरं भागवृद्धया श्यामाचूर्ण च तत्समम॥३५॥ | अजमोदामरिचपिप्पलीविडङ्गसुरदारुचित्रकशताह्वाः। | सैन्धवपिप्पलिमुलं भागा नवकस्य पलिकाः स्युः ॥३९।। पिबेन्मस्तुसुरातक्रकाञ्जिकोष्णोदकेन वा। पीतं जयत्यामवातं सशोथं वातशोणितम् ॥ शुण्ठी दशपलिका स्यात्पलानि तावन्ति वृद्धदारस्य । त्रिकजानूरुसन्धिस्थं ज्वरारोचकनाशनम् ॥ ३६॥ | पथ्यापञ्चपलानि सर्वाण्येकत्र कारयेच्चूर्णम् ॥ ४०॥ गोरखमुण्डी १ भाग, गोखरू २ भाग, त्रिफला समगुडवटकं भजतश्चूर्ण वाप्युष्णवारिणा पिबतः। मिलित ३ भाग, सोंठ ४ भाग, गुर्च ५ भाग, निसोथ नश्यन्त्यामानिलजाः सर्वे रोगाः सुकष्टास्तु ॥ ४१ ॥ १५ भाग सबका महीन चूर्ण कर दहीके तोड़, शराब, मट्ठा, विश्वाचीप्रतितूनीतूनीहृद्रोगाश्च गृध्रसी चोप्रा । काशी या गरमजलके साथ पीना चाहिये । यह आमवात, कटिबस्तिगुदस्फुटनं स्फुटनं चैवास्थिजङ्घयोस्तीव्रम् ४२ सूजन, वातरक्त, कमर, घुटने तथा जंघाओंके शूल, शोथ व श्वयथुस्तथाङ्गसन्धिषु ये चान्येऽप्यामवातसम्भूताः । ज्वर तथा अरुचिको नष्ट करता है ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ सर्वे प्रयान्ति नाशं तम इव सूर्याशुविध्वस्तम् ।। ४३ ॥ त्रिफलापथ्यादिचूर्णम् । अजमोद, काली मिर्च, छोटी पीपल, वायविडा, देवदारु, पथ्याक्षधात्रीत्रिफला भागवृद्धावयं क्रमः ।। चीतकी जड़, सौंफ, सेंधानमक, पिपरामूल, प्रत्येक एक एक पथ्याविश्वयमानीभिस्तुल्याभिश्चूर्णितं पिबेत्॥३७॥ पल, सोंठ १० पल, विधारा १० पल, तथा हरड़ ५ पल तक्रेणोष्णोदकेनाथ अथवा काञ्जिकेन च । सबका एकमें चूर्ण करना चाहिये । फिर समान गुड़ मिला गोली आमवातं निहन्त्याशु शोथं मन्दाग्नितामपि ॥३८॥ बना अथवा चूर्ण ही गरम जलके साथ खानेसे आमवातके हर्र १ भाग, बहेड़ेका छिल्का २ भाग, आंवला ३ भाग, समस्त रोग, तूनी, प्रतितूनी, विश्वाची, हृदोग, गृध्रसी कमर. सबका महीन चूर्ण कर अथवा हर्र, अजवाइन व सोंठ समान | बस्ति व गुदाकी पीड़ा तथा हड्डियों व पिंडलियोंकी पीडा, भाग ले चूर्ण कर मट्ठा, गरम जल अथवा काजीके साथ सेवन करनेसे आमवात, शोथ तथा मन्दाग्निको नष्ट करता वातहरं श्रेष्ठं सर्ववातघ्नमग्निदम् । कटीजानूरुसन्धिस्थे पाहद्वंक्षणा श्रये ॥ शस्तं वातान्त्रबुद्धौ च सैन्धवाद्यमिदं महत् ॥" सेंधा नमक, त्रिफला, रासन, छोटी पीपल, गजपीपल, सज्जीखार, मिलाकर आंवला १२८ तोला, हर्र १२८ ताला, बहेड़ा, काली मिर्च, कूठ, सोंठ, कालानमक, विडनमक, अजवाइन, १२८ तोला सब एकमें मिलाकर जल.३८ .सेर ३२ तो० अजमोद, पोहकरमूल, जीरा, मोरेठी, सौंफ प्रत्येक २ तो का मिलाकर पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छान- कल्क तथा मूर्छित एरण्डतैल १ सेर ९ छ० ३ तो०, सोंफका कर फिर आग्निमें पकाना चाहिये । जब गाढ़ा हो जावे, तब क्वाथ १ सेर ९ छ० ३ तो०, दहीका तोड़ ३ सेर १६ तो०, त्रिकटु, त्रिफला, नागरमोथा, वायविडंग, देवदारु, गुर्च, काजी ३ सेर १६ तो० मिलाकर तैल पाक कर लेना चाहिये। चीतकी जड़, निसोथ, दन्तीकी छाल, चव्य, शूरण मानकन्द यह तैल पीने अथवा वस्ति या मालिशद्वारा प्रयोग करनेसे प्रत्येक २ तोलाका चूर्ण और पारा २ तो०, गन्धक २ तो० आमवातको नष्ट करनेमें श्रेष्ठ है । तथा समस्त वातरोगोंको नष्ट की कज्जली बनाकर छोड़ना चाहिये । तथा तैयार हो जानेपर करता, अग्नि दीप्त करता तथा कमर, जानु, ऊरु, सन्धियों तथा १००० शुद्ध जमालगोटेकें बीज मिला देने चाहिये । इसकी पार्च, हृदय और वंक्षणाश्रित वायुको नष्ट करता तथा वातवृद्धि मात्रा २ माषा खाकर ऊपरसे गरम जल पीना चाहिये । इससे व अन्त्रवृद्धिको शान्त करता है। विरेचन होगा। इसकी मात्रा वर्तमान समयमें ४ रत्तीसे १ | एरण्डकतैलमूर्छाविधि" विकसा मुस्तकं धान्यं त्रिफला माषाकी होगी॥ वैजयन्तिका । नाकुली वनखजूरं वटशुङ्गा निशायुगम् ॥ नलिका * बृहत्सैन्धवतैलम् । यहां "सैन्धवाद्यतेल"कुछ पुस्तकोंमें भेषजं देयं केतकी च समं समम् ॥ प्रस्थे देयं शाणामतं मूर्छने और मिलता है । उसका पाठ यह है-"सैन्धवं त्रिफला दधिकाचिकम् ॥"१ प्रस्थ द्रवद्वैगुण्यात् २ प्रस्थ एरण्डतैलमें राना पिप्पली गजपिप्पली । सर्जिका मरिचं कुष्ठं शुण्ठी सौवर्चल मजीठ, मोथा, धनियां, त्रिफला, अरणी, रासन, खजूर, वरविडम् ॥ यमान्यो पुष्कराजाजी मधुकं शतपुष्पिका । पलार्द्धिकः गदके अंकुर, हल्दी, दारुहल्दी, नाड़ी, सोंठ, केवड़ाके फूल पचेदेतैः प्रस्थमेरण्डतैलतः ॥ प्रस्थाम्बु शतपुष्पायाः प्रत्येकं प्रत्येक ३ माशे छोड़कर दही व काजी प्रत्येक १ प्रस्थ तथा जल मस्तुकाजिके । दद्याद् द्विगुणिते पानबस्त्यभ्यङ्गप्रयोजितम्॥आम-४ प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] शरीरकी सन्धियोंका शोथ तथा अन्य समस्त आम या वातसे उत्पन्न होनेवाले रोग सूर्यकी किरणोंसे नष्ट हुए अन्धकारके समान अदृश्य हो जाते हैं ॥ ३९-४३ ॥ भाषाटीकोपेतः । नागरघृतम् । नागरक्काथकल्काभ्यां घृतप्रस्थं विपाचयेत् । चतुर्गुणेन तेनाथ केवलेनोदकेन वा ॥ ४४ ॥ वातश्लेष्मप्रशमनमग्निसंदीपनं परम् । नागरं घृतमित्युक्त कटयामशूलनाशनम् ॥ ४५ ॥ चतुर्गुण सोंठका क्वाथ तथा चतुर्थांश उसीका कल्क अथवा केवल कल्क और चतुर्गुण जल मिलाकर घी १ प्रस्थ पकाना चाहिये । यह घी वात, कफको शान्त, अग्निको दीप्त तथा कमर आदिमें होनेवाले शूलको नष्ट करता है ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ अमृताघृतम् । अमृतायाः कषायेण कल्केन च महौषधात् । मृद्वनिना घृतप्रस्थं वातरक्तहरं परम् ॥ ४६ ॥ आमवाताढयवातादीन् क्रिमिदुष्टव्रणानपि । अशसि गुल्मशूलं च नाशयत्याशु योजितम् ॥४७ के काढ़े और सोंठ कल्कको छोड़कर मन्द आंच से पकाया गया १ प्रस्थ घी वातरक्त, आमवात, ऊरुस्तम्भ, क्रिमिरोग, दुष्टव्रण, अर्श तथा गुल्म, व शूलको नष्ट करता है ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ हिंग्वादिघृतम् । हिगु त्रिकटुकं चव्यं माणिमन्थं तथैव च । कल्कान्कृत्वा च पलिकान्घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥४८ आरनालाढकं दत्त्वा तत्सर्पिर्जठरापहम् । शूलं विबन्धमानाहमामवातं कटीग्रहम् । नाशयेद्ग्रहणीदोषं मन्दाग्नेर्दीपनं परम् ॥ ४९ ॥ हींग, सौंठ, मिर्च, पीपल, चव्य, सेंधानमक, प्रत्येक ४ तोलाका कल्क, घी १ प्रस्थ ( १ सेर ९छ० ३ तोला ) तथा काऔ ६ सेर ३२ तोला मिलाकर पकाया गया घृत सेवन करनेसे उदररोग, शूल, विबन्ध, अफारा, आमवात, कमरका दर्द तथा ग्रहणीरोग नष्ट होते हैं और अभि दीप्त होता है ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ शुण्ठीघृतानि । पुष्टपर्थी पयसा साध्यं दध्ना विण्मूत्रसंग्रहे । दीपनार्थ मतिमता मस्तुना च प्रकीर्तितम् ॥ ५० ॥ सर्पिर्नागरकल्केन सौवीरकचतुर्गुणम् । सिद्धमनिकरं श्रेष्ठमामवातहरं परम् ॥ ५१ ॥ ( १३५ ) ( १ ) पुष्टिके लिये दूधके साथ ( २ ) मल मूत्रकी रुकावटके लिये दहीके साथ तथा ( ३ ) अग्निदीपनके लिये दहीके तोड़के साथ सोंठका कल्क छोड़कर घी सिद्ध करना चाहिये । इसी प्रकार (४) सोंठका कल्क और चतुर्गुण सौवीरक (काजी भेद) मिलाकर पकाया गया घृत अभिको दीप्त करता तथा आमवातको नष्ट करता है ॥ ५० ॥ ५१॥ रसोनपिण्डः । रसोनस्य पलशतं तिलस्य कुडवं तथा । हिंगु त्रिकटुकं क्षारों पञ्चैव लवणानि च ॥ ५२ ॥ शतपुष्पा तथा कुष्ठं पिप्पलीमूलचित्रको । अजमोदा यमानी व धान्यकं चापि बुद्धिमान् ॥५३ प्रत्येकं तु पलं चैषां सूक्ष्म चूर्णानि कारयेत् । घृतभाण्डे दृढे चैतत्स्थापयेद्दि नषोडश ॥ ५४ ॥ प्रक्षिप्य तैलमानीं च प्रस्थार्ध काञ्जिकस्य च ॥ खादेत्कर्षप्रमाणं तु तोयं मद्यं पिबेदनु ।। ५५ ।। आमवाते तथा वा सर्वाङ्गेकाङ्गसंश्रिते । अपस्मारेऽनले मन्दे कासे श्वासे गरेषु च । सोन्मादवातभग्ने च शूले जन्तुषु शस्यते ॥ ५६ ॥ शुद्ध लहसुन ५ सेर, तिल १६ तोला, भुनी हींग, सोंठ, मिर्च, छोटी पीपल, यवाखार, सज्जीखार, पांच नमक, सौंफ, कूठ, पिपरामूल, चीतकी जड़, अजमोदा अजवाइन तथा धनियां प्रत्येक ४ तोला सबका महीन चूर्ण कर मजबूत घीके बर्तन में १६ दिनतक तिलतैल ६४ तोला, काजी ४ तोला मिलाकर रखना चाहिये । फिर १ तोलाकी मात्रा से खाना चाहिये, ऊपरसे जल या मय पीना चाहिये । यह आ सर्वाङ्ग तथा एकांग-गत वात, अपस्मार, मन्दाग्नि, कास, श्वास कृत्रिमविष, उन्माद, वातभम, शूल, तथा क्रिमियोंको नष्ट करता है ॥ ५२-५६ ॥ प्रसारण रसोनपिण्डः । प्रसारण्याढकक्काथे प्रस्थो गुडरसोनतः । पक्कः पञ्चोषणरजः पादः स्यादामवातहा ॥ ५७ ॥ गन्धप्रसारणीका क्वाथ १ आढ़क, गुड़ व लहसुन मिलाकर ६४ तोला तथा पञ्चकोलका चूर्ण १६ तोला मिलाकर पकाया गया लेह आमवातको नष्ट करता है ॥ ५७ ॥ सोनसुराः । वल्कलायाः सुरायास्तु सुपक्कायाः शतं घटे । ततोऽर्धेन रखोनं तु संशुद्धं कुट्टितं क्षिपेत् ॥ ५८ ॥ १ बहुलायाः" इति वा पाठः । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [शूलान wer पिप्पली पिप्पलीमूलमजाजी कुष्ठचित्रकम् । जीरकद्वयवृश्चीरसुरसार्जकशिग्रुकैः ।। ६७ ।। नागरं मरिच चव्यं चूर्णितं चाक्षसम्मितम् ॥५९॥। दशमूलात्मगुप्ताभ्यां मार्कवैलवणैत्रिभिः । • सप्ताहात्परतः पेया वातरोगामनाशिनी । चूर्णितैः पलिकैः सार्धमारनालपरिप्लुतैः ॥ ६८॥ क्रिमिकुष्ठक्षयानाहगुल्माशःप्लीहमेहनुत् ॥ विन्यसेत्स्नेहपात्रे च धान्यराशी पुनर्व्यसेत् । अग्निसन्दीपनी चैव पाण्डुरोगविनाशिनी ।। ६०॥ सप्तरात्रात्समुद्धृत्य पानभक्षणभोजनैः॥६९॥ एक घड़े ५ सेर वल्कली नामक शराब २॥ सेर | सिध्मलेयं प्रयोक्तव्या सामे वाते विशेषतः । लहसुन कुटा हुआ तथा छोटी पीपल, पिपरामूल, भग्नरुग्णाभ्युपहताः कम्पिनः पीठसर्पिणः ॥७॥ सफेद जीरा, कूठ, चीतकी जड़, सोंठ, मिर्च व चव्य प्रत्येक | गृध्रसीमग्निसादं च शूलगुल्मोदराणि च । एक एक तोला छोड़कर ७ दिन रखनेके अनन्तर पीना | वलीपलितखालित्यं हत्वा स्युरमलेन्द्रियाः ॥७१॥ चाहिये । यह वातरोग, आमवात, क्रिमि, कुष्ठ, क्षय, अफारा, गुल्म, अर्श, प्लीहा तथा प्रमेहको नष्ट करती, अग्निको दीप्त | शीत कालमें त्वगादि रहित नवीन सूखी मछली १२०० करती तथा पांडुरोगको विनष्ट करती है ॥ ५८-६० ॥ तोला चूर्ण की हुई, कडुआ तैल ४०० तोला, सोंठ, मिर्च, पीपल, धनियां, भुनी हींग, बायविडंग, अजवाइन, हल्दी, शिण्डाकी। चव्य, पिपरामूल, अदरख, सफेद जीरा, स्याह जीरा, पुनर्नवा, तुलसी, देवना, सहिजन, दशमूल, कौंचके बीज, भांगरा तथा सिद्धार्थकखलीप्रस्थं सुधौतं निस्तुषं जले। तीनों नमक प्रत्येक ४ तोला मिला काजीसे भर देना फिर मण्डप्रस्थं विनिक्षिप्य स्थापयेहिवसत्रयम ॥६१॥ स्नेह पात्रमें भरकर अन्नके ढेरके अन्दर सात दिनतक रखना धान्यराशी ततो द पलिकानि च। चाहिये । फिर निकाल भोजन तथा भक्षण आदिसे अथवा अलम्बुषा गोक्षुरकं शतपुष्पीपुनर्नवे ॥६२॥ कवल इसका प्रयोग करना चाहिये। यह "सिध्मला"-आमवातमें प्रसारणी वरणत्वक् शुण्ठी मदनमेव च । विशेष लाभ करती है । तथा टूटे हुए, दर्दयुक्त, चोटवालोंको सम्यक्पाकं तु विज्ञाय सिद्धा तण्डुलमिश्रिता ६३॥ कम्पनवा कम्पनेवालों, पौलपर चलनेवालोंको तथा गृध्रसी, अग्निमान्द्य, भृष्टा सर्षपतैलेन हिंगुसैन्धवसंयुता । शूल, गुल्म और उदररोगवालोंको लाभ करती है। इसके सेवनसे पुरुष झुर्रियां, बालोंकी सफेदी और इन्द्रलुप्त आदिसे रहित भक्षिता लवणोपेता जयेदामं महारुजम् ।। ६४॥ होकर शुद्धेन्द्रिय होते हैं ॥ ६६-७१॥ एकजं द्वन्द्वजं साध्यं सान्निपातिकमेव च । कड्यूरुवातमानाहजानुजं त्रिकमागतम्। आमवाते वया॑नि । उदावर्तहरी पेया बलवर्णाग्निकारिणी ॥६५॥ | दधिमत्स्यगुडक्षीरपोतकीमाषपिष्टकम् । सफेद सरसोंकी खली ६४ तोला पानीमें धो भुसी अलग वर्जयेदामवाताखों गुर्वभिष्यन्दकारि च ॥ ७२ ॥. कर पानीसहित खलीमें मण्ड १२८ तोला छोड़कर ३ दिनतक दही, मछली, गुड़, दूध, पोय, उड़दकी पिटी तथा धान्यराशिमें रखना चाहिये । फिर निकालकर मुण्डी, गोखरू, भारी और अभिष्यन्दी पदार्थ आमवातवालेको त्याग देना सौंफ, पुनर्नवा, प्रसारणी, वरुणाकी छाल, सोंठ, तथा मैनफल, चाहिये ॥ ७२॥ प्रत्येकका ४ तोला चूर्ण मिलाना चाहिये । फिर पके भातके साथ इत्यामवाताधिकारः समाप्तः। सरसोंका तैल, हींग, सेंधानमक मिलाकर खानेसे आमवात, एकज, द्वन्द्वज तथा सन्निपातज रोग, कमरका दर्द, जंघाओंका दर्द, अफारा, घुटनोंका दर्द, त्रिकशूल तथा उदार्वत रोग नष्ट अथ शुलाधिकारः। होता और बल व वर्ण उत्तम होता है ॥६१-६५॥ सिधमला। .. शूले वमनलंघनाद्युपायाः। त्वगादिहीनाः संशुष्काः प्रत्ययाः सकुलादयः । । वमनं लंघनं स्वेदः पाचनं फलवर्तयः । लक्ष्णचूर्णीकृतं तेषां शीते पलशतत्रयम् ॥६६॥ क्षारचूर्णानि गुडिकाः शस्यन्ते शूलशान्तये ॥१॥ शतेन कटुतेलस्य व्योषरामठधान्यकैः। पुंसः शूलाभिपन्नस्य स्वेद एव सुखावहः । क्रिमिनदीप्यकनिशाचविकाग्रन्थिकाईकैः । | पायसैः शरैः पिष्टैः स्निग्धैर्वापि सितोत्करैः ॥२॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः भाषाटीकोपेतः। चन्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न् वमन, लंघन, स्वेदन, पाचन, फलवति, क्षार, चूर्ण तथा कल्कं समं मद्ययुतं च पीत्वा क्षारादि युक्त गोलियां शूलको शान्त करती हैं। विशेषतः शुल शूलं निहन्यादनिलात्मकं तु ॥७॥ वालको स्वेदन ही सुखदायक होता है। वह खीर, खिचड़ी, , सहिजनके बीज, हरे, कवीला, तथा स्निग्ध पिट्ठी अथवा मिश्रीयुक्त हलवेसे करना चाहिये ॥१॥२॥ शल्लकी (साखोभेद) सब समान भाग ले कल्क कर शराबके वातशूलचिकित्सा। साथ पीनेसे वातात्मक शूल नष्ट होता है ॥ ७ ॥ वातात्मकं हन्त्याचिरेण शूलं यमान्यादिचूर्णम् । स्नेहेन युक्तस्तु कुलत्थयूषः। __ यमानीहिंगुसिन्धूत्थक्षारसौवर्चलाभयाः। ससैन्धवो व्योषयतः सलाव: सुरामण्डेन पातव्या वातशूलनिषूदनाः ॥८॥ सहिंगुसौवर्चलदाडिमाढयः ॥ ३ ॥ कुलथी व बटेरका मांस दोनों मिलाकर (१ पल) चार अजवाइन, भुनी हींग, सेंधानमक, यवक्षार, काला नमक तोला, जल ६४ तोला मिलाकर पकाना चाहिये। चतर्थाश तथा बड़ी हरेका छिल्का सब समान भाग ले चूर्ण कर शराबके शेष रहनेपर उतार मलकर कपड़ेसे छान ले। फिर इस यषको स्वच्छभागके साथ पीनेसे वातजशूल नष्ट होता है। हींग, व घीमें तैल, सेंधानमक, त्रिकटु, काला नमक, अनारका विविधा योगाः। रस डालकर पीनेसे वातजन्य शूल शान्त होता है। "यूषविधि"| यही शिवदासजीने लिखी है॥३॥ विश्वमेरण्ड मूलं काथयित्वा जलं पिबेत् । हिगुसौवर्चलोपेतं सद्यः शूलनिवारणम् ॥९॥ बलादिवाथः। बलापुनर्नवैरण्डबहतीद्वयगोक्षरैः। हिगुपुष्करमूलाभ्यां हिगुसौर्वचलेन वा। विश्वैरण्डयवकाथः सद्यः शूलनिवारणः । सहिंगुलवणं पीतं सद्यो वातरुजापहम् ॥४॥ | खरेटी, पुनर्नवाकी जड़, एरण्डकी छाल, छोठी कटेरी, बड़ी | तद्वदुबुयवक्काथो हिगुसौवर्चलान्वितः ॥ १० ॥ कटेरी तथा गोखुरूका काथ, भुनी हींग व सौवर्चल नमक | सोंठ, व एरण्डकी जड़की छालका क्वाथ बनाकर भुनी । मिलाकर पीना चाहिये । इससे तत्काल ही वातजशूल शान्त हींग व कालानमक मिलाकर पीनेसे तत्काल शूल शान्त होता है ॥४॥ होता है। इसी प्रकार सोंठ, एरंडकी छाल व यवका क्वाथ, भुनी हींग व पोहकरमूलके चूर्णके साथ अथवा भुनी हींग व हिंग्यादिचूर्णम् । काले नमकके साथ पीनेसे शूल नष्ट होता है। इसी प्रकार शूली विबन्धकोष्ठोऽद्विरुष्णाभिश्चूर्णिताः पिबेत् । एरण्डकी छाल व · यवका क्वाथ, भुनी हींग व काले नमकके हिंगुप्रतिविषाव्योषवचासौवर्चलाभयाः ॥५॥ साथ पीनसे शूल नष्ट होता है ॥९॥१०॥ भुनी हींग, अतीस, त्रिकटु, वच, काला नमक, बड़ी हर्रका | छिल्का चूर्ण कर गरम जलकें साथ पीनसे शूल तथा विबन्ध द्वितीयं हिग्वादिचूर्णम् । नष्ट होता है ॥५॥ हिङ्ग्वम्लकृष्णालवणं यमानीतुम्बुदिचूर्णम् । क्षाराभयासैन्धवतुल्यभागम् । चूर्ण पिबेद्वारुणमण्डमिनं तुम्बुरूण्यभया हिंगु पोष्करं लवणत्रयम् । शूले प्रवृद्धेऽनिलजे शिवाय ॥ ११ ॥ पिबेद्यवाम्बुना वातशूलगुल्मापतन्त्रकी ॥६॥ तुम्बरू, बड़ी हर्रका छिल्का, भुनी हींग, पोहकरमूल, सेंधा- भुनी हींग, अम्लवेत, छोटी पीपल, सेंधानमक अजवानमक, कालानमक तथा समुद्र नमकका चूर्ण, यवक्षार अल इन, यवक्षार, बड़ी हर्र तथा कालानमक समान भाग ले अथवा यवके क्वाथके साथ पीना चाहिये ॥६॥ चूर्ण कर ताड़ीके स्वच्छ भागके साथ पीनेसे वातजन्य शुलकी शांति होती है* ॥११॥ श्यामादिकल्कः। श्यामा विडं शिमुफलानि पथ्या नारिकेलखण्डः। " सुपक्कनारिकेलस्य शस्यं प्रलचतुष्ट. विडङ्गकम्पिल्लकमश्वमूत्री। यम् । पिष्टवा घृतपल भृष्ट्वा क्षिपेत्खण्डचतुष्पलम् ॥ नारिकेलस्य च प्रस्थे किश्चिच्छस्यवतो जले । धान्याकं पिप्पली मुस्तं द्विजीर १ श्यामाऽत्र युद्धदारकः इति शिवदासः ॥७॥ घंशलोचनाम् ॥शाणमानं चतुतिं चूर्णं शीते क्षिपेद् बुधः। १८ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) चक्रदत्तः। । (शूला Pr-rrr - - - - - - - सौवर्चलादिगुटिका। तिलैश्च गुडिकां कृत्वा भ्रामयेज्जठरोपरि । सौवर्चलाम्लिकाजाजीमरिचैर्द्विगुणोत्तरैः। गुडिका शमयत्येषा शूलं चैवातिदुःसहम् ॥१६॥ मातुलुङ्गरसैः पिष्ट्वा गुडिकानिलशूलनुत् ॥ १२॥ नाभिलेपाजयेच्छूलं मदनः काजिकान्वितः। जीवन्तीमूलकल्को वा सतैलः पार्श्वशूलनुत् ॥१७॥ काला नमक १ भाग, इमली २ भाग, जीरा सफेद ४ भाग, काली मिर्च भाग ले चणकर बिजौरे निंबके रसमें गोली बना। बेलकी छाल, तिल तथा एरण्डकी छालको काखीके साथ लेनी चाहिये। यह वातशूलको नष्ट करती है ॥ १२॥ पीस गरम कर गुनगुनी गुनगुनी गोली पेटपर फिरानेसे शूल नष्ट होता है। इसी प्रकार काले तिलको पीस गोली बना गरम कर हिंग्वादिगुटिका। पेटपर फिरानेसे वातजन्य शूल नष्ट होता है। इसी प्रकार मैनहिङ्ग्वम्लबेतसव्योषयमानीलवणत्रिकैः । फलका चूर्ण काजीमें मिला गरम कर नाभीपर लेप करनेसे अथवा बीजपूररसोपेतैर्गुडिका वातशूलनुत् ॥ १३ ॥ जीवन्तीकी जड़का कल्क तैल मिलाकर लेप करनेसे पसलियोंका दर्द नष्ट होता है ॥ १५-१७ ॥ भुनी हींग, अम्लवेत, सोंठ, मिर्च, छोटी पीपल, अजवाइन, तीनों नमक, समान भाग ले चूर्ण कर पित्तशलचिकित्सा। बिजौरे निम्बूके रसमें गोली बनाकर सेवन करनेसे वातशुल नष्ट | गुडः शालिर्यवाः क्षीरं सर्पिष्पानं विरेचनम् । होता है ॥१३॥ जाङ्गलानि च मांसानि भेषजं पित्तशूलिनाम्॥१८॥ ... बीजपूरकमूलयोगः। पैत्ते तु शूले वमनं,पयोभीबीजपूरकमूलं च घृतेन सह पाययेत् । रसैस्तथेक्षोः सपटोलनिम्बैः। जयेद्वातभवं शूलं कर्षमेकं प्रमाणतः ॥ १४॥ शीतावगाहाः पुलिनाः सवाताः १ तोला बिजौरे निम्बूकी जड़का चूर्ण अथवा कल्क घीके | कांस्यादिपात्राणि जलप्लुतानि ॥ १९ ॥ साथ पिलानेसे वातशूल नष्ट होता है ॥ १४ ॥ विरेचनं पित्तहरं च शस्तं रसाश्च शस्ताः शशलावकानाम् । स्वेदनप्रयोगाः। सन्तर्पणं लाजमधूपपन्नं बिल्वमूलतिलैरण्डं पिष्ट्वा चाम्लतुषाम्भसा । योगाः सुशीता मधुसंप्रयुक्ताः ॥ २० ॥ गुडिको भ्रामयेदुष्णां वातशुलविनाशिनीम् ॥१५॥ छी ज्वरे पित्तभवेऽपि शूले घोरे विदाहे त्वतितर्षिते च । -हन्त्यम्लपित्तमरुचि रक्तपित्तं क्षयं वमिम् ॥शूलं च पित्तशुलं च यवस्य पेयां मधुना विमिश्रां पृष्ठरुग्नं रसायनम् । विशेषाद्वलकृद् वृष्यं पुष्टिमोजस्करं स्मृतम्॥" पिबेत्सुशीतां मनुजः सुखार्थी ।। २१ ॥ अच्छे पके हुए ताजे नारिकेल (नारियल ) की गिरी १६ धाच्या रसं विदार्या वा त्रायन्ती गोस्तनाम्बु वा । तोला प्रथम खूब महीन कतर या घिया कससे कसकर ४ पिबेत्सशर्करं सद्यः पित्तशूलनिषूदनम् ॥ २२ ॥ तोला गायके घोमें भूनना चाहिये । जब सुखी आ जावे शतावरीरसं क्षौद्रयुतं प्रातः पिबेन्नरः। तथा सुगन्ध उठने लगे, तब उसमें मिश्री १६ तोला तथा नारियलका जल १ सेर, ९ छ. ३ तो० डालकर पकाना ___ दाहशूलोपशान्त्यर्थं सर्वपित्तामयापहम् ॥ ३३ ॥ चाहिये। गाढ़ा हो जानेपर उतार लेना चाहिये तथा ठण्डा हो, गुड़, शालिके चावल, यव, दूध, घीपान, विरेचन तथा जानेपर धनियां, छोटी पीपल, नागरमोथा, दोनों जीरा, वंशलो-जांगल प्राणियोंके मांस पित्तशूलघालोंको सेवन करना चाहिये । चन, दालचीनी, तेजपात, इलायची तथा नागकेशर प्रत्येक ३ पैत्तिक शूलमें परवलकी पत्ती व नीमकी पतीका कल्क दूधमें माशेका चूर्ण मिला देना चाहिये । यह अम्लपित्त, अरुचि, अथवा ईखके रसमें मिला पीकर वमन करना चाहिये । इसी रक्तपित्त, क्षय, वमन, शूल, पृष्ठशूल तथा पित्तशूलको नष्ट | प्रकार शीतल जलादिमें बैठाना, नदीका तट, शुद्ध वायु तथा करता तथा रसायन है। (इसकी मात्रा ३ माशेसे १ तोले जलभरे कांस्यादि पात्र पेटपर फिराना, पित्तनाशक विरेचन, तक गुनगुने दूधके साथ देनी चाहिये । ) यह कुछ प्रतियों में खरगोश अथवा वटेरका मांसरस, खील व शहदका सन्तर्पण मिलता है, कुछमें नहीं। इसे योगरत्नाकरमें पाठभेदसे अम्लपि- अथवा शहदयुक्त शीतल पदार्थ सेवन करना हितकर है । पित्तताधिकारमें लिखा है । यह बहुत स्वादिष्ठ तथा गुणकारी है। जन्य छर्दि, ज्वर, शूल, दाह तथा तृष्णामें यवकी पेया ठण्डी इसका कितने ही बार अनुभव किया गया है। कर शहद मिला पानसे शांति मिलती है। इसी प्रकार आंवलेका Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] भाषाटीकोपेतः। (१३९) रस, विदारीकन्दका रस त्रायमाणका रस अथवा अङ्गुरका रस| आंवलेका चूर्ण शहदके साथ चाटनेसे पित्तशुल ना शक्कर मिलाकर पीनेसे शीघ्र ही पित्तज शूल नष्ट होता है। इसी होता है * ॥ २९ ॥ प्रकार शतावरीका रस, शहद मिलाकर प्रातःकाल पीनेसे दाह, शुल तथा समस्त पित्तज रोग शांत होते हैं ॥ १८-२३ ॥ कफजशूलचिकित्सा। श्लेष्माधिके छर्दनलङ्घनानि बृहत्यादिक्वाथः। शिरोविरेकं मधुशीधुपानम् । बृहत्यौ गोक्षुरेरण्डकुशकाशेक्षुवालिकाः । मधूनि गोधूमयवानरिष्टान् पीताः पित्तभवं शूलं सद्यो हन्युः सुदारुणम्॥२४॥ . सेवेत रूक्षान्कटुकांश्च सर्वान् ॥ ३०॥ छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, गोखुरू, एरण्डकी छाल, कुश, कफाधिक शूलमें वमन, लंघन, शिरोविरेचन (नस्य ) शहदके काश, तथा ईखकी जड़का क्वाथ पित्तज शूलको तत्काल शांत शीधु ( मद्यविशेष ) का पान, शहद, गेहूँ, यव, अरिष्ट तथा करता है ॥२४॥ रूखे और कडुए समस्त पदार्थ हितकर हैं ॥३०॥ शतावर्यादि जलम् । पञ्चकोलयवागूः। शतावरीसयष्टयाह्ववाटयालकुशगोक्षुरैः । पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। शृतशीतं पिबेत्तोयं सगुडक्षौद्रशर्करम् ॥२५॥ यवागूर्दीपनीया स्याच्छूलनी तोयसाधिता ॥३१॥ पित्तामृग्दाहशूलनं सद्यो दाहज्वरापहम् ।। पिप्पली, पपिलामूल, चव्य, चीता, सोंठ इन ओषधियोंके शतावरी, मौरेठी, खरेटी, कुश, तथा गोखुरूका जल ठण्ढ़ा| क्वाथमें सिद्ध यवागू अग्निको दप्ति करती तथा कफजन्य शूलको कर गुड़, शहद व शक्कर मिलाकर पीनेसे रक्तपित्त, दाह, शूल नष्ट करती है ॥ ३१॥ तथा दाहयुक्त ज्वर शांत होता है ॥ २५॥त्रिफलादिकाथः। * अपरो नारिकेलखंडः । “नारिकेलपलान्यष्टौ शर्कराप्रस्थ संयुतम् । तजलं पात्रमेकं तु सर्पिष्पञ्चपलानि च ॥ शुण्ठीचूर्णस्य त्रिफलानिम्बयष्टथाह्वकटुकारग्वधैः शृतम् ॥ २६ ॥ | कुडवं प्रस्थाद्धं क्षारमेव च । सर्वमेकीकृतं पात्रे शनैर्मुदामिना पाययेन्मधुसंमिश्र दाहशूलोपशान्तये। पचेत् ॥ तुगात्रिकटुकं मुस्तं चतुर्जातं सधान्यकम् । द्वे कणे त्रिफला, नीमकी छाल, मारठा, कुटका, तथा अमलतासकाकर्षयग्मं च जीरकं च पृथक्पृथक ॥ लक्षणचूर्ण विनिक्षिप्य गूदेका क्वाथ ठंढ़ा कर शहद मिला पीनेसे दायुक्त शल शान्त स्थापयेद्भाजने मृदः । खादेत्प्रतिदिनं शाणं यथेष्टाहारवानपि ॥ होता है ॥ २६ ॥ सर्वदोषभवं शूलमामवातं विनाशयेत् । परिणामभवं शुलमम्लपित्तं विनाशयेत् ॥ बलपुष्टिकरं चैव वाजीकरणमुत्तमम् । रक्तपित्तहरं एरण्डतैलयोगाः। | श्रेष्ठ छर्दिहृद्रोगनाशनम् ॥ अनिसन्दीपनकरं सर्वरोगनिबर्हणम् ॥" तैलमेरण्ड वापि मधुकक्वाथसंयुतम् ॥२७॥ |कची गरी ३२ तोला, घी २० तोलामें प्रथम भून लेना चाहिये । शूलं पित्तोद्भवं हन्याद् गुल्मं पैत्तिकमेव च। फिर उसीमें शक्कर ६४ तोला और नरियलका जल ६ से. ३२ तोला, सोंठ १६ तोला, दूध ६४ तोला सब एकमें मिलाकर अथवा एरण्डका तैल मोरेठीके क्वाथके साथ पानसे पित्त शूल धीरे धीरे मन्द आंचसे पकाना चाहिये । पाक तैयार हो जानेपर तथा पित्तज गुल्म शान्त होता है ॥ २७ ॥ उतार कर वंशलोचन, सोंठ, मिर्च, पीपल, नागरमोथा, दालअपरस्त्रिफलादिक्वाथः। चीनी, तेजपात, इलायची, नागकेशर, धानियां, छोटी पीपल, . गजपीपल, जीरा इनमेंसे प्रत्येक ओषधिका यथा-विधि निर्मित त्रिफलारग्वधक्वाथं सक्षौद्रं शर्करान्वितम् ॥२८॥ |२ तोला चूर्ण छोड़कर मिट्टीके बर्तनमें रखना चाहिये । इससे पाययेद्रक्तपित्तनं दाहशुलनिवारणम् । | प्रतिदिन ३ माश खाना चाहिये तथा यथेच्छ आहार करना त्रिफला तथा अमलतासका काथ शहद व शकर मिलाकर चाहिये । यह समस्त दोषज शुल, आमवात, परिणाम पीनेसे रक्तपित्त तथा दाहयुक्त शूल नष्ट होता है ॥ २८ ॥- शूल व अम्लपित्तको नष्ट करता है। यह रक्तपित्त, छर्दि ब हृद्रोगको नष्ट, अमिको दप्ति तथा समस्त रोगोंको दूर करता है। धात्रीचूर्णम् । यह प्रयोग भी कुछ पुस्तकोंमें हैं, कुछमें नहीं।अतः टिप्पणीरूपमें प्रलिह्यापित्तशूलनं धात्रीचूर्ण समाक्षिकम् ॥२९॥ लिखा गया है । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शूला (१४०) चन्न्न्न्न्न्न् पञ्चकोलचूर्णम् । आमशूलमें कफशूल नाशक तथा अग्निदीपक व आमपाचक लवणत्रयसंयुक्तं पञ्चकोलं सरामठम् । चिकित्सा करनी चाहिये ॥३७॥ सुखोष्णेनाम्बुना पीतं कफशूलविनाशनम् ॥३२॥ हिंग्वादिचूर्णम् । तीनों नमक, पञ्चकोल, तथा भुनी हींग सब समान भाग ले चूर्ण कर गरम जलके साथ पीनेसे कफजन्य शूल सहिगुतुम्बुरुव्योषयमानीचित्रकाभयाः। नष्ट होता है ॥ ३२॥ सक्षारलवणाश्चूर्ण पिबेत्प्रातः सुखाम्बुना ॥ ३८॥ बिल्वमूलादिचूर्णम् । विण्मूत्रानिलशूलघ्नं पाचनं वह्निदीपनम् । बिल्वमूलमथैरण्डं चित्रकं विश्वभेषजम् । भुनी हींग, तुम्बुरू, त्रिकटु, अजवायन, चीतकी जड़, बड़ी हिंगुसैन्धवसंयुकं.सद्यः शूलनिवारणम ॥३३॥ |हरेका छिल्का, यवाखार, व सेंधानमक सब समान भाग ले बेलकी जड़की छाल, एरण्डकी छाल, चीतकी जड़, सोंठ | चूर्ण कर गुनगुने गुनगुने जलके साथ पीनेसे विष्ठा, मूत्र तथा तथा भुनी हींग व सेंधानमकका चूर्ण गरम जलके साथ पीनेसे वायुकी रुकावट तथा शूल नष्ट होता है और आमका पाचन तथा अग्नि दीप्त होती है * ॥३८॥ तत्काल शूल नष्ट होता है ॥ ३३ ॥ मुस्तादिचूर्णम् । ___ * धात्रीलौहम्-" षट्पलं शुद्धमण्डूरं यवस्य कुडवं तथा । मुस्तं वचा तिक्तकरोहिणीं च पाकाय नीरप्रस्थाधं चतुर्भागावशेषितम् ॥ शतमूलीरसस्याष्टावामतथाभयां निर्दहनी च तुल्याम् । लक्या रसस्तथा । तथा दविपयोभूमिकूष्माण्डस्य चतुष्पलम् ॥ पिबेत्तु गोमुत्रयुतां कफोत्थ चतुष्पलं शर्कराया घृतस्य च चतुष्पलम् । प्रक्षेपं जीरकं धान्य शूले तथामस्य च पाचनार्थम् ॥ ३४॥ त्रिजातं करि-पिप्पलीम् ॥ मुस्तं हरीतकी चैव अभ्रं लौहं कटुनागरमाथा, दूधिया बच, कुटकी, बडी हरका छिल्का.|त्रयम् । रणुकं त्रिफलां चैव तालीशं नागकेशरम ॥ प्रत्येक तथामा, समान भाग ले चूर्ण कर गोमत्रके साथ पीनेसे कफज | कार्षिकं चूर्ण पेषयित्वा विनिक्षिपेत् । भोजनादौ तथा मध्ये शूलका नाश तथा आमका पाचन होता है॥ ३४ ॥ चान्ते चैव समाहित । तोलेकं भक्षयनित्यमनुपानं पयोऽथवा । शूलमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यमथापि वा ॥ वातिक पैत्तिकं वचादिचूर्णम् । चैव श्लैष्मिकं सानिपातिकम् । परिणामसमुत्थांश्च अन्नद्रवसमुद्भवचाब्दाग्न्यभयातिक्ताचूर्ण गोमूत्रसंयुतम् । वान् ॥ द्वन्द्वजान्पक्तिशूलांश्च अम्लपित्तं सुदारुणम् । सर्वशूलहरं सक्षारं वा पिबेत्वार्थ बिल्वादेः कफशूलवान्।।३५। श्रेष्ठं धात्रीलौहमिदं स्मृतम् ॥" शुद्ध मण्डूर २४ तो०, यव १६ मीठा वच, नागरमोथा, चीतकी जड़, बड़ी हर्रका छिल्क तोला को ६४ तो० जलमें पकाकर १६ तो० शेष छना हुआ तथा कुटकीका चूर्ण गोमुत्रके साथ अथवा बिल्वादि गणकी| क्वाथ, शतावरका रस ३२ तोला, आंवलेका रस ३२ तो० तथा औषधियोंका क्वाथ यवाखार मिलाकर पीनेसे कफजन्य शूल दही १६ तो० दूध १६ तो० तथा विदारीकन्दका रस १६ नष्ट होता है ॥ ३५॥ तो०, शक्कर १६ तो. तथा घी १६ तो. सबको मिलाकर | पकाना चाहिये । पाक तैयार हो जानेपर जीरा, धनियां, दालयोगद्वयम् । चीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, गजपीपल, नागरमोथा, मातुलुङ्गरसो वापि शिक्काथस्तथापरः। हर्र, अभ्रकभस्म, लौहभस्म, त्रिकटु, सम्भालूके बीज, त्रिफला तथा तालीशपत्र प्रत्येक १ तो० का चूर्ण छोड़ना चाहिये । सक्षारो मधुना पीतः पार्श्वहृद्वस्तिशूलनुत् ॥ ३६ ।। इसको भोजनके पहिले, मध्यमें तथा अन्तमें १ तो० की मात्रासे (१) बिजोरे निम्बूका रस(२) अथवा सहिजनकाक्वाथ यवाखार सेवन करना चाहिये । अनुपान दूध अथवा जल । यह " धात्रीव शहद मिलाकर पीनेसे पसली, हृदय तथा वस्तिके शूलको | लौह " साध्य तथा असाध्य वातिक, पैत्तिक, श्लौष्मिक तथा नट्ट करते हैं ॥३६॥ सान्निपातिक, अन्नद्रव, परिणामजन्य शूल तथा कठिन अम्ल पित्तको नष्ट करता है। यह समस्त शूलको नष्ट करनेमें श्रेष्ठ है। आमशूलचिकित्सा। वर्तमान समयमें इसकी मात्रा ४ रत्तीसे २ माशेतक है। यह आमशूले क्रिया कार्या कफशूलविनाशिनी। प्रयोग भी किसी किसी में है, किसी में नहीं । अतः टिप्पणीरूपमें सेव्यमामहरं सर्व यदमिबलवर्धनम् ॥ ३७॥ लिखा गया है । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। हा समSTUTI यान चित्रकादिक्काथः। चूर्ण पिबेद् धृदयपार्श्वकटीग्रहामचित्रकं प्रन्थिकैरण्डशुण्ठीधान्यं जलैः शृतम् ॥३९॥ पंकाशयांसभृशरुग्ज्वरगुल्मशूली ॥ ४५ ॥ शुलानाहविबन्धेषु सहिंगु विडदाडिमम् । । काथेन चूर्णपानं यत्तत्र काथप्रधानता। चीतकी जड़, पिपरामूल, एरण्डकी छाल, सोंठ तथा धनि. प्रवर्तते न तेनात्र चूर्णापेक्षी चतुर्द्रवः ॥ ४६ यांका काथ बना भुनी हींग, विडनमक तथा अनारका रस | सोंठ, एरण्डकी छाल, दशमूल और यवका क्वाथ बना मिलाकर पीनेसे शूल, अफारा तथा कब्जियत दूर होती है॥३९॥- यवाखार, सज्जीखार, भुनी हींग, तीनों नमक, तथा पोहकरदीप्यकादिचूर्णम् । मूलका चूर्ण मिलाकर पीनेसे हृदय, पसलियों व कमरका दर्द, दीप्यकं सैन्धवं पथ्या नागरं च चतुःसमम् ॥ आमाशय व पक्वाशयकी पीड़ा, ज्वर, गुल्म व शूल नष्ट होते हैं । भृशं शूलं जयत्याशु मन्दस्याग्नेश्च दीपनम ॥१०॥ जहांपर क्वाथसे चूर्णपान लिखा है, वहां क्वाथकी प्रधानता है । अतः चूर्णकी अपेक्षा चतुर्गुण द्रव छोड़ना यहां नहीं अजवायन, सेंधानमक, हर्र तथा सोंठ चारों समान | लगता ॥ ४५ ॥४६॥ भाग ले चूर्ण कर सेवन करनेसे शुलका नाश तथा अग्निकी दीप्ति होती है ॥४०॥ रुचकादिचूर्णम् । पित्तानिलात्मजशूलचिकित्सा । चूर्ण समं रुचकहिगुमहौषधानां समाक्षिकं बृहत्यादि पिबेत्पित्तानिलात्मके। शुण्ठ्यम्बुना कफसमीरणसम्भवासु । व्यामिश्रं वा विधिं कुर्याच्छूले पित्तानिलात्मके॥४१॥ हृत्पार्श्वपृष्ठजठरातिविषूचिकासु पित्तानिलात्मक शूलमें बृहत्यादि ओषधियोंका क्वाथ शहद | पेयं तथा यवरसेन तु विविबन्धे ॥४७॥ मिलाकर पीना चाहिये तथा वातपित्तकी अलग अलग कही हुई। योजना चिकित्सा अंशांश कल्पना कर मिश्रित करनी चाहिये ॥४१॥ | तेनाल्पमानमेवात्र हिगु संपरिदीयते ॥४८॥ कफपित्तजशूलचिकित्सा। काला नमक, भुनी हींग तथा सोंठका चूर्ण सोंठके क्वाथके |साथ पीनेसे कफवातजन्य हृदय, पसलियों, पीठ व उदरकी पित्तजे कफजे चापि या क्रिया कथिता पृथक् । पाड़ा तथा विचिका नष्ट होते हैं । मलकी रुकावटमें इसी एकीकृत्य प्रयुजीत तां क्रियां कफपित्तजे ॥४२॥ चूर्णको यवके क्वाथके साथ पीना चाहिये । इस पद्यमें 'सम' पित्तज तथा कफजमें जो अलग अलग चिकित्सा कही गयी का सम्बन्ध 'शुण्ठयम्बुना' से है, और वह सहार्थक है तुल्यार्थक है, उसे कफपित्तज शूलमें मिलाकर करना चाहिये ॥ ४२ ॥ नहीं, अतः हींग भी समान डालना उचित नहीं । हींग उतनी पटोलादिकाथः। ही छोड़नी चाहिये, जितनीसे मिचलाई न हो ॥४७॥४८॥ पटोलत्रिफलारिष्टाकाथं मधुयुतं पिबेत् । हिंग्वादिचूर्णम् । पित्तश्लेष्मज्वरच्छर्दिदाहशुलोपशान्तये ॥४३॥ परवलकी पत्ती, आंवला, हर्र, बहेड़ा तथा नीमकी छालका हिङ्गु सौवर्चलं पथ्याविडसैन्धवतुम्बुरु । क्वाथ शहद मिलाकर पीनेसे पित्तकफज्वर, छर्दि, दाह और पोष्करं च पिबेच्चूर्ण दशमूलयवाम्भसा ॥४९॥ शूल शान्त होते हैं ॥४३॥ पार्श्वहृत्कटिपृष्ठांसशूले तन्त्रापतानके । शोथे श्लेष्मामसेके च कणेरोगे च शस्यते ॥५०॥ वातश्लेष्मजचिकित्सा। रसोनं मधुसंमिश्रं पिबेत्रातः प्रकाङ्कितः। | भुनी हींग, तथा काला नमक, हर, बिड़लवण, सेंधा नमक, वातश्लष्मभवं शुलं विहन्तं वह्निदीप्तये॥४४॥ तुम्बुरु तथा पोहकरमूल सब समान भाग ले चूर्ण कर दशमल लहसुनका कल्क प्रातःकाल शहद मिलाकर चाटनेसे वात-व यवक क्वाथके साथ सेवन करनेसे पसलियों, हृदय, कमर, कफजशूल नष्ट हो जाता है तथा अग्नि दीप्त होती है ॥ ४४ ॥ १" द्रवशुक्त्या स लेढव्यः पातव्यश्च चतुर्दवः " इस विश्वादिकाथः। सिद्धान्तके अनुसार 'चूर्णसे चतुर्गुण ही क्वाथ मिलाना चाहिये विश्वोरुबूकदशमूलयवाम्भसातु था, पर इस (क्वाथेन चूर्णपानम् ) परिभाषासे क्वाथकी प्रधानता द्विक्षारहिगुलवणत्रयपुष्कराणाम् । सिद्ध हो जानेपर क्वाथकी मात्रा २ पल ही लेनी चाहिये। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) चक्रदत्तः। [शूला-- - पाठ और स्कन्धका शूल, अपतन्त्रक, अपतानक, शोथ, कफ| एरण्डद्वादशकक्वाथः । व आमका गिरना तथा कर्णरोग शान्त होते हैं ॥४९॥५०॥ एरण्डफलमूलानि बृहतीद्वयगोक्षुरम् । एरण्डादिकाथः। पर्णिन्यः सहदेवी च सिंहपुच्छीक्षुबालिका ॥५६॥ तुल्यैरेतैः शृतं तोयं यवक्षारयुतं पिबेत् । एरंडबिल्वबृहतीद्वयमातुलुङ्ग पृथग्दोषभवं शुलं हन्यात्सर्वभवं तथा ॥ ५७॥ पाषाणभित्रिकटुमूलकृतः कषायः। एरण्डके बीज तथा जड़की छाल, दोनों कठेरी, गोखरू, सक्षारहिगुलवणो रुबुतैलमिश्रः मुद्गपर्णी, माषपणी, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, सहदेवी, पिठवन तथा श्रोण्यसमद्रहृदयस्तनरुक्षु पयः॥ ५१॥ ईखकी जड़ सब समान भाग ले क्वाथ बना यवाखार एरण्डकी छाल, बेलका गूदा, बडी कटेरी, छोटी कटेरी, मिलाकर पीनेस दोषांसे अलग अलग उत्पन्न शूल तथा सन्निबिजोराकी छाल, पाषाणभेद, त्रिकट और पिपरामूलका क्वाथ, पातज शूल नष्ट होता है ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ यवाखार, भुनी हींग, कालानमक तथा एरण्डका तेल मिलाकर गोमूत्रमण्डूरम् । कमर, कन्धे, लिङ्ग, हृदय और स्तनोंकी पीड़ामें पीना गोमूत्रसिद्ध मण्डूरं त्रिफलाचूर्णसंयुतम् । चाहिये ॥५१॥ विलिहन्मधुसर्पिा शूलं हन्ति त्रिदोषजम् ॥५८॥ हिंग्वादिचूर्णमपरम्। गोमूत्रमें बुझाया गया मण्डूर, त्रिफलाका चूर्ण मिलाकर हिङ्गु त्रिकटुक कुष्ठं यवक्षारोऽथ सैन्धवम् । शहद व घीके साथ चाटनेसे सन्निपातज शुल नष्ट होता है ॥ ५८॥ मातुलुङ्गरसोपेतं प्लीहशूलापहं रजः ॥ ५२ ॥ भुनी हींग, त्रिकटु, कूट, यवाखार तथा सेंधानमकका चूर्ण| शंखचूर्णम् । बिजौरे निम्बूके रसके साथ पीनेसे प्लीहाका शुल नष्ट होता शङ्खचूर्ण सलवणं सहिंगु व्योषसंयुतम् । है ॥५२॥ उष्णोदकेन तत्पीतं शूलं हन्ति त्रिदोषजम् ॥५९॥ मृगशृङ्गभस्म । शंखचूर्ण (भस्म ) काला नमक, भुनी हींग व त्रिकटु चूर्ण मिलाकर गरम जलके साथ पीनेसे त्रिदोषज शूल नष्ट होता दग्धमनिर्गतधूम मृगशृङ्गं गोघृतेन सह पीतम्। । हृदयनितम्बजशूलं हरति शिखी दारुनिवहमिव ५३ लौहप्रयोगः। सम्पुटमें बन्द कर गजपुटमें भस्म किया हुआ मृगशृङ्ग तीक्ष्णायश्चूर्णसंयुक्तं त्रिफलाचूर्णमुत्तमम् । गायके घीके साथ चाटनेसे हृदय तथा कमरके शुलको अग्नि प्रयोज्यं मधुसर्पियो सर्वशुलनिवारणम् ॥ ६० ॥ लकड़ियोंके ढेरके समान नष्ट करता है ॥५३॥ तीक्ष्ण लोह भस्म व त्रिफलाका चूर्ण मिलाकर शहद व घीके विडङ्गचूर्णम् । साथ चाटनेसे समस्त शूल नष्ट होते हैं ॥ ६०॥ क्रिमिरिपुचूर्ण लीढं स्वरसेन वङ्गसेनस्य । मूत्राभयायोगः। क्षपयत्यचिरानियतं लेहोऽजीणोद्भवं शूलम् ॥५४॥ मत्रान्तःपाचितां शुद्धां लोहचूर्णसमन्विताम् । वायविडंगका चूर्ण अगस्त्यके स्वरसके साथ चाटनेसे शीघ्र सगुडामभयामद्यात्सर्वशूलप्रशान्तये ॥ ६१ ॥ ही अजीर्णजन्य शुल नष्ट होता है॥ ५४॥ गोमत्रमें पकायी हुई हरोंका चूर्ण, लौहभस्म तथा गुड़ मिलाकर खानेसे समस्त शूल शान्त होते हैं ॥ ६१॥ दाधिकं घृतम् । विदार्यादिरसः। पिप्पलं नागरं बिल्वं कारवी चव्यचित्रकम् । विदारीदाडिमरसः सन्योषलवणान्वितः । । हिंगुदाडिमवृक्षाम्लवचाक्षाराम्लवेतसम् ॥ ६२ ।। क्षौद्रयुक्तो जयत्याशु शूलं दोषत्रयोद्भवम् ।। ५५॥ वर्षाभूकृष्णलवणमजाजी बीजपूरकम् । विदारीकन्द और अनारका रस, सोंठ, मिर्च, पीपल व सेंधा दधि त्रिगणितं सर्पिस्तत्सिद्धं दाधिकं स्मृतम्॥३॥ नमकका चूर्ण व शहद मिलाकर पीनेसे सन्निपातजन्य शूल शीघ्र गुल्मार्शःप्लीहहृत्पावशूलयोनिरुजापहम् । ही नष्ट होता है ॥ ५५॥ दोषसंशमनं श्रेष्ठं दाधिकं परमं स्मृतम् ॥६४ ॥ सन्निपातजशूलचिकित्सा। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] __ 'भापाटीकोपेतः। (१४६) छोटी पीपल, सोंठ, वेलका गूदा, कलौंजी, चव्य, चीतकी | नागरादिलेहः। जड़, हींग, अनारदाना, बिजोरा, निम्बू, बच, यवाखार, अम्ल नागरतिलगुडकल्कं पयसा संसाध्य यः पुमानद्यात् । वेत, पुनर्नवा, काला नमक, सफेद जीरा, तथा इम्ली सब समान उग्रं परिणतिशलं तस्यापति त्रिसप्तरात्रेण ॥४॥ भाग ले कल्क बना कल्कसे चौगुना घी और घीसे तिगुना दही | सोंठ, तिल व गुड़का कल्क दूधके साथ पकाकर जो खाता तथा घीके समान भाग जल मिलाकर सिद्ध किया गया घृत है, उसका परिणामशूल इक्कीस दिनके प्रयोगसे अवश्य नष्ट हो सेवन करनेसे गुल्म, अर्श, प्लीहा, हृद्रोग, पार्श्वशूल, योनिशूलको जाता है ॥४॥ नष्ट करता तथा त्रिदोषको शान्त करता है। यह “दाधिकघृत" (दना संस्कृत) है।। ६२-६४ ॥ शम्बूकभस्म । शूलहरधूपः। शम्बूकजं भस्म पीतं जलेनोष्णेन तत्क्षणात् । कम्बलावृतगात्रस्य प्राणायाम प्रकुर्वतः। पक्तिजं विनिहन्त्येतच्छूलं विष्णुरिवासुरान् ॥ ५॥ कटुतैलाक्तसक्तूनां धूपः शूलहरः परः ॥६५॥ । शंख या घोंघाकी भस्म गरम जलके साथ पीनेसे पारणामकम्बल ओढ़कर प्राणायाम करते हुए कडए तैलमें साने | २० शुलको इस प्रकार नष्ट करता है जैसे विष्णु भगवान् राक्षसोंका "नाश करते हैं ॥५॥ ससूका धूप शूलको नष्ट करने में श्रेष्ठ है ॥६५॥ अपथ्यम्। विभीतकादिचूर्णम् । व्यायाम मैथुनं मद्यं लवणं कटु वैदलम् । अक्षधाच्यभयाकृष्णाचूर्ण मधुयुतं लिहेत् । वेगरोधं शुचं क्रोधं वर्जयेच्छूलवानरः ॥६६॥ दना तु लूनसारेण सतीनयवसक्तुकान् ॥६॥ कसरत, मैथुन, मद्य, नमक, कटु द्रव्य, दाल, वेगावरोध, भक्षयन्मुच्यते शूलान्नरोऽनुपरिवर्तनात् । शोक तथा क्रोध शुलवान्को त्याग देना चाहिये ॥ ६६ ॥ बहेड़ा, विला, बड़ी हरका छिल्का तथा छोटी पीपलके इति शूलाधिकारः समाप्तः। चूर्णको शहदके साथ मिलाकर चाटना चाहिये। तथा मक्खन निकाले दहीके साथ, मटर व यवके सत्तुओंके खानेसे परिणाम शूल नष्ट हो जाता है ॥६॥ -a-on तिलादिगुटिका । ___सामान्यचिकित्सा। तिलनागरपथ्यानां भागं शम्बूकभस्मनाम् ॥७॥ द्विभागं गुडसंयुक्तं गुडी कृत्वाक्षभागिकाम् । वमनं तिक्तमधुरैर्विरेकश्चापि शस्यते । शीताम्बुपानां पूर्वाह्ने भक्षयेत्क्षीरभोजनः ॥ ८॥ बस्तयश्च हिताः शूले परिणामसमुद्भवे ॥१॥ | सायाह्ने रसकं पीत्वा नरो मुच्येत दुर्जयात् । तिक्त तथा मीठे द्रव्योंसे वमन तथा विरेचन कराना। परिणामसमुत्थाच्च शूलाञ्चिरभवादपि ॥९॥ प्रशस्त है। और बस्तिकर्म कराना परिणामशलमें हितकर तिल, सोंठ, तथा हर्र प्रत्येक एक भाग, शम्बूकभस्म २भाग सबसे द्विगुण गुड़ मिलाकर १ तो० की गोली बना ठण्ढे जलके विडङ्गादिगुटिका। साथ सबेरे खाना चाहिये तथा दूधका पथ्य लेना चाहिये। सायविडङ्गतण्डुलव्योषं त्रिवृहन्तीसचित्रकम् ।। काल मांसरस पीना चाहिये । इससे मनुष्य कठिन पुराने परिसर्वाण्येतानि संस्कृत्य सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥२॥णामशूलसे मुक्त हो जाता है ॥ ७-९ ॥ गुडेन मोदकं कृत्वा भक्षयेत्प्रातरुत्थितः । शम्बूकादिवटी। उष्णोदकानुपानं तु दद्यादनिविवर्धनम् । जयस्त्रिदोषजं शूलं परिणामसमुद्भवम् ॥३॥ शम्बूक व्यूषणं चैव पञ्चैव लवणानि च । वायविडंग, सोंठ, मिर्च, पीपल, निसोथ, दन्ती, तथा समांशां गुडिकां कृत्वा कलम्बूरसकेन वा ॥१०॥ चीतेकी जड़ सब साफ कर चूर्ण करना चाहिये । फिर चूर्णसे प्रातर्भोजनकाले वा भक्षयेत्तु यथाबलम् । दूना गुड़ मिला गोली बनाकर प्रातःकाल गरम जलके साथ| शूलाद्विमुच्यते जन्तुः सहसा परिणामजात् ॥११॥ खानेसे त्रिदोषजन्य परिणामशूल नष्ट होता है तथा अमि दीप्त शम्बूकभस्म, त्रिकटु तथा पांचों नमक, समान भाग लेकर होती है ॥२॥३॥ करेमुवा ( नाड़ी ) के रसमें गोली बनाकर प्रातःकाल था अथ परिणामशूलाधिकारः। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [परिणामशूला भोजनके समय बलानुसार सेवन करना चाहिये। इससे परिणाम- सामद्र नमक. सेंधा नमक, काला नमक. रूमा नमैक.(शांभशूल नष्ट होता है ॥ १०॥११॥ | रनमक, ) खारी नमक, बिड नमक, दन्ती, लोहभस्म, मण्डूर, | निसोथ, तथा जिमीकन्द सब समान भाग ले चूर्ण कर दही, शक्तुप्रयोगः। गोमूत्र, दूध प्रत्येक चूर्णसे चतुर्गुण छोड़कर मन्द अग्निसे पकाना यः पिबति सप्तरात्रं शक्तूनेकान्कलाययूषेण । |चाहिये । सिद्ध हो जानेपर अग्निबलके अनुसार गरम जलके सजयतिपरिणामरुचिरजामापिकिमुत नूतनजाम१२ साथ पीना चाहिये । औषधि हजम हो जानेपर घीके साथ जो सात दिनतक मटरके यूषके साथ केवल सत्तूका सेवन | पकाये मांसका सेवन करना चाहिये । नाभिशूल, यकृच्छूल, करता है, उसका नवीन क्या पुराना भी पारणामशूल नष्ट गुल्म, प्लीहाका शूल, विद्रधि तथा कफ, वातज अष्टीलिका, होता है ॥ १२॥ और समस्तशूलोंको नष्ट करनेके लिये इससे बढ़कर कोई प्रयोग नहीं है। पर परिणामलको यह विशेष नष्ट करता लौहप्रयोगः । है ॥ १६-१९ ॥ लोहचूर्ण वरायुक्त विलीढं मधुसर्पिषा । परिणामशूलं शमयेत्तन्मलं वा प्रयोजितम् ॥ १३ ॥ नारिकेलामृतम् । कृष्णाभयालोहचूर्ण गुडेन सह भक्षयेत् । नारिकेलं सतोयं च लवणेन प्रपूरितम् ॥२०॥ पक्तिशूलं निहन्त्येजठराण्यग्निमन्दताम् ॥ १४ ॥ । विपक्कमग्निना सम्यक्परिणामजशूलनुत् । आमवातविकारांश्च स्थौल्यं चैवापकर्षति । वातिक पैत्तिकं चैव श्लैष्मिकं सान्निपातिकम् २१॥ पथ्यालोहरजःशुण्ठीचूर्ण माक्षिकसर्पिषा ॥ १५॥ जल भरे हुए नारियलके गोलमें नमक भरकर अग्निसे अच्छी परिणामरुजं हन्ति वातपित्तकफात्मिकाम। तरह पका लेना चाहिये । यह परिणामजशूलको तथा वातज, लोहभस्म और त्रिफलाको शहद व घीमें मिला चाटनेसे , पित्तज, कफज व सन्निपातजन्य परिणामशूलको नष्ट करता तथा इसी प्रकार मण्डूर सेवन करनेसे परिणामशूल नष्ट होता है।। है ॥२०॥२१॥ अथवा छोटी पीपल, बड़ी हर्रका छिल्का, लौहभस्म तथा गुड़ सप्तामृतं लौहम् । मिलाकर सेवन करनेसे परिणामशूल, उदररोग तथा अग्निमान्द्य | मधुकं त्रिफलाचूर्णमयोरजःसमं लिहन् । और आमवात नष्ट होता है और स्थूलता मिटती है । अथवा मधुसर्पिर्युतं सम्यग्गव्यं क्षीरं पिबेदनु ॥२२॥ लौहभस्म, हर्र व सोंठका चूर्ण शहद और धीमें मिलाकर चाटनेसे त्रिदोषज परिणामशुल नष्ट होता है ॥ १३-१५॥ छदि सतिमिरां शूलमम्लपित्तं ज्वरं क्लमम् । आनाहं मूत्रसङ्गं च शोथं चैव निहन्ति सः ॥२३॥ ' सामुद्रायं चूर्णम् । मौरेठी, त्रिफलाका चूर्ण और लौहभस्म प्रत्येक समान भाग सामुद्रं सैन्धवं क्षारो रुचकं रोमकं बिडम् । लेकर घी और शहदमें मिलाकर चाट ऊपरसे गायका दूध दन्ती लोहरजाकिटें त्रिवृच्छूरणकं समम् ॥१६॥ पीना चाहिये । यह वमन, नेत्रोंकी निर्बलता अन्धकार, शूल, दधिगोमूत्रपयसा मन्दपावकपाचितम् । अम्लपित्त, ज्वर, ग्लानि, अफारा, मूत्रकी रुकावट तथा सूजनको तद्यथाग्निबलं चूर्ण पिबेदुष्णेन वारिणा ॥१७॥ । नष्ट करता है २२ ॥२३॥ जीणे जीणे तु भुजीत मांसादि घृतसाधितम् । गुडपिप्पलीघृतम् । नाभिशूलं यकृच्छूलं गुल्मप्लीहकृतं च यत् ॥१८॥ सपिप्पलीगुडं सर्पिः पचेत्क्षीरचतुर्गुणे । यष्ठीलिकां हन्ति कफवातोद्भवां तथा। विनिहन्त्यम्लपित्तं च शलं च परिणामजम ॥२४॥ शूलानामपि सर्वेषामौषधं नास्ति तत्परम् ॥ १९ ॥ छोटी पीपल, व गुड़का कल्क तथा चतुर्गुण दूध मिलाकर परिणामसमुत्थस्य विशेषेणान्तकृन्मतम् । पकाया गया घी अम्लपित्त व परिणामशूलको नष्ट करता १ लौहभस्मकी मात्रा १ रतीसे २ रत्तीतक तथा चूर्ण ३). मासतक मिलाना चाहिये । अथवा प्रत्येक चूर्णके समान लोहभस्म अथवा समस्त चूर्णके समान लौहभस्म मिलाकर सेवन करना चाहिये । इसकी मात्रा ४ रत्तीसे १ माशेतक लेनी चाहिये ॥ पिप्पलीघृतम् । काथेन कल्केन च पिप्पलीनां सिद्धं घृतं माक्षिकसंप्रयुक्तम् । क्षीरानपस्यैव निहन्त्यवश्यं शलं प्रवृद्धं परिणामसंज्ञम् ॥ २५॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः ] छोटी पीपलके क्वाथ व कल्कसे सिद्ध किये घृतमें शहद मिला कर चाटने से तथा दूध भातका पथ्य सेवन करनेसे अवश्य ही परिणामशूल नष्ट हो जाता है ॥ २५ ॥ कोलादिमण्डूरम् । कोलाग्रन्थिकशृङ्गवेर चपलाक्षारैः समं चूर्णितं मण्डूरं सुरभीजलेऽष्टगुणिते पक्त्वाथ सान्द्रीकृतम् तं खादेदशनादिमध्यविरतो प्रायेण दुग्धान्नभुग् जेतुं वातकफामयान्परिणतौ शूलं च शूलानि च २६ || भाषा कोपेतः । चव्य, पिपरामूल, सोंठ, पीपल, तथा यवाखार प्रत्येक समान भाग, सबके समान मण्डूरका चूर्ण अठगुने गायके मूत्रमें पका गाढ़ा कर लेना चाहिये । इसे भोजनके पहिले, मध्य तथा अन्तमें खाना चाहिये और दूध भातका पथ्य लेना चाहिये । इससे वात व कफके रोग, परिणामशूल तथा अन्यशूल नष्ट होते हैं ॥ २६ ॥ भीमटकमण्डूरम् । कोलाग्रन्थिकसहितैर्विश्वषिधमागधीयवक्षारैः । प्रस्थमयोरजसामपि पलिकांशैश्चूर्णितेर्मिः ||२७|| अष्टगुणमूत्रयुक्तं क्रमपाकात्पिण्डतां नयेत्सर्वम् । कोलप्रमाणा गुडिकास्तिस्रो भोन्यादिमध्यविरतौ २८ रससर्पिर्युषपयोमांसैरश्नन्नरो निवारयति । अन्नविवर्तनशूलं गुल्मं प्लीहाग्निसादांश्च ॥ २९ ॥ चव्य, ४ तोला, पिपरामूल, सोंठ, छोटी पीपल तथा यवाखार प्रत्येक ४ तोला तथा लौहभस्म ६४ तोला सबसे अठगुना गोमूत्र मिला क्रमशः मन्द मध्य तक्ष्णि आंसे पकाकर गोली बनानेके योग्य हो जानेपर ६ माशके बराबर गोली बनानी चाहिये । इसे भोजनके पहिले मध्य में तथा अन्तमें एक एक गोली खानी चाहिये और मांसरस, घी, यूष तथा मांसके साथ भोजन करना चाहिये । इससे परिणामशूल, गुल्म, तथा प्लीहा व अग्निमांद्य नष्ट होते हैं ॥ २७-२९ ॥ क्षीरमण्डूरम् । लोह किट्टपलान्यष्टौ गोमुत्रार्धाढके पचेत् । क्षीरप्रस्थेन तत्सिद्धं पक्तिशुलहरं नृणाम् ॥ ३० ॥ किट (मण्डूर) ३२ तोला, गोमूत्र आधा आढक तथा दूध एक प्रस्थ मिलाकर पकाया गया मनुष्यों के परिणामशूलको मष्ट करता है ॥ ३० ॥ संचूर्ण्य निक्षिपेत्तस्मिन्पलांशाः सान्द्रतां गते । गुडिकाः कल्पयेत्तेन पक्तिशूलनिवारिणीः ।। ३२॥ लौह किट ३२ तोला, गोमूत्र ६४ पल, छोटी पीपल, चव्य, सोंठ, यवाखार, पिपरामूल, प्रत्येक ४ तोला छोड़कर पकाना चाहिये । गाढ़ा हो जानेपर गोली बनानी चाहिये । यह परिणामशूलको नष्ट करती है ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ । मण्डूर प्रयोगः । चविकादिमण्डूरम् | लोह कि पलान्यष्टौ गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् । विकानागरक्षा र पिप्पलीमूलपिप्पलीः ॥ ३१ ॥ १९ ( १४५) • मण्डूरं शोधितं भूतिं लोहजां वा गुडेन तु । भक्षयेन्मुच्यते शूलात्परिणामसमुद्भवात् ॥ ३३ ॥ शुद्ध किया मण्डूर अथवा लौहमस्मको गुड़के साथ खानेसे परिणामशूल नष्ट होता है ॥ ३३ ॥ शतावरीमण्डूरम् । संशोध्य चूर्णितं कृत्वा मण्डूरस्य पलाष्टकम् । शतावरीरसस्याष्टौ दघ्नस्तु पयसस्तथा ॥ ३४ ॥ पलान्यादाय चत्वारि तथा गव्यस्य सर्पिषः । विपचेत्सर्वमैकध्यं यावत्पिण्डत्वमागतम् ॥ ३५ ॥ सिद्धं तु भक्षयेन्मध्ये भोजनस्याग्रतोऽपि वा । वातात्मकं पित्तभवं शूलं च परिणामजम् ॥ ३६॥ निहन्त्येव हि योगोऽयं मण्डूरस्य न संशयः । शुद्ध तथा चूर्ण किया मण्डूर ३२ तोला, शतावरीका रस ३२ तोला, दही ३२ तोला, दूध २२ तोला तथा गायका घी १६ तोला, सबको एक में मिलाकर पकाना चाहिये । सिद्ध हो जानेपर भोजनके पहले अथवा मध्य में खाना चाहिये । वातज तथा पित्तज परिणामशूलको यह " शतावरी मण्डूर " नष्ट करता हैं ॥ ३४-३६ ॥ तारामण्डूरमुडः । विडङ्गं चित्रकं चव्यं त्रिफला त्र्यूषणानि च ॥ ३७ नवभागानि चैतानि लोहकिट्टसमानि च । गोमूत्रं द्विगुणं दत्त्वा मूत्रार्धिकगुडान्वितम् ||३८|| शनैर्मृद्वग्निना पक्त्वा सुसिद्धं पिण्डतां गतम् । स्निग्धे भाण्डे विनिक्षिप्य भक्षयेत्कोलमात्रया ॥ ३९॥ प्राङ्मध्यादिक्रमेणैव भोजनस्य प्रयोजितः । योगोऽयं शमयत्याशु पक्तिशूलं सुदारुणम् ||४० ॥ कामलां पाण्डुरोगं च शोथं मन्दाग्नितामपि । अशसि ग्रहणदोष क्रिमिगुल्मोदराणि च ॥ ४१ ॥ नाशयेदम्लपित्तं च स्थौल्यं चैवापकर्षति । वर्जयेच्छुक शाकानि विदाह्यम्लकटूनि च ॥ ४२ ॥ पक्तिशूलान्तको ह्येष गुडो मण्डूरसंज्ञकः । शूलार्तानां कृपाहतोस्तारया परिकीर्तितः ॥ ४३ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) चिक्रदत्तः । वायविडङ्ग, चीतकी जड़, चन्य, त्रिफला व त्रिकटु प्रत्येक एक भाग, सबके बराबर मण्डूर, सबसे द्विगुण गोमूत्र तथा गोमुत्र से आधा गुड़ मिलाकर धीरे धीरे मन्दाग्मिसे पकाकर गाढ़ा हो जानेपर चिकने बर्तन में रखना चाहिये । ६ माशेकी मात्रासे भोजनके पाहिले, मध्य तथा अन्तमें इसका प्रयोग करना चाहिये | यह कठिन से कठिन परिणामशूल, कामला, पाण्डुरोग, शोथ, मन्दाग्नि, अर्श, ग्रहणी, क्रिमिरोग, गुल्म, उदर तथा अम्लपित्तको नष्ट करता है । तथा शरीरकी स्थूलता को कम करता है । इसमें सूखे शाक, जलन करनेवाले, खट्टे व कडुए पदार्थों का सेवन न करना चाहिये । यह " परिणामशूलान्तक मण्डूर गुड़ ” शूलातों के ऊपर दया कर ताराने बताया था ॥ ३७-४३ ॥ राममण्डूरम् । वशिरं श्वेतवाटयालं मधुपर्णी मयूरकम् । तण्डुलीयं च कर्षा दत्त्वाधश्चोर्ध्वमेव च ॥ ४४ ॥ पाक्थं सुजीर्ण मण्डूरं गोमूत्रेण दिनद्वयम् । अन्तर्बाष्पमदग्धं च तथा स्थाप्यं दिनत्रयम् ||४५॥ विचूर्ण्य द्विगुणेनैव गुडेन सुविमर्दितम् । भोजनस्यादिमध्यान्ते भक्ष्यं कर्षत्रिभागतः ॥ ४६ ॥ तानुपानं वर्ज्य च वार्क्षमम्लकमत्र तु । अम्लपित्ते च शूले च हितमेतद्यथामृतम् ॥ ४७ ॥ चव्य, सफेद खरेटी, मौरेठी, अपामार्ग तथा चौराई प्रत्येक समान भाग ले कल्क कर आधा नीचे आधा ऊपर मध्य में कल्कके बराकर मण्डूर और सबसे चतुर्गुण गोमूत्र छोड़ बन्द कर दो दिन तक मन्द आंच से पकाना चाहिये । फिर ३ दिन ऐसे ही रखकर चूर्ण बनाना चाहिये | फिर द्विगुण गुड़ मिला विमर्दन कर रखना चाहिये । इसकी १ तोलाकी ३ खुराक बनाकर भोजनके आदि, मध्य व अन्तमें मट्ठेसे पीना चाहिये । इसमें वृक्षोंसे उत्पन्न खटाई नहीं खानी चाहिये । यह अम्लपित्त तथा शूलमें अमृतके तुल्य गुणदायक है * ॥ ४४-४७ ॥ बृहच्छतावरीमण्डूरम् - " शतावरी रसप्रस्थे प्रस्थे च सुरभीजले । अजायाः पयसः प्रस्थे प्रस्थे धात्रीरसस्य च ॥ लौह किट्ट - पलान्यष्टौ शर्करायाश्च षोडश । दत्त्वाज्यकुडवं चैव पचेन्मृद्व मना शनैः ॥ सिद्धशीते घटे नीते चूर्णानीमानि दापयेत् । विडङ्गत्रिफलाव्योषयमानीगजपिप्पलीः ॥ द्विजीरकघनानां च लक्ष्णा न्यक्षसमानि च । खादेदग्निबलापेक्षी भोजनादौ विचक्षणः ॥ निहन्ति पक्तिशूलं च अम्लपित्तं सुदारुणम् । रक्तपित्तं च शूलं च पाण्डुरोगं हलीमकम् ॥ " शतावरीका रस १ सेर ९ छ० ३ तोला, गोमूत्र १ सेर ९ छ० ३ तोला, बकरीका दूध १ सेर ९ छ० ३ तोला, आंवलेका रस १ सेर ९छ० ३ तोला, लोहकि ( मण्डूर) ३२ तोला, शक्कर ६४ तोला, तथा घी * [ परिणामशूला रसमण्डूरम् । कडवं पथ्याचूर्ण द्विपलं गन्धाश्म लोहकिट्टं च । शुद्धरसस्यार्धपलं भृङ्गस्यरसं च केशराजस्य ॥४८॥ प्रस्थोन्मितं च दत्त्वा लौहे पात्रेऽथ दण्डसंघृष्टम् । शुष्कं घृतमधुयुक्तं मृदितं स्थाप्यं च भाण्डके स्निग्धे उपयुक्तमेतदचिरान्निहन्ति कफपित्तजान् रोगान् । शूलं तथाम्लपित्तं ग्रहणीमपि कामलामुप्राम् ॥ ५० ॥ हर्र १६ तोला, शुद्ध गन्धक तथा मण्डूर प्रत्येक ८ तोला, शुद्ध पारद २ तोला, भांगरेका रस तथा काले भांगरेका रस प्रत्येक १ प्रस्थ मिलाकर लोहेके खरलमें दण्डसे घोटना चाहिये । सूख जानेपर घी और शहद मिलाकर चिकने बर्तन में रखना चाहिये । इसका प्रयोग करनेसे शीघ्र ही कफंपित जन्यरोग, शूल, अम्लपित्त, ग्रहणी और भयंकर कामलारोग नष्ट होते हैं ॥ ४८-५० ॥ त्रिफलालौहम् | अक्षामलकशिवानां स्वरसैः पक्कं सुलोहजं चूर्णम् । गुडं यद्युपभुंक्ते मुञ्चति सद्यस्त्रिदोषजं शूलम् ५१ बहेड़ा, आंवला तथा हरेके स्वरस या क्वाथ के साथ पकाया गया लौह भस्म गुड़के साथ खानेसे त्रिदोषज शूल नष्ट होता है ॥ ५१ ॥ लोहावहः । लोहस्य रजसो भागत्रिफलायास्तथा त्रयः । गुष्ट तथा भागा गुडान्मूत्रं चतुर्गुणम् ॥५२॥ एतत्सर्वं च विपचेद् गुडपाकविधानवित् । लिहेच तद्यथाशक्ति क्षये शूले च पाकजे ॥ ५३ ॥ लौहभस्म १ भाग, त्रिफला ३ भाग, गुड़ ८ भाग, गोमूत्र ३२ भाग सबको मिला पाक करना चाहिये । सिद्ध हो जानेपर यथाशक्ति चाटना चाहिये । इससे क्षय तथा परिणामशूल नष्ट होता है ॥ ५२ ॥ ५३ ॥ धात्रीलौहम् । चूर्णस्याष्टौ पलानि चत्वारि लोहचूर्णस्य । यष्टीमधुकरजश्च द्विपलं दद्यात्पटे घृष्टम् ॥ ५४ ॥ ३२ तो० सब एकमें मिलाकर मन्द आंच से पकाना चाहिये । तैयार हो जानेपर उतार ठण्डा कर वायविडंग, त्रिफला, त्रिकटु, अजवाइन, गजपीपल, दोनों जीरा, तथा नागरमोथा प्रत्येक एक तोलाका चूर्ण छोड़कर अग्निबलके अनुसार भोजनके आदिमें इसे खाना चाहिये । यह कठिन परिणामशूल, अम्लपित्त, रक्तपित्त, शूल, पाण्डुरोग और हलीमकको नष्ट करता है । सामान्य मात्रा ४ रत्ती से १ माशेतक । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः। (१४७) अमृताकार्थनैतच्चूर्ण भाव्यं च सप्ताहम् । सोंके कल्कसे लिप्त कर फिर धूपमें लेप सुख जानेपर दूसरी चण्डातपेषु शुष्कं भूयः पिष्वा नवे घटे स्थाप्यम् ५५ बार सरसोंके कल्कसे लेप कर सुखाना चाहिये । फिर तपा धृतमधुना सह युक्तं भुक्त्यादी मध्यतस्तथान्ते च । तपा कर त्रिफलाके क्वाथमें बुझाना चाहिये। फिर 'चूर्ण कर तीनपि वारान्खादेत्पथ्यं दोषानुबन्धेन || ५६ ॥ कपड़ेसे छान लेना चाहिये । फिर इसे अग्निके अनुसार शहद व घोके साथ खाना चाहिये । १ माशा, ३ माशा अथवा ४ भक्तस्यादी नाशयति व्याधीन्पित्तानिलोद्भवान्सद्यः।। माशा तक, ऊपरसे लोहसे ६४ गुना बकरीका दूध अथवा मध्येऽन्नविष्टम्भं जयति नृणां संविदह्यते नान्नम् ५७ गायका दध गरम कर गुनगुना पीना चाहिये । यह एक महीनेम पानान्नकृतान् रोगान्मुक्त्यन्ते शीलितं जयति । पारणामशूलको नष्ट करता है । इसे ब्रह्माने सर्व प्रथम बनाया था। एवं जीर्यति चान्ने निहन्ति शूलं नृणां सुकष्टमपि ५८ इसके सेवनमें ककारादि नामवाले द्रव्य तथा अम्ल पदार्थ व हरति सहसा युक्तो योगश्चायं जरत्पित्तम । जलप्राय प्रदेशके प्राणियोंके मांसको न खाना चाहिये ॥६०-६५॥ चक्षुष्यः पलितन्नः कफपित्तसमुद्भवाजयेद्रोगान् । खण्डामलकी। प्रसादयत्यपि रक्तं पाण्डुत्वं कामला जयति ॥५१॥ आंवलेका चूर्ण ३२ तोला, लोहभस्म १६ तोला, तथा | स्विन्नपीडितकूष्माण्डात्तुलार्ध भृष्टमाज्यतः ।। ६६ ।। मोरेठीका चूर्ण ८ तोला सबको एकमें मिलाकर गुर्चके क्वाथकी | प्रस्थार्धे खण्डतुल्यं तु पचेदामलकीरसात् । सात दिनतक भावना देनी चाहिये। फिर कड़ी धूपमें सुखाय प्रस्थे सुस्विन्नकूष्माण्डरसप्रस्थे विघट्टयन् ॥६७ ॥ घोटकर नये घटमें रखना चाहिये । फिर घी और शहदके साथ | दा पाकं गते तस्मिंश्चूर्णीकृत्य विनिक्षिपेत् । भोजनके आदि, मध्य तथा अन्तमें इस रीतिसे प्रतिदिन तीन | द्वे द्वे पले कणाजाजीशुण्ठीनां मरिचस्य च ॥६८॥ वार बलानुसार खाना चाहिये । पथ्य दोषोंके अनुसार लेना पलं तालीसधन्याकचातुर्जातकमुस्तकम् । चाहिये । भोजनके पहिले खानेसे पित्त, वातजन्य रोगोंको शीघ्र कर्षप्रमाणं प्रत्येकं प्रस्थाध माक्षिकस्य च ॥ ६९॥ ही नष्ट करता है । मध्यमें अन्नके विबन्धको नष्ट कर पचाता है। पक्तिशूलं निहन्त्येतदोषत्रयभवं च यत् । - भोजनक अन्तमें सेवन करनेसे अन्नपानके दोषोंको नष्ट करता है। छद्यम्लपित्तमूच्छोश्व श्वासकासावरोचकम् ॥७० । ऐसेही परिणामशूल तथा अन्नद्रव नामक शुलको भी नष्ट करता है। नेत्रोंको लाभ पहुँचाता, बालोंको काला करता, कफ, तथा हृच्छूलं रक्तपित्तं च पृष्ठशुलं च नाशयेत् । रसायनमिदं श्रेष्ठ खण्डामलकसंज्ञितम् ॥ ७१ ॥ पित्तज रोगोंको शान्त करता और रक्तको शुद्ध करता तथा पाण्डुरोग और कामलाको नष्ट करता है ॥ ५४-५९ ॥ उबालकर निचोया गया कूष्माण्ड २॥ सेर, घी ६४ तो. छोड़कर भूनना चाहिये। फिर इसमें २॥ सेर मिश्री १२८ तो. लौहामृतम् । आंवलेका रस, तथा १२८ तो० उबाले हुए कूष्माण्डका स्वरस तनूनि लोहपत्राणि तिलोत्सेधसमानि च । मिलाकर पकाना चाहिये । पाक सिद्ध हो जानेपर छोटी पपिल, कशिकामूलकल्केन संलिप्य सार्षपेण वा ॥ ६०॥ जीरा तथा सोंठ, प्रत्येक ८ तोला, काली मिर्च ४ तोला, विशोप्य सूर्यकिरणैः पुनरेवावलेपयेत् । तालीशपत्र, धनियां, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेशर, त्रिफलाया जले धमात वापयेच्च पुनः पुनः ।। ६१॥ व नागरमोथा प्रत्येक १ तोला तथा ठण्डा होने पर शहद ६४ ततः संचूर्णितं कृत्वा कर्पटेन तु छानयेत् । तोला मिलाकर रखना चाहिये । यह त्रिदोषजन्य परिणामशूल, भक्षयेन्मधुसर्पियो यथान्येतत्प्रयोगतः ॥ २ ॥ वमन, अम्लपित्त, मूछो, श्वास, कास, अरुचि, हृदयके दर्द, माषकं त्रिगुणं वाथ चतुर्गुणमथापि वा। रक्तपित्त तथा पीठके शूलको नष्ट करता है । यह “खंडामलक" श्रेष्ठ रसायन है ।। ६६-७१ ॥ छास्थ पयसः कुर्यादनुपानमभावतः ।। ६३ ॥ गवां शृतेन दुग्धेन चतुः षष्टिगुणेन च । नारिकेलखण्डः। पक्तिशूलं निहन्त्येतन्मासेनैकेन निश्चितम् ॥ ६४॥ कुडवामितमिह स्यान्नारिकेलं सुपिष्टं लौहामृतमिदं श्रेष्ठं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा । पलपरिमितसर्पिःपाचितं खण्डतुल्यम् । ककारपूर्वकं यच्च यच्चाम्लं परिकीर्तितम् ॥६५॥ । निजपयसि तदेतत्प्रस्थमात्रे विपक्कं सेव्यं तन्न भवेदत्र मांसं चानूपसम्भवम् । गुडवदथ सुशीते शाणभागान्क्षिपेच्च ॥७२॥ तिलके समान पतले लोहेके पत्रोंको कशिका (एक प्रकार धन्याकपिप्पलिपयोदतुगाद्विजीराब्चामर घास नामसे प्रसिद्ध) की जेड़के कल्कसे अथवा सर- शाणं त्रिजातमिभकेशरवद्विचूमे। . Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) [ उदावा - - - - - - हन्त्यम्लपित्तमरुचिं क्षयमस्रपित्तं . ] शालितण्डुलमण्डं वा कवोष्णं सिक्थवर्जितम् । शूलं वर्मि सकलपौरुषकारि हारि ॥७३॥ वाट्यं क्षीरेण संसिद्धं घृतपूर सशर्करम् ।। ८० ।। अच्छी तरह पिसा हुआ कच्चा नरियलका गूदा १६ शर्करां भक्षयित्वा वा क्षीरमुत्कथितं पिवेत् । तो० ४ तोला धीमें भूनना चाहिये, सुगन्ध उठने लगनेपर पटोलपत्रयूषेण खादेचणकसक्तुकान् ।। ८१ ।। बराबर मिश्री तथा नारियलका जल १२८ तो० मिलाकर विना छिल्का निकाली उड़दकी पिढीके बड़े धीमें पकाकर पकाना चाहिये । अवलेह तैयार हो जानेपर उतार ठंडा कर खाना चाहिये । अथवा गेहूंका मण्ड घी व गुड़ मिलाकर खाना धनियां, छोटी पीपल, नागरमोथा, वंशलोचन, सफेद जीरा तथा चाहिये । अथवा मिश्री व ठण्ढ़ा दूध मिलाकर खाना चाहिये । स्याह जीरा प्रत्येक ३ माशे तथा दालचीनी, तेजपात, इला-अथवा शाली चावलोंका मण्ड कुछ गरम गरम सीथ रहित यची, नागकेशर प्रत्येक ६ रत्तीका चूर्ण मिलाकर सेवन करनेसे अथवा यवका मण्ड दूध, घी व शक्कर मिलाकर पीना चाहिये । अम्लपित्त, अरुचि, क्षय, रक्तपित्त, शूल, वमन नष्ट होते हैं अथवा शकर खाकर ऊपरसे गरम दूध पीना चाहिये । अथवा तथा पुरुषत्व बढ़ता है । ७२ ॥७३॥ परवलके पत्तेके यूषके साथ चनाके सत्तुओंको खाना चाहिये७८.८१ कलायचूर्णादिगुटी। पथ्यविचारः। कलायचूर्णभागी द्वौ लोहचूर्णस्य चापरः। अन्नद्रवे जरत्पित्ते वह्निर्मन्दो भवेद्यतः। कारवेल्लपलाशानां रसेनैव विमर्दितः ॥ ७४ ॥ तस्मादत्रान्नपानानि मात्राहीनानि कल्पयेत् ॥८२॥ अन्नद्रव तथा जरत्पित्तमें अग्नि मन्द हो जाती है । अतः कर्षमात्रां ततश्चैकां भक्षयेद् गुटिकां नरः । |इसमें अन्नपान आदि सब पदार्थोंको अल्पमात्रामें ही देना मण्डानुपानात्सा हन्ति जरपित्तं सुदारुणम् ।।७५।। उचित है ॥८२॥ मटरका चूर्ण २ भाग, लौहभस्म १ भाग वर्तमान समयके लिये १ माशाकी वटी पर्याप्त होगी। भाग दोनोंको करेलेके इति परिणामशूलाधिकारः समाप्तः । पत्तेके रससे घोटकर १ तोलेकी गोली बना लेनी चाहिये । यह मण्डके अनुपानके साथ सेवन करनेसे जरत्पित्तको शान्त करती है ॥ ७४ ॥७५॥ त्रिफलायोगौ। सामान्यक्रमः। लिह्याद्वा त्रैफलं चूर्णमयश्चूर्णसमन्वितम् । यष्टीचूर्णेन वा युक्तं लिह्यात्क्षौद्रेण तद्दे ॥ ७६॥ त्रिवृत्सुधापत्रतिलादिशाक(१) अथवा त्रिफलाका चूर्ण लौह भस्मके साथ अथवा ग्राम्यौदकानूपरसैर्यवान्नम् । (२) मौरेठीके चूर्णके साथ शहद मिलाकर चाटनेसे जरत्पित्त अन्यैश्च सृष्टानिलमूत्रविभिशान्त होता है ॥ ७६ ॥ ___ रद्यात्प्रसन्नागुडसीधुपायी ॥१॥ निसोथ, सेहुण्डके पत्ते, व तिल आदिके शाक तथा प्राम्य, अन्नद्रवशूलचिकित्सा। अ आनूप जलमें रहनेवाले प्राणियोंके मांसरस तथा मल मूत्र व पित्तान्तं वमनं कृत्वा कफान्तं च विरेचनम् । वायुको शुद्ध करनेवाले दूसरे पदार्थोक साथ यवका दलिया तथा अन्नद्रवे च तत्काये जरात्पित्ते यदीरितम् ।।७७॥ | रोटी आदि खाना चाहिये और शरावका स्वच्छ भाग अथवा आमपक्काशये शुद्धे गच्छेदन्नद्रवः शमम् । गुड़से बनाया गया सीधु पीना चाहिये ॥९॥ पित्तान्त वमन व कफान्त विरेचन करनेके अनन्तर जर-1 त्पित्तकी जो चिकित्सा बतायी गयी, वह अन्नद्रव शूलमें भी . कारणभेदेन चिकित्साभेदः । करनी चाहिये । आमाशय व पक्वाशय शुद्ध हो जाने पर अन्न- आस्थापनं मारुतजे स्निग्धस्विन्नस्य शस्यते । द्रवशूल शान्त हो जाता है ॥ ७७ ॥ पुरीषजे तु कर्तव्यो विधिरानाहिकश्च यः ॥२॥ विविधा योगाः। क्षारवैतरणी बस्ती युद्ध्यात्तत्र चिकित्सकः । वातजन्य उदावर्तमें मेहन स्वेदनके अनन्तर आस्थापन बस्ति माषेण्डरी सतुषिका स्विन्ना सर्पिर्युता हिता॥७८॥ देना चाहिये । मलावरोधसे उत्पन्न उदावर्तमें आनाह नाशकी गोधूममण्डकं तत्र सपिषा गुडसंयुतम्। चिकित्सा करनी चाहिये। तथा क्षार बस्ति और वैतरणबस्ति ससितं शीतदुग्धेन मृदितं वा हितं मतम् ।।७९|| I(आस्थापनका भेद ) देना चाहिये ॥२॥ अथोदावर्ताधिकारः। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः । श्यामादिगणः । श्यामा दन्ती द्रवन्तीत्वङ् महाश्यामा स्नुही त्रिवृत् ३ कहते हैं ॥ ९ ॥ १० ॥ सप्तला शंखिनी श्वेता राजवृक्षः सतिल्वकः । ) कम्पिल्लकं करञ्जश्च हेमक्षीरीत्ययं गणः ॥ ४४ ॥ सर्पिस्तेलरजःक्काथ कल्केष्वन्यतमेषु च । उदावर्तोदरानाहविषगुल्मविनाशनः ॥ ५ ॥ काला निसोथ, दन्ती, द्रवन्ती ( दन्तीभेद ) की छाल विधारा, थूहर, सफेद निसोथ, सप्तला ( सेहुण्ड़का भेद कालादाना, सफेद विष्णुक्रान्ता, अमलतासका गूदा, पठानीलोध, कवीला, कजा तथा हेमक्षीरी ( इसे सत्यानाशी तथा भड़भाड़ भी कहते हैं ) इन औषधियोंके साथ घृत अथवा तैलका पाक करके अथवा इन औषधियांका चूर्ण, क्काथ अथवा कल्क आदि किसी प्रकार सेवन करनेसे उदावर्त, उदररोग, आनाह, विष और गुल्म नष्ट होता है ॥ ३-५ ॥ त्रिवृतादिगुटिका | ५ त्रिवृत्कृष्णाहरीतक्यो द्विचतुष्पञ्चभागिकाः । गुडिका गुडल्यास्ता विविबन्धगदापहाः ॥ ६ ॥ निसोथ २ भाग, छोटी पीपल ४ भाग, बड़ी हर्रका छिल्का भाग कूट छान सबके बराबर गुड़ मिलाकर गोली बना लेनी चाहिये | यह मलकी रुकावटको नष्ट करती है ॥ ६ ॥ हरितक्यादिचूर्णम् । हरीतकीयवक्षारपीलूनि त्रिवृता तथा । घृतेश्चूर्णमिदं पेयमुदावर्तविनाशनम् ॥ ७ ॥ बड़ी हर्रका छिल्का, यवाखार, पीलु तथा निसोथ समान भाग ले चूर्ण बनाकरं घीके साथ खानेसे उदावर्त नष्ट होता है ॥७॥ हिंग्वादिचूर्णम् । हिंगुकुष्ठवचासर्जि विडं चेति द्विरुत्तरम् । पीतं मद्येन तच्चूर्णमुदावर्तहरं परम् ॥ ८ ॥ भुनी हींग १ भाग, कूठ २ भाग, वच ४ भाग, सज्जीखार ८ भाग तथा विडनमक १६ भाग ले चूर्ण बनाकर शराब के साथ पीनेसे उदावर्तरोग निःसन्देह नष्ट होता है ॥ ८ ॥ ( १४९ ) चाहिये । यह मीठा योग राजाओंके योग्य है । इसे " नाराचचूर्ण" नाराचचूर्णम् | खण्डपलं त्रिवृता सममुपकुल्या कर्षचूर्णितं लक्ष्णम् प्राग्भोजने च समधु विडालपदकं लिहेत्प्राज्ञः ||९|| एतद्गाढपुरीषे पित्ते कफे च विनियोज्यम् । सुस्वादुर्नृपयोग्योऽयं योगो नाराचको नाम्ना ॥ १० ॥ मिश्री ४ तोला, निसोथ ४ तोला, छोटी पीपल १ तोला इन भोषधियोंका महीन चूर्ण कर भोजनके पहिले १ तोलाकी मात्रा शहद के साथ चाटनी चाहिये । इसका कड़े दस्तों के आनेमें तथा पित्त और कफजन्य उदावर्त में प्रयोग करना सौवर्चलाढयां मदिरां मूत्रे त्वभिहते पिबेत् । एलां वाप्यथ मद्येन क्षीरं वारि पिबेच्च सः ॥ १५ ॥ दुःस्पर्शास्वरसं वापि कषायं ककुभस्य च । एवारुबाजं तोयेन पिबेद्वा लवणीकृतम् ॥ १६ ॥ पञ्चमूलीशृतं क्षीरं द्राक्षारसमथापि वा । सर्वथैवोपयुञ्जीत मूत्रकृच्छ्राश्मरीविधिम् ॥ १७ ॥ मूत्रकी रुकावटसे उत्पन्न उदावर्त में काला नमक छोड़कर शराब पीना चाहिये । अथवा छोटी इलायचीका चूर्ण शराब के साथ अथवा जल व दूध एकमें मिलाकर पीना चाहिये । अथवा | यवासाका स्वरस अथवा अर्जुनकी छालका काथ अथवा ककड़ी के बीज पानी में पीस लवण मिलाकर पीना चाहिये । अथवा पश्ञ्चमूलसे अश्मरीनाशक विधिका सर्वथा सेवन करना चाहिये ॥१५-१७॥ सिद्ध दूध अथवा मुनक्केका रस पीना चाहिये । तथा मूत्रकृच्छ्र व जृम्भजाद्युदावर्तचिकित्सा । स्नेहस्वेदेरुदावर्त जृम्भजं समुपाचरेत् । अमोक्षोऽजे कार्यःस्वप्नो मद्यं प्रियाः कथाः १८ ॥ क्षवजे क्षवपत्रेण घ्राणस्थेनानयेत्क्षवम् । तथोर्ध्व जत्रुगोऽभ्यङ्गः स्वेदो धूमः सनावनः ॥१९॥ । लशुनप्रयोगः । रसोनं मद्य संमिश्रं पिबेत्प्रातः प्रकाङ्क्षितः । गुल्मोदावर्तशूलनं दीपनं बलवर्धनम् ॥ ११ ॥ प्रातःकाल भूख लगने पर शुद्ध लहसुनको मद्यके साथ मिलाकर पीवे । यह गुल्म, उदावर्त व शूलको नष्ट करता, अभि दीप्त करता तथा बलको बढ़ाता है ॥ ११ ॥ फलवर्तयः । हिङ्गुमाक्षिकसिन्धून्यैः पक्त्वा वर्ति सुनिर्मिताम् । घृताभ्यक्तां गुदे दद्यादुदावर्तविनाशिनीम् ॥ १२ ॥ मदनं पिप्पली कुष्ठं वचा गौराश्च सर्षपाः । गुडक्षारसमायुक्ताः फलवर्तिः प्रशस्यते ॥ १३ ॥ आगारधूम सिन्धूत्थतैलयुक्ताम्लमूलकम् । क्षुण्णं निर्गुण्डपत्रं वा स्विन्ने पायौ क्षिपेद् बुधः १४ हींग, शहद व सेंधानमकको पकाकर बनायी गयी बत्ती घी चुपरकर गुदामें रखनेसे उदावर्त नष्ट होता है । इसी प्रकार मैनफल, छोटी पीपल, कूठ, दूधिया जच व सफेद-ससों महीन पीस गुड़ और क्षार मिलाकर बनायी गयी बत्ती भी उत्तम है। अथवा गृहधूम, सेंधानमक तथा तैलके साथ उठायी गयी खट्टी मूलीकी बत्ती अथवा केवल सम्भालकी पत्तीके कल्ककी बत्ती गुदाका स्वेदन कर गुदामें रखनी चाहिये ॥ १२-१४॥ 1 मूत्रजोदावर्तचिकित्सा | Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) [आनाहानन्न्न न् जन्मन्न्न्न् हितं वातघ्नमयं च घृतं चौत्तरभक्तिकम् । अथानाहाधिकारः। उद्गारजे क्रमोपेतं स्नैहिकं धूममाचरेत् ॥ २०॥ छर्याघातं यथादोष नस्यस्नेहादिमिर्जयेत् । भुक्त्वा प्रच्छर्दनं धूमो लंघनं रक्तमोक्षणम् ॥ २१॥ चिकित्साक्रमः। रूक्षान्नपाने व्यायामो विरेकश्चात्र शस्यते । । उदावर्तक्रियानाहे सामे लंघनपाचनम् ॥१॥ जम्माईके अवरोधसे उत्पन्न उदावर्तमें नेहन व स्वेदन आनाहमें उदावर्तकी चिकित्सा तथा आमसहितमें लंघन व करना चाहिये । आंसुओंके अवरोधसे उत्पन्नमें आंसुओंकापाचन करना चाहिये ॥१॥ लाना, सोना, मद्य पीना तथा प्रिय कथायें सुनना हितकर है। छिकाके रोकनेसे उत्पन्नमें नकछिकनीके पत्तोंको पीस नाकमें द्विरुत्तरं चूर्णम् । रखकर छींक लाना चाहिये । तथा जत्रुके ऊपर अभ्यङ्ग, द्विरुत्तरा हिगुवचा सकुष्ठा स्वेदन तथा धूमपान व नस्य तथा वातघ्न मद्य व घृतके साथ सुवर्चिका चेति विडङ्गचूर्णम् । भोजन करना हितकर है । उद्गारजन्यमें विधिपूर्वक स्नेहयुक्त सुखाम्बुनानाहविषूचिकार्तिधूमपान करना चाहिये। वमनके रोकनेसे उत्पन्न उदावर्तमें हृद्रोगगुल्मोसमीरणनम् ॥ २ ॥ दोषोंके अनुसार नस्थ, स्नेहन आदि करना, भोजन कर वमन करना, धूमपान, लंघन, रक्तमोक्षण, रूक्ष अन्नपान, व्यायाम | भूनी हींग १ भाग, दूधिया बच २ भाग, कूठ ४ भाग, तथा विरेचन देना हितकर होता है ॥ १८-२१॥ सज्जीखार ८ भाग, वायविडङ्ग १६ भाग, सबको महीन शुक्रजोदावर्तचिकित्सा। |चूर्ण कर गुनगुने जलके साथ पीनेसे अफारा, हैजा, द्रोग, गुल्म तथा डकारोंका अधिक आना शान्त होता है ॥२॥ बस्तिशुद्धिकरावापं चतुर्गुणजलं पयः ॥ २२ ॥ आवारिनाशाकथितं पीतवन्तं प्रकामतः । वचादिचूर्णम् । रमयेयुः प्रिया नार्यः शुक्रोदावर्तिनं नरम् ॥ २३ ॥ वचाभयाचित्रकयावशूकान् अत्राभ्यङ्गावगाहाश्च मदिराश्वरणायुधाः। सपिप्पलीकातिविषान्सकुष्ठान् । शालिः पयो निरूहाश्च शस्तं मैथुनमेव च ॥२४॥ उष्णाम्बुनानाहविमूढवातान् बस्ति शुद्ध करनेवाले पदार्थोंका कल्क तथा चतुर्गुण जल पीत्वा जयेदाशु हितोदनाशी ॥३॥ छोड़कर पकाये गये दूधको पिलाकर सुन्दरी स्त्रियोंका सहवास दूधिया बच, बड़ी हर्रका छिल्का, चीतकी जड़, यवाकरावे तथा अभ्यङ्ग ( विशेषतः वस्ति व लिङ्गमें ) जलमें खार, छोटी पीपल, अतीस तथा कूठ सबको महीन चूर्ण बैठाना, शराब, मुरगेका मांसरस, शालिके चावल, दूध, निरूहण कर गुनगुने जलके साथ पीनेसे आनाह तथा वायुकी रुकावट बस्ति और मैथुन करना विशेष हितकर है ॥ २२-२४ ॥ शीघ्र ही नष्ट होती है । इसमें हितकारक पदाथोंके साथ भात खाना चाहिये ॥३॥ क्षुद्विघातादिजचिकित्सा। क्षुद्विघाते हितं स्निग्धमुष्णमल्पं च भोजनम् । । त्रिवृतादिगुटिका। तृष्णाघाते पिबेन्मन्थं यवागू वापि शीतलाम्।।२५॥ त्रिवृद्धरीतकीश्यामाः स्नुहीक्षीरेण भावयेत् । रसेनाद्यात्सुविश्रान्तः श्रमश्वासातुरो नरः। वटिका मूत्रपीतास्ताः श्रेष्ठाश्चानादिकाः ॥ ४ ॥ निद्राघाते पिबेत्क्षीरं स्वप्नः संवाहनानि च॥२६॥ निसोथ, बड़ी हर्रका छिल्का तथा काला निसोथ सबको भूखके रोकनेसे उत्पन्नमें चिकना, गरम व थोड़ा भोजन, महीन पीस थूहरके दूधकी भावना दे गोली बना गोमूत्रके साथ पीनेसे अफारा नष्ट होता है॥४॥ करना हितकर है। प्यासके रोकनेसे उत्पन्नमें मन्थ अथवा शीतल यवागू पीना चाहिये । श्रमज श्वाससे पीड़ित (थके हुए) क्षारलवणम् । पुरुषको विश्राम कराकर मांसरसके साथ भोजन कराना फलं च मूलं च विरेचनोक्तं चाहिये । निद्राघातजमें दूध पीना, सोना तथा देह दबवाना हिङ्ग्वर्कमूलं दशमूलमत्र्यम् । हितकर है ॥ २५॥२६॥ स्नुक्चित्रको चैव पुनर्नवा च इत्युदावर्ताधिकारः समाप्तः। __ तुल्यानि सवैलवणानि पञ्च ॥५॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। स्नेहः समूत्रैः सह जर्जराणि सूखी और गीली मूली, पुनर्नवाकी जड़, लघु पञ्चमूल शरावसन्धी विपचेत्सुलिप्ते। | तथा अमलतासका गूदा सब समान भाग ले कल्क करना पकं सुपिष्टं लवणं तदन्नः चाहिये । कल्कसे चौगुना घी और घीसे चौगुना जल मिला पका-कर सेवन किया गया घृत निःसन्देह उदावर्तको शान्त पानस्तथानाहरुजाघ्नमध्यम्॥६॥ करता है॥१०॥ विरेचनाधिकारोक्त फल तथा मूल, हींग, आककी जड़, दशमूल, थूहर, चीतकी जड़ तथा पुनर्नवा सब समान भाग, स्थिरावं घृतम् । सबके समान पांचों नमक ले चूर्ण कर स्नेह तथा गोमूत्र में मिला शरावसम्पुट में बन्द कर फूक देना चाहिये। इस तरह पकाये स्थिरादिवर्गस्य पुनर्नवायाः लवणको पीसकर अन्न तथा पीनेकी चीजोंके साथ प्रयोग करनेसे | सम्पाकपूतीककर अयोश्च । अफारा अवश्य दूर होता है ॥ ५ ॥६॥ सिद्धः कषाये द्विपलांशिकानां राठादिवतिः। प्रस्थो घृतात्स्यात्प्रतिरुद्धवाते ॥ ११ ॥ राठधूमविडव्योषगुडमूत्रैर्विपाचिता । शालपर्णी आदि पश्चमूल, पुनर्नवा, अमलतासका गूदा, कजा गुदेऽङ्गुष्ठसमा वर्तिर्विधेयानाहशूलनुत् ॥७॥ | तथा दुर्गन्धितकजा प्रत्येक ८ तोला ले काढ़ा बनाकर घी १२८ मैनफल, घरका धुआं, विडलवण, त्रिकटु, गुड़ तथा गोमूत्र | तोला मिलाकर पकाना चाहिये। यह घी वायुकी रुकावटको सबको एकमें मिला पकाकर बनायी गयी अंगूठेके समान मोटी। नष्ट करता है ॥११॥ बत्तीको गुदामें रखनेसे अफारा व शूल नष्ट होता है ॥ ७ ॥ इत्यानाहाधिकारः समाप्तः। त्रिकटुकादिवर्तिः। वर्तिस्त्रिकटुकसैन्धवसर्षपगृहधूमकुष्ठमदनफलैः । अथ गुल्माधिकारः। मधुनि गुडे वा पक्त्वा पायावगुष्ठमानतो वेश्या८ वतिरियं दृष्टफला गदेशनैः प्रणिहिता घताभ्यक्ता।। आनाहोदावर्तशमनी जठरगुल्मनिवारिणी ॥९॥ चिकित्साक्रमः। त्रिकटु, सेंधानमक, सरसों, घरका धुआं, कूठ, मैनफलका चूर्ण कर शहद अथवा गुड़में मिलाकर पकाकर अंगूठेके बराबर लध्वन्नं दीपनं स्निग्धमुष्णं वातानुलोमनम् । मोटी बत्ती घी चुपरकर गुदामें रखनी चाहिये । इसका फल बृंहणं यद्भवेत्सर्वं तद्धितं सर्वगुल्मिनाम् ॥१॥ देखा गया है । यह अफारा, उदावर्त, उदर व गुल्मको नष्ट स्निग्धस्य भिषजा स्वेदः कर्तव्यो गुल्मशान्तये । करती है॥८॥९॥ स्रोतसां मार्दवं कृत्वा जित्वा मारुतमुल्बणम् ॥२॥ शुष्कमूलकाचं घृतम् । भित्त्वा विबन्धं स्निग्धस्य स्वेदो गुल्ममपोहति । मूलकं शुष्कमाई च वर्षाभूः पञ्चमूलकम् । कुम्भीपिण्डेष्टकास्वेदान्कारयेत्कुशलो भिषक् ।।३।। आरेवतफलं चापि पिष्ट्वा तेन पचेद् घृतम् । उपनाहाश्च कर्तव्याः सुखोष्णाः शाल्वणादयः। तत्पीयमानं शमयेदुदावर्तमसंशयम् ॥ १०॥ स्त्यानेऽवसेको रक्तस्य बाहुमध्ये शिराव्यधः॥४॥ स्वेदोऽनुलोमनं चैव प्रशस्तं सर्वगुल्मिनाम् । १ जितने गुड़ तथा गोमूत्रसे पकाकर बत्ती बन सके, पेया वातहरैः सिद्धाः कौलत्था धन्वजा रसाः॥५॥ उतना गुड़ व गोमूत्र छोड़ना चाहिये । यह शिवदासजीका मत है । कुछ आचार्योंका मत है, कि समस्त खडाः सपञ्चमूलाश्च गुल्मिनां भोजने हिताः। चूर्णके समान गुड़, सबसे चतुर्गुण गोमूत्र छोड़कर बत्ती | जो पदार्थ हल्के, अग्निदीपक, स्निग्ध, वायुके अनुलोमन करने बनानी चाहिये। वाले तथा बृंहण होते हैं, वे समस्त गुल्मवालोंको हितकर हैं। २ यहांपर त्रिकटुकादि मिलाकर १ कर्ष, गुड़ १ कर्ष तथा गुल्मकी शान्तिके लिये,स्नेहन कर स्वेदन करना चाहिये। स्नेहन मधु ४ कर्ष मिलाकर वत्ती बनानी कुछ आचार्योको अभीष्ट है। करनेके अनन्तर किया गया स्वेदन छिद्रोंको मुलायम करता, पर इस प्रकार वत्ती बननेमें ही सन्देह है। अत: जितनेसे बन | बढे वायुको शान्त करता तथा बन्धे हुए मलकी गाठोंको सके, उतना परिमाण छोड़ना चाहिये। कोड़कर गुल्मको नष्ट करता है। इसलिये वैद्य जैसा उचित Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१) चक्रेदसः । समझे कुम्भीस्वेद, पिण्डस्वेद, इष्टिकास्वेद तथा सुखोष्ण शाल्वणादि उपनाह करें। रक्तज गुल्ममें बाहुमें शिराव्यध कर रक्तको निकाल देना चाहिये । तथा स्वेदन व वायुका अनुलोमन सभी गुल्मों हितकर है । तथा वातनाशक पदार्थोंसे सिद्ध पेया, कुलथीका यूष तथा जांगल प्राणियों का मांसरस तथा पञ्चमूल मिलकर बनाये गये खड़ गुल्मवालोंको पथ्यके साथ देने चाहियें ॥ १-५॥ वातगुल्मचिकित्सा | मातुलुङ्गरसो हिगु दाडिमं बिडसेन्धवम् || ६ | सुरामण्डेन पातव्यं वातगुल्मरुजापहम् । नागरार्धपलं पिष्टं द्वे पले लुश्चितस्य च ॥ ७ ॥ तिलस्यैकं गुडपलं क्षीरेणोष्णेन पाययेत् । वातगुल्ममुदावर्त योनिशूलं च नाशयेत् ॥ ८ ॥ बिजौरे निम्बूका रस, भुनी हींग, अनारका रस, बिडनमक, Faraar और शराबका अच्छी भाग मिलाकर पीनेसे वातगुल्म नष्ट होता है। इसी प्रकार सोंठ २ तोला, बिजौरे निम्बूका रस ८ तोला, काला तिल ४ तोला, गुड़ ४ तोला मिलाकर गरम दूध के साथ पिलाना चाहिये । यह वातगुल्म, उदावर्त और योनिशुलको नष्ट करता है ॥ ६-८ ॥ एरण्डतैलप्रयोगः । पिबेदेरण्डतैलं वा वारुणी मण्डमिश्रितम् । तदेव तैलं पयसा वातगुल्मी पिवेन्नरः ॥ ९ ॥ अथवा एरण्डका तैल ताड़ीके साथ अथवा दूधके साथ पीनेसे वातगुल्म नष्ट होता है ॥ ९ ॥ लशुनक्षरिम् । साधयेच्छुद्धशुष्कस्य लशुनस्य चतुष्पलम् । क्षीरोदकेऽष्टगुणिते क्षीरशेषं च पाययेत् ॥ १० ॥ वातगुल्ममुदावर्त गृध्रसीं विषमज्वरम् । हृद्रोगं विद्रधिं शोषं शमयत्याशु तत्पयः ॥ ११ ॥ एवं तु साधिते क्षीरे स्तोकमप्यत्र दीयते । सर्जिकाकुष्ठसहितः क्षारः केत किजोऽपि वा ॥ १२॥ तैलेन पीतः शमयेद् गुल्मं पवनसम्भवम् । [ गुहमी - शुद्ध सुखाया गया लहसुन १६ तोला अठगुने दूध और पानी में मिलाकर पकाना चाहिये, दूधमात्र शेष रहनेपर पीना चाहिये । इससे वातगुल्म, उदावर्त, गृध्रसी, विषमज्वर, हृद्रोग, विद्रधि तथा राजयक्ष्मा शीघ्र ही शान्त होता है। तथा इसी प्रकार सिद्ध दूध में संज्जीखार, कूठ तथा केवड़ेकी क्षार थोड़ा छोड़ एरण्डतैल मिलाकर पीनेसे वातज गुल्म शान्त होता |है ॥ १०-१२ ॥ 9 वातनाशक क्वाथादिसे पूर्ण घड़ेकी भापसे स्वेदन करना “कुम्भीस्वेदन,” उबाले हुए उड़द आदिकी पिण्डी बान्धकर स्वेदन करना " पिण्डस्वेद" और ईटें गरम कर वातनाशक काथसे सिश्वन करना " इष्टिकास्वेद " कहा जाता | स्वेदका विस्तार चरक सूत्रस्थान १४ अध्याय में देखिये । उत्पत्तिभेदेन चिकित्साभेदः । वातगुल्मे कफे वृद्धे वान्तिवर्णादिरिष्यते ॥ १३ ॥ पैत्ते तु रेचनं स्निग्धं रक्त रक्तस्य मोक्षणम् । स्निग्धोष्णेनोदिते गुल्मे पैत्तिके स्रंसनं हितम् ||१४|| रूक्षोष्णेन तु सम्भूते सर्पिः प्रशमनं परम् । काकोल्यादिमहातिक्तवासाद्यैः पित्तगुल्मिनम् १५ ॥ स्नेहितं स्रंसयेत्पश्चाद्योजयेद्वस्तिकर्मणा । स्निग्धोष्णजे पित्तगुल्मे कम्पिल्लं मधुना लिहेत् १६ रेचनार्थी रसं वापि द्राक्षायाः सगुडं पिबेत् । वातज गुल्म में कफ बढ़ जानेपर चूर्णादि देना तथा वमन कराना हितकर है ( यद्यपि गुल्म में वमनका निषेध है, पर | अवस्था विशेष में उसका भी अपवाद हो जाता है ) । पित्तज | गुल्म में स्नेहयुक्त रेचन और रक्तजमें रक्तमोक्षण हितकर है । गरम और चिकने पदार्थों से उत्पन्न पित्तज गुल्म में विरेचन देना चाहिये । तथा रूखे और गरम पदार्थों से उत्पन्न गुल्ममें घृतपान परम लाभ दायक होता है । पित्तगुल्मवालेको काकोल्यादि, महातिक्त अथवा वासादि घृतसे स्नेहन कर विरेचन देना चाहिये, फिर बस्ति देना चाहिये । चिकने और गरम पदार्थों से उत्पन्न पित्तगुल्म में शहद के साथ कबीला विरेचनार्थ | देना चाहिये, अथवा अंगूरका रस गुड़ मिलाकर पीना चाहिये ॥ १३-१६ ॥ - विदह्यमान गुल्मचिकित्सा । दाहशूलाऽनिलक्षोभस्वप्ननाशारुचिज्वरैः ॥ १७ ॥ विदद्यमानं जानीयाद् गुल्मं तमुपनाहयेत् । पक्के तु व्रणवत्कार्य व्यधशोधनरोपणम् ॥ १८ ॥ स्वयमूर्ध्वमधो वापिस चेद्दोषः प्रपद्यते । द्वादशाहमुपेक्षेत रक्षन्नन्यानुपद्रवान् ॥ १९ ॥ परं तु शोधनं सर्पिः शुभं समधुतिक्तकम् । यदि गुल्म में जलन, शूल, वायुका इधर उधर घूमना, निद्रानाश, अरुचि और ज्वर हो, तो गुल्मको पकता हुआ १ लशुनसे चतुर्गुण दूध और चतुर्गुण ही जल मिलाकर पाक करना चाहिये । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः 1 समझना चाहिये, अतः उसमें पुल्टिस बांधकर पकाना चाहिये, पक जानेपर व्रणके समान चीरना, साफ करना और घाव भरना चाहिये । यदि पक जाने पर दोष अपने आप ऊपरसे या नीचे से निकलने लग जायें, तो और उपद्रवोंकी रक्षा करते हुए १२ दिन तक उपेक्षा करनी चाहिये । इसके अनन्तर तिकरस युक्त शोधन द्रव्योंके साथ सिद्ध घृत शहदके साथ शोधनके लिये प्रयत्न करे ॥ १७-१९ ॥ भाषाटीकोपेतः । रोहिण्यादियोगः । रोहिणी कटुका निम्बं मधुकं त्रिफलात्वचः ॥२०॥ कर्षाशास्त्रायमाणा च पटोलत्रिवृतापले । द्विपलं च मसूराणां साध्यमष्टगुणेऽम्भसि ॥ २१ ॥ घृताच्छेषं घृतसमं सर्पिषश्च चतुष्पलम् । पिबेत्संमूच्छितं तेन गुल्मः शाम्यति पैत्तिकः ॥ २२॥ ज्वरस्तृष्णा च शूलं च भ्रममूर्च्छा रतिस्तथा । दीप्ताग्न्यादिषु स्नेहमात्रा । दीप्तायो महाकायाः स्नेहसात्म्याश्च ये नराः ॥ २३ गुल्मिनः सर्पदश्च विसर्पोपहताश्च ये । ज्येष्ठां मात्रां पिबेयुस्ते पलान्यष्टौ विशेषतः ॥ २४ ॥ दीप्ताभि, बड़े शरीरवाले, जिनको स्नेहका अधिक अभ्यास है वे, गुल्म व विसर्पवाले तथा सांपसे काटे हुए मनुष्य स्नेहकी बड़ी मात्रा अर्थात् ८ पल ( ३२ तोला ) पीवें ॥ २३ ॥ २४ ॥ कफजगुल्मजचिकित्सा । लङ्घनो लेखने वेदे कृतेऽग्नौ संप्रधुक्षिते । घृतं सक्षारकटुकं पातव्यं कफगुल्मिनाम् ॥ २५ ॥ कफगुल्मरोगियोंको लंघन, वमन, स्वदेन करनेके अनन्तर अनि दीप्त हो जानेपर क्षार और कटुद्रव्य मिश्रित घृत पिलाना चाहिये ॥ २५ ॥ वमनयोग्यता । मन्दोऽग्निर्वेदना मन्दा गुरुस्तिमितकोष्ठता । सोक्शा चारुचिर्यस्य स गुल्मी वमनोपगः ॥ २६ ॥ * यद्यपि यह मात्रा बहुत अधिक है, पर व्याधिके प्रभावसे इसकी अधिकर्ता दोषकारक नहीं, प्रत्युत लाभदायक होती है। २० ( १५३ ) कुटकी, नीमकी छाल, मौरेठी, त्रिफला, त्रायमाण प्रत्येक १ तोला, परवल की पत्ती व निसोथ प्रत्येक ४ तोला, मसूर ८ तोला, सबको दुरकुचाकर ४२ पल अर्थात् १६८ तोला जलमें पकाना चाहिये, १६ तोला बाकी रहनेपर उतार छान १६ तोला at मिलाकर पीना चाहिये इससे पैत्तिकगुल्म, ज्वर, तृष्णा, शूल, भ्रम, मूर्छा तथा बेचैनी शान्त होती है ॥ २०-२२ ॥ - हुए लोहे के पात्रसे स्वेदन करना चाहिये ॥ २९ ॥ जिसकी अनि मन्द हो, पीड़ा भी मन्द हो, पेट भारी तथा जकड़ा हुआ तथा मिचलाई और अरुचि हो, उसे वमन कराना चाहिये ॥ २६ ॥ टिकादियोग्यता | मन्देप्रावनिले मूढे ज्ञात्वा सस्नेहमाशयम् । गुडिकाचूर्णनिर्यूहाः प्रयोज्याः कफगुल्मिनाम् ॥२७॥ क्षारोऽरिष्टगणश्चापि दाहशोषे विधीयते । पञ्चमूलीकृतं तोयं पुराणं वारुणीरसम् ॥ २८ ॥ फगुल्मी पिबेत्काले जीर्ण माध्वीकमेव वा । अभिमन्द, वायुकी रुकावट और आशय स्निग्ध होनेपर गोली, चूर्ण और क्वाथ कफगुल्मवालोंको देना चाहिये । तथा जलन व शोष इत्यादिमें क्षार व अरिष्टका प्रयोग करना चाहिये । | पञ्चमूलका क्वाथ अथवा पुरानी ताड़ी अथवा पुराना माध्वीक ( शहद से बनाया गया आसव ) पीना चाहिये ॥ २७ ॥२८॥ - स्वेदौ । तिलैरण्डात सीबी जसर्षपैः परिलिप्य वा ॥ २९ ॥ श्लेष्म गुल्ममयस्पात्रः सुखोष्णैः स्वेदयेद्भिषक् । तिल, अण्डी, अलसी व सरसोंको पीस, लेप कर गरम किये तक प्रयोगः । यमानीचूर्णितं तकं बिडेन लवणीकृतम् ॥ ३० ॥ पिबेत्सन्दीपनं वातमूत्रवर्चोऽनुलोमनम् । मट्ठे में अजवायन तथा विड़नमकका चूर्ण डालकर पीनेसे अग्निदीप्ति तथा वायु, मूत्र और मलकी शुद्धता होती है ॥ ३०॥ - द्वन्द्वजचिकित्सा | व्यामिश्रदोषे व्यामिश्रः सर्व एव क्रियाक्रमः ॥ ३१ ॥ मिले हुए दोषों में मिली हुई चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ३१॥ सन्निपातजचिकित्सा । सन्निपातोद्भवे गुल्मे त्रिदोषघ्नो विधिर्हितः । यथोक्तेन सदा कुर्याद्भिषक् तत्र समाहितः ॥ ३२॥ सन्निपातज गुल्म में त्रिदोषनाशक चिकित्सा यथोक्त विधिसे करनी चाहिये ॥ ३२ ॥ वचादिचूर्णम् । वचाविडाभया शुण्ठी हिंगुकुष्ठाग्निदीप्यकाः । द्वित्रिषट्चतुरेकाष्टसप्तपञ्चाशिकाः क्रमात् । चूर्ण मद्यादिभिः पतिं गुल्मानाहोदरापहम् ॥३३॥ शूलार्थः श्वासकासनं ग्रहणीदीपनं परम् । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - --- - - चक्रदत्तः। [ गुल्मा न्य बच २ भाग, विडनमक ३ भाग, बड़ी हर्रका छिल्का ६ पूतीकादिक्षारः। भाग, सोंठ ४ भाग, भुनी हींग १ भाग, कूठ ८ भाग, पूतीकपत्रगजचिटिचव्यवह्निचीतेकी जड़ ७ भाग, तथा अजवायन ५ भाग सबका चूर्ण व्योषं च संस्तरचितं लवणोपधानम् । बना मद्य या गरम जल आदिसे पीनेसे गुल्म, आनाह, उदररोग, दग्ध्वा विचूर्ण्य दधिमण्डयुतं प्रयोज्यं शुल, अर्श, श्वास, कासको नष्ट करता तथा ग्रहणीको बलवान बनाता है ॥३३॥ गुल्मोदरश्वयथुपांडुगुदोद्भवेषु ॥ ४१ ॥ पूतिकरजके पत्ते, इन्द्रायनकी जड़, चव्य, चीतकी जड़, यमान्यादिचूर्णम् । त्रिकटु, तथा सेंधानमक सब समान भाग ले मिट्टीकी हंडिया में यमानीहिंगुसिन्धूत्थक्षारसौवर्चलाभयाः। बन्द कर फूंक देना चाहिये । फिर महीन चूर्ण कर दहीके सुरामण्डेन पातव्या गुल्मशूलनिवारणाः ॥ ३४ ॥ तोड़के साथ गुल्म, उदर, सूजन, पाण्डु व अर्श रोगमें प्रयोग करना चाहिये ॥४१॥ अजवायन, भुनी हींग, सेंधानमक, यवाखार, कालानमक तथा बड़ी हर्रके छिल्केके चूर्णको शराबके स्वच्छ भागके साथ हिंग्वादिप्रयोगः। पीनेसे गुल्म व शुल नष्ट होता है ॥ ३४॥ हिंगुपुष्करमूलानि तुम्बुरूाण हरीतकीम् । हिंग्वाद्यं चूर्ण गुटिका वा। श्यामां बिडं सैन्धवं च यवक्षारं महौषधम् ॥४२॥ यवक्काथोदकेनैतद् धृतभृष्टं तु पाययेत् । हिंगु त्रिकटुकं पाठां हपुषामभयां शटीम् ।। तेनास्य भिद्यते गुल्मः सशुलः सपरिग्रहः॥ ४३ ।। अजमोदाजगन्धे च तिन्तिडीकाम्लवेतसौ ॥ ३५॥ दाडिमं पौष्करं धान्यमजाजी चित्रकं वचाम् ।। हींग, पोहकरमूल, तुम्बुरू, बड़ी हर्रका छिल्का, निसोथ, विडनमक, सेंधानमक, यवखार तथा सोंठ सब समान भाग द्वी क्षारी लवणे द्वे च चव्यं चैकत्र चूर्णयेत् ॥३६॥ ले घीमें भूनकर यवके काढ़ेके साथ पीना चाहिये । इससे चूर्णमेतत्प्रयोक्तव्यमनपानेवनत्ययम् । गुल्मका भेदन होता तथा शुलादि अन्य सब उपद्रव नष्ट प्राग्भक्तमथवा पेयं मद्येनोप्णोदकेन वा ॥ ३७ ॥ होते हैं ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ पार्श्वहृद्वस्तिशूलेषु गुल्मे वातकफात्मके। वचादिचूर्णम्। आनाहे मूत्रकृच्छ्रे च गुदयोनिरुजासु च ॥ ३८ ॥ प्रहण्योंविकारेषु प्लीह्नि पाण्ड्वामयेऽरुची। । वचा हरीतकी हिंगु सैन्धवं साम्लवतसम् । उरोविबन्ध हिकायां श्वासे कासे गलग्रहे ॥३९॥। यवक्षारं यमानी च पिबेदुष्णेन वारिणा ।। ४४ ॥ भावितं मातुलुङ्गस्य चूर्णमेतद्रसेन वा । एताद्ध गुल्मनिचयं सशूलं सपरिग्रहम् ।। बहुशो गुडिकाः कार्याःकार्मुकाःस्युस्ततोऽधिकम्४० भिनत्ति सप्तरात्रेण वह्नर्दीप्तिं करोति च ॥ ४५ ॥ बच, हर, भुनी हींग, सेंधानमक, अम्लवेत, यवाखार, भनी हीङ्ग, सोंठ, मिर्च, पीपल, पाढ़, हाऊबेर, बड़ी तथा अजवायनका चूर्ण कर गरम जलके साथ पीनेसे सात हर्रका छिल्का, कचूर, अजमोद, अजवाइन, तिन्तिड़ीक, दिनमें शूल व जकड़ाहट युक्त गुल्म नष्ट होता और आग्नि अम्लवेत, अनारदाना, पोहकरमूल, धनियां, जीरा, चीतेकी | दीप्त होती है ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ जड़, वच, यवाखार, सज्जीखार, सेंधानमक, कालानमक तथा चव्य सबका चूर्ण कर अन्नपानमें प्रयोग करना चाहिये। सुराप्रयोगः। इसमें किसी प्रकारके परहेजकी आवश्यकता नहीं अथवा | पिप्पलीपिप्पलीमूलचित्रकाजाजिसैन्धवः । भोजनके पहिले मद्यके साथ अथवा गरम जलके साथ पीना| यक्ता पीता सुरा हन्ति गुल्ममाशु सुदुस्तरम् ४६।। चाहिये । यह पसलियों, हृदय और बस्तिके शूल, गुल्म छोटी पीपल, पिपरामूल, चीतेकी जड़, सफेद जीरा (वातकफात्मक), अफारा, मूत्रकृच्छ, गुद व योनिकी पीड़ा, तथा सेंधानमकका चूर्ण मिलाकर पी गयी शराब शूलको शीघ्र प्रहणी, अर्श, प्लीहा, पाण्डुरोग, अरुचि, छातीकी जकड़ाहट, ही नष्ट करती है ॥४६ ॥ हिका, श्वास, कास तथा गलेकी जकड़ाहटको दूर करता है। अथवा बिजौरे निम्बूके रसमें अनेक भावना देकर इसकी (एक नादेय्यादिक्षारः। एक माशेकी मात्रासे ) गोली बना लेनी चाहिये, यह विशेष | नादेयाकुटजाशिबृहतीस्नुग्विल्वभल्लातकगुण करती है ॥ ३५-४०॥ । | व्याघ्रीकिंशुकपारिभद्रकजटाऽपामार्गनीपाग्निकम् । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। - D - - - वासामुष्ककपाटलाः सलवणा दग्ध्वा जले पाचितं प्लीहा, कुष्ठ और अर्श व शोथसे पीड़ित पुरुषको सेवन करना हिंग्वादिप्रतिवापमेतदुदितं गुल्मोदराष्ठीलिषु॥४७॥ चाहिये ॥ ४९ ॥ ५० ॥ अरणी, एरण्ड अथवा जामुनकी छाल, कुड़की छाल, आक, कांकायनगुटिका। सहिंजनेकी छाल, बड़ी कटेरी, थूहर, बेलकी छाल, भिलावांकी छाल, छोटी कटेरी, ढाक, नीमकी छाल, लटजीरा, कदम्ब, शटी पुष्करमूलं च दन्ती चित्रकमाढकीम् । चीतेकी जड़, अडूसा, मोखा, पाढ़ल, इनमें नमक डालकर | शृङ्गवेरं वां चैव पलिकानि समाहरेत् ।। ५१ ।। सबको जला भस्म कर ६ गुन जलमें मिला २१ बार छानकर | क्षारविधिसे पकाना चाहिये । तैयार हो जानेपर भुनी हींग, | त्रिवृतायाः पलं चैव कुर्यात् त्रीणि च हिगुनः। यवाखार, काला नमक आदिका प्रतिवाप छोड़कर उतारना। यवक्षारपले द्वे च द्वे पले चाम्लवेतसात् ॥ ५२ ।। चाहिये । इसका गुल्म, उदर तथा पथरीमें प्रयोग करना यमान्यजाजी मरिचं धान्यकं चेति कार्षिकम् । चाहिये ॥४७॥ उपकुच्यजमोदाभ्यां तथा चाष्टमिकामाप ॥५३।। हिंग्वादिभागोत्तरचूर्णम् । मातुलुङ्गरसेनव गुटिकाः कारयेद्भिषक् । तासामेकां पिबेद् द्वे च तिस्रो वापि सुखाम्बुना५४ हिंगूप्रगन्धाबिडशुण्ठयजाजी अम्लैश्च मधhषैश्च घृतेन पयसाऽथवा । ___ हरीतकीपुष्करमूलकुष्ठम् । भागोत्तरं चूर्णितमेतदिष्टं एपा काङ्कायनेनोक्ता गुडिका गुल्मनाशिनी ॥५५॥ अशीहृद्रोगशमनी क्रिमीणां च विनाशिनी । · गुल्मोदराजीर्णविषूचिकासु ।। ४८ ॥ गोमूत्रयुक्ता शमयेत् कफगुल्मं चिरोत्थितम् ॥५६॥ भुनी हींग १ भाग, बच २ भाग, विड नमक ३ भाग, क्षीरेण पित्तगुल्मं च मयेरम्लैश्च वातिकम् ।। सोंठ ४ भाग, जीरा ५ भाग, हरै ६ भाग. पोहकरमूल ७ भाग त्रिफलारसमूत्रैश्च नियच्छेत् सान्निपातिकम् । कूठ ८ भाग, सबका चूर्ण कर गुल्म, उदररोग, अजीर्ण और | रक्तगुल्मे च नारीणामुष्ट्रोक्षीरेण पाययेत् ॥ ५७ ॥ विषूचिकामें प्रयोग करना चाहिये ॥ ४० ॥ कचर, पोहकरमल, दन्ती, चीतकी जड. अरहर, सोंठ तथा त्रिफलादिचूर्णम् । बच प्रत्यक ४ तोला, निसोथ ४ तोला, भुनी हींग १२ तोला, त्रिफलाकाञ्चनक्षीरीसप्तलानीलिनीवचाः। |यवाखार ८ तोला, अम्लवेत ८ तोला, अजवायन, जीरा, मिर्च त्रायन्तीहपुषातिक्तात्रिवृत्सैन्धवपिप्पलीः ॥४९॥ धनियां प्रत्येक १ तोला, कलौंजी तथा अजमोद प्रत्येक २ पिबेत्संचूर्ण्य मूत्रोष्णवारिमांसरसादिभिः। तोला, सबका चूर्ण कर विजौरे निम्बूके रससे गोली बना लेनी सवेगुल्मोदरप्लीहकुष्ठाशेः शोथखेदितः ॥५०॥ चाहिये । इनमेंसे १ या २ या ३ गोलियोंका गरम जल, काजी, मद्य, यूष, घृत अथवा दूधके साथ सेवन करना चाहिये । यह. त्रिफला, स्वर्णक्षीरी, सातला, नील, बच,त्रायमाण, हाऊबर | कांकायनकी बतायी हुई गोली गुल्म अर्श तथा हृद्रोगको शान्त कुटकी, निसोथ, सेंधानमक तथा छोटी पीपल सबका चूर्ण कर करती और कीडोंको नष्ट करती है । गोमूत्रके साथ पुराने कफज गोमूत्र, गरम जल अथवा मांसरसके साथ सर्वगुल्म, उदररोग, गुल्मको धके साथ पित्तज गुल्मको, मद्य तथा काजीके साथ |वातज गुल्मको, त्रिफलाके क्वाथ व गोमूत्रके साथ सानिपातिक १नाइयो" भूमिजम्बू, अरणी, नारङ्गी, भूम्यामल, एरण्ड गुल्मको तथा ऊंटनीक दूधके साथ स्त्रियोंके रक्तगुल्मको नष्ट काश और जलवेतके लिये आता है तथा यह पानीयक्षार है, | करती है ॥ ५१-५७ ॥ अतः उसकी विधि इस प्रकार शिवदासजीने लिखी है-नादेयी आदे जला, एक आढक या एक तोला भस्म ले चतुर्गुण या हपुषाद्य घृतम् । षड्गुण जलमें २१ बार छान पकाकर चतुर्थोश शेष रहनेपर हपुषाव्योषपृथ्वीकाचव्यचित्रकसैन्धवैः । उतारकर फिर २१ बार छानकर रखना चाहिये । इसका १ कर्ष या २ कर्ष उसीके अनुसार चतुर्थीश हिंग्वादि प्रतीवाप __ साजाजीपिप्पलीमूलदीप्यकविपचेद् घृतम् ॥५८॥ छोड़ना चाहिये । और फिर उसे मांस, घी या दूधसे किसी सकोलमूलकरसं सक्षीरं दधि दाडिमम् । एकमें छोड़कर पीना चाहिये । कुछ आचार्योंका सिद्धान्त है कि तत्परं वातगुल्मन्नं शूलानाहविबन्धनुत् ।। ५९ ॥ रखनेसे क्षार जल अम्लतामें परिणत हो जायगा, अतः प्रतिदिन योन्यर्थीग्रहणीदोषश्वासकासाऽरुचिज्वरम् । पीने योग्य पका लेना चाहिये ॥ पार्श्वहद्वस्तिशूलं च घृतमेतद्वधपोहति ॥ ६०॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६ ) चक्रदत्तः । हाऊबेर, त्रिकटु, बड़ी इलायची, चव्य, चीतकी, जड़, पर उतारना चाहिये । यह घृत पित्तगुल्म, रक्तगुल्म, विसर्प, सेंधानमक, सफेद जीरा, पिपरामूल, अजवायन इनका कल्क पित्तज्वर, हृद्रोग, कामला तथा कुष्ठको नष्ट करता है । और कल्कसे चतुर्गुण घृत तथा घृतके समान प्रत्येक बेर व इस क्वाथमें पलके मानसे द्विगुण नहीं होता, अतएव मूली का रस (काथ) दूध, दही व अनारका रस छोड़कर पकाना ४० पल अर्थात् १६० तोला ( २ सेर ) जल छोड़ा चाहिये । यह वातगुल्म, शूल, आनाह तथा विबन्ध, योनिदोष, जाता है ॥ ६४-६८ ॥ अर्श, ग्रहणीदोष, श्वास, कास, अरुचि ज्वर, पसलियों, हृदय और बस्तिके शुलको नष्ट करता है ॥ ५८-६० ॥ द्राक्षाद्यं वृतम् । द्राक्षामधूकखर्जूरं विदारी सशतावरीम् । परूषकाणि त्रिफलां साधयेत्पलसंमिताम् ॥ ६९ ॥ जलाढके पादशेषे रसमामलकस्य च । घृतमिक्षुरसं क्षीरमभयाकल्कपादिकम् ॥ ७० ॥ साधयेत्तु घृतं सिद्धं शर्कराक्षीद्रपादिकम् । याजयेत्पित्तगुल्मन्नं सर्वपित्तविकारनुत् ॥ ७१ ॥ साहचर्यादिह पृथग्घृतादेः क्वाथतुल्यता ॥ ७२ ॥ पञ्चपलकं घृतम् । पिप्पल्याः पिचुरध्यर्धो दाडिमाद् द्विपलं पलम् । धान्यात्पश्व घृताच्छुण्ठयाः कर्षः क्षीरं चतुर्गुणम् ॥ सिद्धमेतैर्धृतं सद्यो वातगुल्मं चिकित्सति । योनिशूलं शिरःशूलमशसि विषमज्वरान् ॥ ६२ ॥ छोटी पीपल १॥ तोला, अनारदानेका रस ८ तोला, धनियां ४ तोला, घी २० तोला, सोंठ १ तोला, दूध १ सेर छोड़कर पकाना चाहिये । यह घी वातगुल्म, योनिशूल, शिरःशूल अर्श और विषमज्वरको नष्ट करता है ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ त्र्यूषणाद्यं घृतम् । त्र्यूषणत्रिफलाधान्यविडङ्गचव्यचित्रकैः । ॥ कल्कीकृतेर्धृतं सिद्धं सक्षीरं वातगुल्मनुत् ॥ ६३ त्रिकटु, त्रिफला, धनियां वायविडङ्ग, चव्य, चीतकी जड इनका कल्क तथा दूध मिलाकर सिद्ध किया गया घृत वातगुल्मको नष्ट करता है ॥ ६३ ॥ [ गुल्मा मुनक्का, महुवा, छुहारा, विदारीकन्द, शतावरी, फाल्सा तथा त्रिफला प्रत्येक ४ तोला लेकर एक आढ़क जलमें पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर क्वाथके बराबर आंवले का रस, उतना ही ईखका रस, उतना ही घी, उतना ही दूध और घृतसे चतुर्थांश हर्रका कल्क छोड़कर पकाना | चाहिये । सिद्ध हो जानेपर उतार छानकर घीसे चतुर्थांश मिलित शहद व शक्कर छोड़ना चाहिये। यह पितगुल्म तथा समस्त पित्तरोगों को नष्ट करता है । यहां अनुक्तमान होनेसे साहचर्यात् घृतादिकाथ के समान ही छोड़ना चाहिये ॥ ६९-७२ ॥ धात्रीषट्पलकं घृतम् । धात्रीफलानां स्वरसे षडङ्गं पाचयेद् घृतम् । शर्करासैन्धवोपेतं तद्धितं सर्वगुल्मिनाम् ॥ ७३ ॥ त्रायमाणाद्यं घृतम् । जले दशगुणे साध्यं त्रायमाणाचतुष्पलम् । पञ्चभागस्थितं पूतं कल्कैः संयोज्य कार्षिकैः ॥ ६४ ॥ रोहिणीकटुका मुस्तत्रायमाणादुरालभैः । कल्कैस्तामलकीवीराजीवन्ती चन्दनोत्पलैः ॥ ६५ ॥ चाता है ॥ ७३ ॥ रसस्यामलकीनां च क्षीरस्य च घृतस्य च । पलानि पृथगष्टाष्टौ दत्त्वा सम्यग्विपाचयेत् ॥६६॥ पित्तगुल्मं रक्तगुल्मं विसर्प पैत्तिकं ज्वरम् । हृद्रोगं कामलां कुष्ठं हन्यादेतद् घृतोत्तमम् ||६७ ॥ पलोल्लेखागते माने न द्वैगुण्यमिष्यते । चत्वारिंशत्पलं तेन तोयं दशगुणं भवेत् ॥ ६८ ॥ त्रायमाण १६ तोला, जल २ सेर मिलाकर पकाना चाहिये । १ सेर बाकी रहनेपर उतार छानकर नीचे लिखी चीजोंका कल्क प्रत्येक एक तोला छोड़ना चाहिये । कल्कद्रव्य- कुटकी, मोथा, श्रायमाण, जवासा, भुंइआंवला, क्षीरकाकोली, जीवन्ती, चन्दन तथा नीलोफर और आंवलेका रस ३२ तोला, दूध ३२ तोला श्री ३२ तोला, मिलाकर पकाना चाहिये, घृतमात्र शेष रहने आंवलेकं स्वरसमें पञ्चकोल व यवाखारका कल्क व घी मिलाकर सिद्ध करनेसे समस्त गुल्मोंको लाभ पहुं भाङ्गषट्पलकं घृतम् । षड्भिः पलैर्मगधजाफलमूलचन्यविश्वौषधज्वलनयावजकल्कपक्कम् । प्रस्थं घृतस्य दशमूल्युरुबूकभाङ्गक्वाथेऽप्यथोपयसि दनि च षट्पलाख्यम् ॥७४॥ गुल्मोदरा रुचि भगन्दरवह्रिसादकासज्वरक्षयशिरोप्रहणीविकारान् । सद्यः शमं नयति ये च कफानिलोत्था भाङ्गर्याख्यषट्पलमिदं प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ ७५ ॥ पञ्चकोल व यवाखार प्रत्येक एक पल ( इस प्रकार ६ पल ) का कल्क, घी १ प्रस्थ ( १२८ तोला ) और दशमूल, एरण्ड Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] भाषाटीकोपेतः। - और भारजीका क्वाथ घीसे चतुर्गुण, दूध समान तथा दही चतु-1 लहसुनका स्वरस, पञ्चमूलका क्वाथ, शराब, काजी, दहीका र्गुण मिलाकर, सिद्ध किया गया घृत गुल्म, उदर, अरुचि, | तोड़ तथा मूलीका स्वरस प्रत्येक घीके समान तथा घीसे चतुर्थाश भगन्दर, अग्निमांद्य, कास, ज्वर, क्षय, शिरोरोग, ग्रहणीरोग | त्रिकटु, अनारदाना, इमली, अजवायन, चव्य, सेंधानमक, हींग, तथा कफ, व वातजन्यरोगोंको शान्त करता है । इसे अम्लवेत, जीरा तथा अजवायन प्रत्येक समान भागका कल्क "भाषिट्पल घृत" कहते हैं ॥ ७४ ॥ ७५॥ छोड़कर सिद्ध किया घृत गुल्म, ग्रहणी, अर्श, श्वास, उन्माद, क्षय, घर, कास, अपस्मार, मन्दाग्नि, प्लीहा, शूल और वायुको क्षीरषदपलकं घृतम् । नष्ट करता है॥ ८२-८४ ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। पलिकैः सयवक्षारैः सर्पिष्प्रस्थं विपाचयेत् ।। ७६॥ दन्तीहरीतकी। क्षीरप्रस्थेन तत्सर्पिर्हन्ति गुल्मं कफात्मकम् । जलद्रोणे विपक्तव्या विंशतिः पञ्च चाभयाः। ग्रहणीपाण्डुरोगन्नं प्लीहकासज्वरापहम् ॥ ७७ ॥ । दन्त्याः पलानि तावन्ति चित्रकस्य तथैव च ।।८५ छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, चीतकी जड़, सोंठ तथा| तेनाष्टभागशेषेण पचेद्दन्तीसमं गुडम् । यवाखार प्रत्येक एक पल, घी २ प्रस्थ, दूध २ प्रस्थ, जल ६ ताश्चाभयानिवृच्चूर्णात्तैलाचापि चतुष्पलम् ॥८६॥ 'प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये । यह घी कफात्मक गुल्म, पलमेकं कणाशुण्ठयोः सिद्धे लेहे च शीतले । ग्रहणी, पाण्डुरोग, प्लीहा, कास और ज्वरको नष्ट करता नौद्रं तैलसमं दद्याचातुर्जातपलं तथा ।। ८७ ॥ है॥ ७६ ॥ ७७ ॥ ततो लेहपलं लीढ्वा जग्ध्वा चैकां हरीतकीम् । भल्लातकघृतम् । सुखं विरिच्यते स्निग्धो दोषप्रस्थमनामयः ॥८८॥ भल्लातकानां द्विपलं पञ्चमूलं पलोन्मितम् । प्लीहश्वयथुगुल्मार्थीहृत्पाण्डुग्रहणीगदाः।। साध्यं विदारीगन्धाढयमापोथ्य सलिलाढके।।७८॥ शाम्यन्त्युत्क्लेशविषमज्वरकुष्ठान्यरोचकाः ८९ ॥ पादावशेषे पते च पिप्पली नागरं वचाम । बड़ी हर. २५, दन्ती १। सेर, चीतकी जड़ १। सेर, जल विडङ्गं सैन्धवं हिलगु यावशूकं बिडं शटीम् ॥७९॥ द्रोण (द्रवद्वैगुण्यात् २५ सेर ९ छ. ३ तो०) में पकाना चित्रकं मधुकं रास्नां पिष्ट्वा कर्षसमान्भिषक। चाहिये, अष्टमांश शेष रहनेपर उतार छानकर दन्तीके बराबर प्रस्थं च पयसो दत्त्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत रा|गुड़ तथा पहिलेकी हरें मिलाना चाहिये तथा निसोथ १६ तोला और तिलतैल १६ तोला, छोटी पीपल २ तोला, तथा सोंठ एतद्भल्लातकं नाम कफगुल्महरं परम् । २ तोला छोड़कर पकाना चाहिये । अवलेह सिद्ध हो जानेपर. प्लीहपाण्ड्वामयश्वासग्रहणीकासगुल्मनुत् ॥ ८१॥ उतार ठण्डाकर तेलके समान शहद तथा दालचीनी, तेजपात, भिलावा ८ तोला, लघुपश्चमूल प्रत्येक ४ तोला सबको छोटी इलायची, व नागकेशरका मिलित चूर्ण ४ तोला छोड़ना दुरकुचाकर एक आढ़क जलमें पकाना चाहिये, चतुर्थीश शेष चाहिये। इसमेंसे ४ तोला, अवलेह चाटना और एक हरै खाना रहनेपर उतार छानकर छोटी पीपल, सोंठ, वच, वायविडंग, चाहिये, इससे स्निग्ध पुरुष सुखपूर्वक १ प्रस्थ दोषोंको विरेचनसे सेंधानमक, हींग, यवाखार, विड़नमक, कचूर, चीतकी जड़, निकालता है और प्लीहा, सूजन, गुल्म, अर्श, हृद्रोग, पाण्डुरोग, मौरेठी, तथा रासन प्रत्येक एक तोला पीसकर छोड़ना चाहिये ग्रहणीरोग, मिचलाई, विषमज्वर, कुष्ठ और अरोचक रोग नष्ट तथा घी १२८ तोला और दूध १२८ तोला छोड़कर पकाना होते हैं ॥ ८५-८९ ॥ चाहिये । यइ "भल्लातक घृत" कफज गुल्म, प्लीहा, पाण्डुरोग, श्वास, ग्रहणी, कास और गुल्मको नष्ट करता है ॥७८-८१॥ वृश्चीराधरिष्टः। वृश्वीरमुरुबूकं च वर्षाढू बृहतीद्वयम् । रसोनायं घृतम् । चित्रकं च जलद्रोणे पचेत्पादावशेषितम् ॥ ९॥ रसोनस्वरसे सपिः पञ्चमूलरसान्वितम् । मागधीचित्रकक्षौद्रलिप्तकुम्भे निधापयेत् । सुरारनालदध्यमलमूलकस्वरसैः सह ॥ ८२॥ मधुनः प्रस्थमावाप्य पथ्याचूर्णार्धसंयुतम् ॥ ९१॥ व्योषदाडिमवृक्षाम्लयमानीचव्यसैन्धवैः। वुषोषितं दशाहं च जीर्णभक्तः पिबेन्नरः। हिङ्ग्वम्लवेतसाजाजीदीप्यकैश्च पलान्वितैः ॥८॥ अरिष्टोऽयं जयेद् गुल्ममविपाकं सुदुस्तरम् ।। ९२॥ सिद्धं गुल्मग्रहण्यर्शःश्वासोन्मादक्षयज्वरान् । । पुनर्नवा, एरण्डकी छाल, सफेद पुनर्नवा, दोनों कटेरी, चीतकी कासाऽपस्मारमन्दामिप्लीहशूलानिलाजयेत् ॥८४॥ जड़ सब मिला , तुला, १ द्रोण जल ( द्रवद्वैगुण्यात् २५० सेर Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) चक्रदत्तः। [हृद्रोगानन्न्नन्न्न्न न्न् ८ तो०) में पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर छोटी पीपल, क्षारयुक्त मांस (या तिल कल्क ) अथवा थूहरके दूधके सहित चीतकी जड़ और शहदसे लिपे घड़ेमें रखना चाहिये तथा शहद मांसपिण्ड योनिमें धारण करे और रक्तके अधिक बहनेपर रक्त. १२८ तो० और हरड़ोंका चूर्ण ३२ तोला मिलाकर १० दिनतक | पित्तनाशक चिकित्सा करे ॥ ९६-९८ ॥ बुसके अन्दर रखना चाहिये फिर निकाल छानकर अन्न हजम भल्लातकघृतम् । होनेके बाद पीना चाहिये । यह अरिष्ट गुल्म और मन्दाग्निको | नष्ट करता है ॥ ९०-९२ ॥ भल्लातकात्कल्ककषायपक्वं सर्पिः पिबेच्छकरया विमिश्रम् । रक्तगुल्मचिकित्सा। तद्रक्तपित्तं विनिहन्ति पीतं बलासगुल्मं मधुना समेतम् ।। ९९ ॥ रोधिरस्य तु गुल्मस्य गर्भकालव्यतिक्रमे । भिलावेक कल्क और क्वाथसे पकाया गया घृत शकरके साथ स्निग्धस्विन्नशरीरायै दद्यास्निग्धं विरेचनम् ॥९३॥ पीनेसे रक्तपित्त और शहदके साथ पीनेसे कफगुल्मको नष्ट करता रक्तगुल्मकी चिकित्सा गर्भकाल व्यतीत हो जानेपर ही|ह ॥९॥ करनी चाहिये । उस समय नेहन स्वेदन कर निग्ध विरेचन अपथ्यम्। देना चाहिये ॥१३॥ बल्लूरं मूलकं मत्स्याञ्शुष्कशाकानि वैदलम् । . न खादेचालुकं गुल्मी मधुराणि फलानि च ॥१०॥ शताबादिकल्कः। सूखा मांस, मूली, मछली, सूखे शाक, दाल, आलू और शताहाचिरबिल्वत्वग्दारुभाङ्गीकणोद्भवः। मीठे फल गुल्मवालेको नहीं खाने चाहिये ॥ १० ॥ कल्कः पीतो हरेद् गुल्मं तिलक्वाथेन रक्तजम् ॥९४| इति गुल्माधिकारः समाप्तः। सौंफ, कजाकी छाल, देवदारु, भारंगी तथा छोटी पीपलका कल्क तिलके काढ़ेके साथ पीनेसे रक्तगुल्म नष्ट | अथ हृद्रोगाधिकारः। होता है ॥ ९४ ॥ तिलक्वाथः। वातजहृद्रोगचिकित्सा। तिलक्काथो गुडव्योषहिंगुभाीयुतो भवेत् । । वातोपसृष्टे हृदये वामयेस्निग्धमातुरम् । पानं रक्तभवे गुल्मे नष्टपुष्पे च योषिताम् ॥ ९५ ॥ द्विपञ्चमूलीकाथेन सस्नेहलवणेन च ॥१॥ तिलका क्वाथ, गुड़, त्रिकटु, भुनी हींग तथा भारंगीका. वातहृदोगयुक्त पुरुषको स्निग्ध कर दशमूलके क्वाथमें स्नेह, नमक और वमनकारक द्रव्य मिलाकर वमन कराना चूर्ण मिलाकर रक्तगुल्म तथा मासिकधर्म न होनेपर देना। चाहिये ॥२॥ चाहिये ॥९५॥ पिप्पल्यादिचूर्णम् । विविधा योगाः। पिप्पल्येलावचाहिगुयवक्षारोऽथ सैन्धवम् । सक्षारत्र्यूषणं मद्य प्रपिबेदस्रगुल्मिनी। सौवर्चलमथो शुण्ठीमजमोदावचूर्णितम् ॥ २ ॥ पलाशक्षारतोयेन सिद्धं सर्पिः पिबेच्च सा ॥ ९६ ॥ फलधान्याम्लकोलत्थदधिमद्यासवादिभिः । उष्णैर्वा भेदयेद्भिन्ने विधिरासृग्दरो हितः। पाययेच्छुद्धदेहं च स्नेहेनान्यतमेन वा ॥ ३ ॥ न प्रभिद्येत यद्येवं दद्याद्योनिविशोधनम् ॥ ९७॥ छोटी पीपल, बड़ी इलायची, वच, भुनी हींग, यवाखार, क्षारेण युक्तं पलल सुधाक्षीरेण वा पुनः। | सेंधानमक, कालानमक, सोंठ, तथा अजवाइन सब समान भाग रुधिरेऽतिप्रवृत्ते तु रक्तपित्तहरी क्रिया ॥९८॥ १ कुछ पुस्तकोंमें “ पलल" शब्दका ऐसा विवरण है किरक्तगुल्मिनी यवाखार व त्रिकटुके सहित मद्य पीवे । अथवा पलाशक्षारके साथ पलल ( तिलचूर्ण) को मिला कर जलके पलाशके क्षार जलसे सिद्ध घृत पीवे । अथवा गरम प्रयोगोंसे | साथ घे टकर बर्तिका बना ले । अथवा पलाश क्षार तथा गुल्मको फोडना चाहिये, फिर रक्तप्रदरकी चिकित्सा करनी तिलकल्कको थोहरके साथ घोटकर बर्तिका बना ले।(इस बर्तिचाहिये । यदि इस प्रकार न फूटे तो योनिविशोधनके लिये | काको योनिमें रखनेस योनि विशुद्ध हो जाती है)। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषार्टीकोपेतः। ले चूर्ण कर फलरस, काजी, कुलस्थक्वाथ, दधि, मद्य, आसव | अर्जुनकी छाल अथवा लघुपञ्चमूल अथवा बलामूल अथवा आदिमेंसे किसी एकके साथ अथवा किसी स्नेहके साथ शुद्ध | खरेटी और मौरेठीसे सिद्ध किया दूध मिश्री मिलाकर पीना पुरुषको पिलाना चाहिये ॥२॥३॥ चाहिये ॥८॥ नागरक्वाथः। - ककुभचूर्णम् । नागरं वा पिबेदुष्णं कषायं चाग्निवर्धनम् । । घृतेन दुग्धेन:गुडाम्भसा वा कासश्वासानिलहरं शुलहृद्रोगनाशनम्॥४॥ पिबन्ति चूर्ण ककुभत्वचो ये । अथवा सोंठका गरम गरम क्वाथ पीना चाहिये । इससे हृद्रोगजीर्णज्वररक्तपित्तं अग्नि बढ़ती है तथा कास, श्वास, वायु, शूल व हृद्रोग नष्ट ! ___हत्वा भयेयुश्चिरजीविनस्ते ॥९॥ होते हैं ॥४॥ जो लोग अर्जुनकी छालका चूर्ण घी, दूध अथवा गुड़के पित्तजहंद्रोगचिकित्सा। शर्बतके साथ पीते हैं, वे हृद्रोग जीर्णज्वर व रक्तपित्तरहित होकर श्रीपीमधुकक्षौद्रसितागुडजलैक्मेत् । चिरजीवी होते हैं ॥९॥ पित्तोपसृष्टे हृदये सेवेत मधुरैः शृतम् । कफजहृद्रोगचिकित्सा । घृतं कषायांश्चोद्दिष्टान्पित्तज्वरविनाशनान् ॥ ५॥ वचानिम्बंकषायाभ्यां वान्तं हृदि कफोत्थिते । खम्भारके फल, मौरेठी, शहद, मिश्री, गुड़ और जल मिला वातहृद्रोगहृचूर्ण पिप्पल्यादि च योजयेत् ॥ १० ॥ पीकर वमन करना चाहिये । तथा मधुर औषधियोंसे सिद्ध घृत तथा पित्तज्वरनाशक वाथका सेवन करना। कफज हृद्रोगमें वच व नीमके काढ़ेसे वमन कराकर वातरोगचाहिये * ॥५॥ | नाशक पिप्पल्यादि चूर्ण खिलाना चाहिये ॥ १० ॥ अन्ये उपायाः। त्रिदोषजहृद्रोगचिकित्सा। त्रिदोषजे लङ्घनमादितः स्याशीताः प्रदेहाः परिषेचनानि दन्नं च सर्वेषु हितं विधेयम् । तथा विरेको हृदि पित्तदुष्टे । द्राक्षासिताक्षौद्रपरूषकैः स्या हीनाधिमध्यत्वमवेक्ष्य चैव कार्य त्रयाणामपि कर्म शस्तम् ॥११॥ च्छुद्धे च पित्तापहमन्नपानम् ॥६॥ पिष्टवा पिबेद्वापि सिताजलेन । त्रिदोषजमें पहिले लंघन कराना चाहिये । फिर त्रिदोषनाशक अन्नपान तथा दोषोंकी न्यूनाधिकता देखकर उचित चिकित्सा यष्टथालयं तिक्तकरोहिणी च ॥७॥ करनी चाहिये ॥११॥ पित्तज हृद्रोगमें शीतल लेप, शीतल सेक तथा विरेचन देना | चाहिये । शुद्ध हो जानेपर मुनक्का, मिश्री, शहद, फाल्सा पुष्करमूलचूर्णम् । इत्यादिके साथ पित्तनाशक अन्नपानका सेवन करना चाहिये। चूर्ण पुष्करजं लिह्यान्माक्षिकेण समायुतम् । अथवा मौरेठी और कुटकीका चूर्णकर मिश्रीके शर्बतके साथ | हृच्छूलकासश्वासनं क्षयहिक्कानिवारणम् ॥१२॥ पीना चाहिये ॥६॥७॥ पोहरकरमूलका चूर्ण शहदके साथ चाटनेसे हृद्रोग, क्षीरप्रयोगः। श्वास, कास, क्षय और हिक्का रोग नष्ट होते हैं ॥ १२॥ अर्जुनस्य त्वचा सिद्धं क्षीर योज्यं हृदामये । गोधूमपार्थप्रयोगः। सितया पञ्चमूल्या वा बलया मधुकेन वा ॥ ८॥ तैलाज्यगुडविपक्वं गोधूमं वापि पार्थ चूर्णम् । * मधुर औषधियोंसे यहां काकोल्यादि गण लेना चाहिये । पिबति पयोऽनु च स भवे- . उसका पाठ सुश्रुतमें इस प्रकार है-काकोलीक्षीरकाकोलीजीवकर्षभकमुद्गपर्णीमेदामहामेदाछिनरुहाकर्कट_गीतुगाक्षीरीपनक जितसकलहदामयः पुरुषः॥ १३ ॥ प्रपौण्डरीकवृिद्धिमृद्वीकाजीवन्त्यो मधुकं चेति।" काकोल्यादि.. जो मनुष्य तैल, घी और गुड़ मिलाकर पकाया गहूँके आटे रयं पित्तशोणितानिलनाशनः । जीवनो बृहणो वृष्यः स्तन्य- और अर्जुनकी छालके चूर्णका हलुवा खाता है और ऊपरसे दूध श्लेष्मकरः सदा ॥" पिता है, उसके सकल हद्दोग नष्ट होते हैं ॥१३॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) (द्रोगा गोधूमादिलप्सिका। पाढ, वच, यवाखार, बड़ी हर्रका छिल्का, अम्लवेत, यवासा, गोधूमककुभचूर्ण छागपयोगव्यसर्पिषि विपक्बम् । चीतेकी जड़, त्रिकटु, त्रिफला, कचूर, पोहकर मूल, तिन्ति डीक, अनारदाना तथा बिजौरे निम्बूकी जड़ सबका महीन मधुशर्करासमेतं शमयति हृद्रोगमुद्धतं पुंसाम्॥१४॥ चूर्ण कर कुछ गरम जल अथवा मद्यके साथ पिलाना गेहंका आटा और अर्जुनकी छालका चूर्ण मिला बकरीके दूध चाहिये । यह अर्श, शूल, हृद्रोग और गुल्मको शीघ्र ही नष्ट व गायके धीमें पका शहद व शक्कर मिलाकर खानेसे उद्धत | करता है ॥ १९-२१॥ हृद्रोग शान्त होता है ॥ १४ ॥ मृगशङ्गभस्मा नागबलादिचूर्णम् । पुटदग्धमश्मपिष्टं हरिणविषाणं तु सर्पिषा पिबतः । मूलं नागबलायास्तु चूर्ण दुग्धेन पाययेत् । हृत्पृष्ठशूलमुपशममुपयात्यचिरेण कष्टमपि ॥२२॥ हृद्रोगश्वासकासन्नं ककुभस्य च वल्कलम् ॥ १५ ॥ पुटमें पकाकर पीसा गया मृगशृङ्ग घीके साथ चाटनेसे रसायनं परं बल्यं वातजिन्मासयोजितम् । कष्टसाध्य भी हृदोग तथा पृष्ठशूल शीघ्र ही शान्त होता संवत्सरप्रयोगेण जीवद्वर्षशतं ध्रुवम् ॥ १६ ॥ ॥ २२ ॥ गंगेरनकी जड़ और अर्जुनकी छालका चूर्ण दूधके साथ पीनेसे क्रिमिहृद्रोगचिकित्सा। हृद्रोग, श्वास, कासको नष्ट करता तथा रसायन और बल-| कारक है । एक मास प्रयोग करनेसे वातको नष्ट करता है | क्रिमिहद्रोगिणं स्निग्धं भोजयेत्पिशितौदनम् । और १ वर्षतक निरन्तर प्रयोग करनेसे १०० वर्षतक मनुष्य दध्ना च पललोपेतं म्यहं पश्चाद्विरेचयेत् ।। २३ ।। जीता है ॥ १५॥१६॥ सुगन्धिभिः सलवणैर्योगैः साजाजिशर्करैः। विडङ्गगाढं धान्याम्लं पाययद्धितमुत्तमम् ।। २४ ॥ हिंग्वादिचूर्णम् । क्रिमिजे च पिबेन्मूत्रं विडङ्गाभयसंयुतम् । हिगूपगन्धाबिडविश्वकृष्णा हदि स्थिताः पतन्त्येवमधस्ताक्रिमयो नृणाम । कुष्ठाभयाचित्रकयावशूकम् । यवान्न वितरेचास्मै सविडङ्गमतः परम् ।।.२५॥ पिबेच्च सौवर्चलपुष्कराढयं । क्रिमिज हृदोगवालेको स्नेहयुक्त मांस मिश्रित भातको दही यवाम्भसा शूलहृदामयेषु ॥ १७॥ व तिल कल्क मिला ३ दिन खिलाकर विरेचन देना चाहिये । भुनी हींग, वच, बिडनमक, सोंठ, छोटी पीपल, कूठ, बड़ी तथा नमक, जीरा व शकरके सहित वायविडङ्ग छोड़कर सुगन्ध युक्त काजी पिलाना हितकर है। अथवा कूठ और वायविडहर्रका छिल्का, चीतेकी जड़, जवाखार, कालानमक तथा पोह ङ्गका चूर्ण छोड़ गोमूत्र पीना चाहिये । इससे हृदयस्थित करमूलका चूर्ण बनाकर यवके काढ़ेके साथ पीनेसे शुल और कीड़े दस्तद्वारा निकल जाते हैं। इसके अनन्तर यवका पथ्य हृदोग नष्ट होता है ॥ १७॥ वायाविडङ्गका चूर्ण मिलाकर देना चाहिये ॥ २३-२५ ॥ दशमूलक्काथः। वल्लभकं घृतम् । दशमूलीकषायं तु लवणक्षारयोजितम् । मुख्यं शताध च हरीतकीनां कासं श्वासं च हृद्रोगं गुल्मं शूलं च नाशयेत् १८ सौवर्चलस्यापि पलद्वयं च । दशमूलका काढा नमक और जवाखार मिलाकर पिलानेसे कास, श्वास, हृद्रोग, गुल्म और शूल नष्ट होते हैं ॥ १८॥ पक्कं घृतं वल्लभकेति नाना ___हृच्छ्वासशूलोदरमारुतघ्नम् ।। २६ ॥ पाठादिचूर्णम् । उत्तम ५० हरड़ें व काला नमक ८ तोलाका कल्क पाठां वचां यवक्षारमभयामम्वेतसम् । छोड़कर घृत पकाना चाहिये। यह "वल्लभ घृत" हृद्रोग, दुरालभां चित्रकं च त्र्यूषणं च फलत्रिकम् ॥१९॥श्चास, शूल, उदररोग और वातरोगोंको नष्ट करता शठी पुष्करमूलं च तिन्तिडीकं सदाडिमम् । मातुलुङ्गस्य मुलानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् ॥२०॥ . श्वदंष्ट्राचं घृतम् । सुखोदकेन मधैर्वा चूर्णान्येतानि पाययेत् । श्वदंष्ट्रीशीरमञ्जिष्ठाबलाकाश्मर्यकत्तृणम् । अर्शः शूलञ्च हृद्रोगं गुल्मं चाशु व्यपोहति ॥२१॥। दर्भमूलं पृथक्पर्णी पलाशर्षभको स्थिरा ॥ २७॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः भाषाटीकोपेतः। ererwron पलिकान्साधयेत्तेषां रसे क्षीरे चतुर्गुणे । | औषधियोंसे सिद्ध मांसरसादिको वातजमूत्रकृच्छ्में देना कल्कैः स्वगुप्तर्षभकमेदाजीवन्तिजीरकैः ॥२८॥ | चाहिये ॥१॥ शतावय॒द्धिमृद्वीकाशर्कराश्रावणीविषैः।। __ अमृतादिकाथः। प्रस्थः सिद्धो घृताद्वातपित्तहृद्रोगशुलनुत् ॥२९॥ अमृतां नागरं धात्रीवाजिगन्धात्रिकण्टकान् । मूत्रकृच्छ्रप्रमेहार्श:श्वासकासक्षयापहः। प्रपिबेद्वातरोगातः सशुली मूत्रकृच्छ्वान् ॥२॥ धनुःखीमधभाराध्वक्षीणानां बलमांसदः ॥ ३०॥ गोखरू, खश, मजीठ, खरेटी. खम्भार, रोहिष गुचे, साँठ, आंवला, असगन्ध, तथा गोखरूका काथ. घास, कुशकी जड़, पृश्निपर्णी, ढाकके बीज, ऋषभक, वातरोगपीड़ित, शूलयुक्त, मूत्रकृच्छवालेको पीना चाहिय॥२॥ शालपर्णी, प्रत्येक एक पल लेकर क्वाथ बनाना चाहिये । इस पित्तजकृच्छ्रचिकित्सा। छने काथमें १ प्रस्थ घी, ४ प्रस्थ दूध और केवाचके बीज, ऋषभक, मेदा, जीवन्ती, जीरा, शतावरी, ऋद्धि, मुनक्का, . सेकावगाहाः शिशिरा: प्रदेहा मिश्री, मुण्डी तथा अतीसका कल्क छोड़करसिद्ध किया गया प्रेष्मो विधिस्तिपयोविकाराः । घृत वातपित्तज शूल, हृद्रोग, मूत्रकृच्छ, प्रमेह, अर्श, श्वास, द्राक्षाविदारीक्षुरसैघृतेश्व कास, तथा धातुक्षयको नष्ट करता है और धनुष चढ़ाना, स्त्री- कृच्छ्रेषु पित्तप्रभवेषु कार्याः ॥ ३॥ ' गमन, मद्यपान, बोझा ढोना और मार्गमें चलना इन कारणोंसे | सिञ्चन, जलमें बैठना, ठंढे लेप, प्रीष्मऋतुके योग्य विधान, क्षीण पुरुषोंके बल व मांसको बढाता है॥ २७-३०॥ बस्ति, दूधके बनाये पदार्थ, मुनक्का, बिदारीकन्द और बलार्जुनघृतद्वयम् । | ईखके रस तथा घृतका पित्तज-मूत्रकृच्छ्रमें प्रयोग करना चाहिये ॥३॥ घृतं बलानागबलार्जुनाम्बुसिद्धं सयष्टीमधुकल्कपादम्। • तृणपश्वमूलम् । हृद्रोगशलक्षतरक्तपित्त कुशः काशः शरो दर्भ इक्षुश्चेति तृणोद्भवम् । कासानिलामृक् शमयत्युदीर्णम् ॥ ३१॥ पित्तकृच्छ्रहरं पञ्चमूलं बस्तिविशोधनम् । पार्थस्य कल्कस्वरसेन सिद्धं एतत्सिद्धं पयः पीतं मेदगं हन्ति शोणितम् ॥ ४ ॥ शस्तं घृतं सर्वहृदामयेषु ॥ ३२ ॥ कुश, काश, शर, दाभ, ईख यह “ तृणपञ्चमूल " पित्तज (१) खरेटी, गंगेरन तथा अर्जुनके काथ और मोरेठीके कृच्छको नष्ट करता, बस्तिको शुद्ध करता तथा इन औषकल्कसे सिद्ध घृत हदोग, शूल, व्रण, रक्तपित्त, कास व|धियोंसे सिद्ध दूधको पीनेसे लिङ्गसे जानेवाला रक्त शान्त वातरफको शान्त करता है । इसी प्रकार (२) केवल अर्जुनके होता है ॥४॥ काथ व कल्कसे सिद्ध घृत भी समस्त रोगों में हितकर शतावर्यादिकाथः। है॥३१॥३२॥ इति हृद्रोगाधिकारः समाप्तः। शतावरीकाशकुशश्वदंष्ट्रा विदारिशालीक्षुकशेरुकाणाम् । अथ मूत्रकृच्छाधिकारः। काथं सुशीतं मधुशर्कराक्तं पिबञ्जयेत्पैत्तिकमूत्रकृच्छ्रम् ॥ ५ ॥ शतावरी, काश, कुश, गोखरू, विदारीकन्द, धानकी जड़, वातजमूत्रकृच्छ्रचिकित्सा। | ईख और कशेरूका क्वाथ ठण्ढाकर शहद और शक्कर डालकर अभ्यञ्जनस्नेहनिरूहबस्ति | पीनेसे पैतिक मूत्रकृच्छ्र शान्त होता है ॥ ५॥ स्वेदोपनाहोत्तरबस्तिसेकान् । हरीतक्यादिकाथः।। स्थिरादिभिर्वातहरैश्च सिद्धान् हरीतकीगोक्षुरराजवृक्षपाषाणभिद्धन्वयवासकानाम् । दद्याद्रसांश्वामिलमूत्रकृच्छ्रे ॥१॥ काथं पिबेन्माक्षिकसंप्रयुक्तं कृच्छ्रे सदाहे सरुजे विबन्धे६ मालिश, स्नेहबस्ति निरूहबस्ति, स्वेद, उपनाह, उत्तरवस्ति | बड़ी हर्रका छिल्का, गोखरू, अमलतासका गूदा, पाषाणतथा सेकका सेवन करना चाहिये । शालिपी आदि वातनाशक भेद तथा यवासा इन औषधियोंके यथाविधि साधित काथको Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [मूत्रकृच्छ्रा romawranwr Prewwer rrowrooferore ठण्ढाकर शहद मिला पनिसे दाह अं और पीडासहित मूत्रकृच्छ्र त्रिभ्योऽधिके प्राग्वमनं कफे स्यात् शान्त होता है ॥६॥ पित्ते विरेकः पवने तु बस्तिः ॥ १३॥ गुडामलकयोगः। त्रिदोषजकृच्छ्रमें वायुको स्थानपर लाते हुए सभी चि. कित्सा करनी चाहिये, तथा यदि तीनोंमें कफ अधिक हो गुडेनामलकं वृष्यं श्रमन्नं तर्पणं परम् । तो पहिले वमन, पित्तमें विरेचन तथा वायुमै बस्ति देना पित्तासृग्दाहशूलनं मूत्रकृच्छ्रनिवारणम् ॥७॥ चाहिये ॥ १३॥ गुड़के साथ आंवलेका चूर्ण सेवन करनेसे थकावटको दूर बृहत्यादिकाथः। करता है, तर्पण तथा पित्तरक्त, दाह और शूल सहित मूत्र- | कृच्छ्रको दूर करता है ॥ ७॥ बृहतीधावनीपाठायष्टीमधुकलिङ्गकाः । पाचनीयो बृहत्यादिः कृच्छ्रदोषत्रयापहः ॥ १४ ॥ एरिबीजादिचूर्णम् । बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, पाढ, मोरेठी तथा इन्द्रयव यह एवारुबीजं मधुकं सदावर्वी पैत्ते पिबेत्तण्डुलधावनेन । | "बृहत्यादि गण" पाचन करता तथा त्रिदोषज मूत्रकृच्छ्रको दार्वी तथैवामलकीरसेन समाक्षिकां पैत्तिकमूत्रकृच्छ्रे।।८] नष्ट करता है ॥ १४ ॥ - ककड़ीके बीज, मौरेठी तथा दारुहल्दीका चूर्ण चावलके धोवनके साथ पौत्तिक मूत्रकृच्छमें पीना चाहिये । इसी प्रकार उत्पत्तिभेदेन चिकित्साभेदः । केवल दारुहल्दीका चूर्ण आंवलेके रस और शहदके साथ सेवन तथाभिघातजे कुर्यात्सद्योत्रणचिकित्सितम् । करनेसे पेत्तिक मूत्रकृच्छ शान्त होता है ॥ ८॥ मूत्रकृच्छ्रे सदा चास्य कार्या वातहरी क्रिया।।१५।। कफजचिकित्सा । स्वेदचूर्णक्रियाभ्यंगवस्तयः स्युः पुरीषजे क्षारोष्णतीक्ष्णोषणमन्नपानं काथं गोक्षुरबीजस्य यवक्षारयुतं पिबेत् । मूत्रकृच्छं शकृजं च पीतः शीघ्रं निवारयेत् ॥१६।। स्वेदो यवान्नं वमनं निरूहाः । हिता क्रिया त्वश्मरिशर्करायां तकं सतिक्तौषधसिद्धतेला_न्यभ्यङ्गपानं कफमूत्रकृच्छे ॥ ९ ॥ या मूत्रकृच्छ्रे कफमारुतोत्थे ॥ १७॥ मूत्रेण सुरया वापि कदलीस्वरसेन वा।। लेह्यं शुक्रविबन्धोत्थे शिलाजतु समाक्षिकम् । कफकृच्छ्रविनाशाय श्लक्ष्णं पिष्टवा त्रुटिं पिबेत्॥१०॥ वृष्यबेहितधातोश्च विधेयाः प्रमदोत्तमाः॥ १८ ॥ : तक्रेण युक्तं शितिमारकस्य अभिघातज मूत्रकृच्छ्रमें सद्योव्रणचिकित्सा करनी चाहिये, बीजं पिबेत्कृच्छविनाशहेतोः। तथा वातनाशक क्रिया इसमें सदैव करनी चाहिये । पुरीष (मल)ज मूत्रकृच्छ्में, सदा स्वेद, चूर्ण, मालिश तथा बस्ति पिबेत्तथा तण्डुलधावनेन देनी चाहिये । गोखरूके क्वाथमें जवाखार डालकर पीनेसे प्रवालचूर्ण कफमूत्रकृच्छ्रे ॥ ११ ॥ मलज मूत्रकृच्छ शीघ्र ही नष्ट होता है । अश्मरी तथा शर्करासे श्वदंष्टाविश्वतीय वा कफकृच्छ्रविनाशनम् ॥१२॥ | उत्पन्न मूत्रकृच्छमें कफवातज कृच्छकी चिकित्सा करनी चाहिये। क्षार, उष्ण, तीक्ष्ण तथा कटु अन्नपान, स्वेद, यवका पथ्य, शुक्रके विबन्धसे उत्पन्न कृच्छ्रमें शहदके साथ शिलाजतु चाटना वमन, निरूहणबस्ति, मट्ठा तथा तिक्त औषधियोंसे सिद्ध तेल चाहिये। तथा वाजीकरणके सेवनसे धातुओंके बढ़ जानेपर मालिश और पीनके लिये कफज मूत्रकृच्छ्रमें प्रयोग करना | उत्तम स्त्रियोंके साथ मैथुन कराना चाहिये ॥१५-१८॥ चाहिये । इसी प्रकार गोमूत्र, शराब अथवा केलेके स्वरसके साथ छोटी इलायचीका चूर्ण पीना चाहिये । अथवा मठेके एलादिक्षीरम्। साथ शितिमार( वङ्गदेशे शालिञ्च ) के बीज मूत्रकृच्छ्रके | | एलाहिंगुयुत क्षीरं सर्पिमिश्रं पिबेन्नरः। नाशार्थ पीना चाहिये । अथवा चावलके धोवनके साथ मंगेका मूत्रदोषविशुद्धयर्थं शुक्रदोषहरं च तत् ।।.१९ ॥ चूर्ण या भस्म पीना चाहिये । तथा गोखरू और सोंठका काथ | मूत्रदोष तथा शुक्रदोष दूर करनेके लिये छोटी इलायची, कफज कृच्छ्रको नष्ट करता है ॥ ९-१२॥ भुनी हींग तथा घीसे युक्त दूधको पीना चाहिये ॥ १९ ॥ - त्रिदोषजचिकित्सा। रक्तजमूत्रकृच्छचिकित्सा। सर्व त्रिदोषप्रभवे तु वायोः यन्मूत्रकृछ्रे विहितं तु पैत्ते स्थानानुपूर्व्या प्रसमीक्ष्य कार्यम् । तत्कारयेच्छोणितमूत्रकृच्छ्रे ॥ २० ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः । जो पित्तज मूत्रकृच्छ्रकी चिकित्सा बतायी गयी, वही रक्त जमें करनी चाहिये ॥ २० ॥ त्रिकण्टकादिकाथः | त्रिकण्टकारग्वधादर्भकाशदुरालभापर्वतभेदपथ्याः । निघ्नन्ति पीता मधुनाश्मरी च सम्प्राप्तमृत्योरपि मूत्रकृच्छ्रम् ॥ २१ ॥ कषायोऽतिबलामूलसाधितः सर्वकृच्छ्रजित् । गोखरू, अमलतासका गूदा, दर्भ, काश, यवासा, पाषाणभेद, तथा हर्रके काथ में शहद मिलाकर पीनसे अश्मरी तथा कठिन मूत्रकृच्छ्र भी शांत होता है। तथा कंधीकी जड़का क्वाथ भी समस्त मूत्रकृच्छ्रों को नष्ट करता है ॥ २१ ॥ - एलादिचूर्णम् । एलाश्मभेदक शिलाजतुपिप्पलीनां चूर्णानि तण्डुलजलेलुलितानि पीत्वा । यद्वा गुडेन सहितान्यवलिय तानि चासन्नमृत्युरपि जीवति मूत्रकृच्छ्री ॥ २२ ॥ इलायची, पाषाणभेद, शिलाजतु तथा छोटी पीपलका चूर्ण चावलके घोवनके जल में मिलाकर पीनेसे अथवा गुड़ मिलाकर चाटनसे आसन्न मृत्युवाला भी मूत्रकृच्छ्ररोगी बच जाता है ॥२२॥ लौहयोगः । अयोरजः लक्ष्ण पिष्टं मधुना सह योजितम् । मूत्रकृच्छ्रं निहन्त्याशु त्रिभिर्लेहेर्न संशयः ॥ २३ ॥ लौहमस्म शहदके साथ चाटनेसे तीन खुराकमें ही मूत्रकृच्छ नष्ट हो जाता है ॥ २३॥ यवक्षारयोगः । सितातुल्यो यवक्षारः सर्वकृच्छ्रनिवारणः । निदिग्धिकारसो वापि सक्षोद्रः कृच्छ्रनाशनः ॥२४ मिश्रीके बराबर जवाखार अथवा शहदके साथ छोटी कटेरीका रस समस्त गूत्रकृच्छ्रों को शांत करता है ॥ २४ ॥ शतावर्य्यादिघृतं क्षीरं वा । शतावरी का शकुशश्वदंष्ट्राविदारिकेश्वामलकेषु सिद्धम् । सर्पिः पयो वा सितया विमिश्र कृच्छ्रेषु पित्तप्रभवेषु योज्यम् ॥ २५ ॥ शतावरी, काश, कुश, गोखरू, बिदारीकन्द, ईखकी जड़ और आंवलेसे सिद्ध घी अथवा दूध मिश्री मिलाकर सेवन कर मेसे पित्त मूत्रकृच्छ्र शान्त होता है ॥ २५ ॥ ( १६३ ) त्रिकण्टकादिसाः । त्रिकण्टकेरण्डकुशाद्यभीरुकर्कारुकेस्वरसेन सिद्धम् । सर्पिर्गुडाशयुतं प्रपेयं कृच्छ्राश्मरीमूत्रविघातहेतोः ॥ २६ ॥ गोखरू, एरण्ड़की छाल, कुशादि तृणपञ्चमूल, शतावरी, खरबूजाके बीज और ईख प्रत्येकके स्वरससे सिद्ध घीमें आघा गुड़ मिलाकर पीनसे, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात तथा अश्मरीका नाश होता है ॥ २६ ॥ सुकुमारकुमारकं घृतम् । पुनर्नवामूलतुला दशमूलं शतावरी । बला तुरगगन्धा च तृणमूलं त्रिकण्टकम् ॥ २७ ॥ विदारीवंशनागाह्वागुडूच्यतिबला तथा । पृथग्दशपलान्भागाञ्जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ २८ ॥ तेन पादावशेषेण घृतस्यार्धाढकं पचत् । मधुकं शृङ्गवेरं च द्राक्षासैन्धवपिप्पलीः ॥ २९ ॥ पृथद्विपालिका दद्याद्यवान्याः कुडवं तथा । त्रिंशद् गुडपलान्यत्र तैलस्यैरण्डजस्य च ॥ ३० ॥ प्रस्थं दत्त्वा समालोडथ सम्यङ् मृद्वग्निना पचत् । एतदीश्वरपुत्राणां प्राग्भोजनमनिन्दितम् ॥ ३१ ॥ राज्ञां राजसमानां च बहुखीपतयश्च ये । मूत्रकृच्छ्रे कटिस्तम्भे तथा गाढपुरीषिणाम् ||३२|| मेद्रवङ्क्षणशूले च योनिशुले च शस्यते । यथोक्तानां च गुल्मानां वातशोणितकाश्च ये ॥ ३३॥ बल्यं रसायनं शीतं सुकुमारकुमारकम् । पुनर्नवाशते द्रोणो देयोऽन्येषु तथापरः ॥ ३४॥ पुनर्नवा ५ सेर, दशमूल, शतावरी, खरेटी, अश्वगन्धा, तृणपञ्चमूल, गोखरू, विदारीकन्द, बांसकी पत्ती, नागकेशर, गुर्च, कंधी प्रत्येक ८ छ. लेकर २ द्रोण जलमें पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर घी ३ सेर १६ तोला तथा मौरेठी, सोंठ, मुनक्का, सेंधानमक, तथा छोटी पीपल प्रत्येक ८ तोला, अजवायन १६ तोला, गुड़ १॥ सेर, एरण्ड| तैल ६४ तो० छोड़कर मन्द आंचसे पकाना चाहिये । इसका प्रयोग अमीरोंके लिये भोजनके पहिले करना चाहिये । इससे मूत्रकृच्छ्र, कमरका शूल, दस्तोंका कड़ा आना, लिङ्ग व वंक्षणसंधियोंका शुल, योनिशूल, गुल्म और वातरक्त नष्ट होता, बल बढ़ता तथा यह शीतवीर्य व रसायन है । इसे " सुकुमारकुमारक ” कहते हैं । शतपल पुनर्नवामें जल १ द्रोण तथा इतर औषधियों में १ द्रोण अर्थात् " द्रवद्वैगुण्यात् " इसमें ४ द्रोण छोड़ना चाहिये ॥ २७-३४ ॥ इति मूत्रकृच्छ्राधिकारः समाप्तः । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) चक्रदत्तः। [ मूत्राघाता पन्न अथ मूत्राघाताधिकारः। त्रिकण्टकादिक्षीरम् । त्रिकण्टकैरण्डशतावरीभिः सिद्धं पयो वा तृणपञ्चमूलैः। सामान्यक्रमः। गुडप्रगाढं सघृतं पयो वा मूत्राघातान्यथादोष मूत्रकृच्छ्रहरैजयेत् । रोगेषु कृच्छ्रादिषु शस्तमेतत् ॥ ९॥ बास्तिमुत्तरबस्तिं च दद्यास्निग्धं विरेचनम् ॥ १॥ गोखुरू, एरण्डकी छाल तथा शतावरीसे सिद्ध दूध अथवा दोषानुसार मूत्रकृच्छ्रनाशक प्रयोगोंसे मूत्राघातकी चिकित्सा तृणपञ्चमूलसे सिद्ध दूधर्म गुड़ मिलाकर अथवा दूधमें घी करनी चाहिये और बस्ति, उत्तरवस्ति तथा स्नेहयुक्त विरेचन: डालकर पीनेसे मूत्रकृच्छ्र तथा मूत्राघात आदि विकार दूर देना चाहिये ॥१॥ हो जाते हैं ॥९॥ विविधा योगाः। नलादिकाथः। नलकुशकाशेक्षुशिफां कल्कमेरुबीजानामक्षमात्रं ससैन्धवम् । . __ कथितां प्रातः सुशीतलां ससिताम् । धान्याम्लयुक्तं पीत्वैव मूत्राघाताद्विमुच्यते ॥ २॥ पिबतः प्रयाति नियत पाटल्या यावशकाच्च.पारिभद्रात्तिलादाप । मूत्रग्रह इत्युवाच कचः ॥ १०॥ क्षारोदकेन मदिरां त्वगेलोषणसंयुताम् ॥ ३॥ नरसल, कुश, काश, वा ईख की जड़ोंका शीत कषाय पिबेद् गुडोपदेशान्वा लिह्यादेतान्पृथक्पृथक् ।। | बना प्रातःकाल मिश्री मिला पीनेसे मूत्राघात नष्ट होता है। त्रिफलाकल्कसंयुक्तं लवणं वापि पाययेत् ॥४॥ यह कचने कहा है ॥१०॥ निदिग्धिकायाः स्वरसं पिबेद्वस्त्रान्तरसुतम् । जले कुंकुमकल्कं वा सक्षौद्रमुषितं निशि ॥५॥ पाषाणभेदक्वाथः। सतैलं पाटलाभस्म क्षारवद्वा परिस्रुतम् ।। गोधावत्या मूलं कथितं घृततैलगोरसमिश्रम् । सुरां सौवर्चलवती मूत्राघाती पिबेन्नरः ॥६॥ पीतं निरुद्धमचिराद्भिनत्ति मूत्रस्य संघातम् ॥११॥ दाडिमाम्बुयुतं मुख्यमेलाबीजं सनागरम् । पाषाणभेदकी जड़के क्वाथमें घी, तैल व गोरस ( मट्ठा ) पीत्वा सुरां सलवणां मूत्राघाताद्विमुच्यते ॥७॥ | मिलाकर पीनेसे शीघ्र ही मूत्राघात नष्ट होता है ॥ ११ ॥ पिबेच्छिलाजतु काथे गणे वीरतरादिके। उपायान्तरम् । रसं दुरालभाया वा कषायं वासकस्य वा ॥८॥ जलेन खदिरीबीजं मूत्राघाताश्मरीहरम् । ककड़ीके बीजोंका कल्क १ तोला, सेंधानमक और काजी मूलं तु त्रिजटायाश्च तक्रपीतं तदर्थकृत् ॥ १२॥ मिलाकर पीनेसे मूत्राघात नष्ट होता है । अथवा शरावमें पाढल, मूत्रे विबद्धे कपूरचूर्ण लिङ्गे प्रवेशयेत् । जव, नीम या तिलका क्षार, जल तथा दालचीनी, इलायची शृतशीतपयोऽन्नाशी चन्दनं तण्डुलाम्बुना ॥१३॥ व काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर पीना चाहिये । अथवा उपरोक्त पिबेत्सशर्करं श्रेष्ठमुष्णवाते सशोणते । क्षार गुड़के साथ चाटना चाहिये । अथवा त्रिफलाके कल्कमें नमक मिलाकर पिलाना चाहिये । अथवा छोटी शीतोऽवगाह आबस्तिमुष्णवातनिवारणः ॥ १४ ॥ कटेरीका स्वरस कपड़ेसे छानकर पीना चाहिये । अथवा कूष्माण्डकरसश्चापि पीतः सक्षारशकरः । जलमें केशरका कल्क व शहद मिला रातभर रखकर जलके साथ अशोकके बीजोंके चूर्णको अथवा मटठेके सबरे पीना चाहिये । अथवा पाटलाकी भस्म अथवा साथ बेलकी जड़के चूर्णको पीनेसे मूत्राघात तथा अश्मरी क्षार जल सैलके साथ पीना चाहिये। अथवा कालानमक | नष्ट होती है । यदि मूत्र न उतरता हो, तो कपूरका चूर्ण लिङ्गमें मिलाकर शराब पीनी चाहिये । अथवा अनारका रस, इलाय- रखना चाहिये। तथा गरम कर ठंढे किये दूधके साथ पथ्य लेते चीका चूर्ण, सोंठका चूर्ण, शराब व नमक मिलाकर पीना हुए चन्दनका कल्क, चावलका जल व शक्कर मिलाकर पीनेसे. चाहिये । अथवा वीरतरादि गणके क्वाथमें शिलाजतु मिलाकर रक्तयुक्त उष्णवात नष्ट होता है । इसीप्रकार वस्तिपर्यन्त अङ्ग अथवा जवासाका रस अथवा अडूसेका काथ पीना | डूबने लायक जलमें बैठनेसे उष्णवात नष्ट होता है। तथा चाहिये ॥२८॥ कुम्हडेका रस क्षार व शक्कर मिलाकर पीना चाहिये॥१२-१४॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकार . मापाटीकोपेतः। (१६५) आतिव्यवायअमूत्राघातचिकित्सा। है। इसके प्रयोगसे स्त्रीको गर्म प्राप्त होता है तथा रक्तदोष, खीणामतिप्रसंगेन शोणितं यस्य सिच्यते ॥ १५ ॥ चाहिये ॥१८-२५॥ योनिदोष और मूत्रदोषोंमें इसका उपयोग करना मैथुनोपरमश्वास्य बृहणीयो हितो विधिः । इति मुत्राघाताधिकारः समाप्तः। स्वगुप्ताफलमृद्वीकाकृष्णेक्षुरसितारजः ॥ १६ ॥ समांशमर्धभागानि क्षीरक्षौद्रघृतानि च । अथाश्मय॑धिकारः। सर्व सम्यग्विमथ्याक्षमानं लीढ्वा पयः पिबेत् १७| हन्ति शुक्राशयोत्थांश्च दोषान्वन्ध्यासुतप्रदम् ।। जिसको अधिक स्त्रीगमन करनेसे रक्त आता है, उसे मैथुन | वरुणादिकाथः। बन्द करना तथा बृहंण (बलवीर्यवर्धक ) उपाय करना चाहिये। वरुणस्य त्वचं श्रेष्ठां शुण्ठीगोक्षुरसंयुताम् । काँचके बीज, मुनक्का, छोटी पीपल, तालमखानाके बीज | यवक्षारगुडं दत्त्वा क्वाथयित्वा पिबेद्धिताम् ॥१॥ तथा मिश्रीका चूर्ण प्रत्येक समान भाग, सबसे आधे प्रत्येक | अश्मरी वातजा हन्ति चिरकालानुबन्धिनीम् । दूध, घी व शहद मिला मथकर १ तोलाकी मात्रासे चाटकर | ऊपरस दूध पीनेसे शुक्राशयके दोष नष्ट होते हैं तथा वंध्या- वरुणाकी उत्तम छाल, सोंठ व गोखुरूका काथ बना गुड़ ओंके भी सन्तान उत्पन्न होती है ॥ १५-१७ ॥ व जवाखार छोड़कर पीनेसे पुरानी वातज अश्मरी नष्ट होती है॥१॥चित्रकाद्यं घृतम् । चित्रकं शारिवा चैव बला कालानुशारिवा ॥१८॥ वीरतरादिक्वाथः। द्राक्षा विशाला पिप्पल्यस्तथा चित्रफला भवेत् । वीरतरः सहचरो दर्भो वृक्षादनी नलः ॥२॥ तथैव मधुकं दद्याद्दद्यादामलकानि च ॥ १९॥ गुन्द्राकाशकुशावश्मभेदमोरटटुण्टुकाः। घृताढकं पचेदेभिः कल्कैरक्षसमन्वितैः । कुरुण्टिका च वशिरो वसुकः सानिमन्थकः ॥३॥ क्षीरद्रोणे जलद्रोणे तत्सिद्धमवतारयेत् ॥२०॥ इन्दीवरी श्वदंष्ट्रा च तथा कापोतवक्रकः । शीतं परिसुतं चैव शर्कराप्रस्थसंयुतम् । वीरतरादिरित्येष गणो वातविकारनुत् ॥४॥ तुगाक्षीर्याश्च तत्सर्व मतिमान्प्रतिमिश्रयेत् ।। २१॥ अश्मरीशर्करामूत्रकृच्छ्राघातरुजापहः।। ततो मितं पिबेत्काले यथादोषं यथाबलम् । वातरेताः पित्तरेताः श्लेष्मरेताश्च यो भवेत् ॥२२॥ शरकी जड़, पीले फूलका पियावासा, दाभ, वांदा, नर सल, गुर्च, काश, कुश, पाषाणभेद, ईखकी जड़, सोनापाठा, रक्तरेता प्रन्थिरेताः पिबदिच्छन्नरोगताम् । | नीले फूलका पियावासा, गजपीपल, अगस्त्यकी छाल, जीवनीयं च वृष्यं च सपिरेतन्महागुणम् ॥ २३ ॥ अरणी, नीलोफर, गोखुरू, और काकमाची यह “वीरतरादिगण" प्रजाहितं च धन्यं च सर्वरोगापहं शिवम् | वातरोग, अश्मरी, शर्करा, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघातकी पीडाको नष्ट सर्पिरेतत्प्रयुखाना स्त्री गर्भ लभतेऽचिरात् ॥२४॥ करता है ॥ २-४ ॥अमृग्दोषाजयेच्चैव योनिदोषांश्च संहतान् । . शुण्ठयादिक्वाथः। मूत्रदोषेषु सर्वेषु कुर्यादेतचिकित्सितम् ॥ २५ ॥ शुण्ठथग्निमन्थपाषाणशिग्रुवरुणगोक्षुरैः ॥ ५॥ चीतकी जड़, शारिवा, खरेटी, काली शारिवा, मुनक्का, अभयारग्वधफलैः काथं कुर्याद्विचक्षणः । इन्द्रायनकी जड़, छोटी पीपल, ककड़ीके बीज, मौरेठी तथा रामठक्षारलवणचूर्ण दत्त्वा पिबेन्नरः ॥ ६ ॥ आंवला प्रत्येक एक एक तोलाभर ले कल्ककर २५६ तोलेभर घृत एक द्रोण दूध तथा एक द्रोण जल मिला पकावे, पाक सिद्ध | १"कपोतवक्रक"से शिरीषसदृश स्वल्पपत्रक स्वल्पविटप हो जानेपर उतार छानकर १ प्रस्थ मिश्री तथा एक प्रस्थ शिवदासजी बतलाते है । वैद्यकशब्दसिन्धुमें वीरतरादिगण वंशलोचन मिलाना चाहिये । इसकी मात्रा युक्त अनुपानके साथ | "काकमाची" ही लिखा है, अतः यही यहां लिखा गया है। पर सेवन करनेसे बात, पित्त, कफसे दूषित शुक्र रक्त तथा गाठि- वाग्भटमें इसी गणमें "अर्जुन" आया है यहां अर्जुनका नाम नहीं योंसे युक्त शुक्र शुद्ध होता है । यह जीवनीय बाजीकर है। मेरे विचारसे अर्जुन भी कपोतवक्त्रका अर्थ हो सकता है। सन्तानको बढानेवाला तथा समस्त रोगों को नष्ट करनेवाला अथवा "कपोतवर्णिका पाठ कर इलायचीअर्थकरना चाहिय।। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) चक्रदत्तः । अश्मरीमूत्रकृच्छ्रन्नं पाचनं दीपनं परम् । हन्यात्कोष्ठाश्रितं वातं कटयूरुगुदमेढ्रगम् ॥ ७ ॥ सोंठ, अरणी, पाषाणभेद, सहिजनकी छाल, वरुणाकी छाल, गोखरू, बड़ी हरोंका छिल्का तथा अमलतासका गूदा प्रत्येक समान भाग ले काथ कर भुनी हींग, जवाखार और नमक डालकर पीनेसे अश्मरी, मूत्रकृच्छ्र नष्ट होता, पाचन और दीपन होता तथा कोष्ठाश्रित, कटि, ऊरु, गुदा व लिंगगत वायु नष्ट होते हैं ॥ ५-७॥ पाषाणभेद, अगस्त्य, गजपीपल, काञ्चनार खट्टे पत्तोंवाला, शतावरी, गोखरू, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, मकोय, नीली कटसरैया, लाल कचनार की छाल, खरा, नागकेशर, वांदा, सोनापाठा, वरुणाकी छाल, शाकवृक्ष ( सहिजन ) के फल, यव, कुलथी, बेर, तथा निर्मलीके काथमें सिद्ध घृत कादि गणका प्रतिवाप छोड़कर सेवन करनेसे वातज अश्मरी शीघ्र ही नष्ट होती है । इसी वातनाशक वर्गमें क्षार, यवागू, पेया, काथ, क्षीर तथा भोजन बनाना चाहिये ॥ ८-११॥ ऊषकादिगणः । ऊषकं सैन्धवं हिगु काशीसद्वयगुग्गुलू | शिलाजतु तुत्थकं च ऊषकादिरुदाहृतः ॥ १२ ॥ ऊषकादिः कफं हन्ति गणो मेदोविशोधनः । अश्मरीशर्करामूत्रशूलघ्नः कफगुल्मनुत् ॥ १३ ॥ [ अश्मर्य पाषाणभेदाद्यं घृतम् । कुश, काश, शर, ग्रन्थिपर्ण, रोहिष घास, ईखकी जड़, पाषाणभेद, दर्भ, विदारीकन्द, वाराही कंद, धानकी जड़, गोखुरू, सोनापाठा, पाढला, पाढ़ी, लाल चन्दन, कटसरैया, पाषाणभेदो वसुको वशिरोऽश्मन्तकं तथा । दोनों पुनर्नवा तथा सिरसाकी छाल समान भाग ले क्वाथ बना शतावरी श्वदंष्ट्रा च बृहती कण्टकारिका ॥ ८ ॥ क्वाथसे चतुर्थांश घी मिला पका शिलाजीत, मौरेठी व नीलोफरके कपोतवार्तगलकाञ्चनोशीरगुल्मकाः । बीजका प्रतिवाप छोड़कर अथवा खीरेके बीज व खर्बुजेके बीजों का प्रतीवाप छोड़कर सेवन करनेसे पित्तज अश्मरी शान्त | होती है । तथा यह गण पित्तनाशक है, इसमें क्षार, यवागू, पेया, काढ़े, दूध अथवा भोजन भी बनाना चाहिये ॥१४- १७॥ । वृक्षादनी भल्लुकश्च वरुणः शाकजं फलम् ॥ ९ ॥ यवाः कुलत्थाः कोलानि कतकस्य फलानि च ऊषकादिप्रतीवापमेषां काथे शृतं घृतम् ॥ १० ॥ भिनत्ति वातसम्भूतामश्मरी क्षिप्रमेव तु । क्षारान्यवागूः पेयाश्च कषायाणि पयांसि च ॥ भोजनानि च कुर्वीत वर्गेऽस्मिन्वातनाशने ॥ ११ ॥ कफजाइमरीचिकित्सा | भल्लूकः पाटली पाठा पत्तरोऽथ कुरुण्डिका । पुनर्नवे शिरीषश्च कथितास्तेषु साधितम् ॥ १५ ॥ घृतं शिलाह्वमधुकबीजैरिन्दविरस्य च । रेहू मिट्टी, सेंधानमक, हींग, दोनों कशीस, गुग्गुलु, शिलाजीत, तूतिया - यह " ऊषकादि गण" कहा जाता है। यह कफ, मेद, पथरी, शर्करा, मूत्रकृच्छ्र व कफज गुरुमको नष्ट करता है ॥ १२ ॥१३॥ पुर्वारुकाणां वा बीजेश्वावापितं श्रुतम् ॥ १६ ॥ भिनत्ति पित्तसम्भूतामश्मरी क्षिप्रमेव तु । क्षारान्यवागूः पेयाश्च कषायाणि पयांसि च । भोजनानि च कुर्वीत वर्गेऽस्मिन्पित्तनाशने ॥ १७ ॥ गणे वरुणकादी च गुग्गुल्वेलाहरेणुभिः । कुष्ठमुस्ताहमरिचचित्रकैः ससुराह्वयैः ॥ १८ ॥ एतैः सिद्धमजा सर्पिरूषकादिगणेन च । भिनत्ति कफसम्भूतामश्मरीं क्षिप्रमेव तु ॥ १९ ॥ क्षारान्यवागूः पेयाश्च कषायाणि पयांसि च । भोजनानि प्रकुर्वीत वर्गेऽस्मिन्कफनाशने ॥ २० ॥ वहणादि गण काथमें गुग्गुलु, इलायची, सम्भालूके बीज, कूठ, मोथा, मिर्च, चीतकी जड़, देवदारु तथा ऊषकादि गणका कल्क छोड़कर सिद्ध किया गया बकरीका घृत कफजन्य अश्मरीको शीघ्र ही नष्ट करता है । तथा इसी कफनाशक वर्ग में क्षार, यवागू, पेया, काढे और दूध तथा भोजन आदि बनाकर | देना चाहिये ॥ १८-२० ॥ वरुणादिगणः । वरुणोऽर्तगलः शिश्रुतर्कारीमधुशिग्रुकाः । मेषशृङ्गीकरञ्जौ च बिम्ब्यग्निमन्थमोरटाः ॥ २१ ॥ शैरीयो वशिरो दर्भों वरी वसुकचित्रकी । बिल्वं चैवाजशृङ्गी च बृहतीद्वयमेव च ॥ २२॥ वरुणादिगणो ह्येष कफमेदो निवारणः । विनिहन्ति शिरःशूलं गुल्माद्यन्तरविद्रधीन् ॥ २३ ॥ वरुणाकी छाल, नीला कटसरैया, सहिजन, अरणी, मीठा कुशः काशः शरो गुल्मइत्कटो मोरटोऽश्मभित् । सहिजन, मेढाशिंगी, कक्षा, कुन्दरु, अरणी, मोरट, पीला दर्भों विदारी बाराही शालिमूलं त्रिकण्टकः ||१४|| | कटसरैया, गजपीपल, दर्भ, शतावरी, अगस्त्य, त्रीतकी जड़, कुशाद्यं वृतम् । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। बेलका गूदा, मेढाशिंगी छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी यह “वरुणादि । गोखुरू, तालमखाना, एरण्ड तथा दोनों कटेरीकी जड़ दूधके गण" कफ, मेद, शिरःशूल, गुल्म तथा अन्तर्विद्रधिको नष्ट | साथ पीस मीठा दही मिलाकर पीनेसे ७ दिनमें अश्मरी करता है ॥२१-२३॥ कट जाती है ॥३०॥ विविधा योगाः। अन्ये योगा। वरुणत्वकषायं तु पीतं च गुडसंयुतम् । पक्ष्वाकुरसः क्षारसितायुक्तोऽश्मरीहरः॥३१॥ अश्मरी पातयत्याशु बस्तिशूलनिवारणम् ॥ २४॥ पाषाणरोगपीडां सौवर्चलयुक्ता सुरा जयति। यवक्षारं गुडोन्मिनं पिबेत्पुष्पफलोद्भवम् । । तद्वन्मधुदुग्धयुक्ता त्रिरात्रं तिलनालभूतिश्च ॥३२॥ रसं मूत्रविबन्धनं शर्कराश्मरिनाशनम् ॥ २५॥ | पकी कडुई तोम्बकि रसमें क्षार और मिश्रीको मिलाकर पिबेद्वरुणमूलत्वक्क्वाथं तत्कल्कसंयुतम् । पानसे अश्मरी नष्ट होती है । इसी प्रकार काले नमकके साथ काथश्व त्थः कदुष्णोऽश्मरिघातकः ॥२६॥ शराबको पीनेसे अथवा शहद व दूधके साथ तिलपिजीकी भस्मको वरुणाकी छालके क्वाथमें गुड़ मिलाकर पीनेसे अश्मरी गिरती| में मिलाकर पीनेसे ३ रातमें पथरी नष्ट होती है ॥ ३१-३२॥ तथा मूत्राशय,और शूल शान्त होता है । अथवा जवाखार बगुड़ | एलादिकाथः। मिलाकर कूष्माण्डका रस पीना चाहिये, इससे मूत्राघात, शर्करा ब अश्मरी नष्ट होती है । अथवा वरुणाकी छालके क्वाथमें | " एकोपकुल्यामधुकाश्मभेदकोन्तीश्वदंष्ट्रावृषकोरुकैः । उसीका कल्क छोड़ कर पिलानेसे अथवा कुछ गरम गरम काथं पिबेदश्मजतुप्रगाढं सर्शकरे साइमरिमूत्रकृच्छ्रे ३३ सहिजनकी छालके क्वाथको पिलानेसे अश्मरी नष्ट | ___ इलायची, छोटी पीपल, मौरेठी, पाषाणभेद, 'सम्भालूके. होती है ॥ २४-२६ ॥ बीज, गोखुरू, अडूसा, एरण्डकी छाल इनके क्वाथमें | शिलाजतुको मिलाकर शर्करा, अश्मरी व मूत्रकृच्छ्रमें नागरादिकाथः। पीना चाहिये ॥ ३३ ॥ नागरवारुणगोक्षुरपाषाणभेदकपोतवकजः काथः । गुडयावशूकमिश्रः पीतो हन्त्यश्मरीमुग्राम ॥२७॥ त्रिकण्टकचूर्णम् । सोंठ, वरुणाकी छाल, गोखुरू, पाषाणभेद तथा मकोयके त्रिकण्टकस्य बीजानां चूर्ण माक्षिकसंयुतम् । क्वाथमें गुड़ व जवाखार मिलाकर पीनेसे उग्र अश्मरी नष्ट अविक्षीरेण सप्ताहं पिबेदश्मरिनाशम् । होती है ॥२७॥ शुक्राइमर्या तु सामान्यो विधिरश्मरिनाशनः ॥३४॥ वरुणादिवाथः। गोखुरूके बीजोंके चूर्णको शहद व भेड़के दूधके साथ सात वरुणत्वक्शिलाभेदशुण्ठीगोक्षुरकैः कृतः। दिन पनिसे अश्मरी नष्ट होती है । इसी प्रकार शुक्राश्मरीमें कषायः क्षारसंयुक्तः शर्करां च भिनत्त्यपि ॥ २८॥ सामान्य अश्मरीनाशक विधिका सेवन करना चाहिये ॥ ३४॥ वरुणाकी छाल, पाषाणभेद, सोंठ तथा गोखुरू इनके क्वाथमें पाषाणभेदादिचूर्णम् । क्षार मिलाकर पीनेसे मूत्रशर्करा नष्ट होती है ॥ २८ ॥ पाषाणभेदो वृषकः श्वदंष्टा श्वदशादिकाथः। पाठाभयाव्योषशटीनिकुम्भाः । श्वदंष्ट्ररण्डपत्राणि नागरं वरुणत्वचम् । हिंस्राखराश्वासितिमारकाणाएतत्काथवरं प्रातः पिबेदश्मरिभेदनम् ॥२९॥ मेर्वारुकाच्च वपुषाच्च बीजम् ॥ ३५॥ गोखुरू, एरण्डके पत्ते, सोंठ तथा वरुणाकी छालके क्वाथको उपकुञ्चिकाहिङ्गुसवेतसाम्लं प्रातःकाल पीनेसे अश्मरीका भेदन होता है ॥ २९ ॥ स्याद् द्वे बृहत्यौ हपुषा वचा च। श्वदंष्ट्रादिकल्कः। चूर्ण पिबेदश्मरिभोद पक्कं सर्पिश्च गोमत्रचतर्गणं तैः॥३६॥ मूलं श्वदंष्ट्रेक्षुरकोरुबूकात् पाषाणभेद , अडूसा, गोखुरू, पाढ़, बड़ी हर्रका छिल्का, क्षीरेण पिष्टं बृहतीद्वगाच्च । त्रिकटु, कचूर, दन्तीकी छाल, जटामांसी, अजमोदा, शालिश्चआलोडथ दध्ना मधुरेण पेयं शाक, ककड़ाके बीज व खीराके बीज, कलौंजी, भुनी हींग, दिनानि सप्ताश्मरिभेदनार्थम् ॥ ३०॥ अम्लवेत, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, हाऊवेर तथा बच इनका Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) चक्रदत्तः । [ अश्मर्य चूर्णकर अश्मरी नाशनार्थ सेवन करना चाहिये । तथा इनके कल्क जड़ प्रत्येक १ कर्षका कल्क छोड़कर पकाना चाहिये । इसका व चतुर्गुण गोमूत्र में सिद्ध घीका सेवन करनेसे अश्मरी नष्ट | मात्रा के साथ सेवन करना चाहिये । तथा हजम हो जानेपर होती है ॥ ३५-३६ ॥ | पुराना गुड़ दहीके तोड़के साथ पीना चाहिये । यह अश्मरी शर्करा व मूत्रकृच्छ्रको नष्ट करता है ॥ ४०-४३ ॥ कुलत्थाद्यं घृतम् । कुलत्थसिन्धूत्थविडङ्गसारं सशर्करं शीतलियावशूकम् । बीजानि कूष्माण्डकगोक्षुराभ्यां घृतं पचेन्ना वरुणस्य तोये ॥ ३७ ॥ दुःसाध्य सर्वाश्मरिमूत्रकृच्छ्रं मूत्राभिघातं च समूत्रबन्धनम् | एतानि सर्वाणि निहन्ति शीघ्रं प्ररूढ वृक्षानिव वज्रपातः ॥ ३८ ॥ कुलथी, सेंधानमक, वायविडुङ्ग, शक्कर, शीतली ( जलवृक्ष सफेद फूलयुक्त ), जवाखार, कूष्माण्डबीज तथा गोखुरूके बीजका कल्क तथा वरुणाका क्वाथ छोड़कर घृत सिद्ध करना चाहिये । यह घृत दुःसाध्य समग्र अश्मरी, मूत्रकृच्छ व मूत्राघातको इस प्रकार नष्ट करता है जैसे बढ़े वृक्षों को बिजलीका गिरना ॥ ३७-३८ ॥ . तृणपञ्चमूलघृतम् । शरादिपञ्चमूल्या वा कषायेण पचेद् घृतम् । प्रस्थं गोक्षुरकक्लेन सिद्धमद्यात्सशर्करम् । अस्मरीमूत्रकृच्छ्रनं रेतोमार्गरुजापहम् ॥ ३९ ॥ तूणपञ्चमूलके क्वाथ व गोखरू के कल्कसे घृत सिद्ध कर शक्कर मिला सेवन करनेसे अश्मरी, मूत्रकृच्छ्र और शुक्रमार्गकी पीड़ा नष्ट होती है ॥ ३९ ॥ वरुणाद्यं घृतम् | वरुणस्य तुला क्षुण्णां जलद्रोणे विपाचयेत् । पादशेषं परिस्राव्य घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ४० ॥ वरुणं कदलीं बिल्वं तृणजं पञ्चमूलकम् । अमृतां चाश्मजं देयं बीजं च पुषोद्भवम् ॥ ४१ ॥ शतपर्वतिलक्षारं पलाशक्षारमेव च । यूथिकायाश्च मूलानि कार्षिकाणि समावपेत् ॥४२॥ अस्य मात्रां पिबेज्जन्तुर्देशकालाद्यपेक्षया । जीर्णे तस्मिन्पिबेत्पूर्व गुडं जीर्ण तु मस्तुना । अश्मरीं शर्करां चैव मूत्रकृच्छ्रं च नाशयेत् ॥४३॥ वरुणाकी छाल ५ सेर १ द्रोण जलमें पकाना चाहिये । • चतुर्थाश शेष रहनेपर उतार छान १ प्रस्थ घृत तथा वरुणाकी छाल, केला, बेल, तृणपञ्चमूल, गुर्च, शिलाजतु, खीरे के बीज, ईख, तिलका क्षार, पलाशक्षार तथा जूही की सैन्धववीरतरादितैलम् । ब्रघ्नाधिकारे यत्तैलं सैन्धवाद्यं प्रकीर्तितम् । तत्तैलं द्विगुणक्षीरं पचेंद्वीरतरादिना ॥ ४४ ॥ कान पूर्वकक्लेन साधितं तु भिषग्वरैः । एतत् तैलवरं श्रेष्टमश्मरीणां विनाशनम् ॥ ४५ ॥ मूत्राघाते मूत्रकृच्छ्रे पिच्चिते मथिते तथा । भग्ने श्रमाभिपन्ने च सर्वथैव प्रशस्यते ॥ ४६ ॥ बाधिकार में जो सैंधवादि तेल कहेंगे उस सिद्ध तैलसे द्विगुण कल्क मिलाकर पुनः पकानेसे जो तैल बनेगा, वह अश्मरी मूत्राऔर द्विगुण वीरतरादिगणका क्वाथ तथा सैन्धवादि तैलका घात, मूत्रकृच्छ्र पिश्चित, मथित, भन्न तथा थके हुएको परम हितकारी होगा ॥ ४४-४६ ॥ दूध वरुणाद्यं तैलम् । त्वक्पत्रमूलपुष्पस्य वरुणात्सत्रिकण्टकात् । कषायेण पचेत्तैलं वस्तिना स्थापनेन च । शर्कराश्मरिशूलघ्नं मूत्रकृच्छ्रनिवारणम् ॥ ४७ ॥ वरुणा व गोखरूके पञ्चाङ्गके क्वाथसे सिद्ध तैलका अनुवासन द्वारा प्रयोग करनेसे मूत्रशर्करा, अश्मरी, बस्तिशूल व मूत्रकृच्छ्र नष्ट होते हैं ॥ ४७ ॥ शस्त्रचिकित्सा | शल्यवित्तामशाम्यन्तीं प्रत्याख्याय समुद्धरेत् । पाक्षिप्ताङ्गुलीभ्यां तु गुदमेढ्रान्तरे गताम्॥४८॥ सेवन्याः सव्यपार्श्वे च यवमात्रं विमुच्य तु । व्रणं कृत्वाश्मरीमात्रं कर्षेत्तां शस्त्रकर्मवित् ॥ ४९ ॥ भिन्ने बस्ती तु दुर्ज्ञानान्मृत्युः स्यादश्मरीं विना । निःशेषामश्मरी कुर्याद्वस्तो रक्तं च निर्हरेत् ॥ ५० ॥ हताश्मरीकमुष्णाम्भो गाहयेद्भोजयेच्च तम् । मूत्रविशुद्धयर्थं मध्वाज्याक्तत्रणं ततः ॥ ५१ ॥ दद्यात्साज्यां त्र्यहं पेयां साधितां मूत्रशोधिभिः । आदशाहं ततो दद्यात्पयसा मृदुभोजनम् ॥ ५२ ॥ स्वेदयेद्यवमध्वाढ्यं कषायैः क्षालयेद् व्रणम् । . प्रपौण्डरीकमञ्जिष्ठायष्टिलोत्रैश्च लेपयेत् ॥ ५३ ॥ एतैश्च सनिशैः सिद्धं घृतमभ्यञ्जने हितम् । अप्रशान्ते तु सप्ताहाद् व्रणे दाहोऽपि चेष्यते ॥ देवान्नाभ्यां तु या लग्ना तां विपाटयापकर्षयेत् ५४ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपतः। ( १६९) -- - - - - - - यदि उपरोक्त उपायोंसे अश्मरी शान्त न हो, तो शल्य- पुराने सावां कोदव, जङ्गली कादव, गेहूं, चना, अर. शास्त्रवेत्ता प्रत्याख्यान कर शस्त्र द्वारा उसे निकाले । गुदामें हर और कुथली प्रमेहवालोंके लिये सदा पथ्य हैं। इसी २ अंगुली छोड़कर अश्मरीको गुदा व लिङ्गके मध्यमें लावे । प्रकार जांगल प्राणियोंका मांसरस, तिक्तशाक, यवके पदार्थ फिर सेवनीसे वाम और यवमात्र छोड़ अश्मरीके बराबर व्रण- तथा मधु हितकर है ॥१॥कर अश्मरीको निकाल दे। ठीक ज्ञान न होनेके कारण यदि अष्टमेहापहा अष्टौ काथाः। पथरी न हुई तो व्रण करनसे बस्ति कट जायगी और रोगी मर जायगा, अतः अच्छी तरह निश्चय कर शस्त्रकर्म करना चाहिये। पारिजातजयानिम्बवहिगायत्रीणां पृथक् ॥२॥ यदि अश्मरी निकाले ही तो समग्र निकाल ले। तथा जो रक्त पाठायाः सागुरोः पीताद्वयस्य शारदस्य च। जमा हो उसे भी साफ कर दे। (तथा अश्मरी निकाल देनेपर जलेक्षुमद्यसिकताशनैर्लवणपिष्टकान् । गरम जलमें बैठावे ) तथा मूत्रशुद्धिके लिये गुड़ खिलावे ।। सान्द्रमेहान्क्रमाद् नन्ति ह्यष्टौ काथा:समाक्षिकाः।३ फिर घावमें शहद व घी लगावे तथा मुत्रशोधक द्रव्योंसे पारिजात, अरणी, नीम, चीतकी जड़, कत्था, अगुरु, और सिद्ध पेया घी मिलाकर ३ दिनतक पिलावे, फिर दूधके साथ पाढका क्वाथ तथा हल्दी व दारुहल्दी (शरदतुमें उत्पन्न) का पथ्य हलका भात आदि १० दिनतक खिलावे तथा क्वाथ इस प्रकार बताये गये ८ क्वाथ क्रमशः जलमेह, इक्षुमेह, यव व शहदसे बनायी पोटलीसे स्वेदन करे तथा कषाय मद्यमेह, सिकतामेह, शनैर्मेह, लवणमेह, पिष्टमेह और सान्द्रमेहरस युक्त काढ़ोंसे व्रणको साफ करे तथा पुण्डरिया, मजीठ, को नष्ट करते हैं ॥ २ ॥ ३ ॥ मौरेठी व लोध्रसे लेप करे तथा हल्दीके सहित इन्हीं द्रव्योंसे सिद्ध घृतकी मालिश करे । सात दिनतक ऐसा करनेसे शुक्रमेहहरः क्वाथः। यदि व्रण ठीक न हो तो उसे जला देना चाहिये । यदि भाग्य दूर्वाकशेरुपूतीककुम्भीपल्वलशैवलम् । वश पथरी नाभीमें अटक गयी हो, तो काटकर निकालना जलेन कथितं पीतं शुक्रमेहहरं परम् ॥ ४॥ चाहिये ॥४८-५४॥ इत्यश्भर्यधिकारः समाप्तः। दूब, कशेरू, पूतिकरज, जलकुम्भी तथा सेवार इनका काथ शुक्रमेहको नष्ट करता है ॥ ४ ॥ अथ प्रमेहाधिकारः।* फेनमेहहरः क्वाथः। त्रिफलारवधद्राक्षाकषायो मधुसंयुतः। पीतो निहन्ति फेनाख्यं प्रमेहं नियतं नृणाम् ॥५॥ पथ्यम् । त्रिफला, अमलतासके गूदा तथा मुनक्केके क्वाथमें शहद श्यामाककोद्रवोहालगोधूमचणकाढकी। डालकर पनिसे फेनमेह नष्ट होता है ॥५॥ कुलत्थाश्च हिता भोज्ये पुराणा मेहिनां सदा ॥१॥ कषायचतुष्टयी। जाङ्गलं तिक्तशाकानि यवान्नं च तथा मधु । लोधाभयाकट्फलमुस्तकानां * कुशावलेहः-" वीरणश्च कुशः काशः कृष्णक्षुः खाग विडङ्गपाठार्जुनधन्वनानाम् । डस्तथा । एतान्दशपलान्भागाजलद्रोणे विपाचयेत् । अष्टभागा- कदम्बशालार्जुनदीप्यकानां वशेष तु कषायमवतारयेत् । अवतार्य ततः पश्चाचूर्णा- विडङ्गदाधिवशल्लकीनाम् ॥६॥ नीमानि दापयेत् ॥ मधुकं कर्कटीबीजं कर्काळं पुषं तथा । शुभामलकपत्राणि एलात्वनागकेशरम् । वरुणामृताप्रियंगूणां नागकेशर, वरुणाकी छाल, गुर्च, तथा प्रियंगु प्रत्येक १ प्रत्येकं चाक्षसंम्मितम् । प्रमेहान्विशतिं चैव मूत्राघातं तथा-तोलेका चूर्ण मिलाकर उतार लेना चाहिये । यद्यपि इसमें श्मरीम् ॥ वातिकं पैत्तिकं चैव लैष्मिकं सान्निपातिकम् । शक्करका वर्णन नहीं है । पर वैद्यलोग अवलेह पकाते समय हन्त्यरोचकमेवोग्रं तुष्ठिपुष्टिकरस्तथा ॥" खश, कुश, काश,६४ तोला शक्कर भी डालते हैं । यह २० प्रकारके काली, ईख, रामशेर प्रत्येक द्रव्य ८ छ• जल २५ सेर ९ प्रमेह, मूत्राघात, अश्मरी, तथा हर प्रकारके अरोचक, नष्ट छ. ३ तोला मिलाकर पकाना चाहिये, अष्टमांश शेष करता है । इसकी मात्रा ६ माशेसे २ तोले तक है। रहनेपर काढा उतारे, छानकर पुनः पाक करना चाहिये ।(यह प्रयोग किसी पुस्तकमें है, किसी में नहाँ और इसके गाढा हो जानेपर मौरेठी, ककड़ीके बीज, पेठेके बीज, खीराके ऊपर शिवदासजीने टीका भी नहीं की, अतः टिप्पणी रूपमें बीज, वंशलोचन, आंवला, तेजपात, इलायची, दालचीनी, लिखा गया है)। २२ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) चक्रदत्तः। [प्रमेहा- - - - - -- - चत्वार एते मधुना कषायाः पाठाशिरीषदुस्पर्शमूर्वाकिंशुकतिन्दुकम् । कफप्रमेहेषु निषेवणीयाः॥७॥ कपित्थानां भिषक् काथं हस्तिमेहे प्रयोजयेत् ।।१४ (१)पठानी लोध, बडी हर्रका छिल्का, कायफल नागर | गुर्च और चीतकी जड़के काढ़ेके साथ मोथका क्वाथ (२) अथवा वायविडंग, पाढ, अर्जुन और | | छाल, भुनी हींग, कुटकी और कूठके चूर्णका सेवन करनेसे धामिनका क्वाथ (३) अथवा कदम्ब, शाल अर्जुन और | सर्पिर्मेह नष्ट होता है । तथा दुर्गन्धित खैर, खैर और सुपारीका अजवाइनका क्वाथ (४)अथवा वायविडंग, दारुहल्दी, धव क्वाथ मधुमेहमें पीना चाहिये । तथा अरणीका क्वाथ और शल्लकी (शालभेदः) का क्वाथ इनमेंसे किसी एकमे शहद | ५वसामेहमें पीना चाहिये । तथा पाढ़ सिआकी छाल, थवासा, मिलाकर कफप्रमेहवालोंको पाना चाहिये॥६॥७॥ मूर्वा, ढाकके फूल और तेन्दू तथा कैथेका क्वाथ हस्तिमेहमें षण्मेहनाशकाः षट क्वाथाः।। देना चाहिये ॥ १२-१४॥ अश्वत्थाश्चतुरंगुल्या न्यग्रोधादेः फलत्रिकात् । कफपित्तमेहचिकित्सा। सजिङ्गिरक्तसाराच काथाः पञ्च समाक्षिकाः ।।८।। कम्पिल्लसप्तच्छदशालजानि नीलहारिद्रफेनाख्यक्षारमजिष्ठकाहयान् । __ विभीतरोहीतककोटजानि । मेहान्हन्युः क्रमादेते सक्षौद्रो रक्तमेहनुत् । कपित्थपुष्पाणि च चूर्णितानि काथः खजूरकाश्मयतिन्दुकास्थ्यमृताकृतः ॥९॥ क्षौद्रेण लिह्यात्कफपित्तमेही ॥ १५ ॥ (१)पीपलकी छालका काथ, (२) अमलतासके गूदेका कवीला, सप्तपर्ण, शाल, बहेड़ा, रुहेडा, कुटज और कैथके क्वाथ (३) न्यग्रोधादि गणका क्वाथ, (४ ) त्रिफलाका | फूलका चूर्ण कर शहदके साथ कफपित्तज प्रमेहमें चाटना काथ, (५) मीठ व लालचन्दनका क्वाथ यह पांच क्वाथ चाहिये ॥ १५॥ शहदके साथ क्रमशः नील, हारिद्र, फेन, क्षार और मअिष्टमेहको नष्ट करते है। तथा (६) छुहारा, खम्भार, तेन्दूकी त्रिदोषजमेहचिकित्सा। गुठली और गुर्चका क्वाथ शहदके साथ रक्त प्रमेहको नष्ट सर्वमहहरों धात्र्या रसः क्षीद्रनिशायुतः । करता है ॥ ८-९॥ कषायत्रिफलादारुमुस्तकैरथवा कृतः ॥ १६ ॥ कषायचतुष्टयी। फलत्रिकं दारुनिशा विशाला लोध्रार्जुनोशीरकुचन्दनाना मुस्तं च निःक्वाथ्य निशांशकल्कम् । मरिष्टसेव्यामलकाभयानाम् । पिबेत्कषायं मधुसंप्रयुक्त धाव्यर्जुनारिष्टकवत्सकानां सर्वेषु मेहेषु समुत्थितेषु ॥ १७ ॥ नीलोत्पलैलातिनिशार्जुनानाम् ॥ १०॥ आंवलेका रस, शहद और हल्दीके चूर्णके साथ समस्त चत्वार एते विहिताः कषायाः प्रमेहोंके नष्ट करता है। अथवा त्रिफला, देवदारु और नागरमोथाका क्वाथ पीना चाहिये । अथवा त्रिफला, दारुहल्दी, इन्द्रायणकी पित्तप्रमेहे मधुसंप्रयुक्ताः॥ ११ ॥ जड़ तथा नागरमोथाका क्वाथ हल्दीका कल्क और शहद मिलाकर (१) लोध, अर्जुन, खश, लालचन्दन (२) नीमकी छाल, समस्त प्रमेहोंमें सेवन करना चाहिये ॥ १६ ॥१७॥ खश, आंवला, बडी हरे (३) आंवला, अर्जुनकी छाल,नीमकी छाल, कुरैषाकी छाल (४) अथवा नीलोफर, इलायची, तिनिश विविधाः क्वाथाः। और अर्जुनकी छाल इस प्रकार लिखे चार क्वाथों से कोई कटंकटेरीमधुकत्रिफलाचित्रकैः समैः । भी शहद मिलाकर सेवन करनेसे पित्तप्रमेह नष्ट होता सिद्धः कषायः पातव्यः प्रमेहाणां विनाशनः॥१८॥ है॥१०॥११॥ त्रिफलादारुदाय॑ब्दक्काथः क्षौद्रेण मेहहा । वातजमेहचिकित्सा। कुटजाशनदाय॑ब्दफलत्रयभवोऽथवा ॥ १९॥ दारुहल्दी, मौरेठी, त्रिफला तथा चीतकी जड़का काथ छिन्नावह्निकषायण पाठाकुटजरामठम् । .. समस्त प्रमेहोंको नष्ट करता है । तथा त्रिफला, देवदारु, दारुहल्दी तिक्तां कुष्ठं च संचूर्ण्य सर्पिमेहे पिबेन्नरः ॥ १२ ॥ व नागरमोथाका क्वाथ शहदके साथ पीनसे प्रमेहको नष्ट करता है। कदरखदिरपूगकाथं क्षौद्राह्वये पिबेत् । इसी प्रकार कुटज, विजैसार, दारुहल्दी, नागरमोथा और त्रिफभनिमन्थकषायं तु वसामेहे प्रयोजयेत् ॥ १३॥ लाका काथ समस्त प्रमेहोको नष्ट करता है ॥ १८॥ १९ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः 1 चूर्णकल्का: । त्रिफला लोहशिलाजतुपथ्याचूर्ण च लोढमेकैकम् । मधुनामरास्वरस इव सर्वान्महान्निरस्यति ॥ २० ॥ शाल मुष्कककम्पिलकल्कमक्ष समं पिबेत् । धात्रीरसेन सक्षौद्रं सर्वमेहहरं परम् ॥ २१ ॥ भाषाटीकोपेतः । त्रिफला, लौह, शिलाजतु, तथा हरें, इनमेंसे किसी चूर्ण शहदके साथ चाटने से शहद के साथ गुर्चके स्वरसके समस्त प्रमेह को नष्ट करता है । तथा शाल, मोखा और लाका कल्क १ तोला आंवलेका रस और शहद मिलाकर पीने से समस्त मेह नष्ट होते हैं ॥ २० ॥ २१ ॥ न्यग्रोधाद्यं चूर्णम् । न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थस्योनाकारग्वधासनम् । आम्रजम्बूकपित्थं च प्रियालं ककुभं धवम् ॥२२॥ मधूको मधुकं लोध्रं वरुणं पारिभद्रकम् । पटालें मेषशृङ्गी च दन्ती चित्रकमाढकी ॥ २३ ॥ कर त्रिफला शक्रभल्लातकफलानि च । एतानि समभागानि ऋणचूर्णानि कारयेत् ॥२३॥ न्यग्रोधाद्यमिदं चूर्ण मधुना सह लेहयेत् । फलत्रयरसं चानु पिबेन्मूत्रं विशुध्यति ॥ २५ ॥ एतेन विंशतिर्मेहा मूत्रकृच्छ्राणि यानि च । प्रशमं यान्ति योगेन पिडका न च जायते । न्यग्रोधाद्यमिदं स्वत्र चाम्रजम्ब्वस्थि गृह्यते ॥ २६॥ त्रिकण्टकाद्याः स्नेहाः । त्रिकण्टकाश्मन्तकसोमवल्के वट, गूलर, पीपल, सोनापाठा, अमलतास, विजेसार, आम, जामुन, कैथा, चिरौंजी, अर्जुन, धव, महुआ, मौरेठी, लोध, वरुणाकी छाल, नीमकी छाल, परवलकी पत्ती, मेषशृंगी, दन्ती, चीतकी जड़, अरहर, कब्जा, त्रिफला, इन्द्रयव तथा भिलावां सब समान भाग ले चूर्ण कर शहदके साथ चाटना चाहिये, ऊपरसे त्रिफलाका क्वाथ पीना चाहिये । इससे मूत्र शुद्ध आता, वीसों प्रमेह, पिड़का, तथा मूत्रकृच्छ्र नष्ट होते हैं। इसे "न्यग्रोधादिचूर्ण ” कहते हैं । इसमें आम व जामुनकी गुठली छोड़नी चाहिये ।। २२- २६ ॥ भल्लातकैः सातिविषैः सलोनैः । वचापटोलार्जुन निम्बमुस्ते - M हरिद्रा दीप्यकपद्मकेश्च ॥ २७ ॥ मञ्जिष्ठपाठागुरुचन्दनैश्च सर्वैः समस्तैः कफवातनेषु । एक का समान कवी - ( १७१ ) मेहेषु तैलं विपचेद् घृतं तु पित्तेषु मिश्रं त्रिषु लक्षणेषु ॥ २८ ॥ गोखरू, कञ्चनार, कत्था, भिलावां, अतीस, लोध, बच, परवल, अर्जुन, नागरनीम, मोथा, हल्दी, अजवायन, पद्माख, मजीठ, पाढी, अगर तथा चन्दनसे सिद्ध किया तैल कफवातज प्रमेहमें तथा उन्हींसे सिद्ध घृत पित्तप्रमेह में तथा दोनों मिलाकर त्रिदोषज प्रमेह में पिलाना चाहिये ॥ २७ ॥ २८ ॥ कफपित्तहयोः सर्पिषी । कफमेहहरकाथसिद्धं सर्पिः कफे हितम् । पित्तमेहननिर्यूहसिद्धं पित्ते हितं घृतम् ॥ कफमेह - नाशक क्वाथमें सिद्ध घृत पित्तमेह - नाशक क्वाथमें सिद्ध घृत चाहिये ॥ २९ ॥ २९ ॥ कफमे हमें तथा पित्तमेहमें देना धान्वन्तरं घृतम् । दशमूलं करजी द्वौ देवदारु हरीतकी । वर्षाभूर्वरुणो दन्ती चित्रकं सपुनर्नवम् ॥ ३० ॥ सुधानीपकदम्बाश्च बिल्वभल्लातकानि च । शटी पुष्करमूलं च पिप्पलीमूलमेव च ॥ ३१ ॥ पृथग्दशपलान्भागांस्ततस्तोयामणे पचेत् । यवकोलकुलत्थानां प्रस्थ प्रस्थं च दापयेत् । तेन पादावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ३२ ॥ निचुलं त्रिफला भाङ्ग रोहिषं गजपिप्पली । शृङ्गवेरं विडङ्गानि वचा कम्पिल्लकं तथा ॥ ३१ ॥ गर्भेणानेन तत्सिद्धं पाययेत्तु यथाबलम् । एतद्धान्वन्तरं नाम विख्यातं सर्पिरुत्तमम् ॥ ३४ ॥ कुष्ठं गुल्मं प्रमेहांश्च श्वयथुं वातशोणितम् । प्लीहोदरं तथाशसि विद्रधिं पिडकाश्च याः । अपस्मारं तथोन्माद सर्पिरेतन्नियच्छति ॥ ३५ ॥ पृथक्तायामणे तत्र पचेद् द्रव्याच्छतं शतम् । शतत्रयाधिके तोयमुत्सर्गक्रमतो भवेत् ॥ ३६ ॥ दशमूल, दोनों करञ्जा, देवदारु, हर्र, रक्त पुनर्नवा, वरुणाकी छाल, दन्ती, चीतकी जड़, श्वेत पुनर्नवा, सेहुंड, वेत, कदम्ब, बेल, भिलावां, कचूर, पोहकरमूल तथा पिपरामूल प्रत्येक १० पल, यव, बेर, कुलथी प्रत्येक १ प्रस्थ छोड़कर उचित मात्रामें जल मिलाकर क्वाथ बनाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छान १ प्रस्थ घृत मिलाकर पकाना चाहिये । तथा घृतमें चतुर्थांश माजूफल, त्रिफला, भारंगी, रोहिष घास, गज| पीपल, अदरख, वच व कवीलाका कल्क छोडकर पकाना Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) चक्रदत्तः । चाहिये । इसका बलानुसार सेवन करना चाहिये । यह " धान्वन्तर घृत " कुष्ठ, गुल्म, प्रमेह, सूजन, वातरक्त, प्लीहोदर, अर्श, विद्रधि, प्रमेह, पिडिका, अपस्मार तथा उन्मादको नष्ट करता है । ओषधियां १ तुला होनेपर जल १ द्रोण छोड़ना चाहिये और ३ तुला द्रव्यसे अधिक होनेपर जल स्वाभाविक नियमसे अर्थात् चतुर्गुण छोड़ा जाता है । क्वाथ्य द्रव्य प्रत्येक १० पल लेनेसे १३ ॥ सेर और १ प्रस्थ के मानके ३ द्रव्य २ सेर ६ छ० २ तो० अर्थात् समग्र १५ सेर १४ छ० | बिहार करना चाहिये ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ २ तोला क्वाथ्य द्रव्य हुआ । अतः जल तीन द्रोण तथा ३ सेर ९ छ० ३ तो० छोड़ना चाहिये ॥ ३०-३६ ॥ * [ प्रमेहा न चात्र परिहारोऽस्ति कर्म कुर्याद्यथेप्सितम् । प्रमेहान्मूत्रदोषांश्च बालरोगोदरं जयेत् ॥ ३८ ॥ गुग्गुल मिलाकर गोखरूके काथसे गोली बना लेनी चाहिये । त्रिकटु, त्रिफलाका चूर्ण समान भाग, सबके समान शुद्ध इसे देश, काल व बलके अनुसार सेवन करनेसे वायुका अनुलोमन होता है तथा प्रमेह, मूत्रदोष और बालरोग नष्ट होते हैं। इसमें कोई परिहार नहीं है । यथेष्ट आहार शिलाजतुप्रयोगः । शालसारादितोयेन भावितं यच्छिलाजतु । पिवेत्तेनैव संशुद्धदेहः पिष्टं यथाबलम् ॥ ३९ ॥ जांगलानां रसैः सार्धं तस्मिञ्जीर्णे च भोजनम् ॥ कुर्यादेवं तुलां यावदुपयुञ्जीत मानवः ॥ ४० ॥ मधुमेहं विहायासी शर्करामश्मरीं तथा । वपुर्वर्णबलोपेतः शतं जीवत्यनामयः ॥ ४१ ॥ शालसारादि गणकी औषधियोंसे शुद्ध शिलाजतु इन्हींके क्वाथकें साथ पीसकर बलानुसार पीना चाहिये । तथा औषध हजम हो जानेपर जांगल प्राणियोंके मांसरसके साथ भोजन * महादाड़िमाद्यं घृतम् - " दाडिमस्य फलप्रस्थं यवप्रस्थौ तथैव च । कुलत्थकुडबं चैव क्वाथयित्वा यथाविधि ॥ तेन पादावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत् । चतुःषष्टिपलं क्षीरं क्षीरतुल्यं वरीरसम् ॥ दत्त्वा मृद्वग्निना कल्केरक्षमात्रायुतैः सह । द्राक्षाखर्जूरकाकोलीदन्तीदाडिमजीरकैः ॥ तथा मेदामहामेदात्रिफलादारु- करना चाहिये । इस प्रकार १ तुला शिलाजतुका प्रयोग रेणुकैः । विशालारजनादारुहरिद्रा विकसामयैः ॥ कृमिघ्नभूमिकू - कर जानेसे मधुमेह, शर्करा, अश्मरी नष्ट होते और ष्माण्डश्यामैलाभिर्भिषग्वरः । पाने भोज्ये प्रदातव्यं सर्वर्तुषु च शरीर निरोग, वर्ण बलपूर्ण होकर १०० वर्षतक जीवन मात्रया ॥ प्रमेहाविंशतिं चैव मूत्राघातांस्तथाश्मरीम् । कृच्छ्रं धारण करता ॥ ३९-४१ ॥ सुदारुणं चैव हन्यादेतदसायनम् ॥ शूलमष्टविधं हन्ति ज्वरमष्टविधं तथा । कामलां पाण्डुरोगांश्च हलीमकमथारुचिम् ॥ श्लीपदं च विशेषेण घृतेनानेन नश्यति । इदमायुष्यमोजस्यं सर्वरोगहरं परम् ॥ दाड़िमाद्यमिदं नाम अश्विभ्यां निर्मितं महत् ॥" अनारके दाने ६४ तोला यव १२८ तो०, कुलथी १६ तो० सबसे अष्टगुण जल मिलाकर पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार, छानकर सिद्ध क्वाथ में घी १ सेर ९छ० ३ तो० तथा दूध ३ सेर १६ तो०, शतावरीका रस ३ सेर १६ तो० तथा मुनक्का, छुहारा, काकोली, दन्तीकी छाल, अनारदाना, जीरा, मेदा, महामेदा, त्रिफला, देवदारु, सम्भालू के बीज, इन्द्रायण, हल्दी, दारूहल्दी, मजीठ, कूठ, वायविडंग, बिदारीकन्द, कालीसारिवा, इलायची प्रत्येक १ तो० का कल्क छोड़कर पाक करना चाहिये । इसका अनुकूल मात्रामें प्रत्येक ऋतु में पान व भोजनके साथ प्रयोग करना चाहिये । यह २० प्रकारके प्रमेह, मूत्राघात, अश्मरी तथा दारुण मूत्रकृच्छ्रको नष्ट करता और रसायन है । तथा आठ प्रकारके शूल, आठों ज्वर, कामला, पाण्डुरोग, हलीमक, अाचे और श्लीपदको नष्ट करता है । यह भगवान् अश्विनीकुमारद्वारा बनाया हुआ "महादा डेमादिघृत" आयुष्य, ओजस्य व सर्वरोगनाशक है । ( यह कुछ प्रतियों में मिलता, कुछ में नहीं, अतः टिप्पणी में लिखा गया है ). माक्षिकं धातुमप्येवं युञ्ज्यत्तस्याप्ययं गुणः । शालसारादिवर्गस्य क्वाथे तु घनतां गते ॥ ४३ ॥ दन्तीलोध्रशिवाकान्तलौहताम्ररजः क्षिपेत् । घनीभूतमदग्धं च प्राश्य मेहान्व्यपोहति ॥ ४४ ॥ स्वर्णमाक्षिक धातुका भी इसी प्रकार प्रयोग करना चाहिये, उसका भी यही गुण है । तथा शालसारादि वर्ग के क्वाथको पुनः पका क्काय गाढा हो जानेपर दन्ती, लोध, छोटी हर्र, कान्तलौइभस्म तथा ताम्र भस्मको छोड़ कर पकाना चाहिये । कड़ा हो जानेपर जलने न पावे, उसी दशामें उतारना चाहिये । इसको चाटनेसे प्रमेह नष्ट होते हैं ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ त्र्यूषणादिगुग्गुलुः । त्रिकटुत्रिफला चूर्णतुल्ययुक्तं च गुग्गुलम् । गोक्षुरक्काथ संयुक्तं गुटिकां कारयेद्भिषक् ॥ ३७ ॥ देशकालबलापेक्षी भक्षयेच्चानुलोमिकीम् । विडंगादिलौद्दम् । विडंगात्रिफलामुस्तैः कणया नागरेण च । जीरकाभ्यां युतो हन्ति प्रमेहानतिदुस्तरान् । हो मूत्रविकारांश्च सर्वानेव न संशयः ॥ ४२ ॥ वायविडंग, त्रिफला, नागरमोथा, छोटी पीपल, सोंठ, सफेद जीरा और स्याह जीरासे युक्त लौहभस्म कठिन प्रमेह तथा मूत्रदोषों को नष्ट करता है, इसमें संशय नहीं ॥ ४२ ॥ माक्षिकादियोगः । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (१७३) " मेहनाशकविहाराः। । अथ स्थौल्याधिकारः। व्यायामजातमाखिलं भजन्महान्व्यपोहति ।। पादत्रच्छत्ररहितो भैक्षाशी मुनिवद्यतः ॥ ४५ ॥ स्थौल्ये पथ्यान। योजनानां शतं गच्छेदधिक वा निरन्तरम् । मेहाजेतुं बलेनोपि नीवारामलकाशनः ॥ ४६॥! श्रमचिन्ताव्यवायाध्वक्षौद्रजागरणप्रियः । अनेक प्रकारके व्यायामसे प्रमेह नष्ट होते हैं । तथा जूता! हन्त्यवश्यमतिस्थौल्यं यवश्यामाकभोजनः ॥१॥ और छाता विना अर्थात् नंगे पैर और नंगे शिर मानियों अस्वाप च व्यवायं च व्यायाम चिन्तनानि च । समान जितौद्रिय हो भिक्षा मांगकर भोजन करते हुए ४०० स्थौल्यमिच्छन्परित्यक्तुं क्रमेणातिप्रवधयेत् ॥२॥ कोश या और अधिक निरन्तर पैदल चलना चाहिये । और परिश्रम, चिन्ता, मैथुन, मार्गगमन, शहदका सेवन और पसईके चावल व आंवलेको खाना चाहिये ॥ ४५ ॥४६॥ जागरण करनेवाला तथा यव व सांवाका भोजन करनेवाला प्रमेहपिडिकाचिकित्सा। अवश्य अतिस्थूलतासे मुक्त होता है। अतः स्थौल्य दूर. कर. नेकी इच्छा करनेवाला पुरुष क्रमशः जागरण, मैथुन, व्यायाम, शराविकाद्याः पिडकाः साधयेच्छोथवद्भिषक् । चिन्ता आधिक बढावे ॥१॥२॥ पक्काश्चिकित्सेद्रणवत्तासां पाने प्रशस्यते ॥ ४७ ॥ कार्थ वनस्पते स्तं मूत्रं च व्रणशोधनम् । केचनोपायाः। एलादिकेन कुर्वीत तैलं च व्रणरोपणम् ॥४८॥ । प्रातर्मधुयुतं वारि सेवितं स्थौल्यनाशनम् । आरग्वधादिना कुर्यात्क्वाथमुद्वर्तनानि च । उष्णमन्नस्य मण्डं वा पिबन्कुशतनुर्भवेत् ॥ ३॥ शालसारादिसेकं च भोज्यादिं च कणादिना॥४९॥ सचव्यजीरकव्योपहिगुसौवर्चलानलाः। शराविका आदि पिड़िकाओंकी शोथके समान चिकित्सा, मस्तुना शक्तवः पीता मेदोना वह्निदीपनाः ॥४॥ करनी चाहिये । फूटनेपर व्रणके समान पीनेके लिये वनस्पति- विडङ्गनागरक्षारकाललोहरजो मधु । योंका काथ तथा बकरेका मूत्र देना चाहिये । इससे व्रण शुद्ध | यवामलकचूर्ण तु प्रयोगः स्थौल्यनाशनः ॥५॥ होते हैं । एलादिगणसे व्रणरोपण तैल बनाना चाहिये । आरश्व- प्रातःकाल शहदका शर्बत पीनेसे अथवा गरम गरम अन्नका धादिका क्वाथ देना चाहिये । शालसारादिवर्गसे उबटन तथा मांड पीनेसे शरीर पतला होता है । इसी प्रकार चव्य, जीरा, सेकादि करना चाहिये । और छोटी पीपल आदि मिलाकर त्रिकट, हिंगु, कालानमक, और चीतकी जड़के चूर्ण तथा भोजन बनाना चाहिये ॥ ४७-४९॥ दहीके तोड़के साथ सत्त पीनेसे मेदका नाश तथा अमिकी वृद्धि होती है । इसी प्रकार वायविडंग, सोंठ, जवाखार, लौहभस्म, वानि । शहद और यव व आंवलेका चूर्ण मिलाकर सेवन करनसे स्थूलता सौवीरकं सुरां शुक्तं तैलं क्षीरं घृतं गुडम् । नष्ट होती है ॥३-५॥ अम्लेक्षुरसपिष्टान्नानूपमांसानि वर्जयेत् ॥ ५० ॥ व्योषादिसक्तुयोगः। काजी, शराब, सिरका, तैल, दूध, घी, गुड़, खट्टी व्योषं विडङ्गशिणि त्रिफलां कटुरोहिणीम् । चीजें, ईखका रस, पिट्ठीके अन्न और आनूपमांस न खाने | बृहत्यो द्वे हरिद्रे द्वे पाठामतिविषां स्थिराम् ॥ ६॥ चाहिये ॥५०॥ हिंगु केबूकमूलानि यमानीधान्यचित्रकम् । इति प्रमेहाधिकारः समाप्तः । सौवर्चलमजाजी च हपुषां चेति चूर्णयेत् ॥ ७ ॥ चूर्णतेलघृतक्षौद्रभागाः स्युर्मानतः समाः । १ वने वापि इति प्राचीनपुस्तकेषु पाठः। सक्तूनां षोडशगुणो भागः संतर्पणं पिबेत् ॥८॥ प्रमेमुक्तिलक्षणम्-“ प्रमेहिणां यदामूत्रमनाविलमपि- प्रयोगात्तस्य शाम्यन्ति रोगाः सन्तर्पणोत्थिताः । च्छिलम् । विशदं कटु तिक्तं च तदारोग्यं प्रचक्षते ॥" प्रमेहके प्रमेहा मूढवाताश्व कुष्ठान्यशसि कामला ॥९॥ रोगियोंका मूत्र जब साफ, लासारहित, फैलनेवाला, कटु व|तिक्त आने लगे, तब समझना चाहिये कि अब प्रमेह| *विडंगाद्यं लौहम्-“ विडंगत्रिफलामुस्तैः कणया नहीं रहा ॥ नागरेण च । बिल्वचन्दनहीबेरपाठोशीरं तथा बला॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७१) चक्रदत्तः। [ स्थौल्यान्न्न्न्न्न्न्न् प्लीहपाण्ड्वामयः शोथो मूत्रकृच्छ्रमरोचकः। | गुर्च १ भाग, छोटी इलायची २ भाग, वायविडङ्ग ३ भाग, हृद्रोगो राजयक्ष्मा च कासश्वासौ गलग्रहः ॥१०॥ कुरैयाकी छाल ४ भाग, इन्द्रयव ५ भाग, छोटी हरै ६ भाग क्रिमयो ग्रहणीदोषाः वैध्यं स्थौल्यमतीव च। आंवला ७ भाग, तथा गुग्गुलु ८ भाग सबको शहदमें मिलाकर नराणां दीप्यते चाग्निः स्मृतिर्बुद्धिश्च वर्द्धते ॥ ११॥ मात्रानुसार सेवन करनेसे पिड़का, स्थौल्य और भगन्दर नष्ट होता है ॥ १३॥ त्रिकटु, वायविडंग, सहिजनकी छाल, त्रिफला, कुटकी, दोनों कटेरी, हल्दी, दारुहल्दी, पाठ, अतीस, शालिपर्णी, भुनी हींग, नवकगुग्गुलुः। केबुकमूल, अजवायन, धनियां, चीतकी जड़, कालानमक, जीरा, व्योषाग्नित्रिफलामुस्तविडङ्गुग्गुलुं समम् । हाऊवेर इनका चूर्ण करना चाहिये । पुनः चूर्ण १ भाग, तैल १ खादन्सर्वाञ्जयेद्वथाधीन्मेदःश्लेष्मामवातजान् १४॥ भाग, घृत १ भाग, शहद १ भाग, और सक्तू १६ भाग जल| कि त्रिकटु, त्रिफला, विमद (नागरमोथा, चीतकी जड़, वायमिलाकर पीना चाहिये । इस प्रयोगसे सन्तर्पणजन्य रोग तथा प्रमेह, हा विडंग ) प्रत्येक समान भाग चूर्ण कर सबके समान गुग्गुलु मढवात, कुष्ट, अशे, कामला, प्लाहा, पाण्डुराग, शाथ, मूत्रकृच्छ, मिलाकर सेवन करनेसे मेद. कफ और आमवातजन्य समस्त अरुचि, हृदोग, राजयक्ष्मा, कास, श्वास, गलेकी जकड़ाहट, रोग नष्ट होते हैं ॥ १४ ॥ क्रिमिरोग, ग्रहणीदोष, चित्र तथा अतिस्थूलताका नाश होता है, अनि दीप्त होती तथा बुद्धि और स्मरणशक्ति बढ़ती है।६-११॥ लौहरसायनम् । __ प्रयोगद्वयम् । गुग्गुलुस्तालमूली च त्रिफला खदिरं वृषम् । बदरीपत्रकल्केन पेया काजिकसाधिता । त्रिवृतालम्बुषा स्नुक्च निर्गुण्डी चित्रकं तथा ।।१५।। स्थौल्यनुत्स्यात्साग्निमन्थरसं वापिशिलाजतु ॥१२॥ एषां दशपलान्भागांस्तोये पञ्चाढके पचेत् । (१) बेरकी पत्तीके कल्क और काली मिलाकर सिद्ध पेया। पादशेषं ततः कृत्वा कषायमवतारयेत् ॥ १६ ॥ अथवा (२) अरणीके रसके साथ शिलाजतु स्थौल्यको नष्ट पलद्वादशकं देयं तीक्ष्णं लौहं सुचूर्णितम् । करता है ॥ १२॥ पुराणसर्पिषः प्रस्थं शर्कराष्टपलोन्मितम् ॥ १७ ॥ अमृतादिमुग्गुलुः। पचेत्ताम्रमये पात्रे सुशीते चावतारिते। प्रस्थाध माक्षिकं देयं शिलाजतु पलद्वयम् ॥१८॥ अमृतात्रुटिवेल्लवत्सकं एलात्वक्च पलार्धं च विडङ्गानि पलद्वयम् । कलिङ्गपथ्यामलकानि गुग्गुलुः । मरिच चाञ्जनं कृष्णाद्विपलं त्रिफलान्वितम्॥१९॥ क्रमवृद्धमिदं मधुप्लुतं पलद्वयं तु कासीसं सूक्ष्मचूर्णीकृतं बुधैः। पिडकास्थौल्यभगन्दरं जयेत् ॥ १३ ॥ चूर्ण दत्त्वा सुमथितं स्निग्धे भाण्डे निधापयेत् ॥२० -एषां सर्वसमं लौहं जलेन वटिकां कुरु । घृतयोगेन कर्तव्या ततः संशुद्धदेहेस्तु भक्षयेदक्षमात्रकम् । मालेका वटिका शुभा ॥ अनुपानं प्रयोक्तव्यं लोहस्याटगुणं पयः।। अनुपानं पिबेत्क्षीरं जाङ्गलानां रसं तथा ॥ २१ ॥ सर्वमेहहरं बल्यं कान्त्यायुर्बलवर्द्धनम् ॥ अग्निसन्दीपनकरं वाजी-1 वातश्लेष्महरं श्रेष्ठं कुष्ठमेहोदरापहम् । करणमुत्तमम् । सोमरोंगं निहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा ॥ कामलां पाण्डुरोगं च श्वयधु सभगन्दरम् ॥२२॥ विडंगाद्यमिदं लौहं सर्वरोगनिषूदनम् ॥" वायविडंग, त्रिफला, मूर्छामोहविषोन्मादगराणि विविधानि च । नागरमोथा, छोटी पीपल, सोंठ, बेलकी छाल, चन्दन, सुगन्ध स्थूलानां कर्षणे श्रेष्ठं मेदुरे परमौषधम् ।। २३ ।। वाला, पाढ, खश, खरेटी सब समान भाग सबके समान कर्षयेच्चातिमात्रेण कुक्षिं पातालसन्निभम् । लौहभस्म मिलाकर जलमें घोट घी मिलाकर गोली १ माशेकी बल्यं रसायनं मेध्यं वाजीकरणमुत्तमम् ॥२४॥ बना लेनी चाहिये, इसके ऊपर अनुपान दूध लोहसे आठ गुण, श्रीकर पुत्रजननं वलीपलितनाशनम् । लेना चाहिये । यह समस्त प्रमेहोंको नष्ट करता, बल, कान्ति, नाश्रीयात्कदलीकन्दं कालिकं करमर्दकम् । आयुर्बल बढ़ाता, अग्नि दीप्त करता तथा उत्तम वाजीकरण है।। सोमरोगको इस प्रकार नष्ट करता है जैसे अन्धकारको सूर्य । यह करीरं कारवेल्लं च षट् ककाराणि वर्जयेत् ॥२५॥ "विडंगादिलोह" सभी रोगोंको नष्ट करता है (यह प्रयोग भी कुछ गुग्गुलु, मुसली, त्रिफला, कत्था, अडूसा, निसोथ, मुण्डी, पुस्तकों में ही मिलता है, अतः टिप्पणीरूपमें लिखा गया है) सेहण्ड, सम्भालू तथा चीतकी जड़ प्रत्येक १० पल १ कलिस्थाने कलीति पाठान्तरम् । कलि-विभीतकः॥ (४० तोला ) जल ५ आढ़क (द्रवद्वैगुण्यात् ३२ सेरमें पकाना कत्था, अइसा, निसोथ, मुण्डी, सेहुण्ड, सम्भालू नत्याने कलीति पाठान्तरम् । कलि Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। चाहिये, चतुथाश शेष रहनेपर उतारकर छानना चाहिये। फिर | प्रकार अडूसेके पत्तोंका रस शंखचूर्ण मिलाकर: लेप करनेसे अथवा लौहभस्म ४८ तोला, पुराना घी १२८ तोला, मिश्री ३२ तोला | बेलके पत्तोंके रसके साथ लेप करनेसे शरीरकी दुर्गन्ध नष्ट तथा काथ मिलाकर पकाना चाहिये । तैयार होनेपर उतार ठण्ढ़ा | होती है ॥ २९ ॥३०॥ कर शहद ६४ तोला, शिलाजित ८ तोला, छोटी इलायची, दालचीनी प्रत्येक २ तोला, वायविडङ्ग ८ तोला, काली मिर्च, अङ्गरागः। रसौत तथा छोटी पीपल प्रत्येक ८ तोला, त्रिफला प्रत्येक ८ हरीतकीलोध्रमारष्टपत्रं तोला तथा काशीस ८ तोला, सबका चूर्ण अवलेहमें मिला चूतत्वचो दाडिमवल्कलं च । मथकर चिकने पात्रमें रखना चाहिये। फिर विरेचनादिसे शुद्ध पुरुषको १ तोला की मात्रासे सेवन करना चाहिये । अनुपान एषोऽङ्गरागः कथितोऽङ्गनानां दूध अथवा जांगल प्राणियोंका मांसरस रक्खे । यह वातश्लेष्म, जङ्घाकषायश्च नराधिपानाम् ॥ ३१ ॥ कुष्ठ, प्रमेह, उदर, कामला, पाण्डुरोग, सूजन, भगन्दर, मूछो, हरे, लोध, नीमकी पत्ती, आमकी छाल, अनारका छिल्का मोह, उन्माद, विष, कृत्रिमविषको नष्ट करता तथा मेदस्वी व | और काकजंघाका कषाय मिलाकर लेप करनेसे स्त्रियोंके अङ्गोंको स्थूल पुरुषको परम हितकर है । पेटको अतिमात्र कृश कर देता - उत्तम बनाता है। तथा राजाओंको इसका प्रयोग करना है । बल्य है, रसायन, मेध्य तथा वाजीकर है । शोभा बढ़ाता, तथा वाजाकर ह । शामा बढ़ाता चाहिये ॥३१॥ सन्तान उत्पन्न करता तथा शरीरकी झुर्रियों व बालोंकी सफेदीको नष्ट करता है। इसका सेवन करते हुए केला, कोई भी कन्द, दलादिलेपः । काजी, करौंदा, करीर, करेला इनका त्याग करना चाहिये ॥१५-२५॥ दलजललघुमलयभवविलेपनं हरति देहदोर्गन्ध्यम् । त्रिफलाद्यं तैलम्। विमलारनालसहितं पीतमिवालम्बुषाचूर्णम् ॥३२॥ गोमूत्रपिष्टं विनिहन्ति कुष्ठं त्रिफलातिविषामूत्रिवृञ्चित्रकवासकैः । वर्णोज्ज्वलं गोपयसा च युक्तम् । निम्बारग्वधषड्मन्थासप्तपर्णनिशाद्वयैः ॥ २६ ॥ कक्षादिदोर्गन्ध्यहरं पयोभिः गुडूचीन्द्रसुराकृष्णाकुष्ठसर्षपनागरैः । शस्तं वशीकृद्रजनीद्वयेन ॥ ३३ ॥ तैलमेभिः समं पक्कं सुरसादिरसाप्लुतम् ॥ २७ ॥ पानाभ्यजनगण्डूषनस्यबस्तिषु योजितम्। तेजपात, सुगन्धवाला, अगर व चन्दन काजीके साथ पीसकर लेप करनेसे तथा उसीके साथ मुण्डीका चूर्ण पीनेसे देह स्थूलतालस्यकण्ड्वादाजयत् कफकृतान्दान्धारादौर्गन्ध्य नष्ट होता है। इसी प्रकार मुण्डीका चूर्ण गोमूत्रके साथ त्रिफला, अतीस, मूर्वा, निसोथ, चीतकी जड़, अड्सा, नीम, | कुष्ठको नष्ट करता, गोदुग्धके साथ लेप करनेसे वर्णको उत्तम अमलतास, बच, सप्तपर्ण, हल्दी, दारुहल्दी, गुर्च, इन्द्रायण, बनाता तथा हल्दी दारुहल्दी व दूधके साथ लेप करनेसे कक्षादि छोटी पीपल, कूठ, सरसों तथा सोंठका कल्क और सुरसादि | दोर्गन्ध्यको नष्ट करता तथा वशीकरण है ॥ ३२॥३३॥ गणका रस मिलाकर पकाये गये तैलका पान, मालिश, गण्डूष, नस्य और बस्तिद्वारा प्रयोग करनेसे स्थूलता, आलस्य, कण्डू । चिञ्चाहरिद्रोद्वर्तनम् । आदि कफजन्य रोग नष्ट होते हैं ॥ २६-२८॥ चिञ्चापत्रस्वरसमुक्षितं कक्षादियोजितं जयति । प्रघर्षप्रदेहाः। दग्धहरिद्रोद्वर्तनमचिरादेहस्य दोर्गन्ध्यम् ॥ ३४ ॥ शिरीषलामन्जकहेमलोधेस्त्वग्दोषसंस्वेदहरः प्रघर्षः। । मनोवो | इमलीकी पत्तीके स्वरसके साथ भुनी हल्दीका चूर्ण कक्षा पत्राम्बुलौहोभयचन्दनानि शरीरदीर्गन्ध्यहरः प्रदेहः२९ आदिमें मलनेसे शीघ्र ही देह दोर्गन्ध्य नष्ट होता है ॥ ३४ ॥ वासादलरसो लेपाच्छङ्खचूर्णेन संयुतः। हस्तपादस्वेदाधिक्यचिकित्सा। विल्वपत्ररसैवापि गात्रदोगेन्ध्यनाशनः ॥ ३०॥ हस्तपादस्रुती योज्यं गुग्गुलुं पञ्चतिक्तकम् । सिआकी छाल, रोहिषघास, नागकेशर, तथा लोधका उब-| अथवा पश्चतिक्ताख्यं घृतं खादेदतन्द्रितः॥३५॥ टन करनेसे त्वग्दोष व पसीनेकी दुर्गन्धि नष्ट होती है। तथा हाथ व पैरोंसे अधिक पसीना आनेपर पञ्चतिक्तगुग्गुलु अथवा तेजपात, सुगन्धवाला, अगुरु, तथा लाल व सफेद चन्दनका पश्चतिक्तत खाना चाहिये ॥ ३५॥ जलके साथ लेप करनेसे शरीरको दुर्गन्ध नष्ट होती है । इसी __इति स्थौल्माधिकारः समाप्तः। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) अथोदराधिकारः । सामान्यतश्चिकित्सा । उदरे दोषसम्पूर्ण कुक्षौ मन्दो यतोऽनलः । तस्माद्भोज्यानि योज्यानि दीपनानि लघूनि च ॥ १ ॥ रक्तशालीन्यवान्मुद्गाञ्जाङ्गलांश्च मृगद्विजान् । पयोमूत्रासवारिष्टमधुशीधु तथा पिबेत् ॥ २ ॥ उदर रोग में पेट दोषों से भर जाता है और अनि मन्द हो जाती है । अतः दीपनीय और लघु भोजन करना चाहिये। तथा लाल चावल, यव, मूंग, जांगल प्राणियों के मांसरस, दूध, मूत्र, आसव, अरिष्ट, मधु और शीधु (एक प्रकारका मद्य ) का प्रयोग करना चाहिये ॥ १ ॥ २ ॥ 'चक्रदत्तः । तोदरचिकित्सा | वातोदरं बलवतः पूर्व स्नेहैरुपाचरेत् । स्निग्धाय स्वेदिताङ्गाय दद्यात्स्नेहविरेचनम् ॥ ३ ॥ हृते दोषे परिम्लानं वेष्टयेद्वाससोदरम् । तथास्यानवकाशत्वाद्वायुर्नाध्मापयेत्पुनः ॥ ४ ॥ बलवान् पुरुषके वातोदरकी पहिले स्नेहन कर चिकित्सा करनी चाहिये । स्नेहन व स्वेदन के अनन्तर स्निग्ध विरेचन देना चाहिये । दोषोंके निकल जानेपर जब पेट मुलायम हो जावे, तब कपड़ा कसकर बांध देना चाहिये। जिससे किं वायु स्थान पाकर पेटको फुला न दे ॥ ३ ॥ ४ ॥ सर्वोदराणां सामान्यचिकित्सा | दोषातिमात्रोपचयात्स्रोतोमार्गनिरोधनात् । सम्भवत्युदरं तस्मान्नित्यमेनं विरेचयेत् ॥ ५ ॥ विरिक्ते च यथादोषहरैः पेया शृता हिता । वातोदरी पिबेत्तकं पिप्पलीलवणान्वितम् ॥ ६ ॥ शर्करामारियोपेतं स्वादु पित्तोदरी पिबेत् । यमानी सैन्धवाजाजीव्योषयुक्तं कफोदरी ॥ ७ ॥ दोषों के अधिक इकट्ठे होनेसे तथा स्रोतोंके मार्ग बन्द हो जानेसे उदर उत्पन्न होते हैं, अतः उदवालोंको नित्य विरेचन देना चाहिये । विरेचनानन्तर जो दोष प्रधान हो, तन्नाशक द्रव्योंसे सिद्ध पेया देनी चाहिये । तथा वातोदरी छोटी पीपल व नमकयुक्त मट्ठा पीवे । वित्तोदरी शक्कर व मिर्च मिलाकर मीठा मट्ठा पीवे । तथा कफोदरी अजवायन, सेंधानमक, जीरा और त्रिकटु मिलाकर मट्ठा पीवे ॥ ५-७ ॥ तकविधानम् । पिबेन्मधुयुतं त व्यक्ताम्लं नातिपेलवम् । मधुलवचाशुण्ठी शताह्वाकुष्ठसैन्धवैः ॥ ८ ॥ [ उदरा " युक्तं प्लीहोदरी जातं सव्योषं तु दकोदरी । बद्धोदरी तु हपुषादीप्यकाजाजि सैन्धवैः ॥ ९ ॥ पिबेच्छिद्रोदरी तक्रं पिप्पलीक्षौद्रसंयुतम् । त्र्यूषणक्षारलवणैर्युक्तं तु निचयोदरी ॥ १० ॥ गौरवारोचकार्तानां समन्दाग्न्यतिसारिणाम् । त वातकफार्तानाममृतत्वाय कल्प्यते ॥। ११ ॥ लोहोदरी" शहद मिलाकर खट्टा तथा गाढा मट्ठा पीवे अथवा शहद, तैल, वच, सौंठ, सौंफ, कूठ तथा सेंधानमक मिलाकर पीत्रे । “जलांदरी " त्रिकटु मिलाकर ताजा मट्ठा पीवे । “बद्धगुदोदरी " हाऊबेर, अजवायन, जीरा तथा सेंधानमक मिलाकर मट्ठा पीवे । "छिद्रोदरी" छोटी पीपल व शहद मिलाकर मट्ठा पीवे । “सन्निपातोदरी" त्रिकटु, क्षार और लवण मिलाकर मट्ठा पीवे। गौरव, अरोचक, मन्दाग्नि, अतिसार तथा वातकफसे पीड़ित पुरुषोंके लिये मट्ठा अमृततुल्य गुणदायक होता है ॥ ८-११ ॥ दुग्धप्रयोगः । वातोदरे पयोऽभ्यासो निरूहो दशमूलकः । सोदावर्ते वातहालशृतैरण्डानुवासनः ॥ १२ ॥ वातोदरमें दूधका अभ्यास, दशमूलके क्वाथसे अनुवासन तथा उदावर्तयुक्त वातोदरमें वातनाशक खट्टे पदार्थोंसे सिद्ध एरण्डतैलका अनुवासन देना चाहिये ॥ १२ ॥ सामुद्राद्यं चूर्णम् । सामुद्रसौवर्चलसैन्धवानि क्षारं यवानामजमोदकं च । सपिप्पलीचित्रकशृङ्गवेरं हिंगुर्विडं चेति समानि कुर्यात् ॥ १३ ॥ एतानि चूर्णानि घृतप्लुतानि पूर्व केवलं प्रशस्तम् । वातोदरं गुल्ममजीर्णभुक्तं वायुप्रकोप प्रहणी च दुष्टाम् ॥ १४ ॥ अशसि दुष्टानि च पाण्डुरोगं भगन्दरं चेति निहन्ति सद्यः ॥ १५ ॥ समुद्रनमक, कालानमक, सेंधानमक, यवाखार, अजमोद, छोटी पपिल, चीतकी जड़, सोंठ, भुनी हींग तथा बिनम सब समान भाग लेकर चूर्ण बनाना चाहिये । इस चूर्णको घी साथ भोजन के प्रथम कौर में खाना चाहिये । यह वातोदर, गुल्म, अजीर्ण भोजन, वायुप्रकोप, ग्रहणीदोष, अर्श, पाण्डुरोग तथा भगन्दरको शीघ्र ही नष्ट करता है ॥ १३-१५ ॥ पित्तोदरचिकित्सा | पित्तोदरे तु बलिनं पूर्वमेव विरेचयेत् । अनुवास्याबलं क्षीरवस्तिशुद्धं विरेचयेत् ॥ १६ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] . भाषाटीकोतः। (१७७) पयसा सत्रिवृत्कल्केनोरवूकशृतेन वा। विविधा योगा। शातलानायमाणाभ्यां शृतेनारग्वधेन वा ॥ १७ ॥ मूत्राण्यष्टावुदरिणां सेके पाने च योजयेत् । पित्तोदरमें बलवान् पुरुषको पहिले ही विरेचन देना चाहिये। स्नुहीपयोभावितानां पिप्पलीनां पयोऽशनः ॥२४॥ निर्बलका अनुवासन कर तथा क्षीरबस्ति देकर निसोथके कल्कके सहस्रं च प्रयुजीत शक्तितो जठरामयी। साथ दूधसे अथवा एरण्डके साथ औटे हुए दूधसे अथवा सातला शिलाजतूनां मूत्राणां गुग्गुलोस्वैफलस्य च ॥२५॥ (सेहुण्डभेद ) व त्रायमाणासे सिद्ध दूधसे अथवा अमलताससे सिद्ध दूधसे विरेचन देना चाहिये ॥ १६ ॥१७॥ स्नुहीक्षीरप्रयोगश्च शमयत्युदरामयम् । स्नुक्पयसा परिभावितवण्डुलचूर्णैर्विनिर्मितः पूपः२६ कफोदरचिकित्सा। उदरमुदारं हिंस्याद्योगोऽयं सप्तरात्रेण । कफादुदरिणं शुद्धं कटुक्षारान्नभोजितम् । पिप्पलीवर्धमानं वा कल्पदृष्टं प्रयोजयेत् ॥ २७ ॥ जठराणां विनाशाय नास्ति तेन समं भुवि । मूत्रारिष्टायस्कृतिभिर्योजयेच्च कफापहैः ॥१८॥ । उदरवालोंको सिञ्चन तथा पानके लिये आठों मत्रोंका प्रयोग कफोदरवालेको कटु, क्षार अन्न भोजन कराके शुद्ध कर करना चाहिये । तथा दूधका सेवन करते हुए सेहुण्डके दूधसे गोमूत्र, अरिष्ट तथा लौहभस्म आदि कफनाशक प्रयोगोंसे युक्त | भावित १००० पिप्पलियोंका प्रयोग शक्तिके अनुसार करना करना चाहिये ॥१८॥ चाहिये । अथवा शिलाजतु, मूत्र अथवा त्रिफला, गुग्गुलु, सन्निपातायुदरचिकित्सा। अथवा थूहरके दूधका प्रयोग उदररोगको शान्त करता है। | इसी प्रकार थूहरके दूधसे भावित चावलके आटेकी पुडी ७ सन्निपातोदरे सर्वा यथोक्तां कारयेक्रियाम् । दिनमें बढे हुए उदररोगको नष्ट करती है। अथवा कल्पोक वर्द्धप्लीहोदरे प्लीहहरं कर्मोदरहरं तथा ॥ १९॥ मान पिप्पलीका प्रयोग करना चाहिये। इससे बढ़कर उदररोगोंक स्विन्नाय बद्धोदरिणे मूत्रं तीक्ष्णौषधान्वितम् । नाशार्थ कोई प्रयोग नहीं है ॥ २४-२७ ॥ सतैलं लवणं दद्यान्निरूह सानुवासनम् ॥ २० ॥ पटोलाद्यं चूर्णम् । परिस्रंसीनि चान्नानि तीक्ष्णं चैव विरेचनम् । पटोलमूलं रजनी विडङ्गं त्रिफलात्वचम् ॥ २८॥ छिद्रोदरमृते स्वेदाच्छेष्मोदरवदाचरेत् ॥२१॥ कम्पिल्लकं नीलिनी च त्रिवृतां चेति चूर्णयेत् । जातं जातं जलं स्राव्यं शास्त्रोक्तं शस्त्रकर्म च । षडाद्यान्कार्षिकानन्त्यांस्त्रींश्च द्वित्रिचतुर्गुणान् ॥२९ जलोदरे विशेषेण द्रवसेवां विवर्जयेत् ॥ २२ ॥ कृत्वा चूर्ण ततो मुष्टिं गवां मूत्रेण ना पिबेत् । सन्निपातोदरमें सभी चिकित्सा करनी चाहिये । प्लीहोदरमें विरिक्तो जाङ्गलरसैर्भुजीत मृदुमोदनम् ॥ ३०॥ प्लीहानाशक तथा उदरनाशक चिकित्सा करनी चाहिये । बद्धो-| मण्डं पेयां च पीत्वा च सव्योष षडहः पयः । दरमें स्वेदनकर तीक्ष्णौषधयुक्त मूत्र तथा तैल व लवणयुक्त शृतं पिबेत्तु तच्चूर्ण पिबेदेवं पुनः पुनः॥ ३१॥ अनुवासन व आस्थापन बस्ति देनी चाहिये । दस्त लानेवाले हन्ति सोंदराण्येतच्चूर्ण जातोदकान्यपि। अन्न तथा तीक्ष्ण विरेचन देना चाहिये । छिद्रोदरमें स्वेदके कामलां पाण्डुरोगं च श्वयर्थं चापकर्षति ॥ ३२॥ सिवाय शेष सब कफोदरकी चिकित्सा करनी चाहिये । जलोदरमें उत्पन्न जलको निकालना चाहिये तथा शास्त्रोक्त शस्त्र परवलकी जड़ १ तोला, हल्दी १ तोला, वायविडङ्ग १ तो, कर्म करना चाहिये । इसमें जलीय द्रव्योंको न खाना | आंवला १ तो०, हरे १ तो०, बहेड़ा १ तो०, कवीला २ तो०, चाहिये ॥ १९-२२॥ नीलकी पत्तियां ३ तो०, निसोथ ४ तो०, सबका चूर्ण कर ४ तोलाकी मात्रा गोमूत्रमें मिलाकर पीना चाहिये, इससे विरेचन लेपः। होगा। दस्त आजानेके अनन्तर जांगल प्राणियोंके मांसरससे हल्का भात खाना चाहिये । अथवा मांड, पेया, विलेपी अथवा देवदारुपलाशार्कहस्तिपिप्पलिशिकैः। त्रिकटुसे सिद्ध दूध ६ दिनतक पीना चाहिये । ७ वें दिन साश्वगन्धैः सगोमूत्रैः प्रदिह्यादुदरं शनैः ।। २३ ॥ यही चूर्ण फिर गोमूत्रके साथ पीना चाहिये । इस तरह बारबार देवदारु, ढाकके बीज, आककी जड़, गजपीपल, सहिजनकी छाल, असगन्ध इनको गोमूत्रमें पीसकर धीरे धीरे पेटपर लेप । १. सैरिभाजाविकरभागोखरद्विपवाजिनाम् । करना चाहिये ॥२३॥ मूत्राणीति भिषग्वर्यैर्मूत्राष्टकमुदाहृतम् ॥" Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८) [उदराजन्मन्नन्स्च्न्न्न्न्न्न्न्न प्रयोग करनेसे यह चूर्ण जलोदरादि समस्त उदर तथा कामला, कल्क कर गोमुत्रके साथ पीना चाहिये । इससे उदररोग नष्ट पाण्डुरोग और सूजनको नष्ट करता है ॥ २८-३२॥ होता है ॥४१॥ नारायणचूर्णम् । ___ माहिषमूत्रयोगः। सक्षीरं माहिष मूत्रं निराहारः पिबेन्नरः । यमानी हपुषा धान्यं त्रिफला:सोपकुञ्चिका । शाम्यत्यनेन जठरं सप्ताहादिति निश्चयः ॥ ४२ ॥ कारवी पिप्पलीमूलंमजगन्धा शटी वचा ॥ ३३ ॥ निराहार रहकर गायके दूधको भैसेके मुत्रके साथ पीनेसे ७ शताहा जीरकं व्योषं स्वर्णक्षारी सचित्रकम् । दिनमें उदररोग नष्ट होता है ॥४२॥ . द्वौ क्षारौ पौष्करं मूलं कुष्ठं लवणपञ्चकम् ॥ ३४॥ विडङ्गं च समांशानि दन्त्या भागत्रयं तथा । गोमूत्रयोगः। त्रिवृद्विशाले द्विगुणे शातला स्याञ्चतुर्गुणा ॥ ३५॥ गवाक्षीशविनीदन्तीनीलिनीकल्कसंयुतम् । एष नारायणो नाम चूर्णोरोगगणापहः । सर्वोदरविनाशाय गोमूत्रं पातुमाचरेत् ।। ४३ ॥ नैनं प्राप्याभिवर्धन्ते,रोगा विष्णुमिवासुराः ॥३६॥ इन्द्रायण, कालादाना, दन्ती तथा नीलके कल्कके साथ गोमूत्र तणोदरिभिः पेयो गुल्मिभिर्बदराम्बुना । पीनेसे समस्त उदररोग नष्ट होते हैं ॥ ४३ ॥ आनद्धवाते सुरया वातरोगे प्रसन्नया ॥ ३७॥ अर्कलवणम् । दधिमण्डेन विट्सङ्गे दाडिमाम्बुभिरशसि । अर्कपत्रं सलवणमन्तधूमं दहेत्ततः । परिकर्ते च वृक्षाम्ले रुष्णाम्बुभिरजीर्णके ॥ ३८ ॥ मस्तुना तत्पिबेरक्षारं गुल्मप्लीहोदरापहम् ॥४४॥ भगन्दर पाण्डुरोगे कासे श्वासे गलग्रहे । आकके पत्ते और नमक दोनोंको अन्तर्धूम पकाकर महीन हृद्रोगे ग्रहणीदोषे कुष्ठे मन्दानले अरे ॥ ३९ ॥ पीस | पीस दहीके तोड़के साथ पीनेसे गुल्म और प्लीहा नष्ट होता दंष्ट्राविषे मूलविषे सगरे कृत्रिम विष । यथाह स्निग्धकोष्ठेन पेयमेतद्विरेचनम् ।। ४०॥ शिक्काथः। अजवायन, हाऊबेर, धनियां, त्रिफला, कलौंजी, कालाजीरा, पीतः प्लीहोदरं हन्यात्पिप्पलीमारिचान्वितः। पिपरामूल, अजवाइन, कचूर, बच, सौंफ, जीरा, त्रिकटु, स्वर्ण अम्लवेतससंयुक्तः शिक्काथः ससैन्धवः ॥४५॥ क्षीरी, चीतकी जड़, जवाखार,सज्जीखार, पोहकरमूल, कूठ,पाचों-| सहिजनका काथ छोटी पीपल, काली मिर्च, अम्लवेत नमक तथा वायविडंग, प्रत्येक १ भाग, दन्ती३ भाग, निसाथ और, |और सेंधानमकका चूर्ण मिलाकर पीनेसे प्लीहोदर नष्ट होता इन्द्रायण प्रत्येक २ भाग,शातला (सेहुण्डभेद )४ भाग इनका चूर्ण || करना चाहिये । यह चूर्ण रोगसमूहको नष्ट करता है। इसके सेवनसे रोग इसभांति नष्ट होते हैं जैसे विष्णु भगवानसे इन्द्रवारुणीमूलोत्पाटनम् । राक्षस । उदरवालोंको मठेके साथ, गुल्मवालों को बेरके क्वाथके गृहीत्वा यस्य संज्ञां पाटयित्वेन्द्रवारुणीमूलम् । साथ, वायुकी रुकावटमें शराबके साथ, वातरोगमें शराबके प्रक्षिप्यते सुदूरे शाम्येत प्लीहोदरं तस्य ॥ ४६॥ स्वच्छभागके साथ, मलकी रुकावटमें दहीके तोड़के साथ, जिसका नाम लेकर इन्द्रायणकी जड़ उखाड़ दूर फेंक दी अनारक रससे अर्शमें, परिकतेन (गुदाम कचास काटना साजाय, उसका प्लीहोदर शान्त हो जाताहै ॥ ४६॥ प्रतीत होने ) में बिजोरेके रससे, तथा अजीर्णमें गरम जलसे पीना चाहिये । स्निग्धकोष्ठ पुरुषको विरेचनके लिये यथोचित रोहितयोगः। अनुपानके साथ, भगन्दर, पाण्डुरोग, कास, श्वास, गलग्रह, रोहीतकाभयाक्षोदभावितं मूत्रमम्बु वा । हृद्रोग, ग्रहणीदोष, कुष्ठ, मन्दाग्नि, ज्वर, दंष्ट्राविष, मूलविष, | पीतं सर्वोदरप्पीहमेहार्श:क्रिमिगुल्मनुत् ॥४७॥ गरविष तथा कृत्रिमविषमें इसे पीना चाहिये ॥३३-४०॥ | रुहेड़ेकी छाल ब बड़ी हर्रका चूर्ण कर गोमूत्र अथवा जलके साथ पीनेसे समस्त उदर, प्लीहा, मेह, अर्श, क्रिमि और गुल्म दन्त्यादिकल्कः। नष्ट होते हैं ॥ ४७॥ दन्ती वचा गवाक्षी च शंखिनी तिल्वकं त्रिवृत् । देवद्रुमादिचूर्णम् । गोमूत्रेण पिबेत् कल्कं जठरामयनाशनम् ॥ ४१ ॥ देवद्रुमं शिग्रु मयूरकं च दन्ती, बच, इन्द्रायण, कालादाना, लोध तथा निसोथका गोमूत्रपिष्टानथ साऽश्वगन्धान् । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः। (१७९) पीत्वाशु हन्यादुदरं प्रवृद्धं ___त्वग्दोषशोथोदरपाण्डुरोगकृमीन्सशोथानुदरं च दूष्यम् ॥ ४८ ॥ स्थौल्यप्रसेकोर्ध्वकफामयेषु ॥ ५३॥ देवदारु, सहिजनकी छाल, लटजीरा, और असगन्धको। पुनर्नवा, देवदारु, बड़ी हर्रका छिल्का, तथा गुर्चका क्वाथ या गोमूत्रमें पीसकर पीनेसे उदर, क्रिमि,शोथ तथा सन्निपातोदर नष्ट MIचूर्ण, गोमूत्र और गुग्गुल मिलाकर पीनेसे त्वग्दोष, शोथ, उदर, होता है ॥४८॥ पाण्डुरोग, स्थौल्य, मुखसे पानी आना तथा ऊर्ध्व भागके कफ रोग नष्ट होते हैं ॥ ५३॥ दशमूलादिकाथः। दशमूलदारुनागरछिन्नरुहापुनर्नवाभयाकाथः । गोमूत्रादियोगः। जयति जलोदरशोथश्लीपदगलगण्डवातरोगांश्च।।४९ गोमूत्रयुक्तं महिषीपयो वा दशमूल, देवदारु, सोंठ, गुर्च, पुनर्नवा और बड़ी हरोंके क्षीरं गवां वा त्रिफलाविमिश्रम् । छिल्केका क्वाथ जलोदर, शोथ, श्लीपद, गलगण्ड और वातरोगोंको क्षीरानभक्केवलमेव गव्यं नष्ट करता है ॥ ४९ ॥ __ मूत्रं पिबेद्वा श्वयथूदरेषु ।। ५४ ॥ . गोमूत्रके साथ भैसीका दूध अथवा गोदूग्धके साथ त्रिफलाका ___ हरितक्यादिक्वाथः। चूर्ण अथवा केवल गोमूत्र पीनसे तथा दूधका ही पथ्य लेनेसे हरीतकीनागरदेवदारुपुनर्नवाछिन्नरुहाकषायः । सूजन उदररोग नष्ट होता है ॥ ५४ ॥ सगुग्गुलुर्मूत्रयुतश्च पेयःशोथोदराणां प्रवरःप्रयोगः।। बड़ी हरोंके छिल्के, सोंठ, देवदारु, पुनर्नवा और गुर्चका · पुनर्नवादिचूर्णम् । क्वाथ, गुग्गुलु और गोमूत्र मिलाकर पीनेसे शोथयुक्त उदरको | पुनर्नवा दावमृता पाठा बिल्वं श्ववंष्ट्रिका । नष्ट करनेमें श्रेष्ठ है ॥ ५० ॥ बृहत्यो द्वे रजन्यौ द्वे पिप्पल्यश्चित्रकं वृषम् ॥५५॥ एरण्डतैलादियोगत्रयी। समभागानि संचूर्ण्य गवां मूत्रेण ना पिबेत् । एरण्डतैलं दशमूलमिश्रं बहुप्रकारं श्वयधुं सर्वगात्रविसारिणम् । __गोमूत्रयुक्तत्रिफलारसो बा। हन्ति शूलोदराण्यष्टौ व्रणांश्चैवोद्धतानपि ॥ ५६ ।। पुनर्नवा, देवदारु, गुर्च, पाढ़, बेलका गूदा, गोखरू, निहन्ति वातोदरशोथशूलं छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, हल्दी, दारुहल्दी, छोटी पीपल, काथःसमूत्री दशमूलजश्च ॥५१॥ चीतकी जड़, तथा अडूसा सब समान भाग चूर्ण कर (१) दशमूल क्वाथके साथ एरण्डतैल, अथवा (२) गोमूत्रके गोमूत्रके साथ पीनेसे समस्त शरीरमें फैली हुई अनेक प्रकारसाथ त्रिफलाका रस अथवा (३) गोमूत्रयुक्त दशमूलका क्वाथ की सूजन शूलयुक्त आठों उदर तथा उद्धत व्रण नष्ट होते वातोदर, शोथ और शूलको नष्ट करता है॥५१॥ हैं ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ पुनर्नवाष्टकः क्वाथः। माणपायसम्। पुनर्नवानिम्बपटोलशुण्ठी पुराणं माणकं पिष्ट्वा द्विगुणीकृततण्डुलम् । तिक्ताभयादार्वमृताकवायः। साधित क्षीरतोयाभ्यामभ्यसेत्पायसं ततः ॥ ५७ ॥ सर्वाङ्गशोथोदरकासशूल हन्ति वातोहरं शोथ ग्रहणी पाण्डुतामपि । श्वासान्वितं पाण्डुगदं निहन्ति ॥ ५२॥ | सिद्धो भिषम्भिरांख्यांत: प्रयोगोऽयं निरत्ययः॥५८ पुनर्नवा, नीमकी छाल, परवलकी पत्ती, सोंठ, कुटकी, पराने मानकन्दको पीसकर कन्दसे द्विगुण चावल मिला दूध बडी हर्रका छिल्का, देवदारु, तथा गुर्चका काथ, सर्वाङ्ग- जमा खीर बनाकर खानेसे वातोटाशोथ शोथ, उदर, कास, शूल, श्वास और पाण्डुरोगको नष्ट करता व पाण्डुरोग, नष्ट होते हैं । इस प्रयोगमें कोई आपत्ति नहीं होती, यह वैद्योंका अनुभूत है ॥५७ ॥ ५८ ॥ पुनर्नवागुग्गुलुयोगः। दशमूलषट्पलकं घृतम् । पुनर्नवां दार्वभयां गुडूची . दशमूलतुलाधरसे सक्षारैः पञ्चकोलकैः पलिकैः।। पिबेत्समूत्रां महिषामयुक्ताम् । सिद्धं घृतार्धपात्रं द्विमस्तुकमुदरगुल्मन्नम् ॥५९ ॥ है ॥५२॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) पक्रदत्तः। [प्लीहा दशमूल २॥ सेरका काथ, पञ्चकोल प्रत्येक १ पल, जवा- दूध ८ प्रस्थ, थूहरका दूध १ पल और निसोथका कल्क ६ पल खार १ पल, गायका घी अछुढ़क तथा दहीका तोड़ १ आढ़क मिलाकर सिद्ध किया गया घृत पीना चाहिये ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ मिलाकर यथाविधि पाक हो जानेपर सेवन करनेसे उदर तथा गुल्मरोग नष्ट होते हैं ॥ ५९ ॥ नाराचघृतम् । स्नुकक्षीरदन्तीत्रिफलाविडङ्गचित्रकघृतम् । सिंहीत्रिवृच्चित्रककल्कयुक्तम् । चतुर्गुणे जले मूत्रे द्विगुणे चित्रकात्पले । घृतं विपक्कं कुडवप्रमाणं कल्के सिद्धं घृतप्रस्थं सक्षारं जठरी पिबेत् ॥६०nj __ तोयेन तस्याक्षमथार्धकर्षम् ॥ ६७ ॥ घी १ प्रस्थ, गोमूत्र २ प्रस्थ, जल ४ प्रस्थ तथा चीतकी पीत्वोष्णमम्भोऽनु पिबेद्विरिक्ते जड़ २ पल मिलाकर सिद्ध किये गय घृतमें जवाखार मिलाकर पेयां सुखोष्णां वितरेद्विधिज्ञः । पीनेसे उदररोग नष्ट होता है ॥६ ॥ नाराचमेतज्जठरामयानां बिन्दुघृतम् । युक्त्योपयुक्तं शमनं प्रदिष्टम् ।। ६८ ॥ थूहरका दूध, दन्ती, त्रिफला, वायबिडङ्ग, छोटी कटेरी, अर्कक्षीरपले द्वे च स्नुहीक्षीरपलानि षट् । ...निसोथ तथा चीतकी जड़का कल्क और एक कुड़व घृत चतुपथ्याकाम्पल्लक:श्यामासम्पाकं गिरिकर्णिका॥६॥ण जलमें छोडकर एक पाक करना चाहिये । इसका एक नीलिनी त्रिवृता दन्ती शंखिनी चित्रकं तथा। कर्ष अथवा अर्धकर्ष गरम जलके साथ पीना चाहिये । इससे एतेषां पलिकैर्भागघृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ६२॥ विरेचन हो जानेपर कुछ गरम गरम पेया देनी चाहिये । इस अथास्य मलिने कोष्ठे बिन्दुमात्रं प्रदापयेत्। “ नाराचघृत " का युक्तिपूर्वक प्रयोग करनेसे उदररोग शान्त यावतोऽस्य पिबेद्विन्दूस्तावद्वारान्विरिच्यते ॥६॥होते हैं ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ कुष्ठं गुल्ममुदावते श्वयधुं सभगन्दरम् ।' इत्युदराधिकारः समाप्तः। शमयत्युदराण्यष्टौ वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा । एतद्विन्दुघृतं नाम येनाभ्यक्तो विरिच्यते ।। ६४ ॥ अथ प्लीहाधिकारः। आकका दूध ८ तोला, थूहरका दूध २४ तोला, हर्र, कवीला, कालानिसोथ, अमलतासका गूदा, इन्द्रायण, नील, निसोथ, दन्ती, कालादाना, तथा चीतकी जड़ प्रत्येक १ यमान्यादिचूर्णम् । पल, घृत १ प्रस्थ (द्रवद्वैगुण्य कर १२८ तोला ) मिलाकर यमानिकाचित्रकयावशुकपकाना चाहिये । इसकी बिन्दुमात्रा मलिन कोष्ठवालोंको देनी षड्ग्रन्थिदन्तीमगधोद्भवानाम् । चाहिये । जितने बिन्दु इसके पिये जाते हैं, उतने ही दस्त प्लीहानमेतद्विनिहन्ति चूर्णआते हैं । यह कुष्ठ, गुल्म, उदावर्त, सूजन, भगन्दर, तथा उदररोगोंको इस प्रकार नष्ट करता है जैसे वृक्षको इन्द्रवज्र । मुष्णाम्बुना मस्तुसुरासवैर्वा ॥१॥ इस" बिन्दुघृत" की नाभिमें मालिश करनेसे भी दस्त आते | अजवायन, चीतकी, जड़, जवाखार, बच, दन्ती, है ॥६१-६४ ॥ तथा छोटी पीपलके चूर्णको गरम जल, दहीके तोड़, शराब अथवा आसवके साथ सेवन करनेसे प्लीहा नष्ट होती स्नुहीक्षीरघृतद्वयम् । दधिमंडाढके सिद्धात्स्नुक्क्षीरपरिकल्कितात् । विविधा योगाः। घृतप्रस्थापिबेन्मात्रां तद्वज्जठरशान्तये ॥ ६५ ॥ पिप्पली किंशुकक्षारभावितां संप्रयोजयेत् । तथा सिद्धं घृतप्रस्थं पयस्यष्टगुणे पिबेत् । गुल्मप्लीहापहां वह्निदीपनी च रसायनीम् ॥२॥ स्नुक्क्षीरपलकल्केन त्रिवृता षट्पलेन च ॥ ६६॥ विडङ्गाज्याग्निसिन्धूत्थशक्तन्दग्ध्वा वचान्वितान् । (१) दहीका तोड़ ३ सेर १६ तोला, थूहरका दूध ४ तोला, पिबेत्क्षीरेण संचूर्ण्य गुल्मप्लीहोदरापहान् ॥ ३॥ गायका घी ६४ तोला मिलाकर सिद्ध किया हुआ घृत उदर तालपुष्पभवः क्षारः सगुड: प्लीहनाशनः। शान्ति के लिये पीना चाहिये । इसी प्रकार (२) घी १ प्रस्थ, क्षारं वा बिडकृष्णाभ्यां पूतीकस्याम्लनिःस्रुतम्॥४ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपतः। (१८१) प्लीहयकृत्प्रशान्त्यर्थ पिबेत्प्रातर्यथाबलम् । शाङ्गेष्टानिय॒हः ससैन्धवस्तिन्तिडीकसंमिश्रः । पातव्यो युक्तितः क्षारः क्षीरणोदधिशुक्तिजः ॥५॥ प्लीहव्युपरमयोग्यः पक्काम्ररसोऽथवा समधुः ॥११॥ पयसा वा प्रयोक्तव्याः पिप्पल्यः प्लीहशान्तये । | लहसुन, पिपरामूल व बड़ी हर्रका प्रयोग करे । __ ढाकके क्षारमें भावित पिप्पलीका प्रयोग करना चाहिये । अथवा गोमूत्रको गण्डूषमात्रकी मात्रामें प्लीहारोगकी यह गुल्म और प्लीहाको नष्ट करती अग्निको दीप्त करती | शान्तिके लिये पीवे । तथा शरपुंखाका कल्क मट्ठके तथा रसायन है । इसी प्रकार वायविडङ्ग, घृत, चीतकी जड, साथ पीनेसे प्लीहा नष्ट होती है । प्लीह नाशक पेयाका पथ्य सेंधानमक, सत्तू और बचको अन्तर्धूम जला कर चूर्ण बना लेते हुए शरपुंखाको चबानेसे अथवा काक जंघाके क्वाथमें दूधके साथ पीनसे गुल्म, प्लीहा तथा उदररोग शान्त होते हैं। सेंधानमक और तितिड़ीकको मिलाकर पीनेसे अथवा पके इसी प्रकार तालपुष्पका क्षार गुड़के साथ प्लीहाको नष्ट करता हुए आमके रसको शहद मिलाकर चाटनेसे प्लीहाकी शांति है । अथवा विडलवण, छोटी पीपल और काजीका क्षार होती है ॥ ९-११॥ काओके साथ बलानुसार पीनेसे प्लीहा व यकृत् शान्त होते हैं। अथवा दूधके साथ समुद्रसीपके क्षारका प्रयोग करना अत्र शिराव्यधविधिः। चाहिये । अथवा दूधके साथ छोटी पीपलका प्रयोग करना दध्ना मुक्तवतो वामबाहुमध्ये शिरां भिषक् । चाहिये ॥२-५॥ विध्येत्प्लाहविनाशाय यकृन्नाशाय दक्षिणे ॥१२॥ ___ भल्लातकमोदकः। प्लीहानं मर्दयेद्गाढं दुष्टरक्तप्रवृत्तये । | दहीके साथ भोजन कराकर वैद्यको प्लीहानाशार्थ वामबाभल्लातकाभयाजाजी गुडेन सह मोदकः ॥६॥ हमें तथा यकृत्शान्त्यर्थ दक्षिणबाहुमें शिराव्यध करना चाहिये सप्तरातानिहन्त्याशु प्लीहानमतिदारुणम् । तथा दूषितरक्तके निकालनके लिये प्लीहाको जोरसे दबाना भिलावां, बड़ी हर्रका छिल्का तथा जीराको गुड़में मिला-चाहिये ॥ १२॥कर वनायी गयी गोलियां सात रात्रिमें प्लीहाको नष्ट करती हैं ॥६॥ परिकरो योगः। प्रयोगद्यम् । माणमार्गामृतावासास्थिराचित्रकसैन्धवम् ॥ १३ ॥ नागरं तालखण्डं च प्रत्येकं तु त्रिकार्षिकम् । शोभांजनकनियुंह सैन्धवाग्निकणान्वितम् ॥७॥ विडसौवर्चलक्षारपिप्पल्यश्चापि कार्षिकाः ।। १४॥ पलाशक्षारयुक्तं का यवक्षारं प्रयोजयेत् । एतच्चूर्णीकृतं सर्व गोमूत्रस्याढके पचेत् । (१) सहिजनके क्वाथके साथ सेंधानमक, चीतकी जड़ वं सान्द्रीभूते गुडी कुर्यादत्त्वा त्रिपलमाक्षिकम्॥१५॥ छोटी पीपलके चूर्णको मिलाकर पीना चाहिये । अथवा यकृत्प्लीहोदरहरो गुल्मार्टोग्रहणीहरः। (२) ढाकके क्षारके साथ जवाखारका प्रयोग करनेसे प्लीहा दूर योगः परिकरो नाम्नाचाग्निसन्दीपनः परः॥१६॥ होती है। माणकन्द, अपामार्ग, गुर्च, अडूसा, शालिपर्णी, चीतकी यकृचिकित्सा। जड़, सेंधानमक, सोंठ तथा ताड़की फली ( जो आजकल नकली गजपीपलके नामसे बेचते हैं) प्रत्येक ३ तोला, विड़तिलान्सलवणांश्चैव घृतं षट्पलकं तथा ॥८॥ | नमक, कालानमक, जवाखार व छोटी पीपल प्रत्येक १ कर्ष प्लीहोद्दिष्टां क्रियां सर्वा यकृतः संप्रयोजयेत् । सबका चूर्ण कर गोमूत्र १ आढक' (द्रवद्वैगुण्यात् ६ सेर ३२ काले तिल व नमक अथवा षट्पलघृत तथा प्लीहाकी समस्त तो०) में पकाना चाहिये । गाढा हो जानेपर शहद १२ तोला चिकित्सा यकृतमें प्रयुक्त करनी चाहिये ॥८॥ छोड़कर गोली बनानी चाहिये । यह यकृत, प्लीहा, उदर, विविधा योगा। गुल्म, अर्श, प्रहणीको नष्ट करता तथा आग्निको दीप्त करता है। इसे “परिकरयोग " कहते हैं ॥ १३-१६ ॥ लशुनं पिप्पलामूलमभयां चैव भक्षयेत् । पिबद् गोमूत्रगण्डूषं प्लीहरोगविमुक्तये ॥९॥ रोहीतकचूर्णम् । प्लीहजिच्छरपुलायाः कल्कस्तकेण सेवितः। | रोहीतकाभयाक्षादभावितं मूत्रमम्बुवाः । शरपुङ्खव संचळ जग्धापेयाभुजाथवा ॥१०॥ | पीतं सर्वोदरप्लीहमेहार्शःक्रिमिगुल्मनुत् ॥ १७ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - www-- (१८२) चक्रदत्तः। [प्लीहाचन्न्न्न् -www -m रोहीतककी छाल व बड़ी हर्रके छिल्कोंके चूर्णको गोमूत्र कर सिद्ध किया घृत यकृत् , प्लीहा और उदररोगोंको नष्ट अथवा जलमें मिलाकर पानसे समस्त उदररोग, प्लीहा, प्रमेह करता हैं * ॥ २४ ॥ अर्श, कृमि और गुल्मरोग नष्ट होते हैं ॥ १७ ॥ पिप्पलाघृतम् । पिप्पल्यादिचूर्णम् । पिप्पलीकल्कसंयुक्तं घृतं क्षीरचतुर्गुणम् । पिप्पली नागरं दन्ती समांशं द्विगुणाभयम् । | पिबेत्प्लीहाग्निसादादियकृद्रोगहरं परम् ॥ २५॥ चूर्ण पीतं बिडार्धाशं प्लीहन्नं हृष्णवारिणा ॥ १८॥ छोटी पीपलका कल्क तथा चतुर्गुण दूधके साथ सिद्ध घृतको प्लीहा, आनिमांद्य, यकृत् आदिके नाशानार्थ पीना छोटी पीपल, सोंठ, तथा दन्ती प्रत्येक १ भाग, बड़ी| चाहिये ॥२५॥ । हर्रका छिल्का २ भाग, विडनमक आधाभाग सबका चूर्ण कर गरम जलके साथ पीनेसे प्लीहा नष्ट होती है ॥१८॥ चित्रकघृतम् । वर्द्धमानपिप्पलीयोगः। चित्रकस्य तुलाकाथे घृतप्रस्थं विपाचयेत् । आरनालं तद्विगुणं दधिमण्डं चतुर्गुणम् ।। २६ ।। क्रमवृद्धथा दशाहानि दशपिप्पलिकं दिनम् । वर्धयेत्पयसा साध तथैवापनयेत्पुनः ॥ १९॥ पञ्चकोलकतालीसक्षारैलवणसंयुतैः । जीर्णे जीर्णे च भुञ्जीत षष्टिकं क्षीरसर्पिषा । द्विजीरकनिशायुग्ममरिचैः कल्कमावपेत् ॥ २७ ।। पिप्पलीनां प्रयोगोऽयं सहस्रस्य रसायनः ॥ १९ ॥ दशपिप्पलिकः श्रेष्ठो मध्यमः षट् प्रकीर्तितः । ___ * लोकनाथरसः--शुद्धसूतं द्विधा गन्धं खल्वे कुर्याच | कजलीम् । सूततुल्यं जारिताभ्रं सम्मर्य कन्यकाम्बुना ॥ गोलं यस्त्रिपिप्पलिपर्यन्तः प्रयोगः सोऽवरः स्मृतः॥२१॥ कुर्यात्ततो लौहं तानं च द्विगुणीकृतम् । काकमाचीरसैः पिष्ट्वा बृंहणं वृष्यमायुष्यं प्लीहोदरविनाशनम् । गोलं ताभ्यां च वेष्टयेत् ॥ वराटिकाया भस्माथ रसतस्त्रिगुणं वयसः स्थापनं मेध्यं पिप्पलीनां रसायनम् ॥२२॥ क्षिपेत् । ततश्च सम्पुटं कृत्वा मूषामध्ये प्रकल्पयेत् ॥ तन्मध्ये पञ्चपिप्पलिकश्चापि दृश्यते वर्धमानकः। गालकं कृत्वा शरावेण पिधापयेत् । पुटेगजपुटे विद्वान्स्वागशीतं पिष्टास्ता बलिभिः पेयाः शृता मव्यबलैनरैः। । | समुद्ध ॥ शिवं सम्पूज्य यत्नेन द्विजांश्च परितोषयेत् । खादेंशीतीकृता ह्रस्वबलदेंहदोषामयान्प्रति ॥ २३॥ द्रक्तिद्वयं चूर्ण मूत्रं चापि पिबेदनु ॥ मधुना पिप्पलीचूर्ण सगुड़ा म्बुहरीतकीम् । अजाजी वा गुड़ेनैव भक्षयेदस्य मानतः ॥ यकृ१०दिनतक क्रमशः प्रतिदिन १०पिप्पलियाको बढाते हए। द्गुल्मोदरप्लीहश्वयथुज्वरनाशनम् । वह्निमान्द्यप्रशमनं सर्वान्व्यादूधफे साथ सेवन करना चाहिये और इसी प्रकार कम करना। करनाधीनियच्छति ॥" शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, चाहिये, औषध पच जानेपर साठीक चावलोंका भात दूध व दोनोंको घोटकर उत्तम कजली बनावे । फिर इस कज्जलीमें घीके साथ खाना चाहिये । इस प्रकार २० दिनमें १००० पारदके बराबर अभ्रक भस्म मिला घीकुमारके रससे घोटकर पिप्पलियां हो जाती हैं। यह "उत्तम" रसायन प्रयोग है। प्रति गोला बना लेवे । पुनः लौहभस्म तथा ताम्रभस्म प्रत्येक पार, दिन ६ पिप्पली बढ़ाना “ मध्यम" और प्रतिदिन ३ पिप्पली |दसे दुनी लेकर मकोयके रसमें घोटकर पूर्वोक्त गोलेके ऊपर बढ़ाना "निकृष्ट" कहा जाता है। यह 'वर्द्धमान पिप्पली' बंहण. लेप करे। फिर पारदसे त्रिगुण कौड़ीकी भस्म लेकर शरावसम्पुवृष्य आयुष्य, प्लीहा, उदरको नष्ट करनेवाली अवस्थाको टमें आधी भस्म नीचे, बीचमें गोला, आधीभस्म ऊपर रखकर स्थिर रखनेवाली तथा मध्य है । पञ्चपिप्पलीका भी वर्द्धमान दूसरे शरावसे बन्दकर कपड़ मिट्टीकर दे । फिर इसको गजपुटमें प्रयोग करते है । बलवान् पुरुषको पीसकर मध्यबलवालोंको | भस्म करे । स्वांगशीतल हो जानेपर निकाल ले । फिर घोटले । क्वाथकर तथा अल्पबलवालोंको शीतकषाय बनाकर पीना पुनः शंकरजीका पूजन कर तथा ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट कर इसकी चाहिये ॥ १९-२३॥ २ रत्तीकी मात्रा खावे, ऊपरसे गोमूत्र पीवे तथा इतना ही पिप्पलीचित्रकघृतम् । पीपलका चूर्ण शहदके साथ अथवा हरीतकी चूर्ण गुड़के शर्ब तके साथ अथवा जीरा गुड़के साथ खाना चाहिये । यह पिप्पलीचित्रकान्मूलं पिष्वा सम्यग्विपाचयेत् । यकृत् , गुल्म उदर, प्लीह, सूजन, ज्वर, अग्निमान्य आदि सर्व घृतं चतुर्गुणक्षीरं यकृत्प्लीहोदरापहम् ।। २४॥ रोगोंको नष्ट करता है ( यह रसप्रयोग कुछ पुस्तकोंमें ही छोटी पीपल व चीतकी जड़के कल्कमें चतुर्गुण दूध मिला- मिलता ह, अतः क्षेपक प्रतीत होता है)॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषार्टीकोपेतः। (१८३) प्लीहगुल्मोदराध्मानपांडुरोगारुचिज्वरान् । । यकृत्प्लीहोदरं चैव प्लीहशूलं यकृत्तथा। बस्तिहृत्पार्श्वकटयूरुशूलोदावर्तपीनसान् ॥२८॥ कुक्षिशुलं च हृच्छूल पार्श्वशूलमरोचकम् ॥ ४९ ॥ हन्यात्पीतं तदर्शोघ्नं शोथन्नं वह्रिदीपनम् । . विबन्धशूलं शमयेत्पाण्डुरोगं सकामलम् । बलवर्णकरं चापि भस्मकं च नियच्छति॥२९॥ छर्घतीसारशमनं तन्द्रावरविनाशनम् । महारोहितकं नाम प्लीहघ्नं तु विशेषतः ॥४०॥ चाहिये तथा इसमें काजी ३ सेर १३ छ. १ तो० दहीका रोहीतककी छाल ५ सेर, बेरकी ३ सेर १६ तोला सब २ तोड़ ६ सेर ३२ तोला तथा पञ्चकोल, तालीशपत्र, जवाखार, द्रोण (द्रवद्वैगुण्यात् ४ द्रोण) जलमें पकाना चाहिये, चतुर्थांश सेंधानमक, दोनों जीरे, हल्दी, दारुहल्दी, व काली मिर्चका | शेष रहनेपर उतार छानकर घृत १ प्रस्थ, बकरीका दूध ४ कल्क छोड़कर पकाना चाहिये । यह घृत प्लीहा, गुल्म, उदर, प्रस्थ तथा त्रिकटु, त्रिफला, हींग, अजवायन, तुम्बुरु, आध्मान, पाण्डुरोग, अरुचि ज्वर, बस्ति, हृदय, पसलियों, विड़नमक, जीरा, कालानमक, अनारदाना, देवदारु, पुनर्नवा, कमर और जधोंका शुल, उदावर्त, पीनस, अर्श और शोथको इन्द्रायण, जवाखार, पोहकर मूल, वायविडङ्ग, चीतकी जड़, नष्ट करता, बल और वर्णको उत्तम बनाता तथा अग्निको इतना हाऊबेर, चव्य, बच प्रत्येक १ तोलाका कल्क छोड़कर पकाना दीप्त करता है कि भस्मक हो जाता है॥२६-२९ ॥ चाहिये । इसकी मात्रा व्याधि, बल आदिका निश्चयकर ३ पल तक देनी चाहिये । मांस रस, यूष अथवा दूधके साथ भोजन रोहीतकघृतम् । करना चाहिये । यह घृत अनेक रोगोंको नष्ट करता है। रोहीतकत्वचः श्रेष्ठाः पलानां पञ्चविंशतिः। यथा यकृत् , प्लीहा, उदर, प्लीहशूल, यकृच्छूल पेटके कोलद्विप्रस्थसंयुक्तं कषायमुपकल्पयेत् ॥ ३०॥ | दर्द, हृदयके दर्द, पसलियोंके दर्द, अरुचि, मलकी रुकावट, पलिकः पञ्चकोलेश्च तत्सर्वश्चापि तुल्यया। पाण्डुरोग, कामला, वमन, अतीसार, तथा तन्द्रायुक्त ज्वरको रोहितकत्वचा पिष्टैघृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ३१॥ | नष्ट करता है । विशेषकर प्लीहाको नष्ट करता है॥ ३३-४० ॥ प्लीहाभिवृद्धिं शमयेदेतदाशु प्रयोजितम् । इति प्लीहाधिकारः समाप्तः। तथा गुल्मज्वरश्वासाक्रिमिपाण्डुत्वकामलाः ॥ ३२॥ अथ शोथाधिकारः। रूहेड़ेकी छाल १। सेर तथा बेर १ सेर ९ छ० ३ तो० का क्वाथ बनाना चाहिये । इस क्वाथमें पञ्चकोल प्रत्येक १ पल, रुहेड़ेकी छाल ५ पलका कल्क मिलाकर घी १ ( द्रवर्तण्यात् | वातशोथचिकित्सा। १२८ तोला) मिलाकर सिद्ध करना चाहिये । यह घी प्लीहाको शुण्ठीपुनर्नवैरण्डपञ्चमूलशृतं जलम् । शीघ्र नष्ट करता तथा गुल्म, ज्वर, श्वास, क्रिमि, पाण्डु और वातिके श्वयथी शस्तं पानाहारपरिग्रहे । कामलाको भी शान्त करता है ॥ ३०-३२॥ दशमूलं सर्वथा च शस्तं वाते विशेषतः ॥१॥ __ सोंठ, पुनर्नवा, एरण्डकी छाल तथा पञ्चमुलसे सिद्ध महारोहीतकं घृतम् । जल वातजन्य शोथमें पीने तथा आहार बनानेके लिये रोहीतकात्पलशतं क्षोदयद्वदराढकम् । | हितकर है । तथा दशमूल सभी शोथोंमें हितकर है, वातमें साधयित्वा जलद्रोणे चतुर्भागावशोषिते ॥३३ ॥ विशेष हितकर है * ॥१॥ घृतप्रस्थं समावाप्य छागक्षीरचतुर्गुणम्। पित्तजशोथचिकित्सा। तस्मिन्दद्यादिमान्कल्कान्सास्तानक्षसम्मितान् ३४/ क्षीराशनः पित्तकृतेऽथ शोथे व्योषं फलत्रिकं हिगु यमानीं तुम्बुरुं बिडम् । | त्रिवृद्गुडूचीत्रिफलाकषायम् । अजाजी कृष्णलवणं दाडिमं देवदारु च ॥ ३५॥ पिबेगवां मूत्रविमिश्रितं वा पुनर्नवां विशालां च यवक्षारं सपौष्करम्। फलत्रिकाच्चूमथाक्षमात्रम् ॥२॥ विडङ्गं चित्रकं चैव हपुषां चविकां वचाम् ॥३६॥ - * पृश्निपादिकषायः “ पृश्निपींघनोदीच्यशुण्ठीसिद्ध एतैघृतं विपकं तु स्थापयेद्भाजने दृढे । तु पैत्तिके ।" पैत्तिकशोथमें पिठवन, मोथा, सुगन्धवाला तथा पाययेत्रिपला मात्रां व्याधि बलमपेक्ष्य च ॥३७॥ सोंठ इन औषधियोंसे सिद्ध क्वाथका सेवन करना चाहिये। रसकेनाथ यूषेण पयसा वापि भोजयत्। (यहांपर यह कषाय कई प्रतियों में पाया जाता है, कईमें नहीं। उपयुक्तं घृतश्चैतद्वथाधीन्हन्यादिमान्बहून् ॥ ३८॥ अतः टिप्पणीरूपमें लिखा गया है) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८४) चक्रदत्तः। (शोथा - nerwwwsagrorror-r rrieremoriww ererrerioner अभया दारु मधुकं तिक्ता दन्ती सपिप्पली। पुनर्नवाष्टकः काथः। पटोल चन्दनं दावी त्रायमाणेन्द्रवारुणी ॥३॥ पुनर्नवानिम्बपटोलशुण्ठी एषां काथः ससर्पिष्कः श्वयथुज्वरदाहहा। तिक्तामृतादार्वभयाकषायः। विसर्पतृष्णासन्तापसन्निपातविषापहा । सर्वाङ्गशोथोदरकासशूलशीतर्वीयर्हिमजलरभ्यङ्गादींश्च कारयेत् ॥४॥ श्वासान्वितं पाण्डुगदं निहन्ति ॥८॥ पित्त प्रधान शोथमें दूध पीता हुआ निसोथ, गुर्च और पुनर्नवा, नीमकी छाल, परवलकी पत्ती, सोंठ, कुटकी, त्रिफलाका क्वाथ पीवे। अथवा १ तोला त्रिफलाका चूर्ण गोमूत्रमें गुर्च, देवदारु तथा बड़ी हर्रका छिल्का इनका क्वाथ सर्वाङ्गशोथ, मिलाकर पीवे । इसी प्रकार बड़ी हर्रका छिल्का, देवदारु, उदर, कास, शूल और श्वासयुक्त पाण्डुरोगको नष्ट करता है ॥८॥ मोरेठी, कुटकी, दन्ती, छोटी पीपल, परवलकी पत्ती, चन्दन, विविधा योगाः। दारुहल्दी, त्रायमाण, व इन्द्रायणके क्वाथमें घी मिलाकर पीनेसे सूजन, ज्वर, दाह, विसर्प, तृष्णा, जलन, सन्निपात और विष आर्द्रकस्य रसः पीतः पुराणगुड मश्रितः । दोष नष्ट होते हैं । तथा शीत वीर्य स्नेह तथा ठण्ढ़े जलसे | अजाक्षीराशिनां शीघ्रं सर्वशोथहरो भवेत् ॥ ९॥ मालिश सिञ्चन व अवगाहनादि कराना चाहिये ॥२-४ ॥ पुनर्नवादारुशुण्ठीकाथे मूत्रे च केवले । कफजशोथचिकित्सा। दशमूलरसे वापि गुग्गुलुः शोथनाशनः ॥१०॥ पुनर्नवाविश्वत्रिवृद्गुडूची बिल्वपत्ररसं पूतं शोषणं श्वयथौ विजे । सम्पाकपथ्यामरदारुकल्कम् । विट्सङ्गे चैव दुर्नानि विदध्यात् कामलास्वपि।११ शोथे कफोत्थे महिषाक्षयुक्त गुडपिप्पलिशुण्ठीनां चूर्ण श्वयथुनाशनम् । मूत्रं पिबेद्वा सलिलं तथैषाम् ॥५॥ आमाजीर्णप्रशमनं शुलन्नं बस्तिशोधनम् ॥ १२ ॥ कफे तु कृष्णासिकतापुराण पुरो मूत्रेण सेव्येत पिप्पली वा पयोऽन्विता। पिण्याकशिग्रुत्वगुमाप्रलेपः । गुडेन वाभया तुल्या विश्वं वा शोथरोगिणाम् ॥१२ कुलत्थशुण्ठीजलमूत्रसेक बकरीके दूधका सेवन करते हुए पुराना गुड़ मिलाश्वण्डागुरुभ्यामनुलेपनं च ॥ ६ ॥ कर अदरखका रस पीनेसे शीघ्र ही समस्त शोथ नष्ट कफजन्य शोथमें पुनर्नवा, सोंठ, निसोथ, गुर्च, अमलतासका हात है । इसा प्रकार पुननवा, दवदारु गूदा, हरे, तथा देवदारुका कल्क, गुग्गुलु व गोमूत्र मिलाकर क्वाथमें अथवा केवल गोमूत्रमें अथवा दशमूलके पीवे । अथवा इन्हींका क्वाथ बनाकर पीवे । तथा छोटी पीपल, क्वाथम गुग्गुल मिलाकर पानस वाल, पुराना पीनाक (तिलकी खली) सहिजनकी छाल और | बेलके पत्तोंका रस छानकर कालीमिर्च के चूर्णके साथ पीनेसे अलसीका लेप करना चाहिये । तथा कुलथी और सोंठका जल सन्निपातज शोथ, मलकी रुकावट, अर्श तथा कामलारोग नष्ट बना गोमत्र मिलाकर सेक करना चाहिये । तथा अजमोद होते हैं । इसी प्रकार गुड़, पिप्पली व साठका चूर्ण सजन, और अगरका लेप करना चाहिये ॥५॥६॥ आमाजीर्ण व शुलको नष्ट करता तथा बस्तिको शुद्ध करता है। | अथवा गोमूत्रके साथ गुग्गुलु अथवा छोटी पीपल दूधके साथ सन्निपातजशोथचिकित्सा। अथवा गुड़के साथ बड़ी हर्रका छिल्का अथवा सोंठका प्रयोग शोथवालोंको करना चाहिये ॥९-१३॥ अजाजिपाठापनपञ्चकोलव्याघ्रीरजन्यः सुखतोयपीताः । गुडयोगा। शोथं त्रिदोषं चिरजं प्रवृद्धं गुडाकं वा गुडनागरं वा निम्नन्ति भूनिम्बमहौषधे च ॥ ७॥ गुडाभयं वा गुडपिप्पली वा। जीरा, पाढ़, नागरमोथा, पञ्चकोल, छोटी कटेरी, तथा कर्षाभिवृद्धथा त्रिपलप्रमाणं हल्दी सब समान भाग ल चूर्णकर गरम गरम जलके साथ पीनेसे त्रिदोषज बढ़े पुराने शोथ नष्ट होते हैं। इसी प्रकार . खादेन्नरः पक्षमथापि मासम् ॥१४॥ चिरायता और सोंठके चूर्णको गरम गरम जलके साथ पीनेसे शोथप्रतिश्यायगलास्यरागान् पुराने शोथ नष्ट होते हैं ॥७॥ सश्वासकासारुचिपनिसांश्च । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] मापाटीकोपेतः। rerwarनन्न्न्न्न्न्न जीर्णज्वराशेग्रहणीविकारान् रसा यवाग्वश्व हन्यात्तथान्यान्कफवातरोगान् ॥१५॥ शोथे प्रदेया दशमूलग ः ॥२१॥ गुड़ अदरख, अथवा गुड़ सोंठ, अथवा गुड़ हर्र, अथवा | पुनर्नवाकी जड़, कैथा, देवदारु, गुर्च, चीतेकी जड़ तथा गुड़ पिप्पली प्रतिदिन १ कर्ष (तोला) बढ़ाते हुए १ दशमूलके जलसे सिद्ध मांसरस, यवागू, दूष तथा यूष शोथमें तोलासे १२ तोलातक खाना चाहिये। फिर ऐसे ही १ तोलाकी | देने चाहियें ॥२१॥ मात्रातक क्रमशः कम कर फिर बढ़ाना चाहिये, इस प्रकार एक क्षारगुटिका। पक्ष अथवा १ मासतक खाना चाहिये । यह शोथ, प्रतिश्याय, क्षारद्धयं स्याल्लवणानि चत्वागले तथा मुखके रोग, श्वास, कास, अरुचि और पीनस, र्ययोरजो व्योषफलत्रिके च । जीर्णज्वर, अर्श, ग्रहणी तथा अन्य कफवातज रोगोंको नष्ट | करता है ॥ १४ ॥ १५॥ सपिप्पलीमूलबिडङ्गसारं मुस्ताजमोदामरदारुबिल्वम् ॥ २२ ॥ अन्ये योगा। कलिङ्गकश्चित्रकमूलपाठे स्थलपद्ममयं कल्कं पयसालोडय पाययेत् ।। यष्टयाह्वयं सातिविषं पलाशम् । प्लीहामयहरं चैव सर्वाङ्गैकाङ्गशोथजित् ॥ १६॥ सहिंगु करे त्वथ शुष्कचूर्ण दारुगुग्गुलुशुण्ठीनां कल्को मूत्रेण शोथजित् ।। द्रोणं तथा मूलकशुण्ठकानाम् ॥ २३ ॥ वर्षाभूशृङ्गवेराभ्यां कल्को वा सर्वशोथाजित् ॥१७॥ स्याद्भस्मनस्तत्सलिलेन साध्यसिंहास्यामृतभण्टाकीकाथं कृत्वा समाक्षिकम् ।। मालोडय यावद्घनमप्यदग्धम्। पीत्वा शोथं जयेज्जतुः श्वासं कासं वमिं ज्वरम्॥१८ स्त्यानं ततः कोलसमां च मात्रां भूनिम्बविश्वकल्कं जग्ध्वा पेयः पुनर्नवाकाथः। कृत्वा सुशुष्कां विधिना प्रयुज्यात् ॥२३॥ अपहरति नियतमाशु शोथं सर्वाङ्गगं नणाम् ॥१९॥ प्लीहोदरश्चित्रहलीमकार्श:शोथनुत्कोकिलाक्षस्य भस्म मूत्रेण वाम्भसा । पाण्ड्वामयारोचकशोथशोषान् । क्षीरं शोथहरं दारुवर्षाभूनागरैः शृतम् ॥२०॥ विषूचिकागुल्मगराश्मरीश्च पेयं वा चित्रकव्योषत्रिवृहारुप्रसाधितम् । सश्वासकासान्प्रणुदेत्सकुष्ठान् ॥ २५॥ सौवर्चलं सैन्धवं च विडमौद्भिदमेव च। स्थलकमलके कल्कको दूधमें मिलाकर पीनेसे प्लीहा पत्र स्याजलमष्टगुणं भवेत् ॥ २६ ॥ तथा सर्वाङ्गगत व एकाङ्गगत शोथ नष्ट होते हैं। जवाखार, सज्जीखार, सौवर्चल, सेंधा, बिड़ तथा खार (स्थल पद्म कई प्रकारके होते हैं । यथा--"एतानि स्थलपद्मानि नमक, लौह भस्म, त्रिकटु, त्रिफला, पिपरामूल, बायविडंग, सेवन्ती गुलदावदी । नेपाली च गुलावश्च बकुलश्च कदम्बकः ॥ नागरमोथा, अजमोद, देवदारु, बेलका गूदा, इन्द्रयव, चीतकी वैद्यकशब्द सिन्धुः ) ऐसे ही देवदारु, गुग्गुलु व सोंठका कल्क जड़, पाढ़, मौरेठी, अतीस, ढाकके बीज तथा भुनी हींग प्रत्येक गोमत्रके साथ शोथको नष्ट करता है । अथवा पुनर्नवा और १कर्षका चूर्ण तथा मूलीके टुकड़ोंकी भस्म १२ सेर ६४ तोला मोरका कल्क समस्त शोथाको नष्ट करता है। एस ही बासा, गने जलमं मिला (७ बार छान) कर पकाना चाहिये। फिर गुर्च, बड़ी कटेरीका काथ शहद मिलाकर पीनेसे शोथ, श्वास, पानस शाथ, श्वास, गोली बनानेके योग्य गाढा हो जानेपर ६ माशेकी मात्रासे गोली कास तथा ज्वर नष्ट होते हैं । ऐसे ही चिरायता और सोंठका। काबना सुखाकर विधिपूर्वक सेवन करना चाहिये। इससे प्लीहा, कल्क खाकर पुनर्नवाका क्वाथ पीनेसे निःसंदेह समस्त शरीरगत "त| उदर, श्वेतकुष्ट, हलीमक, अर्श, पाण्डुरोग, अरोचक, शोथ, शोथ नष्ट होता है। इसी प्रकार तालमखानेकी भस्म गोमूत्र गोमूत्र शाष, विषूचिका, गुल्म, गरविष, पथरी, श्वास, कास तथा कुष्ठ अथवा जलके साथ पानसे शोथ नष्ट होते हैं। अथवा देवदारु, पुनर्नवा और सोंठसे सिद्ध दूध अथवा चीतेकी जड़, त्रिकटु, निसोथ और देवदारु इनसे सिद्ध दूधको पीना चाहिये १६-२० पुनर्नवाद्यं घृतम् । पुनर्नवादिरसादयः। पुनर्नवाचित्रकदेवदारु पञ्चोषणक्षारहरीतकीनाम् । पुनर्नवामूलकपित्थदारु कल्केन पक्कं दशमूलतोये छिन्नोद्भवाचित्रकमूलसिद्धाः। धृतोत्तमं शोथनिषदनं च॥२७॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) पुनर्नवा, चीतकी जड़, देवदारु, पञ्चकटु, जवाखार और हर्रके कल्क और दशमूलके क्वाथसे सिद्ध घृत शोथको नष्ट करता है ॥ २७ ॥ पुनर्नवाशुण्ठीदशमूलघृते पुनर्नवाक्काथकल्कसिद्धं शोथहरं घृतम् । विश्वोषधस्य कल्केन दशमूलजले शृतम् । घृतं निहन्याच्छ्वयथुं ग्रहणीं पाण्डुतामयम् ॥ २८ ॥ पुनर्नवा के क्वाथ व कल्कसे सिद्ध घृत शोथको नष्ट करता 1 इसी प्रकार सोंठका कल्क और दशमूलका क्वाथ मिलाकर सिद्ध घृत सूजन, ग्रहणी तथा पाण्डुरोगको नष्ट करता है ॥ २८ ॥ 'चक्रदत्तः । चित्रकाद्यं घृतम् । सचित्रका धान्ययमानिपाठाः सदीप्यकत्र्यूषणवेतसाम्लाः । बिल्वात्फलं दाडिमयावशूकं सपिप्पलीमूलमथापि चव्यम् ॥ २९ ॥ पिवामात्राणि जलाढकेन पक्त्वा घृतप्रस्थमथोपयुञ्ज्यात् । अशसि गुल्माञ्छ्वयथुं च कृच्छ्रे निहन्ति वह्निं च करोति दीप्तम् ॥३०॥ चीतकी जड़, धनियां, अजवायन, पाढ़, अजमोद, त्रिकटु, अम्लवेत, बेलका गूदा, अनारदाना, यवाखार, पिपरामूल तथा चय, प्रत्येक १ तोलेका कल्क घी ६४ तोला तथा जल ३ सेर १६ तो० मिलाकर पकाना चाहिये । यह घी अर्श, गुल्म, शोथ व मूत्रकृच्छ्रको नष्ट करता तथा अभिको दीप्त करता है ।। २९-३० ॥ पञ्चकोलादिवृतम् । रसे विपाचयेत्सर्पिः पञ्चकोलकुलत्थयोः । पुनर्नवायाः कल्केन घृतं शोथविनाशनम् ॥ ३१ ॥ rasta और कुoria क्वाथ तथा पुनर्नवा के कल्से सिद्ध घृतशोथको नष्ट करता है ॥ ३१ ॥ 1 चित्रकघृतम् । क्षीरं घटे चित्रककल्क लिप्ते दध्यागतं साधु विमध्य तेन । तज्जं घृतं चित्रकमूलकल्कं तत्रेण सिद्धं श्वयथुन्नमध्यम् ॥ ३२ ॥ अर्शोऽतिसारानिलगुल्म मेहां [ शोथा मिलाकर सिद्ध करना चाहिये । यह घृत सूजनको तथा अर्श, अतिसार, वातगुल्म और प्रमेहको नष्ट करता और अग्निदीप्त करता है ॥ ३२-३३ ॥ माणकवृतम् । माणकक्काथकल्काभ्यां घृतप्रस्थं विपाचयेत् । एकजं द्वन्द्वजं शोथं त्रिदोषं च व्यपोहति ॥ ३४ ॥ माणके क्वाथ व कल्कसे सिद्ध किया गया घृत समस्त शोथोंको नष्ट करता है ॥ ३४ ॥ स्थलपद्मघृतम् । स्थलपद्मपलान्यष्टौ त्र्यूषणस्य चतुःपलम् । घृतप्रस्थं पचेदेभिः क्षीरं दत्त्वा चतुर्गुणम् । पञ्च कासान्हरेच्छीत्रं शोथं चैव सुदुस्तरम् ||३५|| स्थलपद्म ३२ तोला, त्रिकटु मिलित ४ पल ( १६ तोला ) घी १ प्रस्थ ( द्रवद्वैगुण्यकर १|| से० ८ तो० ) तथा घीसे चतुर्गुण दूध मिलाकर सिद्ध किये गये घृतका सेवन करने से पांचों कास तथा दुस्तर शोथ नष्ट होते हैं ॥ ३५ ॥ शैलेयाद्यं तैलं प्रदेोषा । शैलेयकुष्ठा गुरुदारुकौती त्व पद्मलांबु पलाशमुस्तेः । प्रियंगुणेयकममांसी तालीसपत्रप्लवपत्रधान्यैः ॥ ३६ ॥ श्रीवेष्टकध्यामकपिप्पलीभिः कानखैर्वापि यथोपलाभम् । वातान्वितेऽभ्यङ्गमुशन्ति तेलं सिद्धं सुपिष्टैरपि च प्रदेहम् ॥ ३७ ॥ छरीला, कूठ, अगर, देवदारु, सम्भालूके बीज, दालचीनी, पद्माख, इलायची, सुगन्धवाला, ढाकके फूल, मोथा, प्रियङ्गु, मालती के फूल, नागकेशर, जटामांसी, तालीशपत्र, केवटी मोथा, तेजपात, धनियां, गन्धा बिरोजा, रोहिष घास, छोटी पीपल, गठेउना तथा नख इनमेंसे जितने द्रव्य मिल सकें, उनसे सिद्ध तैलकी मालिश करनी चाहिये । तथा इन्हींको पीसकर लेप करना चाहिये ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ शुष्कमूलाद्यं तैलम् । स्तद्धन्ति संवर्धयतेऽनलं च ॥ ३३ ॥ शुष्कमूलक वर्षाभूदारुरास्नामहौषधैः । पक्कमभ्यञ्जनात्तैलं सशूलं श्वयथुं जयेत् ॥ ३८ ॥ सूखी मूली, पुनर्नवा, देवदारु, रासन, तथा सोंठके कल्कसे चीतके कल्कसे लिप्त थड़ेमें दूध जमाकर दही हो जा नेपर test निकाला गया घृत और वीतकी जड़का कल्क तथा मट्ठा | सिद्ध तैलकी मालिश करनेसे शुलयुक्त शोथ नष्ट होता है ॥ ३८ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (१८७) मन्च पुनर्नवावलेहः । प्रस्थार्धमात्रं मधुनः सुशीते पुनर्नवामृतादारुदशमूलरसाढके । किंचिच्च चूर्णादपि यावशूकात् । आईकस्वरसप्रस्थे गुडस्य तु तुलां पचेत् ॥ ३९ एकाभयां प्राश्य ततश्च लेहातसिद्धं व्योषचव्यलात्वपत्रैः कार्षिकैः पृथक् । च्छुक्तिं निहन्ति श्वयधुं प्रवृद्धम् ।। ४७ ॥ चूर्णीकृतैः क्षिपेच्छीते मधुनः कुडवं लिहेत् ॥४०॥ कासज्वरारोचकमेहगुल्मान् लेहः पौनर्नवो नाम शोथशूलनिषूदनः। प्लीहत्रिदोषोद्भवपाण्डुरोगान् । श्वासकासाऽरुचिहरो बलवर्णाग्निवर्धनः ॥ ४१॥ कार्यामवातामृगम्लपित्तं पुनर्नवा, गुर्च, देवदारु व दशमूलके एक आढक क्वाथ वैवर्ण्यमूत्रानिलशुक्रदोषान् ॥ ४८॥ अदरखके १ प्रस्थरसमें गुड़ ५ सेर मिलाकर पकाना चाहिये । लेह अत्र व्याख्यान्तरं नोक्तं तैयार होजानेपर त्रिकटु, चव्य, इलायची, दालचीनी और व्याख्या पूर्वव यच्छुभा ॥ ४९॥ तेजपातका चूर्ण प्रत्येक १ तोला छोड़ना चाहिये। तथा उतारकर ठण्ढा हो जानेपर शहद १६ तोले छोड़ना चाहिये । यह यह तथा पूर्वोक्त दशमूल हरीतकी दोनों एक ही हैं, अत: "पुनर्नवावलेह शोथ, शुल, श्वास, अरुचिको नष्ट करता तथा विशेष लिखनेकी आवश्यकता नहीं । इसकी एक हरै खाकर २ "बल, वर्ण व अग्निको बढ़ाता है ॥ ३९-४१॥ तो० अवलेह चाटना चाहिये । यह सूजन, कास, ज्वर, अरो चक, प्रमेह, गुल्म, प्लीहा, त्रिदोषज, पांडुरोग, दुर्बलता, आमदशमूलहरीतकी। वात, रक्तदोष, अम्लपित्त, वैवर्ण्य तथा मूत्रवायु और वीर्य दोषों को नष्ट करता है ॥ ४६-४९॥ दशमूलकषायस्य कंसे पथ्याशतं पचेत् । तुलां गुडाद् घने दद्याद्वयोषक्षारं चतुःपलम् ॥४२॥ अरुष्करशोथचिकित्सा। त्रिसुगन्धं सुवर्णाशं प्रस्थाध मधुनो हिमे । लेपोऽरुष्करशोथं निहन्ति तिलदुग्धनवनीतः। दशमूलीहरीतक्यः शोथान्हन्युः सुदारुणान् ॥४३॥/ तत्तरुतलमृद्भिर्वा शालदलैर्वा तु न चिरेण ॥५०॥ ज्वरारोचकगुल्माशेमेहपाण्डूदरामयान् । प्रत्येकमेककर्षाशं त्रिसुगन्धमिती भवेत् ॥४४॥ भिलावांकी सूजनको तिल, दूध तथा मक्खनका लेप अथवा कसहरीतकी चैषा चरके पठयतेऽन्यथा। भिलावेके वृक्षके नीचेकी मट्टीका लेप अथवा शालके पत्तोंका लप नष्ट करता है ॥५०॥ एतन्मानेन तुल्यत्वं तेन तत्रापि वर्ण्यते ॥ ४५ ॥ विषजशोथचिकित्सा। दशमूलके एक आढक क्वाथमें १०० हर तथा गुड़ ५ सेर | छोड़कर पकाना चाहिये । गाढ़ा हो जानेपर त्रिकटु तथा जवा- शोथे विषनिमित्ते तु विषोका संमता क्रिया ॥५१॥ खारका मिलित चूर्ण १६ तो० दालचीनी, तेजपात, इलायची| विषजशोथमें विषोक्त चिकित्सा करनी चाहिये ॥५१॥ प्रत्येक १ तो० छोड़ना चाहिये । तथा ठण्ढा हो जाने पर मधु ३२ तो० छोड़ना चाहिये । यह " दशमूल हरीतकी" कठिन | शोथे वानि । शोथोंको नष्ट करती तथा ज्वर, अरोचक, गुल्म, अर्श, प्रमेह,। ग्राम्यानूपं पिशितलवणं शुष्कशाकं नवान्नं पाण्ड और उदररोगोंको नष्ट करती है। इसीको चरकमें “कंस| गोडं पैष्टं दधि सकृशरं विज्जलं मद्यमम्लम् । हरीतकी" के नामसे लिखा है। वहां भी ऐसा ही मान है।। ( इसमें १०० हरें प्रथम क्वाथ बनाते ही छोड़ शुष्कं मासं समशनमथो गुर्वसात्म्यं विदाहि देनी चाहिये, क्वाथ हो जानेपर हरों को भी निकाल लेना चाहिये स्वप्नं चाह्नि श्वयथुगवान्वर्जयेन्मैथुनं च ॥ ५२॥ और इन्हीं हरोंको क्वाथके साथ पुनः पकाना चाहिये)४२-४५| ग्राम्य तथा आनूप प्राणियोंके मांस, नमक, सुखे शाक, नवीन अन्न, गुड़ तथा पिठ्ठिका मद्य, दही, खिचड़ी, विजल (दहीभेद) सहरीतकी। मद्य, खट्टे पदार्थ, सूखे मांस, गुरु, असात्म्य तथा विदाही द्विपञ्चमूलस्य पचेत्कषाये पदाथोंका सेवन, दिनमें सोना तथा मैथुन शोथवालेको त्याग कंसेऽभयानां च शतं गुडाश्च । देना चाहिये ॥५२॥ लेहे सुसिद्धे च विनीय चूर्ण इति शोथाधिकारः समाप्तः। व्योषत्रिसौगन्ध्यमुपस्थिते च ॥ ४६॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) चक्रदत्तः। [वृद्धय अथ वृद्धयधिकारः। व्यत्यासाद्वा शिरां विध्यदन्त्रवृद्धिनिवृत्तये। अंगुष्ठमध्ये त्वक् छित्त्वा दहेदङ्गविपर्यये ॥९॥ अण्डकोषोंके नीचे सीवनीके बगलमें व्रीहिमुखशस्त्रसे शिरावातवृद्धिचिकित्सा । व्यध करना चाहिये । तथा शंखके ऊपर कर्णके समीप सीवनको छोड़कर दाह करना चाहिये । अन्त्रवृद्धि दूर करनेके लिये जिस गुग्गुलु रुबुतैलं वा गोमूत्रेण पिबेन्नरः। जिस अण्डमें वृद्धि है, उसके दूसरी ओरके अँगूठेमें शिराव्यध वातवृद्धिं निहन्त्याशु चिरकालानुबन्धिनीम् ॥१॥ करना चाहिये । अथवा चर्म काटकर दूसरी ही ओर जला देना सक्षीरं वा पिबेत्तैलं मासमेरण्डसम्भवम् । चाहिये ॥ ८॥९॥ पुनर्ववायास्तैलं वा तैलं नारायणं तथा ॥ २॥ रानादिक्वाथः। पाने बस्तौ रुबोस्तैलं पेय वा दशकाम्भसा ।। रास्नायष्टयमृतैरण्डबलागोक्षुरसाधितः। मनुष्य गुग्गुलु अथवा एरण्डतैलको गोमूत्रके साथ पीवे, इससे काथोऽन्त्रवृद्धि हन्त्याशु रुबुतैलेन मिश्रितः ॥१०॥ पुरानी वातवृद्धि नष्ट होती है । अथवा दूधके साथ एक मासतक रासन, मौरेठी, गुर्च, एरण्डकी छाल, खरेटी तथा गोखरूसे एरण्डतैल अथवा पुनर्नवातैल अथवा नारायण तैल पीवे । अथवा सिद्ध क्वाथ एरण्डतैलके साथ अन्त्रवृद्धिको शीघ्रही नष्ट करता दशमूलके क्वाथके साथ एरण्डतलको पीवे और बस्तिका प्रयोग है॥१०॥ करे ॥१॥२॥ बलाक्षीरम् । पित्तरक्तवृद्धिचिकित्सा। तैलमेरण्डज पीत्वा बलासिद्धपयोऽन्वितम् । चन्दनं मधुकं पद्ममुशीरं नीलमुत्पलम् ॥३॥ आध्मानशूलोपचितामन्त्रवृद्धि जयेन्नरः॥ ११ ॥ क्षीरपिष्टः प्रदेहः स्यादाहशोथरुजापहः । खरेटीके सिद्ध दूधके साथ एरण्डका तैल पीनेसे पेटकी गुडपञ्चवल्कलकल्कन सघृतेन प्रलेपनम् ॥ ४॥ गुडाहट तथा शूलयुक्त अन्त्राद्ध नष्ट होती है ॥ ११॥ सर्व पित्तहरं कार्य रक्तजे रक्तमोक्षणम् । हरीतकीयोगौ। चन्दन, मौरेठी, खश, कमलके फूल तथा नीलोफरको दूधमें | पीसकर लेप करनेसे दाह, शोथ और पीड़ा नष्ट होती है ।। हरीतकी मूत्रसिद्धां सतैलां लवणान्विताम् । अथवा पञ्चवल्कलके कल्कको घीके साथ लेप करना चाहिये। तथा प्रातः प्रातश्च सेवेत कफवातामयापहाम् ॥ १२ ॥ रक्तजधृद्धिमें समस्त पित्तनाशक चिकित्सा तथा रक्तमोक्षण करना। गोमूत्रसिद्धा रुबुतैलभष्टा चाहिये ॥३॥४॥ हरीतकी सैन्धवसंप्रयुक्ताम् । खादेन्नरः कोष्णजलानुपानां श्लेष्ममेदोमूत्रजवृद्धिचिकित्सा ।। _ निहन्ति वृद्धि चिरजां प्रवृद्धाम् ॥ १३ ॥ श्लेष्मवृद्धिं तूष्णवीर्यैर्मूत्रपिष्टैः प्रलेपयेत् ॥५॥ | (१)हर्रको मूत्रमें पकाय एरण्ड तैल तथा नमक मिलाकर प्रतिपीतदारुकषायं च पिबेन्मूत्रेण संयुतम् । | दिन प्रातः सेवन करनेसे कफवातजवृद्धि नष्ट होती है। ऐसे ही स्विन्नं भेदः समुत्थं तु लेपयेत्सुरसादिना ॥ ६ ॥ (२) गोमूत्रमें पके एरण्डतैलमें भून सेंधानमक मिलाकर गरम शिरोविरेकद्रव्येर्वा सुखोष्णैर्मूत्रसंयुतैः। जलके साथ खानेसे पुरानी बढ़ी हुई अण्डवृद्धि नष्ट होती संस्वेद्य मूत्रप्रभवां वस्त्रपट्टेन वेष्टयेत् ॥७॥ है॥ १२ ॥१३॥ श्लेष्मवृद्विमें पासे हुए उष्णवीर्य पदाथोंसे लेप करना चाहिये। तथा दारुहल्दीका क्वाथ गोमूत्र मिलाकर पीना चाहिये । मेदाज त्रिफलाक्वाथ:। बृद्धिका स्वेदन कर सुरसादिगणकी ओषधियोंका लेप करना त्रिफलाकाथगोमूत्रं पिबेत्प्रातरतन्द्रितः । चाहिये । मूत्रजवृद्धि में शिरोविरेचन द्रव्यों ( कैफरा नकछिकनी) कफवातोद्भवं हन्ति श्वयधुं वृषणोत्थितम् ॥ १४ ॥ आदि ) को मूत्रमें पीस गरम गरम लेप कर कपड़ेसे बांध देना त्रिफलाक्काथ व गोमूत्र प्रतिदिन प्रातःकाल पीनेसे कफवातज चाहिये ॥५-७॥ अण्डकोषोंका शोथ नष्ट होता है ॥ १४ ॥ शिराव्यधदाहविधिः। सरलादिचूर्णम् । सीवन्याः पार्श्वतोऽधस्ताद्विध्येद् व्रीहिमुखेन वै। । सरलागुरुकुष्ठानि देवदारुमहौषधम् । शङ्खोपरि च कर्णान्ते त्यक्वा सीवनिमादहेत् ॥८॥ मूत्रारनालसंयुक्तं शोथनं कफवातनुत् ॥ १५ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषretarinः । सरलधूप, अगर, कूठ, देवदारु तथा सोंठका चूर्ण गोमूत्र और काजी मिलाकर पीने से सूजनको नष्ट तथा कफवातको दूर करता है ॥ १५ ॥ पथ्यायोगः । १६ ॥ भृष्टो रुबुकतैलेन कल्कः पध्यासमुद्भवः । कृष्णा सैन्धवसंयुक्तो वृद्धिरोगहरः परः ॥ छोटी हर्रका कल्क एरण्डतैलमें भून छोटी पीपल व सेंधानमक मिलाकर सेवन करनेसे बुद्धिरोग नष्ट होता है ॥ १६ ॥ आदित्यपाकघृतम् । गव्यं घृतं सैन्धवसंप्रयुक्तं शम्बूकभांडे निहितं प्रयत्नात् । सप्ताहमादित्यकरैर्विपक निहन्ति कूरंडमतिप्रवृद्धम् ॥ १७ ॥ गाय का घी व सेंधानमक एकमें मिला घोंघों ( क्षुद्र शेखों ) में रखकर ७ दिनतक सूर्यके तापमें पकाकर मालिश करने तथा खानेसे अण्डवृद्धि नष्ट होती है ॥ १७ ॥ ऐन्द्री चूर्णम् । ऐन्द्री मूलभवं: चूर्ण रुबुतैलेन मर्दितम् । यहाद्गोपयसा पीतं सर्ववृद्धिनिवारणम् ॥ १८ ॥ इन्द्रायणकी जड़के चूर्णको एरण्डतैलके साथ घोटकर ३ दिन गोदुग्धके साथ पीनेसे हर प्रकारका बुद्धिरोग नष्ट होता है ॥ १८ ॥ रुद्रजटालेपः । रुद्रजटामूललिप्ता करटव्यङ्कचर्मणा । बद्धा वृद्धिः शमं याति चिरजापि न संशयः ॥ १९ ॥ ईश्वरी ( रुद्रजटा ) की जड़को पीस लेप कर ऊपरसे वृक्षमूबिका ( गिलहरी) के चमड़ेको बान्धनेसे पुरानी भी अण्डवृद्धि शांत हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं ॥ १९ ॥ अन्ये लेपाः । निष्पिष्टमारनालेन रूपिकामूल वल्कलम् । लेपो वृद्धधामयं हन्ति बद्धमूलमपि दृढम् ॥ २० ॥ वचासर्षपकल्केन प्रलेपो वृद्धिनाशनः । लज्जागृध्रमलाभ्यां च लेपो वृद्धिरः परः ॥ २१ ॥ काजी के साथ पिसी हुई सफेद आककी जड़की छालका लेप पुरानी अण्डवृद्धिको नष्ट करता है । तथा बच व सरसों के कल्कका लेप वृद्धिको नष्ट करता है । इसी प्रकार सफेद लज्जावती व गृध्रके वीटको लेप करनेसे अण्डवृद्धि नष्ट करती है ॥ २०-२१ ॥ ( १८९१ विल्वमूलादिचूर्णम् । मूलं बिल्वकपित्थयोररलुकस्याग्ने बृहत्योर्द्वयोः श्यामापूतिकरञ्जशिशुकतरोर्विश्वौषधारुष्करम् । कृष्णाग्रन्थिकचव्यपभ्वलवणक्षाराजमोदान्वितं पीतं काञ्जिककोणतोयमथितं चूर्णीकृतं ब्रध्ननुत् २२ बेल, कैथा, सोनापाठा, चीत, छोटी बड़ी कटेरी, निसोथ काला, पूतिकरञ्ज और सहिजन प्रत्येककी जड़की छाल, सोंठ, भिलावां, छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, पांचों नमक, क्षार और अजमोदका चूर्ण कर काजी और गरम जलमें मेला पनेिसे ब्रध्नरोग ( बद ) नष्ट होता है ॥ २२ ॥ रोगस्य विशिष्टचिकित्सा । अविक्षीरेण गोधूमकल्कं कुन्दुरुकस्य वा । प्रलेपनं सुखोष्णं स्याद् ब्रघ्नशूलहरं परम् ।। २३ ॥ मृतमात्रे तु का विशस्ते संप्रवेशयेत् । .. धनं मुहूर्त मेधावी तत्क्षणादरुजं भवेत् ॥ २४ ॥ अजाजी हपुषा कुष्ठं गोधूमं बदराणि च । काश्ञ्जिकेन समं पिष्ट्वा कुर्याद् ब्रघ्नप्रलेपनम् ॥ २५॥ भेड़ के दूध के साथ गेहूँ के कल्क अथवा गन्धाविरोजेके कल्कक 1 कुछ गरम गरम लेप करनेसे बदरोग नष्ट होता है । तथा मरे हुए काकको चीरकर बदके ऊपर थोड़ी देर लगा देनेसे ही यह रोग नष्ट गेहूँ और बेरको काजी के साथ पीसकर बदके ऊपर लेप करना जाता है । अथवा जीरा, हाऊबेर, कूठ चाहिये ॥ २३-२५ ॥ सैन्धवाद्यं तैलम् । सैन्धवं मदनं कुष्ठं शताह्नां निचुलं वचाम् । बेरं मधुकं भाङ्ग देवदारु सनागरम् ।। २६ । कट्फलं पौष्करं मेदां चविकां चित्रकं शठीम् । विडङ्गातिविषे श्यामां रेणुकां नलिनीं स्थिराम् २६ ॥ बिल्वाजमोदे कृष्णां च दन्तीरास्त्रे प्रपिष्य च । साध्यमेरण्डजं तैलं तैलं वा कफवातनुत् ॥ २८ ॥ ब्रध्नोदावर्त गुल्मार्शःल्पीह मेहाढधमारुतान् । आनाहमश्मरी चैव हन्यात्तदनुवासनात् । घृतं सौरेश्वरं योज्यं ब्रध्नवृद्धिनिवृत्तये ॥ २९ ॥ सेंधानमक, मैनफल, कूठ, सौंफ, जलवेत, बच, सुगन्धवाला, मौरेठी, भाङ्ग, देवदारु, सोंठ, कायफल, पोहकरमूल, मेदा, चव्य, चीतकी जड़, कचुर, वायविडङ्ग, अतीस, निसोथ, सम्भालूके बीज, कमलिनी, शालिपर्णी, बेल, अजमोद, छोटी पीपल, दन्ती तथा रासनका कल्क छोड़कर सिद्ध किया गया एरण्डतैल अथवा तिल तैल कफ, वातरोग, बद, Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०) चक्रदत्तः। गलगण्डा उदावर्त, गुल्म, अर्श, प्लीहा, प्रमेह, ऊरुस्तम्भ, आनाह तथा लेपाः । पधरीको नष्ट करता है । इस तैल का अनुवासन करना चाहिये । तण्डुलोदकापिष्टेन मूलेन परिलेपितः । तथा सौरेश्वर घृतको बद और द्विरोगके नाशार्थ देना] हस्तिकर्णपलाशस्य गलगण्डः प्रशाम्यति ॥२॥ चाहिये ॥२६-२९॥ सर्षपाशिग्रुबीजानि शणबीजातसीयवान् । शतपुष्पाद्यं घृतम् । मूलकस्य च बीजानि तक्रेणाम्लेन पेषयेत् ॥३॥ गण्डानि ग्रन्थयश्चैव गलगण्डाः सुदारुणाः । शतपुष्पामृता दारु चन्दनं रजनीद्वयम् । जीरके द्वे बचानागात्रिफलागुग्गुलुत्वचः ॥३०॥ प्रलेपात्तेन शाम्यन्ति विलयं यान्ति चाचिरात् ॥४॥ मांसी कुष्ठं पत्रकैलारास्नाशृंगी: सचित्रकाः।। हस्तिकर्ण पलाशकी जड़को चावलके धोवनके साथ पीसकर क्रिमिनमश्वगन्धं च शैलेयं कटुरोहिणीम् ।। ३१॥ | लेप करनेसे गलगण्ड शान्त होता है। तथा सरसों, सहिजनके सैन्धवं तगरं पिष्ट्वा कुटजातिविष समे। | बीज, सन, अलसी, यव, तथा मूलीके बीजोंको खट्टे मटेके साथ एतैश्च कार्षिकैः कल्कैघृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥३२॥ पीसकर लेप करनेसे गण्ड, प्रन्थि तथा कठिन गलगण्ड शान्त होते हैं ॥२-४॥ वृषमुण्डितिकैरण्डनिम्बपत्रभवं रसम् । कण्टकार्यास्तथा क्षीरं प्रस्थं प्रस्थं विनिक्षिपेत्॥३३॥ नस्यम् । सिद्धमेतद् घृतं पीतमन्त्रवृद्धिमपोहति । जीर्णकर्कारुकरसो बिडसैन्धवसंयुतः। वातवृद्धिं पित्तवृद्धिं मेदोवृद्धिं च दारुणाम् ॥ ३४॥ नस्येन हन्ति तरुणं गलगण्डं न संशयः ॥ ५॥ मूत्रवृद्धिं श्लीपदं च यकृत्प्लीहानमेव च। । पकी कडुई तोम्बीका रस, बिडनमक तथा सेंधानमक मिला• शतपुष्पाघृतं रोगान्हन्यादेव न संशयः ॥ ३५॥ | कर नस्य लेनेसे नवीन गलगण्ड शान्त होता है ॥५॥ सौंफ, गुर्च, देवदारु, चन्दन, हल्दी, दारुहल्दी, सफेद | जलकुम्भीभस्मयोगः । जीरा, स्याह जीरा, बच, नागकेशर, त्रिफला, गुग्गुल, जलकुम्भीकजं भस्म पकं गोमूत्रगालितम् । दालचीनी, जटामांसी, कूठ, तेजपात, इलायची, रासन, पिबेत् कोद्रवभक्ताशी गलगण्डप्रशान्तये ॥६॥ काकड़ाशा, चातका जड़, वाचावडा, असगन्ध, छराला, जलकुम्भीकी भस्मको गोमूत्रमें मिला छानकर पीनेसे कुटकी, सेंधानमक, तगर, कुडेकी छाल, तथा अतीस तथा कोदयके भातका पथ्य लेनेसे गलगण्ड शान्त होता प्रत्येक एक तोलेका कल्क, घी १ सेर ९ छटाक ३ तोला|TMER तथा इतनी ही मात्रामें प्रत्येक अडूसेका स्वरस, मुण्डी, एरण्ड, नीमकी पत्ती तथा भटकटैयाका रस तथा दूध मिला उपनाहः। कर पकाना चाहिये । यह घृत पीनेसे वात वृद्धि, अन्त्रवृद्धि, सूर्यावर्तरसोनाभ्यां गलगण्डोपनाहने । पित्तद्धिं, दारुणमेदोवृद्धि, मूत्रद्धि, श्लीपद, यकृत्, तथा स्फोटासावैः शमं याति गलगण्डो न संशयः॥७॥ प्लीहा निःसन्देह नष्ट हो जाते हैं । इसे " शतपुष्पाघृत सूर्यावर्त तथा लहसुनकी पुल्टिस बनाकर गलगण्डपर बान्धकहते हैं ॥३०-३५॥ नेसे फफोला पड़कर फूटता और बहता है । इससे गलगण्ड इति वृद्धयधिकारः समाप्तः। शान्त होता है । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७॥ उषितजलादियोगौ। अथ गलगण्डाधिकारः। तिक्तालाबुफले पक्के सप्ताहमुषितं जलम् । मद्यं वा गलगण्डघ्नं पानात्पथ्यानुसेविनः ॥८॥ कर्डई तोम्बीके पके फलमें ७ दिन रक्खा गया जल पथ्यम् । | अथवा मद्य पीने तथा पथ्यसे रहनेसे गलगण्ड शान्त होता है॥८॥ यवमुद्रपटोलानि कटु रूक्षं च भोजनम् । छदि सरक्तमुक्तिं च गलगण्डे प्रयोजयेत् ॥१॥ अपरे योगाः। यव, मूंग, परवल, कडुआ, रूक्ष भोजन, वमन, तथा रक्त-/ कट्फलचूर्णान्तर्गलघर्षों गलगण्डमपहरति । मोक्षणका गलगण्डमें प्रयोग करना चाहिये ॥१॥ घृतमिश्र पीतमिव श्वेतगिरिकर्णिकामूलम् ।। ९॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] मापाटीकोपेतः। महिषीमूत्रविमिश्र लोहमलं संस्थितं घटे मासम् ।। वरुणाकी जड़के काथमें शहद मिलाकर सेवन करनेसे पुरानी अन्तधूममविदग्धं लिह्यान्मधुनाथ गलगण्डे ॥१०॥ गण्डमाला नष्ट होती है ॥ १७ ॥ कैफरेका चूर्ण गलेके अन्दर घिसनेसे तथा घीमें मिलाकर काश्चनारकल्कः। सफेद विष्णुकान्ताका कल्क पीनेसे गलगण्ड नष्ट होता है। पिष्टा ज्येष्ठाम्बुना पेयाः काञ्चनारत्वचःशुभाः। तथा मण्डूर चूर्ण भैंसीके मूत्रमें मिलाकर १ मासतक घड़ेमें रखकर फिर अन्तधूम पकाना चाहिये । पक जानेपर शहदके विश्वभेषजसंयुक्ता गण्डमालापहाः पराः ॥ १८ ॥ साथ चाटनेसे गलगण्ड शान्त होता है ॥९॥१०॥ कञ्चनारकी छालको पीस चावलका जल तथा सोठका चूर्ण मिलाकर पीनेसे गण्डमाला नष्ट होती है ॥ १८॥ शस्त्रचिकित्सा । जिह्वायाः पार्श्वतोऽधस्ताच्छिरा द्वादश कीर्तिताः ।। आरग्वधशिफाप्रयोगः । तासां स्थलशिरे देऽधसिन्दा च शः११ आरग्वधशिफां क्षिप्रं पिष्ट्वा तण्डुलवारिणा। बडिशेनैव संगृह्य कुशपत्रेण बुद्धिमान् । सम्यङ्नस्यप्रलेपाभ्यां गण्डमाला समुद्धरेत्॥१९।। अमलतासकी जड़को पीसकर चावलके जलके साथ नस्य स्रुते रक्ते व्रणे तस्मिन्दद्यात्सगुडमाकम् ॥ १२॥ लेने तथा प्रलेप करनसे गण्डमाला नष्ट होती है ॥ १९॥ भोजनं चानभिप्यन्दि यूषः कौलत्थ इष्यते। कर्णयुग्मबहिःसन्धिमध्याभ्यासे स्थितं च यत् ॥१३ निर्गुण्डीनस्यम्। उपर्युपरि तच्छिन्द्याद्गलगण्डे शिरात्रयम् । । गण्डमालामयार्तानां नस्यकर्मणि योजयेत् । जिह्वाके नीचे बगलमें १२ शिरायें बताई गयी हैं। उनमेंसे निर्गण्डयाश्च शिफां सम्यग्वारिणा परिपेषिताम्२० नांचेकी २ शिराओंको बड़िशसे पकड़कर कुशपत्रसे धीरे धीरे काट | ___जलमें अच्छीतरह पीसी हुई सम्भालूकी जड़को नस्यके लिये देना चाहिये । रक्त बह जानेपर उस व्रणमें गुड़ व अदरखका गण्डमालावालों को प्रयोग करना चाहिये ॥२०॥ रस लगाना चाहिये । पथ्य-अनभिष्यन्दि तथा कुलथीका यूष देना चाहिये । तथा दोनों कानोंकी बाहरी सन्धिके समीप जो। विविधानि नस्यानि । ऊपर तीन शिराएँ हैं, उनका भी व्यधन करना चाहिये॥११-१३॥ कोषातकीनां स्वरसेन नस्य नस्यं तैलम् । __ तुम्ब्यास्तु वा पिप्पलीसंयुतेन । तैलेन वारिष्टभवेन कुर्याद् विडङ्गक्षारसिन्धूनारास्नाग्निव्योषदारुभिः ॥१४॥ वचोपकुल्ये सह माक्षिकेण ॥२१ ।। कटुतुम्बीफलरसैः कटुतैलं विपाचयेत् । छोटी पपिलके चूर्णके सहित कडुई तोरईके स्वरसका नस्य चिरोत्थमपि नस्येन गलगण्डं निवारयेत् ॥ १५॥ ण्ड निवारयत् ॥ १५ ॥ अथवा कडुई तोम्बीके स्वरसका नस्य अथवा नीमके तैलका वायविडङ्ग, जवाखार, सेंधानमक, बच, रासन, चीतकी नस्य अथवा दूधिया वच और छोटी पीपलके चूर्णका नस्य बड़, त्रिकटु व देवदारुके कल्क तथा कडुई तोम्बीके रसमें शहदके साथ करना चाहिये ॥२१॥ सिद्ध कडए तैलके नस्य देनेसे पुराना गलगण्ड नष्ट होता है ॥ १४ ॥१५॥ विविधानि पानानि । अमृतादितलम् । ऐन्द्रया वा गिरिका वा मूलं गोमूत्रयोगतः। तैलं पिबेच्चामृतवल्लिनिम्ब गण्डमालां हरेत्पीतं चिरकालोत्थितामपि ॥ २२ ॥ हंसाह्वयावृक्षकपिप्पलीमिः। अलम्बुषादलोद्भूतात्स्वरसाद् द्विपलं पिबेत् । सिद्धं बलाभ्यां च सदेवदारु अपच्या गण्डमालायाः कामलायाश्च नाशनः॥२३॥ हिताय नित्यं गलगण्डरोगी॥१६॥ इन्द्रायण अथवा विष्णुकान्ताकी जड़को गोमूत्रके साथ पीसकर पानसे पुरानी गण्डमाला नष्ट होती है। इसी प्रकार गुर्च, नीमकी छाल, हंसपादी, कुटज, छोटी. पीपल, दोनों , मुण्डीका स्वरस २ पलकी मात्रासे सेवन करनेसे अपची गण्डखरेटी तथा देवदारुके कल्कसे सिद्ध तैल गलगण्डवालेको नित्य : माला व कामला नष्ट होती है ॥ २२ ॥ २३॥ पीना चाहिये ॥१६॥ वरुणमूलक्काथः। माक्षिकाढयोऽसकृत्पीतः क्वाथो वरुणमूलमः। गलगण्डगण्डमालाकुरण्डांश्च विनाशयत् । गण्डमालां निहन्त्याशुचिरकालानुबन्धिनीम्॥१७॥ पिष्टं ज्येष्ठाम्बुना मूलं लेपाद् ब्राह्मणयष्टिजम्॥२४॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३) चक्रदत्तः। [गलगण्डा न्मन्नन्भारङ्गीकी जड़को पीसकर चावलके साथ लेप करनेसे गल-1 शस्त्रचिकित्सा। गण्ड, गण्डमाला तथा अण्डवृद्धि नष्ट होती है ॥ २४ ॥ पाणि प्रति द्वादश चांगुलानि छुछुन्दरीतैलम् । भित्त्वेन्द्रबस्तिं परिवर्त्य सम्यक् । अभ्यङ्गानाशयेनणां गण्डमालां सुदारुणाम् । . विदार्य मत्स्याण्डनिभानि वैद्यो छुछुन्दर्या विपकं तु क्षणात्तैलवरं ध्रुवम् ॥ २५ ॥ ___ निकृष्य जालान्यनलं विदध्यात् ॥ ३२ ॥ छुछुन्दरसे पकाये तैलकी मालिशसे गण्डमाला एक क्षणमें | मणिबन्धोपरिष्टाद्वा कुर्याद्रेखात्रयं भिषक् । नष्ट होती है ॥२५॥ अगुल्यन्तरितं सम्यगपचीनां प्रशान्तये ॥ ३३ ॥ दण्डोत्पलाभवं मूलं बद्धं पुष्येऽपची जयेत् । शाखोटत्वगादितैलद्वयम् । अपामार्गस्य वा छिन्द्याज्जिबातलगते शिरे॥ ३४॥ गलगण्डापहं तैलं सिद्धं शाखोटकत्वचा। एंडीकी ओर १२ अंगुल नाप इन्द्रबस्तिको छोड़कर बिम्बाश्वमारनिर्गुडीसाधितं चापि नावनम् ॥२६॥ शस्त्रसे चीरकर मछलीके अण्डके समान जालोंको दूरकर (१) सिहोरेकी छालसे पकाया गया तैल अथवा (२) कुन्दुरू अनि लगा देनी चाहिये । अथवा मणिबन्धके ऊपर एक लनस गण्डमाला नष्ट एक अंगुलके बीचसे ३ रेखायें करे । इससे अपची शान्त होती है ॥२६॥ होती है । अथवा जिह्वातलगत २ शिराओंका व्यध करना निर्गुण्डीतैलम् । चाहिये । अथवा पुष्य नक्षत्रमें पीले फूलकी सहदेवीकी जड़ निर्गुण्डीस्वरसे चाथ लागलीमूलकल्कितम् । अथवा अपामार्गकी जड़ अपचीको नष्ट करती है ॥ ३२-३४ ॥ तैलं नस्यान्निहन्त्याशु गण्डमालां सुदारुणाम्॥२७॥ ___ व्योषादितैलम् । सम्भालूके स्वरसमें कलिहारीकी जड़का कल्क मिलाकर | व्योषं विडॉ मधुकं सैन्धवं देवदारु च। सिद्ध किये गये तैलके नस्यसे कठिन गण्डमाला नष्ट होती है२७॥ तैलमेतैः शृतं नस्यात् कृच्छ्रामप्यपची जयेत्॥३५।। __ कार्पासपूपिकाः। त्रिकटु, वायविडंग, मोरेठी, सेंधानमक, तथा देवदारुसे तैल सिद्ध करना चाहिये । इस तैलका नस्य देनेसे अपची नष्ट वनकार्पासिकामूलं तण्डुलैः सह योजितम् । । होती है ॥ ३५ ॥ पक्त्वा तु पूपिकां खादेदपचीनाशनाय तु ॥ २८॥ जङ्गली कपासकी जड़ और चावलको पीसकर बनायी गयी। चन्दनायं तैलम् । पूड़ीको खानेसे अपची नष्ट होती है ॥२८॥ चन्दनं साभया लाक्षा वचा कटुकरोहिणी । एतेस्तैलं शृतं पीतं समूलामपची जयेत् ।। ३६ ।। लेपः। चन्दन, बड़ी हर्रका छिल्का, लाख, बच तथा कुटकीके शोभाञ्जनं देवदारु कालिकेन तु पेषितम् । कोष्णं प्रलेपतो हन्यादपचीमतिदुस्तराम् ॥ २९ ॥ ... कल्कसे सिद्ध तैल नस्याभ्यंगादिसे समूल अपचीको नष्ट सर्षपारिष्टपत्राणि दग्ध्वा भल्लातकः सह । छागमूत्रेण संपिष्टमपचीनं प्रलेपनम् ॥ ३० ॥ ___ गुञ्जायं तैलम् । अश्वत्थकाष्ठं निचुलं गवां दन्तं च दाहयेत् । । गुञ्जाहयारिश्यामाकसर्षपैमूत्रसाधितम् । वाराहमज्जसंयुक्तं भस्म हन्त्यपचीत्रणान् ॥ ३१॥ तैलं तु दशधा पश्चात्कणालवणपञ्चकम् ।। ३७ ।। साहिँजन व देवदारुको काओके साथ पीस कुछ गर मरिचैश्चूर्णितैर्युक्त सर्वावस्थागतां जयेत् । कर लेप करनेसे कठिन अपची नष्ट होती है। तथा सरसों, अभ्यङ्गादपचीमुनां वल्मीकार्थोऽर्बुदवणान् ॥३८॥ नीमकी पत्ती व भिलावाँ सबको अन्तर्धूम पका बकरेके मूत्रमें गुजा, कनैर, काला निसोथ और सरसोंका कल्क तथा पीस लेप करनसे अपची नष्ट होती है । इसी प्रकार पीपलकी गोमत्र छोड़कर १० बार सिद्ध तैलमें छोटी पीपल पांचों लकडी, जलवेत व गोदन्तको जलाकर भस्म करना चाहिये । नमक और मिर्चका चूर्ण मिला मर्दन करनेसे हर प्रकाइस भस्मको शूकरकी मज्जाके साथ लेप करमेसे अपची व्रण रकी अपची, वल्मीक, अर्श, अर्बुद और व्रण नष्ट होते नष्ट होते हैं ॥ २९-३१॥ है॥३७॥३८॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] भाषाटीकोपतः। ग्रन्थिचिकित्सा। आलेपयेदेनमलाबुभाङ्गीं- . प्रन्थिष्वामेषु कुर्वीत भिषक् शोथप्रतिक्रियाम् । __ करजकालामदनैश्च विद्वान् ॥४४॥ पक्कानापाटय संशोध्य रोपयेद् व्रणभेषजैः ।।३९॥ दन्ती चित्रकमूलत्वक् सुधार्कपयसी गुडः। कच्ची गांठोंमें वैद्यको शोथकी चिकित्सा करनी चाहिये । __ भल्लातकास्थि कासीसं लेपो भिन्द्याच्छिलामपि। पकी गांठोंको चीर साफ कर प्रणकी ओषधियोंसे रोपण करना। ग्रन्थ्यर्बुदादिजिल्लेपो मातृवाहककीटजः ॥ ४५ ॥ चाहिये ॥ ३९॥ सर्जिकामूलकक्षारः शङ्खखचूर्णसमन्वितः।। वातजग्रन्थिचिकित्सा। प्रलेपो विहितस्तीक्ष्णो हन्ति ग्रन्ध्यर्बुदादिकान् ४६ हिंस्रा सरोहिण्यमृता च भार्जी कण्टाई, अमलतास, गुजा, मकोय, हिंगोट, प्रत्येककी जड़ तथा कडुई तोम्बी, भारङ्गी, करज, निसोथ और मैनफश्यामाकबिल्वागुरुकृष्णगन्धाः। लसे लेप करना चाहिये । अथवा दन्ती, चीतकी जड़की छाल, गोपित्तपिष्टाः सह तालपा सेहुण्ड और आकका दूध, गुड़, भिलावांकी मज्जा और कसी- ग्रन्थौ विधेयोऽनिलजे प्रलेपः॥ ४० ॥ सका लेप पत्थरको भी फोड़ देता है । इसी प्रकार मातृबाहजटामांसी, कुटकी, गुर्च, भारङ्गी, निसोथ, बिल्व, अगुरु, | ककीट ( बंगला पेदापोका ) का लेप प्रन्थि, अर्बुद आदिको सहिजन, तथा मुसलीको गोपित्तमें पीसकर वातज प्रन्थिमें लेप नष्ट करता है । इसी प्रकार सज्जीखार, मूलीका खार तथा शंखकरना चाहिये ॥ ४०॥ चूर्ण इनको पीसकर लेप करनेसे ग्रन्थि और अर्बुद आदि नष्ट पित्तजग्रन्थिचिकित्सा। होते हैं। ४४-४६॥ जलायुकाः पित्तकृते हितास्तु शस्त्रचिकित्सा। क्षीरोदकाभ्यां परिषेचनं च । प्रन्थीनमर्मप्रभवानपक्काकाकोलिवर्गस्य तु शीतलानि नुद्धृत्य वाग्निं विदधीत वैद्यः । पिबेत्कषायाणि सशर्कराणि ॥ ४१ ॥ क्षारेण वै तान्प्रतिसारयेत्तु द्राक्षारसेनेचुरसेन वापि संलिख्य संलिख्य यथोपदेशम् ॥४७॥ . ___ चूर्ण पिबेद्वापि हरीतकीनाम् । जो प्रन्थियां मर्म स्थानमें न हों, उन्हें निकालकर अनिसे मधूकजम्ब्वर्जुनवेतसानां जला दे। अथवा खुरच खुरच कर क्षारका प्रतिसारण करे॥४७॥ त्वग्भिः प्रदेहानवतारयेच्च ॥ ४२ ॥ पित्तज प्रन्थिमें जोंक लगाना, दूध तथा जलसे सिञ्चन, तथा __ अर्बुदचिकित्सा। काकोल्यादिवर्गके काढ़े ठण्ड़े कर शक्कर मिला पाना चाहिये । अन्ध्यर्बुदानां न यतो विशेषः अथवा हरोंका चूर्ण मुनक्केके रससे अथवा ईखके रससे पीवे । प्रदेशहेत्वाकृतिदोषदृष्यैः। तथा महुआ, जामुनकी छाल, अर्जुन, और बेतकी छालका ततश्चिकित्सेद्भिषगर्बुदानि लेप करे ॥४१॥४२॥ विधानविद् प्रन्थिचिकित्सितेन ॥ ४८॥ श्लेष्मग्रन्थिचिकित्सा। ग्रन्थि और अर्बुदमें स्थान, कारण, लक्षण, दोष और हृतेषु दोषेषु यथानुपूर्व्या दूध्यमें कोई विशेषता नहीं है, इस लिये अर्बुदकी चिकित्सा प्रन्थिके समान ही करनी चाहिये ॥४८॥ प्रन्थी भिषक् श्लेष्मसमुत्थिते तु । स्विन्ने च विम्लापनमेव कुर्या वातार्बुदचिकित्सा। दङ्गुष्ठरेण्वादृषदीसुतैश्च ॥ ४३॥ वातार्बुदे चाप्युपनाहनानि कफज प्रन्थिमें वमन द्वारा दोष निकाल स्वेदन कर अंगूठेमें स्निग्धैश्च मांसैरथ वेसवारैः। मिट्टी लेकर रगड़ना चाहिये, अथवा पत्थरके टुकडेसे रगड़ना स्वेदं विदध्यात्कुशलस्तु नाडया चाहिये ॥४३॥ शृङ्गेण रक्तं बहुशो हरेञ्च ।। ४९ ॥ वाताबुंदमें चिकने मांस अथवा बेसवारकी पुल्टिस बाँधनी विकङ्ककतारग्वधकाकणन्ती चाहिये। तथा नाड़ीस्वेद करना चाहिये और ऋषसे अनेक काकादनीतापसवृक्षमूलैः। वार रक निकालना चाहिये ॥४९॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४ ) पित्तार्बुह चिकित्सा | स्वेदोपनाहा मृदुवस्तु पथ्याः पित्तार्बुदे कायविरेचनानि । विघृष्य चोदुम्बरशाकगोजी पत्रैर्भृशं क्षौद्रयुतेः प्रलिम्पेत् ॥ ५० ॥ लक्ष्णीकृतैः सर्जरसप्रियङ्गुपतङ्गलोघ्रार्जुनयष्टिकाह्नेः ॥ ५१ ॥ पित्तज अर्बुदमें मृदु स्वेद तथा उपनाह करना चाहिये तथा विरेचन देना चाहिये । तथा कठूमर शाक और गोजिह्वा गाउजुवां ) की पत्ती से घिस ( खुरचकर ) शहद में महीन पिसी राल, प्रियङ्गु, पतंग, लोध, अर्जुन और मोरेठीका लेंप करना चाहिये ॥ ५०-५१ ॥ चक्रदत्तः । कफजार्बुद चिकित्सा | लेपनं शङ्खचूर्णेन सह मूलकभस्मना । कफार्बुदापहं कुर्याद्गन्ध्यादिषु विशेषतः ॥ ५२ ॥ कफज ग्रन्थि में मूलीकी भस्म और शंखके चूर्णका लेप करना चाहिये ॥ ५२ ॥ विशेषचिकित्सा । निष्पावपिण्याककुलत्थ कल्कै - प्रगाढेदधिमर्दितैश्च । लेपं विदध्यात्क्रिमयो यथात्र मुञ्चन्त्यपत्यान्यथ मक्षिका वा ।। ५३ ।। अल्पावशिष्टं क्रिमिभिः प्रजग्ध लिखेत्ततोऽग्निं विदधीत पश्चात् । यदल्पमूलं त्रपुताम्रसीसै: संवेष्टय पत्रेरथवायसैर्वा ॥ ५४ ॥ क्षाराग्निशखाण्यवचारयेच्च मुहुर्मुहुः प्राणमवेक्ष्यमाणः । यदृच्छया चोपगतानि पार्क पाकक्रमेणोपचरेद्यथोक्तम् ॥ ५५ ॥ । सेमके बीज, पीना, कुलथीका कल्क तथा मांसको दही में मर्दितकर लेप करना चाहिये । जिससे इसमें कीड़े पड़ जायँ या मक्खियाँ कीड़े उत्पन्न कर दें। फिर कीड़ोंसे बहुत अंश खा जानेपर अल्पावशिष्ट खुरच कर अभिसे जला देना चाहिये। जो थोड़ी जड़ रह जाय, उसे रांगा, तामा, शीशा अथवा लोहेके पत्रोंसे लपेट क्षार अग्नि अथवा शस्त्रका प्रयोग रोगी के बलका ध्यान रखकर करे । यदि अपने आप पक जावे, तो पाकक्रमसे चिकित्सा करे ॥ ५३-५५ ॥ [ गलगण्डा सशेषदोषाणि हि योऽर्बुदानि करोति तस्याशु पुनर्भवन्ति । तस्मादशेषाणि समुद्धरेत्तु हन्युः सशेषाणि यथा विषाम्नी ॥ ५६ ॥ जिसके अर्बुदके दोष कुछ शेष रह जाते हैं, उसके शीघ्र ही बढ जाते हैं, अतः अर्बुद समस्त निकाल देना चाहिये । क्योंकि अर्बुदके दोष यदि कुछ शेष रह जाते हैं, तो बे विष तथा अनिके | समान शीघ्र ही मार डालते हैं ॥ ५६ ॥ | उपोदकाप्रयोगः । उपोदिका रसाभ्यक्तास्तत्पत्रपरिवष्टिताः । प्रणश्यन्त्यचिरान्नृणां पिडकार्बुदजातयः || ५७ ॥ उपोदिका काञ्जिकतक्रपिष्टा तयोपनाहो लवणेन मिश्रः । दानां प्रशमाश्चिद्दिने दिने वा त्रिषु मर्मजानाम् ॥ ५८ ॥ पोकी रसकी मालिश कर पोयके पत्ते ही बाँधनेसे शीघ्र ही मनुष्यों की पिड़िका व अर्बुद नष्ट हो जाते हैं । अथवा पोयको काजी और मट्ठेके साथ पीस नमक मिला गरम कर पुल्टिस बान्धनेसे ३ दिनमें मर्मस्थान में भी उत्पन्न अर्बुद नष्ट हो जाते हैं ॥ ५७-५८ ॥ अन्ये लेपाः । लेपोऽर्बुदजिद्रम्भामोचकभस्म तुषशङ्खचूर्णकृतः । सररुधिरार्द्रगन्धकयवज विडङ्गनागरैर्वाथ ॥ ५९ ॥ स्नुहीगण्डीरिक स्वेदो नाशयेदर्बुदानि च । शिरीषेणाथ लवणैः पिण्डारकफलेन वा ॥ ६० ॥ हरिद्रालो पत्तङ्गगृहधूममनः शिलाः । मधुप्रगाढो लेपोऽयं मेदोऽर्बुदहरः परः । एतामेव क्रियां कुर्यादशेषां शर्करार्बुदे ।। ६१ ।। केला और सेमरकी भस्म, धान्यकी भूसी और शंखके चूर्णका | लेप अर्बुदको नष्ट करता है। अथवा गिरदानका रक्त, अदरख, गन्धक, यवाखार, वायविडङ्ग और सोंठका लेप अथवा सिरसेकी छाल अथवा नमक अथवा काले मैनफलका लेप करना हितकर है । तथा सेहुण्ड और मजीठकी पुल्टिस बान्धना हितकर है। तथा हल्दी, लोध, लालचन्दन, गृहधूम और मैनशिलको शहद में मिलाकर लेप करनेसे मेदोऽर्बुद शान्त होता है । तथा यही क्रिया शर्करार्बुदमें करनी चाहिये ॥ ५९-६१ ॥ इति गलगण्डाधिकारः समाप्तः । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायः धिकारः] भाषाटीकोपेतः। न्न्न्न्न्न्न्न्न् अथ श्लीपदाधिकारः। पित्तजश्लीपदमें गुल्फके नीचे शिराव्यध करना चाहिये । तथा पित्ताबुंदविसर्पके समान पित्तनाशक चिकित्सा करनी चाहिये६॥७ पित्तजइलीपदे लेपः। सामान्यचिकित्सा। मंजिष्ठां मधुकं रानां सहिंस्रां सपुनर्नवाम् । लङ्घनालेपनस्वेदरेचनै रक्तमोक्षणः । पिष्ट्वाऽऽरनालैलेंपोऽयं पित्तश्लीपदशान्तये ॥ ८॥ १॥ | मजीठ, मौरेठी, रासन, जटामांसी व पुनर्नवाको कांजीके साथ पीसकर लेप करनेसे पित्तज श्लीपद शान्त होता है ॥८॥ लंघन, आलेपन, स्वेद, रेचन, रक्तमोक्षण तथा श्लेष्महर उष्ण उपायोंसे लीपदकी चिकित्सा करनी चाहिये ॥१॥ कफलीपदचिकित्सा। लेपद्वयम् । शिरां सुविदितां विध्येदंगुष्ठे श्लेष्मश्लीपदे । धत्तुरैरण्डनिर्गुण्डीवर्षाभूशिग्रुसर्पषैः । मधुयुक्तानि चाभीक्ष्णं कषायाणि पिबेन्नरः ॥ ९ ॥ प्रलेपः श्लोपदं हन्ति चिरोत्थमतिदारुणम् ॥२॥ | पिबेत्सर्षपतैलेन श्लीपदानां निवृत्तये ।। पूतीकर अच्छदजं रसं वापि यथाबलम् ॥१०॥ निष्पिष्टमारनालेन रूपिकामूलवल्कलम् । प्रलेपाच्छ्लीपदं हन्ति बद्धमूलमथो दृढम् ॥ ३॥ अनेनैव विधानेन पुत्रजीवकजं रसम् । कालिकेन पिबेच्चूर्ण मूत्रैर्वा वृद्धदारजम् ॥ ११ ॥ (१) धत्तूर, एरण्ड, सम्भालू, पुनर्नवा, सहिजन और सरसोंका रजनी गुडसंयुक्तां गोमूत्रेण पिबेन्नरः। लेप करना पुराने कठिन श्लीपदको लाभ करता है। तथा (२) वर्षोत्थं श्लीपदं हन्ति ढुकुष्ठं विशेषतः ॥ १२ ॥ सफेद आककी जड़की छालको काजीमें पीस कर लेप करनेसे कफज लीपदमें अँगूठेकी स्पष्ट शिराका व्यध करना चाहिये । बदमूल ग्लीपद नष्ट होता है ॥ २ ॥३॥ | तथा शहदके साथ कफनाशक क्वाथ सदैव पीना चाहिये । प्रयोगान्तरम् । अथवा पूतिकरञ्जके पत्तोंका रस सरसोंका तैल मिलाकर पीना पिण्डारकतरुसम्भववन्दाकशिफा चाहिये । इसी प्रकार पुत्रजीवाका रस पीना चाहिये। अथवा काजी या गोमूत्रके साथ विधारेका चूर्ण पीना चाहिये। तथा हल्दीका जयति सर्पिषा पीता। चूर्ण गुड़ मिला गोमूत्रके साथ पीनेसे एक बर्षका पुराना श्लीपद श्लीपदमुग्रं नियतं | तथा दगु ( दाद) नामका कुष्ठ दूर हो जाता है ॥९-१२ ॥ बद्धा सूत्रेण जंघायाम् ॥४॥ वातकफजश्लीपदचिकित्सा। काले मेनफलके ऊपरके वान्देकी जड़ घीके साथ पीने तथा डोरेसे जंघोमें बांधनेसे नियमसे उग्र श्लीपद नष्ट हो। गन्धर्वतैलभृष्टां हरीतकी गोजलेन यः पिबति । जाता है ॥४॥ श्लीपदबन्धनमुक्तो भवत्यसौ सप्तरात्रेण ॥१३॥ धान्याम्लं तैलसंयुक्तं कफवातविनाशनम् । अन्ये लेपाः। . दीपनं चामदोषघ्नमेतच्छ्लीपदनाशनम् ॥१४॥ हितश्चालेपने नित्यं चित्रको देवदारु वा । गोधावतीमूलयुक्तां खादेन्माषेण्डरी नरः । सिद्धार्थशिग्रुकल्को वा सुखोष्णो मूत्रपेषितः॥५॥ जयेच्छलीपदकोपोत्थं ज्वरं सद्यो न संशयः॥१५॥ चीता अथवा देवदारु अथवा सहिंजन व सरसों गोमूत्रमें पीस | श्लीपदन्नो रसोऽभ्यासाद् गुडूच्यास्तैलसंयुतः। गरम कर नित्य लेप करना हितकर है॥५॥ ___ जो मनुष्य एरण्ड तैलमें भुनी हर्रको गोमूत्रके साथ खाता है, शस्त्रचिकित्सा। वह ७ दिनमें श्लीपद बन्धनसे मुक्त हो जाता है। तथा काजी, स्नेहस्वेदोपनाहांश्च श्लीपदेऽनिलजे भिषक् । तैलके साथ कफ वातको नष्ट करती, दीपन, आमदोषनाशक तथा कृत्वा गुल्फोपरि शिरां विध्येत्तु चतुरंगुले ॥६॥ श्लीपदनाशक है । वटपत्रीपाषाणभेदकी जड़के साथ उड़दके बड़े गुल्फस्याधः शिरां विध्येच्छ्लीपदे पित्तसम्भाखानसे श्लीपदकोपोत्थ ज्वर नष्ट होता है । गुर्चके रसका तैलके पित्तघ्नीं च क्रियां कुर्यात्पित्ताबुंदविसर्पवत् ॥७॥ साथ सेवन करनेसे श्लीपदरोग नष्ट होता है ॥ १३-१५ ॥वातज श्लीपदमें स्नेहन स्वेदन तथा पुल्टिस बांधकर गुल्फके त्रिकट्वादिचूर्णम् । चार अंगुल ऊपर वैद्यको शिराव्यध करना चाहिये । तथा' त्रिकटु त्रिफला चव्यं दाविरुणगोक्षुरम् ॥१६॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६ ) चक्रदत्तः । अलम्बुषां गुडूचीं च समभागानि चूर्णयेत् । सर्वेषां चूर्णमाहृत्य वृद्धदारस्य तत्समम् ॥ १७ ॥ काञ्जिकेन च तत्पेयमक्षमात्रं प्रमाणतः । जीर्णे चापरिहारं स्याद्भोजनं सार्वकामिकम् ॥ १८ ॥ नाशयेच्छ्लीपदं स्थौल्य मामवातं सुदारुणम् । गुल्मकुष्ठानिलहरं वातश्लेष्मज्वरापहम् ॥ १९ ॥ त्रिकटु, त्रिफला, चव्य, दारूहल्दी, वरुणाकी छाल, गोखरू, मुड़ी तथा सब समान भाग सबके समान विधारेका चूर्ण बनाकर १ तोलेकी मात्रासे काजीके साथ पीना चाहिये । औषध पच जानेपर यथेच्छ भोजनादि करना चाहिये । यह श्लीपद, स्थौल्य, आमवात, गुल्म, कुष्ठ वात तथा वातश्लेष्मज्वरको नष्ट 1 करता है ॥ १६-१९ ॥ पिप्पल्यादिचूर्णम् । पिप्पलीत्रिफलादारुनागरं सपुनर्नवम् । भागैर्द्विपलिकैरेषां तत्समं वृद्धदारकम् ॥ २० ॥ काञ्जिकेन पिबेच्चूर्ण कर्षमात्रं प्रमाणतः । जीर्णे 'चापरिहारं स्याद् भोजनं सार्वकामिकम् ॥ २१॥ श्लीपदं वातरोगांश्च हन्यात्प्लीहानमेव च । अग्निं च कुरुते घोरं भस्मकं च नियच्छति ||२२|| छोटी पीपल, त्रिफला, देवदारु, सोंठ तथा पुनर्नवा प्रत्येक ८ तोला और सबके समान विधाराका चूर्ण कर १ कर्षकी मात्रासे काजी के साथ पीना चाहिये । हजम हो जानेपर यथारुचि भोजन करना चाहिये | यह श्लीपद वातरोग तथा प्लीहाको नष्ट करता और अनिको प्रदीप्त करता ॥ २०-२२ ॥ कृष्णाद्यो मोदकः । कृष्णाचित्रकदन्तीनां कर्षमर्धेपलं पलम् । विंशतिश्च हरीतक्यो गुडस्य तु पलद्वयम् । मधुना मोदकं खादेच्छ्लीपदं हन्ति दुस्तरम् ॥ २३॥ छोटी पीपल, चीत की जड़, दन्ती क्रमशः १ तो० २ तो० और ४ तो० तथा २० हरें सबका महीन चूर्ण कर गुड़ ८ तोला और शहद मिला गोली बनानी चाहिये । ये गोलियां श्लीपदको नष्ट करती हैं ॥ २३ ॥ सौरेश्वरं घृतम् । सुरसां देवकाष्ठं च त्रिकटुत्रिफले तथा । लवणान्यथ सर्वाणि विडङ्गान्यथ चित्रकम् ॥ २४ ॥ चविका पिप्पलीमूलं गुग्गुलुर्हपुषा वचा । यवाग्रजं च पाठा च शट्येला वृद्धदारुकम् ॥२५॥ कल्कैश्च कार्षिकैरेभिर्धृतप्रस्थं विपाचयेत् । दशमूलीकषायेण धान्ययूषद्रवेण च ॥ २६ ॥ [ विद्रव्य - दधिमण्डसमायुक्तं प्रस्थं प्रस्थं पृथक् पृथक् । पक्कं स्यादुद्धृतं कल्कात्पिबेत्कर्षत्रयं हविः ॥ २७ ॥ पदं कफवातोत्थं मांसरक्ताश्रितं च यत् । मेदः श्रितं च पित्तोत्थं हन्यादेव न संशयः ॥ २८॥ अपची गण्डमालां च अन्त्रवृद्धिं तथाऽर्बुदम् । नाशयेद् ग्रहणोदोषं श्वयथुं गुदजानि च ॥ २९ ॥ परमनिकरं हृद्यं कोष्ठक्रिमिविनाशनम् । घृतं सौरेश्वरं नाम श्लीपदं हन्ति सेवितम् । जीवकेन कृतं ह्येतद्रोगानीकविनाशनम् ॥ ३० ॥ चीतेकी जड़, चव्य, पिपरामूल, गुग्गुलु, हाऊबेर, बच, जवाखार, तुलसी, देवदारु, त्रिकटु, त्रिफला, समस्त नमक, वायविडङ्ग', पाढ़, कचूर, इलायची, विधारा प्रत्येकका कल्क १ कर्ष, घी २ प्रस्थ, दशमूलका क्वाथ १ प्रस्थ, धान्ययूष काजी १ प्रस्थ, दहीका तोड़ 9 प्रस्थ तथा जल १ प्रस्थ छोड़कर घी पकाना चाहिये । इसमेंसे ३ तोलेकी मात्राका सेवन करना चाहिये । यह कफवातज मांस रक्ताश्रित, मेदःश्रित तथा पित्तजन्य श्लीपदको नष्ट करता है । वृद्धि, अर्बुद, ग्रहणीदोष, सूजन तथा अर्शको नष्ट करता, अग्निको इसमें सन्देह नहीं । इसके अतिरिक्त अपची, गण्डमाला, अन्त्र - दीप्त करता, हृद्य, पेटके कीड़ोंको नष्ट करता, अधिक क्या कहा जाय, यह जीवकका बनाया हुआ घृत रोग समूहको नष्ट करता है ॥ २४-३० ॥ विडंगाद्यं तैलम् । विडङ्गमरिचार्केषु नागरे चित्रके तथा । भद्रदार्तेलकाख्येषु सर्वेषु लवणेषु च । तैलं पक्कं पिबेद्वापि श्लीपदानां निवृत्तये ॥ ३१ ॥ वायविडङ्ग, कालीमिर्च, अर्ककी छाल, सोंठ, चीतकी जड़, देवदारु, इलायची, तथा समस्त लवणों के साथ पकाया गया तैल पीनेसे श्लीपदरोग नष्ट होता है ॥ ३१ ॥ इति श्लीपदाधिकारः समाप्तः । अथ विद्रध्यधिकारः । i सामान्यक्रमः | जलौकापातनं शस्तं सर्वस्मिन्नेत्र विद्रधी । मृदुर्विरेको लघ्वन्नं स्वेदः पित्तोत्तरं विना ॥ १ ॥ समस्त विद्रधियों में जोंक लगाना, मृदु विरेचन, लघु अन्न तथा पित्तविद्रधिके सिवाय अन्य में स्वेदन करना हितकर है ॥ १ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः । वातविद्रधिचिकित्सा | वातघ्नमूलकल्कैस्तु वसातैलघृतप्लुतैः । सुखोष्णो बहलो लेगः प्रयोज्यो वातविद्रधौ ॥ २ ॥ स्वेदोपनाहा: कर्तव्याः शित्रुमूलसमन्विताः । यवगोधूममुद्वैश्व सिद्धपिष्टैः प्रलेपयेत् ॥ ३ ॥ विलीयते क्षणेनैवमपक्वश्चैव विद्रधिः । पुनर्नवादारु विश्वदशमूलाभयाम्भसा ॥ ४ ॥ गुग्गुलं बुतैलं वा पिबेन्मारुतविद्रधी । वातनाशकमूल ( दशमूल ) के कल्कको चर्बी, घी, और तैल मिला कुछ गरम कर मोटा लेप करनेसे वातविद्रधि शान्त होती है । तथा सहिजनकी जड़से स्वेदन व लेप करना चाहिये । तथा जब गेहूँ और मूंगको पीस पकाकर लेप करना चाहिये । इस प्रकार अपक्क विद्रधि क्षणभर में ही शान्त हो जाती है । तथा पुनर्नवा, देवदारु, सोंठ, दशमूल और हर्रके क्वाथ के साथ गुलगुलु अथवा एरण्डतैलका प्रयोग करनेसे वातजविद्रधि शान्त होती है ॥ २-४॥ पित्तविद्रधिचिकित्सा । पैत्तिकं शर्करालाजामधुकैः शारिवायुतेः ॥ ५ ॥ प्रदिह्यात्क्षीरपिष्टेर्वा पयस्योशीरचन्दनैः । पिबेद्वा त्रिफलाकाथं त्रिवृत्कल्काक्षसंयुतम् ॥ ६॥ पञ्चवल्कलकल्केन घृतमिश्रेण लेपनम् । यष्टयाह्वशारिवादूर्वानलमूलैः सचन्दनैः ॥ ७ ॥ क्षीरपिष्टेः प्रलेपस्तु पित्तविद्रधिशान्तये । ( १९७ ) | स्वेदन करना चाहिये । तथा दशमूलका क्वाथ अथवा, स्नेहसहित मांसरस कुछ गरम गरम सिञ्चन करनेसे शोथवण और शूल नष्ट होता है । अथवा त्रिफला, सहिजनकी छाल, वरुणाकी छाल और दशमूलके क्वाथके साथ अथवा गोमूत्रके साथ गुग्गुलुको पीनेसे कफज विद्रधि शान्त होती [ है ।। ८-१० ॥ - श्लेष्मजविद्रधिचिकित्सा । इष्टका सिकतालोहगोशकृत्तुषपांशुभिः ॥ ८ ॥ मूत्रपिष्टैश्च सततं स्वेदयेच्छ्लेष्मविद्रधिम् । दशमूलकषायेण सस्नेहनं, रसेन वा ॥ ९ ॥ शोथं व्रणं वा कोष्णेन सशुलं परिषेचयेत् । त्रिफलाशिनु वरुण दशमूलाम्भसा पिबेत् ॥ १० ॥ गुग्गुलुं मूत्रयुक्त वा विद्रधी कफसम्भवे । कफजविद्रधिको ईंट, बालू, लोह, गायके गोबर, धानकी भूसी अथवा मिट्टीको गोमूत्रमें पीस गरम कर निरन्तर रक्ता गन्तु विद्रधिचिकित्सा | पित्तविद्रधिवत्सव क्रियां निरवशेषतः ॥ ११ ॥ विद्रध्योः कुशलः कुर्याद्रक्तागन्तुनिमित्तयोः । रक्तज तथा आगन्तुज विद्रधिमें पित्तविद्रधिके समान ही समग्र चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ११॥ अपक्वान्तर्विद्रधिचिकित्सा | शोभानक निर्यूह हिंगुसैन्धवसंयुतः ॥ १२ ॥ अचिराद् विद्रधिं हन्ति प्रातः प्रातर्निषेवितः । शिशुमूलं जले धोतं दरपिष्टं प्रगालयेत् ॥ १३ ॥ तसं मधुना पीत्वा हन्त्यन्तर्विद्रधिं नरः । श्वेतवर्षाभुवो मूलं मूलं वरुणकस्य च ॥ १४ ॥ जलेन कथितं पीतमपकं विद्रधिं जयेत् । वरुणादिगणक्काथमपक्वेऽभ्यन्तरोत्थिते । ऊषकादिप्रतीवापं पिबेत्संशमनाय वै ॥ १५ ॥ शमयति पाठामूलं क्षौद्रयुतं तण्डुलाम्भसा पीतम् । - अन्तर्भूतं विद्रधिमुद्धतमाश्वेव मनुजस्य ॥ १६ ॥ सहिजनका काथ भुनी हींग व सेंधानमक मिलाकर प्रातः पित्तजविद्रधिमें दूधके साथ शक्कर, खील, मौरेठी तथा काल सेवन करनेसे विद्रधि शीघ्र ही नष्ट होती है। इसी शारिवा अथवा क्षीरविदारी, खश और चन्दनका लेप करना प्रकार सहिजनकी छाल जलमें धो पीस छानकर स्वरस चाहिये। अथवा त्रिफलाका काथ निसोथका कल्क १ तोला निकालना चाहिये । इस स्वरसको शहदके साथ पीनेसे मिलाकर पीना चाहिये । तथा घी मिलाकर पञ्चवल्कलके कल्कका अन्तर्विद्रधि नष्ट होती है । तथा सफेद पुनर्नवाकी जड़ व लेप करना चाहिये । अथवा मौरेठी, शारिवा, दूध, नरसलकी वरुणाकी जड़का क्वाथ बनाकर पीनेसे अपक्वविद्रधि शान्त मूल और चन्दनको दूधमें पीसकर लेप करनेसे पित्तज विद्रधि होती है । वरुणादिगणके क्वाथमें रेहमिट्टी आदि डालकर पीने से शान्त होती है ॥ ५-७ ॥ - अपक्क अभ्यन्तर विद्रधि शान्त होती है । इसी प्रकार पाठाकी जड़ शहद और चावलक जलके साथ पीनेसे मनुष्यकी अन्त विद्रधि शीघ्र ही शान्त होती है ॥ १२-१६ ॥ पक्कविद्रधिचिकित्सा | अपक्वे त्वेतदुद्दिष्टं पक्त्रे तु व्रणवत्क्रिया ॥ स्स्रुतेऽप्यूर्ध्वमधश्चैत्र मैरेयाम्लसुरासवैः । पेयो वरुणकादिस्तु मधुशिरसोऽथवा ॥ १७ ॥ अपक्कविद्रधिकी चिकित्सा ऊपर लिखी है । पक्क विद्रधिमें व्रणके समान क्रिया करनी चाहिये । ऊर्ध्वमार्ग अथवा अधोमासे बहनेपर मैरेय ( मद्यविशेष) काजी, शराब और आसवके Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९.) चक्रदत्तः। [व्रणशोथा - - साथ वरुणादिगणके कल्कका रस अथवा मीठे सहिजनका रस ससर्पिष्कः प्रलेपः स्याच्छोथनिर्वापणः स्मृतः ॥६॥ पीना चाहिये ॥१७॥ आगन्ती शोणितोत्थे च एष एव क्रियाक्रमः। रोपणं तैलम्। दूब, नरसलकी जड़, मारेठी, चन्दन तथा समस्त शांतल प्रियगुधातकीलाधं कट्फलं तिनिशत्वचम् । पदार्थोंका लेप पित्तशोथ को नष्ट करता है। इसी प्रकार बरगद, एतैस्तैलं विपक्तव्यं विद्रधी रोपणं परम ॥१८॥ |गूलर, पीपल, पकरिया तथा वेतको छालको घीके साथ लेप ..करनेसे शोथकी दाह शान्त होती है । आगन्तुज तथा रक्तज प्रियंगु, धायके फूल, लोध्र, कैफरा तथा तिनिशकी छा-: शोथमें भी यही चिकित्सा करनी चाहिये ॥५॥६॥ लके कल्कसे सिद्ध तैल परम रोपण ( घाव भरनेवाला )। होता है ॥१८॥ कफजशोथचिकित्सा । इति विद्रध्याधिकारः समाप्तः । अजगन्धाऽश्वगन्धा च काला सरलया सह ॥७॥ एकेषिकाजशृङ्गो च प्रलेपः श्लेष्मशोथहा । अथ व्रणशोथाधिकारः। अजवाइन, असगन्ध, काला निसोथ, सफेद निसोथ, अगस्तिके फूल और काकड़ाशिंगीका लेप कफज शोथको नष्ट करता है ॥७॥सामान्यक्रमः। कफवातजशोथचिकित्सा । आदौ विम्लापनं कुर्याद् द्वितीयमवसेचनम् । पुनर्नवाशिग्रुदारुदशमूलमहौषधैः ॥ ८॥ तृतीयमुपनाहं च चतुर्थी पाटनक्रियाम् ॥ १॥ कफवातकृते शोथे लेपः कोष्णो विधीयते । पञ्चमं शोधनं चैव षष्ठं रोपणमिष्यते। पुनर्नवा, सहिजन, देवदारु, दशमूल तथा सोंठका कुछ एते क्रमा व्रणस्योक्ताः सप्तमो वैकृतापहः ॥२॥ गरम गरम लेप वातकफज शोथको नष्ट करता है ॥ ८॥व्रणशोथमें सबसे पहिले विम्लापन ( अंगुली आदिसे लेपव्यवस्था। घिसकर सूजन मिटाना ) करना चाहिये । व्रण शोथकी न रात्री लेपनं दद्यादत्तं च पतितं तथा ॥९॥ दूसरी अवस्थामें अवसेचन (शिराव्यध कर रक्त निकलना ), तीसरी अवस्था में पुल्टिस बांधनी, चौथी अवस्थामें फाड़ना न च पर्युषितं शुष्यमाणं नैवावधारयेत् । पांचवीं अवस्थामें शोधन, छठी अवस्थामें रोपण तथा सातवीं. शुष्यमाणमुपेक्षेत न लेपं पीडनं प्रति ॥ १०॥ अवस्थामें उपद्रवोंका नाश इस तरह व्रणशोथकी चिकित्साके | न चापि मुखमालिम्पेत्तेन दोषः प्रसिच्यते । क्रम हैं ॥ १-२॥ रात्रिमें लेप न लगाना चाहिये । एक बार लगाया लेप यदि गिर गया हो तथा वासी तथा रक्खे ही रक्खे सूखा वातशोथे लेपः। हुआ न लगाना । सूखता हुआ लेप छुड़ा डालना चाहिये। मातुलुङ्गाग्निमन्थौ च भद्रदारु महौषधम् । तथा व्रणके मुखपर लेप न लगाना चाहिये, जिससे मवाद अहिंस्रा चैव रास्ना च प्रलेपो वातशोथहा ॥ ३॥ निकलता रहे ॥९॥ १० ॥विजौरानिम्बू, अरणी, देवदारु, सोंठ, जटामांसी, और रासनका लेप वातशोथको नष्ट करता है ॥३॥ विम्लापनम् । स्थिरान्मन्दरुजः शोथान्स्नेहर्वातकफापहैः ॥११॥ अपरो लेपः। अभ्यज्य स्वेदयित्वा च वेणुनाडया ततः शनैः। कल्कः काजिकसम्पिष्टः स्निग्धः शाखोटकत्वचः ।। विम्लापनार्थ मृद्नीयात्तलेनाङ्गुष्ठकेन वा ॥१२॥ सुपर्ण इव नागानां वातशोथविनाशनः॥४॥ मन्द पीडायुक्त आधिक समयसे स्थिर शोथाको वातकफसिहोरेकी छालको काजीके साथ पीस मिलाकर लेप करनेसे नाशक स्नेहोंसे मालिश कर बांसकी नलीसे नाड़ीस्वेद करना नागोंको गरुड़के समान वातज शोथको नष्ट करता है ॥ ४ ॥ चाहिये । फिर तल अथवा अंगूठेसे विलयनके लिये रगड़ना - पित्तागन्तुजशोथलेपाः। चाहिये ॥११॥१२॥ दूर्वा च नलमूलं च मधुकं चन्दनं तथा। रक्तावसेचनम् । शीतलाश्च गणाः सर्वे प्रलेपः पित्तशोथहा ॥ ५॥ रक्तावसेचनं कुर्यादादावेव विचक्षणः। न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षवेतसवल्कलैः। शोथे महति संबद्धे वेदनावति च व्रणे ॥१३॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] यो न याति शमं लेपस्वेद से कापतर्पणैः । सोऽपि नाशं व्रजत्याशु शोथ: शोणितमोक्षणात् १४ एकतश्च क्रियाः सर्वा रक्तमोक्षणमेकतः । रक्तं हि व्यम्लतां याति तच्चेन्नास्ति न चास्ति रुक् ॥ १५ बड़ी जकड़ाहटयुक्त सूजन तथा पीडायुक्त व्रणमें पहले ही रक्तमोक्षण करना चाहिये । जो सूजन लेप, स्वेद, सेंक और लंघनसे शान्त नहीं होती, वह भी रक्तमोक्षणसे शीघ्र ही शान्त हो जाती है । व्रणशोथमें समस्त क्रिया एक ओर और रक्तमोक्षण एक ओर है, क्योंकि रक्त ही बिगड़ जाता विकृत रक्त निकल जानेपर पीड़ा भी नहीं रहती ॥ १३-१५ ॥ अतः भाषाटीकोपेतः । पाटनम् । स चेदेवमुपक्रान्तः शोथो न प्रशमं प्रजेत् । तस्योपनाहः पक्कस्य पाटनं हितमुच्यते ॥ १६ ॥ इस प्रकारकी चिकित्सा करनेपर भी यदि शोथ शान्त न हो, तो पुल्टिससे पकाकर चीर देना चाहिये ॥ १६ ॥ उपनाहाः । तैलेन सर्पिषा वापि ताभ्यां वा सक्तपिण्डिका । सुखोष्णः शोथपाकार्थमुपनाहः प्रशस्यते ॥ १७ ॥ सतिला सातसीबीजा दध्यग्ला सक्तपिण्डिका । सकिण्वकुष्ठलवणा शस्ता स्यादुपनाहने ।। १८ ।। तैलके साथ अथवा घीके साथ अथवा दोनों के साथ बनायी गयी सत्ती पिण्डीको गरम कर सूजन पकानेके लिये प्रयोग करना चाहिये । अथवा तिल, अलसी, दही, सत्तू, शराब किट, कूठ और नमककी पुल्टिस बनाकर बांधना चाहिये ॥१७॥ १८ ॥ गोदन्तप्रयोगः । बालवृद्धासह क्षीणभीरूणां योषितामपि । मर्मोपरि च जाते च पक्के शोथे च दारुणे । गवा दन्तं जले घृष्टं बिन्दुमात्रं प्रलेपयेत् ॥ १९ ॥ अत्यन्तकठिने चापि शोथे पाचनभेदनम् । बालक, वृद्ध, सुकुमार, क्षीण, डरपोक तथा स्त्रियों के पके हुए कठिन व्रण पर तथा मर्मस्थानपर उत्पन्न हुए व्रणपर गायका दांत जलमें घिसकर १ बिन्दु लगाना चाहिये । यह अत्यन्त कठिन शोथको भी पकाकर फोड़ देता है ॥ १९ ॥ सर्पनियोगः । कटुतैलान्वितैर्लेपात्सर्प निर्मोक भस्माभिः ॥ २० ॥ चयः शाम्यति गण्डस्य प्रकोपः स्फुटति द्रुतम् । सांप की केंचलकी भस्मको कडुए तेलके साथ मिलाकर लेप करनेसे शोथ के सचित दोष शान्त हो जाते हैं । तथा प्रकु"पत दोष फूट जाते हैं ॥ ३० ॥ ( १९९ ) दारणप्रयोगाः । चिरबिल्वानिको दन्ती चित्रको हयमारकः ॥२१॥ कपोतकं गृध्राणां पुरीषाणि च दारणम् । क्षारद्रव्याणि वा यानि क्षारो वा दारणः परः ॥ २२ द्रव्याणां पिच्छिलानां तु त्वमूलानि प्रपीडनम् । यवगोधूममाषाणां चूर्णानि च समासतः ॥ २३ ॥ कंक और गृध्रकी विष्ठा मिला गरम कर बान्धनेसे व्रण फूट कआ, चीतकी, जड़, दन्ती, अजमोद, कनैर तथा कबूतर, जाता है । अथवा क्षारद्रव्य अथवा केवल क्षारके प्रयोगसे व्रण फूट जाता है । इसीप्रकार लासेदार द्रव्योंके त्वचा और मूल तथा जव, गेहूँ और उड़दके चूर्णांका लेपन व्रणको फोड़ देता है ॥ २१-२३ ॥ प्रक्षालनम् । ततः प्रक्षालनं क्वाथः पटोलीनिम्बपत्रजः । अविशुद्धे विशुद्धे च न्यग्रोधादित्वगुद्भवः ॥ २४ ॥ पञ्चमूलद्वयं वाते न्यग्रोधादिश्च पैत्तिके । आरग्वधादिको योज्यः कफजे सर्वकर्मसु ॥ २५ ॥ यदि व्रण शुद्ध न हुआ हो, तो परवल व नीमकी पत्तियों के काथसे और यदि शुद्ध हो गया, तो न्यग्रोधादि पञ्चवल्कल काथसे धोना चाहिये । तथा वात में दशमूल, पितमें न्यग्रोधादि और कफ तथा सब कामोंके लिये आरग्वधादि गणका क्वाथ प्रयुक्त करना चाहिये ॥ २४ ॥ २५ ॥ तिलादिलेप: । तिलकल्कः सलवणो द्वे हरिद्रे त्रिवृद् घृतम् । मधुकं निम्बपत्राणि लेपः स्याद्रणशोधनः ॥ २६ ॥ तिलका कल्क, नमक, हल्दी, दारूहल्दी, निसोथ, घी, मोरेठी तथा नीमकी पत्तीको पीसकर लेप करनेसे व्रण शुद्ध होता है ॥ २६ ॥ व्रणशोधनलेपः । निम्बपत्रं तिला दन्ती त्रिवृत्सैन्धवमाक्षिकम् । दुष्टव्रणप्रशमनो लेपः शोधनकेशरी ॥ २७ ॥ एकं वा शारिवामूलं सर्वव्रणविशोधनम् । पटोलं तिलयष्टयाह्नत्रिवृद्दन्तीनिशाद्वयम् ॥ २८ ॥ निम्बपत्राणि चालेपः सपदुर्व्रणशोधनः । नीम की पत्ती, तिल, दन्ती, निसोथ, सेंधानमक, और | शहदका लेप दुष्ट व्रणको शान्त करता तथा शोधनमें श्रेष्ठ है । अथवा अकेले सारिवाकी जड़ समस्त व्रणोंको शुद्ध करती है । ऐसे ही परवलकी पत्ती, तिल, मोरेठी, निसोथ, दन्ती, हल्दी, दारूहल्दी और नीमकी पत्तीको पीस नमक मिलाकर लेप करनेसे व्रण शुद्ध होता है ॥ २७ ॥ २८ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [प्रणशोथा Horroriorrenior शोधनरोपणयोगाः। सूक्ष्म मुखवाले मर्म और सन्धिगत व्रणोंके भीतर बत्ती रख. त्रिफला खदिरो दार्वी न्यग्रोधादिर्बला कुशाः॥२९॥ | कर उन्हें शुद्ध करना चाहिये । तथा बड़ी हर्रका छिल्का, निम्बकोलकपत्राणि कषायः शोधने हितः । । निसोथ, दन्ती, करियारी, शहद, सेंधानमक, कालाजीराके पत्र, अपेतपूतिमांसानां मांसस्थानामरोहताम् ॥ ३०॥ लाल चन्दन, बबई और मरुवा इनमेंसे किसी एकके लेप करनेसे गम्भीर व्रण शुद्ध होते हैं । अथवा शुक्तिचूर्णके साथ पञ्चवल्कल कल्कः संरोपणः कार्यस्तिलानां मधुकान्वितः।। चूर्णसे अथवा धायके चूर्ण व लोधसे वे घाब भर जाते निम्बपत्रमधुभ्यां तु युक्तः संशोधनः स्मृतः ॥३१॥ हैं ॥ ३६-३८ ॥ पूर्वाभ्यां सर्पिषा वापि युक्तश्चाप्युपरोहणः। निम्बपतिलैः कल्को मधुना क्षतशोधनः । दाहादिचिकित्सा। रोपणः सर्पिषा युक्तो यवकल्केऽज्ययं विधिः॥३२॥| सदाहा वेदनावन्तो व्रणा ये मारुतोत्तराः । निम्बपत्रघृतक्षौद्रदा/मधुकसंयुता । तेषां तिलानुमांश्चैव भृष्टान्पयसि निवृतान् ॥३९ ।। वर्तिस्तिलानां कल्को वा शोधयेद्रोपयेद्रणम् ॥३३॥ तेनैव पयसा पिष्ट्वा दद्यादालेपनं भिषक् । त्रिफला, कत्था, दारुहल्दी, न्यग्रोधादि गणकी औषधियां, वाताभिभूतान्सास्रावान्धूपयेदुग्रवेदनान् ॥ ४० ॥ खरेटी तथा कुश, नीम व बेरीकी पत्तीका क्वाथ व्रणको शोधन जो व्रण दाह और वेदनाके सहित तथा वातप्रधान हों, उनमें करता है। इससे मांसस्थ, दुर्गन्धितमांसयुक्त न भरनेवाले व्रण | तिल और अलसीको भून दूधमें पका उसी दूधके साथ पीसकर शुद्ध होते हैं। इसी प्रकार तिलका कल्क मौरेठीके चूर्णके साथ | लेप करना चाहिये । तथा वातप्रधान स्राव युक्त उग्र वेदनावाले घावको भरता हैं। तथा नीमकी पत्ती व शहद उसी में मिला|वणांको धुपाना चाहिये ॥ ३९ ॥ ४०॥ देनेसे शोधन करता है । अथवा पूर्वकी ओषधियां तिल व यवादिधूपः। मुलेठी घी मिलाकर लगानेसे घाव भरता है। इसी प्रकार नीमकी पत्ती और तिलका कल्क शहदके साथ घावको शुद्ध करता तथा यवाज्यभूर्जमदनश्रीवेष्टकसुराहयः। घीके साथ घावको भरता है । तथा यवकल्कमें भी यही विधि श्रीवासगुग्गुल्वगुरुशालनिर्यासधूपिताः ॥४१॥ है। इसी प्रकार नीमकी पत्ती, घी, शहद, दारुहल्दी और मौरे-1 कठिनत्वं व्रणा यान्ति नश्यन्त्युग्राश्च वेदनाः॥४२॥ ठीकी बत्ती अथवा तिलका कल्क घावको शुद्ध कर भरता | यव, घी, भोजपत्र, मैनफल, गन्धा बिरोजा, देवदारु, लोहहै॥ २९-३३॥ |वान, गुग्गुलु, अगर तथा रालकी धूप देनेसे व्रण कड़े हो जाते हैं रोपणयोगा। और उग्र पीड़ा शान्त होती है ॥४१॥ ४२॥ सप्तदलदुग्धकल्कः शमयति दुष्टत्रणं प्रलेपेन । । व्रणदाहनो लेपः। मधुयुक्ता शरपुडा सर्वव्रणरोपणी कथिता ॥३४॥ तिलाः पयः सिता क्षौद्र तैलं मधुकचन्दनम् । मानुषशिरः कपालं तदस्थि वा लेपयेत मूत्रेण । | लेपनं शोथरुग्दाहरक्त निर्वापयेगणात् ॥ ४॥ रोपणमिदं क्षतानां योगशतैरप्यसाध्यानाम् ॥३५॥ सप्तच्छदके दूधका लेप व्रणको शांत करता है। इसी प्रकार तिल, दूध, मिश्री, शहद, तैल, मारठी, तथा चन्दनका |लेप व्रणके शोथ, पीड़ा शहदके साथ शरपुंखा समस्त घावोंको भरती है । मनुष्यके और दाह व लालिमाको शान्त शिरका खपड़ा अथवा दूसरी हड्डी गोमूत्रके साथ पीसकर करता है ॥ ४३ ॥ छेप करनेसे अनेक योगोंसे असाध्य घाव शांत हो जाते | अग्निदग्धव्रणचिकित्सा । हैं॥३४॥३५॥ पित्तबिद्रधिवीसर्पशमनं लेपनादिकम् । सूक्ष्मास्यव्रणचिकित्सा । अग्निदग्धे व्रणे सम्यक्प्रयुञ्जीत चिकित्सकः।। व्रणान्विशोधयेद्वा सूक्ष्मास्यान्मर्मसन्धिगान् । | महाराष्ट्रीजटालेपो दग्धपिष्टावचूर्णितम् । अभयात्रिवृतादन्तीलागलीमधुसैन्धवैः ॥ ३६ ॥ जीर्णगेहतृणाच्चूर्ण दग्धव्रणहितं मतम् ॥ ४५ ॥ सुषवीपत्रपत्तूरकर्णमोटकुठेरकैः। अग्निदग्धज-व्रणमें पित्तज विद्राधि और विसर्प शांत करनेवाले । पृथगेते प्रलेपेन गम्भीरव्रणरोपणाः ।। ३७ ॥ णाः ।। ३७॥ लेपादिका प्रयोग अच्छी तरहसे वैद्यको करना चाहिये । तथा पञ्चवल्कलचूर्णैर्वा शुक्तिचूर्णसमन्वितैः । अलपिप्पलीका लेप अथबा पुराने मकानोंके तृणको जला पीसकर धातकीचूर्णलोधैर्वा तथा रोहन्ति ते व्रणाः ॥३८॥ लेप करना जले हुए व्रणों के लिये हितकर है ॥४४॥ ४५ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः ] भाषाको पैतः । जीरकघृतम् । नीर कल्कं पश्चात्सिक्थक सर्जरसमिश्रितं हरति । घृतमभ्यङ्गात्पावकद्ग्धजदुःखं क्षणार्धेन ॥ ४६ ॥ जीरा के कल्कसे सिद्ध घृतमें मोम व राल मिलाकर लगाने से अदिग्ध दुःख क्षण भरमें शान्त हो जाता है ॥ ४६ ॥ विविधा योगाः । । अन्तर्दग्ध कुठेरको दहनजं लेपान्निहन्ति व्रणमश्वत्थस्य विशुष्कवल्कलकृतं चूर्ण तथा गुण्डनात् अभ्यङ्गाद्विनिहन्ति तैलमखिलं गण्डूपदेः साधितं पिष्ट्वा शाल्मलितूलकैर्जलगता लेपात्तथा वालुका४७ अन्तर्दग्ध सफेद तुलसीका लेप करनेसे अभिसे जले व्रण शांत होते हैं। तथा पीपलकी सूखी छालके चूर्णको उर्रानेसे भी शान्ति होती है । तथा केचुवोंसे सिद्ध तैल अग्नि दग्धज समग्र पीड़ा शान्त करते हैं । तथा सेमरकी रुईके साथ बालूको जलमें पीसकर लेप करनेसे शान्ति होती है ॥ ४७ ॥ सद्योव्रणचिकित्सा | सद्यः क्षतत्रणं वैद्यः सशूलं परिषेचयेत् । यष्टीमधुककल्केन किश्चिदुष्णेन सर्पिषा ॥ ४८ ॥ बुद्ध्वागन्तुव्रणं वैद्यो घृतं क्षौद्रसमन्वितम् । शीतां क्रियां प्रयुञ्जीत पित्तरक्तोष्मनाशिनीम् ॥ ४९ ॥ कान्तक्रामकमेकं सुश्लक्ष्णं गव्यसर्पिषा पिष्टम् । शमयति लेपान्नियतं व्रणमागन्तूद्भवं न सन्देहः ५० अपामार्गस्य संसिक्तं पत्रोत्थेन रसेन वा । सद्योव्रणेषु रक्तं तु प्रवृत्तं परितिष्ठति ॥ ५१ ॥ कर्पूरपूरितं बद्धं सघृतं संप्ररोहति । सद्यः शस्त्रक्षतं पुंसां व्यथापाकविवर्जितम् ॥५२॥ शरपुंखा काकजंघा प्रसूतमहिषीमलम् । लज्जावती च सद्यस्कत्रणघ्नं पृथगेव तु ॥ ५३ ॥ जिह्वाकृतचूर्णः सद्यः क्षतविरोहणः । वक्रतैलं क्षते विद्धे रोपणं परमं मतम् ॥ ५४ ॥ शूलयुक्त व्रण सद्योव्रण ( तत्काल लगे घाव ) में मौरेठीसे सिद्ध घीका कुछ गरम गरम सिंचन करना चाहिये । तथा वैद्य आगन्तुकत्रण जानकर उसमें प्रथम घी व शहदको लगावे । फिर पित्तरक्त और गर्मी नष्ट करनेवाली शीतल चिकित्सा करे। एक नागरमोथाकी जड़ गायके घीके साथ पीसकर लेप करनेसे आगन्तुक व्रण निःसन्देह नष्ट होता है । तात्कालिक घावके बहते हुए रक्तको लटजीरे के पत्तों के रससे सिश्चन कर रोकना चाहिये । तथा साथ कपूर भरकर बान्ध देनेसे घाव भर जाता । पुरुषोंके सद्योत्रण जिनमें पीड़ा नहीं होती या जो पके नहीं हैं, उनको ( २०११ शरपुंखा, काकजंघा, ब्याई भैसीका गोबर तथा लज्जावती ये सब | अलग अलग तत्काल शान्त करते हैं । कुत्तेकी जिह्वाका चूर्ण सद्योत्रणको भरता है । तथा चक्रतैल ( ताजा तैल) क्षत तथा विन्धेको भरनेवाला है ॥ ४८-५४ ॥ नष्टशल्यचिकित्सा | यवक्षारं भक्षयित्वा पिण्डं दद्याद्रणोपरि । शृगालकोलिमूलेन नष्टशल्यं विनिः सरेत् ॥ ५५ ॥ लाङ्गली मूललेपाद्वा गवाक्षीमूलतस्तथा । जवाखार खाकर घावके ऊपर छोटे बेरकी जड़का कल्क रखना चाहिये । इससे नष्ट शल्य निकल आता है। इसी प्रकार कलिहारी की जड़के लेप तथा इन्द्रायणकी जड़के लेपसे भी नष्ट शल्य निकल आता है ॥ ५५ ॥ - विशेष चिकित्सा | क्षतोष्मणो निग्रहार्थं तत्कालं विसृतस्य च ॥ ५६ ॥ कषायशीतमधुराः स्निग्धा लेपादयो हिताः । आमाशयस्थे रुधिरे वमनं पथ्यमुच्यते ॥ ५७ ॥ पक्काशयस्थे देयं च विरेचनमसंशयम् । काथो वंशत्वरण्डश्वदंष्ट्राश्मभिदा कृतः ॥ ५८ ॥ सहिंगुसैन्धवः पीतः कोष्ठस्थं स्रावयेदसृक् । यवकोलकुलत्थानां निःस्नेहेन रसेन च ॥ ५९ ॥ भुंजीतान्नं यवागूं वा पिबेत्सैन्धवसंयुताम् । अत्यर्थमत्रं स्रवति प्रायशो यत्र विक्षते ॥ ६० ॥ ततो रक्तक्षयाद्वायौ कुपितेऽतिरुजाकरे । स्नेहपानं परीषेक स्नेहले पोपनाहनम् ॥ ६१ ॥ स्नेहवस्ति च कुर्वीत वातन्नौषधसाधिताम् । इति साप्ताहिकः प्रोक्तः सद्योत्रणहितो विधिः॥ ६२॥ सप्ताहात्परतः कुर्याच्छारीरव्रणवत्क्रियाम् । तत्काल लगे हुए घावकी गर्मी शान्त करनेके लिये तथा रक्तको रोकनेके लिये कषैले, ठण्ढ़े, मधुर, तथा चिकने लेपादिक हितकर हैं । आमाशय में यदि रक्त भर गया हो, तो वमन कराना चाहिये । तथा पक्वाशय में भरे रक्तको निकालने के लिये विरेचन देना चाहिये । बांसकी छाल, एरण्ड, गोखरू व पाषाणभेदका क्वाथ हींग व सेंधानमक मिलाकर पीनेसे कोष्ठ में भरा हुआ रक्त बह जाता है । तथा यव, बेर व कुलथी के स्नेहरहित रससे भोजन करे । अथवा इन्हीं की यवागूमें सेंधानमक मिलाकर पीने । तथा अधिक रक्त बह जानेपर वायु कुपित होकर जिस व्रणमें पीड़ा अधिक करे, उसमें स्नेहपान, स्नेहसिश्चन तथा स्निग्ध पदार्थों का लेप व उपनाहन करना चाहिये । तथा वातनाशक औषधियों से सिद्ध क्वाथ करके लेहबस्तिका प्रयोग करना चाहिये । यह सात Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) चक्रदत्तः। [व्रणशोथा म दिनतक सद्योत्रणमें करने योग्य चिकित्सा बतायी है । सप्ताहके | सर्पिषा वटकीकृत्य खादेद्वा हितभोजनः । अनन्तर शारीरव्रणके समान चिकित्सा करनी चाहिये॥५६-६२॥ दुष्टव्रणापचीमेहकुष्ठनाडीव्रणापहः ॥७॥ व्रणक्रिमिचिकित्सा। वायविडंग, त्रिफला, तथा त्रिकटुका चूर्ण समान भाग करजारिष्टनिर्गुडीरसो हन्याद्रणक्रिमीन् ॥ ६३॥ | गुग्गुलुके साथ घी मिला गोली बनाकर पथ्य भोजनके साथ खाते रहनेसे दुष्टव्रण, अपची, प्रमेह, कुष्ठ और नाडीव्रण नष्ट कलायविदलीपत्रं कोषाम्रास्थि च पूरणात् । होते हैं ॥ ६९ ॥७०॥ सुरसादिरसैः सेको लेपनं स्वरसेन वा ॥ ६४॥ निम्बसम्पाकजात्यर्कसप्तपर्णाश्ववारकाः। अमृतागुग्गुलुः। क्रिमिना मूत्रसंयुक्ताः सेकालेपनधावनैः ॥६५॥ अमृतापटोलमूलत्रिफलात्रिकटुक्रिमिनानाम् । प्रच्छाद्य मांसपेश्या वा क्रिमीनपहरेद्रणात् । । समभागानां चूर्ण सर्वसमो गुग्गुलोर्भागः ।।७१॥ लशुननाथवा दद्याल्लेपनं क्रिमिनाशनम् ॥६५॥ प्रतिवासरमेकैकां गुडिकां खादेद् द्रंक्षणप्रमाणाम् । कक्षा, नीम और सम्भालूके पत्तोका रस घावके कीडोंको जेतुंबणान्वातरक्तगुल्मोदरश्वयथुपाण्डुरोगादीन् ७२ मारता है। इसी प्रकार मटरकी पत्ती तथा छोटे आमकी गुठलीका| गुर्च, परवलकी जड़, त्रिफला, त्रिकटु, तथा वायविलेप अथवा तुलसी आदिके रसका सेक अथवा लेप क्रिमियोंको डंग प्रत्येक समान भाग चूर्ण कर सबके समान गुग्गुलु मिला नष्ट करता है। इसी प्रकार नीमकी छाल, अमलतास, चमेली, प्रतिदिन १ तो० की मात्राका सेवन करनसे व्रण, वातरक्त, आक, सातवन तथा कनैरको पीस गोमूत्रमें मिलाकर सिञ्चन, लेप गुल्म, उदर, सूजन तथा पांडु आदि रोग नष्ट होते हैं॥७१॥७२॥ तथा प्रक्षालन करनेसे क्रिमि नष्ट हो जाते हैं। अथवा घावके जात्यायं घृतम् । ऊपर मांसका टुकड़ा रखना चाहिये, उसमें जब क्रिमि चिपट जायँ, तब उसे घावके ऊपरसे हटा देना चाहिये। अथवा जातीनिम्बपटोलपत्रकटुकादा/निशाशारिवालहसुनका लेप करना चाहिये । इससे क्रिमि नष्ट हो मजिष्ठाभयतुत्थसिक्थमधुकनेक्ताहबीजेः समः। जाते हैं ॥ ६३-६६ ॥ सर्पिः सिद्धमनेन सूक्ष्मवदना मर्माश्रिताः स्राविणो गम्भीराःसरुजो व्रणाःसगतिकाःशुष्यन्ति रोहति च ७३ त्रिफलागुग्गुलुवटकः। चमेली अथवा जावित्री, नीम तथा परवलकी पत्ती, कुटकी, ये क्लेदपाकसुतिगन्धवन्तो दारुहल्दी, हल्दी, शारिवा, मजीठ, खश, तूतिया, मोम, व्रणा महान्तः सरुजः सशोथाः । | मौरेठी, कजाके बीज प्रत्येक समान भागका. कल्क मिलाकर प्रयान्ति ते गुग्गुलुमिश्रितेन सिद्ध किया गया घृत सूक्ष्ममुखवाले, मर्मस्थानके, बहते पीतेन शान्ति त्रिफलारसेन ॥ ६७॥ हुए, गहरे, पीडायुक्त नासूर सूख जाते तथा भर जाते हैं॥७३॥ जो व्रण सड़े, पके, स्राव, गन्ध, पीड़ा तथा शोथयुक्त | गौराद्यं घृतं तैलं च । होते हैं, वे गुग्गुल मिलाकर त्रिफलारसको पानसे शान्त हो। जाते हैं ॥६ ॥ गारा हरिद्रा मजिष्ठा मांसी मधुकमेव च । प्रपोण्डरीकं हीबेरं भद्रमुस्तं सचन्दनम् ॥ ७४॥ त्रिफलागुग्गुलुवटकः। जातीनिम्बपटोलं च करजं कटुरोहिणी । त्रिफलाचूर्णसंयुक्तो गुग्गुलुर्वटकीकृतः। मधूच्छिष्टं समधुकं महामेदा तथैव च ॥ ७५ ॥ नियन्त्रणो विबन्धनो व्रणशोधनरोपणः॥६८॥ | पञ्चवल्कलतोयेन घृतप्रस्थं विपाचयेत् । अमृतागुग्गुलुः शस्तो हितं तैलं च वज्रकम् । एष गौरो महावीर्यः सर्वव्रणविशोधनः ॥ ७६ ॥ त्रिफला चूर्णके साथ गुग्गुलुकी बनायी हुई गोलियोंका आगन्तुः सहजश्चैव सुचिरोत्थाश्च ये व्रणाः । सेवन करनेमें कोई पथ्यका यन्त्रण नहीं है। इससे विबन्ध नष्ट विषमामपि नाडी च शोधयेच्छीघ्रमेव च ॥ ७७॥ होता, घाव शुद्ध होकर भरता है । तथा इसमें अमृतागुग्गुलु व | गौराद्यं जातिकाद्यं च तैलमेवं प्रसाध्यते । बज्रक तैल हितकर हैं ॥ ६८ ॥- . तैलं सूक्ष्मानने दुष्टे व्रणे गम्भीर एव च ॥ ७८॥ विडंगादिगुग्गुलुः। गोरोचन, हल्दी, मजीठ, जटामांसी, मौरेठी, पुण्डरिया, विडङ्गत्रिफलाव्योषचूर्ण गुग्गुलुना समम् ॥ ६९॥ सुगन्धवाला, नागरमोथा, चन्दन, चमेली अथवा जावित्रा, Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाकोपेतः । चिकारः ] नीमकी पत्ती, परवलकी पत्ती, कजा, कुटकी, मोम, मौरेठी तथा महामेदाका कल्क व पञ्चवल्कलका काथ मिलाकर १ प्रस्थ घृत पकाना चाहिये । यह 'गौरादि घृत' महाशक्तिशाली, समस्त व्रणोंको शुद्ध करनेवाला, आगन्तुक, सहज ( जन्मसे ही होनेवाले ) पुराने घावोंको तथा नासूरको भी शुद्ध करता है । इसी प्रकार गौरादि और जात्यादि तैल भी सिद्ध किया जाता है। तल सूक्ष्म मुखवाले, दुष्ट और गम्भीर प्रणको शान्त करता है ॥ ७४-७८ ॥ के पत्ते, तथा कच्चे फल, चमेली के पत्ते, परबल और नीम की पत्ती, हल्दी, दारूहल्दी, मोम, मोरेठी, कुटकी, मजीठ, चन्दन, खश, नीलोफर, सारिवा, काली सारिवा तथा निसोथ, प्रत्येकका एक एक तोला कल्क छोड़ १ प्रस्थ घृत पकाना चाहिये । यह घृत दुष्ट व्रणोंको शान्त करता तथा नाडीव्रणको शुद्ध करता और सयोव्रणोंको हितकर है ॥ ७९-८१ ॥ प्रपौण्डरीकाद्यं घृतम् । प्रपौण्डरीकमञ्जिष्ठामधुकोशीर पद्मकैः । सहरिद्रेः शृतं सर्पिः सक्षीरं व्रणरोपणम् ॥ ८२ ॥ करंजाद्यं घृतम् । तलवारके घाव, बड़े गलगण्ड, उपदंश, नाडीव्रण, व्रण, नक्तमालस्य पत्राणि तरुणानि फलानि च । | विचर्चिका, कुष्ठ तथा पामाको शान्त करता है । इसमें इच्छासुमनायाश्च पत्राणि पटोलारिष्टयोस्तथा ॥ ७९ ॥ नुसार सोना, बैठना और भोजन करना चाहिये ( इसमें तैल | कडुआ ही लेना चाहिये ) ॥ ८४ ॥ ८५ ॥ अङ्गारकं तैलम् | हरिद्रे मधूच्छिष्टं मधुकं तिक्तरोहिणी । मञ्जिष्ठाचन्दनोशीरमुत्पलं शारिवे त्रिवृत् । एतेषां कार्षिकैर्भागैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ८० ॥ दुष्टत्रणप्रशमनं तथा नाडीविशोधनम् । सद्यरिछन्नव्रणानां च करञ्जाद्यमिहेष्यते ॥ ८१ ॥ कुठारकात्पलशतं साधयेन्नत्वणेऽम्भसि । तेन पादावशेषेण तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ८६ ॥ कल्कैः कुठारापामार्गप्रोष्ठिकामक्षिकायुतेः । एतदंगारकं नाम व्रणशोधन रोपणम् । नाडीषु परमोभ्यंगो निजास्वागन्तुकीषु च ॥८७॥ पुण्ड़रिया, मजीठ, मौरेठी, खश, पद्माख तथा हल्दकि कल्क और दूधके साथ सिद्ध घृत घावको भरता है ॥ ८२ ॥ तिक्ताद्यं घृतम् । तिक्ता सिक्थनिशायष्टी नक्ताहफलपल्लवैः । पटोलमालतीनिम्बपत्रैर्व्रण्यं घृतं पचेत् ॥ ८३ ॥ कुटकी, मोम, हल्दी, मौरेठी, कजाके फल और पत्ती तथा परवल, चमेली और नीमकी पत्तीसे सिद्ध घृत घाबके लिये हितकर है ॥ ८३ ॥ ( २०३ ) विपरीत मलतैलम् । सिन्दूरकुष्ठ विषहिंगुर सोनचित्रबाणाङ्घ्रिलांगलिककल्कविपक्कतैलम् । . प्रासादमन्त्रयुतफूत्कृतनुन्नफेनो दुष्टत्रणप्रशमनो विपरीत मल्लः ॥ ८४ ॥ खड्गाभिघातगुरुगण्डमहोपदंशनाडीव्रणत्रणविचर्चिककुष्ठपामाः । एतान्निहन्ति विपरीत कमल्लनाम तैलं यथेष्टशयनासनभोजनस्य ॥ ८५ ॥ सिंदूर, कूठ, सोंगिया, हींग, लहसुन, चीतकी जड़, मूञ्जकी जड़ तथा कलिहारीके कल्कसे सिद्ध तैल, जिसका | फेन प्रसन्नताकारक मन्त्रोंसे फूंक डालकर शान्त किया गया है। दुष्ट व्रणोंको शान्त करनेवाला " विपरीत मल्लनामक" है । यह कुठारक ( बबई ) ५ सेर, जल २५ सेर ९॥ छ० मिलाकर पकाना चाहिये । चतुर्थाश शेष रहनेपर उतार छानकर तैल १ प्रस्थ ( १२८ तो० ) तथा बबई, लटजीरा, प्रोष्ठिका मछली भेद, तथा मक्षिकाका कल्क मिलाकर पकाना चाहिये । इसे "अङ्गारक तैल” कहते हैं । यह शारीर तथा आगन्तुक व्रण या नाडीव्रणके लिये परमोत्तम है ॥ ८६ ॥ ८७ ॥ प्रपौण्डरीकाद्यं तैलम् । प्रपौण्डरीकं मधुकं काकोल्यो द्वे सचन्दने । सिद्धमेभिः समं तैलं तत्परं व्रणरोपणम् ॥ ८८ ॥ पुण्डरिया, मौरेठी, काकोली, क्षीरकाकोली तथा चन्दनके | कल्कसे सिद्ध तैल घावका रोपण करता है ॥ ८८ ॥ दूर्वाद्यं तैलं घृतं च । दूर्वास्वरससिद्धं वा तैलं कम्पिल्लकेन च । दात्वचश्च कल्केन प्रधानं रोपणं व्रणे ॥ ८९॥ येनैव विधिना तैलं घृतं तेनैव साधयेत् । रक्तपित्तोत्तरं ज्ञात्वा सर्पिरेवावचारयेत् ॥ ९० ॥ दूर्वा के स्वरस तथा कवीला और दारूहल्दीकी छालके कल्कसे | सिद्ध तैल घावको भरता है । जिस विधिसे तैल लिखा है, उसी विधिसे घृत भी पकाना चाहिये और रक्तपित्त प्रधान समझकर घीका हो प्रयोग करना चाहिये ॥ ८९ ॥ ९० ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५) चक्रदत्तः। (नाडीव्रणा मञ्जिष्ठाचं घृतम्। रोमसञ्जननो लेपः। मजिष्ठां चन्दनं मूळ पिष्ट्वा सपिर्विपाचयेत् । चतुष्पदा हि त्वग्रोमखुरशृङ्गास्थिभस्मना । सर्वेषामग्निदग्धानामेतद्रोपणमिष्यते ॥ ९१॥ | सैलाक्ता चूर्णिता भूमिर्भवद्रोमवती पुनः ॥ ९८॥ मजीठ, चन्दन, तथा मुर्वाके कल्कसे सिद्ध घृत समस्त | चौपायोंकी खाल, रोम, खुर, शृंग और हड्डियोंकी भस्मअग्निसे जले हुए धावोंके लिये लाभदायक होता है ॥५१॥ को तैलमें मिलाकर लगानेसे व्रणवाले स्थानपर रोम जम पाटलीतैलम् । जाते हैं ॥ ९८ ॥ सिद्धं कषायकल्काभ्यां पाटल्याः कटुतैलकम् । । व्रणग्रन्थिचिकित्सा। दग्धव्रणरुजानावदाहविस्फोटनाशनम् ॥ ९२ ॥ | व्रणग्रन्थि प्रन्थिवश्च जयेत्क्षारेण वा भिषक् ॥१९॥ घावकी गांठकी चिकित्सासे अथवा प्रयोगसे व्रणप्रन्थिको शान्त पाढ़लके काथ व कल्कसे सिद्ध कडुआ तैल जले व्रणोंकी | करना चाहिये ॥१९॥ पीड़ा, स्राव, जलन व फफोलोंको नष्ट करता है ॥ ९२॥ | इति व्रणशोथाधिकारः समाप्तः। चन्दनायं यमकम् ।। चन्दनं वटशङ्ख च मञ्जिष्ठा मधुकं तथा। अथ नाडीव्रणाधिकारः। प्रपौण्डरीकं मूर्वा च पतङ्गं धातकी तथा ॥ ९३ ॥ एभिस्तलं विपक्तव्यं सर्पिःक्षीरसमन्वितम् । आग्निदग्धव्रणेष्विष्टं म्रक्षणाद्रोपणं परम् ॥ ९४ ॥ नाडीव्रणचिकित्साक्रमः। चन्दन, वरगदके कोमल अंकुर, मजीठ, मौरेठी, पुण्ड-| नाडीनां गतिमन्विष्य शस्त्रेणापाटय कर्मवित् । रिया, मूर्वा, लाल चन्दन तथा धायके फूल इनका कल्क| सर्वव्रणक्रमं कुर्याच्छोधनं रोपणादिकम् ॥१॥ छोड़कर तैल, घी और दूध मिलाकर पकाना चाहिये। नाड़ी ( नासूर ) की गतिका पता लगा शस्त्रसे चीरयह स्नेह लगानेसे अग्निदग्धव्रण शीघ्र भर जाते हैं ॥कर शोधन तथा रोपणादि समस्त प्रणचिकित्सा करनी ॥९३ ॥९॥ चाहिये ॥१॥ मनःशिलादिलेपः। वातजचिकित्सा। मनःशिलाले मजिष्ठा सलाक्षा रजनीद्वयम् । | नाडी वातकृतां साधुपाटितां लेपयेद्भिषक् । प्रलेपः सघृतक्षौद्रस्त्वग्विशुद्धिकरः परः ॥ ९५ ॥ | प्रत्यक्पुष्पीफलयुतस्तिलैः पिष्टैः प्रलेपयेत् ॥२॥ मनशिल, हरताल, मजीठ, लाख, हल्दी व दारुहल्दी, इनका | बातज-नाडीको ठीक चीरकर लटजीराके फल और तिलको घी व शहदके साथ लेप त्वचाको शुद्ध करता है ॥ ९५॥ पीसकर लेप करना चाहिये ॥२॥ अयोरजआदिलेपः। पित्तकफशल्यचिकित्सा । पैत्तिकी तिलमखिष्ठानागदन्तीनिशायुगैः। अयोरजः सकाशीशं त्रिफलाकुसुमानि च । श्लैष्मिकी तिलयष्टयाह्वनिकुम्भारिष्टसैन्धवैः। प्रलेपः कुरुते काये सद्य एव नवत्वचि ॥ ९६॥ शल्यजां तिलमध्वाज्यैलेपयेच्छिन्नशोधिताम् ॥३॥ लोहचूर्ण, काशीस तथा त्रिफलाके फूलोंका लेप नवीन त्वचा-1 पित्तज-नासूरमें तिल, मजीठ, नागदमन, हल्दी तथा को काला करता है ॥ १६ ॥ दारुहल्दीको पीसकर तथा कफजमें तिल, मौरेठी, दन्ती, नीम तथा सेंधानमकको पीसकर लेप करे तथा शल्यजन्यको भी सवर्णकरणो लेपः। पूर्ववत् चीरकर तथा शोधन कर तिल, मधु और घृतसे लेप कालीयकलताम्रास्थिहेमकालारसोत्तमैः। करना चाहिये ॥३॥ लेपः सगोमयरसः सवर्णकरणः परः॥९७॥ दारुहल्दी, दूब, आमकी गुठली, नागकेशर, कालानिशोथ सूत्रवर्तिः। तथा रसौतका गोबरके रसके साथ लेप करनेसे त्वचा समान-| आरग्वधनिशाकालाचूर्णाज्यक्षौद्रसंयुता । वर्णवाली होती है ॥ ९७ ॥ सूत्रवर्तित्रणे योज्या शोधनी गतिनाशिनी ॥४॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विकारः]] भाषाटीकोपेतः। (२०५७ - न्न्न्न् अमलतास, हल्दी तथा निसोथके चूर्णको घी और शहदमें| अर्बुदादिषु चोरिक्षप्य मूले सूत्रं निधापयेत् । मिला लपेटकर बनायी गई सूत्रवर्ती (व्रणके अन्दर भरनेसे ).. सूचीभिर्यववकाभिराचितं चासमन्ततः ॥ १३ ॥ व्रणको शुद्धकर नासूरको नष्ट करती है ॥ ४ ॥ मूले सूत्रेण बनीयाच्छिन्ने चोपचरेद् प्रणम् । वर्तयः। पतले, कमजोर, डरपोक पुरुषोंकी नाड़ी तथा जो मर्मस्था. घोण्टाफलत्वङ् मदनात्फलानि नमें हुई है, उसे शस्त्रसे कभी न काटना चाहिये । पता लगाने वाली सलाईसे कहांतक नाड़ीकी गति अर्थात् 'पूयकी उत्पत्ति पूगस्य च त्वक् लवणं च मुख्यम् । हो गयी है, इसका पता लगाकर उतना ही लम्बा क्षारसूत्र लुह्यर्कदुग्धेन सहेष कल्को सूचीके द्वारा अन्दर रखना चाहिये । और सुईको कुछ ऊपर - वर्तीकृतो हन्त्यचिरेण नाडीम् ।। ५॥ उठाकर निकाल लेना चाहिये । तथा सूत्र निकल न जाय, इस वर्तीकृतं माक्षिकसंप्रयुक्त लिये ऊपरसे कसकर बांध देना चाहिये । तथा जन सूत्रमें नाडीनमुक्तं लवणोत्तमं वा। क्षारकी शक्तिकी शिथिलता प्रतीत होने लगे, तब दूसरा क्षारसूत्र दुष्टवणे यद्विहितं च तैलं प्रविष्ट करना चाहिये, जबतक गति कट न जावे । भगन्दरमें तत्सेव्यमानं गतिमाशु हन्ति ॥६॥ भी यही चिकित्सा वैद्यको करनी चाहिये । अर्बुद आदिके जात्यर्कसम्पाककर जदन्ती ऊपर उठाकर चारों ओर यवके समान मुखवाली सुइयोंसे कससिन्धूत्थसौवर्चलयावशूकैः। कर क्षारसूत्रसे बान्धना चाहिये । तथा कस जानेपर व्रणके समान वर्तिः कृता हन्त्यचिरेण नाडी चिकित्सा करनी चाहिये।९-१३॥ स्नुकारापिष्टा सह माक्षिकेण ॥७॥ सप्ताङ्गगुग्गुलु बेरके फल और छाल, मैनफल, सुपारीकी छाल तथा गुग्गुलुखिफळाव्योषैः समशैिराज्ययोजितः। सेंधानमकके कल्कमें सेहुण्ड. और आकका दुग्ध मिला| नाडीदुष्टव्रणशूलभगन्दरविनाशनः ॥१४॥ कर बनायी गयी बत्ती शीघ्र ही नासूरको नष्ट करती है । गुग्गुलु, त्रिफला तथा त्रिकटुका समान भाग ले घी मिला तथा केवल सेंधानमककी बत्ती बना शहद मिलाकर रखनेस | सेवन करनेसे नाड़ी, दुष्टवण, शूल और भगन्दर नष्ट होत नासूर ठीक हाता है। इसी प्रकार दुष्ट व्रणके लिये जो है तैल कहे हैं, वे भी नासूरको शुद्ध करते हैं । तथा चमेली, आक, कजा, अमलतास, दन्ती, सेंधानमक, कालानमक सर्जिकाचं तैलम् । और जवाखारको पीस सेहुण्डदुग्ध और शहद मिलाकर लगानसे | सर्जिकासिन्धुदन्त्यनिरूपिकानलनीलिका । नासूर नष्ट होता है ॥ ५-७॥ खरमचरिबीजेषु तैलं गोमूत्रपाचितम् ।। कंगुनिकामूलचूर्णम् । दुष्टत्रणप्रशमनं कफनाडीव्रणापहम् ॥ १५ ॥ माहिषदधिकोद्रवान्नमिश्रं हरति चिरविरूढां च। | सजीखार, सेंधानमक, दन्ती, चीतेकी जड़, सफेद आक, भुक्तं कंगुनिकामूलचूर्णमतिदारुणां नाडीम् ॥८॥ नल, नील और अपामार्ग बीजके कल्क तथा गोमूत्रमें भैंसाका दही और कोद्रवके भातके साथ कांकुनकी जड़के | सिद्ध तेल दुष्टत्रण तथा कफज नाडीत्रणको शान्त करता चूर्णको खानेसे नासूर शीघ्र ही शान्त होता है ॥ ८॥ क्षारप्रयोगः। कुम्भीकाचं तैलम्। कृशदुर्बलभीरूणां गतिमर्माश्रिता च या। कुम्भीकखर्जूरकापत्थाबल्वक्षारसूत्रेण तां छिन्द्यान्न शस्त्रेण कदाचन ॥९॥ __ वनस्पतीनां तु शलाटुवगें। एषण्या गतिमन्विष्य क्षारसूत्रानुसारिणीम् ।। कृत्वा कषायं विपचेत्तु तैलसूचीं निदध्यादभ्यन्तश्चोन्नाम्याशु घ निहरेत् १० मावाप्य मुस्तं सरलं प्रियंगुम् ॥१६॥ सूत्रस्यान्तं समानीय गाढं बन्धं समाचरेत् । सौगन्धिकामोचरसाहिपुष्पततः क्षीणबलं वीक्ष्य सूत्रमन्यत्प्रवेशयेत् ॥११॥ लोध्राणि दत्त्वा खलु धातकी च । क्षाराक्तंमतिमान्द्यो यावन्न छिद्यते गतिः । । । एतेन शल्यप्रभवा हि नाडी भगन्दरेऽप्येष विधिः कार्यों वैद्येन जानता ॥१२॥ रोहेद् व्रणो वै सुखमाशु चैव ॥ १७ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) - [भगन्दरा - सre सुपारी, छुहारा, कैया, बेल और अन्य वनस्पतियोंके कच्चे वटपत्रादिलेपः। फलोंके क्वाथमें तैल पकाना चाहिये । तथा नागरमाथा,धूपकाष्ठ , वटपत्रेष्टकाशुण्ठीगुडूच्य प्रिंयगु, दालचीनी, तेजपात, इलायची, मोचरस, नागकेशर, सुपिष्टाः पिडकारम्भे लेपः शस्तो भगन्दरे ॥२॥ लोध और धायके फूलका कल्क छोड़ना चाहिये । इससे शल्यज-| वरपदके कोमल पत्ते, इंटका चूरा, सोंठ, गुर्च, तथा पुनर्ननाड़ी तथा व्रण भर जाता है ॥ १६ ॥१७॥ वाको महीन पीसकर भगन्दरकी उठती हुई पिड़कामें लेप भल्लातकाचं तैलम्। करना चाहिये ॥२॥ भल्लातकार्कमरिचर्लवणोत्तमेन पक्कापक्कपिडकाविशेषः। सिद्धं विडङ्गरजनीद्वयचित्रकैश्च । पिडकानामपकानामपतर्पणपूर्वकम् । स्यान्मार्कवस्य च रसेन निहन्ति तैलं कर्म कुर्याद्विरेकान्तं भिन्नानां वक्ष्यते क्रिया ॥ ३॥ नाही कफानिलकृतामपची व्रणांश्च ॥१८॥ एषणीपाटनं क्षारवह्निदाहादिकं क्रमम् । मिलावां, अकौड़ा, काली मिर्च, सेंधानमक, वायविडङ्ग, विधाय व्रणवत्कार्य यथादोषं यथाक्रमम् ॥४॥ हल्दी, दारुहल्दी व चीतेकी जड़के कल्क तथा भांगरके अपक्क पिड़काओंमें अपतर्पणपूर्वक विरेचनान्त चिकित्सा रससे सिद्ध तैल कफवातज नाड़ी तथा अपची और व्रणोंको करनी चाहिये । तथा फूट जानेपर नाड़ीका पता लगाकर चीरना नष्ट करता है ॥१८॥ तथा क्षार व आग्निसे दाह कर व्रणके समान यथादोष यथाक्रम निर्गुण्डीतैलम् । चिकित्सा करनी चाहिये ॥३॥४॥ समूलपत्रां निर्गुण्डी पीडयित्वा रसेन तु ।। त्रिवृदाद्युत्सादनम् । तेन सिद्धं समं तैलं नाडीदुष्टव्रणापहम् ॥ १०॥ त्रिवृत्तिला नागदन्ती मञ्जिष्ठा सह सर्पिषा । हितं पामापचीनां तु पानाभ्यजननावनैः। उत्सादनं भवेदेतत्सैन्धवक्षौद्रसंयुतम् ॥५॥ विविधेषु च स्फोटेषु तथा सर्वत्रणेषु च ॥ २०॥ निसोथ, तिल, नागदमन तथा मजीठको पीसकर, घी, - सम्भालूके पञ्चांगके स्वरसमें समान भाग तैल सिद्ध किया | शहद व संधानमक मिलाकर अपक्क पिडकाआम उबटन गया नाड़ीव्रण, दुष्टव्रण, पामा, अपची, फफोलों तथा समस्त | लगाना | लगाना चाहिये ॥५॥ वोंको पान, मालिश तथा नस्यसे नष्ट करता है ॥ १९॥२०॥ रसाञ्जनादिकल्कः। हंसपादादितैलम् । रसाखन हरिद्रे द्वे मञ्जिष्ठा निम्बपल्लवाः । हंसपारिष्टपत्रं जातीपत्रं ततो रसैः । त्रिवृत्तेजोवतीदन्तीकल्को नाडीव्रणापहः ॥६॥ तत्कल्कैर्विपचेलं नाडीव्रणविरोहणम ॥२१॥ । रसोत, हल्दी, दारुहल्दी, मजीठ, नीमकी पत्ती, निसोथ, लाल लज्जावन्तीकी पत्ती, नीमकी पत्ती तथा चमेलीकी चब्य और दन्तीका कल्क नाडीव्रणको शांत करता है ॥६॥ पत्ती इनके कल्क तथा स्वरससे सिद्ध तैल नाड़ी व्रणको | कुष्ठादिलेपः। भरता है ॥ २१॥ कुष्ठं त्रिवृत्तिलादन्तीमागध्यः सैन्धवं मधु । इति नाडीव्रणाधिकारः समाप्तः। रजनी त्रिफला तुत्थं हितं व्रणविशोधनम् ॥७॥ ठ, निसोथ, तिल, दन्ती, छोटी पीपल, सेंधानमक, अथ भगन्दराधिकारः। शहद, हल्दी, त्रिफला तथा तूतियाका लेप घावको शुद्ध | करता है ॥७॥ . स्नुहीदुग्धादिवतिः। रक्तमोक्षणम् । स्नुह्यर्कदुग्धदार्वीभिर्वति कृत्वा विचक्षणः । गुदस्य श्वयधुं ज्ञात्वा विशोषय शोधयेत्ततः। । भगन्दरगतिं ज्ञात्वा पूरयेत्तां प्रयत्नतः ॥८॥ रक्तावसेचनं कार्य यथा पाकं न गच्छति ॥१॥ एषा सर्वशरीरस्थां नाडी हन्यान्न संशयः ॥ ९॥ गुदामें सूजन जानकर लंघनादिकर्षण द्वारा सुखाकर वमन, सेहुण्डका दूध, आकका दूध और दारुहल्दीके चूर्णकी बत्ती विरेचनादिसे शोधन करना चाहिये। तथा फस्त खुलाना चाहिये। बनाकर भगन्दरके नासूरमें रखना चाहिये । यह समस्त शरीजिससे पके नहीं ॥१॥ रके नाडीव्रणको नष्ट करती है॥८॥९॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपतः। (१०७) Pr तिलादिलेपः। पोहकरमूल, चव्य, इन्द्रायणकी जड़, हल्दी, दारुहल्दी, विडंतिलाभयालोध्रमरिष्टपत्रं | नमक, कालानमक, जवाखार, सज्जीखार, सेंधानमक, गज | पिप्पली, प्रत्येक समान भाग चूर्णकर चूर्णसे द्विगुण गुग्गुल निशा वचा कुष्ठमगारधूमः। मिलाकर ६ माशेकी गोली बनाकर शहदके साथ चाटना भगन्दरे नाडथुपदंशयोश्च | चाहिये । यह कास, श्वास, शाथ, अर्श, भगन्दर, हृदयका दुष्टवणे शोधनरोपणोऽयम् ॥ १०॥ शूल, पसलियोंका शूल, कुक्षि तथा वस्ति और गुदाकी पीड़ा, तिल, बडी हरें, लोध, नीमकी पत्ती तथा हल्दी, बच, कूठ, अश्मरी, मूत्रकृच्छ, अन्त्रवृद्धि तथा क्रिमिरोगको नष्ट करता है। व गृहधूमका लेप भगन्दर, नाडीव्रण, उपदंश तथा दुष्टवणको | पुराने ज्वरवालोंके लिये तथा क्षयवालोंके लिये हितकर है। क्रमशः शुद्ध करता और भरता है ॥१०॥ तथा आनाह, उन्माद, कुष्ठ, उदररोग, नाडीव्रण,दुष्टव्रण, प्रमेह, विविधा लेपाः। लीपद आदि समस्त रोगोंको यह "सप्तविंशतिक गुग्गुलु" नष्ट खरानपक्कभूरोहचूर्णलेपो भगन्दरम् ।। करता है ॥ १४-१९॥ हन्ति दन्त्यग्न्यतिविषालेपस्तद्वच्छनोऽस्थि वा ॥११ / विविधा उपाया। त्रिफलारससंयुक्तं बिडालास्थिप्रलेपनम् । भगन्दरं निहन्त्याशु दुष्टव्रणहरं परम् ।। १२ । । जम्बुकस्य च मांसानि भक्षयेद्वयञ्जनादिभिः। गधेके रक्तमें केंचुवाका चूर्ण पकाकर बनाया गया लेप तथा अजीर्णवर्जी मासेन मुच्यते ना भगन्दरात् ॥२०॥ दन्ती, चीतकी जड़ व अतीसका लेप अथवा कुत्तेकी हड्डीका | पञ्चतिक्तं घृतं शस्तं पश्चतिक्तश्च गुग्गुलुः। लेप अथवा त्रिफलाके रसके साथ बिलारीकी हड्डीका लेप भग- न्यग्रोधादिगणो यस्तु हितः शोधनरोपणः ॥ २१॥ न्दर तथा दुष्ट व्रणको शीघ्र नष्ट करता है ॥ ११॥१२॥ तैलं घृत वा तत्पकं भगन्दरविनाशनम् । नवांशको गुग्गुलुः। जम्बूकका मांस व्वजनादिमें खाना चाहिये। अजीर्णका त्रिफलापुरकृष्णानां त्रिपञ्चैकांशयोजिता । त्याग करना चाहिये । इस प्रकार करनसे १ मासमें भगन्दर नष्ट गुडिका शोथगुल्मार्शोभगन्दरवतां हिता ॥ १३ ॥। हा जाता है । पञ्चतिक्त घृत, पञ्चतिक्त गुग्गुलु तथा न्यग्रोधा दिगणसे सिद्ध घृत अथवा तैल भगन्दरको नष्ट करता त्रिफला (मिलित)३ भाग, गुग्गुल ५ भाग, छोटी पापलादिगणस सिद्ध घृत अथवा तल भगन्दरका । १ भागकी गोली भगन्दर, शोथ, गुल्म और अर्शवालोंको है ॥२०॥ २१॥हितकर है ॥१३॥ विष्यन्दनतेलम् । सप्तविंशतिको गुग्गुलुः। चित्रकाकी त्रिवृत्पाठे मलपूहयमारको ॥ २२॥. त्रिकटुत्रिफलामुस्तविडङ्गामृतचित्रकम् । सुधां वचा लाङ्गलिकी हरितालं सुवर्चिकाम् ।। शटथेलापिप्पलीमूलं हपुषा सुरदारु च ॥ १४ ॥ ज्योतिष्मती च संयोज्य तैलं धीरो विपाचयेत् ॥३३ तुम्बुरुः पुष्करं चव्यं विशाला रजनीद्वयम्। एतद्विष्यन्दनं नाम तैलं दद्याद्भगन्दरे। बिडं सौवर्चलं क्षारी सैन्धवं गजपिप्पली ॥ १५ ॥ यावन्त्येतानि चूर्णानि तावद्विगुणगुग्गुलुः।। शोधनं रोपणं चैव सवर्णकरणं तथा ॥२४॥ चीतकी जड़, आक, निसोथ, पाठा, कठूमर, कनेर, सेहुण्ड, कोलप्रमाणां गुडिकां भक्षयेन्मधुना सह ॥१६॥ बच, करियारी, हरिताल, सज्जी तथा मालकांगुनीका कल्क कासं श्वासं तथा शोथमशीसि सभगन्दरम्। छोडकर तैल पकाना चाहिये । यह "विष्यन्दन तेल" भगन्दरमें हृच्छूलं पार्श्वशूलं च कुक्षिबस्तिगुदे रुजम् ॥१७॥ लगाना चाहिये । यह शोधन, रोपण तथा सवर्णकारक अश्मरी मूत्रकृच्छ्रे च अन्त्रवृद्धिं तथा क्रिमीन् । है ॥ २२-२४ ॥ चिरज्वरोपसृष्टानां क्षयोपहतचेतसाम् ॥ १८ ॥ आनाहं च तथोन्मादं कुष्ठानि चोदराणि च । । करवीराचं तैलम् । नाडीदुष्टव्रणान्सर्वान्प्रमेहें श्लीपदं तथा। करवीरनिशादन्तीलाङ्गलीलवणाग्निभिः।। सप्तविंशतिको ह्येष सर्वरोगनिषूदनः। मातुलुङ्गार्कवत्साहः पचेत्तैलं भगन्दरे ॥२५॥ कनेर, हल्दी, दन्ती, कलिहारी, सेंधानमक, चीतकी जड़, त्रिकटु, त्रिफला, नागर मोथा, वायविडंग, गुर्च चीतकी | विजौरा, आक तथा कुरैयाकी छालके कल्कसे सिद्ध तैल भगन्दजड़, कचूर, इलायची, पिपरामूल, हाऊवेर, देवदारु, तुम्बरू, रको नष्ट करता है ॥ २५॥ चासत्र । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०८) चक्रदत्तः। [ उपदंशा च्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न् निशार्य तैलम् । . पैत्तिके लेपः। निशार्कक्षीरसिंध्वग्निपुराश्वहनवत्सकैः । गैरिकाजनमन्जिष्ठामधुकोशीरपद्मकैः। सिद्धमभ्यखने तेलं भगन्दरविनाशनम् ॥२६ ॥ सचन्दनोत्पले: स्निग्धैः पैत्तिकं संप्रलेपयेत ॥५॥ हल्दी, आकका दूध, सेंधानमक, चीतकी जड़, गुग्गुल, गेरू, सुरमा, मीठ, मौरेठी, खश, पद्माख, चन्दन, तथा कनैर तथा कुटजके कल्कसे सिद्ध तेल अभ्यञ्जनद्वारा भगन्दरको नीलोफरको पीस स्नेह मिलाकर लेप करना चाहिये ॥५॥ नष्ट करता है ॥२६॥ पित्तरक्तजे। वानि । निम्बार्जुनाश्वत्थकदम्बशालजम्बूवटोदुम्बरवेतसेषु । व्यायाम मैथुनं युद्धं पृष्ठयानं गुरूणि च । प्रक्षालनालेपघृतानि कुर्याच्चूर्णानि पित्तास्रभवोपदंशे।६ संवत्सरं परिहरेदुपरूढव्रणो नरः ॥२७॥ | नीम, अर्जुन, पीपल, कदम्ब, शाल, जामुन, बरगद, | गूलर, वेतस इनके चुणोंसे पित्तरक्तके उपदंशमें प्रक्षालन व व्यायाम, मैथुन, युद्ध, घोड़े आदिकी पीठकी सवारी तथा| था लेप हितकर है। तथा इन औषधियोंके काथमें सिद्ध घृत सबमें गुरु द्रव्यका घाव भर जानेके अनन्तर १ वर्षतक सेवन न| नहितकर है॥६॥ करना चाहिये ॥२७॥ इति भगन्दराधिकारः समाप्तः। प्रक्षालनम् । त्रिफलायाः कषायेण भृङ्गराजरसेन वा । अथोपदंशाधिकारः। व्रणप्रक्षालनं कुर्यादुपदंशप्रशान्तये ॥७॥ त्रिफलाके क्वाथ अथवा भांगरेके रससे उपदंशत्रणको धोना चाहिये ॥७॥ सामान्यक्रमः। स्निग्धस्क्निशरीरस्य ध्वजमध्ये शिराव्यधः । त्रिफलामसीलेपः। जलोकः पातनं वा स्यादूर्वाधः शोधनं तथा ॥१॥ दहेत्कटाहे त्रिफलां समांशां मधुसंयुताम् । उपदंशे प्रलेपोऽयं सद्यो रोपयति व्रणम् ॥८॥ सद्यो निर्हतदोषस्य रुक्शोथावुपशाम्यतः। । कड़ाहीमें त्रिफला जला समभाग शहद मिलाकर लेप पाको रक्ष्यः प्रयत्नेन शिश्नक्षयकरो हि सः॥२॥ स्नेहन स्वेदन कर लिङ्गमें शिराव्यध करना चाहिये । अथवा करनेसे उपदंशका घाव शीघ्र ही भर जाता है ॥ ८॥ जोंक लगाना चाहिये। तथा वमन, विरेचन कराना चाहिये। रसाञ्जनलेपः। प्रयत्नपूर्वक पकनेसे रोकना चाहिये। क्योंकि पकनेसे लिअक्षय रसाजनं शिरीषेण पध्यया वा समन्वितम् । हो जाता है॥१॥२॥ सक्षौद्रं वा प्रलेपेन सर्वलिंगगदापहम् ॥९॥ पटोलादिकाथाः। . रसातको शिरीषकी छाल अथवा छोटी हर्रके चूर्ण अथवा पटोलनिम्बत्रिफलागुडूची | शहद मिलाकर लेप करनेसे लिंगके समस्त रोग नष्ट होते हैं ॥९॥ क्वार्थ पिबेद्वा खदिराशनाभ्याम् । सगुग्गुलु वा त्रिफलायुतं वा बब्बूलदलादियोगाः। सॉपदंशापहराः प्रयोगाः॥३॥ बब्बूलदलचूर्णेन दाडिमत्व डिमत्वग्भवेन वा। परवलकी पत्ती, नीमकी छाल, त्रिफला तथा गुर्चके क्वाथ गुण्डनं त्रस्थिचूर्णेन उपदंशहरं परम् ॥१०॥ अथवा कत्था व विजैसारके क्वाथमें गुग्गुल अथवा त्रिफलाचूर्ण बबूलकी पत्तीका चूर्ण अथवा अनारके छिल्केका चूर्ण अथवा डालकर सेवन करनेसे समस्त उपदंश नष्ट होते हैं ॥३॥ मनुष्यकी हड्डीका चूर्ण उर्रानेसे उपदंश नष्ट होता है ॥१०॥ वातिके लेपसेको। सामान्योपायाः। प्रपौण्डरीकं मधुकं रास्ना कुष्ठं पुनर्नवा । लेपः पूगफलेनाश्वमारमूलेन वा तथा। सरलागुरुभद्राद्वैर्वातिके लेपसेचने ॥४॥ सेवेन्नित्यं यवान्नं च पानीयं कौपमेव च ॥ ११ ॥ पुण्डरिया, मोरेठी, रासन, कूठ, पुनर्नवा, सरल, अगर व सुपारीके फल अथवा कनेरकी जड़का लेप करना चाहिये देवदारसे वातजमें लेप तथा सेक करना चाहिये ॥४॥ तथा यवके पदार्थ और कुएँका जल पीना चाहिये ॥११॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः भाषाटीकोपेता। चन्न्मन्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्पाकप्रक्षालनकाथः। घृतपान विरेचन रक्तस्राव तथा लघुभोजन हितकर है ॥१॥ जयाजात्यश्वमारार्कसम्पाकानां दुलैः पृथक् ।। प्रतिभेदचिकित्सा। कृतं प्रक्षालने क्वार्थ मेढ़पाके प्रयोजयेत् ॥ १२॥ अरणी, चमेली, कनेर, आक तथा अमलतासमेंसे किसी सर्षपी लिखितां सूक्ष्मैः कषायैरवचूर्णयेत् । एकके पत्तोंका क्वाथ लिंगके पक जानेपर धोनेके लिये प्रयुक्त तैरेवाभ्यजनं तलं साधयेद्रणरोपणम् ॥२॥ करना चाहिये ॥१२॥ क्रियेयमधिमन्थेऽपि रक्कं स्राव्यं तथोभयोः। भूनिम्बकाद्यं घृतम् । अष्ठीलायां हृते रक्ते श्लेष्मप्रन्थिवदाचरेत् ॥३॥ भूनिम्बनिम्बात्रिफलापटोलं कुम्भिकायां हरेद्रकं पकायां शोधिते व्रणे । करजजातीखदिरासनानाम् । तिन्दुकत्रिफलालोधैर्लेपस्तैलं च रोपणम् ॥४॥ सतोयकल्कैघृतमाशु पक्कं अलज्यां हृतरक्तायामयमेव क्रियाक्रमः। सर्वोपदंशापहरं प्रदिष्टम् ॥ १३॥ स्वेदयेद् ग्रथितं स्निग्धं नाडीस्वेदेन बुद्धिमान् ॥५।। चिरायता, नीम, त्रिफला, परवलकी पत्ती, कजा, चमेली, सुखोष्णरुपनाहैश्च सस्निग्धैरुपनायेत् । कत्था तथा विजैसारके क्वाथ और कल्कसे पकाया गया घृत उत्तमाख्यां तु पिडकां संच्छिद्य बडिशोद्धृताम्॥६॥ समस्त उपदंशोंको नष्ट करता है॥१३॥ कल्कैश्चूर्णैः कषायाणां क्षौद्रयुक्तैरुपाचरेत् । करायं घृतम्। क्रमः पित्तविसोक्तः पुष्करीमूढयोर्हितः ॥७॥ करजनिम्बार्जुनशालजम्बू त्वक्पाके स्पर्शहान्यां च सेचयेन्मृदितं पुनः । वटादिभिः कल्ककषायसिद्धम् । बलातैलेन कोष्णेन मधुरैश्चोपनाहयेत् ॥ ८॥ सर्पिनिहन्यादुपदंशदोष रसक्रिया विधातव्या लिखिते शतपोनके । सदाहपाकं सुतिरागयुक्तम् ॥ १४ ॥ पृथक्पादिसिद्धं च तैलं देयमनन्तरम् ॥९॥ कला, नीमकी पत्ती, अर्जुन, शाल, जामुन, तथा वटादिके | पित्तविद्रधिवचापि क्रिया शोणितजेऽर्बुदे । कषाय और कल्कसे सिद्ध घृत दाह, पाक, स्राव और लालिमा- कषायकल्कसपौषि तैलं चूर्ण रसक्रियाम् ॥१०॥ सहित उपदंशको नष्ट करता है ॥ १४॥ शोधने रोपणे चैव वीक्ष्य वीक्ष्यावतारयेत् । ___ अगारधूमायं तैलम् । अगारधूमरजनीसुराकिट्टं च तैत्रिभिः। सर्षपीको खुरचकर कषायद्रव्योंका चूर्ण उरीना चाहिये। तथा इन्हींसे घाव भरनेके लिये तैल सिद्ध कर लगाना चाहिये। भागोत्तरैः पचेत्तलं कण्डूशोथरुजापहम् ॥१५॥ अधिमन्थमें भी यही चिकित्सा करनी चाहिये। तथा रक्त दोनों में शोधनं रोपणं चैव सवर्णकरणं तथा। | निकालना चाहिये । अष्ठीलामें रक्त निकालकर कफजप्रन्थिके गृहधूम १ भाग, हल्दी २ भाग, शराबका किट्ट ३ भाग समान चिकित्सा करनी चाहिये । कुम्भिकामें भी रक्त निकालना इनका कल्क छोड़कर पकाया गया तैल खुजली, सूजन, और चाहिये । पर यदि पक गयी हो, तो घावको शुद्धकर तेन्दू, पीडाको नष्ट करता,शोधन, रोपण तथा सवर्णताकारक है॥१५॥- त्रिफला और लोधका लेप करना चाहिये । तथा रोपण तैलका लिंगाश्चिकित्सा। प्रयोग करना चाहिये । अलजीका रक निकालकर यही अर्शसां छिन्नदग्धानां क्रिया कार्योंपदंशवत् ॥१६॥ चिकित्सा करनी चाहिये । प्रथितको स्निग्ध कर नाड़ीस्वेदसे अर्शको काट जलाकर उपदंशके समान चिकित्सा करनी | स्विन्न करना चाहिये । तथा स्नेहयुक्त गरम पुल्टिस बांधनी चाहिये ॥१६॥ चाहिये । उत्तमा पिड़काको बडिशसे पकड़ काटकर कषायरसयुक्त इत्युपदंशाधिकारः समाप्तः। द्रव्योंके कल्क और चूर्णमें शहद डालकर लगाना चाहिये। पुष्करी और मूढशूकमें पित्तविसर्पोक्त चिकित्सा करनी चाहिये। त्वक्पाक और स्पर्शज्ञान न होनेपर मर्दनकर कुछ गरम गरम बलातैलका सिञ्चन करना चाहिये। तथा मीठी चीजोंकी पुल्टिस बान्धनी चाहिये । शतपोनकको खुरचकर रसक्रिया सामान्यक्रमः। (काथको गाढ़ा कर लगाने ) का प्रयोग करना चाहिये। हितं च सर्पिषः पानं पथ्यं चापि विरेचनम् । तदनन्तर पृथक्पादिसे सिद्ध तेल देना चाहिये । रकजाई हितः शोणितमोक्षश्च यचापि लघुभोजनम् ॥१॥ दमें कषाय, कल्क, घृत, तैल, घूर्ण, रसक्रिया जहां जो अथ शूकदोषाधिकारः। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) आवश्यक हो, शोधन रोपणादिके लिये विचारकर प्रयुक्त करना चाहिये ॥ २- १० ॥ - चक्रदत्तः । प्रत्याख्येयाः । अर्बुदं मांसपाकं च विद्रधिं तिलकालकम् । प्रत्याख्याय प्रकुर्वीत भिषक्तेषां प्रतिक्रियाम् ॥ ११ अर्बुद, मांसपाक, विद्रधि और तिलकालकका प्रत्याख्यान कर चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ११ ॥ ॥ इति शुकदोषाधिकारः समाप्तः । अथ भग्नाधिकारः । सामान्यक्रमः | १ ॥ आदौ भग्नं विदित्वा तु सेचयेच्छीतलाम्बुना । पङ्कनालेपनं कार्य बन्धनं च कुशान्वितम् । सुश्रुतोक्तं च भग्नेषु वीक्ष्य बन्धादिमाचरेत् ॥ पहिले भग्न (टूटा हुआ ) जानकर ठण्ढ़े जलका सिञ्चन करना चाहिये | फिर कीचड़का लेप तथा व्रणबन्धक द्रव्योंसे बांधना चाहिये । बन्धादि सुश्रुतोक्त भमविधान के अनुसार करना चाहिये ॥ १ ॥ स्थानापन्नताकरणम् । अवनामितमुन्नह्येदुन्नतं चावनामयेत् । आञ्छेदतिक्षिप्तमधोगतं चोपरि वर्तयेत् ॥ २ ॥ जो अस्थि नीचेको लच गयी हो, उसे ऊपर उठा देना चाहिये । जो ऊपरको लौट गयी हो, उसे नीचे लाना चाहिये । अर्थात् जिसप्रकार अस्थि अपने स्थानपर ठीक बैठ जाय, वैसा उपाय करे ॥ २ ॥ लेपः । आलेपनार्थ मञ्जिष्ठामधुकं चाम्लपेषितम् । शतधौत घृतोन्मिश्रं शालिपिष्टं च लेपनम् ॥ ३ ॥ मजीठ व मौरेठीको काजीमें पीसकर अथवा शालि चावलोंको पीस १०० बार धोये हुए घृतमें मिलाकर लेप करना चाहिये ॥ ३ ॥ बन्धमोक्षणावधिः । सप्तरात्रात्सप्तरात्रात्सौम्येष्वृतुषु मोक्षणम् । कर्तव्यं स्यात्त्रिरात्राच्च तथाऽऽमेयेषु जानता ||४| काले च समशीतोष्णे पञ्चरात्राद्विमोक्षयेत् । शीतकाल में ७ सात दिनमें, उष्णकालमें ३ तीन दिनमें तथा साधारण कालमें पांच दिनमें बन्धन खोलना चाहिये ॥ ४ ॥ - [ भग्ना सेकादिकम् । न्यग्रोधादिकषायं च सुशीतं परिषेचने । ५ ॥ पञ्चमूलीविपक्वं तु क्षीरं दद्यात्सवेदने । सुखोष्णमवचार्य वा चक्रतैलं विजानता ॥ ६ ॥ सिञ्चनके लिये न्यग्रोधादि गणका शीतल काथ तथा पीड़ायुक्त होनेपर लघुपञ्चमूलसे पकाये दूधका सिश्चन करना चाहिये । तथा ताजा तेल गरमकर मलना चाहिये ॥ ५ ॥ ६ ॥ पथ्यम् । मांसं मांसरसः सर्पिः क्षीरं यूषः सतीनजः । बृंहणं चान्नपानं च देयं भग्ने विजानता ॥ ७ ॥ गृष्टिक्षीरं ससर्पिष्कं मधुरौषधसाधितम् । शीतलं द्राक्षया युक्त प्रार्तभग्नः पिबेन्नरः ॥ ८ ॥ मांस और मांसरस, घी, दूध, मटरका यूष, तथा बृंहण अन्नपान भनवालेको देना चाहिये । तथा एक बार ब्याई हुई गायका दूध मधुर औषधियों के साथ सिद्ध कर घी में मिला प्रातःकाल मुनक्का के साथ ठण्डा ठण्डा पीना चाहिये ॥ ७ ॥ ८ ॥ अस्थिसंहारयोगः । सघृतेनास्थिसंहारं लाक्षागोधूममर्जुनम् । सन्धिमुक्तेऽस्थिभग्ने च पिबेत्क्षीरेण मानवः ॥ ९ ॥ घी मिले दूधके साथ लाख, गेहूँ, अर्जुनकी छाल, अस्थिसंहारके चूर्णका सेवन करनेसे सन्धिभन्न तथा अस्थिभन्न दोनों ठीक होते हैं ॥ ९ ॥ सोनोपयोगः । रसोनमधुलाक्षाज्यसिताकल्कं समश्नताम् । छिन्नभिन्नच्युतास्थीनां संधानमचिराद्भवेत् ॥ १० ॥ लहसुन, शहद, लाख, घी तथा मिश्रीकी चटनी चाटने से छिन्न, भिन्न, च्युत ( अलग हुई ) हड्डियां शीघ्र ही जुड़ जाती हैं ॥ १० ॥ वराटिकायोगः । पीतवंराटिका चूर्ण द्विगुञ्जं वा त्रिगुञ्जकम् । अपक्वक्षीरपीतं स्यादस्थिभग्नप्ररोहणम् ॥ ११ ॥ पीली कौड़ीके चूर्णको २ रत्ती अथवा ३ रत्तीकी मात्रा में कच्चे दूधके साथ पीनेसे टूटी हड्डी शीघ्र ही जुड़ जाती है ॥ ११ ॥ विविधा योगाः । क्षीरं सलाक्षामधुकं ससर्पिः 'स्याज्जीवनीयं च सुखावहं च । भः पिबेत् पयसाऽर्जुनस्य गोधूमचूर्ण सघृतेन वाथ ॥ १२ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] जीवनीयगणसे सिद्ध दूध, लाख और मौरेठीके चूर्ण तथा के साथ पीनेसे सुख मिलता है । अथवा अर्जुनकी छालका चूर्ण दूधके साथ अथवा गेहूँका चूर्ण घी व दूधके साथ पकाकर पीना चाहिये ॥ १२ ॥ भाषाटीकोपेतः । लाक्षामुग्गुलुः । लाक्षास्थिसंहृत्ककुभाश्वगन्धाचूर्णीकृता नागबला पुरश्च । संप्रयुक्तास्थिरुजं निहन्या दङ्गानि कुर्यात्कुलिशोपमानि ॥ १३ ॥ अत्रान्यतोSपि दृष्टत्वात्तुल्यश्चूर्णेन गुग्गुलुः १४॥ लाख, अस्थिसंहार, अर्जुन, असगन्ध तथा नागबलाका चूर्ण कर सबके समान गुग्गुलु मिला खानेसे भमयुक्त अस्थिकी पीड़ा नष्ट होती है तथा शरीर वज्रके समान दृढ होता है । यहां ग्रन्थान्तरोंके प्रमाणसे चूर्णके समान ही गुग्गुलु छोड़ना चाहिये ॥ १३ ॥ १४ ॥ आभागुग्गुलुः । आभा फलत्रिकेव्यषिः सर्वैरोभः समीकृतेः । तुल्यो गुग्गुलुरायोज्यो भग्नसन्धिप्रसाधकः ॥ १५ ॥ बबूलकी फली, त्रिफला, त्रिकटु सब समान भाग, सबके समान गुग्गुलु मिलाकर सेवन करनेसे टूटी संधियां जुड़ जाती हैं ॥ १५ ॥ सव्रणभग्नचिकित्सा । सव्रणस्य तु भग्नस्य व्रणं सर्पिर्मधूत्तमैः । प्रतिसार्य कषायैश्च शेषं भग्नवदाचरेत् ॥ १६ ॥ भनं नैति यथा पाकं प्रयतेत तथा भिषक् । वातव्याधिविनिर्दिष्टान् स्नेहानत्र प्रयोजयेत् ॥ १७॥ जहां टूटने के साथ घाव भी हो गया है, वहां क्वाथकी रसक्रिया कर घी शहद मिला लेप करना चाहिये । भग्नस्थान पके नहीं ऐसा उपाय करना चाहिये । वातव्याधिमें कहे हुए स्नेहोंका प्रयोग करना चाहिये ॥ १६ ॥ १७ ॥ ( २११ ) चतुर्गुणेन पयसा तत्तैलं विपचेत्पुनः । एलामंशुमती पत्रं जीरकं तगरं तथा ।। २२ ।। लोध्रं प्रपौण्डरीकं च तथा कालानुशारिवाम् । शैलेयकं श्रीरशुक्लामनन्तां समधूलिकाम् ॥ २३ ॥ पिष्ट्वा शृङ्गाटकं चैव प्रागुक्तान्योषधानि च । एभिस्तद्विपचेत्तैलं शास्त्रविन्मृदुनाऽग्निना ॥ २४ ॥ एतत्तैलं सदा पथ्यं भग्नानां सर्वकर्मसु । आक्षेपके पक्षवधे चाङ्गशोषे तथाऽर्दिते ।। २५ ॥ मन्यास्तम्भे शिरोरोगे कर्णशूले हनुग्रहे । बाधिर्ये तिमिरे चैव ये च स्त्रीषु क्षयं गताः ॥२६॥ पध्ये पाने तथाऽभ्यङ्गे नस्ये बस्तिषु योजयेत् । ग्रीवास्कन्धोरसां वृद्धिरनेनैवोपजायते ।। २७ ।। मुखं च पद्मप्रतिमं स्यात्सुगन्धिसमीरणम् । गन्धतैलमिदं नाम्ना सर्ववातविकानुत् ॥ २८ ॥ राजाईमेतत्कर्तव्यं राज्ञामेव विचक्षणैः । तिलचूर्णचतुर्थांशं मिलितं चूर्णमिष्यते ।। २९ ।। काले तिलोंकी रात्रिमें बहते जलमें पोटली बांधकर रखना चाहिये और दिनमें सुखाना चाहिये, इस प्रकार एक सप्ताह करना चाहिये। दूसरे सप्ताहमें दूधकी भावना देनी चाहिये । तीसरे सप्ताह में तिलके समान मौरेठीका क्वाथ बनाकर भावना देनी चाहिये । फिर एक सप्ताह दूधकी भावना दे सुखाकर चूर्ण कर | लेना चाहिये । फिर तिलोंसे चतुर्थांश मिलित चूर्ण काकोल्यादिगण, गोखरू, मजीठ, शारिवा, कूठ, राल, जटामांसी, देवदारु, चन्दन व सौंफका मिलाकर एलादिगणसे सिद्ध दूधसे तर कर कोल्हू में पीड़ित कर तैल निकलवा ले तैलमें चतुर्गुण दूध, इलायची, शालिपर्णी, तेजपात, जीरा, तगर, लोध, पुण्ड़रिया, काली शारिवा, छरीला, क्षीरविदारी, यवासा, गेहूँ और सिंघाड़ेका कल्क छोड़कर मन्दाभि तैल पकाना चाहिये । यह तैल भनवालको कामों में हितकर है 1 यह आक्षेपक, पक्षाघात, अङ्गशोष, अर्दित, मन्यास्तम्भ, शिरोरोग, कर्णशूल, हनुग्रह, वाधिर्य, तिमिवालोंको तथा जो स्त्रीगमनसे क्षीण हैं, || | उन्हें पथ्यमें पीनेके लिये, मालिश, नस्य तथा बस्तिमें प्रयोग करना चाहिये, गरदन, कन्धे और छाती की वृद्धि इसीसे होती | है । मुख कमलके समान तथा सुगन्धित वायुयुक्त होता है । यह “गन्धतैल" समस्त वातरोगोंको नष्ट करता है । यह तैल राजाओंके योग्य है । इसे राजाओंके लिय ही बनाना चाहिये । तिल चूर्णसे चौथाई सब चीजोंका मिलित चूर्ण होना चाहिये । ( तिल इतने लने चाहियें, जिनसे १ आदक तैल निकल सब गन्धतैलम् । रात्री रात्री तिला कृष्णान्वासदयेदस्थिरे जले | दिवा दिवैव संशोष्य क्षीरेण परिभावयेत् || १८ तृतीयं सप्तरात्रं च भावयेन्मधुकाम्बुना । ततः क्षीरं पुनः पीतान्सुशुष्कांश्चूर्णयेद्भिषक् ॥१९॥ काकोल्यादिं श्वदंष्ट्रांच मञ्जिष्ठां शारिवां तथा । कुष्ठं सर्जरसं मांसीं सुरदारु सचन्दनम् ॥ २० ॥ शतपुष्पां च संचूर्ण्य तिलचूर्णेन योजयेत् । पीडनार्थं च कर्तव्यं सर्वगन्धः श्रुतं पयः ॥ २१ ॥ | आवे ) ॥ १८-९९ ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) चक्रदत्तः। [कुष्ठान्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न् भग्ने वानि । पर्णानि पिष्ट्वा चतुरङ्गुलस्य लवणं कटुकं क्षारमम् मैथुनमातपम् । तक्रेण पर्णान्यथ काकमाच्याः। व्यायामं च न सेवेत भन्नो रूक्षानमेव च ॥३०॥ तैलाक्तगात्रस्य नरस्य कुष्ठाभमरोगीको लवण, कटु, क्षार, खट्टे पदार्थ, मैथुन, न्युद्वर्तयेदश्वहनच्छदैश्च ॥७॥ भातप, व्यायाम और रूक्षान, इनका सेवन न करना आरग्वधः सैडगजः करजो चाहिये ॥३०॥ वासा गुडूची मदनं हरिद्रे । इति भग्नाधिकारः समाप्तः। श्याह्नः सुराह्वः खदिरो धवश्व निम्बो विडतं करवीरकत्वक् ॥८॥ अथ कुष्ठाधिकारः। प्रान्थिश्च भौजों लशुनः शिरीषः सलोमशो गुग्गुलुकृष्णगन्धे । फणिज्जको वत्सकसप्तपौँ वातोत्तरेषु सपिर्वमनं श्लेष्मोत्तरेषु कुष्ठेषु । पीलूनि कुष्ठं सुमनःप्रवालाः ॥९॥ पित्तोत्तरेषु मोक्षो रकस्य विरेचनं चाम्यम् ॥१॥ वचा हरेणुखिवृता निकुम्भो प्रच्छनमल्पे कुष्ठे महति च शस्तं शिराव्यधनम् । __ भल्लातकं गैरिकमजनं च । बहुदोषः संशोध्यः कुष्ठी बहुशोऽनुरक्षता प्राणान्२ मनःशिलाले गृहधूम एलावातप्रधान कुष्ठोंमें घी पीना, कफप्रधानमें वमन, पित्तप्रधानमें ___ कासीसलोध्रार्जुनमुस्तसर्जाः॥ १०॥ रक्तमोक्षण तथा शिराव्यध उत्तम है । तथा थोड़े कुष्टमें पछने इत्यर्धरूपैर्विहिताः षडेते लगाना, बहुतमें शिराव्यध करना तथा बहुदोषयुक्त कुष्ठीको __गोपित्तपीताः पुनरेव पिष्टाः । बलकी रक्षा करते हुए संशोधन करना चाहिये ॥१॥२॥ सिद्धाः परं सर्षपतैलयुक्तावमनम्। श्चूर्णप्रदेहा भिषजा प्रयोज्याः ॥११॥ वचावासापटोलानां निम्बस्य फलिनीत्वचः। कुष्ठानि कृच्छ्राणि नवं किलासं कषायो मधुना पीतो वान्तिकृन्मदनान्वितः ॥ ३॥ सुरेन्द्रलुप्तं किटिभं सददुम् । बच, अडूसा, परवलकी पत्ती, नीमकी पत्तीमें तथा प्रियं भगन्दराशीस्यपची सपामां गुकी छालके काथमें मैनफलका चूर्ण मिलाकर पीनेसे वमन । हन्युः प्रयुक्ता अचिरानराणाम् ॥ १२॥ होता है ॥३॥ मनःशिला, हरिताल, काली मिर्च व आकके दूधका लेप विरेचनम् । कुष्ठको नष्ट करता है । तथा कजाके बीज, पवांडके बीज व विरेचनं तु कर्तव्यं त्रिवृदन्तीफलत्रिकैः ॥४॥ | कूठको गोमूत्रमें पीसकर लेप करना चाहिये । अथवा अमलनिसोथ. दन्ती और त्रिफलासे विरेचन देना चाहिये ॥४॥तासकी पत्ती, मकोयकी पत्ती तथा कनैरकी पत्तीको मठेमें पीस कर लेप करना चाहिये । तथा (१) अमलतास, पवांड़, कजा, लेपयोग्यता। वासा, गुर्च, मैनफल, हल्दी तथा दारुहल्दी (२) अथवा नवनीत ये लेपाः कुष्ठानां प्रयुज्यन्ते निगेतास्त्रदोषाणाम् । खोटि (गन्धाविरोजाभेद ) देवदारु, कत्था, धायके फूल, नीम, संशोधिताशयानां सद्यः सिद्धिर्भवति तेषाम् ॥५॥ वायविडङ्ग व कनेरकी छाल । अथवा (३) भोजपत्रकी गांठ, वमन, विरेचनद्वारा कोष्ठ तथा रक्तमोक्षणद्वारा रक्त शुद्ध हो | लहसुन, सिसाकी छाल, काशीस, गुग्गुलु व सहिंजन । अथवा (४) जानेपर कुष्ठवालोंको जिन लेपोंका प्रयोग किया जाता है, उनकी मरुवा, कुटज, सतवन, पीलु, कूठ तथा चमेलीकी पत्ती । सिद्धि शीघ्रही होती है ॥५॥ |अथवा(५)वच, सम्भालूके बीज,निसोथ, दन्ती, भिलावां, गेरू व लेपाः । |सुरमा। अथवा (६) मनांसल, हरताल, घरका धुवाँ, इलायची, काशीस, लोध, अर्जुन, मोथा, राल । यह आधे आधे श्लोकमें मनःशिलाले मरिचानि तैल कहे गये ६ लेप गोपित्त (गोरोचन अथवा गोमूत्रमें :) भावना मार्क पयः कुष्ठहरः प्रदेहः। देकर पीसे गये सरसोंके तैलमें मिलाकर लेप करना चाहिये । करजबीजैडगजः सकुष्ठो ये लेप कठिन, कुष्ठ, नवीन किलास, इन्द्रलुप्त, किटिभ, दव, गोमूत्रपिष्टश्च वरः प्रदेहः॥६॥ भगन्दर, अर्श, अपची व पामाको शीघ्र ही नष्ट करते हैं६-१२ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषार्टीकोपेतः। (२१३) मनःशिलादिलेपः। पीस तिलतैलमें मिलाकर लेप करनेसे समस्त कुष्ठ नष्ट होते मनःशिलात्वक्कुटजात्सकुष्ठातू सलोमशः सैडगजः करतः। विडंगादिलेपः। प्रन्थिश्च भौर्जः करवीरमूलं विडासैन्धवशिवाशशिरेखासंर्षपकर जरजनीभिः चूर्णानि साध्यानि तुषोदकेन ॥१३॥ गोजलपिष्टो लेपः कुष्ठहरो दिवसनाथसमः।। १८ ।। पलाशनिदाहरसेन वापि वायविडंग, सेंधानमक, हर्र,वकुची, सरसों, कजा, व हल्दीको कर्पोद्धृतान्याढकसंमितेन । गोमूत्रमें पीसकर बनाया गया लेप कुष्ठको नष्ट करनेमें सूर्यके दार्वीप्रलेप प्रवदन्ति लेप समान है। सूर्यचिकित्सा ( रश्मिचिकित्सा) से भी कुष्ठ नष्ट होता हैं ॥ १८ ॥ मेतत्परं कुष्ठविनाशनाय ॥१४॥ अपरो विडंगादिः। मनशिल, कुरैयाकी छाल, कूठ, कसीस, पांडके बीज, कजा, भोजपत्रकी गांठ, तथा कनैरकी जड़ प्रत्येक एक एक| विडङ्गडगजाकुष्ठनिशासिन्धूत्थसपैः। तोलेका चूर्ण एक आढ़क भूसी सहित अन्नकी काजी अथवा धान्याम्लपिष्टैर्लेपोऽयं दद्दूकुष्ठरुजापहः ॥१९॥ ढाकके वृक्षको जलाकर नीचे टपके हुए रसके साथ अवलेहके वायविडंग, पांड़, कूठ, हल्दी, सेंधानमक व सरसोंसमान कल्छीमें चिपटने तक पकाना चाहिये । यह कुष्ठ नाश को काजीमें पीसकर लेप करनेसे ददु कुष्ठ नष्ट होते करनेमें श्रेष्ठ है ॥ १३ ॥ १४ ॥ हैं॥ १९॥ कुष्ठादिलेपः। दूर्वादिलेपः। कुष्ठं हरिद्रे सुरसं पटोले दूर्वाभयासैन्धवचक्रमर्दनिम्बाश्वगन्धे सुरदारुशिमू। कुठेरकाः काजिकतक्रपिष्टाः । ससर्षपं तुम्बुरुधान्यवन्यं त्रिभिः प्रलैपैरतिबद्धमूलं चण्डाञ्च दूर्वाञ्च समानि कुर्यात् ॥ १५॥ दर्दू च कुष्ठं च निवारयन्ति ॥२०॥ तैस्तक्रयुक्तः प्रथमं शरीरं दूर्वा, बड़ी हरें, सेंधा नमक, चकवड़, तथा वनतुलसीको तैलाक्तमुद्वर्तयितुं यतेत । काजी तथा मझेंमें पीसकर तीन बार लेप करनेसे ही गहरे दाद तथाऽस्य कण्डूः पिडकाः सकोष्ठाः और कुष्ठ नष्ट होते हैं ॥२०॥ कुष्ठानि शोथाश्च शमं प्रयान्ति ॥१६॥ ददुगजेंद्रसिंहो लेपः। कूठ, हल्दी, दारुहल्दी, तुलसी, परवलकी पत्ती, नीम, तुल्यो रसः सालतरोस्तुषेण असगन्ध, देवदारु, सहिजन, तुम्बुरु, सरसों, धनियां, केवटी सचक्रमर्दोऽप्यभयाविमिश्रः । मोथा, दन्ती और दूर्वा समान भाग ले मद्रुमें मिला पानीयभक्तेन तदाऽम्बुपिष्टो कर पहिले तैल लगाये हुए शरीरमें उबटन करना चाहिये ।। लेपः कृतो ददुगजेंद्रसिंहः ॥ २१ ॥ इससे खुजली, फुन्सियां, ददरे, कुठ और सूजन शान्त होती शालका रस ( राल ), धानकी भूसी, चकवड, तथा हैं ॥ १५॥ १६ ॥ बड़ी हर्रका छिल्का इनको चावलके जलमें पीसकर लेप करनेसे त्रिफलादिलेपः। ददरूपी गजेन्द्रको सिंहके समान नष्ट करता है ॥२१॥ धात्र्यक्षपथ्याक्रिमिशत्रुवहि विविधा लेपाः। भल्लातकावल्गुजलोहभृङ्गः। प्रपुन्नाडस्य बीजानि धात्री सर्जरसः स्नुही । भागाभिवृद्धैस्तिलतैलमित्रैः सौवीरपिष्टं ददूणामेतदुद्वर्तनं परम् ॥ २२ ॥ सर्वाणि कुष्ठानि निहन्ति लेपः ॥१७॥ | चक्रमर्दकबीजानि करखं च समांशकम् । आमला १ भाग बहेड़ा २ भाग, हर्र ३ भाग, वायविडंग| स्तोकं सुदर्शनामूलं ददुकुष्ठविनाशनम् ॥२३ ।। ४ भाग, चीतकी जड़ ५ भाग, भिलावां ६ भाग, वकुची| लेपनाद्भक्षणाच्चैव तृणकं दद्रुनाशनम् । ७ भाग, लौहचूर्ण ८ भाग तथा भंगरा ९ भाग सबको युथीपुत्रागमूलं च लेपात्काजिकपषितम् ॥ २४ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) चक्रदत्तः। [ कुष्ठा कासमर्दकमूलं च सौवीरेण च पेषितम् ।। ददुकिटिभकुष्ठानि हन्ति सिध्मानमेव च ॥ ३३ ॥ दकिटिभकुष्ठानि जयेदेतत्प्रलेपनात् ।। २५ ॥ बीजानि वा मूलकसर्षपाणां पवांड़के बीज, आमला, राल, तथा सेहुण्डको काजीमें लाक्षारजन्यौ प्रपुनाडबीजम् । पीसकर लेप करना चाहिये। चकवड़के बीज, कजाके बीज- श्रीवेष्टकव्योषविडङ्गकुष्ठं के समान कुछ सुदर्शनकी जड़ मिलाकर लगानेसे दव नष्ट होता| पिष्ट्वा च मूत्रेण तु लेपनं स्यात् ॥३४॥ है। गन्धतृणके खाने तथा लगानेसे ददु नष्ट होता है। ददूणि सिध्मं किटिभानि पामां काजीमें जूही और सुपारीकी जड़को पीसकर अथवा कसौं ___ कापालकुष्ठं विषमं च हन्यात् ॥ ३५ ॥ दीकी जड़को काजीमें पीसकर लगानेसे दाद व किटिभकुष्ठ नष्ट एडगजकुष्ठसैन्धवसौवीरसर्षपैः क्रिमिन्नैश्च । होता है। २२-२५॥ क्रिमिसिध्मददुमण्डलकुष्ठानां नाशनो लेपः ॥ ३६॥ सिध्मे लेपाः। पवांड़के बीजोंको सेहुण्डके दूध भावना दे गोमूत्र मिला शिखरिरसेन सुपिष्ट मूलकबीजं प्रलेपतः सिध्म। धूपमें गरम कर लेप करनेसे किटिभकुष्ठ नष्ट होता है । अथवा अमलतासके पत्तोंको का में पीसकर लेप करनेसे दव, किटिभ, क्षारेण वा कदल्या रजनीमिश्रेण नाशयति ॥२६॥ कुष्ठ, और सिध्म नष्ट होते हैं । मूली, सरसोंके बीज, लाख, गन्धपाषाणचूर्णेन यवक्षारेण लेपितम् । हल्दी, पांडके वीज, गन्धाबिरोजा, त्रिकटु, वायविडङ्ग तथा सिध्मनाशं व्रजत्याशु कटुतैलयुतेन वा ।। २७ ॥ कूठको गोमूत्रमें पीसकर लेप करनेसे दुदु सिध्म किटिभ पामा कासमर्दकबीजानि मूलकानां तथैव च । और कापालकुष्ठ तथा विषमकुष्ठ नष्ट होते हैं। तथा पांड, कूठ, गन्धपाषाणामश्राणि सिध्मानां परमोधम् ॥ २८ ॥ | सेंधानमक, काजी, सरसों तथा वायविडङ्गसे बनाया गया धात्रीरसः सर्जरसः सपाक्यः लेप, क्रिमि, सिध्म, दव और मण्डलकुष्ठोंको नष्ट सौवीरपिष्टश्च तथा युतश्च । करता है ॥३२-३६ ॥ भवन्ति सिध्मानि यथा न भूय अन्ये लेपाः। स्तथैवमुद्वर्तनकं करोति ॥२९॥ कुष्ठं मूलकबीजं प्रियङ्गवः सर्षपास्तथा रजनी।। स्नुक्काण्डे सर्षपात्कल्कः कुकूलानलपाचितः। एतत्केशरयुक्तं निहन्ति बहुवार्षिकं सिम ॥३०॥ लेपाद्विचर्चिका हन्ति रागवेग इव त्रपाम् ॥ ३७॥ नीलकुरुण्टकपत्रं स्वरसेनालिप्य गात्रमतिबहुशः।। स्नुक्काण्डशुषिरे दग्ध्वा गृहधूमं ससैन्धवम् । लिम्पेन्मूलकबीजैस्तकेणेतद्वि सिध्मनाशाय ॥३१॥ अन्तर्धूमं तैलयुक्तं लेपाद्धन्ति विचार्चकाम् ।।३८ ॥ एडगजातिलसर्षपकुष्ठं मागाधिकालवणत्रयमस्तु । अपामार्ग के रसमें अथवा हल्दीयुक्त केलेके क्षारके साथ मूली-| पूतिकृतं दिवसत्रयमेतद्धन्ति विचर्चिकदद्रु सकुष्ठम्।। के बीजोंको पीसकर लगाया गया लेप सिध्म कुष्ठको नष्ट | करता है । इसी प्रकार गन्धकको जवाखार तथा कडुआ तैलमें सेहण्डकी शाखामें सरसोंका कल्क रखकर कोयलोंकी आंचमें सहुण्डकी शार मिलाकर लेप करनेसे सिध्म नष्ट होता है। इसीभांति कसौंदीके | पकाकर लेप करनेसे प्रेम वेगसे लज्जाके समान विचर्चिका नष्ट बीज, मूलीके बीज व गन्धक मिलाकर लेप करना सिध्मकी होती है। तथा सेहुण्डकी डालमें छिद्रकर अन्दर गृहधम परम औषधि है। तथा आमलेका रस, राल और खारीनमक संधानकक तेल भरकर अन्तधूम पकाकर लेप करनेसे विचइनको काजीमें पीसकर लेप करनेसे सिध्म नष्ट होकर फिर नहीं र्चिका नष्ट होती है । तथा पवांड़, तिल, सरसों, कूठ, छोटी होता। कूठ, मूलीके बीज, प्रियंगु, सरसों, हल्दी व नागकेशर पीपल, व तीनों नमकोंको दहीके तोड़के साथ तीन दिन एकमें इनका लेप पुराने सिध्मको नष्ट करता है । नील कटसैलाके रखनके अनन्तर लगानेसे विचर्चिका द्रु व कुष्ठ नष्ट होते स्वरसको देहमें लगाकर मटठेमें पिसे मुलीके बीजोंका लेप करना है ॥३७-३९ ॥ सिध्मको नष्ट करता है ॥ २६-३१ ॥ उन्मत्तकतैलम् । किटिभादिनाशका लेपाः। उन्मत्तकस्य बीजेन माणकक्षारवारिणा । चक्राह्वयं स्नुहीक्षीरभावितं मूत्रसंयुतम् । । कतैलं विपक्तव्यं शीघ्र हन्याद्विपादिकाम् ॥४०॥ रवितप्तं हि किञ्चित्तु लेपनाकिटिभापहम् ॥ ३२ ॥ धतूरेके बीजोंके कल्क तथा मानकन्दके क्षारजलसे सिद्ध आरग्वधस्य पत्राणि आरनालेन पेषयेत् । कटुतैल विपादिकाको नष्ट करता है॥४०॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (२१५) तण्डुललेपाः। ___ जो मनुष्य शुद्ध गन्धकका चूर्ण २ तोला कडुये तैलमें नारिकेलोदके न्यस्तास्तण्डुलाः प्रतितां गताः। मिला सूर्यकी किरणोंमें तपाकर ३ दिनतक पीता है और लेपाद्विपादिकां नन्ति चिरकालानुबन्धिनीम्॥४१॥ स्नान कर दूधका पथ्य लेता है, उसका शरीर कनकके नारियलके जलमें रक्खे चावल सड़ जानेपर लेप करनेसे ससमान देदीप्यमान कामयुक्त होता है । (यह मात्रा १ दिनकी विपादिकाको नष्ट करते हैं ॥४१॥ न समझना चाहिये किन्तु ३ दिनमें इतना कई बारमें खिलाना चाहिये)॥४७॥ पादस्फुटननाशको लेपः। उद्वर्तनम् । सर्जरसः सिन्धूद्भवगुडमधुमहिषाक्षगैरिकं सघृतम् ।। निशासुधारग्वधकाकमाचीसिक्थकमेतत्पदं पादस्फुटनापहं सिद्धम् ॥४२॥ __ पत्रैः सदाप्रिपुणाडबीजैः । राल, सेंधानमक, गुड़, शहद, गुग्गुल, गेरू, घी तथा मोमको मिला पकाकर लेप करनेसे पैरोंका फटना शान्त | तक्रेण पिष्टैः कटुतेलभित्रैः होता है ॥ ४२॥ पामादिषूद्वर्तनमेतदिष्टम् ॥४८॥ कच्छूहरलेपौ। हल्दी, सेहुण्ड, अमलतास तथा मकोयके पत्ते और दारुहल्दी व पवांड़के बीज सबको मठेमें पीस कडुआ तैल मिलाकर उब. अवल्गुजं कासमर्द चक्रमर्द निशायुतम् । टन लगाना पामादिमें हितकर है ॥४८॥ माणिमन्थेन तुल्यांशं मस्तुकांजिकपेषितम् ।। कच्छू कण्डूं जयत्युमां सिद्ध एष प्रयोगराट्॥४३॥ सिन्दूरयोगः। कोमलं सिंहास्यदलं सनिशं सुरभिजलेन संपिष्टम्।। सिन्दूरमरिचचूर्ण महिषीनवनीतसंयुतं बहुशः । दिवसत्रयेण नियत क्षपयति कच्छू विलेपनतः ४४] लेपानिहन्ति पामां तैलं करवीरसिद्धं वा ॥४९ ।। (१) बकुची, कसौंदी, चकवड़, हल्दी तथा सेंधानमक समान| सिंदूर. व काली मिर्चका चूर्ण भैसीके मक्खनमें मिलाकर भाग ले दहीके तोड़ व काजीमें पीसकर लेप करनेसे उग्र किच्छू अनेक बार लेप करनेसे तथा कनैरसे सिद्ध तैल लगानेसे पामा व कण्डू नष्ट होती है । अथवा (२) कोमलवासाके पत्ते और नष्ट होती है ॥४९॥ हल्दीको गोमूत्रमें पीसकर लेप करनेसे निःसन्देह ३ दिनमें कच्छ नष्ट होती है ॥४३॥ ४४ ॥ कुष्ठहरो गणः। - मांसी चन्दनसम्पाककरजारिष्टसर्षपम् । पानम्। शटीकुटजदाय॑ब्दं हन्ति कुष्ठमयं गणः ॥५०॥ हरिद्राकल्कसंयुक्तं गोमूत्रस्य पलद्वयम् । जटामांसी, चन्दन, अमलतास, कजा, नीम, सरसों, कचूर पिबेन्नरः कामचारी कच्छूपामाविनाशनम् ॥४५॥ कुटज, दारुहल्दी और नागरमोथा यह गण, कुष्ठको नष्ट हल्दीके कल्कके साथ गोमूत्र २ पल पीनेसे यथेष्ट करता है ॥५०॥ आहार विहार करनेपर भी कच्छू व पामा नष्ट होती है ॥४५॥ __भल्लातिकादिलेपः। पथ्यायोगः। भल्लातकद्वीपिसुधाकमूलं शोथपाण्ड्वामयहरी गुल्ममेहकफापहा । गुजाफलं त्र्यूषणशङ्खचूर्णम् । कच्छूपामाहरी चैव पथ्या गोमूत्रसाधिता ॥ ४६॥ तुत्थं सकुष्ठं लवणानि पञ्च गोमूत्र में पकायी गयी छोटी हरोंके सेवन करनेसे सूजन, क्षारद्वयं लाङ्गलिकां च पक्त्वा ॥५१॥ पाण्डुरोग, गुल्म, प्रमेह, कफ, कच्छू, और पामा नष्ट स्नुह्यर्कदुग्धे धनमायसस्थं होती है ॥४६॥ शलाकया तं विदधीत लेपम् । गन्धकयोगः। कुष्ठे किलासे तिलकालके च पिबति सकटुतैलं गन्धपाषाणचूर्ण अशेषदुर्नामसु चर्मकीले ॥५२॥ । रविकिरणसुतप्तं पामलो यः पलार्धम्। भिलावां, चीता, सेहुण्ड व आककी जड़, गुजाफल, त्रिकटु, त्रिदिनतदनुसिक्तः क्षीरभोजी च शीघ्रं । | शंख, तूतियां, कूठ, पांचों नमक. यवाखार, सज्जीखार, कालभवति कनकदीप्त्या कामयुक्तो मनुष्यः॥४७॥ हारी इनको सेहुंड व आकक दूधके साथ लोहेके पात्रमें पाक कर Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) . चक्रदत्तः। [कुष्ठा न Prerw-worrier गाढ़ा हो जानेपर सलाईसे लेप करना चाहिये। यह कुष्ठ, किलास, वकुचीके बीज १ कर्ष कुछ गरम जलके साथ पीकर घीके साथ तिलकालक, अश और चर्मकीलको नष्ट करता है ॥५१॥५२॥ भोजन करनेसे समस्त कुष्ठ नष्ट होते हैं ॥ ५६-५८ ॥ विषादिलेपः। त्रिफलादिक्वाथः। विषवरुणहरिद्राचित्रकागारधूम- | त्रिफलापटोलरजनीमञ्जिष्ठारोहिणीवचानिम्बैः। __ मनलमारचदूर्वाः क्षीरमकस्नुहीभ्याम् । एष कषायोऽभ्यस्तो निहन्ति कफपित्तजं कुष्ठम् ।।५९ ॥ दहति पतितमात्रात्कुष्ठजातीरशेषाः त्रिफला, परवलकी पत्ती, हल्दी, मजीठ, कुटकी, वच, कुलिशमिव सरोषाच्छकहस्ताद्विमुक्तम् ॥५३ | नीमका क्वाथ कुछ दिनतक सेवन करनेसे कफपित्तज कुष्ठ नष्ट होता है ॥ ५९॥ सांगिया, वरुणा, हल्दी, चीतकी जड़, गृहधूम्र, भिलावां, मरिच तथा दूबके चूर्णको आक और सेहुड़के दूधमें मिलाकर | छिन्नाप्रयोगः। लेप करना चाहिये । यह लगते ही समस्त कुष्ठकी जातियोंको| छिन्नायाः स्वरसो वापि सेव्यमानो यथाबलम् । इन्दके हाथसे छूटे हुए वज्रके समान नष्ट करता है ॥ ५३॥ जीणे घृतेन भुञ्जीत स्वल्पं यूषोदकेन वा। शशांकलेखादिलेहः। अतिपूतिशरीरोऽपि दिव्यरूपो भवेन्नरः॥६०॥ शशाकलेखा सविडङ्गसारा शक्तिके अनुसार गुर्चका स्वरस सेवन करते हुए ओषधि |पच जानेपर घी अथवा यूषके साथ भोजन करनेसे अति सपिप्पलीका सहुताशमूला। दुर्गान्धत शरीरवाला भी निःसन्देह स्वरूपवान् हो जाता सायोमला सामलका सतेला है ॥६ ॥ सर्वाणि कुष्ठान्युपहन्ति लीढा ॥ ५४॥ पटोलादिकाथः। वकुची, वायविडंग, छोटी पीपल, चीतकी जड़, मंडूर तथा आमलाके चूर्णको तेलके साथ चाटनेसे समस्त कुष्ठ नष्ट पटोलखदिरारिष्टत्रिफलाकृष्णवेत्रजम् । होते हैं ॥५४॥ तिक्ताशनः पिबेत्वार्थ कुष्ठी कुष्ठं व्यपोहति ॥६१॥ परवलकी पत्ती, कत्था, नीमकी छाल, त्रिफला, काला वेत सोमराजीप्रयोगः। इनके काथको पीने तथा तिक्त पदार्थ सेवन करनेसे कुष्ठरोग तीव्रण कुष्ठेन परीतदेहो नष्ट होता है ॥६१॥ यः सोमराजी नियमेन खादेत् ।। सप्तसमो योगः। संवत्सरं कृष्णतिलद्वितीयां तिलाज्यत्रिफलाक्षीद्रव्योषभल्लातशर्कराः। स सोमराजी वपुषाऽतिशेते ॥ ५५॥ । वृष्यः सप्तसमो मेध्यः कुष्ठहा कामचारिणः ।। ६२॥ तीव्र कुष्ठसे व्याप्त देहवाला जो मनुष्य काले तिलके साथ | तिल, घृत, त्रिफला, शहद, त्रिकटु, भिलावां और शक्कर ये बकुची नियमसे खाता है, उसका शरीर चंद्रमाके समान प्रका-1 सब समान भाग मिलाकर सेवन करनेसे कुष्ठ नष्ट होता है । इसे शमान होता है ॥५५॥ " सप्तसमयोग" कहते हैं। इसमें किसी प्रकारके नियमकी अवल्गुजायोगः। आवश्यकता नहीं ॥ ६२॥ धर्मसेवी कदुष्णेन वारिणा वागुजी पिबेत । विडङ्गादिचूर्णम् । क्षीरभोजी त्रिसप्ताहात्कुष्ठरोगाद्विमुच्यते ॥५६॥ विडङ्गत्रिफलाकृष्णाचूर्ण लीढं समाक्षिकम् । एकस्तिलस्य मराज्यास्तथैव च । । हन्ति कुष्ठक्रिमीन्मेहान्नाडीव्रणभगन्दरान् ॥६३ ॥ भक्ष्यमाणमिदं प्रातगुह्यविनाशनम् ॥ ५७॥ | वायावड़ा, त्रिफला तथा छोटीपीपलके चूर्णको शहदके अवल्गुजाद्वीजकर्ष पीत्वा कोष्णेन वारिणा। साथ सेवन करनेसे कुष्ठ, क्रिमि, प्रमेह, नाड़ी व्रण व भगन्दर रोग नष्ट होते हैं। ६३॥ भोजनं सर्पिषा कार्य सर्वकुष्ठप्रणाशनम् ॥ ५८॥ |" धर्मका सेवन करते हुए कुछ गरम जलके साथ २१दिनतक विजयामूलयोगः। वकुची पीना चाहिये तथा दूधका पथ्य लेना चाहिये । इससे २१ इन्द्राशनं समादाय प्रशस्तेऽहनि चोदधृतम् । दिनमें कुष्टरोग नष्ट होता है । तथा एक भाग तिल और २भाग | तच्चूर्ण मधुसर्पियी लिह्यात्क्षीरघृताशनः ॥ ६४॥ वकुची मिलाकर खानेसे गुह्यस्थानका ददु नष्ट होता है । अथवा | हत्वा च सर्वकुष्ठानि जीवेद्वर्षशतद्वयम् । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। amr-errerwww __ अच्छे दिन भागके वृक्षोंको उखाड़ चूर्ण बनाकर शहद व | को गोमूत्रमें पीसकर लेप करनेसे शरीरके समान वर्ण हो घीके साथ चाटना चाहिये । तथा दूध व घीके पथ्य लेना जाता है ॥ ७१॥ चाहिये। यह समस्त कुष्ठोंको नष्ट करता तथा पुरुषको दीर्घायु बनाता है ॥ ६४॥ धाच्यादिक्वाथः। धात्रीखादिरयोः काथं पीत्वा वल्गुजसंयुतम् । विविधा योगाः। शवेन्दुधवलं श्वित्रं तूर्ण हन्ति न संशयः ॥७२॥ यः खादेदभयारिष्टमरिष्टामलकानि वा ॥६५॥ । आंवला और कत्थेका क्वाथ वकुचीका चूर्ण मिलाकर स जयेत्सर्वकुष्ठानि मासादूर्व न संशयः। पानसे शंख और चन्द्रमाके समान चित्र भी नष्ट होता है ॥२॥ दह्यमानाच्च्युतः कुम्भे मूलगे खदिराद्रसः॥६६॥ साज्यधात्रीरसक्षौद्रो हन्यात्कुष्ठं रसायनम् ॥ ६७॥ गजलेण्डजक्षारयोगः। जो हर्र व नीमकी पत्ती, अथवा नीमकी पत्ती व आमला एक क्षारेण दग्धे गजलेण्डजे च मासतक खाता है, उसके समस्त कुष्ठ निःसन्देह नष्ट होते हैं। गजस्य मूत्रेण बहुमुते च। अथवा हरे खड़े कत्थेके वृक्षको जलाकर मूलमें टपके हुए रसको द्रोणप्रमाणे दशभागयुक्त ले घी, आमलेके रस तथा शहदके साथ सेवन करनेसे समस्त दत्त्वा पचेद्वाजमवल्गुजस्य ॥ ७३ ।। कुष्ठ नष्ट होते हैं। ६५-६७॥ एतद्यदा चिक्कणतामुपैति वायस्यादिलेपः। तदा सुसिद्धां गुडिकां प्रयुळ्यात् । वायस्येडगजाकुष्ठकृष्णाभिर्गुडिका कृता। श्वित्रं विलिम्पेदथ तेन घुष्टं बस्तमूत्रेण संपिष्टा लेपाच्छ्वित्रविनाशिनी ॥ ६८॥ - तदा बजत्याशु सवर्णभावम् ॥७४॥ मकोय, पांडके बीज, कुठ तथा छोटी पीपल पीस बकरेके क्षार द्रव्यांक साथ हाथीकी विष्ठाको जला भस्मको मूत्रमें घोट गोली बनाकर बकरके मूत्रमें ही पीसकर लेप करनेसे अनेक बार हाथीके मूत्रमें ही छानकर छने हुए १ द्रोण जलको दशमांश वकुचीका चूर्ण मिलाकर पकाना चाहिये, श्वेतकुछ नष्ट होता है ॥ ६८॥ जब यह गोली बनानेके योग्य चिकना हो जावे, तब उतार पूतिकादिलेपः। ठण्ढा कर गोली बना लेनी चाहिये, फिर इस गोलीको घिसे हुए पूतीकार्कस्नुङ्नरेन्द्रद्रुमाणां श्चित्रके ऊपर हाथीके मूत्रमें ही घिसकर लेप करना चाहिये। ___ मुत्रे पिष्टाः पल्लवाः सौमनाश्च । इससे श्वेतकुष्ठ नष्ट होता है ॥७३॥ ७४॥ लेपाच्छ्वित्रं प्रन्ति दुव्रणांश्च । __ जयन्तीयोगः। कुष्ठान्यास्युग्रनाडीव्रणांश्च ॥ ६९॥ श्वेतजयन्तीमूलं पिष्टं पीतं च गव्यपयसैव । पूतिकरज, आक, सेहुण्ड, अमलतास और चमेलीके| श्वित्रं निहन्ति नियतं रविवारे वैद्यनाथाज्ञा ॥५॥ पत्तोंको गोमत्रमें पीस लेप करनसे श्वेत कुष्ठ, दवण, कुष्ठ, अर्श| सफेद जयन्तीकी जड़को पीसकर गायके दूधके साथ तथा नाडीव्रण नष्ट होते हैं ॥ ६९॥ रविवारके दिन पीनेसे श्वित्र नष्ट हो जाता है, यह वैधनाथकी प्रतिज्ञा है ॥ ७५॥ गजादिचर्ममसीलेपः। गजचित्रव्याघ्रचर्ममसीतैलविलेपनात् । पञ्चनिम्बचूर्णम् । वित्रं नाशं व्रजेत्किं वा पूतिकीटविलेपनात् ॥७०॥ पुष्पकाले तु पुष्पाणि फलकाले फलानि च । हाथी, चीता, तथा व्याघ्रके चर्मकी भस्मको तेलमें मिला संचूर्ण्य पिचुमर्दस्य त्वङ्मूलानि दलानि च ॥७६॥ कर लेप करनसे अथवा दुर्गन्धित कीटके लेप करनेसे श्वित्र द्विरंशानि समाहृत्य भागिकानि प्रकल्पयेत् । ( सफेद कोढ़) नष्ट होता है ॥ ७०॥ त्रिफला त्र्यूषणं ब्राह्मी श्वदंष्ट्रारुष्करानिकाः ॥७॥ अवल्गुजहरिताललेपः। विडासारवाराहीलोहचूर्णामृताः समाः। कुडवोऽवल्गुजबीजाद्धरितालचतुर्थभागसंमिश्रः।। द्विहरिद्रावल्गुजकव्याधिघाताः सशर्कराः ॥७८ ॥ मूत्रेण गवां पिष्टः सवर्णकरणः परः श्वित्रे ॥१॥ कुष्ठेन्द्रयवपाठाश्च कृत्वा चूर्ण सुसंयुतम् । श्चित्रमें वकुचीके बीज १६ तोला, हरिताल ४ तोला दोनों, खदिरासननिम्बानां घनकाथेन भावयेत् ॥७९॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१८) चक्रदत्तः। [कुष्टा resor r o rarware- www -www -o-or-areral सप्तधा पञ्चनिम्बं तु मार्कवस्वरसेन तु । चित्रकादिगुग्गुलुः। स्निग्धशुद्धतनु/मान्योजयेच्च शुभे दिने ॥ ८०॥ चित्रकं त्रिफलां व्योषमजाजी कारवीं वचाम् । मधुना तिक्तहविषा खदिरासनवारिणा । सैन्धवातिविषे कुष्ठं चव्यैलायावशूकजम् ॥ ८७ ॥ लेह्यमुष्णाम्बुना वापि कोलवृद्धया पलं पिबेत् ॥८१) विडङ्गान्यजमोदां च मुस्तान्यमरदारु च । जीर्णे च भोजनं कार्य स्निग्धं लघु हितं च यत्८२॥ यावन्त्येतानि सर्वाणि तावन्मानं तु गुग्गुलुम्॥८८॥ विचर्चिकोदुम्बरपुण्डरीक संक्षुद्य सर्पिषा सार्ध गुडिकां कारयेद्भिषक् । __ कपालदकिटिमालसादीन् । प्रातर्भोजनकाले च भक्षयेत्तु यथाबलम् ।। ८९ ॥ शतारुविस्फोटविसर्पपामां हन्त्यष्टादश कुष्ठानि क्रिमीन्दुष्टव्रणानि च । कफप्रकोपं त्रिविधं किलासम् ।। ८३ ॥ ग्रहण्यशोविकारांश्च मुखामयगलग्रहान् ॥९॥ गृध्रसीमथ भग्नं च गुल्मं चाशु नियच्छति । भगन्दरश्लीपदवातरक्त व्याधीन्कोष्ठगतांश्चान्याञ्जयद्विष्णुरिवासुरान्॥११॥ ___जातान्ध्यनाडीव्रणशीर्षरोगान् । सर्वान्प्रमेहान्प्रदरांश्च सर्वान् चीतेकी जड़, त्रिफला, त्रिकटु, जीरा, काला जीरा, बच, दंष्ट्राविवं मूलविषं निहन्ति ॥ ८४ ॥ सैंधव, अतीस, कूठ, चव्य, इलायची, जवाखार, वायविडंग, अजमोद, नागर मोथा तथा देवदार प्रत्येक समान भाग कूट स्थूलोदरः सिंहकृशोदरश्च छान सबके समान गुग्गुलु मिलाकर गोली बना लेनी चाहिये । सुश्लिष्टसन्धिर्मधुनोपयोगात्। प्रातः तथा भोजनके समय बलानुसार इसका सेवन करना समोपयोगादपि ये दशन्ति चाहिये । यह अठारह प्रकारके कुष्ट, क्रिमि, दुष्ट व्रण, प्रहणी, सर्पादयो यान्ति विनाशमाशु ।। ८५॥ | अशोरोग, मुखरोग, गलरोग, गृध्रसी, भन्न तथा ओष्ठगत रोगोंको जीवेचिरं व्याधिजराविमुक्तः जैसे विष्णु राक्षसोंको नष्ट करते हैं वैसे ही नष्ट करता है८७-९१ शुभे रतश्चन्द्रसमानकान्तिः ॥८६॥ भल्लात नीमके फूलोंके समय फूल और फलोंके समय फल ले | पञ्च भल्लातकांश्छित्त्वा साधयेद् विधिवज्जले। कषायं तं पिबेच्छीतं घृतेनाक्तोष्ठतालुकः ॥ ९२ ॥ सुखाकर तथा नीमकी ही छाल, मूल व पत्तीको सुखाकर प्रत्येक २ भाग तथा त्रिफला, त्रिकटु, ब्राह्मी, गोखुरू, भिलावां, चीतकी पञ्चवृद्धथा पिबेद्यावत्सप्तति हासयेत्ततः। जड़, वायविडंग, वाराहीकन्द, लोहभस्म, गुर्च, हल्दी, दारुहल्दी, जीर्णेऽद्यादोदनं शीतं घृतक्षीरोपसंहितम् ॥ ९३॥ वकुची, अमलतास, शक्कर, कूठ, इन्द्रयव तथा पाढ़ प्रत्येक एक एतद्रसायनं मेध्यं बलीपलितनाशनम् । भाग ले चूर्ण कर कत्था विजेसार और नीमके गाढे क्वाथकी | कुष्ठार्श:क्रिमिदोषघ्नं दुष्टशुक्रविशोधनम् ॥ ९४॥ भावना देनी चाहिये । फिर इस चूर्णको भांगरेके स्वरसकी ७ पञ्च भिलावोंको दुरकुचाकर जलमें विधिपूर्वक क्वाथ बनाना भावना देनी चाहिये । फिर शुष्क चूर्ण कर निग्ध और विरे- चाहिये । फिर ओठों तथा तालमें घी लगाकर ठण्ढ़ा क्वाथ पीना चनादिसे शुद्ध शरीर होकर शुभ मुहूतेमें शहद अथवा तिक्त घृत | चाहिये । इसी प्रकार दूसरे दिन ५ बढ़ाकर अर्थात् १० भिलाअथवा कत्था व विजैसारके क्वाथके साथ अथवा गरम जलके वोका काथ पीना चाहिये । इस प्रकार जबतक ७० भिलावां न साथ ६ माशेसे १ पल तक प्रयोग करना चाहिये । औषध पच हो जाय, तबतक बढ़ाना चाहिये । फिर क्रमशः ५ पांच ही जानेपर चिकना लघु हितकारक भोजन करना चाहिये । यह प्रतिदिन घटाना चाहिये । औषध पच जानेपर घी और दूधके विचचिका, उदुम्बर, पुंडरीक, कपाल, द्रु, किटिभ, अलस, | साथ भात खाना चाहिये । यह रसायन है । मेधाको बढ़ाता, शतारु, विस्फोटक, विसर्प, पामा, कफरोग, किलास, भगन्दर, झुर्रियों तथा बालोंकी सफेदीको नष्ट करता, कुष्ट, अर्श, किमिलीपद, वातरक्त, दृष्टिदोष, नाडीव्रण, शिरीरोग, प्रमेह, प्रदर, दोषको दूर करता तथा दूषित शुक्रको शुद्ध करता है॥९२-९४॥ दंष्टाविष तथा मूलविष आदिको नष्ट करता है। शहदके साथ सेवन करनेसे मोटे पेटवाले सिंहके समान कृशोदर हो जाते है। भल्लातकतैलप्रयोगः। इसको एक वर्षभर लेनेवालेको यदि सर्प काट खाते हैं, तो वे| तैलं भल्लातकानां च पिबेन्मासं यथाबलम् । (सर्प ) ही तत्काल मर जाते हैं। इसका सेवन करनेवाला व्याधि | सर्वोपतापनिर्मुक्तो जीवेद्वर्षशतं दृढम् ॥ ९५ ॥ तथा वृद्धतादिसे रहित हो चन्द्रसमान कान्तियुक्त शुभ कर्म करता महनितक भिलावेके तैलका बलानुसार सेवन करनेसे समस्त हुआ अधिक समयतक जीता है ॥७६-८६ ॥ दुःखोंसे रहित होकर १०० वर्षतक जीता है ॥ ९५॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः। खदिरप्रयोगः। तिक्तकं घृतम् । प्रलेपोद्वर्तनस्नानपानभोजनकर्मणि । त्रिफलाद्विनिशावासायासपर्पटकूलकान् । शीलितं खादिरं वारि सर्वत्वग्दोषनाशनम् ॥१६॥ त्रायन्तीकटुकानिम्बान्प्रत्येकं द्विपलोन्मितान्॥१०५ लेप, उबटन, स्नान, पान तथा भोजनमें खदिरके जलका काथयित्वा जलद्रोणे पादशेषेण तेन तु । सेवन करनेसे समस्त त्वग्दोष नष्ट होते हैं ॥ ९६॥ घृतप्रस्थं पचेत्कल्कैः पिप्पलीवन्यचन्दनैः ॥ १०६।। तिक्तषट्पलकं घृतम् । त्रायन्तीशक्रभूनिम्बैस्तत्पीतं तिक्तकं घृतम् । निम्बं पटोलं दार्वी दुरालभां हन्ति कुष्ठज्वरार्शासि श्वयर्थै ग्रहणीगदम् । तिक्तकरोहिणी त्रिफलाम् ॥ ९७ ॥ पाण्डुरोगं विसर्प च क्लीबानामपि शस्यते ॥१०७।। कुर्यादपलांशान्पर्पटकं त्रायमाणां च । त्रिफला, हल्दी, दारुहल्दी, अडूसा, यवासा, पित्तपासंलिलाढकसिद्धानां रसेऽष्टभागस्थिते क्षिपेत्पूते । पड़ा, परवलकी पत्ती, त्रायमाण, कुटकी तथा नीमकी चन्दनकिराततिक्तकमागाधिकात्रायमाणाश्च ॥९८॥छाल प्रत्येक ८ तोला, जल १५ सेर ४८ तोला मिलाकर मुस्तावत्सकबीजं कल्कीकृतमर्धकार्षिकान् भागान् । पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर घी १२८ नवसर्पिषश्च षट् पलमेतत्सिद्धं घृतं पेयम ॥ ९९॥तोला तथा छोटी पीपल, केवटीमोथा, चन्दन, त्रायमाण, | इन्द्रयव व चिरायता प्रत्येक २ तोलाका कल्क छोड़कर सिद्ध कुष्ठज्वरगुल्मार्शोप्रहणीपाण्ड्वामयश्वयथून् । करना चाहिये । यह घृत कुष्ठ, ज्वर, अर्श, सूजन, ग्रहणीरोग, पामाविसर्पपिडकाकण्डूगलगण्डनुत्सिद्धम् ॥१००॥ पाण्डुरोग और विसर्पको नष्ट करता है । नपुसकोंके लिये भी नीमकी छाल, परवलकी पत्ती, दारुहल्दी, यवासा, कुटकी, हितकर है ॥ १०५-१०७ ॥ त्रिफला, पित्तपापड़ा तथा त्रायमाणा प्रत्येक २ तोले, जल द्रवद्वैगुण्यात् २ आढक अर्थात् ६ सेर ३२ तोले मिलाकर अष्टमांश महातिक्तकं घृतम् । शेष क्वाथ बना उतार, छानकर २४ तो० नयाघृत तथा चन्दन, सप्तच्छदं प्रतिविषां सम्पाकं तिक्तरोहिणी पाठाम१०८ चिरायता, छोटी पीपल, त्रायमाणा, नागरमोथा व इन्द्रयव | मुस्तमुशीरं त्रिफलां पटोलपिचुमर्दपर्पटकम् । प्रत्येक ६ माशेका कल्क छोड़कर घृत सिद्ध करना चाहिये । धन्वयवासं चन्दनमुपकुल्ये पद्मकं रजन्यौ च । इसका मात्रासे सेवन करनेसे कुष्ठ, ज्वर, गुल्म, अर्श, प्रहणी, षड्ग्रन्थां सविशालां शतावरीशारिवे चोभे ॥१०९ ॥ पांडुरोग, शोथ, पामा, विसर्प, पिड़का, कण्डू, और गलगण्ड | वत्सकबीजं वासां मममृतां किराततिक्तं च । रोग नष्ट होते हैं ॥ ९७-१००॥ कल्कान्कुर्यान्मतिमान्यष्टया त्रायमाणां च ॥ ११०॥ पञ्चतिक्तकं घृतम् । कल्कश्चतुर्थभागो जलमष्टगुणं रसोऽमृतफलानाम् । निम्बं पटोलं व्याघ्रीं च गुडूची वासकं तथा। द्विगुणो घृताच्च देयस्तत्सपिः पाययत्सिद्धम् ॥ १११ ॥ कुर्याद्दशपलान्भागानेकैकस्य सुकुट्टितान् ॥१०१॥ कुष्ठानि रक्तपित्तं प्रबलान्यासि रक्तवाहीनि । जलद्रोणे विपक्तव्यं यावत्पादावशेषितम् ।। वीसर्पमम्लपित्तं वातासक्पाण्डुरोगं च ॥ ११२॥ घृतप्रस्थं पचेत्तेन त्रिफलागर्भसंयुतम् ॥ १०२॥ विस्फोटकान्सपामानुन्मादं कामलां ज्वरं कण्डूम् । पञ्चतिक्तमिदं ख्यातं सर्पिः कुष्ठविनाशनम् । हृद्रोगगुल्मपिडकामसृग्दरं गण्डमालां च ॥११३॥ अशीतिं वातजान्रोगांश्चत्वारिंशच्च पैत्तिकान्॥१०३ हन्यादेतत्सद्यः पीतं काले यथाबलं सर्पिः। विंशतिं श्लैष्मिकांश्चैव पानादेवापकर्षति । योगशतैरप्यजितान्महाविकारान्महातिक्तम् ॥ ११४॥ दुष्टव्रणक्रिमीनर्शः पञ्च कासांश्च नाशयेत्॥१०४॥ सप्तपर्ण, अतीस, अमलतासका गूदा, कुटकी, पाढ, नीम, परवल, छोटी कटेरी, गुर्च, तथा असा प्रत्येक ४० नागरमोथा, खश, त्रिफला, पटोल, निम्ब, पित्तपापड़ा, यवासा, मोला ले दरकचाकर जल १ द्रोणमें पकाना चाहिये. चतोंश | चन्दन, छोटी व बड़ी पपिल, पद्माख, हल्दी, दारुहल्दी. शेष रहनेपर उतार, छानकर घी १ प्रस्थ तथा त्रिफलाका मिलित वच, इन्द्रायण, शतावर, दोनों सारिवा, इन्द्रयव, अडूसा, कल्क १६ तोला मिलाकर सिद्ध करना चाहिये । यह “पञ्चति-मूर्वा, गुर्च, चिरायता, तथा त्रायमाणका घाँसे चतुः तघृत" कुष्ठ, वात, कफ, पित्तके समस्त रोग, दुष्ट व्रण, कीड़े जल अठगुना तथा परवलके फलोंका क्वाथ विधिवत् बनाकर और अर्शको पीनेसे ही नष्ट करता है ॥ १०१-१०४॥ | घीसे दूना छोड़कर घी पकाना चाहिये । यह घृत, सैकड़ों Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१०) चक्रदत्तः। [कुष्ठा न्न योगोंसे असाध्य कुष्ठ, रक्तपित्त, रक्तस्रावी अर्श, विसर्प, अम्ल- | नाडीव्रणार्बुदभगन्दरगण्डमाला पित्त, वातरक्क, पाण्डुरोग, विस्फोटक, पामा, उन्माद, कामला, ___जब_सर्वगतगुल्मगुदोत्थमहान् । ज्वर, कण्ड्रोग, हृद्रोग, गुल्म, पिड़िका, रक्तप्रदर तथा गण्ड यक्ष्मारुचिश्वसनपीनसकासशोषमालाको बलानुसार सेवन करनेसे नष्ट करता है । इसे “ महा-- हृत्पाण्डुरोगगलविद्रधिवातरक्तम् ॥१२३ ॥ तिक्तक घृत" कहते हैं ॥ १०८-११४ ॥ नीमकी छाल, गुर्च, अडूसा, परवल, तथा छोटी महाखदिरं घृतम् । | कटेरी प्रत्येक ४० तो० लेकर जल २५ सेर ४८ तो. खदिरस्य तुलाः पञ्च शिंशपाशनयोस्तुले । मिलाकर पकाना चाहिये । अष्टमांश रह जानेपर उतार छानकर तलार्धाः सर्व एवैते करजारिष्टवेतसाः ।। ११५ ।। घी १२८ तो० तथा पाढ़, वायविडङ्ग, देवदारु, गजपीपल, पर्पटः कुटजश्चैव वृषः क्रिमिहरस्तथा। जवाखार, सज्जीखार, सोंठ, हल्दी, सौंफ, चव्य, कूठ, तेजोवती, हरिद्रे कृतमालश्च गुडूची त्रिफला त्रिवृत्॥११६॥ मरिच, कुड़ेकी छाल, अजवायन, चीतकी जड़, कुटकी, सप्तपर्णस्तु संक्षुण्णो दशद्रोणे च वारिणः । भिलावां, दूधिया वच, पिपरामूल, मजीठ, अतीस, त्रिफला, व अष्टभागावशेषं तु कषायमवतारयेत् ॥ ११७॥ अजमोद प्रत्येकका एक तोला महीन पिसा हुआ कल्क तथा धात्रीरसं च तुल्यांशं सर्पिषश्चाढकं पचेत् । शुद्ध गुग्गुलु २० तोला मिलाकर पकाना चाहिये । यह विष, महातिक्तककल्कैश्च यथोक्तः पलसंमितैः ॥ ११८॥ अति प्रबल वायु सन्धि अस्थि तथा मज्जागत कुष्ठ, नाडीव्रण, | अर्बुद, भगन्दर, गण्डमाला, जव॒र्ध्वजरोग, सर्वगतरोग, गुल्म, निहन्ति सर्वकुष्ठानि पानाभ्यंगान्निषेवणात् । अर्श, प्रमेह, यक्ष्मा, अरुचि, श्वास, पीनस, कास, शोष, महाखदिरमित्येतत्परं कुष्ठविनाशनम् ॥ ११९॥ हरोग, पाण्डुरोग, गलविद्रधि और वातरक्तको नष्ट कथा २५ सेर शीशम व विजेसार दोनों मिलाकर १० करता है ॥ १२०-१२३॥ सेर तथा कजा, नीमकी छाल, वेत, पित्तपापड़ा, कुरैयेकी छाल, आंवला, वायविडंग, हल्दी, दारुहल्दी, गुर्च, त्रिफला, वज्रकं घृतम् । निसोथ, व सप्तपर्ण प्रत्येक २॥ सेर, जल १० द्रोण द्रवद्वैगुण्य वासागुडूचीत्रिफलापटोलकर २५६ सेरमें मिलाकर पकाना चाहिये, अष्टमांश शेष ___ करजनिम्बाशनकृष्णवेत्रम् । रहनेपर उतार कर छानना चाहिये । फिर आंवलेका रस ६ तत्काथकल्केन घृतं विपकं सेर ३२ तो० तथा घी ६ सेर ३२ तोला तथा महातिक्त तद्वज्रकं कुष्ठहरं प्रदिष्टम् ।। १२४॥ घृतकी प्रत्येक औषधिका कल्क ४ तोला मिलाकर पकाना विशीर्णकर्णागुलिहस्तपादः चाहिये । इस घृतके पीने तथा मालिश करनेसे समस्त कुष्ठ नष्ट होते हैं। यह “ महाखदिर" नामक घृत कुष्ठके नष्ट करनेमें क्रिम्यादतो भिन्नगलोऽपि मर्त्यः। श्रेष्ठ है ॥ ११५-११९॥ पौराणिकी कान्तिमवाप्य जीवे दव्याहतो वर्षशतं च कुष्ठी ॥ १२५ ॥ पञ्चतिक्तकगुग्मुलुः। अडूसा, गुर्च, त्रिफला, परवलकी पत्ती, का, नीमकी निम्बामृतावृषपटोलनिदिग्धिकानां छाल, विजैसार तथा काले वेतके क्वाथ व कल्कसे पकाया घृत __ भागान्पृथग्दशपलान्विपचेद् घटेऽपाम् । | "बज्रक" कहा जाता है । यह कुष्ठको नष्ट करता है । इससे अष्टांशशेषितजलेन सुनिःस्रुतेन कीड़ोंसे पीड़ित स्वरभेदयुक्त कुष्ठी पुनः पुरानी कान्तिको प्राप्त प्रस्थं घृतस्य विपचेत्पिचुभागकल्कैः॥१२०॥ कर १०० वर्षर्तक सुखपूर्वक जीता है ॥ १२४ ॥ १२५ ॥ पाठाविडङ्गसुरदारुगजोपकुल्या. द्विक्षारनागरनिशामिशिचव्यकुष्ठैः आरग्वधादितैलम् । तेजोवतीमरिचवत्सकदीप्यकाग्नि आरग्वधं धवं कुष्ठं हरितालं मनःशिलाम् । रोहिण्यरुष्करवचाकणमूलयुक्तः ॥ १२१ ।। रजनीद्वयसंयुक्तं पचेत्तैलं विधानवित् । मञ्जिष्ठयाऽतिविषया वरया यमान्या एतेनाभ्यञ्जयेच्छवित्री क्षिप्रं श्वित्रं विनश्यति १२६ संशुद्धगुग्गुलुपलैरपि पञ्चसङ्ख्यैः । अमलतास, धायके फूल, कूठ, हरिताल, मेनसिल, हल्दी तत्सेवितं विषमतिप्रबलं समीरं |तथा दारुहल्दीके कल्कके साथ तैल पकाकर श्चित्र वालोंको सन्ध्यस्थिमज्जगतमप्यथ कुष्ठमीहक॥१२२॥मालिश करना चाहिये । इससे चित्र नष्ट होता है। १२६॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (२२१) - - तृणकतैलम् । करञ्जबीजं त्रिफलां त्रिकटुं रजनीद्वयम् । मजिष्ठारुनिशाचक्रमरग्वधपल्लवैः । सिद्धार्थकं विडङ्गं च प्रपुनाडतिलैः सह ।।१३७ ॥ तृणकस्वरसे सिद्धं तैलं कुष्ठहरं कटु ॥ १२७ ॥ | मूत्रपिष्टैः पचेत्तैलमभिः कुष्ठविनाशनम् । मजीठ, कूठ, हल्दी, चकवड़ तथा अमलतासके पत्तोंका अभ्यङ्गाद्वज्रकं नाम नाडीदुष्टव्रणापहम् ।। १३८॥ कल्क और तृणपश्चमूलका स्वरस छोड़कर सिद्ध कडुआ तैल सप्तपर्ण, कजा, आक, चमेली और कनेरकी जड़ तथा कुष्ठको नष्ट करता है ॥ १२ ॥ थूहर, सिरसा और चीता व आस्फोतेकी जड़, कञ्जाके बीज, महातृणकतैलम् । | त्रिफला, त्रिकटु, हल्दी, दारुहल्दी, सरसों, वायविडङ्ग, पवांडके बीज तथा काले तिल इनको गोमूत्रमें पीस कल्क बना हरिद्रात्रिफलादारुहयमारकचित्रकम् । छोड़कर जलके साथ तैल पकाना चाहिये । यह तैल सप्तच्छदश्च निम्बत्वकरखो वालकं नखी ॥१२८॥ मालिश करनेसे कुष्ठ तथा नाडीव्रण व दुष्ट व्रणको नष्ट करता कुष्ठमेडगजाबीजं लाङ्गली गाणकारिका॥१२९ ॥an 38-320 जातीपत्रं च दावी च हरितालं मनःशिला । कलिङ्गा तिलपत्रं च अर्कक्षीरं च गुग्गुलुः॥१३०॥ मरिचायं तैलम् । गुडत्वङ्मरिचं चैव कुंकुम प्रन्थिपर्णकम् । मरिचालशिलाह्वार्कपयोऽश्वारिजटात्रिवृत् । सर्जपर्णाशखदिरविडङ्गं पिप्पली वचा ॥ १३१ ॥ शकृद्रसविशालारुनिशायुग्दारुचन्दनैः ।।१३९ ॥ घनरेण्वमृतायष्टिकेशरं ध्यामकं विषम् । कटुतैलात्पचे प्रस्थं द्वयक्षैर्विषपलान्वितैः । विश्वकट्फलमाजिष्ठा वोलस्तुम्बीफलं तथा ॥१३२॥ सगोमूत्रं तदभ्यङ्गाददुश्वित्रविनाशनम् । स्नुहीसम्पाकयोः पत्रं वागुजीबीजमांसिके। । सर्वेष्वपि च कुष्ठेषु तैलमेतत्प्रशस्यते ॥ १४०॥ एला ज्योतिष्मतीमूलं शिरीषो गोमयाद्रसः॥१३३॥ काली मिर्च, हरताल, मैनसिल, आकका दूध, कनेरकी जड़, चन्दने कुष्ठनिर्गुण्डी विशाला मल्लिकाद्वयम् । निसोथ, गोबरका रस, इन्द्रायण, कूठ, हल्दी, दारुहल्दी, वासाऽश्वगन्धा ब्राह्मी च श्याई चम्पककटफलम३४| देवदारु तथा चन्दन प्रत्येक दो तोला, विष ४ तोला, कडुआ एतैःकल्कैः पचेत्तैलं तृणकस्वरसद्रवम् । तैल १२८ तोला तथा चतुर्गुण गामूत्र छोड़कर पकाना चाहिये। सर्वत्वग्दोषहरणं महातृणकसंज्ञितम् ।। १३५ ॥ यह तैल मालिश करनेसे दद्र, श्वित्र तथा समस्त कुष्ठोंको नष्ट | करता है ॥ १३९ ॥ १४०॥ हल्दी, त्रिफला, देवदारु, कनेर, चीतेकी जड़, सप्तपर्ण, | नीमकी छाल, कजा, सुगन्धवाला, नख, कूठ, पांडके बीज, बृहन्मरिचायं तैलम् । कलिहारी, अरणी, जावित्री, दारुहल्दी, हरताल, मैनशिल, मरिचं त्रिवृता दन्ती क्षीरमार्क शकृद्रसः। इन्द्रयव, तिलकी पत्ती, आकका दूध, गुग्गुलु, दालचीनी, देवदारु हरिद्रे द्वे मांसी कुष्ठं सचन्दनम् ॥ १४ १ काली मिर्च, केशर, भटेउर, राल, छोटी तुलसी, कत्था,। विशाला करवीरं च हरितालं मनःशिला । वायविडंग, छोटी पीपल, दूधिया वच, नागरमोथा, सम्भालूके | बीज, गुर्च, मौरेठी, नागकेशर, रोहिषघास, शुद्ध सींगिया, चित्रको लाङ्गलाख्या च विडङ्गं चक्रमर्दकम् १४२ सोंठ, कैफरा, मजीठ, वोल, तोम्बीके बीज, थूहरके पत्ते, अमल शिरीष कुटजो निम्बं सप्तपर्णस्नुहामृताः। तासके पत्ते, बकुचीके बीज, जटामांसी, छोटी इलायची, माल- सम्पाको नक्तमालोऽब्दः खदिरं पिप्पली वचा १४३ कांगनीकी जड़, सिरसाकी छाल, गोबरका रस, सफेद चन्दन, ज्योतिष्मती च पलिका विषस्य द्विपलं भवेत् । लाल चन्दन, कूठ, सम्भालूकी पत्ती, इन्द्रायणकी जड़, चमेलीके आढकं कटुतैलस्य गोमूत्रं तु चतुर्गुणम् ॥ १४४॥ फूल, बेलाके फूल, अडूसा, असगन्ध, ब्राह्मी, गन्धाबिरोजा पक्त्वा तैलवरं ह्येतन्म्रक्षयेत्कौष्ठिकान्त्रणान्॥१४५। चम्पाके फूल व केफराका कल्क और तृणपञ्चमूलका स्वरस मृत्पात्रे लौहपात्रे वा शनैर्मुद्वग्निना पचेत् । छोड़कर तैल पकाना चाहिये । यह तैल समस्त त्वग्दोषोंको पामाविचर्चिकाददुकण्डूविस्फोटकानि च । नष्ट करता है ॥ १२८-१३५॥ वलयः पलितं छाया नीली व्यङ्गस्तथैव च । वज्रकं तैलम् । अभ्यङ्गेन प्रणश्यन्ति सौकुमार्य च जायते ॥१४६॥ सप्तपर्णकर जार्कमालतीकरवरिजम् । प्रथमे वयसि स्त्रीणां यासां नस्यं तु दीयते । मूलं स्नुहीशिरीषाभ्यां चित्रकास्फोतयोरपि१३६ ॥। परामपि जरां प्राप्य न स्तना यान्ति नम्रताम्१४७॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) चक्रदत्तः । वर्दस्तुरङ्गो वा गजो वा वायुपीडितः । एभिरभ्यञ्जनैर्गाढं भवेन्मारुतविक्रमः ॥ १४८ ॥ काली मिर्च, निसोथ, दन्ती, आकका दूध, गोबरका रस, देवदारु, हल्दी, दारूहल्दी, जटामांसी, कूठ, चन्दन, इन्द्रायण, कनेरकी छाल, हरताल, मैनशिल, चीतकी जड़, कलिहारी, वायविडंग, चकवड़के बीज, सिरसेकी छाल, कुरैयेकी छाल, नीमकी छाल, सतौना, हुण्ड, गुर्च, अमलतास के पत्ते, कजा, नागरमोथा, कथा, छोटी पीपल, दूधिया बच, तथा मालकांगनी प्रत्येक ४ तोला, सांगिया ८ ताला, कडुआ तैल १ आढ़क (द्रवद्वैगुण्यकर ६ सेर ३२ तोला ) गोमूत्र २५ सेर ४८ तोला छोड़कर मिट्टी या लोहके पात्रमें मन्द आचसे पकाना चाहिये । इस उत्तम तैलको कुष्ठवालोंके व्रणोंमें लगाना चाहिये । इससे पामा, बिवाई, दाद, खुजली, फफोले, झुर्रियां, बालोंकी सफेदी, उहां तथा झांई नष्ट होते हैं और शरीर सुन्दर होता है । जिन स्त्रियोंको छोटी अवस्थामें इस तैलका नस्य दिया जाता है, उनके बहुत बुढापामें भी स्तन कड़े बने रहते हैं । वायुसे पीड़ित बैल घोड़ा अथवा हाथी इसकी मालिशसे वायुके समान वेगवाला होता हैं ॥ १४१-१४८ ॥ विषतैलम् । नक्तमालं हरिद्रे द्वे अर्कस्तगरमेव च । करवीरं वचा कुष्ठमास्फोता रक्तचन्दनम् ॥ १४९॥ मालती सप्तपर्ण च मञ्जिष्ठा सिन्धुवारिका । एषामर्धपलान्भागान्विषस्यापि पलं तथा ॥ १५० ॥ चतुर्गुणे गवां मूत्र तैलप्रस्थं विपाचयेत् । श्वित्रविस्फोटाकेटिभकीटलूताविचर्चिकाः ॥ १५१ ॥ कण्डूकच्छ्रविकाराश्च ये व्रणा विषदूषिताः । विषतैलमिदं नाम्ना सर्वत्रणविशोधनम् ॥ १५२ ॥ कञ्ज, हल्दी, दारूहल्दी, आक, तगर, कनेर, बच, कूठ, आस्फोता, लालचन्दन, चमेली, सतौना, मञ्जीठ तथा सम्भालू प्रत्येक २ तोला, सींगिया ४ तोला, तैल एक प्रस्थ, ( द्रवद्वैगुण्यसे १ सेर ९ छ. ३ तोला ) चतुर्गुण गोमूत्र मिलाकर पकाना चाहिये । इस तैलसे सफेद कुष्ठ, फफोले, किटिभ, कीट, मकडीका विष, विचर्चिका, खुजली, कच्छू तथा विषसे दूषित व्रण नष्ट होते हैं । यह “ विषतैल " समस्त व्रणोंको शुद्ध करता है ।। १४९- १५२ ॥ करवीराद्यं तैलम् । श्वेतकरवीरकरसो गोमूत्रं चित्रकं विडङ्गं च । कुष्ठेषु तैलयोग: सिद्धोऽयं संमतो भिषजाम् १५३ ॥ सफेद कनेरका रस, गोमूत्र, चीतकी जड़ और वायबिडंग, मिलाकर विधिपूर्वक सिद्ध तेल सब कुष्ठों को नष्ट करने बाला है, ऐसा वैद्यलोग बताते हैं ॥ १५३ ॥ [ कुष्ठा अपरं करवीराद्यं तैलम् | श्वेतकर वीरमूलं विषांशसाधितं गवां मूत्रे । चर्मदल सिध्मपामाविस्फोटक्रिमिकिटिभजित्तैलम् १५४ सफेद कनेरकी जड़ और सीगियाका कहक तथा गोमूत्र मिलाकर सिद्ध तेल चर्मदल, खुजली, सिघ्मकुष्ठ, फफोले, कीड़े और किटिभ कुष्ठको नष्ट करता है ॥ १५४ ॥ सिन्दूराद्यं तैलम् । सिन्दूरार्धपलं पिष्ट्ा जीरकस्य पलं तथा । कटुतैलं पचेन्मानीं सद्यः पामाहरं परम् ॥ १५५ ॥ सिन्दूर २ तोला, जीरा ४ तोला, कडुआ तैल ३२ तोला मिला पकाकर लगानेसे तत्काल खुजली नष्ट होती है ॥ १५५ ॥ महासिन्दूराद्यं तैलम् । सिन्दूरं चन्दनं मांसीविडङ्गं रजनीद्वयम् । प्रियं पद्मकं कुष्ठं मञ्जिष्ठां खदिरं वचाम् ॥ १५६ जात्यर्कत्रिवृतानिम्बकरञ्जविषमेव च । कृष्णवेत्रकलोध्रं च प्रपुन्नाडं च संहरेत् ॥ १५७ ॥ लक्ष्णपिष्टानि सर्वाणि योजयेत्तैलमात्रया । अभ्यङ्गेन प्रयुंजीत सर्वकुष्ठविनाशनम् ॥ १५८ ॥ पामाविचर्चिकाकण्डूविसर्पादिविनाशनम् । रक्तपित्तोत्थितान्हन्ति रोगानेवंविधान्बहून् ॥ १५९ सिन्दूर, चन्दन, जटामांसी, वायविडंग, हल्दी, दारूहल्दी फूलप्रियङ्गु, पद्माख, कूठ, मञ्जीठ, कत्था, वच, चमेली, आक, निसोथ, नीमकी छाल, कजा, सींगिया, काला वेत, लोध तथा पवाड़ के बीज सबको महीन पीस तैल मिलाकर पकाना चाहिये । इसकी मालिश करनेसे समस्त कुष्ठ, पामा, विचर्चिका, कण्डू, विसर्प तथा रक्तपित्त रोग नष्ट होते हैं ॥ १५६-१५९ ॥ आदित्यपाकं तैलम् । मञ्जिष्ठा त्रिफलालाक्षानिशा गन्धारीलालकैः । चूर्णितेस्तैलमादित्यपाकं पामाहरं परम् ॥ १६० ॥ मजीठ, त्रिफला, लाख, हल्दी, मनशिल, तथा गन्धकका चूर्ण कर तैल मिला सूर्य की किरणोंसे ( ७ दिनतक ) पकाना चाहिये । यह तैल पामाको नष्ट करता है ॥ १६० ॥ दूर्वाद्यं तैलम् । स्वरसे चैव दूर्वायाः पचेत्तैलं चतुर्गुणे । कच्छू विचर्चिकापामा अभ्यङ्गादेव नाशयेत् १६१॥ दूब स्वरसमें चतुर्थांश तेल मिला पकाकर मालिश करनेसे कच्छ, बिवाई और पामा नष्ट होती है ॥ १६१ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः । I अर्कतैलम् | अर्कपत्ररसे पक्कं कटुतेलं निशायुतम् । मनःशिलायुतं वापि पामाकच्छ्वादिनाशनम् १६२ आक के पत्तोंके रस और हल्दी अथवा मनशिलके कल्क के साथ सिद्ध तैल पामा, कच्छु आदिको नष्ट करता है ॥ १६२ ॥ गण्डीराद्यं तैलम् । पन्द्रह, पन्द्रह दिनमें वमन करना चाहिये । एक एक मही नेम विरेचन लेना चाहिये । तीन तीन दिनमें अवपीड़क नस्य लेना चाहिये । तथा छः छः महीने में शिराव्यघ करना ( फस्त खोलना ) चाहिये ॥ १६९ ॥ | पथ्यम् । गण्डीरिकाचित्रकमार्कवार्ककुष्ठदुमत्वग्लवणैः समूत्रैः । तैलं पचेन्मण्डलद दुकुष्ठदुष्टत्रणारुः किटिभापहारि १६३ योषिन्मांस सुरात्यागः शालिमुद्रयवादयः । पुराणास्तिक्तशाकं च जाङ्गलं कुष्ठिनां हितम् १७० थूहरका दूध, चीतकी जड़, भांगरी, आक, कूठ तथा अमलतासकी छाल, लवण और गोमूत्र मिलाकर सिद्ध किया हैं ॥ १७० ॥ तैल मण्डल, ददु, कुष्ठ, दुष्ट व्रण, अरूंषिका और किटिभको नष्ट करता है ॥ १६३ ॥ गया चित्रकादि तैलम् । चित्रकस्याथ निर्गुण्डया हयमारस्य मूलतः । नाडीच बीजाद्विषतः काजिपिष्टं पलं पलम् १६४ करञ्जतैलाष्टपलं काञ्जिकस्य पलं पुनः मिश्रितं सूर्यसन्तप्तं तैलं कुष्ठत्रणास्रजित् ॥ १६५ ॥ चीतकी जड़, सम्भालूकी जड़, कनेरकी जड़, नाड़ीचके बीज, तथा सींगिया प्रत्येक ४ तोला काजी में पीस, कञ्जीका तैल ३२ तोला और काजी ४ तोला, मिलाकर सूर्यकी किरणोंमें तपाना चाहिये । यह तैल कुष्ठ, व्रण और रक्तदोषको नष्ट करता है ॥ १६४ ॥ १६५ ॥ सोमराजीतैलम् । सोमराजी हरिद्रे द्वे सर्षपारग्वधं गदम् । करजैडगजाबीजं गर्भं दत्त्वा विपाचयेत् ॥ १६६॥ तैलं सर्षपसम्भूतं नाडीदुष्टत्रणापहम् । अनेनाशु प्रशाम्यन्ति कुष्ठान्यष्टादशैव तु ॥ १६७॥ नीलका पिडकाव्यङ्ग गम्भीरं वातशोणितम् । कण्डूकच्छ्रप्रशमनं कच्छूपामाविनाशनम् ॥ १६८ बकुची, हल्दी, दारूहल्दी, सरसों, अमलतास, कूठ, कक्षा तथा पवांड़ के बीजका कल्क छोड़कर सरसोंका तैल पकाना चाहिये । यह तैल नाडीव्रण, दुष्ट, व्रण, अठारह प्रकारके कुष्ठ, झाई, फुंसियां, स्थउहां, गम्भीर वातरक्त तथा खुजली आदि नष्ट करता है ॥ १६६-१६८ ॥ सामान्यनियमः । पक्षात्पक्षाच्छर्दनान्यभ्युपेयात् मासान्मासात्स्रंसनं चाप्यधस्तात् । स्त्रीगमन, मांस और शराबका त्याग, पुराने चावल, मूँग, यव तथा जङ्गली तिक्तशाक कुष्ठवालोंको हितकर होते इति कुष्टाधिकारः समाप्तः । अथोदर्दको शीतपित्ताधिकारः । साधारणः क्रमः । अभ्यङ्गः कटुतैलेन सेकश्चोष्णाम्बुभिस्ततः । उद वमनं कार्य पटोलारिष्टवारिणा ॥ १ ॥ दर्द कडुए तैलकी मालिश कर गरम जलसे सिंचन करना चाहिये । तथा परवलकी पत्ती और नीमकी पत्तीसे वमन कराना चाहिये ॥ १ ॥ विरेचनयोगः । त्रिफलापुरकृष्णाभिर्विरेकश्चात्र शस्यते । त्रिफलां क्षौद्रसहितां पिबेद्वा नवकार्षिकम् । विसर्पोक्तममृतादि भिषगत्रापि योजयेत् ॥ २ ॥ त्रिफला, गुग्गुलु और छोटी पीपलसे बिरेचन लेना चाहिये । अथवा शहदके साथ त्रिफला अथवा नवकापिंक क्वाथ ( वातरक्तोक्त ) विसर्पोक्त अमृतादि क्वाथका प्रयोग करे ॥ २ ॥ केचन योगाः । सितां मधुकसंयुक्तां गुडमामलकैः सह । गुडं दीप्यकं यस्तु खादेत्पथ्यान्नभुङ् नरः ॥ ३॥ तस्य नश्यति सप्ताहादुदर्दः सर्वदेहजः । त्र्यहास्य हान्नस्ततश्चावपीडान् मौरेठीके साथ मिश्री अथवा आंबलाके साथ गुड़ अथवा गुड़ के साथ अजवायन पथ्यान्न सेवन करते हुए जो मनुष्य मासेष्वसृमोक्षयेत्षट्सु षट्सु ॥ १६९ ॥ खाता है, उसका उदर्द सात दिनमें नष्ट हो जाता है ॥ ३ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) उद्वर्तनं लेपश्च । सिद्धार्थरजनीकल्कैः प्रपुन्नाडतिलैः सह ॥ ४ ॥ कटुतैलेनं संमिश्रमेतदुद्वर्तनं हितम् । दूर्वा निशायुतो लेपः कच्छ्रपामा विनाशनः ॥ ५ ॥ क्रिमिद दुहरश्चैव शीतपित्तहरः परः । चक्रदत्तः । सरसों, हल्दी, पवांड़के बीज तथा तिलका कल्क, कडुआ तैल मिलाकर उबटन करना चाहिये । इस प्रकार दूब और हल्दीका लेप कच्छू, पामा तथा क्रिम, दहु, और शीतपित्तको नष्ट करता है ॥ ४ ॥ ५ ॥ - अग्निमन्थमूललेपः । अग्निमन्थभवं मूलं पिष्टं पीतं च सर्पिषा ॥ ६ ॥ शीतपित्तोदर्द कोठान्सप्ताहादेव नाशयेत् । अरणीकी जड़ पसिकर घीके साथ पीनेसे सात दिनों में ही शीतपित्त, उदर्द और कोढ़को नष्ट करती है ॥ ६ ॥ - कोठसामान्यचिकित्सा । कुष्ठोक्तं च क्रमं कुर्यादम्लपित्तघ्नमेव च ॥ ७ ॥ उदर्दोक्तां क्रियां चापि कोठरोगे समासतः । सर्पिष्पीत्वा महातिक्तं कार्यं शोणितमोक्षणम् ॥८॥ कोठरोग में कुष्टोक्त, अम्लपित्तन तथा उदर्दोक्त चिकित्सा करनी चाहिये । तथा महातिक्तघृतको पीकर फस्त खुलाना चाहिये ॥ ७ ॥ ८ ॥ निम्बपत्रयोगः । निम्बस्य पत्राणि सदा घृतेन धात्री विमिश्राण्यथवोपयुज्यात् । विस्फोटको ठक्षतशीतपित्तं कण्ड्वस्रपित्तं रकसां च हन्यात् ॥ ९ ॥ नीम के पत्तोंके चूर्ण को सदा घीके साथ अथवा आंवले के साथ उपयोग करना चाहिये । इससे फफोले, ददरे, व्रण शीत पित्त, खुजली, और रक्तपित्त, तथा रकसा नामके कुष्ठ नष्ट होते हैं ॥ ९ ॥ [अम्लपिता क्षार और सेंधानमक के चूर्णको तेलमें मिलाकर मालिश करना चाहिये । खम्भारका पका फल सूखा हुआ उबालकर दूधके साथ खाने तथा पथ्यसे रहनेसे शीत पित्त नष्ट होती है । तथा तैलके साथ एलादिगणका उबटन लगाना चाहिये । सूखी मूलीके यूष, कुलथीके रस अथवा लवा व तीतरके मांसरसके साथ सदा भोजन करना चाहिये ॥ १०-१२ ॥ विविधा योगाः । क्षार सिन्धूत्थतैलैश्च गात्राभ्यङ्गं प्रयोजयेत् । मारिकाफलं पक्कं शुष्कमुत्स्वेदितं पुनः ॥ १० ॥ क्षीरेण शीतपित्तघ्नं खादितं पथ्यसेविना । तैलोद्वर्तनयोगेन योज्य एलादिको गणः ॥ ११ ॥ शुष्कमूलकयूषेण कौलत्थेन रसेन वा । भोजनं सर्वदा कार्य लावतित्तिरिजेन वा ॥ १२ ॥ सामान्यचिकित्सा | शीतलान्यन्नपानानि बुद्ध्वा दोषगतिं भिषक् । उष्णानि वा यथाकालं शतिपित्ते प्रयोजयेत् ॥ १३ ॥ शीतपित्त दोषों की गति समझकर शीत अथवा उष्ण अन्नपानका यथा समय प्रयोग करावे ॥ १३॥ इत्युदर्द कोठशीतपित्ताधिकारः समाप्तः । अथाम्लपित्ताधिकारः । सामान्यचिकित्सा | वान्ति कृत्वाम्लपित्ते तु विरेकं मृदु कारयेत् । सम्यग्वान्तविरिक्तस्य सुस्निग्धस्यानुवासनम् ॥ १ ॥ आस्थापनं चिरोद्भूते देयं दोषाद्यपेक्षया । क्रिया शुद्धस्य शमनी ह्यनुबन्धव्यपेक्षया ॥ २ ॥ दोषसंसर्गजे कार्या भेषजाहारकल्पना । उर्ध्वगं वमनैर्धीमानधोगं रेचनैर्हरेत् । तिक्तभूयिष्ठमाहारं पानं वापि प्रकल्पयेत् ॥ ३ ॥ यवगोधूमविकृतीस्तीक्ष्णसंस्कारवर्जिताः । यथास्वं लाजशक्तून्वा सितामधुयुतान्पिबेत् ॥ ४ ॥ अम्लपित्त में वमन करने के अनन्तर मृदु विरेचन करना चाहिये । ठीक वमन विरेचन कर लेनेके बाद स्नेहन कर पुराने अम्लपित्त में दोषादिके अनुसार अनुवासन या आस्थापन बस्ति देना चाहिये । शुद्ध हो जानेपर शान्त करनेवाली औषध व आहारकी कल्पना करनी चाहिये । तथा ऊर्ध्वग अम्लपित्तको वमनसे और अधोगको विरेचनसे शान्त करना चाहिये । तथा तिक्तरसयुक्त आहार अथवा पान | देना चाहिये । यव तथा गेहूँके पदार्थ तीक्ष्णसंस्कार के बिना अथवा खीलके सत्त मिश्री व शहद मिलाकर पिलाना चाहिये ॥ १-४ ॥ यवादिकाथः । निस्तुषयववृषधात्रीकाथस्त्रिसुगंधिमधुयुतः पीतः । अपनयति चाम्लपित्तं यदि भुंक्ते मुद्रयूषेण ॥ ५ ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] मापाटीकोपेतः। (२१५) - - - . भूसीरहित यव, अइसा तथा आंवलेका काढ़ा, दालचीनी, और शहदके साथ पीनेसे ज्वर, वमन व अम्लपित्तको तेजपात व इलायचीका चूर्ण तथा शहद मिलाकर पीनेसे | नष्ट करता है ॥११॥ तथा मूंगकी दालके साथ भोजन करनेसे अम्लपित्त नष्ट होता पथ्यादिचूर्णम् । है॥५॥ पथ्याभृङ्गरजश्चूर्ण युक्त जीर्णगुडेन तु । शृंगवेरादिकाथः। जयेदम्लपित्तजन्यां छर्दिमन्नविदाहजाम् ॥ १२॥ कफपित्तवमीकण्डूज्वरविस्फोटदाहहा । छोटी हर्र व भांगरेका चूर्ण पुराने गुड़के साथ अम्लपित्त पाचनो दीपनः काथः शृङ्गवेरपटोलयोः ॥६॥ |तथा अन्नविदाहजन्य छर्दिको नष्ट करता है ॥ १२॥ अदरख व परवलका क्वाथ कफपित्तज वमन, खुजली, ज्वर, वासादिगुग्गुलुः । फफोले, व दाहको नष्ट करता, पाचन तथा दीपन है ॥ ६ ॥ वासानिम्बपटोलत्रिफलाशनयासयोजितो जयति । पटोलादिक्वाथः। अधिककफमम्लपित्तं प्रयोजितो गुग्गुलुः क्रमेण १३ पटोलं नागरं धान्यं काथयित्वा जलं पिबेत् ।। अडूसा, नीमकी छाल, परवल, त्रिफला तथा विजैसार कण्डपामातिठालनं कफपित्तानिमान्दाजित ॥७॥युक्त गुग्गुलु क्रमशः आंधककफयुक्त अम्लपित्तको नाम कण्डूपामातिशूलघ्नं कफपित्ताग्निमान्द्यजित् ॥७॥| युक्त परवल, सोंठ व धनियांका क्वाथ पीनेसे खुजली, पामा, कफ,। करता है ॥१३॥ पित्त व अनिमान्यको नष्ट करता है॥७॥ विविधा योगाः। अपरः पटोलादिः। छिन्नाखदिरयष्टयाह्वदाय॑म्भो वा मधुद्रवम् । पटोलविश्वामृतरोहिणीकृतं सद्राक्षामभयां खादेत्सझौद्रां सगुडां च ताम् १४॥ जलं पिबेत्पित्तकफोच्छ्रये तु । कटुका सितावलेह्या पटोलविश्वं च क्षौद्रसंयुक्तम् । शूलभ्रमारोचकवह्निमान्द्य रक्तस्रुतौ च युक्त्या वा खण्डकूष्माण्डकं श्रेष्ठम् १५ दाहज्वरच्छर्दिनिवारणं तत् ॥ ८॥ गुर्च, कत्था, मौरेठी व दारुहल्दीके क्वाथको शहदके साथ अथवा हरड़के चूर्णको मुनक्का, शहद व पुराने गुड़के सात परवल, सोंठ, गुर्च तथा कुटकीका क्वाथ पित्तकफाधिक अथवा परवल तथा सोंठके चूर्णको शहदके साथ खानेसे अम्लअम्लपित्तमें देना चाहिये। यह शूल, भ्रम, अरोचक, अग्निमान्ध, पित्त दूर होता है । तथा रक्त गिरनेपर खण्डकूष्माण्डका प्रयोग दाह, ज्वर, और वमनको नष्ट करता है ॥ ८॥ | उत्तम है॥ १४ ॥१५॥ अपरो यवादिः। अपर पटोलादिः। यवकृष्णापटोलानां काथं क्षौद्रयुतं पिबेत् । पटोलधन्याकमहौषधाब्दैः नाशयेदम्लपित्तं च अरुचिंच वमिं तथा ॥ ९॥ कृतः कषायो विनिहन्ति शीघ्रम् । थव, छोटी पीपल व परवलके क्वाथको शहद मिलाकर मन्दानलं पित्तबलासदाहपीनेसे अम्लपित्त, असाच तथा वमन मष्ट होता है॥९॥ च्छर्दिज्वरामानिलशुलरोगान् ॥ १६॥ वासादिकाथः। परवल, धनियां, सोंठ तथा नागरमोथाका काथ शीघ्र ही मन्दाग्नि, पित्त, कफ, दाह, वमन, ज्वर, आमवात और शुल वासामृतापर्पटकनिम्बभूनिम्बमार्कवैः। | आदि रोगोंको नष्ट करता है ॥ १६ ॥ त्रिफलाकुलकः काथः सक्षौद्रश्वाम्लनाशनः ॥१०॥ गुडूच्यादिकाथः। अडूसा, गुर्च, पित्तपापड़ा, नीमकी छाल, चिरायता, भांगरा, त्रिफला तथा परवलका काथ शहदके साथ लेनेसे। छिन्नोद्भवानिम्बपटोलपत्रं अम्लपित्तको नष्ट करता है ॥१०॥ ___ फलत्रिकं सुक्कथितं सुशीतम् । क्षौद्रान्वितं पित्तमनेकरूपं फलत्रिकादिकाथः। सदारुणं हन्ति हि चाम्लपित्तम ॥१७॥ फलत्रिकं पटोलं च तिक्ताकाथः सितायुतः। । गुर्ज, नीमकी छाल, परवलकी पत्ती.तथा त्रिफलाका काथ पीतः छीतकमध्वात्तो ज्वरच्छद्यम्लपित्तजित्॥११॥ बनाय ठण्डा होनेपर शहद मिलाकर पीनेसे अनेक प्रकारका त्रिफला, परवल तथा कुटकीका काढ़ा, मिश्री, मौरेठी पित्तरोग तथा अम्ल पित्त नष्ट होता है ॥ १७ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२६) । चक्रदत्तः। [ अम्लपित्ता अन्ये योगा। और शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे अम्लपित्त नष्ट होता पटोलत्रिफलानिम्बशृतं मधुयुतं पिबेत् ।। पित्तश्लेष्मज्वरच्छर्दिदाहशुलोपशान्तये ॥ १८ ॥ पञ्चनिम्बादिचूर्णम् । सिंहास्यामृतभण्टाकीकाथं पीत्वा समाक्षिकम् । एकोऽशः पञ्चनिम्बानां द्विगुणो वृद्धदारकः । अम्लपित्तं जयेजन्तुः कासं श्वासं ज्वरं वमिम् ॥१९ शक्तुर्दशगुणो देयः शर्करामधुरीकृतः ॥ २६ ॥ वासाघृतं तिक्तघृतं पिप्पलीघृतमेव च । अम्लपित्ते प्रयोक्तव्यं गुडकूष्माण्डक तथा ॥ २०॥ शीतेन वारिणा पीतः शूलं पित्तकफोत्थितम् । पक्तिशूलापहा योगास्तथा खण्डामलक्यपि । निहन्ति चूर्ण सक्षौद्रमम्लपित्तं सुदारुणम् ॥ २७ ॥ निम्बका पञ्चांग (फूल, फल, पत्र, छाल तथा मूल) पिप्पलीमधुसंयुक्ता चाम्लपित्तविनाशिनी ॥ २१ ॥ मिलित १ भाग, विधारा २ भाग, सत्तू १० भाग, तथा शकजम्बीरस्वरसः पीतःसायं हन्त्यम्लपित्तकम् ॥२२॥ रसे मीठाकर ठण्ढे जलके साथ शहद मिलाकर पीनेसे पित्तपरवल, त्रिफला तथा नीमके क्वाथको शहद मिलाकर पानस | कफज शुल तथा अम्लपित्त नष्ट होता है ॥ २६ ॥२७॥ पित्तकफज्वर, वमन, दाह व शुल शान्त होते हैं । इसी प्रकार अडूसा, गुर्च व बड़ी कटेरीके क्वाथको शहद मिलाकर पीनेसे अभ्रादिशोधनमारणम् । मनुष्य अम्लपित्त, कास, श्वास, ज्वर, और बमनको जीतता आशुभक्तोदकैः पिष्टमभ्रकं पात्रसंस्थितम् ।। २८॥ है। अम्लपित्तमें वासाघृत, तिक्तघृत, पिप्पलीघृत और गुड़ ___ कन्दमाणास्थिसंहारखण्डकर्णरसैरथ । कूष्माण्डका प्रयोग करना चाहिये । तथा परिणाम शूलको नष्ट तण्डुलीयं च शालिं च कालमारिषजेन च ॥२९॥ करनेवाले योग अथवा खण्डामलकी अथवा शहदके साथ __ वृश्वीर बृहतीभृङ्गलक्ष्मणाकेशराजकैः। पीपल अम्लपित्तको नष्ट करती है । इसीप्रकार जम्बीरी| निम्बूका स्वरस सायंकाल पीनेसे अम्लपित्त नष्ट होता. पेषणं भावन कुयोत्पुटं चानेकशी भिषक् ॥ ३०॥ है ॥ १८-२२॥ यावन्निश्चन्द्रकं तत्स्याच्छुद्धिरेवं विहायसः। स्वर्णमाक्षिकशालिं च ध्मातं निर्वापितं जले ॥३१ गुडादिमोदकः । त्रैफलेऽथ विचूण्यैवं लोहं कान्तादिकं पुनः। गुडपिप्पलिपथ्याभिस्तुल्याभिर्मोदकः कृतः। । बृहत्पत्रकरीकर्णत्रिफलावृद्धदारजैः ॥ ३२ ॥ पित्तश्लेष्मापहः प्रोक्तो मन्दमग्निं च दीपयेत्॥२३॥ माणकन्दास्थिसंहारशृङ्गवेरभवै रसैः । डि. छोटी पीपल वह समान भाग ले गोली बना| दशमूलीमुण्डितिकातालमूलीसमुद्भवैः॥३३॥ सेवन करनेसे अम्लपित्त व कफ नष्ट होता तथा अग्नि दीप्त पुटितं साधु यत्नेन शुद्धिमेवमयो व्रजेत् । होती है ॥२३॥ वशिरं श्वेतवाट्यालं मधुपर्णी मयूरकम् ।। ३४ ॥ तण्डुलायं च वर्षाहू दत्त्वाधश्चोर्वमेव च । हिंग्वादिपुटपाकः । पाक्यं सजीर्णमण्डूरं गोमूत्रेण दिनत्रयम् ॥ ३५ ॥ हिंगु च कतकफलानि अन्तर्बाष्पमदग्धं च तथा स्थाप्यं दिनत्रयम् । चिश्चात्वचो घृतं च पुटदग्धम् । विचूर्णितं शुद्धिरियं लोहकिट्टस्य दर्शिता ।। ३६ ॥ शमयति तदम्लपित्त जयन्त्या वर्द्धमानस्य आर्द्रकस्य रसेन तु । मम्लभुजो यदि यथोत्तरं द्विगुणम् ॥ २४॥ वायस्याश्चानुपूर्व्यवं मर्दनं रसशोधनम् ॥ ३७॥ भुनी हींग १ भाग, निर्मली २ भाग, इम्लीकी छाल ४ भाग गन्धकं नवनीताख्यं क्षुद्रितं लौहभाजने । घी.८ भाग सबको पुटपाक विधिसे पकाकर सेवन करने तथा| त्रिधा चण्डातपे शुष्कं भृङ्गराजरसाप्लुतम् ॥ ३८॥ खट्टे पदार्थ खानेसे अम्लपित्त शान्त होता है॥२४॥ ततो वह्नौ द्रवीभूतं त्वरितं वस्त्रगालितम् । यत्नाद् भृङ्गरसे क्षिप्तं पुनः शुष्कं विशुध्यति॥३९॥ कान्तपात्रे वराकल्को व्युषितेऽभ्यासयोगतः। | ताजे चाबलके मांइसे अभ्रकको पीसकर मानकन्द, अस्थिसिताक्षौद्रसमायुक्तः कफपित्तहरः स्मृतः ॥ २५॥ संहार तथा खण्डकर्ण ( खारकोना ) के रस तथा चौराई व कान्तलौहके पात्र में त्रिफलाका कल्क वासी रख मिश्री शालिञ्च व मर्सा तथा पुनर्नवा, बड़ी कटेरी, भांगरा, लक्ष्मणा व वरायोगः। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (२२७) - - -- - - - काला भांगरा इनसे घोट घोट कर अनेक पुट उस समयतक भोज्यं यथेष्टमिष्टं च वारि भक्ताम्लकालिकम्॥५०॥ देना चाहिये, जबतक निश्चन्द्र न हो जाय । इस प्रकार अभ्रक हन्त्यम्लपित्तं विविधं शूलं च परिणामजम् । कार्ययोग्य होता है । तथा स्वर्णमाक्षिकको शालिञ्चशाकके पाण्डुरोगं च गुल्मं च शोथोदरगुदामयान्॥ ५१॥ रसके साथ पीसकर कान्त लौहपर लेप कर उसे त्रिफलाके यक्ष्माणं पञ्च कासांश्च मन्दाग्नित्वमरोचकम् । काथमें बुझाना चाहिये । फिर उस कान्तलौहकी श्वेत लोध्र, हस्तिकर्ण, पलाश, त्रिफला, विधारा, मानकन्द, अस्थिसंहार, प्लीहानं श्वासमानाहमामवातं सुदारुणम् । अदरख, दशमूल, मुण्डी तथा मुशलीके रसमें अनेक बार पुट गुटी क्षुधावती सेयं विख्याता रोगनाशिनी ॥५२॥ दनेसे वह शुद्ध हो जाता है । इसी प्रकार सफेद सूर्यावर्त, अभ्रक ८ तो०, लौह ४ तो०, मंडूर २ तो० सबको खरलमें सफेद खरेटी, अपामार्ग, चौराई, पुनर्नवा तथा गुर्चका कल्क छोड़कर मण्डूकपर्णी (ब्राह्मीभेद ), गजपीपल, मुशलीके रस नाच ऊपर आधा आधा रखकर ३ दिन तक गोमत्रा तथा शतावरी, भांगरा, काला भांगरा तथा मसकि रस तथा साथ मण्डूर अन्तर्बाष्प पकाना चाहिये और जलने न| त्रिफला व नागरमाथाक स्वरससे स्थालीपाक विधिसे पकाकर पावे । फिर उसका चूर्ण कर लेना चाहिये । इस प्रकार प्रत्येक पारा व गन्धक २ तोले की कजली कर मिलाना चाहिये। मण्ड्र शुद्ध हो जाता है । तथा जयंती, विधारा, अदरख, फिर बच, चव्य, अजवायन, दोनों जीरे, सौंफ, त्रिकटु, नागरऔर मकोयके रससे पारद शुद्ध होता है। आंवलासार गन्धकके मोथा, वायविडंग, पिपरामूल, लटजीरा, निसोथ, चीत, दन्ती, टुकड़ कर भांगरेके रसमें लोहेके बर्तनमें ३ दिन तक धूपमें | काला सूर्यावर्त, भांगरा, मानकन्द, खण्डकर्ण ( शकरकन्द ) सुखानेके अनन्तर आनिमें तपाकर कपड़ेसे भांगरेके रसमें ही नीलोफर, काला भांगरा तथा काकड़ासिंही प्रत्येक २ तोला ले छानकर सुखा लेनेसे शुद्ध हो जाता है । इस प्रकार समस्त वस्तु कूट कपड़छान चूर्ण कर त्रिफला प्रत्येक ६ तोला चूर्ण कर सब ओंका शोधन कर क्षुधावती गुटीमें छोड़ना चाहिये ॥२८-३९॥ | चीजोंको लोहपात्रमें अदरखके रसकी भावना दे, दण्डसे घोटकर तीन दिन धूपमें रखना चाहिये। फिर अदरखके ही रससे सिलक्षुधावती गुटी। पर पीसकर बेरकी गुठलाके बराबर गोली बनानी चाहिये । सूख जानेपर रखना चाहिये । इसे प्रातःकाल भोजनके पहिले ३ गोलि. गगनाद् द्विपलं चूर्ण लौहस्य पलमात्रकम् । योंकी मात्रामें काजीके साथ सेवन करना चाहिये । मीठे पदार्थ, लौहकिट्टपलार्ध च सर्वमेकत्र संस्थितम् ।। ४०॥ | दूध तथा नरियलका जल नहीं खाना चाहिये । शेष पदार्थ मण्डूकपर्णीवशिरतालमूलीरसैः पुनः। | यथेष्ट खाना चाहिये । विशेषतः काजी और भात तथा जलका वरीभृङ्गकेशराजकालमारिषजैरथ ॥४१॥ सेवन करना चाहिये । यह "क्षुधावती गुटी" अम्लपित्त, परित्रिफलाभद्रमुस्ताभिः स्थालीपाकाद्विपाचितम् ।। णामशूल, पाण्डुरोग, गुल्म, शोथ, उदररोग, अर्श, यक्ष्मा, पांचों | कास, मन्दाग्नि, असाचे, प्लीहा, श्वास, अफारा, आमवात इन रसगन्धकयोः कर्षों प्रत्येकं प्राह्यमेकतः॥४२॥ सब रोगोंको नष्ट करती है ॥ ४०-५२॥ तन्मर्दनाच्छिलाखल्वे यत्नतः कज्जलीकृतम्। वचा चव्यं यमानी च जीरके शतपुष्पिका ॥४३॥ जीरकाद्यं घृतम् । व्योषं मुस्तं विडङ्गं च प्रन्थिकं खरमञ्जरी। पिष्टवाजाजी सधन्याकां प्रस्थं विपाचयेत् । त्रिवृता चित्रको दन्ती सूर्यावर्तोऽसितस्तथा ॥४४॥ कफपित्तारुचिहरं मन्दानलवमि जयेत् ॥ ५३ ॥ भंगमाणककन्दश्च खण्डकर्णक एव च। जीरा व धनियांके कल्कमें १ प्रस्थ घृत पकाना चाहिये । यह दण्डोत्पलाकेशराजकालाकर्कटकोऽपि च ॥ ४५ ॥ कफपित्त, अरुचि, मन्दाग्नि व वमनको नष्ट करता है ॥५३॥ एषामर्धपलं प्राचं पटघृष्टं सुचूर्णितम् । पटोलशुण्ठीघृतम् । प्रत्येकं त्रिफलायाश्च पलाधै पलमेव च ॥४६॥ एतत्सर्व समालोडथ लोहपात्रे तु भावयेत् ।। पटोलशुण्ठ्योः कल्काभ्यां केवलं कुलकेन वा । आतपे दण्डसंघृष्टमार्द्रकस्य रसैत्रिधा ॥४७॥ घृतप्रस्थं विपक्तव्यं कफपित्तहरं परम् ॥ ५४॥ परवल व सोंठके कल्क अथवा केवल परवलके कल्कसे सिद्ध तद्रसेन शिलापिष्टां गुडिकां कारयेद्भिषक् । . घृत कफपित्तको नष्ट करता है ॥ ५४ ॥ बदरास्थिनिभां शुष्का सुनिगुप्तां निधापयेत् ॥४८॥ सत्प्रातर्भोजनादौ तु सेवितं गुडिकात्रयम्। पिप्पलीघृतम् । अम्लोदकानुपानं च हितं मधुरवर्जितम् ॥४९॥ पिप्पलीकाथकल्केन घृतं सिद्धं मधुप्लुतम् । दुग्धं च नारिकेलं च वर्जनीयं विशेषतः। पिबेत्तत्प्रातरुत्थाय अम्लपित्तनिवृत्तये ॥५५ ।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) चक्रदत्तः। - [विसर्पविस्फोटा - - - पीपलके क्वाथ व कल्कसे सिद्ध घृतमें शहदको मिलाकर | वमनम् । प्रातःकाल अम्लपित्तके निवारणार्थ पीना चाहिये ॥ ५५॥ पटोलपिचुमर्दाभ्यां पिप्पल्या मदनेन च । द्राक्षाचं घृतम् । विसर्प वमनं शस्तं तथैवेन्द्रयवैः सह ॥ २॥ द्राक्षामृताशक्रपटोलपत्रैः परवलकी पती, नीमकी छाल, छोटी पीपल, मैनफल तथा सोशीरधात्रीधनचन्दनैश्च । इन्द्रयवके साथ विसर्पमें वमन कराना चाहिये ॥२॥ त्रायन्तिकापद्मकिरातधान्यैः । विरेचनम् । कल्कैः पचेत्सर्पिरुपेतमेभिः॥५६॥ त्रिफलारससंयुक्तं सर्पित्रिवृतया सह । युजीत मात्रां सह भोजनेन प्रयोक्तव्यं विरेकार्थ विसर्पज्वरशान्तये ॥३॥ सर्वत्र पानेऽपि भिषग्विदध्यात् । रसमामलकानां वा घृतमिश्र प्रदापयेत् । बलासपित्तं ग्रहणी प्रवृद्धां त्रिफलाके रस तथा निसोथके चूर्णके साथ घृतका प्रयोग विरेकासाग्निसादं ज्वरमम्लपित्तम् । चन द्वारा विसर्प तथा ज्वरको शान्त करता है। अथवा आंवलेके सर्व निहन्याद् घृतमेतदाशु | रसको घीमें मिलाकर पिलाना चाहिये ॥३॥सम्यक्प्रयुक्तं ह्यमृतोपमं च ॥ ५७ ॥ मुनक्का, गुर्च, इन्द्रयव, परवलकी पत्ती, खश, आंवला, वातविसर्पचिकित्सा। नागरमोथा, चन्दन, त्रायमाण, कमलके फुल, चिरायता, धनियां। तृणवजे प्रयोक्तव्यं पञ्चमूलचतुष्टयम् । इनके कल्कसे युक्त घीको (विधिपूर्वक) पकाना चाहिये । इसे | | प्रदेहसेकसर्पिभिर्विस वातसम्भवे ॥४॥ भोजनके साथ मात्रासे देना चाहिये । सब ऋतुओंमें इसका | तृणपञ्चमूलको छोड़कर शेष चारों पञ्चमूलोंका लेप सेक और प्रयोग करना चाहिये । यह कफपित्त, ग्रहणी, कास, अग्निमान्य, घृतसे वातज विसर्पमें प्रयोग करना चाहिये ॥ ४ ॥ ज्वर व अम्लपित्तको नष्ट करता है। विधिपूर्वक प्रयोग करनेसे अमृतके तुल्य गुण देता है ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ ___ कुष्ठादिगणः। कुष्ठं शताबासुरदारुमुस्ताशतावरीघृतम् । वाराहिकुस्तुम्बुरुकृष्णगन्धाः । शतावरीमूलकल्कं घृतप्रस्थं पयःसमम् । वातेऽर्कवंशातंर्गलाश्च योज्याः पचेन्मृद्वग्निना सम्यक् क्षीरं दत्त्वा चतुर्गुणम्।।५८॥ सेकेषु लेपेषु तथा घृतेषु ॥५॥ नाशयेदम्लपित्तं च वातपित्तोद्भवान्गदान् । कूठ, सोंफ, देवदारु, नागरमोथा, वाराहीकन्द, धनियां, रक्तपित्तं तृषां मच्छी श्वास सन्तापमेव च ॥ ५९॥ सहिंजन, आक, वांस तथा कटसेलेका सेक, लेप तथा घृतद्वारा शतावरीका कल्क, घृत समान भाग जल तथा चतुर्गुण दूध | प्रयोग करना चाहिये ॥५॥ मिलाकर मन्दाग्निसे पकाना चाहिये । यह अम्लपित्त, वातपित्तके रोग, रकपित्त, प्यास, मूर्छा, श्वास और सन्तापको नष्ट पित्तविसर्पचिकित्सा। करता है ॥ ५८॥ ५९॥ प्रपौण्डरीकमञ्जिष्ठापद्मकोशीरचन्दनः । इत्यम्लपित्ताधिकारः समाप्तः । सयष्टीन्दीवरः पित्त क्षीरपिष्टैः प्रलेपयेत् ॥६॥ कशेरुशृङ्गाटकपद्मगुन्द्राः सशैवलाः सोत्पलकर्दमाश्च । वस्त्रान्तराः पित्तकृते विसर्प लेपा विधेयाः सघृताः सुशीताः ॥७॥ विसर्प सामान्यतश्चिकित्सा। प्रदेहाः परिषेकाश्च शस्यन्ते पञ्च वल्कलाः । विरेकवमनालेपसेचनासृग्विमोक्षणैः। पद्मकोशीरमधुकचन्दनैर्वा प्रशस्यते ॥८॥ उपाचरेद्यथादोषं विसर्पानविदाहिभिः ॥१॥ | पित्ते तु पद्मिनीपत पिष्टं वा शङ्खर्शवलम् । विसपोको दोषोंके अनुसार विरेचन, वमन, आलेप, सिञ्चन, गुन्द्रामूलं तु शुक्तिर्वा गैरिकं वा घृतान्वितम् ॥९॥ रक्तमोक्षण और अविदाही (जलन न करनेवाले) प्रयोगोंसे न्यग्रोधपादा गुन्द्रा च कदलीगर्भ एव च। चिकित्सा करनी चाहिये ॥१॥ बिसग्रन्थिकलेपः स्याच्छतधौतघृताप्लुतः ॥१०॥ अथ विसर्पविस्फोटाधिकारः। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] ... भाषाटीकोपेतः। (२२९) जन्न्न्न्न्न हरेणवो मसूराश्च मुद्गाश्चैव सशालयः। आरग्वधस्य पत्राणि त्वचः श्लेष्मातकोद्भवाः । पृथक्पृथक्प्रदेहाः स्युः सर्वैर्वा सर्पिषा सह ॥११॥ शिरीषपुष्पं कामाची हिता लेपावचूर्णनैः ॥ १७ ॥ पुण्डरिया, मजीठ, पद्माख, खश, चन्दन, मौरेठी तथा| त्रिफला, पद्माख, खश, लज्जालु, कनेर, मैनफलकी जड़ नीलोफरको दूधमें पीसकर लेप करना चाहिये । अथवा कशेरू, तथा यवासाका कफज-विसर्पनाशार्थ प्रयोग करना चाहिये। सिंघाड़ा, कमलके फूल, गुर्च, सेवार, नीलोफर तथा उसके तथा अमलतासके पत्ते, लसोड़ेकी छाल, सिरसाके फूल व पासका कीचड़ इनको धीमें मिला पतले कपड़ेपर शीत लेप मकोयका लेप व अवचूर्णन द्वारा प्रयोग करना चाहिये॥१६॥१७॥ करना चाहिये । पञ्चवल्कल अथवा पद्माख, खश, मौरेठी व त्रिदोषजविसर्पचिकित्सा। चन्दनसे लेप करना चाहिये। पित्तमें कमलिनीका कीचड़ अथवा कल्क अथवा गुर्चकी जड़ अथवा शुक्ति मुस्तारिष्टपटोलानां काथः सर्वविसर्पनुत् । अथवा घीके साथ गेरू अथवा बरगदकी वौं व गुर्च अथवा धात्रीपटोलमुद्गानामथवा घृतसंप्लुतः ॥१८॥ केलेका सार अथवा कमलकी दण्डीका लेप सो वार घोये हुए| नागरमोथा. नीमकी छाल व परवलकी पत्तीका काथ घीके साथ अथवा मटर, मसूर, मूग, चावल अलग अलग समस्त विसपोंको नष्ट करता है। अथवा आंवला, परवल और अथवा सब मिलाकर घीके साथ लेप करना चाहिये ॥६-११॥ मंगका काथ घीके साथ समस्त विसर्प नष्ट करता है ॥ १८॥ विरेचनम् । अमृतादिगुग्गुलुः । द्राक्षारग्वधकाश्मयेत्रिफलैरण्डपीलुभिः। अमृतवृषपटोलं निम्बकल्कैरुपेतं त्रिवृद्धतिकीभिश्च विसर्प शोधनं हितम् ॥ १२॥ त्रिफलखदिरसारं व्याधिघातं च तुल्यम् । मुनक्का, अमलतास, खम्भार, त्रिफला, एरण्ड, पील, निसोथ कथितमिदमशेषं गुग्गुलोर्भागयुक्तं तथा हरोंको विरेचनके लिये देना चाहिये ॥ १२ ॥ जयति विषविसर्पान्कुष्ठमष्टादशाख्यम् १९॥ श्लेष्मजविसर्पचिकित्सा। गुर्च, अडूसा, परवल, नीमकी पत्ती, त्रिफला, कत्था, गायत्रीसप्तपर्णाब्दवासारग्वधदारुभिः । | अमलतासका गूदा प्रत्येकः समान भाग, सबके समान शुद्ध गुग्गुल मिलाकर सेवन करनेसे विषदोष, विसर्प तथा अठारह कुटन्नटैर्भवेल्लेपो विसर्प श्लेष्मसम्भवे ॥१३॥ प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं ॥ १९॥ अजाश्वगन्धा सरलाथ काला सैकेशिका वाप्यथवाजशृङ्गी। अमृतादिकाथद्वयम् । गोमूत्रपिष्टो विहितः प्रलेपो अमृतवृषपटोलं मुस्तकं सप्तपर्ण हन्याद्विसपै कफजं सुशीघ्रम् ॥ १४ ॥ ___ खदिरमसितवेत्रं निम्बपत्रं हरिद्रे । कत्था, सतीना, नागरमोथा, अडूसा, अमलतासका गूदा, विविधविषविसर्पान्कुष्ठविस्फोटकण्डूदेवदारु व केवटीमोथेका लेप कफज-विसर्पमें करना चाहिये। रपनयति मसूरी शीतपित्तं ज्वरं च ॥२०॥ अथवा बबई, असगन्ध, धूप, काला निसोथ, पाढी, अथवा पटोलामृतभूनिम्बवासकारिष्टपर्पटैः मेढाशिंगी इनको गोमूत्रमें पीसकर कफजमें लेप करना खदिराब्दयुतैःकाथो विस्फोटार्तिज्वरापहः ॥२१ चाहिये ॥ १३ ॥ १४ ॥ (१) गुर्च, अडूसा, परवल, नागरमोथा, सप्तपर्ण, कत्था, काला - वमनम् । वेत, नीमकी पत्ती, हल्दी तथा दारुहल्दीका क्वाथ अनेक मदनं मधुकं निम्बं वत्सकस्य फलानि च । प्रकारके विष, विसर्प, कुष्ठ, विस्फोटक, खुजली, मसूरी, शीत पित्त और ज्वरको नष्ट करता है । इसी प्रकार (२) परवल, वमनं च विधातव्यं विस कफसम्भवे ॥१५॥ गुर्च, चिरायता, अडूसा, नीमकी पत्ती, पित्तपापड़ा, कथा, मैनफल, मौरेठी, नीमकी छाल तथा इन्द्रयवको कफज-नागरमोथाका क्वाथ, फफोला, बेचैनी व ज्वरको नष्ट बिसर्पमें वमनके लिये प्रयुक्त करना चाहिये ॥१५॥ करता है ॥२०॥२१॥ अन्ये योगाः। पटोलादिक्वाथः। त्रिफलापनकोशीरसमझाकरवीरकम् । । पटोलत्रिफलारिष्टगुडूचीमुस्तचन्दनः। फलमूलमनन्ता च लेपः श्लेष्मविसर्पहा ॥ १६॥। समूर्वा रोहिणी पाठा रजनी सदुरालभा ॥२२॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) " 'चक्रदत्तः । कषायं पाययेदेतच्छ्लेष्म पित्तज्वरापहम् । कण्डूत्वग्दोषविस्फोटविषवीसपनाशनम् ॥ २३ ॥ परवलकी पत्ती, त्रिफला, नीमकी पत्ती, गुर्च, नागरमोथा, चन्दन, मूर्वा, कुटकी, पाढ, हल्दी व यवासाका क्वाथ बनाकर पिलानेसे कफपित्तज्वर, खुजली, त्वग्दोष, फफोले, विष और विसर्प नष्ट होते ॥ २२ ॥ २३ ॥ भूनिम्बादिकाथः । भूनिम्बवासाकटुकापटोलफलत्रिकाचन्दननिम्बसिद्धः । विसर्पदाहज्वरवशोष - चिरायता, अडूसा, कुटकी, परवल की पत्ती, त्रिफला, चन्दन और नीमका क्वाथ विसर्प, दाह, ज्वर, मुखका सूखना, फफाले, तृष्णा और वमनको नष्ट करता है ॥ २४ ॥ चन्दनादिलेपः । चन्दनं नागपुष्पं च तण्डुलीयकशारिवे । शिरीषवल्कलं जातीलेपः स्याद्दाहनाशनः ॥ २८ ॥ [ विसर्पविस्फोटा सिर्साकी छाल, गूलरकी छाल व जामुनकी छाल लेप और विस्फोटतृष्णावमिनुत्कषायः ॥ २४ ॥ सेकमें हितकर हैं । अथवा लखौढाकी छाल प्रलेप और आश्च्योतनमें हितकर है ॥ ३१ ॥ 'चन्दन, नागकेशर, चौराई, शारिवा, सिर्साकी छाल, व चमेलीका लेप दाइको नष्ट करता है ॥ २८ ॥ कवलग्रहाः । शिरीषमूलमञ्जिष्ठाचव्यामलकयष्टिकाः । शुकतर्वादिलेपः । शुकतरुनते च मांसी रजनी पद्मा च तुल्यानि । पिष्टानि शीततोयेन लेपः स्यात्सर्वविस्फोटे ॥ २९ ॥ सिर्साकी छाल, तगर, जटामांसी, हल्दी, भारङ्गी इनको समान ' ले ठण्ढे जलमें पीसकर लेप करनेसे यह समस्त फफोलोंको भाग नष्ट करता है ॥ २९॥ सजाती पल्लवीद्रा विस्फोटे कवलग्रहाः || ३० ॥ सिर्साकी छाल, मञ्जीठ, चव्य, आंवला, मौरेठी तथा चमेलीकी पत्तीका चूर्ण बनाकर शहद में मिला कवल धारण करनेसे मुखके फफोले नष्ट होते हैं ॥ ३० ॥ शिरीषादिलेपाः । शिरीषोदुम्बरी जम्बु सेकालेपनयोर्हिताः । श्लेष्मातकत्वचो वापि प्रलेपाश्च्योतने हिताः॥ ३१ ॥ अन्ये योगाः । ॥ सकफे पित्तयुक्ते तु त्रिफलां योजयेत्पुरैः ॥ २५ ॥ दुरालभां पर्पटकं पटलं कटुकां तथा । सोष्णं गुग्गुलुसंमिश्रं पिबेद्वा खदिराष्टकम् ॥ २६॥ कुण्डली पिचुमर्दाम्बु खदिरेन्द्रयवाम्बु वा । विस्फोटं नाशयत्याशु वायुर्जलधरानिव ॥ २७ पित्तकफजन्य विसर्पमें गुग्गुलु के साथ त्रिफलाका प्रयोग करना चाहिये । अथवा यवासा, पित्तपापड़ा, परवल की पत्ती व कुटकी के गरम गरम क्वाथको गुग्गुलु मिलाकर पीना चाहिये | अथवा खदिराष्टकका क्वाथ ( मसूरिकाधिकारोक्त ) पीना चाहिये । अथवा गुर्च व नीमकी छालका क्वाथ अथवा कत्था व इन्द्रयवका क्वाथ विसर्पको मेघोंको वायुके समान नष्ट करता है ॥ २५-२७ ॥ सिर्साकी छाल, मौरेठी, तगर, सफेद चन्दन, छोटी इलायची, जटामांसी, हल्दी, दारुहलदी, कूठ व सुगन्धवालाका | लेप घीके साथ विसर्प, कण्डू, ज्वर और शोथको नष्ट करता है । इसे " दशाङ्गलेप ” कहते हैं ॥ ३२ ॥ दशाङ्गलेपः । शिरीषयष्टनितचन्दनेलामांसीहरिद्राद्वयकुष्ठवालेः । लेपो दशाङ्गः सघृतः प्रदिष्टो विसर्पकण्डूज्वरशोथहारी ॥ ३२ ॥ शिरीषादिलेपः । शिरीषोशीर नागाह्वहिंसाभिर्लेपनाद् दुतम् । विसर्पविषविस्फोटा: प्रशाम्यन्ति न संशयः ॥ ३३॥ सिर्सेकी छाल, खरा, नागकेशर व जटमांसीका लेप विसर्प, विष और फफोलोंको नष्ट करता है ॥ ३३ ॥ विषाद्यं घृतम् । वृषखदिर पटोलपत्रनिम्बत्वमृतामलकी कषायकल्कैः । घृतमभिनवमेतदाशु पक्कं जयति विसर्पगदान्सकुष्ठगुल्मान् ॥ ३४ ॥ अडूसा, कत्था, परवलकी पत्ती, नीमकी, छाल, गुर्च व आंवलाके क्वाथ व कल्क में सिद्ध घृत विसर्प, कुष्ठ व गुल्मको नष्ट करता है ॥ ३४ ॥ पञ्चतिक्तं घृतम् । पटोलसप्तच्छदनिम्बवासाफलत्रिकं छिन्नरुहाविपकम् । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीको पैतः । धिकारः ] तत्पश्चतिक्तं घृतमाशु इन्सि त्रिदोषविस्फोटविसर्पकण्डूः ॥ ३५ ॥ परवलकी पत्ती, सप्तपर्ण, नीमकी छाल, अडूसा, त्रिफला तथा गुर्चसे सिद्ध " पञ्चतित " कहा जाता है । यह त्रिदोषजन्य विस्फोटक, विसर्प व खुजलीको नष्ट करता है ॥ ३५ ॥ महापद्मकं घृतम् । पद्मकं मधुकं लोध्रं नागपुष्पस्य केशरम् । द्वे हरिद्रे विडङ्गानि सूक्ष्मैला तगरं तथा ॥ ३६ ॥ कुष्ठं लाक्षापत्रकं च सिक्थकं तुत्थमेव च । बहुवारः शिरीषश्च कपित्थफलमेव च ॥ ३७ ॥ तोयेनालोड्य तत्सर्वं घृतप्रस्थं विपाचयेत् । यांश्व रोगान्निहन्याद्वे तान्निबोध महामुने ॥ ३८ ॥ सर्पकीटाखुदष्टेषु लूतामूत्रकृतेषु च । विविधेषु स्फोटकेषु तथा कुष्ठविसर्पिषु ॥ ३९ ॥ नाडीषु गण्डमालासु प्रभिन्नासु विशेषतः । अगस्त्यविहितं धन्यं पद्मकं तु महाघृतम् ॥ ४० ॥ पद्माख, मौरेठी, लोध, नागकेशर, हल्दी, दारूहल्दी, वायविडङ्ग, छोटी इलायची, तगर, कूठ, लाख, तेजपात, मोम, तूतिया, लसोढ़ा, सिरसेकी छाल व कैथा इन सबका कल्क जलमें मिलाकर १ प्रस्थ घृत सिद्ध करना चाहिये । इससे सर्प, कीड़ों व मूसोंके विषमें, मकड़ीके विषमें, फफोमें तथा कुष्ठविसर्प, नासूर, व गण्डमालासें विशेष लाभ होता है । यह अगस्त्यका बनाया " महापद्माक" नामक घृत है ॥ ३६-४० ॥ स्नायुकचिकित्सा | रोगस्तु स्नायुकाख्यो यः क्रिया तत्र विसर्पवत् । गव्यं सर्पिरूयहं पीत्वा निर्गुण्डीस्वरसं त्र्यहम् । पिबेत्स्नायुकमत्युग्रं हन्त्यवश्यं न संशयः ॥ ४१ ॥ स्नायुक (नहरुवा ) नामक रोग में विसर्प के समान चिकित्सा करनी चाहिये । ३ दिन गायका घी पीकर ३ दिन सम्भालूका स्वरस पीना चाहिये । इससे उग्र स्नायुकरोग नष्ट होता है ॥ ४१ ॥ ( २३१ ) लेपः । शोभाञ्जनमूलदलैः काञ्जिकपिष्टेः सलवणैर्लेपः । हन्ति स्नायुकरोगं यद्वा मोचकत्वचो लेपः ॥ ४२ ॥ सहिजनकी मूल और पत्तोंको नमक मिला काओं में पीस - कर लेप करनेसे अथवा सेमरकी छालका लेप करनेसे स्नायुक रोग नष्ट होता है ॥ ४२ ॥ इति विसर्पविस्फोटाधिकारः समाप्तः । अथ मसूर्यधिकारः । सामान्यक्रमः । सर्वासां वमनं पथ्यं पटोलारिष्टवासकैः । कषायैश्च वचावत्सयष्ट्याह्वफल कल्कितैः ॥ १ ॥ सक्षौद्रं पाययेद् ब्राह्वया रसं वा हैलमोचिकम् । वान्तस्य रेचनं देयं शमनं चाबले नरे ॥ २॥ समस्त मसूरिकाओं में परवलकी पत्ती, नीमकी पत्ती तथा अडूसेकी पत्तीके क्वाथमें बच, कुड़ेकी छाल, मौरेठी, व | मैनफलका कल्क छोड़कर वमनके लिये पिलाना हितकर है । तथा शहदके साथ ब्राह्मीके रसको अथवा हिलमोचिका के रसको पिलाना चाहिये । वमन कराकर विरेचन करना चाहिये । तथा निर्बल पुरुषको शमनकारक उपाय करना चाहिये ॥ १॥२॥ शमनम् । सुषवी पत्र निर्यासं हरिद्राचूर्णसंयुतम् । रोमान्तज्वर विस्फोट मसूरीशान्तये पिबेत् ॥ ३ ॥ काले जीरके पत्तोंके रसमें अथवा करलेके पत्तोंके रस में हल्दी के चूर्णको मिलाकर पीनेसे रोमन्तिका, ज्वर, फफाले तथा मसुरीकी शान्ति होती है ॥ ३ ॥ वमनविरेचनफलम् । उभाभ्यां हृतदोषस्य विशुष्यन्ति मसूरिकाः । निर्विकाराश्चाल्पपूया: पच्यंते चाल्पवेदनाः ॥ ४ ॥ वमन तथा विरेचनसे दोषोंके निकाल देनेसे मसूरिकाएँ सूख जाती हैं । अथवा विना उपद्रव व पीड़ाके शीघ्र ही पक जाती हैं। और मवाद कम आता है ॥ ४ ॥ विविधा योगाः । कण्टाकुम्भांडुमूलं क्वथनविधिकृतं हिगुमाषैकयुक्तं पीतं बीजं जयायाः सघृतमुषितवाः पीतमङ्घ्रिः सिकटयाः । माध्यामूलं शिफा वा मदनकुसुमजा सोषणा वाथ पूर्तिः । योगा वास्यम्बुते प्रथम मघगदे दृश्यमाने प्रयोज्याः ॥ ५ ॥ कण्टाकुम्भाण्डु ( कटीली लताविशेष ) की जड़का काथ हींग १ माशे ( वर्तमान कालके लिये १ रत्ती ) के साथ अथव Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (२३२) चक्रदत्तः। [ मसूर्यजन्न्न्न्न्न्न्न् भांगके बीजोंको घीके साथ अथवा शिकटी (लताविशेष) की वातजचिकित्सा। जड़के चूर्णको बासी जलके साथ अथवा कुन्दकी जड़को | अथवा देवनाकी जड़को अथवा कालीमिर्चमिलित पूतिकरज तर्पणं वातजायां प्राग्लाजचूर्णैः सर्शकरैः ॥ १२ ॥ को मसूरिकाके दिखाई देनेपर बासी जलके साथ पीना भोजनं तिक्तयूषैश्च प्रतुदानां रसेन वा । चाहिये ॥५॥ द्विपञ्चमूलं रास्ना च दाटुंशीरं दुरालभा ॥१३॥ सामृतं धान्यकं मुस्तं जयेद्वातसमुत्थिताम् । मुष्टियोगपरिभाषा। गुडूची मधुकं रानां पञ्चमूलं कनिष्ठकम् ॥ १४ ॥ उद्धृत्य मुष्टिमाच्छाद्य भेषजं यत्प्रयुज्यते । चन्दनं काश्मर्यफलं बलामूलं विकलकतम् । तन्मुष्टियोगमित्याहुर्मुष्टियोगपरायणाः ॥६॥ पाककाले मसूर्या तु वातजायां प्रयोजयेत् ॥ १५॥ औषधि उखाड़ मुट्ठी में बन्द कर रोगीको देना "मुष्टियोग' वातजन्य मसूरिकामें प्रथम शक्करके सहित खीलके चूर्णके कहा जाता है, ऐसा मुष्टियोगको जाननेवाले वैद्य कहते द्वारा तर्पण करावे । अथवा तिक्तयूष और प्रतुद (खजुरआदि) प्राणियोंके मांसरसके साथ भोजन देना चाहिये । दशमूल, रासन, दारुहल्दी, खश, यवासा, गुर्च, धनियां, नागरमोथा विविधा योगा। इनका काथ वातज मसूरिकाको नष्ट करता है । तथा गुर्च, उष्ट्रकण्टकमूलं वाप्यनन्तामूलमेव वा । मौरेठी, रासन, लघुपञ्चमूल, चन्दन, खम्भारके फल खरेटीकी विधिगृहीतं ज्येष्ठाम्बु पीतं हन्ति मसूरिकाम् ॥७॥ जड़, कत्था इनके क्वाथका वातज मसूरिकाके समय प्रयोग तद्वच्छृगालकण्टकमूलं व्युषिताम्भसा युक्तम् । - करना चाहिये ॥१२-१५॥ मसूरी मूञ्छितो हन्ति गन्धकार्धस्तु पारदः ॥८॥ पित्तजचिकित्सा। निशाचिञ्चाच्छदे शीतवारिपीते तथैव तु। द्राक्षाकाश्मर्यखर्जूरपटोलारिष्ट मासकैः । यावत्संख्या मसूर्यङ्गे तावद्भिः शैलुजैर्दलैः ॥९॥ लाजामलकदुस्पशैंः सितायुक्तैश्च पैत्तिके ॥ १६ ॥ छिन्नैरातुरनाना तु गुटी व्येति न वर्धते । शिरीषोदुम्बराश्वत्थशेलुन्यग्रोधबल्कलैः । व्युषितं वारि सक्षौद्रं पीतं दाहगुटीहरम् ॥१०॥ प्रलेपः सघृतः शीघ्रं व्रणविस्फोटदाहहा ॥ १७ ॥ शेलत्वक्कृतशीताम्भःसेको वा कायशोषणे । दुरालभां पर्पटकं भूनिम्बं कटुरोहिणीम् । ऊंटकटारेकी जड़को अथवा अनन्तमूलकी जड़को चावलके श्लैष्मिक्यां पित्तजायां वापाने निष्क्वाथ्य दापयेत् १८ जलके साथ पीनेसे मसूरिका नष्ट होती हैं। इसी प्रकार शृगालकण्टक की जड़को बासी जलके साथ अथवा पारदसे आधा। मुनक्का, खम्भार, छुहारा, परवल, नीमकी पत्ती, असा, गन्धक मिला कज्जली बनाकर सेवन करने अथवा हल्दी वा. पाखील, आंवला तथा यवासाके क्वाथमें मिश्री मिलाकर पित्त वा हल्दा वाजमें पीना चाहिये। तथा सिरसाकी छाल, गूलर, पीपल लसो. अम्लीकी पत्तीको ठण्ढे जलके साथ पीनेसे मसूरी नष्ट होती है।। हर व बरगदकी छालको पीस घी मिला लेप करनेसे शीघ्र ही व्रण तथा शरीरमें जितनी मसूरिंकाएँ हों, उतने ही लसोढेके पत्तोको काफफोले तथा दाह नष्ट होते हैं। तथा यवासा, पित्तपापड़ा, तोड़ रोगोंका नाम लेकर फेंक देनेसे मसूरिकाएँ नष्ट होती हैं। चिरायता, व कुटकीका क्वाथ पित्तज अथवा श्लेष्मज-मसूरिइसी प्रकार बासी जलको शहदमें मिलाकर पीनेसे जलन और लन आर कामें देना चाहिये ॥ १६-१८॥ मसूरिकाएँ नष्ट होती हैं । अथवा लसोढ़ेके पत्तोंका शीतकषाय जलनको शान्त तथा मसूरिकाओंका शोषण करता निम्बादिक्काथः। निम्बं पर्पटकं पाठां पटोले कटुरोहिणीम् । धूपाः। वासां दुरालभां धात्रीमुशीरं चन्दनद्वयम् ।। १९ ।। उग्राज्यवंशनीलीयववृषकापोसकीकसब्राह्मी ॥१२॥ एष निम्बादिकः ख्यातः पीतः शर्करया युतः । सुरसमयूरकलाक्षाधूपो रोमान्तिकादिहरः। । हन्ति त्रिदोषमसूरी ज्वरवीसपेसम्भवाम् ॥ २०॥ बच, घी, बांस, नील, यव, अडूसा, कपासकी मींगी, ब्राह्मी,' उत्थिता प्रविशेद्या तु पुनस्तां बाह्यतो नयेत् ॥२१॥ तुलसी, अपामार्ग तथा लाखकी धूप रोमान्तिकाको नष्ट नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, पाढ़, परवल, कुटकी, अडूसा, करती है ॥११॥ यवासा, आंवला, खश तथा दोनों चन्दनका क्वाथ, निम्बादि Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] भाषाटीकोपेतः। न्न्न्नन्न्न्न्न्न्च्चन्न्न्न्न काथ" है । इसको शक्करके साथ पीनेसे त्रिदोषजमसूरिका, ज्वर प्रलेपः। तथा विसर्प जनित मसूरिकाएं नष्ट होती हैं। जी उठती हुई सौवीरेण तु संपिष्टं मातुलुङ्गस्य केशरम् ॥ २७ ॥ मसरिका दब जाती है, उसे फिर निकाल देता है। १९-२१॥ प्रलेपारपातयत्याशु दाहं चाशु नियच्छति। पटोलादिकाथः। बिजौरे निम्बूकी केशरको काजीके साथ पीसकर लेप करनेसे दाह अवश्य नष्ट होता है तथा मसुरिकाओंकी पपड़ी गिर पटोलकुण्डलीमुस्तवृषधन्वयवासकैः । जाती है ॥२७॥ भूनिम्बनिम्बकटुकापर्पटैश्च शृतं जलम् ॥ २२॥ मसूरी शमयेदामा पकां चैव विशोषयेत् । पादपिडकाचिकित्सा। नातः परतरं किञ्चिद्विस्फोटज्वरशान्तये ॥ २३ ॥ पाददाहं प्रकुरुते पिडका पादसंभवा ॥२८॥ तत्र सेकं प्रशंसन्ति बहुशस्तण्डुलाम्बुना । परवलकी पत्ती, गुर्च, नागरमोथा, अडूसा,यवासा,चिरायता, भीमकी छाल, कुटकी, तथा पित्तपापड़ाका काथ आम (अपक्क) पैरोंमें पिड़का उत्पन्न होकर दाह करती है, उसमें चावलके जलका सिञ्चन हितकर है ॥२८॥मसूरीको शान्त करता, तथा पक्कको सुखाता है। इससे बढ़कर फफोले तथा ज्वरको शान्त करनेवाला दूसर कोई श्रेष्ठ प्रयोग पाकावस्थाप्रयोगा। नहीं है ॥ २२ ॥ २३ ॥ पाककाले तु सर्वास्ता विशोषयति मारुतः ॥२९॥ अन्यत्पटोलादिद्वयम् । तस्मात्संबृंहणं कार्य न तु पथ्यं विशोषणम् । गुडुची मधुकं द्राक्षा मोरटं दाडिमैः सह ॥ ३०॥ पटोलमूलारुणतण्डुलीयकं पालकाले तु दातव्यं भेषजं गुडसंयुतम् । पिबद्धरिद्रामलकल्कसंयुतम् । तेन पाकं व्रजत्याशु न च वायुः प्रकुप्यति ॥३१॥ मसूरिकास्फोटविदाहशान्तये लिहेद्वा बादरं चूर्ण पाचनार्थ गुडेन तु । तदेव रोमान्तिवमिज्वरापहम् ॥२४॥ अनेनाशु विपच्यन्ते वातपित्तकफात्मिकाः॥ ३२॥ पटोलमूलारुणतण्डुलीयकं तथैव धात्रीखदिरेण संयुतम् । . पाककालमें सभी प्रकारकी मसूरिकाओंको वायु सुखा देता है, अतः सभीमें बृहण चिकित्सा हितकर होती है, शोषण नहीं। पिबेजलं सुकथितं सुशीतलं अतः गुर्च, मोरेठी, मुनक्का, इक्षुमूल तथा अनारदानाके चूर्णको मसूरिकारोगविनाशनं परम् ॥२५॥ | गुड़के साथ पाकके समय देना चाहिये। इससे मसूरिकाएँ पक (परवलकी जड़ व लाल चौराईका काथ, हल्दी व आंवलेके जाती हैं, वायु नहीं बढ़ती । अथवा पकानेके लिये बेरका चूर्ण कल्कके साथ मसूरिका, फफोले, जलन, ज्वर, रोमान्तिका व गुड़के साथ खाना चाहिये । इससे वातपित्त कफात्मक मसुरिकाएँ वमनको नष्ट करता है। तथा (२) परवलकी जड़, लाल चौराईका शीघ्र ही पक जाती हैं ॥२९-३२॥ काथ, आंवला व कत्थेके कल्कके साथ ठण्ढ़ा कर पीनेसे मसूरिका विविधास्ववस्थासु विविधा योगाः। रोग नष्ट होता है ॥ २४ ॥ २५ ॥ खदिराष्टकः। शुलाध्मानपरीतस्य कम्पमानस्य वायुना । खदिरत्रिफलारिष्टपटोलामृतवासकैः । धन्वमांसरसाः शस्ता ईषत्सैन्धवसंयुताः ॥ ३३ ॥ काथोऽष्टकाङ्गो जयति रोमान्तिकमसूरिकाः । दाडिमाम्लरसैर्युक्ता यूषाः स्युररुचौ हिताः । पिबेदम्भस्तप्तशीतं भावितं खादिराशनैः ॥३४॥ कुष्ठवीसर्पविस्फोटकण्ड्वादीनपि पानतः ॥२६॥ शौचे वारि प्रयुजीत गायत्रीबहुवारजम् । कत्था, त्रिफला, नीमकी पत्ती, परवलकी पत्ती, गुर्च तथा जातीपत्रं समजिष्ठं दापूिगफलं शमीम् ॥३५॥ अहसाका क्वाथ रोमान्तिका मसूरिका, कुष्ठ, विसर्प, विस्फोट, धात्रीफलं समधुकं कथितं मधुसंयुतम् । खुजली आदिको नष्ट करता है ॥ २६ ॥ मुखरोगे कण्ठरोगे गण्डूषार्थ प्रशस्यते ॥३६॥ अमृतादिकाथ। अक्ष्णोः सेकं प्रशंसन्ति गवेधुमधुकाम्बुना । अमृतादिकषायस्तु जयेत्पित्तकफात्मिकाम् ।। मधुकं त्रिफला मूर्वा दारूत्वङ् नीलमुत्पलम्॥३७॥ भमृतादि काथ पित्तकफात्मक मसूरिकाको नष्ट करता है।। उशीरलोध्रमजिष्ठाः प्रलेपाश्च्योतने हिताः Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) चक्रदत्तः। [क्षुद्ररोगा pawar sir HTRA - - - - Wwwwar नश्यन्त्यनेन हग्जाता मसूर्यो न द्रवन्ति च ॥३८॥ सस्वेदविस्फोटविसर्पकुष्ठपञ्चवल्कलचूर्णेन क्वेदिनीमवचूर्णयेत् । । दौर्गन्ध्यरोमान्तिहरः प्रदेहः॥४४॥ भस्मंना केचिदिच्छन्ति केचिद्गोमयरेणुना ॥ ३९ ॥ हल्दी, दारुहल्दी, खश, सिरसेकी छाल, नागरमोथा, लोध, क्रिमिपातभयाचापि धूपयेत्सरलादिना। चन्दन तथा नागकेशरका लेप स्वेद, फफोले, विसर्प, कुष्ठ, दुर्गन्धि वेदनादाहशान्त्यर्थ स्रुतानां च विशुद्धये ॥४०॥ |तथा रोमान्तिकाको नष्ट करता है ॥ ४४ ॥ सगुग्गुलु वराकाथं युञ्ज्याद्वा खदिराष्टकम् । । बिम्ब्यादिक्वाथः। कृष्णाभयारजो लिह्यान् मधुना कण्ठशुद्धये ॥४१॥ बिम्ब्यतिमुक्तकाऽशोकप्लक्षवेतसपल्लवैः । अथाष्टाङ्गावलेहो वा कवलश्चाकादिभिः। । पञ्चतिक्तं प्रयुञ्जीत पानाभ्यञ्जनभोजनैः ।। ४२ ॥ निशि पर्युषितः काथो मसूरीभयनाशनः ।। ४५ ॥ कर्याद व्रणविधानं च तैलादीन्वजेयेचिरम् । कुंदरू, अतिमुक्तक ( माधवीलता), अशोक पकारिया वेतके पत्तोंको रात्रि में जलमें भिगोकर प्रातःमल छान कर पीनेसे मसूरिविषत्रैः सिद्धमन्त्रैश्च प्रज्यात्तु पुनः पुनः। काका भय नष्ट होता है * ॥ ४५ ॥ तथा शोणितसंसृष्टाः काश्चिच्छोणितमोक्षणैः।।४३॥ प्रभावः। शूल तथा पेटकी गुड़गुड़ाहटसे युक्त तथा वायुसे कंपते हुए| चैत्रासितभूतदिने रक्तपताकान्वितः स्नुही भवने । पुरुषको जांगल प्राणियोंका मांसरस कुंछ सेंधानमक मिलाकर धवलितकलशन्यस्ता पापरुजो दूरतो धत्ते ॥ ४६॥ देना हितकर है। अरुचिमें अनार आदि खट्टे रसोंसे युक्त यूष चैत्र कृष्णपक्षकी चतुर्दशीके दिन सफेद कलशके ऊपर लाल हितकर है। जल गरम कर ठण्ढा किया हुआ अथवा कत्था व | पताकासे युक्त सेहुण्डको धरमें रखनेसे पापरोग (मंसारिका) दूर विजैसारसे सिद्ध कर देना चाहिये । शौचादिके लिये कत्था व ही रहते हैं ॥ ४६॥ लसोढेका जल देना चाहिये । मुख तथा कण्ठके रोगों में चमेलीके इति मसूर्यधिकारः समाप्तः। पत्ते, मजीठ, दारुहल्दी, सुपारी, शमी, आंवला, तथा मौरेठीके क्वाथमें शहद मिलाकर गण्डूष धारण करना चाहिये । और पसही तथा मौरेठीके जलसे आंखोंमें सेक करना चाहिये। तथा मौरेठी, त्रिफला, मूर्वा, दारुहल्दीकी छाल, नीलोफर, खश, लोध, व मनीठका लेप तथा आश्च्योतन (इनके रसका प्रक्षेप) करना अजगल्लिकादिचिकित्सा। आंखोंमें हितकर है। इससे दृष्टिमें उत्पन्न मसुरिकाएँ नष्ट हो जाती हैं और फूटती नहीं । फूट गयी मसूरिकामें पञ्चवल्कलका तत्राजगल्लिकामामां जलौकाभिरुपाचरेत् । चूर्ण उर्राना चाहिये । कुछ आचार्योंका मत है कि राख तथा शुक्तिसौराष्ट्रिकाक्षारकल्कैश्चालेपयेन्मुहुः ॥१।। कुछका मत है कि गोबरका चूर्ण उर्राना चाहिये । कीड़े न पड़ नवीनकण्टकार्यास्तु कण्टकैवेंधमात्रतः । जावें, अतः सरल आदिकी धूप देनी चाहिये । पीड़ा व जलनकी किमाश्चर्य विपच्याशु प्रशाम्यत्यजगल्लिका ।। शान्ति तथा बहती हुई मसूरिकाओंको शुद्ध करनेके लिये गुग्गु- कठिनां क्षारयोगैश्च द्रावयेदजगल्लिकाम् । लुके साथ त्रिफलाका क्वाथ अथवा खदिराष्टकका प्रयोग करना। श्लेष्मविद्रधिकल्पेन जयेदनुशयीं भिषक् ॥ २॥ चाहिये । कण्ठ शुद्धिके लिये छोटी पीपल व हरोंके चूर्णको शहदके विवृतामिन्द्रवृद्धां च गर्दभी जालगर्दभम् । साथ चाटना चाहिये । अथवा अष्टांगावलेहिका चाटनी चाहिये।। हरिवल्लिकां गन्धनानी जयेत्पित्तविसर्पवत ॥३॥ तथा अदरख आदिके रसका कवल धारण करना चाहिये । पीने मालिश तथा भोजनमें पञ्चतिक्ततका प्रयोग करना चाहिये ।। कर्परादिशोथचिकित्सा-" मसरीस्फोटयोरन्ते कर तथा व्रणोक्त चिकित्सा करनी चाहिये और तेल आदिका चिर-मणिबन्धके । मुखेंऽसफलके शोथो जायते यः सुदारुणः ॥ कालतक त्याग करना चाहिये । विषनाशक सिद्ध मन्त्रोंसे बारबार व्रणशोथहोगैर्वातनैश्च जलौकसा। हर्तव्यस्तैलभृष्टस्य वृश्चिकस्य मार्जन करना चाहिये । तथा जिन मसूरिकाओंमें रक्त दूषित हो, विलेपनैः॥" मसूरीके फफोलोंके अनन्तर कुर्पर, मणिबन्ध, उनमें रक्तमोक्षण करना चाहिये ॥ ३३-४३ ॥ मुख और अंसफलकमें जो कठिन सूजन हो जाती है, उसे व्रणनिशादिलेपः। शोथनाशक तथा वातघ्न योगोंसे अथवा जोंक लगाकर अथवा तैलमें भूने हुए बीजू (या वृश्चिकनामक ओषधिविशेष )को निशाद्वयोशीरशिरीषमुस्तकैः पीस लेप कर नष्ट करना चाहिये। सलोध्रभद्रश्रियनागकेशरैः। J मसूरिका ही शीतला है। अथ क्षुद्ररोगाधिकारः। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] भाषाटीकोपेतः। चाहिये । इसी प्रसाद करना चाह कर देवदारु मधुरौषधसिद्धेन सर्पिषा शमयेद् व्रणान् । पाददारीमें तलशोधनी शिराका व्यध करना चाहिये । रक्तावसेकैर्बहुभिः स्वेदनैरपतर्पणैः ॥ ४॥ तथा पैरोंका स्नेहन, स्वेदन कर मोम, चर्बी, मज्जा, घी व जयद्विदारिका लेपैः शिग्रुदेवदुमोद्भवैः। क्षारका लेप करना चाहिये । तथा राल व सेंधानमकके चूर्णको पनसिकां कच्छपिकामनेन विधिना भिषक् ॥५॥ शहद, घी तथा कडए तैलमें मिलाकर पैरोंमें लगाना हितकर है ॥ १०॥ ११ ॥ साधयेत्कठिनानन्याञ्शोथान्दोषसमुद्भवान् ।। अन्त्रालजी कच्छपिकां तथा पाषाणगर्दभम् ॥६॥ उपोदिकादिक्षारतैलम् । सुरदारुशिलाकुष्ठः स्वेदयित्वा प्रलेपयेत् । उपोदिकासर्षपनिम्बमोचकफमारुतशोथनो लेपः पाषाणगर्दभे ॥७॥ कर्कारुकैर्वारुकभस्मतोये। कबी अजगल्लिकाको जोंक लगाकर शान्त करना चाहिये। तैलं विपक्कं लवणांशयुक्तं तथा शुक्ति व फिटकरीके क्षारकल्कको बार बार लगाना चाहिये। नवीन कण्टकारकि कांटोंसे छेद देनेसे अजगल्लिका पककर शान्त तत्पाददारी विनिहन्ति लेपात् ॥ १२॥ हो जाती है। इसमें कोई सन्देह नहीं। तथा कठिन अजगलि पोय, सरसों, नीमकी पत्ती, सेमर तथा ककड़ी व खीरा इन काका क्षारयोगसे बहाना चाहिये । अनुशयीको श्लेष्मावत- आषधियोंको यथाविधि जलाकर भस्म बना ले। इस भस्मके धिकी विधिसे जीतना चाहिये । तथा विवृता, इन्द्रवृद्धा, गर्दभी, जलमें पकाया गया तैल नमक मिलाकर लेप करनेसे पाददारीको जालगर्दभ, इरिवेल्लिका और गन्धनामिकाको पित्तविसर्पके | समान जीतना चाहिये । व्रणोंको मीठी ओषधियोंसे सिद्ध घीसे अलसकचिकित्सा। जीतना चाहिये । तथा रक्तावसेक, स्वेदन तथा अपतर्पणसे विदारिकाको जीतना चाहिये। तथा साहिंजन व देवदारुका लेप लगाना अलसेऽम्लैश्चिरं सिक्ती चरणी परिलेपयेत् । चाहिये । इसी प्रकार पनसिका और कच्छपिका तथा दोषजन्य पटोलारिष्टकाशीसत्रिफलाभिर्मुहुर्मुहुः ॥ १३ ॥ अन्य शोथोंको सिद्ध करना चाहिये । तथा अन्त्रालजी, कच्छ- करजबीजं रजनी काशीसं मधुकं मधु । पिका तथा पाषाणगर्दभमें स्वेदन कर देवदारु, मैनशिल और रोचना हरितालं च लेपोऽयमलसे हितः ॥ १४ ॥ कूठका लेप करना चाहिये । पाषाणगर्दभमें कफ व वायुशोथ लाक्षाभयारसो लेपः कार्य वा रक्तमोक्षणम् । नाशक लेप लगाना चाहिये ॥ १-७॥ जातीपत्रं च संमद्य दद्यादलसके भिषक् ।। १५ ।। वल्मीकचिकित्सा। बृहतीरससिद्धेन तैलेनाभ्यज्य बुद्धिमान् । शस्त्रेणोत्कृत्य वल्मीकं क्षाराग्निभ्यां प्रसाधयेत् । । शिलारोचनकाशीसचूर्णैर्वा प्रतिसारयेत् ॥ १६ ॥ मनःशिलालभल्लातसक्ष्मलागरुचन्दनैः ॥ | अलसकमें पैरोंको काजीसे तर कर परवल. नीम. काशीस जातीपल्लवकल्कैश्च निम्बतैलं विपाचयेत् । व त्रिफलाके कल्कका बारबार लेप करे । अथवा कजाके बीज, वल्मीकं नाशयेत्तद्धि बहुच्छिद्रं बहस्वनम ॥९॥हल्दी, काशीस, मौरेठी, शहद, गोरोचन व हरितालका लेप | लगाना चाहिये । अथवा लाख, हर्र और रासनका लेप करना वल्मीकको शस्त्रसे काटकर क्षार तथा अग्निका प्रयोग करना चाहिये । अथवा रक्तमोक्षण करना चाहिये । अथवा चमेलीके चाहिये। तथा मनशिल, हरताल, भिलावा, छोटी इलायची,अग़र पत्तोंको पीसकर अलसकमें लगाना चाहिये । अथवा बड़ी कटेरीके चन्दन तथा चमेलीके पत्तोंके कल्कसे नीमका तेल सिद्ध करना रससे सिद्ध तैलसे मालिश कर मनशिल, गोरोचन व काशीसके चाहिये। यह तेल बहुत छिद्र तथा बहुत शब्दयुक्त बल्मीक चूर्णको उरांवे ॥१३-१६॥ रोगको नष्ट करता है ॥ ८॥९॥ कदरचिपचिकित्सा। पाददारीचिकित्सा। दहेत्कदरमुद्धृत्य तैलेन दहनेन वा। पाददारीषु च शिरां व्यधयेत्तलशोधिनीम्। । चिप्पमुष्णाम्बुना स्विन्नमुत्कृत्याभ्यज्य तं व्रणम्॥१७ . स्नेहस्वेदोपपन्नी तु पादौ चालेपयेन्मुहुः ॥१०॥ दत्त्वा सर्जरसं चूर्ण बद्ध्वा व्रणवदाचेत् । मधूच्छिष्टवसामजाघृतक्षारैर्विमिश्रितैः। स्वरसेन हरिद्रायाः पात्रे कृष्णायसेऽभयाम् ॥१८॥ सर्जाख्यसिन्धूद्भवयोश्चूर्ण मधुघृताप्लुतम्। । घृष्ट्वा तज्जेन कल्केन लिम्पचिप्पं पुनः पुनः । निर्मध्य कटुतैलाक हितं पादप्रमार्जनम् ॥ ११॥ | चिप्पे सटकणास्फोतासूललेपो नखपदः ॥ १९ ॥ वायुशोथ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ क्षुद्ररोगा गुदं च गव्यपयसा क्षयेदविशङ्कितः । दुष्प्रवेशो गुदभ्रंशो विशत्याशु न संशयः ॥ २८ ॥ मूषिकाणां वसाभिर्वा गुदे सम्यक्प्रलेपनम् । स्विन्नमूषिकमांसेन चाथवा स्वेदयेद् गुदम् ||२९|| गुदभ्रंश में स्नेहकी मालिश कर गुदाको प्रविष्ठ करना चाहिये । प्रविष्ट हो जानेपर स्वेदन कर गोफणाबन्धसे बान्ध देना चाहिये । | तथा जो कोमल कमलिनीके पत्तोंको शकरके साथ खाता है, उसकी गुदा निःसन्देह नहीं निकलती तथा कोकम अथवा अम्लवेत, चीत, चाङ्गेरी, बेल, पाठा तथा जवाखार इन ओष धियों के चूर्णको मट्ठेके साथ खानेसे गुदभ्रंश नष्ट होता है और अनि दीप्त होती है । यदि गुदा बैठती न हो, तो गायके दूधका सिवन करना चाहिये, इससे गुदा शीघ्र ही बैठ जाती है । मूसोंकी वसासे गुदामें लेप करना अथवा मूषिकामांससे स्वेदन करना चाहिये ॥ २५-२९ ॥ | पद्मिनीकण्टक चिकित्सा । निम्बोदकेन वमनं पद्मिनीकण्टके हितम् । निम्बोदककृतं सर्पिः सक्षीद्रं पानमिष्यते ॥ २० ॥ पद्मनालकृतः क्षारः पद्मिनीं हन्ति लेपतः । निम्बारग्वधकल्कैर्वा मुहुरुद्वर्तनं हितम् ॥ २१ ॥ नीमके जलसे वमन कराना पद्मिनीकण्टकमें हितकर है। तथा नीमके जलसे सिद्ध घृतमें शहदको मिलाकर पीना चाहिये । तथा कमलकी डण्डीकी क्षारका लेप पद्मिनीको नष्ट करता है । तथा नीम व अमलतास के कल्कका बारबार उवटन करना श्वाहिये ॥ २० ॥ २१ ॥ ( २३६ ) कदरको खुरचकर तैल अथवा अग्निसे जलाना चाहिये । चिप्पकको गरम जलसे स्वेदित करनेके अनन्तर खुरच कर उस व्रणमें रालका चूर्ण उर्राकर व्रणके समान चिकित्सा करनी चाहिये । तथा काले लोहके पात्रमें हल्दी के स्वरस से हरेको घिसकर चिप्पमें बारबार लेप करना चाहिये । तथा चिप्पमें सुहागा और आस्फोते की जड़का लेप नाखूनको उत्पन्न करता है ॥ १७-१९ ॥ चक्रदत्तः । जालगर्दभचिकित्सा | नीलीपटोलमूलाभ्यां साज्याभ्यां लेपनं हितम् । जालगर्दभरोगे तु सद्यो हन्ति च वेदनाम् ॥ २२ ॥ घीसे मिलित नील व परवलकी जड़का लेप जालगदर्भ रोगको नष्ट करता तथा पीड़ाको शान्त करता है ॥ २२ ॥ अहिपूतनकचिकित्सा | अहिपूतन के धात्र्याः पूर्वं स्तन्यं विशोधयेत् । त्रिफलाखदिरक्काथैर्ब्रणानां धावनं सदा ॥ २३ ॥ करञ्जत्रिफलातिक्तैः सर्पिः सिद्धं शिशोर्हितम् । रसाञ्जनं विशेषेण पानालेपनयोर्हितम् ॥ २४ ॥ अहिपूतनामें पहिले घायका दूध शुद्ध करना चाहिये। तथा त्रिफला व कत्थाके काथस सदा घावोंको धोना चाहिये । तथा का, त्रिफला व तिक्तद्रव्योंसे सिद्ध घृत बालकों के लिये हितकर है। तथा पीने व लेपके लिये विशेषकर रसौत हितकर हैं ॥ २३ ॥ २४ ॥ " चांगेरीघृतम् । चाङ्गेरीकोलदध्यम्लनागरक्षारसंयुतम् । घृतमुत्कथितं पेयं गुदभ्रंशरुजापहम् । Tusharrat कल्को शिष्टं तु द्रवमिष्यते ॥ ३० ॥ अमोनिया, बेर, दही, काजी, सौंठ और क्षारसे सिद्ध घृत गुदभ्रंशको नष्ट करता है। इसमें सौंठ व क्षारका कल्क तथा शेषद्रव छोड़ना चाहिये ॥ ३० ॥ मूषिकातैलम् । क्षीरे महत्पञ्चमूलं मूषिकामन्त्रवर्जिताम् । पक्त्वा तस्मिन्पचेत्तैलं वातघ्नौषधसाधितम् ॥ ३१॥ गुदभ्रंशमिदं तैलं पानाभ्यङ्गात्प्रसाधयेत् ॥ ३२ ॥ दूधमें महत्पञ्चमूल और आन्तोरहित मूषिकाको पका कर उसी क्वाथमें वातनाशक ओषधियोंके सहित तैल सिद्ध करना चाहिये । यह तैल पीने तथा मालिश करनेसे गुदभ्रंशको नष्ट करता है ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ परिकर्तिका चिकित्सा । स्वेदोपनाही परिकर्तिकायां कृत्वा समभ्यज्य घृतेन पश्चात् । प्रवेशयेच्च शनैः प्रविष्टै गुदभ्रंशचिकित्सा | गुदभ्रंशे गुदं स्नेहैरभ्यज्याशु प्रवेशयेत् । र्मासैः सुखोष्णैरुपनाहयेच्च ॥ ३३ ॥ परिकर्तिका में स्वेदन तथा उपनाह कर घीसे मालिश कर धीरे प्रविष्टे स्वेदयेच्चापि बद्धं गोफणया भृशम् ॥ २५ ॥ धीरे चर्म प्रविष्ट करना चाहिये। फिर कुछ गरम गरम मांससे कोमलं पद्मिनीपत्रं यः खादेच्छर्करान्वितम् । स्वेदन करना चाहिये ॥ ३३ ॥ एतन्निश्चित्य निर्दिष्टं न तस्य गुदनिर्गमः ॥ २६ ॥ वृक्षाम्लानलचाङ्गेरीबिल्वपाठायवाग्रजम् । तक्रेण शीलयेत्पायुभ्रंशार्तोऽनलदीपनम् ॥ २७ ॥ अवपाटिकादिचिकित्सा । स्नेहस्वेदैस्तथैवैनां चिकित्सेदवपाटिकाम् । निरुद्धप्रकशे नाडीं द्विमुखीं कनकादिजाम् ॥ ३४ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (२३७) क्षिप्त्वाऽभ्यक्त्वा चुल्लकादिस्नेहेन परिषेचयेत् । । मसूरैः सर्पिषा पिष्टैलिप्तमास्यं पयोऽन्वितैः। तैलेन वा पचादारुकल्कैः सिद्धेन च व्यहात् ॥३५/ सप्ताहाच्च भवेत्सत्यं पुण्डरीकदलप्रभम् ॥ ४५॥ पुनः स्थूलतरा नाडी देया स्रोतोविवृद्धये। मातुलुङ्गजटासर्पिः शिलागोशकृतो रसः । शस्त्रेण सेवनीं त्यक्वा मित्त्वा व्रणवदाचरेत् ॥३६ | मुखकान्तिकरो लेपः पिडकातिलकालजित् ॥४६॥ स्निग्धं च भोजनं बद्धे गुदेऽप्येष क्रियाक्रमः। नवनीतगुडक्षौद्रकोलमजप्रलेपनम् । चर्मकीलं जतुमणिं मशकांस्तिलकालकान् ॥ ३७ ॥ व्यङ्गजिद्वरुणत्वग्वा छागक्षीरप्रपेषिता ।। ४७ ॥ उद्धृत्य शस्त्रेण दहेक्षाराग्निभ्यामशेषतः। जातीफलकल्कलेपो नीलीव्यङ्गादिनाशनः । रुबुनालस्य चूर्णेन घर्षों मशकनाशनः ॥ ३८॥ । सायं च कटुतेलेनाभ्यङ्गो वक्रप्रसादनः ।। ४८॥ निमोकभस्मघर्षाद्वा मशः शान्ति व्रजेत्सदा । व्यङ्गमें अर्जुनकी छाल अथवा मजीठको पीस शहद मिलाकर अवपाटिकाकी स्नेहन व स्वेदन कर चिकित्सा करनी चाहिये। लेप करना चाहिये । अथवा मक्खनके साथ सफेद घोड़ेके निरुद्धप्रकशमें सोने आदिकी द्विमुखी नाड़ी छोड़े, फिर चुल्लकादि | खुरकी राख लगाना चाहिये । तथा लाल चन्दन, मजीठ, जल जन्तुओंके स्नेहसे सिञ्चन करे । अथवा वच व देवदारुके लोध, कूठ, प्रियङ्गु वरगदके अंकुर व मसूरका लेप व्यङ्गको कल्कसे सिद्ध तैलसे सिञ्चन करे। फिर ३ दिनके बाद छिद्र | नष्ट करता तथा मुखकी शोभाको बढाता है । तथा खरगोशके बढ़ानेके लिये बड़ी नली लगावे । तथा सेवनीको छोड़ शस्त्रसे | रक्तसे व्यङ्गमें लेप करना उत्तम है । इसी प्रकार मसूरको पीस काटकर व्रणवत् चिकित्सा करे । तथा स्नेहयुक्त भोजन देवे । मिलाकर ख लेप करनेसेटिनमें कमलके बद्धगुदमें भी यही चिकित्सा करनी चाहिये । चर्मकील, जतुमाणि, सदृश मुख होता है। तथा विजोरे निम्बूकी जड़, घी, मैनशिल मशक, तिलकालक इनको शस्त्रसे काटकर क्षार तथा अग्निसे व गायके गोबरके रसका लेप मुखकी शोभाको बढ़ाता समग्र जलाना चाहिये । एरण्डनालके चूर्णसे मसेमें घिसना तथा फुन्सियां व तिल आदिको नष्ट करता है । इसी प्रकार मसको नष्ट करता है । तथा सांपकी केंचुलकी भस्म घिसनेसे| मक्खन, गुड़, शहद व बेरकी गुठलीका लेप अथवा वरुणाकी मशा शान्त होता है ॥ ३४-३८॥ छालको बकरीके दूध पीसकर लेप करनेसे मुखकी झाइयां युवानपिडकादिचिकित्सा। मिटती हैं। तथा जायफलके कल्कका लेप नीली व्यङ्ग आदिको | नष्ट करता है। तथा सायंकाल कड़ए तैलकी मालिश मुखको युवानपिडकान्यच्छनीलिकाव्यङ्गशर्कराः ॥ ३९ ॥ प्रसन्न करती है ॥ ४२-४८ ॥ शिराव्यधैः प्रलेपैश्च जयेदभ्यञ्जनैस्तथा।। लोध्रधान्यवचालेपस्तारुण्यापिडकापहः॥४०॥ कालीयकादिलेपः । तद्वद्गोरोचनायुक्तं मरिचं मुखलेपतः। कालीयकोत्पलामयदधिसरबदरास्थिमध्यफलिनीभिः। सिद्धार्थकवचालोध्रसैन्धवैश्च प्रलेपनम् ॥४१॥ | लिप्तं भवति च वदनं शशिप्रभं सप्तरात्रेण ॥४९॥ वमनं च निहन्त्याशु पिडकां यौवनोद्भवाम् ।। दारुहल्दी, नीलोफर, कूठ, दहीका तोड़, बेरकी गुठलीकी मुहासे, स्याउहां, झाई, नीलिका तथा शर्कराको शिराव्यध, मांगी तथा प्रियङ्गुका लेप करनसे मुख ७ दिनमें चन्द्रमाके लेप, तथा मालिशसे जीतना चाहिये । पठानी लोध, धनियां | समान शोभायमान होता है ॥ ४९ ॥ तथा वचका लेप मुहासोंको नष्ट करता है। इसी प्रकार गोरोचन, मिर्च मिलाकर लेप करनेसे लाभ करता है । तथा सरसों, यवादिलेपः। वच, लोध व सेंधानमकका लेप तथा वमन कराना मुहासोंको तुषरहितमसृणयवचूर्णसयष्टीमधुकलोध्रलेपेन । नष्ट करता है ॥ ३९-४१॥ भवति मुखं परिनिर्जितचामीकरचारुसौभाग्यम्५० मुखकान्तिकरा लेपाः। छिलके रहित चिकने यवका चूर्ण, मौरेठी और लोधके लेपसे व्यङ्गेषु चार्जुनत्वग्वा मजिष्ठा वा समाक्षिका /मुख सुवर्णसे अधिक मनोहर होता है ॥५०॥ लेपः सनवनीता वा श्वेताश्वखुरजा मसी। रक्षोनादिलेपः। रक्तचन्दनमजिष्ठालोध्रकुष्ठप्रियङ्गवः ॥४३॥ रक्षोनशर्वरीद्वयमजिष्ठागैरिकाज्यबस्तपयः । वटांकुरमसूराश्च व्यङ्गना मुखकान्तिदाः सिद्धेन लिप्तमाननमुद्यद्विधबिम्बवद्भाति ॥५१॥ व्यङ्गानां लेपनं शस्तं रुधिरेण शशस्य च ॥४४॥। सफेद सरसों, हल्दी, दारुहल्दी, मजीठ तथा गेरूको घी व Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३८) चक्रदत्तः। - [ क्षुद्ररोगा - दूधमें मिलाकर बनाये गये लेपको लगानेसे मुख उदय होते हुए मजीठ, चन्दन, लाख, बिजौरानिम्बू, तथा मोरेठी, चन्द्रमाके समान स्वच्छ होता है ॥ ५१॥ प्रत्येक एक तोला, तैल १६ तोला, बकरीका दूध ३२ तो. सबको मिलाकर मन्द आंचसे पकावे । इसकी मालिशसे झांई, दध्यादिलेपः। फुन्सियां, व्यङ्ग नष्ट होते हैं, मुख प्रसन्न और स्थूल होता है, परिणतदधिशरपुङ्खः | तथा झुर्रियां व बालोंकी सफेदी नष्ट होती है, सात रातके ___ कुवलयदलकुष्ठचन्दनोशीरैः। प्रयोगसे मुख सोनेके समान सुन्दर होता है ॥ ५८-६०॥ मुखकमलकान्तिकारी कुंकुमादितैलम् । भ्रफुटीतिलकालकाजयति ॥५२॥ कुङ्कुमं चन्दनं लाक्षा मजिष्ठा मधुयष्टिका । जमा दही, शरपुंखा, कमलकी पत्ती, कूठ, चन्दन व खशका लेप मुखकी कान्तिको बढ़ाता तथा भौंहोंके तिल आदिको नष्ट कालीयकमुशीरं च पद्मकं नीलमुत्पलम् ।। ६१ ॥ करता है । ५२॥ न्यग्रोधपादाः प्लक्षस्य शुङ्गाः पद्मस्य केशरम् । द्विपञ्चमूलसहितैः कषायैः पलिकैः पृथक् ।। ६२।। हरिद्रादिलेपः। जलाढकं विपक्तव्यं पादशेषमथोद्धरेत् । हरिद्राद्वययष्टथाह्वकालीयककुचन्दनः। मञ्जिष्ठा मधुकं लाक्षा पतङ्गं मधुयाष्टिका ॥६३॥ प्रपोण्डरीकमञ्जिष्ठापद्मपद्मककुंकुमैः ॥ ५३॥ | कर्षप्रमाणरेतैस्तु तैलस्य कुडवं तथा । कपित्थतिन्दुकप्लक्षवटपत्रैः पयोऽन्वितैः । अजाक्षीरं तदद्विगुणं शनैर्मृद्वग्निना पचेत् ॥ ३४॥ लेपयेत्कल्कितैरेभिस्तैलं वाभ्यञ्जनं चरेत् ॥ ५४॥ सम्यक्पकं परं ह्येतन्मुखवर्णप्रसादनम् । पिप्लवं नीलिकाव्यङ्गास्तिलकान्मुखदूषिकान् । । नीलिकापिडकाव्यङ्गानभ्यङ्गादेव नाशयेत् ॥६५॥ नित्यसेवी जयेत्क्षिप्रं मुखं कुर्यान्मनोरमम् ॥ ५५॥ सप्तरात्रप्रयोगेण भवेत्काञ्चनसन्निभम् । हल्दी, दारुहल्दी, मोरेठी, दारुहल्दी, लालचन्दन, पुंडरिया, कुङ्कुमाद्यमिदं तैलमश्विभ्यां निर्मितं पुरा ॥ ६६ ।। मजीठ, कमल, पद्माख, केशर, कैथा, तेन्दू, पकरिया तथा वरगदके पत्तोंका दूधके साथ कल्ककर लेप करनेसे अथवा इनसे केशर, चन्दन, लाख, मजीठ, मौरेठी, दारु हल्दी, सिद्ध तेलकी मालिश करनेसे मशे, नीलिका, व्यङ्ग, तिल, खश, पद्माख, नीलोफर, वरगदकी वौं, पकरियाकी मुलायम मुहासे आदि शीघ्र नष्ट होते है तथा मुख मनोहर |पत्ती, कमलका केशर तथा दशमूल प्रत्येक ४ तोलाका होता है ॥ ५३-५५॥ काढा ३ सेर १६ तो० जल (द्रवद्वैगुण्यात् ६ सेर ३२ तो०) में पकाना चाहिये, चतुर्थाश शेष रहनेपर उतारकर छान लेना कनकतैलम् । चाहिये । फिर इसी क्वाथमें मजीठ १ तोला, मौरेठी, लाख, मधुकस्य कषायेण तैलस्य कुडवं पचेत् । पीला चन्दन, मोरेठी प्रत्येक १ तोलाका कल्क तथा तैल १६ कल्कैः प्रियगुमजिष्ठाचन्दनोत्पलकेशरैः॥५६॥ तो० और बकरीका दूध दूना मिलाकर मन्द आंचसे पकाना कनकं नाम तत्तैलं मुखकान्तिकरं परम् । चाहिये । अच्छी तरह पका हुआ यह मुखके वर्णको उत्तम अभारुनीलिकाव्यङ्गशोधनं परमर्चितम् ॥ ५७॥ करता है । झाई, फुन्सियां, व्यङ्ग आदिको मालिशसे नष्ट करता मौरेठीके काढ़े तथा प्रियङ्गु, मजीठ, चन्दन, नीलोफर है । सात रातके प्रयोगसे मुख सोनेके समान उत्तम होता है। नागकेशरके कल्कसे सिद्ध तैल मुखकान्तिको बढ़ाता तथा | यह “कुंकुमादि " तैल पहिले पहिल अश्विनीकुमारने |बनाया था * ॥६१-६६ ॥ मुहासे, नीलिका, व्यंग आदिको नष्ट करता है। इसे “कनकतैल"| कहते हैं ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ * यहाँपर इसी तैलके अनन्तर एक दूसरा तैल भी द्वितीय मञ्जिष्ठादितैलम् । कुंकुमादिके नामसे है। यह पूर्व तैलका एक बहुत छोटा अंश मजिष्ठा चन्दनं लाक्षा मातुलुङ्गं सयष्टिकम्। है । यथा,-" कुंकुम चन्दनं लाक्षा मजिष्टा मधुयष्टिका । कर्षप्रमाणैरेतैस्तु तैलस्य कुडवं पचेत् ॥" शेष प्रथमके कर्षप्रमाणैरेतैस्तु तैलस्य कुडवं तथा ॥ ५८ ॥ ६४, ६५, ६६, के अनुसार अर्थात् केवल केशर, चन्दन, आज पयस्तद्विगुणं शनैर्मेद्वग्निना पचेत् । | लाख, मजीठ, मौरेठी इनके १ तो० की मात्रासे कल्क नीलिकापिडकाव्यङ्गानभ्यङ्गादेव नाशयेत् ॥५९॥ छोड़कर एक कुडव तैल, २ कुडव बकरीका दूध और २ मुखं प्रसन्नोपचितं वलीपलितवजितम । कुड़व जल मिलाकर पकाना चाहिये । हम इसे "लघुकुंकुमादि" सप्तरात्रप्रयोगेण भवेत्कनकसन्निभम् ॥ ६०॥ कह सकते हैं । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः भाषाटीकोपेतः। r द्वितीयं कुङ्कुमादितैलम् । पुराणमथ पिण्याकं पुरीषं कुक्कुटस्य वा । मूत्रपिष्टं प्रलेपोऽयं शीघ्र हन्यादरूंषिकाम् ॥७६॥ कुङ्कुमं किंशुकं लाक्षा मजिष्ठा रक्तचन्दनम् ।। कालीयकं पद्मकं च मातुलुङ्गस्य केशरम् ॥ ६७ ॥ अरूंषिघ्नं भृष्टकुष्ठचूर्ण तेलैन संयुतम्। अरूषिकाओंमें शिराव्यध अथवा जोंकोंसे रक्त निकाल कुसुम्भं मधुयष्टीकं फलिनी मदयन्तिका । नीमके जलका सिञ्चनकर घोड़ेकी लीदके रस तथा सेंधानमकसे निशे द्वे रोचना पद्ममुत्पलं च मनःशिला ॥ ६८॥ लेप करना चाहिये । अथवा पुराना पीना अथवा मुर्गेकी विष्ठाको काकोल्यादिसमायुक्तैरे तैरक्षसमैभिषक् । मूत्रमें पीसकर लेप करनेसे फुन्सिया दूर होती हैं । इसी प्रकार लाक्षारसपयोभ्यां च तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ६९॥ भुने कूठके चूर्णको तैलमें मिलाकर लेप करनेसे अरूंषिका नष्ट कुक्कुमाद्यमिदं तैलमभ्यङ्गात्काञ्चनोपमम् । होती है ॥ ७५-७६ ॥करोति वदनं सद्यः पुष्टिलावण्यकान्तिदम् । हरिद्राद्वयतैलम् । सौभाग्यलक्ष्मीजननं वशीकरणमुत्तमम् ॥ ७० ॥ हरिद्राद्वयभूनिम्बात्रफलारिष्टचन्दनैः। केशर, ढाकके, फूल, लाख, मजीठ, लालचन्दन, दारुहल्दी एतत्तैलमरूंषीणां सिद्धमभ्यजने हितम् ॥ ७७॥ पद्माख, बिजौरे निम्बूका केशर, कुसुम, मौरेठी, प्रियंगु, चमेली, हल्दी, दारुहल्दी, गोरोचन, कमल, नीलोफर, मैनशिल तथा हल्दी, दारुहल्दी, चिरायता, आंवला, हरे, बहेडा, नीमकी काकोल्यादि. गणकी औषधियां प्रत्येक १ तोले लाखका रस तथा छाल, चन्दनके कल्को सिद्ध तैलकी मालिश करनेसे अरूंषिकाएँ दूध तेलसे चतुर्गुण मिलाकर तैल १२८ तोला छोडकर पकाना| नष्ट होती है ॥ ७७ ॥ चाहिये । यह "कुंकुमादि तैल"मालिश करनेसे मुखको कमलके दारुणचिकित्सा। समान बनाता तथा पुष्टि, मनोहरता, कांति, सौभाग्य व लक्ष्मीको बढ़ाता तथा उत्तम वशीकरण है ॥ ६७-७०॥ दारुणे तु शिरां विध्येस्निग्धां स्विन्नां ललाटजाम् । अवपीडशिरोबस्तीनभ्यङ्गाश्चावचारयेत् :॥७८ ॥ वर्णकं घृतम् । कोद्रवाणां तृणक्षारपानीयं परिधावने । मधुकं चन्दनं कङ्गु सर्षपं पद्मकं तथा। । कार्यो दारुणके मूर्ध्नि प्रलेपो मधुसंयुतः ।। ७९ ॥ कालीयकं हरिद्रा.च लोध्रमेभिश्च कल्कितैः ।।७१॥ प्रियालबीजमधुककुष्ठमिश्रेः ससैन्धवैः। विपचेद्धि घृतं वैद्यस्तत्पकं वस्त्रगालितम् । । कानिकस्थानिसप्ताहं माषा दारुणकापहाः ॥८॥ पादांशं कुङ्कुमं सिक्थंक्षिप्त्वा मन्दानले पचेतू७२/ दारुण रोगमें स्नेहन व स्वेदन कर मस्तककी शिराका व्यध तत्सिद्धं शिशिरे नीरे प्रक्षिप्याकर्षयेत्ततः।। करना चाहिये । तथा अवपीडक नस्य, शिरोबस्ति और तदेतद्वर्णकं नाम घृतं वर्णप्रसादनम् ॥ ७३ ॥ मालिश भी करनी चाहिये । धोनेके लिये कोदवके क्षार जलका अनेनाभ्यासलिप्तं हि वलीभूतमपि क्रमात् । प्रयोग करना चाहिये। तथा चिरौंजी, मौरेठी, कूठ व सेंधानमनिष्कलङ्केन्दुबिम्बाभं स्याद्विलासवतीमुखम् ॥ ७४॥ कको पीसकर शहदके साथ सिरमें लेप करना चाहिये । इसी मौरेठी, चन्दन, कांकुन, सरसों, पद्माख, तगर, हल्दी तथा | प्रकार काजीमें उड़द भिगो पीसकर २१ दिनतक लगानेसे लोधके कल्कको छोड़कर घीको पकावे । फिर उसे छानकर | दारुण रोग नष्ट होता है ॥ ७८-८०॥ चतुर्थाश केशर व मोम मिलाकर मन्द आंचसे पकावे। फिर इसे नीलोत्पलादिलेपः। ठण्ढे जलमें छोड़कर निकाल लेवे । यह "वर्णक" नाम घृत वर्णको सह नीलोत्पलकेशरयष्टीमधुकतिलैःसदृशमामलकम् । उत्तम बनाता है । इसे नियमसे लगानेसे स्त्रियोंका मुख चन्द्र चिरजातमपि च शीर्षे दारुणरोगं शमं नयति ॥८१ ।। माके समान सुन्दर होता है ॥ ७१-७४ ॥ नीलोफर, नागकेशर, मौरेठी, तिल तथा सबके समान अरूषिकाचकित्सा। आंवला मिलाकर लेप करनेसे पुराना दारुण रोग नष्ट होता है ॥ ८१ ॥ अरूंषिकायां रुधिरेऽवसिक्ते शिराव्यधेनाथ जलौकसा वा। त्रिफलादितैलम् । निम्बाम्बुसिक्तैः शिरसि प्रलेपो त्रिफलाया रजो मांसी मार्कवोत्पलशारिवैः । पेयोऽश्ववोरससैन्धवाभ्याम् ।। ७५ ॥ | ससैन्धवैः पचेचैलमभ्यङ्गगादूक्षिकां जयेत् ।।८२॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) चक्रदत्तः । त्रिफलाका चूर्ण, जटामांसी, भांगरा, नीलोफर, शारिवा तथा सेंधानमकसे सिद्ध तैल रूक्षिका फिहासको नष्ट करता है ॥ ८२ ॥ चित्रका दितैलम् | चित्रकं दन्तिमूलं च कोषातकीसमन्वितम् । कल्कं पिष्ट्वा पचेत्तैलं केशददुविनाशनम् ॥ ८३ ॥ चीतकी जड़, दन्तीकी जड़, तथा कडुई तोरईका कल्क छोड़कर सिद्ध तैल बालोंके दादको नष्ट करता ॥ ८३ ॥ गुञ्जातैलम् । गुफलैः शृतं तैलं भृङ्गराजरसेन तु । कण्डूदारुणहृत्कुष्ठकपालव्याविनाशनम् ॥ ८४ ॥ गुजा कल्क और भांगरेके रससे सिद्ध तैल खुजली, दारुण, कुष्ठ और कपाल व्याधिको नष्ट करता है ॥ ८४ ॥ भृंगराजतैलम् । भृङ्गरजस्त्रिफलोत्पलशारि लोहपुरीषसमन्वितकारि । तैलमिदं पच दारुणहारि कुञ्चितकेशघनस्थिरकारि ।। ८५ ।। भांगरा, त्रिफला, नीलोफर, सारिवा, लोहकि इन सबके कल्कमें तैलको छोड़कर पकाना चाहिये । यह दाहणको नष्ट करता तथा बालोंको घन, स्थिरं तथा घुंघुराले बनाता है ॥ ८५ ॥ [ क्षुद्ररोगा अवगाढपदं चैव प्रच्छायेत्वा पुनः पुनः । गुफलैचिरं लिम्पेत्केशभूमिं समन्ततः ॥ ९१ ॥ हस्तिदन्तमसीं कृत्वा मुख्यं चैव रसाञ्जनम् । लोमान्यनेन जायन्ते नृणां पाणितलेष्वपि ॥ ९२ ॥ भल्लातक बृहतीफलगुञ्जामूलफलेभ्य एकेन । मधुसहितेन विलिप्तं सुरपतिलुप्तं शमं याति ॥ ९३ ॥ बृहतीफलरसपिष्टं गुञ्जाफलमूलं चेन्द्रलुप्तस्य । कनकनिघृष्टस्य सतो दातव्यं प्रच्छितस्य सदा ९४ ॥ घृष्टस्य कर्कशैः पत्रैरिन्द्रलुप्तस्य गुण्डनम् । चूर्णितैर्मरिचैः कार्यमिन्द्रलुप्रनिवारणम् ॥ ९५ ॥ इन्द्रलुप्तचिकित्सा | मालतीकरवीराग्निनक्तमालविपाचितम् ॥ ८७ ॥ तैलमभ्यञ्जने शस्तमिन्द्रलुप्तापहं परम् । इदं हि त्वरितं हन्ति दारुणं नियतं नृणाम् ॥ ८८ ॥ धात्र्याश्रमज्जले पात्स्यात्स्थिरता स्रिग्धकेशता । इन्द्रलुप्ते शिरां विद्ध्वा शिलाकासीसतुत्थकैः ८९ ॥ लेपयेत्परितः कल्कैस्तैलं चाभ्यञ्जने हितम् । कुटन्नटशिखीजाती करञ्जकरवीरजेः ॥ ९० ॥ मालती, कनेर, चीतकी जड़ तथा कजासे सिद्ध तैलकी मालिश करनेसे इन्द्रलुप्त नष्ट होता है । यह तैल दारुणको शीघ्र ही नष्ट करता है । इसी प्रकार आंवला और आमकी गुठलीका लेप करनेसे बाल मजबूत तथा चिकने होते हैं । इन्द्र लुप्तमें शिराव्यध कर मैनारील, कसीस और तूतियाका लेप करना चाहिये । तथा केवटी मोथा, लटजीरा, चमेली, कजा व कनेरसे सिद्ध तेल लगाना चाहिये । तथा गाढ़ पछने लगाकर बार बार गुजाफलका लेप करना चाहिये । हाथीदांतकी भस्म बना रसाञ्जन | मिला लगाने से हाथ के तलुओं में भी बाल जमते हैं । भिलावां, बड़ी कटेरीका फल, गुञ्जाकी जड़ अथवा फल इनमें से किसी एकको शहद मिलाकर लेप करनेसे इन्द्रलुप्त नष्ट होता है । सुवर्णद्वारा खुरचे अथवा पछने लगाये इन्द्रलुप्त ( बालोंके गिरने, ) में बड़ी कटेरीके रसमें पसि गुञ्जामूल व फलको लगानेसे इन्द्रलुप्त नष्ट होता है । अथवा कड़े पत्तोंसे खुरचकर काली मिर्चका चूर्ण उरोनेसे इन्द्रलुप्त नष्ट होता है ॥ ८७-९५ ॥ छागक्षीरादिलेपद्वयम् । प्रतिमर्शतैलम् । प्रपौण्डरीकमधुकपिप्पलीचन्दनोत्पलैः । कार्षिकैस्तैलकुडवं तैर्द्विरामलकीरसः ॥ ८६ ॥ साध्यः स प्रतिमर्शः स्यात्सर्वशीर्षगदापहः । पुण्डरिया, मौरेठी, छोटी पीपल, चन्दन व नीलोफर प्रत्येक एक तोला, तैल १६ तोला तथा आंवलेका रस ३२ तोला मिलाकर पकाना चाहिये । इस प्रतिमर्शका नस्य लेनेसे समस्त शिरोरोग नष्ट होते हैं ॥ ८६ ॥ छागक्षीररसाञ्जनपुटदग्धगजेन्द्रदन्तमसिलिप्ताः । | जायन्ते सप्तरात्रात् खल्ल्यामपि कुश्विताश्चिकुराः ॥९६ मधुकेन्दीवर मूर्वातिलाज्यगोक्षीरभृङ्गलेपेन । अचिराद्भवन्ति केशा घनदृढमूलायता ऋजवः ॥९७॥ | बकरीका दूध, रसौत पुटमें जलाई हाथीदांतकी स्याहीका लेप करनेसे ७ दिनमें खल्वाटके भी घन केश उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार मौरेठी, नीलोफर, मूर्वा, तिल, घी, गायका दूध, भांगरा इनका लेप करनेसे बाल घने, दृढ़मूल, लम्बे तथा सीधे होते हैं ॥ ९६ ॥ ९७ ॥ स्नुह्याद्यं तैलम् । स्नुहीपयः पयोऽर्कस्य मार्कवो लाङ्गलीविषम् । मूत्रमाजं सगोमूत्रं रक्तिका सेन्द्रवारुणी ।। ९८ ।। सिद्धार्थ तीक्ष्णतैलं च गर्भ दत्त्वा विपाचितम् । वह्निना मृदुना पक्कं तैलं खालित्यनाशनम् ॥ ९९ ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (२४१) अपरे योगाः। कूर्मपृष्ठसमानापि रुह्या या रोमतस्करी । अपरं कृष्णीकरणम् । दिग्धा सानेन जायेत ऋक्षशारीरलोमशा ।। १००॥ त्रिफलाचूर्णसंयुक्तं लोहचूर्ण विनिक्षिपेत् । सेहुण्डका दूध, आकका दूध, भांगरा, कलिहारी, सींगिया, ईषत्पक्के नारिकेले भृङ्गराजरसान्विते ॥ १०७ ॥ बकरीका मूत्र, गोमूत्र, गुजा, इन्द्रायण तथा सरसोंका कल्क मासमेकं तु निक्षिप्य सम्यग्गर्भात्समुद्धरेत् । छोड़कर सिद्ध किया गया सरसोंका तैल खालित्यको नष्ट करता ततः शिरो मुण्डयित्वा लेपं दद्याद्भिषग्वरः ॥१०८॥ है। कछुवेकी पीठके समान लोमरहित रुह्या इसकी मालिशसे | संवेष्टय कदलीपत्रैर्मोचयेत्सप्तमे दिने । ऋक्षके समान बालोंसे युक्त होती है ॥ ९८-१०० ॥ क्षालयेत्रिफलाक्वाथैः क्षीरमांसरसाशिनः ॥ १०९ आदित्यपाकतैलम् । कपालरञ्जनं चैतत्कृष्णीकरणमुत्तमम्। कुछ पके नरियलमें भांगरेका रस छोड़कर त्रिफलाचर्ण व वटावरोहकेशिन्योश्चर्णेनादित्यपाचितम् । लोहचूर्ण छोड़ बन्दकर गढ़ेमें गाड़ देना चाहिये । एक मासके गुडूचीस्वरसे तैलं चाभ्यङ्गाकेशरोपणम् ॥ १०१॥ अनन्तर निकालकर शिरका मुण्डन करा लेप करना चाहिये । ऊपरसे केलेके पत्तेको लपेटकर बांध देना चाहिये। फिर ७ दिनके बरगदका वा व जटामासाक चूणस युक्त किय गुचक स्वरसमोलका त्रिफला काटेसे धोना चाहिये। दध नशा मांग. सर्यकी किरणोंसे पकाये तैलकी मालिश करनेसे बालोंको उत्पन्न बाद खोलकर त्रिफलाके काढ़ेसे धोना चाहिये। दूध तथा मांसकरता है॥१०॥ रसका भोजन करना चाहिये । यह शिर तथा बालोंको काला करता है अर्थात् एक प्रकारका खिजाब है ॥ १०७-१०९॥ चन्दनादितैलम् । चन्दनं मधुकं मूर्वा त्रिफला नीलमुत्पलम् । उत्पलं पयसा सार्ध मासं भूमौ निधापयेत् ॥११०॥ कान्ता वटावरोहश्च गुडूची बिसमेव च ।। १०२॥ केशानां कृष्णकरणं स्नेहनं च विधीयते । लोहचूर्ण तथा केशी शारिवे द्वे तथैव च । भृङ्गपुष्पं जपापुष्पं मेषीदुग्धप्रपेषितम् ॥ १११ ॥ मार्कवस्वरसेनैव तैलं मृद्वग्निना पचेत् ।। १०३ ।। तेनैवालोडितं लौहपात्रस्थं भूम्यधःकृतम् । शिरस्युत्पतिताः केशा जायन्ते घनकुञ्चिताः । सप्ताहादुद्धृतं पश्चाद् भृङ्गराजरसेन तु ॥ ११२ ।। दृढमूलाश्च स्निग्धाश्च तथा भ्रमरसन्निभाः। आलोडयाभ्यज्य च शिरो वेष्टयित्वा वसेन्निशाम् । नस्येनाकालपलितं निहन्यात्तैलमुत्तमम् ।। १०४॥ प्रातस्तु क्षालनं कार्यमेवं स्यान्मूर्धर जनम् । चन्दन, मौरेठी, मूर्वा, त्रिफला, नीलोफर, प्रियङ्गु, वटकी | एवं सिन्दूरबालाम्रशङ्खभृङ्गरसैः क्रिया ।।११३ ॥ वौं, गुर्च, कमलके तन्तु, लोहचूर्ण, जटामांसी, शारिवा तथा | नीलोफर दूधके साथ महीनेभर पृथिवीमें गाड़कर लेप करनेसे काली शारिवाके कल्क और भांगरेकेस्वरससे मन्द आंचसे पकाया बाल काले तथा चिकने होते है। इसी प्रकार भाजराके फल व गया तैल मालिशशे शिरके उखड़े बालोंको घने घुघुराले, चिकने, जपाके फूल, भेड़के दूधमें पीस उसीमें मिला लोहेके बर्तन में भ्रमरके समान काले तथा दृढमूल बनाता है। इसके नस्यसे | पृथिव के अन्दर गाड़ सात दिनमें निकालकर भांगरेके रसमें अकालपलित नष्ट होता है । १०२-१०४ ॥ मिलाकर मालिश करना चाहिये और पत्तोंसे लपेट देना चाहिये। प्रातःकाल धोना चाहिये । इस प्रकार शिर काला होता है। इसी यष्टीमधुकतैलम् । प्रकार सिन्दूर, कच्चे आमकी गुठली व शंखको यथाविधि साधित तैलं सयष्टीमधुकैः क्षीरे धात्रीफलैः शृतम् । कर भांगरेके रससे क्रिया करनी चाहिये ॥११०-११३॥ नस्ये दत्तं जनयति केशामणि चाप्यथ ॥१०५॥ शङ्खचूर्णप्रयोगः। मौरेठी व आंवलेके कल्क तथा दूधमें पकाये तैलका नस्य नवदग्धशङ्खचूर्ण लेनेसे बालों तथा मूछोंको उत्पन्न करता है ॥ १०५ ॥ ___ काजिकसिक्तं हि सीसकं घृष्ट्वा । कृष्णीकरणम् । लेपात्कचानर्कदलैत्रिफला नीलिनीपत्रं लोहं भृङ्गरजःसमम् । बंद्धान्करोति हि नीलतरान् ॥ ११४॥ अविमत्रेण संयुक्तं कृष्णीकरणमुत्तमम् ॥ १०६॥ नवीन शंखभस्मको काजीमें डुबोकर शीसा घिसकर बालोंमें त्रिफला, नीलकी पत्ती, लौह तथा भांगराको भेड़के मूत्रमें लगा ऊपरसे आकके पत्ते बांधनेसे सफेद बाल अतिशय नील मिलाकर लेप करनेसे बाल काले होते हैं॥ १०६॥ होते हैं ॥११४॥ ३१ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२ ) चक्रदत्तः । स्नानम् । लोह मलामलकल्कैः सजवाकुसुमैर्नरः सदा स्नायी । पलितानीह न पश्यति गङ्गास्नायीव नरकाणि ॥ ११५ ॥ लोह कि, आंवला तथा जपापुष्पके कल्ककी मालिश कर जलसे स्नान करनेसे गंगास्नानसे पातकों के समान बालोंकी सफेदी नष्ट हो जाती है ॥ ११५ ॥ [ क्षुद्ररोगा लोहपात्रे ततः पूतं संशुद्धमुपयोजयेत् । पाने नस्यक्रियायां च शिरोऽभ्यंगे तथैव च ॥ १२५ ॥ एतचक्षुष्यमायुष्यं शिरसः सर्वरोगनुत् । महानीलमिति ख्यातं पलितन्नमनुत्तमम् ॥ १२६ ॥ निम्बबीजयोगः | निम्बस्य बीजानि हि भावितानि भृङ्गस्य तोयेन तथाशनस्य । तैलं तु तेषां विनिहन्ति नस्याद् दुग्धान्नभोक्तः पलितं समूलम् ॥ ११६ ॥ नीमके बीजोंको भांगरेके क्वाथ तथा विजैसारके क्वाथकी भावना देनेके अनन्तर निकाले गये तैलका नस्य लेनेसे तथा दूध भातका पथ्य लेनेसे सफेद बाल काले हो जाते हैं ॥ ११६ ॥ निम्बतैलयोगः । निम्बस्य तैलं प्रकृतिस्थमेव नये निषिक्त विधिना यथावत् । मासेन गोक्षीरभुजो नरस्य जराभूतं पलितं निहन्ति ॥ नीमके तैलका एक मासतक नस्य लेने तथा गोदुग्धका पथ्य लेनेसे सफेद बाल काले होते हैं ॥ ११७ ॥ ११७ ॥ सूर्यमुखीकी जड़, काले कटसैलाकी जड़, तुलसीकी पत्ती, काले सनके फल, भांगरा, मकोय, मौरेठी, तथा देवदारु प्रत्येक दश पल, छोटी पीपल, त्रिफला रसौत, पुण्डरिया, मजीठ, लोध, काला अगर, नीलोफर, आमकी गुठली, काला कीचड़, कमल, लाल चन्दन, नील, भिलावेकी गुठली, काशीस, वेला, बकुची, विजेसार, तीक्ष्ण लौहभस्म, काला मैनफल, काली चीत, अर्जुन व खम्भारके फूल तथा आम व जामुनके फल, फुलकी गुठली प्रत्येक ५ पल पीसकर एक आढक बहेड़ेका तैल, ४ आढक आंवले का रस मिलाकर पकाना चाहिये । अथवा सूर्य की किरणोंसे रसको सुखा लेना चाहिये । फिर लोहे के बर्तनमें छानकर पीने, नस्य तथा | मालिशसे उपयोग करना चाहिये । यह नेत्रोंके लिये हितकर, | आयुको बढानेवाला तथा शिरके सब रोगों को नष्ट करता है । इसे " महानील" तैल कहते हैं । यह पलितरोगको नष्ट करता | है ॥ ११९-१२६ ॥ पलितघ्नं घृतम् । भृङ्गराजरसे पक्कं शिखिपित्तेन कल्कितम् । घृतं नस्येन पलितं हन्यात्सप्ताहयोगतः ॥ १२७ ॥ भांगरे के रस में मयूरके पित्तके कल्कको छोड़कर सिद्ध घृतका नस्य लेनेसे ७ दिनमें पलित नष्ट होता है ॥ १२७ ॥ क्षीरादितैलम् । क्षीरात्समार्कवरसाद् द्विप्रस्थे मधुकात्पले । तैलस्य कुडवं पक्कं तन्नस्यं पलितापहम् ॥ ११८ ॥ दूध व भांगरेका रस दोनों मिलकर २ प्रस्थ, मौरठी २ पल, तैल १ कुड़व पकाकर नस्य लेनेसे पलित नष्ट होता है ॥ ११८ ॥ महानीलं तैलम् । आदित्यवल्लिमूलानि कृष्णशैरीयकस्य च । सुरसस्य च पत्राणि फलं कृष्णशणस्य च ॥ ११९ ॥ मार्कवं काकमाची च मधुकं देवदारु च । पृथग्दशपलांशानि पिप्पली त्रिफलाञ्जनम् ॥१२०॥ पौण्डरीकं मञ्जिष्ठा लोध्रं कृष्णागुरूत्पलम् । आम्रास्थिकर्दमः कृष्णो मृणाली रक्तचन्दनम् १२२ ॥ हैं ॥ १२८ ॥ १२९ ॥ वृषणकच्छ्वादिचिकित्सा । भल्लातकास्थीनि कासीसं मदयन्तिका । सोमराज्यशनः शस्त्रं कृष्णो पिण्डीतचित्रको १२२ पुष्पाण्यर्जुन काश्मर्योश्चाम्रजम्बूफलानि च । पृथक्पञ्चपलेर्भागैः सुपिष्टैराढकं पचेत् ॥ १२३ ॥ भीतकस्य तैलस्य धात्रीरसचतुर्गुणम् । कुर्यादादित्यपाकं वा यावच्छुष्को भवेद्रसः॥ १२४ ॥ ] होती है ॥ १३० ॥ कासीसं रोचनातुल्यं हरितालं रसाञ्जनम् । अम्लपिष्टेः प्रलेपोऽयं वृबकच्छ्वहिपूतयोः ॥१३०॥ काशीस, गोरोचन, हरिताल तथा रसौतको समान भाग ले काञ्जी में पीसकर लेप करनेसे वृषणकच्छु तथा अहिपूतना नष्ट | शेलुकतैलम् । काञ्जिकपिष्टशेलु फलमज्ज्ञि सच्छिद्रलौहगे । दर्कतापात्पतति तैलं तन्नस्यम्रक्षणात् ॥ १२८ ॥ केशा नीलालिसङ्काशाः सद्यः स्निग्धा भवन्ति च । नयनश्रवणग्रीवादन्तरोगांश्च हन्त्यदः ।। १२९ ॥ काजी में पीसी लसोढेके फलकी मज्जाको छिद्रयुक्त लोहपात्र में भरकर सूर्य की किरणोंसे तपकर जो तैल नीचे गिरता है, उसके नस्य तथा मालिशसे बाल नील भँवरोंके सदृश काले तथा चिकने होते हैं तथा नेत्र, कान, गर्दन और दन्तों के रोग नष्ट होते | Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः भाषाटीकोपेतः। न्पटोलादिघृतम् । पित्तजचिकित्सा। पटोलपत्रत्रिफलारसाजनविपाचितम् । वेधं शिराणां वमनं विरक पीतं घृतं निहन्त्याशु कृच्छ्रामप्यहिपूतनाम् ॥१३१ तिक्तस्य पानं रसभोजनं च। परवलकी पत्ती, त्रिफला तथा रसोतसे सिद्ध घृतको पीनेसे| शीतान्प्रलेपान्परिषेचनं च भहिपूतना नष्ट होती है ॥ १३१॥ पित्तोपसृष्टेष्वधरेषु कुर्यात् ।। ३ ॥ शूकरदंष्ट्रकचिकित्सा। पित्तरक्ताभिघातोत्थाजलौकाभिरुपाचरेत् । रजनीमार्कवमूलं पिष्टं शीतेन वारिणा तुल्यम्। पित्तविद्रधिवञ्चापि क्रियां कुर्यादशेषतः ॥ ४ ॥ हन्ति विसर्प लेपाद्वराहदशनाह्वयं घोरम् ।। १३२॥ पित्तयुक्त ओष्ठोंमें शिराव्यध, वमन, विरेचन, तिक्त रस हल्दी व भांगरेकी जड़ दोनों समान भाग ले ठण्डे जलमें सेवन, मांसरसका भाजन, शीतल लेप तथा सिञ्चन करना पीसकर लेप करनेसे घोर शंकरदंष्टक रोग नष्ट होता चाहिये । और पित्तरक्त तथा अभिघातजन्य ओष्ठरोगमें है॥ १३२॥ जोंक लगाकर तथा पित्तविद्रधिके समान चिकित्सा करनी चाहिये ॥३॥४॥ पाददाहचिकित्सा। नागकेशरचूर्ण वा शतधौतेन सर्पिषा । कफजचिकित्सा। पिष्ट्वा लेपो विधातव्यो दाहे हर्षे च पादयोः॥१३३ शिरोविरेचनं धूमः स्वेदः कवलधारणम् । नागकेशरके चूर्णको१०. बार धोये हुए धीमें मिलाकर पाद- हृतरक्त प्रयोक्तव्यमोष्ठकोपे कफात्मके ॥५॥ दाह तथा पादहर्षमें लगाना चाहिये ॥ १३३॥ त्रिकटुः सर्जिकाक्षारः क्षारश्च यावशूकजः। . इति क्षुद्ररोगाधिकारः समाप्तः। क्षौद्रयुक्तं विधातव्यमेतच्च प्रतिसारणम् ॥ ६ ॥ कफात्मक ओष्ठरोगमें रक्त निकालनेके अनन्तर शिरोविरेचन. अथ मुखरोगाधिकारः। धुम, स्वेद, कवल धारण करने चाहियें। तथा त्रिकटु, सज्जीखार व जवाखारके चूर्णको शहद मिलाकर लगाना चाहिये ॥५॥६॥ वातजौष्ठरोगचिकित्सा। मेदोजचिकित्सा। ओष्ठप्रकोपे वातोत्थे शाल्वणेनोपनाहनम् । मेदोजे स्वदिते भिन्ने शोधिते ज्वलनो हितः॥ मस्तिष्के चैव नस्ये च तैलं वातहरैः शृतम् । । प्रियङ्गुत्रिफलालोधं सक्षौद्रं प्रतिसारणम् ।। स्वेदोऽभ्यङ्गः स्नेहपानं रसायनमिहेष्यते ॥१॥ हितं च त्रिफलाचूर्ण मधुयुक्तं प्रलेपनम् ॥७॥ वातज ओष्ठकोपमें शाल्वणस्वेदकी ओषधियोंसे पुल्टिस सर्जरसकनकगैरिकधन्याकघृततैलसिन्धुसंयुक्तम् । बान्धनी चाहिये । तथा वातनाशक औषधियोंसे सिद्ध तैलको| सिद्धं सिक्थकमधरे स्फुटितोच्चटितं व्रणं हरति॥८॥ शिरमें लगाना तथा नस्य लेना चाहिये । और पसीना निका मेदोज ओष्ठरोगमें स्वेदन भेदन तथा शोधन अग्नि ताप करना लना, मालिश करना, नेहपान तथा रसायन सेवन इसमें हितकर चाहिये और प्रियंगु त्रिफला व लोधके चूर्णको शहदके साथ लगाना चाहिये । अथबा त्रिफलाके चूर्णको शहदमें मिलाकर श्रीवेष्टकादिलेपः। लगाना चाहिये । तथा राल, सुनहरा गेरू, धनियां, घी, तेल, श्रीवेष्टकं सर्जरसं गुग्गुलुं सुरदारु च। सेंधानमक तथा मोम इनका यथाविधि पाक कर लगानेसे यष्टीमधुकचूर्ण च विदध्यात्प्रतिसारणम् ॥२॥ ओष्ठका फटना व पपड़ी पड़ना नष्ट होता है ॥ ७॥८॥ गन्धाविरोजा, राल, गुग्गुल, देवदारु और मौरेठीक चूर्णको शीतादचिकित्सा। ओठापर लगाना चाहिये ॥२॥ शीतादे हृतरक्ते तु तोये नागरसर्षपान् । १“ सदाहो रकपर्यन्तस्त्वक्पाकी तीनवेदनः । कण्डूमाव- निःकाध्य त्रिफलां चापि कुर्याद्गण्डूषधारणम् ॥९॥ रकारी च स स्थाच्छूकरदंष्ट्रकः "॥ प्रियङ्गवश्व मुस्ता च त्रिफला च प्रलेपनम्॥१०॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४) चक्रदत्तः। मुखरोगा शीताद नामके दन्तरोगमें, रक्तको निकालकर जलके लगाना चाहिये और गण्डूष धारणके लिये क्षीरी वृक्षांक साथ सोंठ, सरसों और त्रिफलाका क्वाथ कर गण्डूष | कषायमें शहद, घी व शक्कर मिलाकर प्रयोग करना धारण करना चाहिये । तथा प्रियंगु त्रिफला और मोथाका लेप | चाहिये ॥१५-१७ ॥ करना चाहिये ॥९॥१०॥ शैशिरचिकित्सा। रक्तस्त्रावचिकित्सा। शशिरे हृतरक्ते च लोध्रमुस्तरसाजनैः । कुष्ठं दावर्मिन्दलोभ्रं समंगा सक्षौद्रैः शस्यते लेपो गण्डूषे क्षीरिणो हिताः॥१८॥ पाठा तिक्ता तेजनी पीतिका च । दांतोंके शैशिररोगमें रक्त निकालकर शहदके साथ लोष, चूर्ण शस्तं घर्षणं तद्विजानां नागरमोथा और रसौंतका लेप करना चाहिये और दूधवाले रक्तस्रावं हन्ति कण्डूं रुजां च ॥ ११॥ वृक्षोंका गंडूष धारण करना चाहिये ॥१८॥ कूठ, दारुहल्दी, नागरमोथा, लोध, लज्जालु, पाठ, कुटकी, परिदरोपकुशचिकित्सा। चव्य तथा हल्दीके चूर्णको दांतोंमें घिसनेसे रक्तस्राव, खुजली व क्रियां परिदरे कुर्याच्छीतादोक्तां विचक्षणः । पीड़ा नष्ट होती है ॥ ११॥ संशोध्योभयतः कार्य शिरश्चोपकुशे ततः ॥ १९ ॥ चलदन्तस्थिरीकरणम् । काकोदुम्बारिकागोजीपत्रैविस्रावयेद् भिषक् । चलदन्तस्थिरकर कार्य बकुलचर्वणम् । क्षौद्रयुक्तैश्च लवणैः सव्योषैः प्रतिसारयेत् ॥२०॥ आर्तगलदलक्काथगण्डूषो दन्तचालनुत् ॥१२॥ पिप्पल्यः सर्षपाः श्वेता नागरं नैचुलं फलम् ।। दन्तचाले हितं श्रेष्ठं तिलोपाचर्वणं सदा । सुखोदकेन संगृह्य कवलं तस्य योजयेत् ॥ २१ ॥ दन्तपुप्पुटके कार्य तरुणे रक्तमोक्षणम् ॥ १३ ॥ परिदरमें शीतादोक्त चिकित्सा करनी चाहिये । तथा उपकुशमें सपश्चलवणः क्षारः सक्षौद्रः प्रतिसारणम् । वमन, विरेचन तथा नस्यसे शोधन कर कठूमर या गोजिह्वाके दन्तानां तोदहर्षे च वातघ्नाः कवला हिताः ॥१४॥ | पत्तोंसे खुरच कर रक्त निकालना चाहिये । फिर शहदमें त्रिकटु और पांचों नमकोंको मिलाकर लगाना चाहिये । तथा छोटी दन्तचाले तु गण्डूषो बकुलत्वक्कृतो हितः । पीपल, सरसों, सोंठ व समुद्रफलको गुनगुने जलमें मिलाकर कवल मौलसिरीकी छालको चाबना हिलते दाँतोंको मजबूत धारण कराना चाहिये ॥ १९-२१॥ करता है । तथा नीले कटसैलेकी पत्तीके क्वाथका गण्डष धारण करनेसे दाँतोंका हिलना बन्द होता है तथा दाँतोंके दन्तवैदर्भचिकित्सा । हिलनमें तिल व बचको चबाना हितकर है। नवीन दन्त | शस्त्रेण दन्तवैदर्भ दन्तमूलानि शोधयेत् । पुप्पुटकमें रक्तमोक्षण करना चाहिये । तथा पांचों नमक और ततः क्षारं प्रयुजीत क्रियाः सर्वाश्च शीतलाः२२॥ क्षारके चूर्णको शहद मिलाकर लगाना चाहिये । दाँतोंके दर्द व दन्तवैदर्भमें शस्त्रसे दन्तमूलको शोध कर क्षार लगाना गुंठलानेमें वातनाशक कवल हितकर है । तथा दांतोंके हिलनेमें | चाहिये । तथा समस्त शीतल चिकित्सा करनी चाहिये ॥२२॥ मौलसिरीकी छालके क्वाथका गण्डूष धारण करना चाहिये ॥ १२-१४॥ अधिकदन्ताचेकित्सा। उद्धृत्याधिकदन्तं तु ततोऽग्निमवचारयेत् । ‘दन्तशूलचिकित्सा। क्रिमिदन्तकवचात्र विधिः कार्यों विजानता ॥२३॥ माक्षिकं पिप्पलीसर्पिमिश्रितं धारयेन्मुखे ॥ १५॥ अधिक दांतको उखाड़ कर अग्निसे जला देना चाहिये दन्तशलहरं प्रोक्त प्रधानमिदमौषधम । | तथा इसमें क्रिमिदन्तके समान चिकित्सा करनी चाहिये ॥२३॥ विस्राविते दन्तवेष्टे व्रणं तु प्रतिसारयेत् ॥ १६ ॥| अधिमांसचिकित्सा। लोध्रपत्तंगमधुकलाक्षाचूणैर्मधूत्तरैः। . गण्डूषे क्षीरिणो योज्याः सक्षौद्रघृतशर्कराः ॥१७॥ छित्त्वाऽधिमांसं सक्षौरेतेश्चूर्णेरुपाचरेत् । शहद, छोटी पीपल व घीको मिलाकर मुखमें रखना | पाठावचातेजोवतिसर्जिकायावशूकजैः । चाहिये । यह दन्तशूलको नष्ट करनेमें प्रधान औषधि है।। क्षीद्रद्वितीयाः पिप्पल्यः कवलश्चात्र कीर्तितः॥२४॥ तथा दन्तवेष्टके रक्तको निकालकर घावमें लोध, पीला। पटोलानम्बात्रफलाकषायश्चात्र धाबने । बन्दन, मौरेठी व लाखके चूर्णको शहद मिलाकर | शिरोविरेकश्च हितो धूमो वैरेचनश्च यः ॥ २५ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मापाटीकोपेतः । धिकारः ] अधिमांसको काटकर शहद के साथ पाठ, वच, चव्य सज्जीखार तथा जवाखारके 'चूर्णको लगाना चाहिये तथा पीपलको शहदके साथ मिलाकर कवल धारण करना चाहिये । इसमें धोनेके लिये परवल नीम व त्रिफलाके काढ़ेको काममें लाना चाहिये । तथा शिरोविरेचन और विरेचन ( कफनिःसारक ) धूमका प्रयोग करना चाहिये ॥ २४ ॥ २५ ॥ (२४५) दन्तनाड़ी ठीक होती है । तथा इन्हींके काथ व लोध, कत्था मञ्जीठ तथा मोरेठीकै कल्कसे सिद्ध तैल दन्तनाड़ीको शुद्ध करता है । ऊपरके तैलमें जाती आदिका क्वाथ तथा लोध आदिका कल्क छोड़ना चाहिये और मैनफल कटीला तथा स्वादुकण्टकसे विकंकत लेना चाहिये । कुछ गरम गरम स्नेहके कवलधारण करने चाहियें । दन्त हर्षमें त्रैवृत घृतके द्वारा कमल धारण करना चाहिये । तथा वातनाशक औषधियों के क्वाथ दन्त| हषको नष्ट करते हैं । स्नैहिक धूम तथा स्नैहिक नस्यका प्रयोग | करना चाहिये । दन्तमूल कटने न पावे, इस प्रकार शर्कराको | खुरच कर निकालना चाहिये । फिर शहदसे मिले हुए लाखके करनी चाहिये ॥ २७-३५ ॥ चूर्णको लगाना चाहिये और दन्तहर्षकी समग्र क्रिया दन्तनाडीचिकित्सा | नाडीव्रणहरं कर्म दन्तनाडीषु कारयेत् । यं दन्तमधिजायेत नाडी तद्दन्तमुद्धरेत् ॥ २६ ॥ दन्तनाड़ी पायरिया में नाडीव्रणनाशक चिकित्सा करनी चाहिये । तथा जिस दन्तमें नाड़ी होगयी हो, उसे उखाड़ डालना चाहिये ॥ २६ ॥ अधिमासादिचिकित्सा । छित्त्वाधमांसं शस्त्रेण यदि नोपरिजो भवेत् । शोधयित्वा दहेश्चापि क्षारेण ज्वलनेन वा ॥ २७ ॥ गतिर्हिनस्ति हन्वस्थि दशने समुपेक्षिते । तस्मात्समूलं दशनमुद्धरेद्भग्नमस्थि च ॥ २८ ॥ उद्घृत तूत्तरे दन्ते शोणितं संप्रसिच्यते । रक्ताभियोगात्पूर्वोक्ता घोरा रोगा भवन्ति च॥२९॥ चलमप्युत्तरं दन्तमतो नापहरेद्भिषक् । कषायं जातिमदनकटुकस्वादुकण्टकैः ॥ ३० ॥ लोध्रखदिरमाञ्जष्ठायष्टयाहैश्वापि यत्कृतम् । तैलं संशोधनं तद्धि हन्याद्दन्तगतां गतिम् ॥ ३१ ॥ कषायं परतः कृत्वा पिष्ट्वा लोघ्रादिकाल्कितम् । कण्टकीमदनो योज्यः स्वादुकण्टो विकंकतः ॥ ३२॥ सुखोष्णाः स्नेहकवलाः सर्पिषस्त्रेवृतस्य वा । निर्यूहाचानिलन्नानां दन्तहर्षप्रमर्दनाः ।। ३३ ।। किश्च हितो धूमो नस्यं स्नैहिकमेव च । अहिंसन् दन्तमूलानि शर्करामुद्धरेद्भिषक् ॥३४ ॥ लाक्षाचूर्णैर्मधुयुतैस्ततस्तां प्रतिसारयेत । दन्तहर्षक्रियां चापि कुर्यान्निरवशेषतः ॥ ३५ ॥ कपालिका क्रिमिदन्तचिकित्सा | कपालिकाः कृच्छ्रसाध्यास्तत्राप्येषा क्रिया मता । जयेद्विस्रावणैः स्त्रिन्नमचलं क्रिमिदन्तकम् ॥ ३६ ॥ तथावपीडैर्वातन्नैः स्नेहगण्डूषधारणैः । भद्रदार्वादिवर्षाभूळेपैः स्निग्धैश्च भोजनैः । सोषण हिंगु मतिमान्त्रिमिदन्तेषु दापयेत् ||३७ ॥ कपालिका कृच्छ्रसाध्य होती है, उसमें भी यही क्रिया खूनको निकालना चाहिये । तथा वातघ्न अवपीड़क नस्य, करनी चाहिये। जो क्रिमिदन्त हिलता न हो, उसका स्वेदन कर स्नेहगण्डूष और भद्रदार्वादि और पुनर्नवाके लेप तथा स्निग्ध भोजन कराना चाहिये । तथा क्रिमिदंतमें बुद्धिमान् वैद्य काली मिर्च व हींगको रखवावे ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ बृहत्यादिक्वाथः । i बृहती भूमिकदम्बकपञ्चाङ्गुलिकण्टकारिकाथैः । गण्डूषस्तैलयुतः क्रिमिदन्तकवेदनाशमनः ॥ ३८ ॥ बड़ी कटेरी, मुण्डी, एरण्ड व कण्टकारिकाके क्वाथमें तैल मिलाकर गण्डूष धारण करनेसे क्रिमिदन्तकी पीड़ा शांत होती है ॥ ३८ ॥ नील्यादिचर्वणम् । नीलीवायसजंघास्नुदुग्धीनां तु मूलमेकैकम् । संच दशनविधृतं दशनक्रिमिपातनं प्राहुः ॥ ३९ ॥ चलमुद्धृत्य वा स्थानं दहेत्तु शुषिरस्य वा । ततो विदारीयष्टयाह्नशृङ्गाटककशेरुभिः । अधिमास यदि ऊपर न हो, तो शस्त्रसे काटकर शुद्ध करना चाहिये । फिर क्षार या अग्निसे जला देना चाहिये । दांतकी उपेक्षा करनेसे नासूर दाढको नष्ट कर देता है, तैलं दशगुणक्षीरसिद्धं नस्ये तु योजयेत् ॥ ४० ॥ नील, काकजंघा, सेहुण्ड, दूधीमेंसे किसी एककी जड़ अतः समूल दांत और टूटी हड्डी इनको उखाड़ डालना चाहिये । ऊपरके दांतको उखाड़नेसे खून बहता है, रक्तके बहनेसे और अनेक कठिन रोग हो जाते हैं, खोद चबाकर दांतमें रखनेसे दांतके कीड़े गिर जाते अतः हिलते हुए भी ऊपरके दांतको न उखाड़ना चाहिये । हैं । चलदन्तको उखाड़ना तथा छिद्रमें आग लगा देनी चमेली, मैनफल, कुटकी व विकंकतके काथसे कवलधारणसे चाहिये । फिर बिदारकन्द, मोरेठी, सिंघाड़ा व कशेरूक Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [मुखरोगा - - - कल्क तथा तैलसे दशगुण दूध मिलाकर सिद्ध तेलका नस्य | वातज ओष्ठरोगमें जो चिकित्सा कही गयी है, वही वातज. देना चाहिये ॥ ३९ ॥ ४० ॥ कण्टकोंमें करनी चाहिये । पित्तजकण्टकोंमें कण्टकोंको खुरच. कर दुष्ट रक्त निकल जानेपर प्रतिसारण गण्डूष और नस्य, हनुमोक्षादिचिकित्सा । मधुर हितकर हैं । कफजकण्टकोंको खुरचकर रक्तके क्षीण हो हनुमोक्षे समुद्दिष्टा कार्या चार्दितवक्रिया।। | जानेपर शहदसे मिलित पिप्पल्यादिगणकी ओषधियोंका प्रयोग फलान्यम्लानि शीताम्बु रूझान्नं दन्तधावनम् ४१॥ करना चाहिये । और सफेद सरसों व सेंधानमकका केवल धारण तथातिकठिनान्भक्ष्यान्दन्तरोगी विवर्जयेत् । करना चाहिये । तथा परवल, नीम, बैंगन, क्षार व युषसे भोजन सप्तच्छदार्कदुग्धाभ्यां पूरणं क्रिमिदन्तनुत् ॥४२॥ कराना चाहिये ॥ ४७-५० ॥ जीवनीयेन दुग्धेन क्रिमिरन्ध्रप्रपूरणम् । जिह्वाजाडयचिकित्सा। अर्कक्षीरेणैवमेकयोगः सद्भिः प्रशस्यते ॥ ४३ ॥ | जिह्वाजाडयं चिरजं माणकभस्मलवणघर्षणं हन्ति । द्रोणपुष्पीद्रवः फेनमधुतैलसमायुतः। ईषत्स्नुक्षीराक्तं जम्बीराद्यम्लचर्वणं वापि ॥५१॥ क्रिमिदन्तविनाशाय कार्य कर्णस्य पूरणम् ॥४४॥ माणकन्दकी भस्म व नमकके घिसनेसे पुरानी जिह्वाकी जड़ता हनुमोक्षमें अर्दितके समान चिकित्सा करनी चाहिये । नष्ट होती है । तथा थोड़े सेहुण्डके दूधसे युक्त जम्बीरादि खट्टी दन्तरोगी खट्टे फल, ठण्ढा जल, रूखा अन्न, दन्तधावन चीजोंका चबाना हितकर है ॥५१॥ तथा अति कठिन पदार्थ इन सबको त्याग देवे । सप्तपर्ण और आकके दूधसे भरना क्रिमिदन्तको नष्ट करता है। दन्तशब्दचिकित्सा। जीवनीय गणसे सिद्ध दूधसे कीड़ाके छिद्र भर जाते हैं । अथवा | कर्कटाधिक्षीरपक्कघृताभ्यङ्गेन नश्यति । अकेले आकके दूधसे कीडोंके छिद्र भर जाते हैं । क्रिमिदन्तके दन्तशब्दः कर्कटाघ्रिलेपाद्वा दन्तयोजितात् ॥५२ नाशार्थ गूमाके रसमें समुद्रफेन शहद व तैल मिलाकर कानमें काकड़ाशिङ्गीकी जड़से सिद्ध दूधसे बनाये घीकी मालिश करछोड़ना चाहिये ॥ ४१-४४ ॥ नेसे दांतोंकी कटकटाहट नष्ट होती है । अथवा काकड़ाशिङ्गीकी जड़के लेपसे भी नष्ट होती है ॥५२॥ __ जिद्वारोगचिकित्सा । पटोलकटुकाव्योषपाठासैन्धवभाङ्गिकैः। उपजिहाचिकित्सा। चूर्णैर्मधुयुतो लेपः कवलो मधुतैलकः । उपजिह्वां तु संलिख्य क्षारेण प्रतिसारयेत् । जिह्वारोगेषु कर्तव्यं विधानमिदमौषधम् ॥४५॥ शिरोविरेकगण्डूषधूमैश्चैनामुपाचरेत् ॥५३॥ मुस्तामधुकनिर्गुण्डीखदिरोशीरदासाभिः । व्योषक्षाराभयावह्निचूर्णमेतत्प्रघर्षणम् ।। समजिष्ठाविडङ्गैश्व सिद्धं तैलं हरेस्क्रिमीन् ॥४६॥ उपजिह्वाप्रशान्त्यर्थमेतैस्तैलं विपाचयेत् ॥ ५४॥ परवल, कुटकी, त्रिकटु, पाढ व सेंधानमकके चूर्णको शहदमें उपजिह्वाको खुरचकर क्षार लगाना चाहिये । तथा मिलाकर लेप करना चाहिये । तथा शहद व तैलका कवल धारण शिरोविरेचन, गण्डूष और धूम पिलाना चाहिये। और करना चाहिये । जिह्वा रोगोंके लिये यह प्रधान औषध है। तथा त्रिकटु, क्षार, बड़ी हरे व चीतकी जड़के चूर्णको घिसना चाहिये । नागरमोथा, मौरेठी, सँभालु, कत्था, खश, देवदारु, मजीठ, व | तथा उपजिह्वाकी शांतिके लिये इन्हींसे तैल पकाना वायविडङ्गसे सिद्ध तैल कीड़ोंको नष्ट करता है ॥४५॥ ४६॥ | चाहिये ॥ ५३ ॥ ५४॥ कण्टकचिकित्सा। ___गलशुण्डीचिकित्सा। छिन्नां घर्षगलशुण्डी व्योषोनाक्षौद्र सिन्धुजैः। ओष्ठप्रकोपेऽनिलजे यदुक्तं प्राक् चिकित्सितम् । । कुष्ठोषणवचासिन्धुकणापाठाप्लवैरपि ॥५५॥ कण्टकेष्वनिलोत्थेषु तत्काय भिषजा खलु ॥४७॥ सक्षौद्रभिषजा कार्य गलशुण्डया विघर्षणम् । पित्तजेषु निघृष्टेषु निसुते दुष्टशोणिते । उपनासाव्यधो हन्ति गलशुण्डीमशेषतः॥५६॥ प्रतिसारणगण्डूषा नस्यं च मधुरं हितम् ॥४८॥ गलशुण्डीहरं तद्वच्छेफालीमूलचर्वणम् । कण्टकेषु कफोत्थेषु लिखितेष्वसृजः क्षये । वचामतिविषां पाठां रास्नां कटुकरोहिणीम् । पिप्पल्यादिमधुयुतः कार्य तु प्रतिसारणम् ॥ ४९ ॥ निष्क्वाथ्य पिचुमर्द च कवलं तत्र योजयेत् ॥५७॥ गृह्णीयात्कवलान्वापि गौरसर्षपसैन्धवैः। गलशुण्डीको काटकर त्रिकटु, वच, शहद व सेंधानमकसे पटोलनिम्बवार्वाकुक्षारयुषैश्व भोजयेत् ॥५०॥ अथवा कूठ, काली मिर्च, वच, सेंधानमक, छोटी पीपल, पाढ़ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकोपेतः । विकारः ] व केवटी मोथाको शहदके साथ मिलाकर रगड़ना चाहिये । तथा उपनासाका व्यध गलशुण्डीको नष्ट करता है, इसी प्रकार सम्भालूकी जड़का चर्वण गलशुण्डीको नष्ट करता है । तथा इसमें बच, अतीस पाढ़, रासन, कुटकी और नीमका बनाकर केवल धारण करना चाहिये ॥ ५५-५७ ॥ तुण्डीर्यादिचिकित्सा | क्षारसिद्धेषु मुद्रेषु यूषाश्चाप्यशने हिताः । तुण्डिकेर्यषे कूर्मे संघाते तालुपुप्पटे ॥ ५८ ॥ एष एव विधिः कार्यों विशेषः शस्त्रकर्मणि । तालुपाके तु कर्तव्यं विधानं पित्तनाशनम् ॥ ५९ ॥ स्नेहस्वेदौ तालुशोषे विधिश्वानिलनाशनः । डिकेरी, अधुष, कूर्मसंघात और तालुपुप्पुट में क्षारसे सिद्ध केयूषका पथ्य देना चाहिये । तथा शस्त्रकर्म भी विशेष अवस्था में करना चाहिये । तालुपाकमें पित्तनाशक चिकित्सा करनी चाहिये । तालुशोषमें स्नेहन, स्वेदन तथा वातनाशक चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ५८ ॥ ५९ ॥ - रोहिणीचिकित्सा | साध्यानां रोहिणीनां तु हितं शोणितमोक्षणम् ॥६०॥ छर्दनं धूमपानं च गण्डूषो नस्यकर्म च । वातिकीं तु हृते रक्ते लवणैः प्रतिसारयेत् ॥ ६१ ॥ सुखोष्णांस्तैलकवलान्धारयेच्चाप्यभीक्ष्णशः । पतंगशर्कराक्षीद्रेः पैत्तिकीं प्रतिसारयेत् ॥ ६२ ॥ द्राक्षापरूषकक्वाथो हितश्च कवलग्रहे । आगारधूमकटुकैः कफजां प्रतिसारयेत् ॥ ६३ ॥ श्वेताविडंगदन्तीषु सिद्धं तैलं ससैन्धवम् । नस्यकर्माणि दातव्यं कवलं च कफोच्छ्रये ॥ ६४॥ पित्तवत्साधयेद्वैद्यो रोहिणीं रक्तसम्भवाम् । साध्यरोहिणियों में रक्त निकालना चाहिये । तथा वमन, धूमपान, गण्डूष और नस्यकर्म करना चाहिये । वातिकरोहिणी में raat निकालकर नमकों को उर्राना चाहिये । कुछ गरम गरम तैलके कवल धारण करना चाहिये । पैत्तिकरोहिणी में पीतचन्दन a Ear शहद मिलाकर लगाना चाहिये । तथा मुनक्का व फाल्सके क्वाथका कवल थारण करना चाहिये । कफजमें गृहधूम तथा त्रिकटुको मिलाकर उराना चाहिये । तथा सफेद विष्णुक्रान्ता, वायविडङ्ग व दन्तीसे सिद्ध तैलमें सेंधानमक मिलाकर नस्य तथा कवल धारण करना चाहिये । तथा पित्तके समान रक्तज रोहिणी की चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ६०-६४ ॥ ( २४७ ) एककालं यवान्नं च भुञ्जीत स्निग्धमल्पशः । उपजिह्निवच्चापि साधयेदधिजिह्विकाम् ॥ ६६ ॥ उन्नाय जिह्वामाकृष्य बडिशेनाधिजिह्विकाम् । छेदयेन्मण्डलाग्रेण तीक्ष्णोष्णैर्घर्षणादिभिः ॥ ६७ ॥ एकवृन्द तु विस्राव्य विधिं शोधनमाचरेत् । गिलायुश्चापि यो व्याधिस्तं च शस्त्रेण साधयेत् ६८॥ अमर्मस्थं सुपक्वं च भेदयेद्गलविद्रधिम् । कण्ठशालकको चीरकर तुंडिकेर के समान चिकित्सा करनी चाहिये । तथा एक बार यवका अन्न चिकना घृतादियुक्त थोड़ा थोड़ा खाना चाहिये | उपजिह्ना के समान अधिजिह्वाकी चिकित्सा करनी चाहिये । जिह्वाको उठाकर बड़ खींचकर मण्डलाग्रसे काट देना चाहिये । एकवृन्देको तीक्ष्ण उष्ण घर्षणादिसे बहाकर शोधनविधि करनी चाहिये । गिलायुनामक रोगको शस्त्रसे सिद्ध करना चाहिये । तथा जो गलविद्रधि पक गयी हो, और मर्मस्थान में न हो, उसे चीर देना चाहिये ॥ ६५-६८ ॥ - कण्ठरोगचिकित्सा | कण्ठरोगेष्वसृङ्मोक्षस्तीक्ष्णैर्नस्यादिकर्म च ॥ ६९ ॥ काथपानं तु दार्वीत्वह्निम्बतार्क्ष्यक लिङ्गजम् । हरीतकीकषायो वा पेयो माक्षिकसंयुतः ॥ ७० ॥ कण्ठरोगों में रक्तको निकालना चाहिये । तथा तीक्ष्ण औषधियोंसे नस्यादि कर्म करना चाहिये । तथा दारूहल्दीकी छाल, नीम, रसौत व इन्द्रयवके काढ़ेको पीना चाहिये । अथवा हरों के काढ़में शहद मिलाकर पीना चाहिये ॥ ।। ६९ ।। ७० ।। कटुकादिक्वाथः । कटुकातिविषादारुपाठामुस्तक लिङ्गकाः । गोमूत्रकथिताः पेयाः कण्ठरोगविनाशनाः ॥ ७१ ॥ कुटकी, अतीस, देवदारु, पाढ़, नागरमोथा, व इन्द्रयवका गोमूत्र में क्वाथ बनाकर पीनेसे कण्ठरोग नष्ट होते हैं ॥ ७१ ॥ कालकचूर्णम् । गृहधूमो यवक्षारः पाठा व्योषरसाञ्जनम् । तेजोह्रा त्रिफला लोहं चित्रकश्चेति चूर्णितम् ॥७२॥ सक्षौद्रं धारयेदेतद्गलरोगविनाशनम् । कालकं नाम तच्चूर्ण दन्तजिह्वास्यरोगनुत् ॥७३ ॥ गृहधूम, जवाखार, पाढ़, त्रिकटु, रसौत चव्य, त्रिफला, | लौह भस्म व चीतकी जड़ के चूर्णको शहद मिलाकर धारण कर नेसे दन्त, जिह्वा व मुखके रोगोंको नष्ट करता है । इसे "कालक कण्ठशालूकादिचिकित्सा । विस्राव्य कण्ठशालूकं साधये तुण्डिके रिवत् ||६५ || चूर्ण कहते हैं ॥ ७२ ॥ ७३ ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४८) [ मुखरोगासन्न्न्न्न्न्न् - पञ्चकोलकक्षारचूर्णम्। चाशनीमें बेरके बराबर गोली बनाकर सात दिन मोखाकीभस्ममें पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। रख कण्ठरोगोंमें धारण करना चाहिये । यह अमृतके तुल्य गुण सर्जिकाक्षारतुल्यांशैश्चूर्णोऽयं गलरोगनुत् ॥७४॥ देती है ॥७९-८१॥ छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, चीतकी जड़, सोंठ, और | मुखरोगचिकित्सा । सज्जीखार सब समान भाग ले चूर्ण बनाकर मुखमें रखनेसे गल-| रोग नष्ट होते हैं ॥ ७४॥ मूत्रस्विन्नां शिवां तुल्यां मधुरीकुष्ठपत्रकैः। अभ्यस्य मुखरोगांस्तु जयेद्विरसतामपि ॥८॥ पातकचूर्णम् । गोमूत्रमें स्विन्न छोटी हरें, सौंफ, कूठ, व तेजपात तीनोंके मनःशिला यवक्षारो हरितालं ससैन्धवम् । बराबर लेकर मुखमें रखनेसे मुखकी विरसता तथा अन्य मुखरोग दात्विक्चेति तच्चूर्ण माक्षिकेण समायुतम् ॥७५॥ नष्ट होते हैं ॥ ८२ ॥ मूर्छितं घृतमण्डेन कण्ठरोगेषु धारयेत् । सर्वसरचिकित्सा। मुखरोगेषु च श्रेष्ठं पीतकं नाम कीर्तितम् ॥७६ ॥ वातात्सर्वसरं चूर्णैर्लेवणैः प्रतिसारयेत् । मनशिल, जवाखार, हरिताल, सेंधानमक व दारुहल्दी तैलं वातहरैः सिद्धं हितं कवलनस्ययोः ॥ ८३ ।। की छालके चूर्णको शहद तथा घी मिलाकर कण्ठरोग | पित्तात्मके सर्वसरे शुद्धकायस्य देहिनः। और मुखरोगोंमें धारण करना चाहिये । इसे "पीतक चूर्ण" सर्वपित्तहरः कार्यों विधिर्मधुरशीतलः ॥ ८४॥ कहते हैं ॥ ७५ ॥७६ ॥ प्रतिसारणगण्डूषान्धूमं संशोधनानि च । यवाग्रजादिगुटिका । कफात्मके सर्वसरे क्रमं कुर्यात्कफापहम् ।। ८५॥ यवाग्रजं तेजवतीं सपाठां वातज सर्वसरमें लवणोंके चूर्णको धारण करना चाहिये । तथा रसाजन दारुनिशां सकृष्णाम् । कवल व नस्यमें वातनाशक तैलका प्रयोग करना चाहिये । क्षौद्रेण कुर्याद् गुटिकां मुखेन पित्तात्मक सर्वसरमें शुद्ध शरीरवाले पुरुषको समस्त पित्तनाशक मीठी व ठण्ढ़ी चिकित्सा करनी चाहिये । कफात्मक सर्वसरमें तां धारयेत्सर्वगलामयेषु ॥ ७७ ।। कफनाशक प्रतिसारण गण्डूष, धूम, संशोधन तथा समस्त कफ जवाखार, चव्य, पाढ़, रसौत, दारुहल्दी तथा छोटी पीपलका | नाशक चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ८३-८५ ॥ चूर्ण कर शहदसे गोली बना समस्त गलरोगोंमें मुखमें धारण करना चाहिये ॥७॥ मुखपाकचिकित्सा । सामान्ययोगाः। मुखपाके शिरावेधः शिरःकायविरेचनम् । कार्य च बहुधा नित्यं जातीपत्रस्य चवर्णम् ॥८६॥ दशमूलं पिबेदुष्णं यूषं मूलकुलत्थयोः । मुखपाकमें शिराव्यध, शिरोविरेचन, कायविरेचन तथा प्रति ७८ ।। |दिन अनेक बार चमेलीकी पत्तीका चवण चरना चाहिये ॥८६॥ विध्यात्कवलान्वीक्ष्य दोषं तेलघृतैरपि। दशमूलका क्वाथ तथा मूली व कुलथीके यूष अथवा दूध व | जातीपत्रादिकाथगण्डूषः। इखके रस, गोमूत्र दहीके तोड़ काजी अथवा तैल व घीके कवल | जातीपत्रामृताद्राक्षायासदार्वीफलत्रिकैः । दोषोंके अनुसार निश्चित कर धारण करना चाहिये ॥ ७८॥- काथः क्षीद्रयुतः शीतो गण्डूषो मुखपाकनुत् ॥८७॥ पञ्चकोलादिक्षारगुटिका। चमेलीकी पत्ती, गुर्च, मुनक्का, यवासा, दारुहल्दी व त्रिफलाके काथको ठण्ढ़ाकर शहदके साथ कवल धारण करनेसे मुखपाक पञ्चकोलकतालीसपत्रैलामारचत्वचः ॥७२॥ | नष्ट होता है ॥ ८७॥ पलाशमुष्ककक्षारयवक्षाराश्च चूर्णिताः । गुडे पुराणे कथिते द्विगुणे गुडिकाः कृताः ॥ ८०॥ कृष्णजीरकादिचूर्णम् । कर्कन्धुमात्राः सप्ताहं स्थिता मुष्ककभस्मनि। | कृष्णजीरककुष्ठेद्रयवानां चूर्णतख्यहात् । कण्ठरोगेषु सर्वेषु धार्याः स्युरमृतोपमाः ॥ ८१॥ | मुखपाकव्रणक्लेददोर्गन्ध्यमुपशाम्यति ।। ८८॥ पञ्चकोल, तालीशपत्र, इलायची, मिर्च, दालचीनी, ढाकके| काले जीरा, कूठ व इन्द्रयवके चूर्णको ३ दिनतक धारण करक्षार, मोखाके क्षार तथा जवाखारके चूर्णको दूने पुराने गुड़की नेसे मुखपाक, व्रणका गीलापन और दुर्गन्ध नष्ट होती है ॥८॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -धिकारः ] रसाञ्जनादिचूर्णम् । रसाञ्जनं लोप्रमथाभयां च मनःशिलानागरगैरिकं च । पाठा हरिद्रा गजपिप्पली च स्याद्वारणं क्षौद्रयुतं मुखस्य ॥ ८९ ॥ रसौंत, लोध, बड़ी हर्र, मनशिल, सौंठ, गेरू, पाढ़, हल्दी व गजपीपलके चूर्णको शहद मिलाकर मुखमें धारग करना चाहिये ॥ ८९ ॥ भाषाटीकोपेतः । पटोला दिधावनकषायाः । पटोलनिम्बजम्ब्वाम्रमालतीनवपल्लवाः । पञ्चपल्लवजः श्रेष्ठः कषायो मुखधावने ॥ ९० ॥ पञ्चवल्ककषायो वा त्रिफलाकाथ एव वा । मुखपाकेषु सक्षौद्रः प्रयोज्यो मुखधावने ॥ ९१ ॥ परवल, नीम, जामुन, आम व चमेलीकी नवीन पत्तियों के काका मुख धोनेके लिये प्रयोग करना चाहिये । तथा पञ्चवल्कलके क्वाथ अथवा त्रिफलेके काथको शहद मिलाकर मुख धोनेके लिये मुखपाकमें प्रयोग करना चाहिये ॥ ९० ॥ ९१ ॥ दारतक्रिया | स्वरसः कथितो दार्व्या घनीभूतो रसक्रिया । सक्षौद्रा मुखरोगासृक दोषनाडीव्रणापहा ॥ ९२ ॥ दारूहल्दीका स्वरस गाढ़ा कर शहद में मिला मुखमें लगानेसे मुखरोग, रक्तदोष तथा नाडीव्रण नष्ट होते हैं ॥ ९२ ॥ सप्तच्छदादिकाथः । सपच्छदोशी रपटोल मुस्तहरीतकीतिककरोहिणीभिः । यष्टयाह्वराजदुमचन्दनैश्च काध्यं पिबेत्पाकहरं मुखस्य ॥ ९३ ॥ सप्तपर्ण, खरा, परवल की पती, नागरमोथा, हर्र, कुटकी, मोरेठी, अमलतास व चन्दनसे सिद्ध काथ मुखपाकको नष्ट करता है । इसे पीना चाहिये ॥ ९३ ॥ पटोलादिकाथः । पटोल शुण्ठीत्रिफला विशालात्रायन्तितिकाद्विनिशामृतानाम् । पीतः कषायो मधुना निहन्ति ( २४९) त्रिफलादियोगाः । कथितास्त्रिफलापाठमृद्वीका जातिपल्लवाः । निषेव्या भक्षणीया वा त्रिफला मुखपाकहा ॥ ९५ ॥ त्रिफला, पाठ, मुनक्का व चमेलीकी पतीके काढेको बन कर पीना चाहिये । अथवा त्रिफला के काढ़ेको पीना चाहिये। इन योगों से मुखपाक नष्ट होता है ॥ ९५ ॥ दग्धमुख चिकित्सा | तिला नीलोत्पलं सर्पिः शर्करा क्षीरमेव च । क्षौद्रो दग्धवक्त्रस्य गण्डूषो दाहपाकनुत् । तैलेन काञ्जिकेनाथ गण्डूषश्चूर्ण दाहा ।। ९६ ।। तिल, नीलोफर, घी, शक्कर और दूधको शहदके साथ मिलाकर गण्डूष धारण करनेसे मुखकी दाह तथा पकना शान्त होता है। | और तैल अथवा काजीका गण्डूष चूनेसे कटे मुखकी वेदनाको शान्त करता है ॥ ९६ ॥ दोहरो योगः । घनकुष्ठैलाधान्य कयष्टीमध्वेलवालुकाकवलः । वदनेऽतिपूतिगन्धं हरति सुरालशुनगन्धं च ॥९७॥ नागरमोथा, कूठ, धनियां, मोरेठी तथा एलवालुकका कवल मुखकी दुर्गन्ध तथा शराब लशुनकी दुर्गन्धको नष्ट करता है ॥ ९७ ॥ सहचरतैलम् । तुलां तथा नीलकुरंदकस्य द्रोणेऽम्भसः संश्रपयेद्यथावत् । पूत्वा चतुर्भागरसे तु तैलं पचेच्छनैरर्धपलप्रयुक्तैः ॥ ९८ ॥ कल्केरनन्ताखदिरारिमेद जम्ब्वायष्टीमधुकोत्पलानाम् । तत्तैलमाश्वेव धृतं मुखेन स्थैर्य द्विजानां विदधाति सद्यः ॥ ९९ ॥ नीले कसैलाका पञ्चाङ्ग ५ सेर, जल २५ सेर ४८ तो० में मिलाकर पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छान काथ में १२८ तो० तिने तथा यवासा, कत्था, दुर्गन्धित कत्था, जामुन, आम, मौरेठी नीलोफर, प्रत्येक २ तोलाका कल्क छोड़कर सिद्ध तैल मुखमें धारण करनेसे दाँतों को पुष्ट करता है ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ मुखे स्थितश्चास्यगदानशेषान् ॥ ९४ ॥ इरिमेदादितैलम् । परवल की पत्ती, सोंठ, त्रिफला, इन्द्रायण, त्रायमाण, कुटकी, हल्दी, दारुहल्दी व गुर्च इनके क्वाथको शहद मिलाकर पीनेसे इरिमेदत्वक्पलशतमभिनवमापोत्थ्य खण्डशः कृत्वा । अथवा मुखमें धारण करनेसे समग्र मुखरोग नष्ट होते हैं ॥ ९४॥ तोयाढकैश्चतुर्भिर्निष्काथ्य चतुर्थशेषेण ॥ १०० ॥ ३२ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) चक्रदत्तः। [मुखरोगा - --- -- तेन काथेन मतिमस्तिलस्यार्धाढकं शनैर्विपचेत् । । मौलसिरीके फल, लोध, हडजोड़, कटसैला, अमलतास,बबूल, कल्कैरक्षसमांशैर्मजिष्ठालोध्रमधुकानाम् ॥ १०१॥ - राल, दुर्गंधि कत्था व बिजैसारके क्वाथ, व कल्कसे सिद्ध तैलको इरिमेदखदिरकट्फललाक्षान्यग्रोधमुस्तसूक्ष्मैला । मुखम रखनेसे दांत स्थिर होते हैं । तथा इस क्वाथसे धोनेसे भी कर्पूरागुरुपद्मकलवङ्गकंकोलजातीनाम् ॥ १०२॥ । दांत मजबूत होते हैं ॥ १०८ ॥ १०९ ॥ पतङ्गकोषगरिकवराङ्गगजकुसुमधातकीनां च ।। वदनसौरभदा गुटी। सिद्ध भिषग्विदध्यादिदं मुखोत्थेषु रोगेषु ॥ १०३ ।। एलालतालवनिकाफलशीतोष. परिशीर्णदन्तविद्रधिशैशिरशीताददन्तहर्षेषु । * कोलद्विकानि खदिरस्य कृते कषाये । क्रिमिदन्तदारणचलितप्रदुष्टमांसावशीर्णेषु । तुल्यांशकानि दशभागमिते निधाय मुखदौर्गन्ध्ये कार्य प्रागुक्तेष्वामयेषु तैलभिदम्।।१०४॥ प्रोद्भिन्नकैतकपुटे पुटवद्विपाच्य ॥१०१॥ नई दुर्गन्धित खैरकी छाल ५ सेर, जल २५ सेर ४८ तो. प्रागंशतुल्यशशिनामितमेकसंघं मिला पका चतुर्थाश शेष रहने पर उतार छान क्वाथमें ३ पिष्ट्वा नवेन सहकाररसेन हस्तौ । सेर १६ तो तैल तथा मजीठ, लोध, मौरेठी, इरिमेद ( दुर्ग- लिप्त्वा यथाभिलषितां गुडिकां विदध्यात् न्धितखैर ) खैर, कैफरा, लाख, बरगदकी छाल, नागरमोथा, स्त्रीपुंसयोर्वदनसौरभबन्धुभूताम् ॥ १११॥ छोटी इलायची, कपूर, अगर, पद्माख, लवंग कंकोल, जायफल, रक्तचन्दन, जावित्री, गेरू दालचीनी तथा धायके फूल प्रत्येक इलायची, लताकस्तूरिकाके बीज, लवंग, जावत्री छोटे बड़े एक तोलाका कल्क छोड़कर सिद्ध तैलका वैद्यको मुखरोगों में प्रयोग बेर सब समान भाग दशभाग कत्थेके काथमें खिले केवड़ाके करना चाहिये । तथा गिरते हुए दांतों, विद्राध, शैशिर, शीताद. फूलके अन्दर रख विधिपूर्वक पकाकर पूबै अंशके बराबर ही दन्तहर्ष, क्रिमिदन्त, दारुण, चल दन्त, दूषितमांसके कटनेमें | तिसा (१ भाग) कपूर मिलाकर पीसना चाहिये, फिर आमके रसको मुखकी दुर्गन्धिमें तथा और कहे हुए रोगोंमें इसका प्रयोग|| | हाथों में लेपकर गोली बना लेनी चाहिये। यह स्त्री व पुरुषके करना चाहिये ॥१००-१०४॥ मुखको सुगन्धित करती है ॥ ११०॥ १११॥ लाक्षादितैलम् । लघुखदिरवटिका। तैलं लाक्षारसं क्षीरं पृथक्प्रस्थं समं पचेत् । । खदिरस्या तुला सम्यग्जलद्रोणे विपाचयेत् । चतुर्गुणेऽरिमकाथे द्रव्यैश्च पलसंमितैः ॥ १०५॥ शेषेऽष्टभागे तत्रैव प्रतिवापं प्रदापयेत् ॥ ११२॥ लोधकट्फलमंजिष्ठापद्मकेशरपद्मकैः । जातीकर्पूरपूगानि ककोलफलकानि च । चन्दनोत्पलयष्टयाद्वैस्तैलं गण्डूषधारणम् ॥ १०६॥ इत्येषा गुडिका कार्या मुखसौभाग्यवर्धिनी । दालनं दन्तचालं च हनुमोक्षं कपालिकाम् । दन्तोष्ठमुखरोगेषु जिह्वाताल्वामयेषु च ॥ ११३ ॥ शीतादं पूतिवक्रं च ह्यरुचिं विरसास्यताम् । कत्था ५ सेर, जल २५ सेर ४८ तो. मिलाकर पकाना हन्यादास्यगदानेतान्कुर्याहन्तानपिस्थिरान्॥१०७॥ चाहिये, अष्टमांश रहनपर जावित्री, कपूर सुपारी, कंकाल प्रत्येक तेल, लाखका रस, दूध प्रत्येक १ प्रस्थ (१से. ९ छ.३/४ तोला चूर्णको छोड़कर गोली बना लेनी चाहिये । यह मुखको तो०) दुर्गन्धित कत्थेका काथ६सेर ३२ तो और लोध कैफरा | सुगन्धित करती तथा दन्त, ओष्ठ, मुख, जिला व तालुरोगोंको मजीठ, कमलका केशर, पद्माख, चन्दन, नीलोफर, मौरेठी/ नष्ट करता है॥ ११२॥ ११३॥ प्रत्येक ४ तोलेका कल्क छोड़कर सिद्ध तैल गण्डूष धारण कर बृहत्खदिरगुटिका। नेसे फटना, दन्त हिलना, हनुमोक्ष, कपालिका, शीताद, मुखदुर्गन्धि, अरुचि, बिरसता इन मुखरोगोंको नष्ट करता तथा गायत्रिसारतुलयेरिमवल्कलानां दांतोंको दृढ करता है ॥ १०५-१०७॥ __सार्ध तुलायुगलमम्बुघटेश्चतुर्भिः । निष्क्वाथ्य पादमवशिष्टसुवस्त्रपूतं बकुलादितैलम् । भूयः पचेदथ शनैर्मृदुपावकेन ॥ ११४ ॥ बकुलस्य फल लो वज्रवल्ली कुरुण्टकम् । तस्मिन्घनत्वमुपगच्छति चूर्णमेषां चतुरगुलवव्वोलवाजिकर्णेरिमाशनम् ॥ १९८॥ लक्ष्णं क्षिपेच्च कवलपहभागिकानाम् । एषां कषायकल्काभ्यां तैलं पकं मुखे धृतम् । । एलामृणालसितचन्दनचन्दनाम्बुस्थैर्य करोति चलतां दन्तानां धावनेन च ॥१०९।। श्यामातमालविकषाघनलोहयष्टी॥११५॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकीपेतः। न्न्न्न्न्न्न्नन्न्न्न्च लज्जाफलत्रयरसाजनधातकीभ. आर्द्रकसूर्यावर्तकश्रीपुष्पगैरिककटङ्कटकट्फलानाम् । शोभाजनमूलमूलकस्वरसाः। पद्मावलोध्रवटराहयवासकानां मधुतैलसैन्धवयुताः मांसीनिशासुरभिवल्कलसंयुतानाम्॥११६॥ पृथगुष्णाः कर्णशूलहराः॥४॥ कक्कोलजातिफलकोषलवङ्गकानि शोभाजनकनिर्यासस्तिलतैलेन संयुतः। चूर्णीकृतानि विदधीत पलांशकानि ।। कदुष्णः पूरणः कण कर्णशुलोपशान्तये ॥५॥ शीतेऽवतार्य घनसारचतुःपलं च अष्टानामपि मूत्राणां मूत्रेणान्यतमेन च। क्षिप्त्वा कलायसदृशीर्वटिकाःप्रकुर्यात् ११७| कोष्णेन पूरयेत्कौँ कर्णशूलोपशान्तये ॥६॥ शुष्का मुखे विनिहिता विनिवारयन्ति अश्वत्थपत्रखल्वं वा विधाय बहुपत्रकम् । रोगान्गलीष्ठरसनाद्विजतालुजातान् । तैलाक्तमङ्गारपूर्ण निध्याच्छ्रवणोपरि ॥७॥ . कुर्युर्मुखे सुरभितां पटुतां रुचिं च यतैलं च्यवते तस्मात्खल्वादङ्गारतापितात् । स्थैर्य परं दशनगं रसनालघुत्वम् ॥ ११८॥ तत्प्राप्तं श्रवणस्रोतः सद्यो गृह्णाति वेदनाम् ॥ ८॥ अर्कपत्रपुटे दग्धस्नुहीपत्रभवो रसः । कत्था ५ सेर, दुर्गन्धित खैर १२॥ सेर दोनोंको २ मन २२ | कदुष्णं पूरणादेव कर्णशूलनिवारणः ॥९॥ सेर ३२ तो० जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थाश शेष रहनेपर कपड़ेसे छानकर फिर मन्द आंचसे पकाना चाहिये । जब गाढा| फैथा, बिजौरा निम्बू तथा अदरखके रसको गरम कर गुनहो जाय, तो इलायची, सफेद चन्दन, कमलकी डण्डी, लाल-गुना गुनगुना कानमें डालनेसे कर्णशूल शान्त होता है। अथवा चन्दन, सुगन्धवाला, प्रियंगु, तेजपात, मजीठ, नागरमोथा, अदरखका रस, शहद, सेंधानमक व तैल कुछ गरमकर कानमें अगर, मोरेठी लज्जावंती, त्रिफला, रसौत, धायके फूल नाग | छोड़नेसे पीड़ा नष्ट होती है। अथवा लहसुन, अदरख, सहिंकेशर, लौंग, गेरू, दारुहल्दी, कैफरा, पद्माख, लोध, बर-जन, लाल सहिजन, मूली और केलाके स्वरसको कुछ गरम गदकी वौं, यवासा, जटामांसी, हल्दी, दालचीनी प्रत्येक | गरम कानमें छोड़नसे अथवा समुद्रफेनके चूर्णको छोड़नेसे कानकी एक तोला, कंकोल, जायफल, जावित्री, लवङ्ग प्रत्येक ४/पीड़ा शान्त होती है । अदरख, सूर्यावर्तक, सहिजनकी . जड तोला ले चूर्णकर छोड़ना चाहिये । टण्ढा होनेपर कपूर और मूली इनमेंसे किसी एकके स्वरसको गरम कर शहद, १६ तोला मिला मटरकी वराबर गोली बनाकर सुखा |तल व सेंधानमक मिला छोड़नेसे कानके शुल नष्ट होते हैं। लेना चाहिये । यह गोली मुखमें रखनेसे गले, ओष्ट, तथा सहिजनके स्वरसको तिल तैलके साथ मिला गरम जिह्वा व तालुके रोग नष्ट होते हैं । मुख सुगन्धित स्वच्छ |कर कानमें छोड़नेसे अथवा आठ मूत्रोमेंसे किसी एकको गरमहोता, रुचि उत्पन्न होती, दन्त दृढ तथा जिह्वा हल्की होती कर कानमें छोड़नेसे कर्णशूल शान्त होता है । अथवा पीपलके है ॥ ११४-११८॥ पत्तोंका दोना बनाकर तैल चुपर अंगार रख कर कानके ऊपर (कुछ दूर ) रखना चाहिये । इससे जो तैल कानमें . इति मुखरोगाधिकारः समाप्तः । | टपकेगा, उससे कर्णशूल तत्काल शान्त होगा । अथवा आकके पत्तोंके अन्दर थोहरके पत्तोंको रख पुटपाकसे निचोड़कर निकाला रस कानमें छोड़नसे तत्काल कर्णशूल नष्ट होता है ॥१-९॥ कर्णशूलचिकित्सा। दीपिकातैलम् । महतः पञ्चमूलस्य काण्डान्यष्टाङ्गुलानि च । कपित्थमातुलुङ्गाम्लशृङ्गवररसैः शुभैः। क्षीमेणावेष्टय संसिच्य तैलेनादीपयेत्ततः ॥ १० ॥ सुखोष्णैः पूरयेत्कर्ण कर्णशूलोपशान्तये ॥ १॥ यत्तैलं च्यवते तेभ्यः सुखोष्णं तत्प्रयोजयेत् । शृंगबेरं च मधु च सैन्धवं तैलमेव च ।। ज्ञेयं तद्दीपिकातैलं सद्यो गृह्णाति वेदनाम् ॥ ११ ॥ कदुष्णं कर्णयोर्देयमेतद्वा वेदनापहम् ॥२॥ एवं कुर्याद्भद्रकाष्ठे कुष्ठे काष्ठे च सारले । लशुनाकशियूगां सुरंग्या मूलकस्य च । मतिमान्दीपिकातलं कर्णशूलनिवारणम् ॥ १२ ॥ कदल्याः स्वरसः श्रेष्ठः कदुष्णः कर्णपूरणे।। बेल, सोनापाठा, खम्भार, पाढल व अरणीकी लकड़ी समुद्रफेनचूर्णेन युक्त्या वाप्यवचूर्णयेत् ॥ ३॥ आठ २ अंगुलकी ले अलसीके वस्त्रसे लपेट तैलसे तर कर अथ कर्णरोगाधिकारः। Prart: पूरयेत् सन्धर्व तैलमेव ॥२॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५२ ) चक्रदत्तः । जलाना चाहिये । इससे जो तैल चुवे, वह गुनगुना गुनगुना कामें डालने से तत्काल पीड़ा शान्त होती है । इसी प्रकार देवदारु, कूठ और सरलकी लकड़ियोंसे तेल निकाल कानमें छोड़नेसे शूल मिटता है ॥ १०-१२ ॥ • अर्कपत्रयोगः । अर्कस्य पत्र परिणामपीत माज्येन लिप्तं शिखिनावतप्तम् । आपीडय तोयं श्रवणे निषिक्त निहन्ति शूलं बहुवेदनं च ॥ १३ ॥ जो आकका पत्ता अपने आप पककर पीला हो गया हो, उसमें घी लगा अग्निमें गरमकर रस निचोड़ कानमें छोड़नेसे पीड़ा नष्ट होती है ॥ १३ ॥ अन्ये योगाः । तत्रशुलातु कर्णे सशब्दे वेदवाहिनि । बस्तमूत्रं क्षिपेत्कोष्णं सैन्धवेनावचूर्णितम् ॥ १४ ॥ वंशावलेखसंयुक्ते मूत्रे वाजविके भिषक् । तैलं पचेत्तेन कर्णं पूरयेत्कर्णशूलिनः ॥ १५ ॥ हिंगुतुम्बुरुशुण्ठीभिः साध्यं तैलं तु सार्षपम् कर्णशूले प्रधानं तु पूरणं हितमुच्यते ॥ १६ ॥ [ कर्णरोगा मधुभाण्डे विनिक्षिप्य धान्यराशी निधापयेत् । मासेन तज्जातरसं मधुशुक्तमुदाहृतम् ॥ २३ ॥ मूली के टुकडों को सुखाकर बनाया गया क्षार, हींग, सोंठ, सौंफ, बच, कूठ, देवदारु, सहिजन, रसौत, कालानमक, जवाखार, सज्जीखार, खारीनमक, संधानमक, भोजपत्रकी गांठ, विड़नमक, नागरमोथाका कल्क, तथा तैलसे चतुर्गुण मधुशुक्त | तथा बिजौरेनिम्बू का रस व केलेका रस प्रत्येक तैलसे चतुर्गुण | मिलाकर सिद्ध तेलको कानमें छोड़नेसे कानकें कीड़े नष्ट होते हैं। यह भगवान् पुनर्वसुकी आज्ञा है । यह " क्षारतेल" मुख और दांतके रोगों को नष्ट करनेमें श्रेष्ठ है । मधु प्रधान शुक्त " मधुशुक्त" कहा . है । अथवा जम्बीरी निम्बूके फलके रसको पिपरामूलके साथ मिलाकर शहद के बर्तन में रखकर धान्यराशिमें रखना चाहिये। यह महीने भर में खटमिट्ठा हो जानेपर " मधुशुक्त कहा जाता है ॥१७- २३ ॥ | " तीव्रशूल युक्त बहते और शब्द करते हुए कानमें कुछ कुछ गरम गरम बकरेके मूत्र में संधानमक मिलाकर छोड़ना चाहिये । अथवा वंशलोचनसे युक्त बकरी और भेड़ के मूत्रमें तैल पकाकर कानमें छोड़नेसे कर्णशूल नष्ट होता है । अथवा हींग, तुम्बरु, सोंठ के कल्कसे सरसों के तैलको सिद्ध कर कान में छोड़नेसे लाभ होता है ॥ १४-१६ ॥ क्षारतैलम् । बालमूलकशुण्ठीनां क्षारो हिंगु सनागरम् । शतपुष्पवचाकुष्ठं दारुशिमुरसाञ्जनम् ॥ १७ ॥ सौवर्चलं यवक्षारः सर्जिकोद्भिदसैन्धवम् । भूर्जग्रन्थिविडं मुस्तं मधुशुक्तं चतुर्गुणम् ॥ १८ ॥ मातुलुंगरसश्चैकदल्या रस एव च । तैलमेभिर्विपक्तव्यं कर्णशूलहरं परम् ॥ १९ ॥ बाधियै कर्णनादश्च पूयास्रावश्च दारुणः । पूरणादस्य तैलस्य क्रिमयः कर्णसंश्रिताः ॥ २० ॥ क्षिप्रं विनाशं गच्छन्ति कृष्णात्रेयस्य शासनात् । क्षारतैलमिदं श्रेष्ठं मुखदन्तामयापहम् ॥ २१ ॥ मधुप्रधानं शुक्तं तु मधुशुक्तं तथापरम् । जम्बीरस्य फलरसं पिप्पलीमूलसंयुतम् ॥ २२ ॥ कर्णनादचिकित्सा | कर्णनादे कर्णवेडे कटुतैलेन पूरणम् । नादबाधिर्ययोः कुर्यात्कर्णशूलोक्तमौषधम् ॥ २४ ॥ कर्णनाद और कानोंकी सनसनाहट में कडुए तैलको कान में छोड़ना चाहिये । तथा बहरेपन में कर्णशूलोत औषध | छोड़ना चाहिये ॥ २४ ॥ अपामार्गक्षारतैलम् । अपामार्गक्षारजले तत्कृतकल्केन साधितं तिलजम् । अपहरति कर्णनादं बाधिर्यं चापि पूरणतः ॥ २५ ॥ अपामार्गक्षारके जलमें अपामार्गके ही कल्कसे सिद्ध तिलतैलको कानमें ड़ालनेसे कर्णनाद व बहिरापन नष्ट होता है ॥ २५ ॥ सर्जिकादितैलम् । सर्जिका मूलकं शुष्कं हिंगु कृष्णा महौषधम् । शतपुष्पा च तैस्तैलं पक्वं शुक्तचतुर्गुणम् । . प्रणादशू बाधियै स्रावं चाशु व्यपोहति ॥ २६ ॥ सज्जीखार, सूखी मूली, हींग, छोटी पीपल, सोंठ व सौंफके कल्क तथा चतुर्गुण सिरका मिलाकर सिद्ध तैल शीघ्र ही कर्णनाद, बाधिर्य और स्रावको नष्ट करता है ॥ २६ ॥ दशमूलीतैलम् । दशमूलीकषायेण तैलप्रस्थं विपाचयेत् । एतत् कल्कं प्रदायैव बाधिर्ये परमौषधम् ॥ २७ ॥ दशमूलके काढ़े व कल्कसे सिद्ध तैल बाधिर्यकी परमौषध है ॥ २७ ॥ बिल्वतैलम् | फलं बिल्वस्य मूत्रेण पिष्ट्वा तैलं विपाचयेत् । साजक्षीरं हरेत्तद्धि बाधिर्य कर्णपूरणे ॥ २८ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः। जन्मन्नन्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न एष एव विधिः कार्यः प्रणादे नस्यपूर्वकः। | निशागन्धपले पक्वं कटुतैलं पलाष्टकम् । गुडनागरतोयेन नस्यं स्यादुभयोरपि ॥ २९॥ | धूस्तूरपत्रजरसे कर्णनाडीजिदुत्तमम् ॥ ३७॥. बेलके फलको गोमूत्रके साथ पीस बकरीके दूधमें मिला तैल घोघेके मांससे कड्डए तेलको पकाकर कानमें छोड़नेसे कानका सिद्ध कर कानमें छोड़नसे बाधिर्य नष्ट होता है । यही विधि नासूर शान्त होता है। इसी भांति हल्दी व गन्धक प्रत्येक नस्यपूर्वक कर्णनादमें करनी चाहिये। तथा दोनों में गुड व सोंठके | ४ तो०, कडुआ तैल ३२ तो० धतूरेके पत्तेके रसमें सिद्ध कर जलसे नस्य लेना चाहिये ॥ २८॥ २९ ॥ | कानमें छोड़नेसे कानके नासूरको नष्ट करता है ॥ ३६ ॥ ३० ॥ कर्णस्रावचिकित्सा। कर्णप्रतिनाहचिकित्सा। चूर्ण पञ्चकषायाणां कपित्थरससंयुतम् । अथ कर्णप्रतीनाहे स्नेहस्वेदी प्रयोजयेत् । कर्णस्रावे प्रशंसन्ति पूरणं मधुना सह ।। ३०॥ | ततो विरिक्तशिरसः क्रियां प्राप्तां समाचरेत् ॥३८॥ मालतीदलरसमधुना पूरितमथवा गवां मूत्रैः। | कर्णप्रतीनाहमें, स्नेहन, स्वेदन तथा शिरोविरेचन कर उचित दूरेण परित्यज्यते च श्रवणयुगं पूतिरोगेण ॥३१॥ चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ३८ ॥ हरितालं सगोमूत्रं पूरणं पूतिकर्णजित् ।। सर्जत्वक्चूर्णसंयुक्तः कार्पासीफलजो रसः । विविधा योगाः। मधुना संयुतः साधु कर्णस्रावे प्रशस्यते ॥ ३१॥ कर्णपाकस्य भैषज्यं कुर्यात्क्षतविसर्पवत् ।। नाडीस्वेदोऽथ वमनं धूममूर्ध्वविरेचनम् ॥ ३९ ॥ पञ्चकषाय (वच, अडूसा, प्रियंगु, पटोल, निम्ब ) के चूर्णको विधिश्च कफहा सर्वः कर्णकण्डूं व्यपोहति । कैथेके रस व शहद में मिलाकर कानमें छोड़ना हितकर है। तथा क्लेदयित्वा तु तैलेन स्वेदेन प्रतिलाप्य च ॥ ४० ॥ चमेलीकी पत्तीके रसको शहदके साथ अथवा गोमूत्रके साथ शोधयेत्कर्णगूथं तु भिषक् सम्यक् शलाकया। कानमें पूरण करनेसे दुर्गन्धित कर्णता नष्ट होती है। इसी प्रकार हरिताल व गोमूत्रके अथवा रालकी छालके चूर्णको कपासके निर्गुण्डीस्वरसस्तैलं सिन्धुधूमरजो गुडः ॥४१॥ रसमें व शहदमें मिला कानमें डाले तो कर्णस्राव शान्त पूरणात्पूतिकर्णस्य शमनो मधुसंयुतः। होता है ॥३०-३२॥ जातीपत्ररसे तैलं विपक्वं पूतिकर्णजित् ।। ४२॥ जम्ब्वादिरसः। कर्णपाककी चिकित्सा क्षतविसर्पके समान करनी चाहिये । जम्बाम्रपत्रं तरुणं समांशं कफजन्य खुजलीको नाड़ीस्वेद, वमन, धूम, शिरोविरेचन और कफनाशकविधि नष्ट करती है । कर्णगूथ में तेल छोड़ स्वेदन ढीला ___ कपित्थकार्पासफलं च साम् । कर सलाईसे उसे निकाल देना चाहिये । सम्भालूका स्वरस, तैल, क्षुत्त्वा रसं तन्मधुना विमिश्र सेंधानमक, गृहधूम, गुड़ व शहदको मिलाकर कानमें छोड़नेसे ____ स्रावापहं संप्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥३३॥ कान की दुधि नष्ट होती है। तथा चमेलीकी पत्तीके रसमें पकाया एतैः शृतं निम्बकरञ्जतैलं तैल कानकी दुर्गन्धिको नष्ट करता है ॥ ३९-४२॥ ससार्षपं स्रावहरं प्रदिष्टम् ॥ ३४॥ पुटपाकविधिस्विन्नहस्तिविड्जातगोण्डकः । वरुणादितैलम् । रसः सतैलसिन्धूत्थः कर्णस्रावहरः परः॥३५॥ वरुणार्ककपित्थाम्रजम्बूपल्लवसाधितम् । पूतिकापहं तैलं जातीपत्ररसेन वा ॥ ४३ ॥ मुलायम जामुन व आमकी पत्ती तथा कैथा व कपासका फल प्रत्येक समान भाग ले रस निकाल शहद मिलाकर कानमें | वरुण, आक, कैथा आम व जामुनकी पत्तीके रस अथवा छोड़नेसे कर्णस्राव नष्ट होता है । अथवा इन्हींसे सिद्ध नीम व| केवल चमेलीकी पत्तीके रससे सिद्ध तैल कानकी दुर्गन्धको कजीका तैल सरसोंके तैलके साथ स्रावको नष्ट करता है । तथा|" नष्ट करता है। पुटपाक विधिसे स्विन हाथीकी वीटके गोलेका रस तैल व सेंधा कर्णक्रिमिचिकित्सा। नमकके साथ कर्णस्रावको नष्ट करता है ॥३३-३५॥ . सूर्यावर्तकस्वरसं सिन्धुवाररसस्तथा । कर्णनाडीचिकित्सा। लागलीमूलजरसं ज्यूषणेनावचूर्णितम् ।। ४४ । शम्बूकस्य तु मांसेन कटुतैलं विपाचयेत् । । पूरयेत्क्रिमिकर्ण तु जन्तूनां नाशनं परम् । .. तस्य पूरणमात्रेण कर्णनाडी प्रशाम्यति ॥ ३६॥ | क्रिमिकर्णकनाशार्थ क्रिमिन्नं योजयेद्विधिम् ॥४५॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [कर्णरोगाजन्मन्न्न्न्न्न्न्न्न्न वार्ताकुधूमश्च हितः सर्षपस्नेह एव च। विपगर्भ तिक्ततुम्बीतेलमष्टगुगे खरात् ॥ ५४॥ हलिसूर्यावर्तव्योषस्वरसेनातिपूरिते ॥ ४६ ॥ मूत्रे पक्वं तदभ्यङ्गात्कर्णपालविवर्धनम् । कर्णे पतन्ति सहसा सवास्तु क्रिामजातयः।। कल्केन जीवनीयेन तैलं पयास साधितम् ।। ५५ ॥ . नीलवहारसस्तैलसिन्धुकाजिकसंयुतः॥४७॥ | आनुपमांसक्काथेन पालीपोषणवर्धनम। • कदुष्णः पूरणात्कणे निःशेषक्रिमिपातनः । माहिषनवनीतयुतं सप्ताहं धान्यराशिपरिवासितम् ५६ 'धूपनः कर्णदोर्गन्ध्ये गुग्गुलुः श्रेष्ठ उच्यते ॥४८॥ नवमुसलिकन्दचूर्णमृद्धिकरं कर्णपालीनाम् । सूर्यावर्तका स्वरस, सम्भालूका रस तथा कलिहारीका रस शतावरी, असगन्ध, क्षीरविदारी व एरण्डबीजके कल्क त्रिकटुके चूर्णके साथ कानमें छोड़नेसे कानके कीड़े नष्ट होते दूबके सहित पकाया तैल कर्णपालियोंको पुष्ट करता है । इसी हैं । तथा कानके क्रिमिनाशार्थ क्रिमिन्नविधिका प्रयोग करना प्रकार गुजाके चूर्णके साथ पकाय भैंसीके दूधसे निकाले चाहिये । इसके लिये बैंगनका धुआँ तथा सरसोंका तेल भी मक्खनकी मालिश करनेसे कर्णपाली पुष्ट होता है । इसी प्रकार उत्तम है। कलिहारी, सूर्यावर्त और त्रिकटुके स्वरससे कानको सींगियाके कल्क, कडुई तोम्बीके बीजोंके तेल तथा गधेका भरनेसे कीड़े गिर जाते हैं । इसी प्रकार नीलका रस, तैल, अठगुना मूत्र छोड़कर सिद्ध तैलकी मालिश करनेसे कर्णपाली सेंधानमक व काजीको मिलाकर कुछ गरम गरम कानमें बढ़ती है। तथा जीवनीय कल्कसे दूधके साथ आनूप मांसका छोड़नसे समग्र कीड़े गिर जाते हैं । तथा कानकी दुर्गंधिमें क्वाथ छोड़कर सिद्ध तैलकी मालिशसे कर्णपालीको पुष्ट करता गुग्गुलुकी धूप देना श्रेष्ठ है ॥ ४४-४८॥ तथा बढ़ाता है। इसी प्रकार भैसीके मक्खनको सात दिन धान्यराशिमें रख नवीन मुसलीकन्दके चूर्णको छोड़ मलनेसे धावनादि। कर्णपालीको बढ़ाता है ॥ ५२-५६ ॥राजवृक्षादितोयेन सुरसादिजलेन वा । कर्णप्रक्षालनं कार्य चूर्णरेतैः प्रपूरणम् ॥ ४९॥ दुर्व्यधादिचिकित्सा । घृतं रसानं नार्याः क्षीरेण क्षौद्रसंयुतम् । । कर्णस्य दुर्व्यधे भूते संरम्भो वेदना भवेत् ॥५७ ॥ प्रशस्यते चिरोत्थेऽपि सास्रावे पूतिकर्णके ॥ ५० ॥ तत्र दुर्व्यधरोहाथै लेपो मध्वाज्यसंयुतः। राजवृक्षादि अथवा सुरसादिके क्वाथसे कानको धोना तथा मधूकयवमाजिष्ठारुबुमूलैः समन्ततः ॥ ५८ ॥ इन्हींका चूर्ण छोड़ना तथा घी, रसौंत, स्त्रीका दूध और शहद अनेकधा तु च्छिन्नस्य सन्धेः कर्णस्य वै भिषक् । . मिलाकर छोड़नेसे पुराने बहते हुए दुर्गन्धियुक्त कानको शुद्ध | यो यथाभिनिविष्टः स्यात्तं तथा विनियोजयेत्५९।। करता है । ४९ ॥ ५॥ धान्याम्लोप्णोदकाभ्यां तु सेको वाते। दूपिते । कुष्ठादितैलम् । रक्तपित्तेन पयसा श्लेष्मणा तूष्णवारिणा ।। ६० ।। "कुष्ठहिंगुवचादारुशताबाविश्वसैन्धवैः । ततः सीव्य स्थिरं कुर्यात्संधि बन्धेन वा पुनः । पतिकर्णापतैलं बस्तमत्रेण साधितम ॥५१॥ | मध्धाज्येन ततोऽभ्यज्य पिचूना सन्धिवेष्टकम् । फूठ, हींग, बच, देवदारु, सौंफ, सोठ, व सेंधानमक कपालचूर्णेन ततश्चूर्णयेत्पथ्ययाथवा ॥ ६१ ॥ इनके कल्कको बकरके मूत्र में मिलाकर सिद्ध किया गया तैल कानके ठीक व्यध न होनेपर सूजन तथा पीड़ा होती है । कानकी दुर्गधिको नष्ट करता है ॥ ११ ॥ अतः उसके भरने के लिये शहद व घीसे मिलित महुआ, यव, कर्णविद्रधिचिकित्सा । | मजीठ व एरण्ड तैलका लेप करना चाहिये । तथा अनेक प्रकारसे -विद्रधी चापि कुर्वीत विद्रध्युक्तं हि भेषजम् । | कटे कानकी सन्धि जो जहां बैठ सके, उसे वहां लगाना कर्ण विद्रधिमें विद्रधिकी चिकित्सा करना चाहिये । चाहिये । वातदूषितमें काजी व गरम जलका सेक, रक्तपित्तसे दूषितमें दूधसे, तथा कफसे दूषितमें गरम जलसे सेक करना कर्णपालीपोषणम् । चाहिये। फिर सौंकर अथवा बंधसे संधिको ठीक करना चाहिये। शतावरीवाजिगन्धापयस्यैरण्डबीजकैः ।। ५२ ॥ फिर घी, शहद चुपड़कर खाके चूर्ण अथवा छोटी हरॉके तैलं विपकं सक्षीरं पालीनां पुष्टिकृत्परम् । चूर्णको उसना चाहिये ॥ ५७-६१ ॥ गुखाचूर्णयुते जाले माहिषे क्षीर' उद्गतम् ॥ ५३॥ . इति कर्णरोगाधिकारः समाप्तः। • नवनीत तदभ्यङ्गात्कर्णपालिविवर्धनम् । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . धिकारः भाषाटीकोपेतः। अथ नासारोगाधिकारः। । तैरेव मूत्रसंयुक्तैः कटु तैलं विपाचयेत् । अपीनसे पूतिनस्ये शमनं कीर्तितं परम् ॥ ८॥ इन्द्रयव, हींग, मिर्च, लाख, तुलसी, कैफरा, कूठ, वच, सहिजन व वायविडंगके चूर्णका नस्य देना चाहिये। इन्होंमें पीनसचिकित्सा। गोमूत्र मिलाकर पकाया गया कडुआ तैल पानस और नासाकी पञ्चमूलीशृतं क्षीरं स्याच्चित्रकहरीतकी । दुर्गन्धको शान्त करता है ॥ ७ ॥ ८॥ सर्पिर्गुडः षडङ्गश्च यूपः पीनसशान्तये ॥ १॥ नासापाकचिकित्सा। पीनसकी शांतिके लिये पञ्चमूलसे सिद्ध दूध चित्रक व हरीतकी नासापाके पित्तहृत्संविधान अथवा सर्पिर्गुड और षडंगयूष इनका प्रयोग करना चाहिये॥१॥ कार्य सर्व बाह्यमाभ्यन्तरं च । ' व्योषादिचूर्णम् । हरेद्रक्तं क्षीरिवृक्षत्वचश्व व्योषचित्रकतालीसतिन्तिडीकाम्लवेतसम् । योज्याः सेक सघृताश्च प्रदेहाः॥९॥ सचव्याजाजितुल्यांशमेलात्वपत्रपादिकम् । पूयास्ररक्तपित्तन्नाः कषाया नावनानि च । व्योषादिकं चूर्णमिदं पुराणगुडसंयुतम् ।। नासापाकमें बाह्य तथा आभ्यन्तर पित्तहर चिकित्सा पीनसश्वासकासनं रुचिस्वरकरं परम् ॥३॥ करनी चाहिये । रक्त निकालना चाहिये । तथा क्षीरी वृक्षों त्रिकटु, चीता, तालीशपत्र, तितिडीक, अम्लवेत, चन्य, (औदुम्बरादि) की छालके काथका सिंचन तथा कि सहित व जीरा प्रत्येक समान भाग, इलायची, दालचीनी, तेजपात | लेप लगाना चाहिये । तथा मवाद, रक्त व रक्तपित्तनाशक काढे प्रत्येक चतुर्थाश ले चूर्णकर पुराना गुड़ मिलाकर सेवन करनेसे और नस्य देना हितकर है॥९॥जुखाम, श्वास, कास नष्ट होते तथा रुचि और स्वर उत्तम शुण्ठयादितैलं घृतं वा। होते हैं ॥२॥३॥ शुण्ठीकुष्ठकणाधिल्वद्राक्षाकल्ककषायवत् । पाठादितलम् । साधितं तेलमाज्यं वा नस्यं क्षवथुरुकप्रणुत् ॥१०॥ पाठाद्विरजनीमूपिप्पलीजातिपल्लवैः। । सोंठ, कूठ, छोटी पीपल, बेलका गुदा व मुनक्काके कल्क दन्त्या च तैलं संसिद्धं नस्यं सम्यक्तु पीनसे॥४॥ और काढेसे सिद्ध तैल अथवा घीका नस्य देनेसे छींक तथा पाढ, हल्दी, दारुहल्दी, मूर्वा, छोटी पीपल, चमेलीकी पत्ती | पीड़ा शान्त होती है ॥ १०॥ और दंतीसे सिद्ध तैलका नस्य देनेसे पीनसमें लाभ होता है॥४॥ दीप्तानाहचिकित्सा। व्याध्यादितैलम् । दीप्ते रोगे पैत्तिकं संविधान व्याघ्रीदन्तीवचाशिग्रुपुरसव्योषसैन्धवैः। सर्व कुर्यान्माधुरं शीतलं च । पाचितं नावनं तैलं पूतिनासागदं जयेत् ॥५॥ नासानाहे स्नेहपानं प्रधाने छोटी कटेरी, दंती, वच, सहिजन, तुलसी, त्रिकटु स्निग्धा धूमा मूर्ध्नि बस्तिश्च नित्यम् ॥११॥ व सेंधानमकसे सिद्ध तैलके नस्यसे नासाकी दुगंध नष्ट दीप्तरोगमें पैत्तिक चिकित्सा समस्त मधुर व ठण्डी करनी होती है ॥५॥ चाहिये । तथा नासानाइमें स्नेहपान, स्निग्धधूम, तथा शिरोबत्रिकटवादितैलम् । स्तिका प्रयोग नित्य करना चाहिये ॥ ११॥ त्रिकटुविडङ्गसैन्धवबृहतीफलशिग्रुसुरसदंतीभिः । प्रतिश्यायचिकित्सा। तैलं गोजलसिद्धं नस्यं स्यात्पूतिनस्यस्य ॥ ६॥ वातिके तु प्रतिश्याये पिबेत्सर्पिर्यथाक्रमम् । त्रिकटु, वायविडंग, सेंधानमक, बड़ी कटेरीका फल, सहिंजन, पञ्चभिर्लवणैः सिद्धं प्रथमेन गणेन च ॥ १२ ॥ तुलसी व दन्तीके कल्कसे मिलित गोमूत्रमें सिद्ध तेलके नस्य | नस्यादिषु विधिं कृत्स्नमवेक्षेतार्दितरितम् । देनेसे नासाकी दुर्गंध नष्ट होती है ॥६॥ .. पित्तरक्तोत्थयोः पेयं सर्मिधुरको शृतम् ॥ १३ ॥ कालिङ्गादिनस्यम् । परिषेकान्प्रदेहांश्च कुर्यादपि च शीतलान् । कलिङ्गहिगुमरिचलाक्षासुरसकट्फलैः। कफजे सर्पिषा सिग्धं तिलमाषविपक्वया ॥१४॥ कुष्ठोप्राशिवजन्तुनरवपीडः प्रशस्यते ॥७॥ यवाग्वा वामायस्खा वा कफवं क्रममाचरेत् । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... चक्रदत्तः। [नासारोगा- . च्न्न्च्छन्न्च्च्च्न्न् ___वातिक प्रतिश्यायमें पांचों लवणोंसे सिद्ध अथवा वातनाशक तथा खट्टे भोजन, वमन .व घृतपान जो उचित हो, करना गणसे सिद्ध घी पिलाना चाहिये । तथा अर्दित रोगमें कहे | चाहिये ॥ १९-२१॥ नस्य आदि देने चाहिये । पित्तरक्तज प्रतिश्यायमें मीठी चीजोंसे सिद्ध घी पिलाना चाहिये तथा शीतल सेक तथा लेप करना माषयोगः। चाहिये। और कफज प्रतिश्यायमें घीसे स्नेहन कर तिल तथा उड- भक्षयति भुक्तमात्रे सलवणमुत्स्विन्नमाषमत्युष्णम् । दसे पकायी यवागूसे वमन कराकर कफनाशक चिकित्सा करनी | स जयति सर्वसमुत्थं चिरजातं च प्रतिश्यायम् २२ चाहिये ॥ १२-१४॥ भोजनकरनेपर ही उबाले गरम गरम उड़दको जो खाता है, वह सब दोषोंसे उत्पन्न पुराने प्रतिश्यायको धूमयोगः। भी जीतता है ॥ २२॥ दा-गुदीनिकुम्भैश्च किणिह्या सुरसेन च ॥ १५॥ वर्तयोऽत्र कृता योज्या धूमपाने यथाविधि । अवपीडः। अथवा सघृतान्सक्तन्कृत्वा मल्लकसम्पुटे। पिप्पल्यः शिवीजानि विडङ्ग मरिचानि च । नवप्रतिश्यायवतां धूमं वैद्यः प्रयोजयेत् ॥ १६॥ अवपीडः प्रशस्तोऽयं प्रतिश्यायनिवारणः ॥ २३ ॥ छोटी पीपल, सहिजनके बीज, वायविडा, व काली मिर्चका दारुहल्दी, इंगुदी, दन्ती, लटजीरा व तुलसीसे बनायी | व नस्य प्रतिश्यायको नष्ट करता है ॥ २३ ॥ बत्तीका धूम पीना चाहिये । अथवा घीके सहित सत्तु छिद्रयुक्त सम्पुट में रखकर धूम पीना चाहिये । यह प्रयोग नये प्रति क्रिमिचिकित्सा। श्यायमें करना चाहिये ॥ १५॥१६॥ समूत्रपिष्टाश्चोद्दिष्टाः क्रियाः क्रिमिषु योजयेत् । शीतल जलयोगः। नावनार्थ क्रिमिन्नानि भेषजानि च बुद्धिमान् । यः पिबति शयनकाले शयनारूढः सुशीतलं भूरि। शेषाणां तु विकाराणां यथास्वं स्याञ्चिकित्सितम्॥२४ सलिलं पीनसयुक्तः स मुच्यते तेन रोगेण ॥१७॥ मूत्रमें पीसकर कही गयी क्रियाएँ क्रिमि रोगमें करनी जो सोनेके समय यथेष्ट ठण्डा जल पीता है, उसका पीनस. चाहिये । तथा नस्यके लिये क्रिमिन्न औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये । शेष रोगोंकी यथादोष चिकित्सा करनी रोग नष्ट होता है ॥१७॥ चाहिये ॥२४॥ जयापत्रयोगः। करवीरतैलम। पुटपक्कं जयापत्रं सिन्धूतलसमन्वितम् । प्रतिश्यायेषु सर्वेषु शीलितं परमौषधम् ॥ १८॥ | | रक्तकरवीरपुष्पं जात्यशनकमल्लिकायाश्च । पुटपाक-साधित अरणीके पत्तों में सेंधानमक तथा | । एतैः समं तु तैलं नासाझेनाशनं श्रेष्ठम् ॥ २५ ॥ तेल - मिलाकर सेवन करनेसे समस्त प्रतिश्याय दूर होते लाल कनेरके फूल, चमेली, बिजैसार, और मालिकाके हैं ॥ १८॥ | फूलों के साथ सिद्ध तैल नासार्शको नष्ट करता है ॥ २५ ॥ अन्ये उपाया। गृहधूमादितैलम् । शोषणं गुडसंयुक्तं स्निग्धध्यम्लभोजनम् ।। गृहधूमकणादारुक्षारनक्ताह्वसैन्धवैः । सिद्धं शिखरिबीजैश्च तैलं नासार्शसां हितम्॥२६॥ नवप्रतिश्यायहरं विशेषात्कफपाचनम् ॥ १९॥ गृहधूम, छोटी पीपल, देवदारु, जवाखार, कजा, सेंधानप्रतिश्याये नवे शस्तो यूषाश्चिञ्चादलोद्भवः। |मक और अपामार्गके बीजोंसे सिद्व तैल नासार्शके लिये ततः पक्कं कर्फ ज्ञात्वा हरेच्छीषविरेचनैः ॥ २०॥ हितकर है ॥ २६॥ शिरसोऽभ्यजनस्वेदनस्यकट्वम्लभोजनैः। वैमनघृतपानश्च तान्यथास्वमुपाचरेत् ॥ २१ ॥ चित्रकादितैलम् । काली मिर्च व गुड़के साथ स्नेहयुक्त (बिना मक्खन निकाले) चित्रकचविकादीप्यकनिदिग्धिकाकर अबीजलवणार्कैः। दहीके साथ भोजन नवीन जुकामको नष्ट करता तथा कफका गोमूत्रयुतं सिद्धं तैलं नासार्शसां विहितम् ॥ २७ ॥ पाचन होता है । नवीन जुकाममें इमलीकी पतीका युष चीतकी, जड़, चव्य, अजवायन, छोटी कटेरी, कजा. हितकर है । फिर कफ परु जाने पर शीर्षविरेचनसे निका- लवण व आकके कल्क व मोमूत्रसे सिद्ध तैल नासार्शके लिये लना चाहिये । शिरकी मालिश, स्वेदन, नस्य, कड़वे हितकर है ॥ २७ ॥ स Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः भाषाटीकोपेतः। (२५७) चित्रकहरीतकी। पाचनानि । चित्रकस्यामलक्याश्च गुडूच्या दशमूलजम् । । स्वेदः प्रलेपस्तिक्तान्नं सेको दिनचतुष्टयम् । शतं शतं रसं दत्त्वा पथ्याचूर्णाढकं गुडात् ॥२८॥ लंघनं चाक्षिरोगाणामामानां पाचनानि षट् । शतं पचेद् घनीभूते पलं द्वादशकं क्षिपेत् । . । अञ्जनं पूरणं काथपानमामे न शस्यते ॥४॥ व्योषत्रिजातयोः क्षारात्पलार्धमपरेऽहनि ॥२९॥ स्वेद, प्रलेप, तिक्तान, सेक, नेत्र दखनेपर चार दिन व्यतीत प्रस्थाध मधुनो दत्त्वा यथाग्न्यद्यादतन्द्रितः। होजाना, लंघन यह छः आम नेत्ररोगोंके पाचन हैं । तथा अञ्जन, वृद्धयेऽग्नेः क्षयं कासं पीनसं दुस्तरं क्रिमीन् । पूरण और क्वाथपान आममें हितकर नहीं है ॥४॥ गुल्मोदावर्तदुर्नामश्वासान्हन्ति रसायनम् ॥३०॥ पूरणम् । चीतकी जड़, आंवला, गुर्च, दशमूल, प्रत्येक ५ सेर धात्रीफलनिर्यासो नवहक्कोपं निहन्ति पूरणतः। रस ( क्वाथ) में छोटी हरोंका चूर्ण ३ सेर १६ तो०, सक्षौद्रसैन्धवो वा शिद्भवपत्ररससेकः ॥५॥ गुड़ ५ सेर छोड़कर पकाना चाहिये, गाढ़ा हो जानेपर | मिलित त्रिकटु, त्रिफला ४८ तोले (अर्थात् प्रत्येक ८ तोला) दारिसाजनं वापि स्तन्ययुक्तं प्रपूरणम् । जवाखार २ तोला छोड़ना चाहिये । दूसरे दिन ३२ तोला निहन्ति शीघ्र दाहाश्रुवेदनाः स्यन्दसम्भवाः ॥६॥ शहद मिलाना चाहिये, फिर अग्निके अनुसार सावधानीसे सेवन | आंवलेके फलका रस पूरण करनेसे नवीन नेत्ररोगको नष्ट करना चाहिये । इससे अग्नि बढ़ती तथा क्षय, कास, कठिन करता है। अथवा शहद व सेंधानमक(के)साथ सहिजनके पत्तोंके रसका सेक । अथवा दारुहल्दीके क्वाथसे यथाविधि साधित पीनस, क्रिमि, गुल्म, उदावर्त, अर्श, व श्वासरोग नष्ट होते हैं। रसौतको स्त्रीके धमें पीसकर छोड़नेसे अभिष्यन्दजन्य जलन, यह रसायन है ॥ २८-३०॥ इति भासारोगाधिकारः समाप्तः। अधु और पीड़ा शान्त होते हैं ॥ ५॥६॥ करवीरजलसेकः। करवीरतरुणकिसलयच्छेदोद्भवबहुलसलिलसंपूर्णम् । | नयनयुगं भवति दृढे सहसैव तत्क्षणात्कुपितम् ॥७॥ ___ कनेरकी मुलायम पत्तियोंके तोड़नेसे निकला जल आंखमें सामान्यतश्चिकित्साक्रमः। भरनेसे सहसा कुपित नेत्र दृढ़ होते हैं ॥ ७ ॥ लंघनालेपनस्वेदशिराव्यधविरेचनैः । शिखरियोगः। उपाचरदेभिष्यन्दानजनाश्च्योतनादिभिः ॥१॥ लंघन, आलेपन, स्वेद, शिराव्यध, विरेचन, अजन, शिखरिमूलं ताम्रकभाजने स्तोकसैन्धवोन्मिश्रम् । तथा आश्च्योतनादिसे अभिष्यन्दोंकी चिकित्सा करनी| मस्तु निघृष्टं भरणाद्धरति नवं लोचनोत्कोपम् ॥८॥ चाहिये ॥१॥ अपामार्गकी जड़, थोड़े सेंधानमक और दहीके तोडको ताम्रपात्रमें घिसकर आँखमें छोड़नेसे नवीन नेत्ररोग नष्ट होता ___ श्रीवासादिगुण्डनम् । श्रीवासातिविषालोधेश्चूर्णितैरल्पसैन्धवैः। अव्यक्तेऽक्षिगदे कार्य प्लोतस्थैर्गुण्डनं बहिः ॥२॥ लेपाः। देवदारु, अतीस, व लोहके चूर्णमें थोड़ा सेंधानमक सैन्धवदारुहरिद्रागैरिकपथ्यारसाजनैः पिष्टैः । मिला कपड़े में बाहर रगड़ना चाहिये जबतक नेत्ररोगका पूर्व दत्तो बहिः प्रलेपो भवत्यशेषाक्षिरोगहरः॥९॥ रूप हो ॥३॥ तथा शारवकं लोधं घृतभृष्टं बिडालकः । घतभ्रष्टहरीवक्या तद्वत्कार्यो बिडालकः ॥१०॥ लंघनप्राधान्यम्। शालाक्येऽणोहिलेंपो बिडालक उदाहृतः। आक्षिकुक्षिभवा रोगाः प्रतिश्यायव्रणवराः। । गिरिच्चन्दननागरखटिकांशयोजितो बहिलेपः ११ पञ्चैते पञ्चरात्रेण प्रशमं यान्ति लघनात ॥३॥ कुरुते वचया मिश्री लोचनमगदंन सन्देहः ॥१२॥ नेत्र और पेटके रोग, जुखाम, व्रण और ज्वर ये पांचों रोग भूम्यामलकी घष्टा सैन्धवगृहवारियोजिता ताने। संपन करनेसे पांच रात्रिमें ही शान्त हो जाते हैं ॥३॥ | याता घनत्वमक्ष्णोजेयति बहिर्लेपतः पाडाम्॥१३॥ अथ नेत्ररोगाधिकारः। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५८) चक्रदत्तः। नेत्ररोगान्न्न्न्न्न्न् सेंधानमक, दारुहल्दी, गेरू, छोटी हर्र व रसौतको पीसकर हल्दी, दारुहल्दी, मौरेठी, हर्र व देवदारुको पीसकर नेत्रके बाहर लेप लगानेसे समस्त नेत्ररोग नष्ट होते हैं। इसी बकरीके दूधमें लगाना अभिष्यन्दके लिये हितकर प्रकार सावर लोधको घीमें भूनकर शलाकासे नेत्रके बाहर लेप है ॥ १९ ॥ लगाना चाहिये । इसी प्रकार हर्रको धीमें भूनकर बिडालक लेप लगाना चाहिये । शालाक्य तन्त्रमें नेत्रोंके बाहर लेप लगाना - गैरिकाद्यञ्जनम् । "बिडालक " कहा जाताहै। अथवा गेरू, चन्दन, सोंठ, खड़िया गैरिक सैन्धवं कृष्णां नागरं च यथोत्तरम् । और वच समान भाग ले नेत्रके बाहर लेप करना चाहिये । इसी| पिष्ट द्विरंशतोऽद्भिर्वा गुडिकाजनमिष्यते ॥ २० ॥ प्रकार भुई आँवलेको ताम्रके बर्तनमें सेंधानमक और काजीके | गेरू १ भाग, सेंधानमक २ भाग, छोटी पीपल ४ भाग, साथ घिसकर गाढा हो जानेपर बाहर लेप करनेसे नेत्रपीड़ा शान्त सोंठ ८ भाग इनको जलमें पीस गोली बनाकर अञ्जन लगाना होती है ॥९-१३॥ चाहिये ॥२०॥ आश्च्योतनम् । पित्तजनेत्ररोगे आश्च्योतनम् । आश्च्चोतनं मारुतजे काथो बिल्वादिभिर्हितः। | प्रपौण्डरीकयष्टयाह्वनिशामलकपद्मकैः । कोष्णः सैरण्डबहतीतर्कारीमधुशिग्रुभिः ॥ १४ ॥ शीतैर्मधुसितायुक्तैः सेकः पित्ताक्षिरोगनुत् ।।२१।। एरण्डपल्लवे मूले त्वचि चाजं पयः शृतम् । । द्राक्षामधुकमञ्जिष्टाजीवनीयैः शृतं पयः। कण्टकार्याश्च मूलेषु सुखोष्णं सेचने हितम्॥ १५॥ प्रातराश्च्योतनं पथ्यं शोथशूलाक्षिरोगिणाम् ॥२२॥ वातजन्य नेत्ररोगमें बिल्वादि पञ्चमूल, एरण्ड, बड़ी कटेरी, पुण्डारया, मौरेठी, हल्दी, आंवला व पद्माखके शीतकषाअरणी, व मीठे सहिजनेके क्वाथका गुनगुना गुनगुना आश्च्योतन | यमें शहद व शक्कर मिलाकर नेत्रमें छोड़नेसे पित्तज-नेत्ररोग करना चाहिये । एरण्डके पत्ते, छाल और जड़से सिद्ध बकरीके | शान्त होता है । अथवा मुनक्का, मौरेठी, मजीठ और जीवनीय. दूध अथवा कटेरीकी जड़से सिद्ध गुनगुने गुनगुने दूधका सिंचन | गणकी औषधियोंसे सिद्ध दूध प्रातःकाल नेत्रमें छोडनेसे नेत्रों का करना चाहिये ॥ १४ ॥१५॥ शोथ व शूल नष्ट होता है ॥२१॥ २२ ॥ ___ अञ्जनादिसमयनिश्चयः। लोध्रपुटपाकाः। सम्पकेऽक्षिगदे कार्य चालनादिकमिप्यते ।। निम्बस्य पत्रैः परिलिप्य लोधं प्रशस्तवमता चाक्ष्णोः संरम्भाश्रुप्रशान्तता ॥१६॥ स्वेदोऽमिना चूर्णमथापि कल्कम् । मन्दवेदनता कण्डूः पक्काक्षिगदलक्षणम् । आश्च्योतनं मानुषदुग्धयुक्तं अञ्जनादिविधिश्वाने निखिलेनाभिधास्यते ॥१७॥ पित्तास्रवातापहमध्यमुक्तम् ॥ २३ ॥ पक नेत्रदोषोंमें अजनादि लगाना चाहिये । विनि- लोधके कल्क अथवा चूर्णके ऊपर नीमकी पतीका लेप कर पोका स्वच्छ होना नेत्रों की लालिमा व आंसुआंका कम अग्निमें पका स्त्रीदुग्धमें मिलाकर नेत्रमें आश्च्योतन करना पित्तज होना, पीड़ा कम होना, खुजलीका होना, पक्क नेत्ररोगके और वातज नेत्ररोगोंको शान्त करता है ॥ २३॥ लक्षण हैं । ऐसी अवस्थाके लिये आगे अजनादि लिखते हैं ॥ १६ ॥ १७॥ कफजचिकित्सा। बृहत्यादिवतिः। कफजे लङ्घनं स्वेदो नस्यं तिक्तान्नभोजनम् । बृहत्येरण्डमूलत्वक् शिप्रोर्मूलं ससैन्धवम् । तीक्ष्णैः प्रधमनं कुर्यात्तीक्ष्णैश्चैवोपनाहनम् ॥ २४ ॥ अजाक्षीरेण पिष्टं स्याद्वर्तिर्वाताक्षिरोगनुत् ॥१८॥ फणिज्जकास्फोतकपीतबिल्वपत्तूरपीलूसुरसार्जभङ्गैः। स्वेदं विदध्यादथवा प्रलेपं बर्हिष्ठशुण्ठीसुरदारुकुष्ठः बड़ी कटेरी, एरण्डकी जड़की छाल, सहिजनकी जड़की छाल | शुण्ठीनिम्बदलैः पिण्डः सुखोष्णैःस्वल्पसैन्धवैः। व सेंधानमक इन सबको पीसकर बकरीके दूधमें बत्ती बनाकर धार्यश्चक्षुषि संलेपाच्छोथकण्डूरुजापहः ॥२६॥ वातज-नेत्ररोगमें लगाना चाहिये ॥१८॥ वल्कलं पारिजातस्य तैलकाजिकसैन्धवम् । हरिद्राद्यञ्जनम्। | कफोभूताक्षिशुलनं तरुघ्नं कुलिशं तथा ॥२७॥ हरिद्रे मधुकं पथ्यां देवदारु च पेषयेत् । आजेन पयसा श्रेष्टमभिण्यन्दे तदजनम ॥१९॥ कपिस्थ इति पाठान्तरम् । तम्मते कैथाकी छाल । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। कफजमें लंघन, स्वेद, नस्य, तिक्कान्न भोजन, तीक्ष्ण औष दाादिरसक्रिया। धियोंका नस्य तथा तीक्ष्ण ही पुल्टिस बांधनी चाहिये। अथवा मरुवा, आस्फोता, पारस, पीपल, बिल्व, पत्तर, (पकारयाअथवा ___ दापिटोलमधुकं सनिम्ब पनकोत्पलम् । लाल चन्दन) पील, तुलसी, वनतुलसीके पत्तोंको गरम कर प्रपौण्डरीक चैतानि पचेत्तोये चतुर्गुणे ॥३२॥ स्वेद करना चाहिये । अथवा सुगन्धवाला, सोंठ, देवदारु व विपाच्य पादशेषं तु तत्पुनः कुडवं पचेत् । कूठका लेप करना चाहिये । इसी प्रकार सोंठ व नीमकी पत्तीके शीतीभूते तत्र मधु दद्यात्पादांशिकं ततः ॥ ३३ ॥ पिंडमें थोड़ा नमक मिला गरमकर गुनगुना नेत्रों में धारण करनेसे रसक्रियैषा दाहाश्रुरागरक्तरुजापहा । शोथ खुजली और पीड़ा मिटती है। इसी प्रकार पारिजातकी दारुहल्दी, परवलकी पत्ती, नीम, मैरेठी, पद्माख, नीलोफर, छाल, तैल, काली और सेंधानमक मिलाकर लेप करनेसे कफज | पुंडरिया, इनको चतुर्गुण जलमें मिलाकर पकाना चाहिये, नेत्रशूल इस प्रकार नष्ट होता है जैसे वृक्षको वज्र नष्ट करता चतुर्थाश शेष रहनेपर उतार छानकर फिर पकाना चाहिये, है ॥२४-२७॥ गाढा हो जानेपर उतारकर चतुर्थांश शहद मिलाना चाहिये । यह रसक्रिया जलन, आंसू, लालिमा और रक्तकी पीड़ाको शान्त सैन्धवाद्याश्च्योतनम् । करती है ॥ ३२ ॥ ३३॥ ससैन्धवं लोध्रमथाज्यभृष्टं विशेषचिकित्सा। सौवीरपिष्टं सितवस्त्रबद्धम् । तिक्तस्य सर्पिषः पानं बहुशश्च विरेचनम् ॥ ३४ ॥ आश्च्योतनं तन्नयनस्य कुर्यात् अक्ष्णोरपि समन्ताच्च पातनं तु जलौकसः। कण्डूं च दाहं च रुजां च हन्यात् ॥२८॥ पित्ताभिष्यन्दशमनो विधिश्वाप्युपपादितः ॥ ३५॥ लोधको घीमें भून सेंधानमक मिला काजीमें पीस सफेद | तिक्त घृतपान, अनेक बार विरेचन, नेत्रोंके चारों ओर कपड़ेमें बांधकर नेत्रमें निचोड़ना चाहिये । यह खुजली, जलन जोक लगाना तथा पित्ताभिष्यन्द नाशक चिकित्सा करनी और पीडाको नष्ट करता है ॥२८॥ चाहिये ॥ ३४ ॥ ३५॥ सामान्यनियमाः। स्निग्धैरुष्णश्च वातोत्थाः पित्तजा मृदशीतलैः। | शिग्रुपल्लवनिर्यासः सुघृष्टस्ताम्रसंपुटे। तीक्ष्णरूक्षोष्णविशदैः प्रशाम्यन्ति कफात्मकाः। | घृतेन धूपितो हन्ति शोथोश्रुवेदनाः॥ ३६॥ तीक्ष्णोष्णमृदुशीतानां व्यत्यासात्सान्निपातिकाः२९/ सहिजनके पत्तोंके रसको घोके साथ ताम्रके पात्रमें घिस |मिलाकर धूप देनसे सूजन, किरकिराहट, आसुओंका गिरना और चिकने व गरम पदार्थोंसे वातज, मीठे व शीतल पदाथोंसे पीडा शांत होती है॥३६॥ पित्तज, तेज रूखे गरम व फेलनेवाले पदार्थोंसे कफज तथा तीक्ष्ण, उष्ण, मृदु, व शीतलके सम्मिश्रणसे सन्निपातज रोग| निम्बपत्रमुटिका । शान्त होते हैं ॥२९॥ | पिष्टैनिम्बस्य पत्रैरतिविमलतरैर्जातिसिन्धूत्थमिश्रा । रक्ताभिष्यन्दचिकित्सा। अन्तर्गर्भ दधाना पटुतरगुडिका पिष्टलोध्रेण मृष्टा । तूलैः सौवीरसादॆरतिशयमृदुभिर्वेष्टिता सा समन्तातिरीटत्रिफलायष्टीशर्कराभद्रमुस्तकैः। चक्षुःकोपप्रशान्ति चिरमुपरि पिष्टैः शीताम्बुना सेको रक्ताभिष्यन्दनाशनः॥३० दृशोभ्राम्यमाणा करोति ।। ३७ ॥ कशेरुमधुकानां च चूर्णमम्बरसंयुतम् । सफ मुलायम नीमकी पत्ती पीस चमेलीकी पत्ती और न्यस्तमप्स्वान्तरीक्ष्यासु हितमाश्च्योतनं भवेत्३॥ सेंधानमक मिला गोली बनाकर ऊपरसे पीसे लोधको लपेटकर काजीसे तर मुलायम रुईसे लपेटना चाहिये, इस गोलीको आंखोंके लोध, त्रिफला, मौरेठी, शकर व नागरमोथाको पीस ठण्डे ऊपर अधिक समय तक घुमानेसे नेत्रकोप शांत होता है ॥३७॥ जलमें मिलाकर नेत्रमें सिश्चन करना रक्ताभिष्यन्दको नष्ट करता है । अथवा कशेरू और मौरेठीका चूर्ण कपड़ेमें बिल्वपत्ररसपूरणम् । बांध आकाशके जलमें डूबोकर नेत्रमें निचोड़ना हितकर | बिल्वपत्ररसः पूतः सैन्धवाज्येन चान्वितः । है ॥ ३०॥ ३१॥ शुल्बे वराटिकाघृष्टो धूपितो गोमयाग्निना ॥ ३८॥ धूपः। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६०) [नेत्ररोगाभन्न्न्न्न्न्न्न पयसालोडितश्चाक्ष्णोः पूरणाच्छोथशूलनुत् । वासादिकाय! अभिष्यन्देऽधिमन्थे च स्रावे रक्ते च शस्यते ॥३९॥ बेलकी पत्तीके रसमें सेंधानमक और घी मिलाकर ताम्रके आटरूषाभयानिम्बधात्रीमुस्ताक्षकूलकैः। बर्तनमें कौड़ियोंके साथ घिस गायके गोबरकी आंचसे गरमकर| रक्तस्रावं कर्फ हन्ति चक्षुष्यं वासकादिकम् ॥४६ ।। दूध मिला आंखोंमें छोड़नेसे सूजन, शूल, अभिष्यन्द, अधिमन्थ, अडूसा, हर्र, नीमकी छाल, आंवला, नागरमोथा, बहेड़ा, स्राव और रक्तदोष शांत होते हैं ॥ ३८ ॥ ३९॥ परवलका क्वाथ रक्तस्राव व कफको नष्ट करता तथा नेत्रोंके लिये हितकर है ॥ ४६॥ लवणादिसिञ्चनम् । सलवणकटुतैलं काजिकं कांस्यपात्रे बृहदासादिः। वासां घनं निम्बपटोलपत्रं घनितमुपलधृष्टं धूपितं गोमयानी। तिक्तामृताचन्दनवत्सकत्वक् । सपवनकफकोपं छागदुग्धावसिक्त जयति नयनशुलं स्रावशोथं सरागम् ॥४०॥ कलिङ्गदाऊदहनं च शुण्ठीनमक और कडए तैलके साथ काजीको कासेके पात्रमें भूनिम्बधाच्यावभयाविभीतम् ।। ४७ ॥ गाढाकर पत्थरसे घिस गोबरके कंड़ोंसे गरमकर बकरीके दूधमें श्यामायवकाथमथाष्टभागं मिलाकर आंखमें छोड़नेसे वात व कफके कोप, नेत्रशूल, स्राव, पिबेदिमं पूर्वदिने कषायम् । शोथ तथा लालिमा दूर होते हैं ॥ ४०॥ तैमिर्यकण्डूपटलाव॒दं च शुक्र निहन्याद् व्रणमत्रणं च ॥४८॥ अन्ये उपायाः। तरुस्थविद्धामलकरसः सर्वाक्षिरोगनुत् । पीलुं च काचं च महारजश्च नक्तान्ध्यरागं श्वयधुं सशुलम् । पुराणं सर्वथा सार्पः सर्वनेत्रामयापहम् ॥४१॥ निहन्ति सर्वान्नयनामयांश्व अयमेव विधिः सर्वो मन्थादिष्वपि शस्यते । । वासादिरेष प्रथितप्रभावः ॥ ४९ ॥ अशान्ती सर्वथा मन्थे भ्रुवोरुपरि दाहयेत्॥५२/ पेड़से तोड़े ताजे आंवलेका रस समस्त नेत्ररोगोंको नष्ट करता अडूसा, नागरमोथा, नीम की पत्ती, परवलकी पत्ती, कुटकी, है। तथा पुराना घी समस्त नेत्ररोगोंको नष्ट करता है। यही सब | गुर्च, चन्दन, कुड़ेकी छाल, इन्द्रयव, दारुहल्दी चीता, सौंठ, विधि मन्थादिमें करनी चाहिये, यदि मन्थ शांत न हो तो भॊके | चिरायता, आंवला, बड़ी हरे, बहेड़ा, निसोथ व यवका अष्टमांश ऊपर दागना चाहिये ॥४१॥४२॥ शेष क्वाथ प्रातःकाल पीना चाहिये । यह तिमिररोग, खुजली, पटल, अर्बुद, सत्रण, अत्रण, शुक्र, पीलु, काच, धूलिपूर्णता, नेत्रपाकचिकित्सा। रतौन्धी, लालिमा, सूजन, शूल, यहांतक कि समस्त नेत्ररोगोंको जलौकापातनं शस्तं नेत्रपाके विरेचनम् । | नष्ट करता है । यह “वासादि" प्रसिद्ध प्रभाववाला है४७-४९॥ शिराव्यधं वा कुर्वीत सेका लेपाश्च शुक्रवत् ॥४३॥। त्रिफलाकाथः। . नेत्रपाकमें जोक लगाना, विरेचन, शिराव्यध करना चाहिये पथ्यास्तिस्रो विभीतक्यः षड् धाच्यो द्वादशैव तु । तथा शुक्र के समान लेप व सेक करना चाहिये ॥४३॥ प्रस्थाघे सलिले क्वाथमष्टभागावशेषितम् ॥५०॥ विभीतकादिवाथः। पीत्वाभिष्यन्दमानावं रागश्च तिमिरं जयेत् ॥५१॥ संरम्भरागशूलाश्रुनाशनं हकप्रसादनम् । विभीतकशिवाधात्रीपटोलारिष्टवासकैः। हरे ३, बहेड़े ६, आंवले १२, जल ६४ तो० में पकाना काथो गुग्गुलुना पेयः शोथशुलाक्षिपाकहा ॥४४॥ चाहिये । ८ तोला बाकी रहनेपर उतार मल छानकर पीनेसे पुष्पं च सत्रणं शुक्रं रागादींश्चापि नाशयेत् । अभिष्यन्द, आस्राव, लालिमा व तिमिरको नष्ट करता है तथा एतैश्चापि घृतं पकं रोगांस्तांश्च व्यपोहति ॥४५॥ शोथ शूल आदिको नष्ट कर दृष्टिको स्वच्छ करता है॥५०॥५१॥बहेड़ा, हर्र, आंवला, परवल, नीमकी छाल व अडूसाके | क्वाथमें गुग्गुलु मिलाकर पीनेसे सूजन तथा दर्द तथा नेत्रपाक, आगन्तुज चिकित्सा। फूली, व्रणयुक्त सूजन लालिमा आदि नष्ट होती है। तथा इन्हींसे नेत्रे त्वभिहते कुर्याच्छीतमाश्च्योतनादिकम् ५२. पकाया घी भी उन रोगोंको नष्ट करता है ॥ ४४ ॥४५॥ | दृष्टिप्रसादजननं विधिमाशु कुर्यात् Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। स्निग्धैर्हिमैश्च मधुरैश्च तथा प्रयोगैः। ।... शुष्कपाकन्नमञ्जनम् । । स्वेदाग्निधूपभयशोकरुजाभितापै सैन्धवं दारु शुण्ठी च मातुलुङ्गरसो घृतम् ।। रभ्याहतामपि तथैव भिषक्चिकित्सेत् ५३॥ स्तन्योदकाभ्यां कर्तव्यं शुष्कपाके सदजनम्॥५९।। आगन्तुदोषं प्रसमीक्ष्य कार्य सेंधानमक, देवदारु, सोंठ, बिजौरे निम्बूका रस, घी, स्त्रीदुग्ध वक्रोष्मणा स्वेदितमादितस्तु । और जल मिला अजन बनाकर शुष्कपाकमें लगाना चाहिये॥५९॥ आश्च्योतनं स्त्रीपयसा च सद्यो .. अन्यदातमारुतपर्ययचिकित्सा। यञ्चापि पित्तक्षतजापहं स्यात् ॥५४॥ वाताभिष्यन्दवञ्चान्यद्वाते मारुतपर्यये । . नेत्रमें चोट लग जानेपर ठंढी आश्च्योतनादि चिकित्सा पूर्वमुक्तं हितं सर्पिः क्षीरं चाप्यथ भोजने ॥६०॥ करनी चाहिये । तथा दृष्टि स्वच्छ करनेवाली विधि शीघ्रही चिकने शीतल तथा मधुर पदाथोंसे करनी चाहिये । इसी प्रकार स्वेद, वृक्षादन्यां कपित्थे च पञ्चमूले महत्यपि। अमि, धूप, भय, शोक, पीड़ा व जलनसे पीड़ित नेत्रोंकी भी सक्षीरं ककेटरसे सिद्धं चापि पिबेद् घृतम् ॥६॥ चिकित्सा करनी चाहिये । आगंतुकमें पहिले मुखकी गरमीसे| अन्यतोवात और वातपर्ययमें वाताभिष्यन्दके समान स्बेदन कर दोषानुसार चिकित्सा करनी चाहिये । स्त्रीके दूधसे | चिकित्सा करनी चाहिये तथा भोजनके पहिले घी पीना और आश्च्योतन करना चाहिये तथा सद्यः पित्तज प्रणकी चिकित्सा भोजनके साथ दूध पीना चाहिये। तथा बान्दा, कैथा, करनी चाहिये ॥५२-५४ ॥ महत्तश्चमूल और काकड़ाशिंगी के क्वाथ तथा दूधके साथ सिद्ध |घृत पीना चाहिये ॥६०॥ ६१॥ सूर्याापहतदृष्टिचिकित्सा। शिराव्यधव्यवस्था । सूर्योपरागानलविद्युदादि अभिष्वन्दमधीमन्थं रक्तोत्थमथवार्जुनम् । -विलोकनेनोपहतेक्षणस्य । शिरोत्पातं शिराहर्षमन्यांश्वाक्षिभवान्गदान् ॥६९॥ सन्तर्पणं स्निग्धहिमादि कार्य स्निग्धस्याज्येन कौम्भेन शिरावेधैः शमं नयेत् । सायं निषेव्यात्रिफलाप्रयोगाः ॥ ५५॥ अभिष्यन्द, अधिमन्य अथवा रकोत्थ अर्जुन तथा शिरो. सूर्यग्रहण, अग्नि, बिजली आदिके देखनसे उपहत दृष्टिवालेको त्पात, शिराहर्ष तथा और भी नेत्रके रोगोंमें दश वर्षके चिकने, शीतल, सन्तर्पण प्रयोग करने चाहिये तथा सायङ्काल | पुराने घीसे स्नेहन कराकर शिराव्यधसे शान्त करना चाहिये॥६२॥त्रिफला क्वाथके द्वारा आंखोंको धो डाले अथवा सेक करे ॥५५॥ अम्लाध्युषितचिकित्सा । .. निशादिपूरणम् । अम्लाध्युषितशान्त्यर्थ कुर्याल्लेपान्सुशीतलान् ॥६॥ तैन्दुकं त्रैफलं सर्पिीण वा केवलं हितम् । , निशाब्दत्रिफलादाऊसितामधुकसंयुतम् । शिराव्यधं विना कार्यः पित्तस्यन्दहरो विधिः ॥६४ अभिघाताक्षिशूलप्नं नारीक्षीरेण पूरणम् ॥५६॥ । अम्लाघ्युषितकी शान्तिके लिये शीतल लेप करना इत्कटाकुरजस्तद्वत्स्वरसो नेत्रपूरणम् । | चाहिये । तथा तेन्दूसे सिद्ध घृत अथवा त्रिफलासे सिद्ध घृत अथवा केवल पुराना घृत लगाना चाहिये । तथा शिराव्यहल्दी, नागरमोथा, त्रिफला, दारुहल्दी, मिश्री व मौरेठीको धके सिवाय समस्त पित्तस्यन्दनाशक विधिका सेवन स्त्रीके दूधमें पीसकर नेत्रमें भरनेसे अभिघात व अक्षिशूल शान्त कराना चाहिये ॥६३ ॥ ६४ ॥ .. होता है। इसी प्रकार रोहिषघासका स्वरस लाभ करता है॥५६॥ ........ शिरोत्पातचिकित्सा। नेत्राभिघातघ्नं घृतम् । सर्पिः क्षीद्राञ्जनं च स्याच्छिरोत्पातस्य भेषजम् । आज घृतं क्षीरपात्रं मधुकं चोत्पलानि च ॥५७॥] तद्वत्सैन्धवकासीसं स्तन्यपिष्टं च पूजितम् ॥६५॥ जीवकर्षभको चापि पिष्ट्वा सपिर्विपाचयेत् । । घी और शहदका अञ्जन अथवा स्त्रीदुग्धमें पीसा हुआ सर्वनेत्राभिघातेषु सर्पिरेतत्प्रशस्यते ॥ ५८।। सेंधानमक व कासीस शिरोत्पातकी चिकित्सा है ॥६५॥ बकरीका घृत ६४ तोला, दूध ३ सेर १६ तो०, मौरेठी, शिराहषचिकित्सा। नीलोफर, जीवक, व ऋषभक इन चारोंका कल्क १६ तो मिला- शिराहर्षेऽजनं कुर्यात्फाणितं मधुसंयुतम् । कर सिद्ध घृत समस्त नेत्राभिघातोंको शान्त करता है।५७॥५८॥ मधुना तायशलं वा कासीसं वा समाक्षिकम् ६६ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (२६२) चक्रदत्तः। [ नेत्ररोगाwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwशिराहर्ष में शहद के साथ राब अथवा शहदके साथ रसौंत पुष्पचिकित्सा। अथवा शहदके साथ काशीस लगाना चाहिये ॥६६॥ क्षुण्णपुन्नागपत्रेण परिभावितवारिणा। व्रणशुक्रचिकित्सा। श्यामाकाथाम्बुना वाथ सेचनं कुसुमापहम् ॥७४॥ प्रणशुक्रप्रशान्त्यर्थ षडङ्ग गुग्गुलुं पिबेत् ॥ दक्षाण्डत्वछिलाशंखकाचचन्दनगैरिकैः । कतकस्य फलं शङ्ख तिन्दुकं रूप्यमेव च ॥ ६७ ॥ तूल्यैर जनयोगोऽयं पुष्पार्मादिविलेखनः ॥ ७५ ॥ कांस्ये निघृष्ट स्तन्येन क्षतशुक्रातिरागजित् । शिरीषबीजमरिचपिप्पलीसैन्धवैरपि । चन्दनं गैरिकं लाक्षामालतीकलिका समा॥ ६८ ॥ शुक्र प्रघर्षण कार्यमथवा सैन्धवेन च ॥७६ ॥ व्रणशुक्रहरी वर्तिः शोणितस्य प्रसादनी। कुटे पुन्नागके पत्तोंसे भावित जलसे अथवा निसोथके क्वाथसे शिरया वा हरेद्रक्तं जलोकोभिश्व लोचनात् ॥६९॥ सिञ्चन करनेसे फूली कटती है। तथा मुरगकि अण्डेका छिल्का, अक्षमज्जाजनं सायं स्तन्येन शुक्रनाशनम् । | मैनशिल, शंख, काच, चंदन व गेरू समान भाग ले अजन एकं वा पुण्डरीकं च छागीक्षीरावसेचितम् ॥७०॥ बनाकर लगानेसे फूली, अर्म आदि कटते हैं । तथा सिरसाके रागाझुवेदना हन्यात्क्षतपाकात्ययाजकाः । बीज, मिरच, छोटी पीपल व सेंधानमककी वीसे अथवा केवल तुत्थकं वारिणा युक्तं शुक्रं हन्त्यक्षिपूरणात् ॥७१॥ | संघ सेंधानमकसे फूलीमें घिसना चाहिये ॥ ७४-७६ ॥ - व्रणशुक्रकी शान्तिके लिये षडंग गुग्गुलु पीना चाहिये । तथा करञ्जवतिः। निर्मली, शंख, तेन्दू और चान्दीका भस्म इनको कांसेके बहुशः पलाशकुसुमस्वरस: परिभाविता जयत्यचिरात्। बर्तनमें दूधके साथ घिसकर लगाना चाहिये । इससे व्रणशुक्र, नक्ताह्वबीजवर्तिः कुसुमचयं दृक्षु चिरजमपि ॥७७॥ पीड़ा व लालिमा मिटती है। व चन्दन, गेरू, लाख तथा काके बीजोंके चूर्णमें ढाकके फूलोंके स्वरससे यथाविधि चमेलीकी कली समान भाग ले बत्ती बना नेत्रमें लगानेसे अनेक भावना देकर बनायी गयी वर्ति पुरानी और बड़ी फूलीको व्रणशुक्र नष्ट करती तथा नेत्र स्वच्छ करती है। अथवा फस्त | भी नष्ट करती है ॥ ७७ ॥ खोलकर या जोंक लगाकर नेत्रसे रक्त निकालना चाहिये । तथा सैन्धवादिवतिः। सायङ्काल बहेड़ेकी मींगीको स्त्रीदुग्धमें घिसकर आजनेसे शुक्र नष्ट होता है । तथा केवल कमलके पुष्पको बकरी के दधसे| सैन्धवत्रिफलाकृष्णाकटुकाशङ्खनाभयः। सिक्तकर सिञ्चन करनेसे लालिमा, आंसू, पीड़ा, व्रण, पाकात्यय सताम्ररजसो वतिः पिष्टा शुक्रविनाशिनी ॥७८॥ तथा अजका आदिको नष्ट करता है। अथवा जलके साथ तूति सेंधानमक, त्रिफला, छोटी पीपल, कुटकी, शंखनाभी और थाको घिसकर नेत्रमें छोड़नसे शुक नष्ट होता है ॥६७-७१॥ ताम्रभस्म इन ओषधियोंके चूर्णको पानीके साथ घोटकर बनायी बत्तीको लगानेसे फूली नष्ट होती है ॥ ७८ ॥ फेनादिवतिः। चन्दनादिचूर्णाञ्जनम् । समुद्रफेनदक्षाण्डत्वक्सिन्धूत्थैः समाक्षिकैः। । चन्दनं सैन्धवं पथ्या पलाशतरुशोणितम् । शिबीजयुतिः शुक्रन्नी शिवारिणा ।। ७२॥। गर्मादिविलेखनम् ॥ ७९॥ समुद्रफेन, मुर्गीके अण्डेका छिल्का, सेंधानमक, शहद और | चन्दन, सेंधानमक, छोटी हरें, ढाकका गोंद इनके सहिजनके बीजका चूर्ण कर सहिजनके रससे बनायी वर्ति रोना । बनाया वति | उत्तरोत्तर भागवृद्ध चूर्णका अन्जन फूली तथा अर्म आदिको शुक्रको नष्ट करती है ॥७२॥ काटता है॥७९॥ आश्योतनम् । दन्तवतिः। धात्रीफलं निम्बपटोलपत्रं दन्तैर्हस्तिवराहोष्ट्रगवावाजखरोद्भवैः । यष्टयाह्वलोध्र खदिरं तिलाश्च । सशंखमौक्तिकाम्भोधिफेनैमरिचपादिकैः। काथः सुशीतो नयने निषिक्तः क्षतशुक्रमपि व्याधि दन्तवर्तिनिवर्तयेत् ॥ ८॥ सर्वप्रकारं विनिहन्ति शुक्रम् ॥ ७३॥ हाथी, सुअर, ऊँट, घोड़ा, बकरी और गधाके दाँत, आंवला, नीमकी पत्ती, परवलकी पत्ती, मौरेठी, लोध, शंख, मोती व समुद्रफेन प्रत्येक समान भाग तथा सबसे कथा व तिलके शीतकषायको नेत्रमें छोड़नसे सब प्रकारके शुक्र चतुर्थांश मिर्च मिला धोट बत्ती बनाकर आँखमें लगानेसे नष्ट होते हैं ॥ ५३॥ वणशुक्र भी नष्ट होता है ॥८॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] · भाषाटीकोपेतः। शंखाद्यञ्जनम् । प्रस्थमामलकानां च काथयेनल्वणेऽम्भसि । शङ्खस्य भागाश्चत्वारस्ततोऽर्धन मनःशिला। पादशेषे रसे तस्मिन्घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥९॥ मनःशिलार्ध मरिच मरिचार्धेन सैन्धवम् ॥८१॥ कल्कै निम्बकुटजमुस्तयष्टयाह्वचन्दनः। एतच्चूर्णाजनं श्रेष्ठं शुक्रयोस्तिामिरेषु च । सपिप्पलीकैस्तत्सिद्धं चक्षुष्यं शुक्रयोर्हितम् ।।९१ ।। पिच्चटे मधुना योज्यमबुंदे मस्तुना तथा ॥ ८२॥ | घ्राणकर्णाक्षिवम॑त्वङ्मुखरोगत्रणापहम् । . शंख ४ भाग, मैनसिल २ भाग, कालीमिर्च १ भाग तथा| कामलाज्वरवीसर्पगण्डमालाहरं परम् ॥ ९२ ॥ सेंधानमक आधा भाग इनका चूर्णाजन बनाकर लगानेसे | परवल, कुटकी, दारुहल्दी, नीम, अडूसा, त्रिफला, शुक्र तथा तिमिर नष्ट होता है । इसका पिच्चिटमें शहदके | यवासा, पित्तपापड़ा, तथा त्रायमाण प्रत्येक एक पल, आँवला, साथ तथा अर्बुदमें दहीके तोड़के साथ प्रयोग करना। १ प्रस्थ, जल १ द्रोणमें पकाना चाहिये। चतुर्थांश शेष रहने. चाहिये ॥८१॥८२॥ पर उतार छान एक प्रस्थ घी तथा चिरायता, कुड़ा, नागरअन्यान्यञ्जनानि । मोथा, मौरेठी, चन्दन व छोटी पीपलका कल्क छोड़कर पकाना चाहिये । यह घृत नेत्रोंको बलदायक, शुक्रनाशक, नासा, कान, ताप्यं मधुकसारो वा बीजं चाक्षस्य सैन्धवम् । | नेत्र, विनियों व त्वचारोग, मुखरोग और व्रणोंको नष्ट करता मधुनाजनयोगाः स्युश्चत्वारः शुक्रशान्तये।। ८३ ॥ तथा कामला, घर, विसर्प व गण्डमालाको हरता वटक्षीरेण संयुक्तं श्लक्ष्णं कर्पूरज रजः। है ॥ ८९ ॥९२ ॥ क्षिप्रमजनतो हन्ति शुक्रं चापि घनोन्नतम् ॥८४॥ त्रिफलामज्जमङ्गल्यामधुकं रक्तचन्दनम् । कृष्णादितैलम् । पूरणं मधुसंयुक्तं क्षतशुक्राजकाश्रुजित् ॥ ८५॥ कृष्णाविडङ्गमधुयष्टिकासन्धुजन्मस्वर्णमाक्षिक, मोरेठी, बहेड़ेकी भींगी अथवा सेंधानमक विश्वौषधैः पयसि सिद्धमिदं छगल्याः। इनमें से किसी एकके चूर्णको शहदमें मिलाकर लगानेसे फूली तैलं नृणां तिमिरशुक्रशिरोऽक्षिशूलशान्त होती है। इसी प्रकार बरगदके दूधके साथ कपूरका चूर्ण पाकात्ययाञ्जयति नस्यविधौ प्रयुक्तम्॥१३॥ लगानेसे कड़ी व ऊँची फूली मिटती है। तथा त्रिफलाकी गुठलियाँ, गोरोचन, मोरेठी व लाल चन्दन चूर्णको शहदके साथ छोटी पीपल, वायविडंग, मोरेठी, सेंधानमक व सोंठ के आँखमें लगानेसे व्रणशुक्र, अजका और अश्रु शान्त होते कल्क और बकरीके दूधमें सिद्ध तेलका नस्य देनेसे तिमिर, हैं ॥ ८३-८५॥ शुक्र, शिर व नेत्रका शूल तथा पाकात्ययादि नष्ट होते हैं॥१३॥ क्षाराञ्जनम् । अजकाचिकित्सा। सालस्य नारिकेलस्य तथैवारुष्करस्य च । अजकां पार्श्वतो विद्ध्वा सूच्या विस्राव्य चोदकम्। करीरस्य च वंशानां कृत्वा क्षारं परिसुतम् ॥८६॥ व्रणं गोमयचूर्णेन पूरयेत्सर्पिषा सह ॥ ९४ ।। करभास्थिकृतं चूर्ण क्षारेण परिभावितम् । सैन्धवं वाजिपादं च गोयेचनसमन्वितम् । सप्तकृत्वोऽष्टकृत्वो वा श्लक्ष्णं चूर्ण तु कारयेत्॥८७ शेलुत्वप्रससंयुक्त पूरणं चाजकापहम् ॥ ९५ ॥ एतच्छुक्रेष्वसाध्येषु कृष्णीकरणमुत्तमम् । । यानि शुक्राणि साध्यानि तेषां परममञ्जनम् ।। ८८. अजकाको बगलसे वेध जल निकालकर उस घावमें घीसे मिले गोबरके चूर्णको भरना चाहिये । तथा सेंधानमक, ताल, नरियल, भिलावा, करीर तथा बाँस प्रत्येकका क्षार सफेद गोकर्णी तथा गोरोचनको लसोढेकी छालके स्वरसके साथ पतला बनाकर उसीसे हाथीकी हहीके चूर्णकी ७ या आठ घोटकर आँखों में डालनेसे अजका नष्ट होती है।९४ ॥१५॥ भावना देकर महीन चूर्ण कर लेमा चाहिये । यह असाध्य शुकोंको काला कर देता तथा साध्यको अच्छा कर देता शशकघृतव्यम् । है ॥८६-८८॥ शशकस्य शिरः कल्के शेषाङ्गकथिते जले । __ पटोलाचं घृतम् । घृतस्य कुडवं पकं पूरणं चाजकापहम् ॥ ९६ पटोले कटुको दार्वी निम्बं वासां फलत्रिकम् । । शशकस्य कषाये च सर्पिषः कुडवं पचेत् । दुरालभां पर्पटकं त्रायन्ती च पलोन्मिताम् ॥८९॥ यष्टीप्रपोण्डरीकस्य करकेन पयसा समम् ॥१७॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६४) चक्रदत्त। [त्ररोगा - -arrery wrowrorrwww मतलयुतां कात युक्तितः वितम् । छगल्याः पूरणाच्छुक्रक्षतपाकात्ययाजकाः। निर्दयमुक्षन्नक्षि क्षपयति तिमिराणि ना सद्यः।।१०४ हन्ति भ्रूशखशूलं च दाहरोगानशेषतः ॥ ९८॥ भुक्त्वा पाणितलं घृष्ट्वा चक्षुषोर्यत्प्रदीयते । अचिरेणैव तद्वारि तिमिराणिं व्यपोहति ॥ १०५॥ .. (७)खरगोशके शिरके कल्क तथा शेषाङ्गके क्वाथमें सिद्ध १६ तोला घृत आँखोंमें छोड़नेसे अजका नष्ट होती है। इसी प्रकार प्रातःकाल मुखमें जल भरकर वार बार आँखे धोनेसे तिमिर | नष्ट होता है । इसी प्रकार भोजन करनेके अनन्तर जल (२) खरगोशके काढ़े और मौरेठी व पुण्डीरयाक कल्क तथा| हाथों में लेकर आँखोंको धोनेसे तिमिर नष्ट होते बकरीके दूध समान भागके साथ सिद्ध १६ तोले घीको आँखोंमें| हैं ॥ १०४ ॥१०५॥ छोड़नेसे शुक्रवण, पाकात्यय, अजका, भौहों तथा शंखका शूल! तथा समग्र जलन व लालिमा नष्ट होती है ॥९६-९८ ॥ सुखावती वतिः। ___ पथ्यम् । कतकस्य फलं शङ्ख त्र्यूषणं सैन्धवं सिता । . त्रिफला घृतं मधु यवाःपादाभ्यङ्गःशतावरी मुद्गाः। फेनो रसाञ्जनं क्षौद्रं विडङ्गानि मनाशिला । चक्षुष्यःसंक्षेपाद् वर्गः कथितो भिषग्भिरयम्॥९९॥ कुक्कुटाण्डकपालानि वर्तिरेषा व्यपोहति ॥ १०६।। त्रिफला, घी, शहद, यव, पैरोंमें मालिश, शतावरी, व तिमिरं पटलं काचमर्म शुक्रं तथैव च। मुंगको संक्षेपतः वैद्योंने नेत्रों के लिये हितकर बताया है ॥ ९९ ॥ कण्डूक्केदाबुदं हन्ति मलं चाशु सुखावती ॥ १०७॥ तिमिरे त्रिफलाविधिः। निर्मली, शंख, त्रिकटु, सेंधानमक, मिश्री, समुद्रफेन, लिह्यात्सदा वा त्रिफलां सुचूर्णितां | रसौंत, शहद, वायविडंग, मनशिल व मुर्गीके अण्डे के छिल्कोंके चूर्णको जलमें घोटकर बनायी गयी वर्ति तिमिर, पटल, काच, मधुप्रगाढा तिमिरेऽथ पित्तजे । अर्म, फूली, खुजली, मवाद तथा अर्बुद और कीचड़को दूर समीरजे तैलयुतां कफात्मके | करती है ॥ १०६ ॥१७॥ मधुप्रगाढां विदधीत युक्तितः ॥१०॥ कल्कः काथोऽथवा चूर्ण त्रिफलाया निषेवितम् । चन्द्रोदया वतिः। मधुना हविषा वापि समस्ततिमिरान्तकृत् ॥१०१।। हरीतकी वचा कुष्ठं पिप्पली मारचानि च । यस्खैफलं चूर्णमपथ्यवर्जी विभीतकस्य मज्जा च शङ्खनाभिर्मनःशिला।।१०८ सायं समश्नाति हविर्मधुभ्याम् । सर्वमेतत्समं कृत्वा छागीक्षीरेण पेषयेत् । स मुच्यते नेत्रगतैर्विकार नाशयेत्तिमिरं कण्डूं पटलान्यर्बुदानि च ॥१०९ ।। भृत्यैर्यथा क्षीणधनो मनुष्यः॥ १०२॥ अधिकानि च मांसानि यश्च रात्रौ न पश्यति । .. सघृतं वा वराकाथं शीलयेत्तिमिरामयी । अपि द्विवार्षिकं पुष्पं मासेनकेन साधयेत् ॥११०॥ जाता रोगा विनश्यन्ति न भवन्ति कदाचन । वर्तिश्चन्द्रोदया नाम नृणां दृष्टिप्रसादनी ॥ १११।। त्रिफलायाः कषायेण प्रातर्नयनधावनात् ।। १०३ ॥ हर, बच, कूठ, छोटी पीपल, कालीमिर्च, बहेड़ेकी मांगी, पित्तज तिमिरमें त्रिफलाके चूर्णको शहदके साथ, वातजमें शंखनाभि व मैनशिल यह सब समान भाग ले बकरीके दूधसे तैलके साथ तथा कफजमें शहदके साथ चाटना चाहिये । इसी पीसकर बनायी गयी बाती तिमिर, खुजली, पटलदोष, अर्बुद, प्रकार त्रिफलाके कल्क, काथ अथवा चूर्णको शहद अथवा घीके अधिकमांस, रतौंधी, तथा दो वर्षकी फूलीको एक मासमें दूर साथ चाटनेसे समस्त तिमिररोग नष्ट होते हैं । जो मनुष्य करती है। यह "चन्द्रोदया वर्ति" मनुष्योंकी दृष्टिको स्वच्छ अपथ्यको त्यागकर सायंकाल त्रिफलाके चूर्णको घी व शहदके रखती है ॥ १०८-१११॥ साथ सेवन करता है, उसके नेत्ररोग इस प्रकार नष्ट होते हैं जैसे धन न रहनेपर नौकर छोड़कर चले जाते हैं । अथवा घृतके __ हरीतक्यादिवतिः। साथ प्रिफलाके क्वाथको पीना चाहिये इससे उत्पन्न रोग नष्ट हरीतकी हरिद्रा च पिप्पल्यो लवणानि च । हो जाते हैं और फिर कभी नहीं होते । इसी प्रकार त्रिफलाको कण्डूतिमिरजिद्वतिर्न कश्चित्प्रतिहन्यते ॥ ११२ ।। काढ़ेसे नेत्रको प्रातःकाल धोनेसे लाभ होता है ॥ १००-१०३॥ हर्र, हल्दी, छोटी पिप्पली तथा पांचों नमक मिलाकर जलप्रयोगः। बनायी गयी वर्ति खुजली व तिमिरको नष्ट करती है, कहींपर - जलगण्डूषैः प्रातबहुशोऽम्भोभिः प्रपूर्य मुखरंध्रम् । 'भी व्यर्थ नहीं जाती ॥ ११२ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] भाषाटीकोपेतः। कुमारिकावर्तिः। | की गई बत्ती मवाद, लेप और खुजलीको नष्ट करती तथा अशीतिस्तिलपुष्पाणि षष्टिः पिप्पलितण्डुलाः। कफनाशक है। तथा छोटी पीपल १ भाग, हरै २ भाग | दोनोंको जलमें पीसकर बनायी गयी बत्ती नेत्रोंको सुख देती जातीकुसुमपञ्चाशन्मरिचानि च षोडश ।। है। अर्म, तिमिर, पटल, काच आंसुओंको शान्त करती एषा कुमारिका वर्तिर्गतं चक्षुर्निवारयेत् ॥११३ ॥ है ॥ ११६-१२०॥ तिलके फूल ८०, छोटी पीपलके दाने ६०, चमेलीके फूल ५०, काली मिर्च १६ इनकी बनायी वर्ति "कुमारिका" कही चन्द्रप्रभावतिः। जाती है । यह गत चक्षुको भी पुनः शक्तिसम्पन्न करती अञ्जनं श्वेतमरिच पिप्पली मधुयष्टिका । विभीतकस्य मध्यं तु शङ्खनाभिर्मनःशिला १२१॥ त्रिफलादिवतिः। एतानि समभागानि अजाक्षीरेण पेषयेत् । त्रिफलाकुक्कुटाण्डत्वक्कासीसमयसो रजः। छायाशुष्कां कृतां वर्ति नेत्रेषु च प्रयोजयेत् ॥१२२ नीलोत्पलं विडंगानि फेनं च सरितां पतेः ॥११४॥ अर्बुदं पटलं काचं तिमरं रक्तराजिकाम् । आजेन पयसा पिष्ट्वा भावयेत्ताम्रभाजने । । आधिमासं मलं चैव यश्च रात्रौ न पश्यति ॥१२३॥ सप्तरात्रं स्थितं भूयः पिष्ट्वा क्षीरेण वर्तयेत्॥११५] वर्तिश्चन्द्रप्रभा नाम जातान्ध्यमपि शोधयेत्॥१२४॥ एषा दृष्टिप्रदा वर्तिरन्धस्याभिन्नचक्षुषः। काला सुरमा, सहिजनके बीज, छोटी पीपल, मौरेठी, बहेड़ेकी त्रिफला, मुर्गाके अण्डेका छिल्का, काशीस,लौहभस्म,नीलोफर, गुठली, शंखनाभी, मैनशिल इनका समान भाग ले बकरके धमें वायविडंग तथा समुद्रफेनको बकरीके दूधसे ७ दिनतक ताम्रके पीस गोलीको बनाकर छायामें सुखाकर आंखोंमें लगाना पात्र में भावना देकर फिर दूधसे ही पीसकर बनायी गयी वति चाहिये । यह अबुद, पटल, काच, तिमिर, लाल रेखाएँ. जिसे दिखायी नहीं पडता पर आँख बैठी नहीं है, उसे दृष्टिदान अधिमांस, मल, रतौंधी और जन्मान्ध्यको भी नर करती करती है॥ ११४॥ ११५॥ है ॥ १२१-१२४॥ अन्या वर्तयः। श्रीनागार्जुनीयवतिः। त्रिफलाव्योषसिन्धूत्थयष्टीतुत्थरसाजनम् ।। चन्दनत्रिफलापूगपलाशतरुशोणितैः ॥ ११६ ॥ जलपिष्टैरियं वर्तिरशेषतिमिरापहा । प्रपोण्डरीकं जन्तुम्नं लो| तानं चतुर्दश ॥ १२५ ॥ निशाद्वयाभयामांसीकुष्ठकृष्णा विचूर्णिता ॥११७॥ द्रव्याण्येतानि संचूर्ण्य वर्तिः कार्या नभोऽम्बुना । सर्वनेत्रामयान्हन्यादेतत्सौगतमजनम् । नागार्जुनेन लिखिता स्तम्भे पाटलिपुत्रके ॥१२६ ॥ व्योषोत्पलाभयाकुष्ठताक्ष्यैर्वतिः कृता हरेत्॥११८॥ नाशनी तिमिराणां च पटलानां तथैव च । अर्बुदं पटलं काचं तिभिरार्माश्रुनिस्रतिम् । सद्यः प्रकोपं स्तन्येन स्त्रिया विजयते ध्रुवम् ॥१२७ किंशुकस्वरसेनाथ पिल्लपुष्पकरक्तताः । त्र्यूषणं त्रिफलावत्क्रसैन्धवालमनः शिलाः।। क्लेदोपदेहकण्डूनी वर्तिः शस्ता कफापहा ॥११९ ॥ अञ्जनालोध्रतोयेन चासन्नतिमिरं जयेत् ॥ १२८ ॥ चिरसंच्छादिते नेत्रे बस्तमूत्रेण संयुता। एकगुणा मागधिका द्विगुणा च हरीतकी सलिलपिष्टा। उन्मीलयत्यकृच्छ्रेण प्रसाद चाधिगच्छति ॥१२९॥ वर्तिरियं नयनसुखा सोंठ, मिर्च, पीपल, आंवला, हर्र, बहेड़ा, सेंधानमक, मंतिमिरपटलकाचाश्रुहरी ।। १२०॥ मौरेठी, तूतिया, रसौंत, पुण्डारया, वागविडङ्ग, लोध्र. चन्दन, त्रिफला, सुपारी तथा ढाकके गोंदको जलमें पीसकर और ताम्र ये चौदह ओषधियां समान भाग ले चर्णकर बनायी वर्ति समस्त तिमिरोंको नष्ट करती है। इसी प्रकार आकाशसे वर्षे जलसे बत्ती बना लेनी चाहिये । यह बत्ती हल्दी, दारुहल्दी, बड़ी हर्रका छिल्का, जटामांसी, कूठ व छोटी नागार्जुनने पाटलिपुत्रमें खम्भेमें लिखी है । यह तिमिर पीपलके चूर्णको आंखमें लगानेसे समस्त नेत्ररोग नष्ट होते हैं। और पटलको नष्ट करती है, जल्दीके प्रकोप अभिष्यन्दको तथा त्रिकट, नीलोफर, हरी, कूठ, रसौंतकी बत्ती अर्बुद, पटल, स्त्रीके दूधसे जीतती है । ढाकके स्वरससे पिल्ल, फूली और काच, तिमिर, अर्म और अश्रुप्रवाहको नष्ट करती है । तथा | लालिमाको जीतती है । लोधके जलसे तिमिरको नष्ट त्रिकटु, त्रिफला, तगर, सेंधानमक, हरताल व मनशिलसे । करती है, अधिक समयसे बन्द नेत्रमें बकरेके मूत्रके साथ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) चक्रदत्तः। [नेत्ररोगा - Poooorkee or ora Fow-are-ere लगानेसे सरलतासे खोलती और आंखोंको स्वच्छ बनाती | तेजपात, गेरू, कपूर, मौरेठी, नीलोफर, सुर्मा व नागकेशरका है ॥ १२५-१२९॥ अञ्जन समस्त तिमिरोंको नष्ट करता है ॥ १३५॥ पिप्पल्यादिवतिः। शंखाद्यञ्जनम् । पिप्पली सतगरोत्पलपत्रां शङ्खस्य भागाश्चत्वारस्तदर्धेन मनःशिला । वर्तयेत्समधुकां सहरिद्राम् । मनःशिलार्ध मरिचं मरिचार्धेन पिप्पली ।। १३६॥ एतया सततमञ्जयितव्यं वारिणा तिमिरं हन्ति अर्बुद हन्ति मस्तुना । यः सुपर्णसममिच्छति चक्षुः ॥ १३०॥ | पिचिटं मधुना हन्ति स्त्रीक्षीरेण तदुत्तमम् ॥१३७॥ छोटी पीपल, तगर, नीलोफर, मोरेठी और हल्दीके चूर्णको | शंख ४ भाग, मनशिल २ भाग, मिर्च १ भाग, व छोटी जलमें पीसकर बनायी हुई बत्तीसे आंजनेसे सुपर्णके सदृश दृष्टि पीपल आधा भाग, घोटकर जलके साथ लगानेसे तिमिर, दहीके होती है ॥ १३०॥ | तोड़से अर्बुद, शहदसे पिच्चिट और स्त्रीदुग्धसे फूलीको नष्ट व्योषादिवर्तिः। | करता है ॥ १३६ ॥ १३७ ॥ व्योषायश्चूर्णसिधूत्थत्रिफलाजनसंयुता । हरिद्रादिगुटिका। गुडिका जलपिष्टेयं कोकिला तिमिरापहा ॥१३१॥ | हरिद्रा निम्बपत्राणि पिप्पल्यो मरिचानि च। त्रिकटु, लोह चूर्ण, सेंधानमक, त्रिफला और अञ्जनके साथ भद्रमुख विडङ्गानि सप्तमं विश्वभेषजम् ।। १३८ ।। बनायी गयी बत्ती तिमिरको नष्ट करती है। इसे "कोकिला वर्ती" गोमूत्रेण गुटी कार्या छागमूत्रेण चालनम् । कहते हैं । १३१॥ ज्वरांश्च निखिलान्हन्ति भूतावेशं तथैव च ॥१३९ अपरा व्योषादिः। वारिणा तिमिरं हन्ति मधुना पटलं तथा। नक्तान्ध्यं भृङ्गराजेन नारीक्षीरेण पुष्पकम् । त्रीणि कटूनि करञ्जफलानि शिशिरेण परिस्रावमबुंदं पिच्चिटं तथा ॥ १४०॥ द्वे च निशे सह सैन्धवकं च बिल्वतरोवरुणस्य च मूलं हल्दी, नीमकी पत्ती, छोटी पीपल, काली मिर्च, नागर. वारिच दशमं प्रवदन्ति ।। १३२ ।। मोथा, वायविडङ्ग व सोंठेका चूर्ण गोमूत्रसे गोली बनानी | चाहिये । तथा बकरेके मूत्रसे आंजना चाहिये । यह हन्ति तमस्तिमिरं पटलं च । |समस्त ज्वरों तथा भूतावेशको नष्ट करती है, जलसे तिमिपिच्चिटशुक्रमथार्जुनकं च रको, शहदसे पटलको, भांगरेसे रतौंधी स्त्रीदूधसे फूली और अञ्जनकं जनरञ्जनकं च ठण्ढे जलसे परिस्राव, अर्बुद तथा पिचिटको नष्ट करती हक्च न नश्यति वर्षशतं च ॥ १३३॥ है ॥ १३८ ॥१४॥ त्रिकटु, कजा, हल्दी, दारुहल्दी, सेंधानमक, बेलकी छाल, वरुणकी छाल, व शंखको पीस वत्ती बना आंखमें लगानेसे गण्डूपदकज्जलम् । अन्धेरापन, तिमिर, पटल, पिचिट, शुक्र, व अर्जुन नष्ट होता संगृह्योपरतानलक्तकरसेनामृज्य गण्डूपदान है । यह अञ्जन मनुष्योंको प्रसन्न करता है । इससे दृष्टि १०० लाक्षारजिततूलवर्तिनिहितान् यष्टीमधून्मिश्रितान् । वर्षतक नहीं बिगड़ती ॥ १३२-१३३ ॥ प्रज्वाल्योत्तमसर्पिषानलशिखासन्तापज कजलं दूरासन्ननिशान्ध्यसर्वतिमिरप्रध्वंसकृच्चोदितम् १४१ नीलोत्पलाद्यञ्जनम् । मरे केचुवोंको ले धो लाखके रससे धो लाखसे रङ्गी रूईकी नीलोत्पलं विडङ्गानि पिप्पली रक्तचन्दनम् । बत्तीमें मौरेठीके साथ लपेट घीसे तर कर अग्निसे जला अञ्जनं सैन्धवं चैव सद्यस्तिमिरनाशनम् ।। १३४॥ कज्जल बनाना चाहिये। यह पुराने व नये दोष तथा दूर या नीलोफर, वायविडङ्ग, पीपल, लालचन्दन, अजन और समीपकान दिखाई देना, रतौंधी और समस्त तिमिरोंको नष्ट सेंधानमकका अञ्जन शीघ्र ही तिमिरको नष्ट करता है ॥१३४॥ करता है ॥ १४१॥ पत्राद्यञ्जनम् । _अङ्गुलियोगः। पत्रगैरिककर्पूरयष्टीनीलोत्पलाञ्जनम् । भूमी निघृष्टयाङ्गुल्या अञ्जनं शमनं तयोः । नागकेशरसंयुक्तमशेषतिमिरापहम् ॥१३५ ।। ] तिमिरकाचार्महरं धूमिकायाश्च नाशनम् ॥ १४१ ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] भाषाटीकोपेतः। (२६७) सन्न्न्न्नन्छ पृथ्वीमें अङ्गुली घिसकर आजनेसे दूर या समीप न सैन्धवयोगः। दिखलाई पड़ना तथा तिमिर, काच और अर्म तथा धूमिका चित्राषष्ठीयोगे सैन्धवममलं विचूर्ण्य तेनाक्षि । नष्ट होते हैं ॥ १४२॥ शममञ्जनेन तिमिरं गच्छति वर्षादसाध्यमपि १४७ नागयोगः। चित्रा नक्षत्र और षष्ठी तिथि जिस दिन हो, उस दिन त्रिफलाभृङ्गमहौषधमध्वाज्यच्छागपयसि गोमत्रे। | सफेद सेंधानमक महीन पीसकर अञ्जन लगाते रहनेसे एक सालमें असाध्य तिमिर भी शान्त होता है ॥१४॥ नागं सप्त निषिक्तं करोति गरुडोपमं चक्षुः ॥१४३।। त्रिफला, भांगरा, सोंठ, शहद, घी, बकरीके दूध, व गोमू उशीराञ्जनम्। त्रमें सात दिनतक भावित शीसा नेत्रको गरुड़के समान उत्तम| दद्यादुशीरनियूहे चूर्णितं कणसैन्धवम् । बनाता है॥ १४३ ॥ तच्छ्रतं सघृतं भूयः पचेत्क्षौद्रं क्षिपेद् घने॥१४८॥ शीते तस्मिन्हितमिदं सर्वजे तिमिरेऽजनम् ।। १४९ शलाकाः। खशके क्वाथमें चूर्ण किया सेंधानमक छोड़े, फिर उसको त्रिफलसलिलयोगे भृङ्गराजद्रवे च घी मिलाकर पकावे, फिर गाढा होजानेपर उतार ठंडा कर शहहविषि च विषकल्के क्षार आजे मधूगे। दके साथ मिलाकर अञ्चन लगावे । यह अजन सर्वज तिमिरके | लिये हितकर है ॥ १४८ ॥ १४९ ॥ प्रतिदिनमथ तप्तं सप्तधा सीसमेक प्रणिहितमथ पश्चात्कारयेत्तच्छलाकाम् १४४] धाच्यादिरसक्रिया। सवितुरुदयकाले साना व्यजना वा धात्रीरसाजनक्षीद्रसपिभिस्तु रसक्रिया करकारकसमेतानर्मपचिट्यरोगान् । । पित्तानिलाक्षिरोगनी तैमिर्यपटलापहा ।।१५०॥ असितसितसमुत्थान्सन्धिवाभिजातान आंवला, रसौंत, शहद व घीकी रसाक्रिया पित्त और हरति नयनरोगान्सेव्यमाना शलाका १४५॥ वातजन्य नेत्ररोग तथा तिमिर और पटलको नष्ट करती है ॥ १५०॥ एक शीसाके टुकड़ेको एक एक चीजमें सात सात बार तपाकर बुझाना चाहिये । बुझानेकी चीजें-त्रिफलाका शृंगवेरादिनस्यम् । काढा, भांगरेका रस, घी, सींगियाका कल्क, क्षार, और शृंगवेरं भंगराजं यष्टीतेलेन मिश्रितम् । बकरीका दूध तथा शहद है । इसके अनन्तर उस नस्यमेतेन दातव्यं महापटलनाशनम् ॥ १५१॥ शीशेकी सलाई बनवानी चाहिये । सूर्य उदयके समय | साठे, भांगरा व मौरेठीको तेलमें मिलाकर नस्य देनेसे यह सलाई अजनके सहित अथवा विना अञ्जनके आंख-1 आख-महापटल नष्ट होता है ॥ १५१॥ में लगानसे करकरी, अर्म, पिचिट, काले भाग या सफेद भाग सन्धि और विनियोंके रोगोंको नष्ट करती। लिङ्गनाशचिकित्सा । है ॥ १४४ ॥ १४५॥ लिङ्गनाशे कफोद्भूते यथावद्विधिपूर्वकम् । विद्ध्वा देवकृते छिद्रे नेत्रं स्तन्येन पूरयत् ॥१२॥ गौञ्जाजनम् । ततो दृष्टेषु रूपेषु शलाकामाहरेच्छनैः। चिञ्चापत्ररसं निधाय विमले चौदुम्बरे भाजने नयनं सर्पिषाभ्यज्य वस्त्रपट्टेन वेष्टयेत् ॥ १५३ ।। मूलं तत्र निघृष्टसैन्धवयुतं गौ विशोण्यातपे। ततो गृहे निराबाधे शयीतोत्तान एव च । तच्चूर्ण विमलाजनेन सहितं नेत्राखने शस्यते उद्गारकासक्षवथुष्ठीवनोत्कम्पनानि च ॥ १५४ ॥ काचार्मार्जुनपिचिटे सतिमिरे स्रावं च निर्वारयेत् ॥ तत्कालं नाचरेदूव॑ यन्त्रणा स्नेहपीतवत् । त्र्यहाव्यहाद्धावयेत्तु कषायैरनिलापहैः ॥ १५५ ॥ इमलीकी पत्तीके रसको स्वच्छ ताम्रके पात्र में रखकर उसीमें| घिसे, सेंधानमकके साथ गुञ्जाकी जड़ रख धूपमें सुखाना वायोर्भयाध्यहादूर्ध्व स्नेहयेदाक्ष पूर्ववत् । चाहिये । इस चूर्णको सफेद सुर्माके साथ मिलाकर आंखमें दशरात्रं तु संयम्य हितं दृष्टिप्रसादनम् ॥ १५६ ॥ लगाना काच, अर्म, अर्जुन, पिचिट और तिमिरमें हितकर है| पश्चात्कम च सवत लम्वन्न चापि मात्रया । तथा स्रावको बन्द करता है ॥ १४६ ॥ रागश्चोषोऽर्बुद शोथो बुबुदं केकराक्षिता ॥१५७ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६८) चक्रदत्तः। [ नेत्ररोगान्चजन्न्न्न्न्न्न् अधिमन्थादयश्चान्ये रोगाः स्युर्दुष्टवेधजाः । । यदि इस प्रकार शूल शान्त न हो, तो स्नेहन स्वेदन कर अहिताचारतो वापि यथास्वं तानुपाचरेन् ॥१५८॥ शिराव्यध करना चाहिये तथा शिरादाह करना चाहिये । रुजायामक्षिरोगे वा भूयो योगान्निबोध मे। इसके बाद नेत्रको शुद्ध करनेवाले अञ्जन कहते हैं॥१६२॥१६३॥ कफजन्य लिंगनाश ( मोतियाबिन्दमें ) विधिपूर्वक देवकृत | मेषशृङ्गयाद्यञ्जनम् । छिद्र ( अपाङ्गकी ओर शुक्लभाग ) में वेधकर नेत्रको स्त्रीदु- मेषशृङ्गस्य पत्राणि शिरीषधवयोरपि । ग्धसे भर देना चाहिये । फिर जब रूप दिखलाई पड़न लगे| मालत्याश्चापि तुल्यानि मुक्तावैदूर्यमेव च ॥१६४॥ तो सलाई धीरेसे निकाल लेनी चाहिये । फिर नेत्रमें घीको चुप अजाक्षीरेण संपिष्य ताने सप्ताहमावपेत् । । डकर कपड़ा लपेट देना चाहिये । फिर बाधारहित घरमें प्रणिधाय तु तद्वति योजयेदञ्जने भिषक् ॥ १६५॥ उत्तान ही सोना चाहिये । वेधके समय डकार, खांसी, थूकना, | मेषङ्गीके पत्ते, सिरसा, धव और चमेलीके पत्ते, तथा छींकना, हिलना आदि बन्द रक्खें, बादमें स्नेहपान करनेवालेके | मोती व लहसुनिया समान भाग ले बकरीके दूधसे घोटकर ७ समान परहेज करे, तथा तीन तीन दिनमें वातनाशक काढोंसे | दिन ताम्रपात्रमें रखना चाहिये, फिर इसकी बत्ती बनाकर धोवे, तथा वायुके भयसे ३ दिनके बाद स्नेहका सिञ्चन पूर्ववत् अञ्जन लगाना चाहिये ॥ १६४ ॥ १६५॥ करे । इस प्रकार दश रात्रि संयम' कर नेत्र स्वच्छ करनेवाला उपाय करे और हल्का अन्न मात्रासे खावे । लालिमा, गरमी, स्रोतोजांजनम् । अर्बुद, शोथ, बुलबुला, केकराक्षिता तथा अधिमन्थ आदि स्रोतोजं विदुमं फेनं सागरस्य मनः शिलाम् । अनेक रोग दुष्ट बेध या मिथ्याहार विहारसे हो जाते हैं, उनकी मारचानि च तद्वति कारयेत्पूर्ववाद्भषक्।।१ ६६ ॥ यथोचित चिकित्सा करे। पीड़ा और लालिमामें आगे कहे | नीला सुरमा, मुंगा, समुद्रफेन, मनशिल व कालीमिर्चकी हुए योग काममें लाने चाहियें ॥ १५२-१५८-॥ बत्ती बनाकर आञ्जना चाहिये ॥ १६६ ॥ रुजाहरलेपाः। रसाञ्जनाञ्जनम् । कल्किताः सघृता दूर्वायवगैरिकशारिवाः ॥१५९॥ रसाजनं घृतं क्षौद्र तालीसं स्वर्णगौरकम् । सुखलेपाः प्रयोक्तव्या रुजारागोपशान्तये । गोशकृद्रससंयुक्तं पित्तोपहतदृष्टये ॥ १६७ ॥ पयस्याशारिवापत्रमञ्जिष्ठामधुकैरपि ॥ १६०॥ रसौत, घी, शहद, तालीसपत्र व सुनहला गेरू इनको गायके अजाक्षीरान्वितैलेपः सुखोष्णः पथ्य उच्यते। |गोबरके रससे पित्तसे दूषित नेत्रवालेको लगाना चाहिये ॥१६७n दूब, यव, गेरू, व शारिवा इनका कल्क कर घीमें मिला | नलिन्यञ्जनम् । कुछ गुनगुना लेप पीड़ा व लालिमाकी शान्तिके लिये करना नलिन्युत्पलकिञ्जल्कं गोशकृद्रससंयुतम् । चाहिये । अथवा क्षीरविदारी, शारिवा, तेजपात, मजीठ व गुडिकाजनमतत्स्यादिनराच्यन्धयोर्हितम् ॥१६८॥ मोरेठी को बकरीके दूधमें पीस गुनगुना लेप हितकर होता कमलिनी, व कमलके केशरकी गायके गोबरके रससे है ॥ १५९ ॥ १६०॥ गोली बनाकर आंखमें लगाना दिन और रात्रि दोनोंकी अन्ध तामें लाभ करता है ॥ १६८॥ घृतम् । नदीजाञ्जनम् । वातनसिद्धे पयसि सिद्धं सर्पिश्चतुर्गुणे ॥ १६१ ॥ नदीजशङ्खत्रिकटून्यथाअनं काकोल्यादिप्रतीवापं प्रयुज्यात्सर्वकर्मसु । मनःशिला द्वे च निशे गवां शकृत् । वातनाशक ओषधियोंसे सिद्ध चतुर्गुण दूधमें सिद्ध घृतको संचन्दनेयं गुडिकाथ चाजने काकोल्यादि चूर्णके साथ मिलाकर सब काममें प्रयुक्त करना | प्रशस्यते रात्रिदिनेष्वपश्यताम् ॥ १६९ ॥ चाहिये ॥ १६१॥ नीला सुरमा, शंख, त्रिकटु, रसौत, मैनाशल, हल्दी, दारु | हल्दी, गोबर व चन्दनकी गोली बनाकर आंखमें लगानेसे शिराव्यधः। पूर्वोक्त गुण करती है ॥ १६९॥ शाम्यत्येवं न चेच्छूल स्निग्धस्विन्नस्य मोक्षयेत् १६२/ कणायोगः। ततः शिरां दहेच्चापि मतिमान्कीर्तितां यथा। कणा च्छागशकृन्मध्ये पक्का तद्रसपेषिता । दृष्टेरतः प्रसादार्थमञ्जने शृणु मे शुभे ॥ १६३ ॥ । अचिराद्धन्ति नक्तान्ध्यं तद्वत्सझौद्रमूषणम् ॥१७॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। - (२६९) न - छोटी पीपल बकरी की लेंडिओंके साथ पका और उसीके यावन्तो नेत्ररोगास्तान्पानादेवापकर्षति । रसमें पीसकर आंखमें लगानेसे अथवा काली मिर्च शहदमें सरक्ते रक्तदुष्टे च रक्त चाति तेऽपि च ॥१०॥ मिलाकर लगानेसे रतौंधी शीघ्रही मिटती है ॥ १७॥ नक्तान्ध्ये तिमिरे काचे नीलिकापटलार्बुदे । गौधयकृद्योगः। अभिष्यन्देऽधिमन्थे च पक्ष्मकोपे सुदारुणे ।। १८१ पचेत्तु गौधं हि यकृत्प्रकल्पितं नेत्ररोगेषु सर्वेषु वातपित्तकफेषु च । प्रपूरितं मागधिकाभिरग्निना । अदृष्टिं मन्ददृष्टिं च कफवातप्रदूषिताम् ॥ १८२॥ निषेवितं तत्सकृदचनेन च स्रवतो वातापित्ताभ्यां सकण्ड्वासन्नदूरदृक् । निहन्ति नक्तान्ध्यमसंशयं खलु ॥ १७१ ॥ गृध्राष्टिकरं सद्यो बलवर्णाग्निवर्धनम् । गोहका यकृत और छोटी पीपल पका गोली बनाकर एक सर्वनेत्रामयं हन्यात्रिफलाद्यं महद् घृतम् ।। १८३॥ बार ही लगानेसे निःसन्देह रतौंधी नष्ट होती है ॥ १७१॥ त्रिफलाका रस एक प्रस्थ, भांगरेका रस १ प्रस्थ, अडूसेका नक्तान्ध्यहरा विविधा योगाः। | रस १ प्रस्थ, शतावरीका रस १ प्रस्थ तथा बकरीका दूध, गुर्चका दना निघृष्टं मरिचं रात्र्यान्ध्याञ्जनमुत्तमम् ।। रस, आंवलेका रस प्रत्येक एक प्रस्थ तथा घी १ प्रस्थ, और ताम्बूलयुक्तं खद्योतभक्षणं च तदर्थकृत् ॥ १७२ ॥ छोटी पीपल, मिश्री, मुनक्का, त्रिफला, नीलोफर, मौरेठी, क्षीरकाकोली, दूध व छोटी कटेरीका कल्क छोड़कर पकाना शफरीमत्स्यक्षारो नक्तान्ध्यं चाञ्जनाद्विनिहन्ति । | चाहिये । ठीक सिद्ध हो जानेपर अच्छे बर्तन में रखना चाहिये। तद्दामठटणकर्णमलं चैकशोऽजनान्मधुना १७३|इसे सबेरे दोपहर व शामको पीना चाहिये । जितने नेत्रकेशराजान्वितं सिद्धं मत्स्याण्डं हन्ति भक्षितम् । रोग होते हैं, उन्हें पानसे ही नष्ट करता है । लाल नक्कान्ध्यं नियतं नृणां सप्ताहात्पथ्यसेविनाम् १७४ | नेत्रोंमें, रक्तदूषित अथवा अधिक बहते हुए नेत्रोंमें, दहीमें घिसी काली मिर्चका रतौंधीमें अञ्जन लगाना| रतौन्धी, तिमिर, काच, नीलिकापटल, अर्बुद, अभिष्यन्द, चाहिये । तथा पानके साथ जुगुनूका खाना भी यही गुण | अधिमन्थ, दारुण पक्ष्मकोप वातपित्तकफजन्य समस्त रोगोंमें करता है । इसी प्रकार छोटी भछलीका क्षार अञ्जन लगानसे | हितकर है। न दिखलाई पड़ना, मन्द दृष्टि कफवातसे दूषित रतौन्धीको नष्ट करता है । अथबा हींग, सुहागा, कानका मैल | हाट का दृष्टि तथा वातपित्तसे बहती हुई दृष्टि, खुजली और समीप व इनमेंसे कोई एक शहदमें मिलाकर लगाना चाहिये। तथा काले दूरका दृष्टिको शुद्ध करता, बल, वर्णको बढ़ाता तथा समस्त भांगरेके साथ सिद्ध मछलीका अण्डा खाने और सात दिनतक नेत्ररोगोंको नष्ट करता है । इसे "महात्रिफलादिघृत" कहते पथ्यसे रहनेसे निःसन्देह रतौंधी नष्ट हो जाती है॥१७२-१७४॥ ह ॥ १७६-१८३॥ त्रिफलाघृतम् । काश्यपत्रफलं घृतम्। त्रिफलाकाथकल्काभ्यां सपयस्कं शृतं घृतम् । त्रिफला त्र्यूषणं द्राक्षा मधुकं कटुरोहिणी । तिमिराण्यचिराद्धन्ति पीतमेतन्निशामुखे ॥ १७५॥ प्रपौण्डरीकं सूक्ष्मैला विडङ्गं नागकेशरम् ॥१८४॥ त्रिफलाके क्वाथ व कल्क तथा दूध मिलाकर सिद्ध घृत नीलोत्पलं शारिवेद्वे चन्दनं रजनीद्वयम् । सायंकाल पीनेसे शीघ्रही तिमिर नष्ट होता है॥ १७५॥ कार्षिकैः पयसा तुल्यं त्रिगुणं त्रिफलारसम् ॥१८५ महात्रिफलाघृतम् । घृतप्रस्थं पचेदेतत्सवेनेत्ररुजापहम् । त्रिफलाया रसप्रस्थं प्रस्थं भृङ्गरसस्य च । तिमिरं दोषमानावं कामलां काचमबुंदम् ॥१८६॥ वृषस्य च रसप्रस्थं शतावर्याश्च तत्समम् ॥ १७६॥ वीसर्प प्रदरं कण्डूं रक्तं श्वयथुमेव च । अजाक्षीरं गुडूच्याश्च आमलक्या रसं तथा । खालित्यं पलितं चैव केशानां पतनं तथा ।।१८७ ॥ प्रस्थं प्रस्थं समाहृत्य सवैरेभिघृतं पचेत् ॥१७७ ॥ विषमज्वरमाणि शुक्रं चाशु व्यपोहति । कल्कः कणा सिता द्राक्षा त्रिफला नीलमुत्पलम् ।। अन्ये च बहवो रोगा नेत्रजा ये च वर्मजाः । मधुकं क्षीरकाकोली मधुपर्णी निदिग्धिका ॥१७८॥ तान्सर्वान्नाशयत्याशु भास्करस्तिमिरं यथा ॥ १८८ तत्साधुसिद्धं विज्ञाय शुभे भाण्डे निधापयेत् । न चैवास्मात्परं किञ्चिदृषिभिः काश्यपादिभिः। ऊर्ध्वपानपधःपान मध्यपानं च शस्यते ॥ १७९ ॥ दृष्टिप्रसादनं दृष्टं यथा स्यात्रैफलं घृतम् ॥१८९॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७०) चक्रदत्तः। [ नेत्ररोगा Frerत्रिफला, त्रिकटु, मुनक्का, मौरेठी, कुटकी, पुण्डरिया, पिप्पल्यःसर्वेषां भागैरक्षांशिकैः पिष्टैः ॥ १९४ ।। छोटी इलायची, वायविडंग, नागकेशर, नीलोफर, शारिवा| तैलं यदि वा सर्पिर्दत्त्वा क्षीरं चतुर्गुणं पक्कम् । काली शारिवा, चन्दन, हल्दी, दारुहल्दी प्रत्येक एक एक तिमिरं पटलं काचं नक्तान्ध्यं चाबुंदं तथान्ध्यं च । तोलेका कल्क घी १२८ तो०, दूध १२८ तोला तथा श्वतं च लिङ्गनाशं नाशयति परं च नीलिकाव्यङ्गम् त्रिफलाका रस ४ सेर ६४ तोला मिलाकर पकाना चाहिये ।। यह समस्त नेत्ररोग तथा तिमिर, बहना, कामला, काच, मुखनासादोर्गन्ध्यं पलितं चाकालर्ज हनुस्तम्भम् । तथा अर्बुद, विसर्प, प्रदर, खुजली, लालिमा, सूजन, बालोंका कासं श्वासं शोषं हिक्कां स्तम्भं तथात्ययं नेत्रे १९६ गिरना, सफेदी, इन्द्रलुप्त, विषमज्वर, अर्म, फूली तथा और मुखरोगमर्धभेदं रोगं बाहुग्रहं शिरःस्तम्भम् । जो अनेक नेत्र या विनियों में रोग होते हैं, उन सबको इस रोगानथोर्ध्वजत्रोः सर्वानचिरेण नाशयति ॥१९७।। प्रकार नष्ट करता है जैसे सूर्य अन्धकारको ।काश्यपादि ऋषियोंने नस्यार्थ कुडवं तैलं पक्तव्यं नृपवल्लभम् । इससे बढ़कर कोई प्रयोग नेत्रोंके लिये लाभदायक नहीं। अक्षांशैः शाणिकः कल्कैरन्ये भृङ्गादितैलवत् १९८ समझा ॥ १८४-१८९ ॥ जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, मुनक्का, सरिवन, कटेरी, तिमिरघ्नत्रफलं घृतम् । बड़ी कटेरी, मौरेठी, खरेटी, वायविडंग मजीठ, शक्कर, राना, फलत्रिकाभीरुकषायसिद्धं नोलोफर, गोखुरू, पुण्डरिया, पुनर्नवा, नमक तथा छोटी पीपल कल्केन यष्टीमधुकस्य युक्तम् । प्रत्येक ३मासेका कल्क तैल अथवा घी १६ तोला, दूध ६४ तो. सर्पिः समं क्षौद्रचतुर्थभागं छोड़कर पकाना चाहिये । यह तिमिर, पटल, काच, नक्तान्ध्य, हन्यात्रिदोषं तिमिरं प्रवृद्धम् ॥ १९० ।।। अर्बुद, अन्धता, लिङ्गनाश, सफेदी, झाई, व्यंग, मुखनासादुगंध तथा अकालपलित, हनुस्तम्भ, कास, श्वास, शोष, हिक्कास्तम्भ त्रिफला, और शतावरीके क्वाथ तथा मोरेठीके कल्कसे सिद्ध सिद्ध | तथा नेत्रात्यय, मुखरोग, अर्धभेद, बाहुकी जकड़ाहट, शिरः बाय मखगग अर्धभेट. बाहकी जकडाहट. घृतमें चतुर्थाश शहद मिलाकर सेवन करनेसे त्रिदोषज तिमिर तामर स्तम्भ तथा ऊर्ध्वजत्रुके समस्त रोग शीघ्रही नष्ट करता है । शान्त होता है ॥ १९० ॥ इसका नस्य लेना चाहिये । इसमें प्रत्येक का कल्क ३ माशे और भृङ्गराजतैलम् । तैल १६ तोला छोड़ना चाहिये । कुछलोग कहते हैं कि मुंगराज तैलके समान बनाना चाहिये ॥ १९३-१९८ ॥ भृङ्गराजरसप्रस्थे यष्टीमधुपलेन च । तैलस्य कुडवं पक्कं सद्यो दृष्टिं प्रसादयेत् । अभिजित्तैलम् । नस्याद्वलीपलितनं मासेनैतन्न संशयः ॥ १९१॥ तैलस्य पचेत्कुडवं मधुकस्य पलेन कल्कपिष्टेन । भाँगरेका रस ६४ तो०, मौरेठीका कल्क ४ तोला, तैल १६| आमलकरसप्रस्थं क्षीरप्रस्थेन संयुतं कृत्वा ॥१९९॥ तो० पकाकर नस्य लेनेसे झुर्रियाँ और बालोंकी सफेदी नष्ट आभिजिन्नाम्ना तैलं तिमिर हन्यान्मुनिप्रोक्तम् । करता तथा नेत्र उत्तम बनाता है ॥ १९१ ॥ विमलां कुरुते दृष्टिं नष्टामप्यानयेदिदं शीघ्रम् २०० तैल १६ तोला, मारेठी ४ तो०, आंवलेका रस ६४ तो. गोशकृत्तलम् । व दूध ६४ तो० मिलाकर पकाना चाहिये । इसका नस्य गवां शकृत्वाथविपक्कमुत्तम | तिमिरको नष्ट करता तथा दृष्टिको स्वच्छ करता है । इसे “ अभिहितं च तैलं तिमिरेषु नस्ततः । जित्तल' कहते हैं ॥ १९९ ॥ २० ॥ घृतं हितं केवलमेव पैत्तिके तथाणुतैलं पवनामृगुत्थयोः ।। १९२ ॥ अर्मचिकित्सा। गायके गोबरके क्वाथसे पकाया तैल नस्य लेनेसे तिमिरको अर्म तु छेदनीयं स्यात्कृष्णप्राप्तं भवेद्यदा । शान्त करता है। पैत्तिकमें केवल घृत तथा वातरक्तजमें अणुतैल बाडशावद्धमुन्नम्य त्रिभागं चात्र वर्जयेत् ॥२०१॥ हितकर है ॥ १९२ ॥ पिप्पलीत्रिफलालाक्षालोहचूर्ण ससैन्धवम् । भृङ्गराजरसे पिष्टं गुडिकाअनभिष्यते ॥२०२ ॥ नृपवल्लभतैलम् । अर्म सतिमिरं काचं कण्डूं शुक्रं तदर्जुनम् । जीवकर्षभको मेदे द्राक्षांशुमती निदिग्धिका बृहती ।। अजकां नेत्ररोगांश्च हन्यान्निरवशेषतः ॥ २०३ ॥ मधुकं बला विडङ्गं मञ्जिष्ठा शर्करा रास्ना ।।१९३॥| अर्म जब काले भागमें पहुंच जाय, तब बशिसे पकड़ उन्न. नीलोत्पलं श्वदंष्ट्रा प्रपौण्डरीकं पुनर्नवा लवणम् । |मित कर ३ भाग छोड़कर काटना चाहिये । तथा छोटी पीपल Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (२७१) त्रिफला, लाख, लोहचूर्ण व सेंधानमकको भांगरेके रसमें पीसकर उपनाहचिकित्सा । गुटिकाजन बनाना चाहिये । यह अर्म, तिमिर, काच, खुजली भित्त्वोपनाहं कफजं पिप्पलीमधुसन्धवैः। • फूली, अर्जुन, अजका और समस्त नेत्ररोगोंको नष्ट | विलिम्पेन्मण्डलाण प्रच्छयेद्वा समन्ततः॥ २१०॥ करता है ॥ २०१-२०३॥ कफज-उपनाहका भेदन कर छोटी पीपल, शहद व सेंधापुष्पादिरसक्रिया। नमकका लेप करना चाहिये । अथवा मण्डलाग्रशस्त्रसे लगाना चाहिये ॥२१॥ पुष्पाख्यताय॑जसितोदधिफेनशङ्खसिन्धूत्थगैरिकशिलामरिचैः समांशैः। __ फलबीजवतिः। पिष्टैश्च माक्षिकरसेन रसक्रियेयं पथ्याक्षधात्रीफलमध्यबीजैहन्त्यमकाचतिमिरार्जुनवर्मरोगान् ॥२०४॥ स्त्रिद्वयेकभागैर्विदधीत वर्तिम् ।। तयाञ्जयेदश्रुमतिप्रगाढपुष्पकासीस, रसौत, मिश्री, समुद्रफेन, शंख, सेंधानमक, गेरू, मनशिल व काली मिर्च समान भाग ले शहदमें घोटकर __ मक्ष्णोहरेत्कष्टमपि प्रकोपम् ॥ २११ ।। बनायी गयी रसक्रिया अर्म, काच, तिमिर, अर्जुन और वर्म- आँवलेकी मींगी १ भाग, बहेड़ाकी मांगी २ भाग, हरोंकी रोगोंको नष्ट करती है ॥ २०४॥ मींगी ३ भाग पीसकर बत्ती बनानी चाहिये । इससे अजन लगानेसे गाढे आँसुओंका आना आदि नेत्र कष्ट नष्ट होता शुक्तिकाचिकित्सा । है ॥२११॥ कौम्भस्य सर्पिषः पानविरेकालेपसेचनैः। त्रिफलायोगाः। स्वादुशीतैः प्रशमयेच्छुक्तिकामजनस्ततः ।। २०५॥ स्रावेषु त्रिफलाकाथं यथादोषं प्रयोजयेत् । प्रवालमुक्तावदर्यशङखस्फाटिकचन्दनम। क्षौद्रेणाज्येन पिप्पल्या मिश्रं विध्येच्छिरां तथा२१२ सुवर्णरजतं क्षौद्रमजन शुक्तिकापहम् ॥ २०६ ॥ त्रिफलामूत्रकासीससैन्धवैः सरसाजनैः । दश वर्षका पुराना घृत पिलाकर तथा विरेचन, लेप व सेक | रसक्रिया क्रिमिग्रन्थी भिन्ने स्याप्रतिसारणम्।।२१३ और मीठे, ठण्डे पदार्थ तथा अजनसे शुक्तिका शान्त करनी| चाहिये । तथा मूंगा, मोती, लहसुनिया, शंख, स्फटिक, चन्दन, सावों में दोषोंके अनुसार त्रिफला क्वाथका प्रयोग शहद, घी, सोना, चाँदी और शहदका अञ्जन शुक्तिकाको नष्ट करता तथा तथा छोटी पीपल मिलाकर करना चाहिये । तथा शिराव्यध है ॥ २०५ ॥२०६॥ करना चाहिये । क्रिमिग्रन्थिका भेदन कर त्रिफला, गोमूत्र, कासीस, सेंधानमक व रसौतकी रसक्रिया कर लगाना अर्जुनचिकित्सा। चाहिये ॥२१२॥२१३॥ शङ्खः क्षोद्रेण संयुक्तः कतकः सैन्धवेन वा।। ___ अञ्चननामिकाचिकित्सा । सितयाणवफेनो वा पृथगञ्जनमर्जुने ॥ २०७ । । स्विन्नां भित्त्वा विनिष्पीड्य भिन्नामञ्जननामिकाम् । पैत्तं विधिमशेषेण कुर्यादर्जुनशान्तये ॥२०८ ॥ शिलैलानतसिन्धूत्थः सक्षौद्रेःप्रतिसारयेत् ॥२१४॥ अर्जनमें शंखको पीसकर शहद के साथ अथवा निर्मलीको रसाजनमधुभ्यां च भिन्नां वा शस्त्रकर्मवित् । पीसकर सेंधानमकके साथ अथवा समुद्रफेनको मिश्रीके साथ प्रतिसार्या जनयुज्यादुष्णेदर्दीपशिखोद्भवैः ॥२१५॥ नेत्रमें लगाना चाहिये । तथा समग्र पेत्तिक विधि अर्जुनमें करनी चाहिये ॥२०७॥ २०८॥ स्वेदयेद् घृष्टयाङ्गुल्या हरेद्रक्तं जलौकसा। रोचनाक्षारतुत्थानि पिप्पल्यः क्षौद्रमेव च ॥२१६॥ पिष्टिकाचिकित्सा। प्रतिसारणमेकैकं भिन्नेन गण इष्यते । वैदेही श्वेतमारचं सैन्धवं नागरं समम्। । अञ्जननामिकाका स्वेदन, भेदन कर शुद्ध होनेपर मन:शिला, मातुलुङ्गरसःपिष्टमञ्जनं पिष्टिकापहम् ॥२०९॥ इलायची, तगर, व सेंधानमकके चूर्णको शहद मिलाकर लगाना छोटी पीपल, सहिजनके बीज, सेंधानमक व सोंठ समान भाग चाहिये । तथा अञ्जननामिका फूट जानेपर रसौंत और ले बिजौरे निम्बूके रसमें पीसकर बनाया पर्छने गया अजन पिटि-शहद लगाकर गरम दीपशिखाका अञ्जन लगाना चाहिये । काको नष्ट करता है ॥ २०९॥ और अंगुलीको गदोरी पर घिसकर लगाना चाहिये। तथा Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७२) चक्रदत्तः। [ नेत्ररोगा - - wwwrarianwwwwner-wroor जोंक लगाकर खून निकालना चाहिये । गोरोचन, क्षार, तूतिया | ताम्रपात्रेऽजनं घृष्टं पिल्ले प्राक्लिन्नवमनि । छोटी पीपल, शहद इनमेंसे कोई एक प्रतिसारणमें उत्तम ताम्रपात्रे गुहामूलं सिन्धूत्थं मरिचान्वितम्।।२२६।। है ॥ २१४-२१६॥ आरनालेन संघष्टमञ्जनं पिल्लनाशनम् । निमिषविसग्रन्थिचिकित्सा। रसात, राल, चमेलीके फूल, मैनशिल, समुद्रफेन, नमक, निमिषे नासया पेयं सर्पिस्तेन च पूरणम ॥२१७॥ गेरू, व काली मिर्च समान भाग ले शहदमें मिलाकर प्रक्लिन्न स्वेदयित्वा बिसग्रन्थि छिद्राण्यस्य निराश्रयम। वत्ममें अञ्जन लगानेसे गीलापन, खुजली नष्ट करता व विनि योंको जमाता है। तथा चुलकी ( मछली ) की हड्डी, पकं भित्त्वा तु शस्त्रेण सैन्धवेनावचूर्णयेत्॥२१८॥ | काजी व नमकके साथ ताम्रके बर्तन में अञ्जन घिसकर पिल्ल निमिषमें नासिकासे घी पीना तथा घीसे ही नेत्र भरना तथा प्रक्लिनवममें लगाना चाहिये । इसी प्रकार पिठिवनकी चाहिये । बिसग्रन्थिका स्वेदन कर पकनेपर भेदनद्वारा साफ कर जड़, सेंधानमक व काली मिर्च काजीमें ताम्रपात्रमें ७ दिन घिससेंधानमक लगाना चाहिये ॥२१७ ॥ २१८ ॥ कर आँखमें लगाना पिल्लको नष्ट करता है ॥२२३-२२६ ॥पिल्लचिकित्सा । हरिद्रादिवर्तिः। वविलेखं बहुशस्तद्वच्छोणितमोक्षणम् ।। हरिद्रे त्रिफला लोधं मधुकं रक्तचन्दनम् ॥ २२७॥ पुनःपुनर्विरेकं च पिल्लरोगातुरो भजेत् ॥ २१९ ॥ भृङ्गराजरसे पिष्ट्वा घर्षयेल्लोहभाजने । पिल्ली स्निग्धो वमेत्पूर्व शिरां विद्धयेत् स्रुतेऽसृजि । तथा ताने च सप्ताहं कृत्वा वर्ति रजोऽथवा।।२२८।। शिलारसाजनव्योषगोपित्तश्चक्षुर जयेत् ॥ २२०॥ पिचिटी धूमदर्शी च तिमिरोपहतेक्षणः । हरितालवचादारुसुरसारसपेषितम् । । प्रातर्निश्यञ्जयेन्नित्यं सर्वनेत्रामयापहम् ।। २२९ ।। अभयारसपिष्टं वा तगरं पिल्लनाशनम् ॥ २२१ ।।। हल्दी, दारुहल्दी, त्रिफला, लोध, मौरेठी व लालचन्दनको पिल्लरोगमें बार बार विनियोंका खुरचना, फस्तका खोलना भांगरेके रसमें पीसकर लोहेके बर्तनसें घिसना चाहिये । फिर तथा बार वार विरेचन लेना चाहिये । तथा पहिले स्नेहन | सात दिन तांबेके बर्तन में रखकर बत्ती बना लेनी चाहिये। कर वमन करना चाहिये, फिर शिराव्यध कर रक्त निकल जाने-अथवा चूर्ण रखना चाहिये । इसका प्रातः और सायंकाल अञ्जन पर मनशिल, रसौंत, त्रिकटु व गोरोचनसे अजन लगाना चाहिये। लगानेसे पिचिट, धूमदर्शन, तिमिर आदि समस्त नेत्र राग शान्त इसी प्रकार तुलसीके रसमें पीसे हरिताल, बच, देवदारु | होते हैं ॥ २२७-२२९ ॥ अथवा हर्रके रसमें पीसा तगर, लगानेसे पिल्ल नष्ट होता| मञ्जिष्ठाद्यञ्जनम्। है॥२१९-२२१॥ मञ्जिष्ठामधुकोत्पलोदधिकफत्वक्सेव्यगोरोचनाधूपः। मांसीचन्दनशइखपत्रागिरिमृत्तालीसपुष्पाजनैः । भावितं बस्तमूत्रेण सस्नेहं देवदारु च । सँवरेव समांशमञ्जनभिदं शस्तं सदा चक्षुषोः काकमाचीफलेकेन घृतयक्तेन बद्धिमान् ॥ २२२॥ कण्डूक्लेदमलाश्रुशोणितरुजापिल्लामशुक्रापहम्२३०॥ धूपयेपिल्लरोगात पतन्ति क्रिमयोऽचिरात् । मजीठ, मौरेठी, नीलोफर, समुद्रफेन, दालचीनी, खश, गोरोबकरेके मूत्रसे भावित स्नेहके सहित देवदारु, अथवा घीके चन, जटामासी, चन्दन, शंख, तेजपात, गेरू, तालीशपत्र, सहित मकोयके फलकी धूप देनेसे पिल्ल रोगके कीड़े गिर काशीस तथा रसात सब समान ले अञ्जन लगाना आंखोंको जाते हैं ॥ २२२ ॥ हितकर तथा कण्डू, गीलापन, मल, आंसू तथा रक्तदोष, पिल्ल, अर्म और शुक्रको नष्ट करता है ॥२३०॥ प्रक्लिन्नवर्त्मचिकित्सा। रसाञ्जनं सर्जरसो जातीपुष्पं मनःशिला ॥२२३॥ तुत्थकादिसेकः। समुद्रफेनो लवणं गैरिकं मारचानि च। तुत्थकस्य पलं श्वेतमरिचानि च विंशतिः। एतत्समांशं मधुना पिष्टं प्रक्लिन्नवमनि ॥२२४ ।। त्रिंशता काजिकपलै: पिष्ट्वा ताने निधापयेत्॥२३१ अञ्जनं क्लेदकण्डूनं पक्ष्मणां च प्ररोहणम् । पिल्लानपिल्लान्कुरुते बहुवर्षोत्थितानपि । मस्तकास्थि चुलुक्यास्तु तुषोदलवणान्वितम् ॥२२५) तत्सेकेनोपदेहाश्रुकण्डूशोथांश्च नाशयेत् ।। २३२॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकोपेतः । धिकारः ] तूतिया ४ तो ० सहिजनके बीज २०, काजी १॥ सेरमें मिलाकर ताम्रके बर्तन में रखना चाहिये । इसके सिञ्चनसे पुराने पिल्ल दूर होते हैं तथा उपदेह, आंसू, खुजली और सूजन नष्ट होती है ॥ २३१ ॥ २३२ ॥ पक्ष्मोपरोधचिकित्सा । याप्यः पक्ष्मोपरोधस्तु रोमोद्धरणलेखनैः । वर्त्मन्युपचितं लेख्यं स्राव्यमुत्कृिष्टशोणितम्॥२३३॥ प्रवृद्धान्तर्मुखं रोम सहिष्णोरुद्धरेच्छनैः । संदंशेनोद्धरेद् दृष्टयां पक्ष्मरोमाणि बुद्धिमान् ॥ २३४ रक्षन्नक्षि दहेत्पक्ष्म तप्तहेमशलाकया । पक्ष्मरोगे पुननैवं कदाचिद्रोमसंभवः ॥ २३५ ॥ पक्ष्मोपरोध याप्य होता है, इसमें रोमों का उद्धरण तथा लेखन करते रहना चाहिये । विनी में इकट्ठा रक्त खुरचना चाहिये तथा बहुत बढ़ा रक्त निकाल देना चाहिये । अन्तर्मुख बढे रोवें धीरे धीरे चिमटी से सहिष्णु पुरुषके उखाड़ देने चाहिये | आंख को बचाते हुए गरम सोनेकी सलाईसे जला देना चाहिये । इससे फिर रोम नहीं जमते ॥ २३३-२३५ ॥ लेख्यभेद्य रोगाः । उत्सङ्गिनी बहुलकर्दमवर्त्मनी च श्यावं च यच्च पठितं त्विह बद्धव । निं च पोथकयुतं त्विह वर्त्म यच्च कुम्भीकिनी च सह शर्करयावलेख्याः ।। २३६ श्लेष्मोपनाहलगणौ च बिसं च भेद्यो प्रथिश्च यः क्रमिकृतोऽञ्जननामिका च ॥ २३७ ॥ उत्संगिनी, बहुलवर्त्म, कर्दम, श्याव, बद्धवर्त्म, क्लिन्न, पोथकी, कुम्भीकिनी, व शर्करा, इनका अवलेखन करना चाहिये । तथा श्लेष्मरोग, उपनाह, विसग्रंथि, क्रिमिग्रंथि और अञ्जननामिकाका भेदन करना चाहिये ॥ २३६ ॥ २३७ ॥ (२७३ ) कफानाहको बार बार घी व सेंधानमक के चूर्णसे लेप करना अथवा मण्डलाग्र से पछने लगाने चाहिये । तथा परवल व आंवले के काथसे आश्च्योतन विधि हितकर है तथा देवना और लहसुन के रससे पोथकी नष्ट होती है । आनाहपिड़िकाका स्वेदन कर तिरछा भेदन करना फिर अग्निसे जलाना चाहिये । अर्शोवर्त्म तथा शुष्कार्श और अर्बुदको तीक्ष्ण मण्डलाप्रसे धीरेसे मूलसे काढ | देना चाहिये । सेंधानमक, छोटी पीपल, कूठ, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, मुद्रपर्णी, माषपर्णी और त्रिफलाके रस तथा सुरामण्ड बनायी बत्ती श्लेष्माभिष्यन्द, पोथकी, वत्र्मोपरोध क्रिमिप्रथि और कुकूणकको नष्ट करती है ॥ २३८-२४२ ॥ इति नेत्ररोगाधिकारः समाप्तः । अथ शिरोरोगाधिकारः । कफानाहादिचिकित्सा | घृतसैन्धवचूर्णेन कफानाहं पुनः पुनः । विलिम्पेन्मण्डलाग्रेण प्रच्छयेद्वा समन्ततः ॥ २३८॥ पटोलामलकक्वाथैराश्च्योतनविधिर्हितः । फणिजकर सोनस्य रसैः पोथकिनाशनः ॥ २३९ ॥ आनाहपिडकां स्विन्नां तिर्यग्भित्त्वाभिना दहेत् । अर्शस्तथा वर्त्म नाम्ना शुष्कार्शोऽर्बुदमेव च २४०॥ मण्डलाग्रेण तीक्ष्णेन मूले छिन्द्याद्भिषक् शनैः । सिन्धूत्थपिप्पली कुष्ठपर्णिनीत्रिफलारसैः ॥ २४९ ॥ सुरामण्डेन वर्तिः स्याच्छ्लेष्माभिष्यन्दनाशिनी । वमपरोधे पोथक्यां क्रिमिमन्थी कुकूणके || २४२|| वातिक चिकित्सा वातिके शिरसो रोगे स्नेहस्वेदान्सनावनान् । पानान्नमुपहारांश्च कुर्याद्वातामयापहान् ॥ १ ॥ कुष्ठमेरण्डतैलं च लेपात्काञ्जिकपेषितम् । शिरोऽर्ति नाशयत्याशु पुष्पं वा मुचुकुन्दजम् ॥२॥ पञ्चमूलीशृतं क्षीरं नस्ये दद्याच्छिरोगदे । वातज शिरोरोगमें नस्य, स्नेहन, स्वेदन, पान, अन्नभोजन आदि वातनाशक करने चाहियें । कूठ व एरण्डतैल काजी में पीसकर लेप करनेसे अथवा मुचकुंदके फूलका लेप करनेसे शिरोऽर्ति नट होती है । तथा पञ्चमूलसे सिद्ध दूधका नस्य देने से शिरोऽर्ति शान्त होती है ॥ १ ॥ २ ॥ शिरोवस्तिः । आशिरो व्यायतं चर्म कृत्वाष्टांगुलमुच्छ्रितम् ॥ ३॥ तेनावेष्टय शिरोऽधस्तान्माषकल्केन लेपयेत् । निश्चलस्योपविष्टस्य तैलैरुष्णैः प्रपूरयेत् ॥ ४ ॥ धारयेदारुजः शान्तेर्यामं यामार्धमेव वा । शिरोबस्तिर्जयत्येष शिरोरोगं मरुद्भवम् ॥ ५ ॥ हनुमन्याक्षिकर्णार्तिमर्दितं मूर्धकम्पनम् । तैलेनापूर्य मूर्धानं पञ्चमात्राशतानि च ॥ ६ ॥ तिष्ठेच्छ्लेष्माणि पित्तेऽष्टौ दश वाते शिरोगदी । एष एव विधिः कार्यस्तथा कर्णाक्षिपूरणे ॥ ७ ॥ शिरके बराबर लम्बा तथा आठ अंगुल ऊँचा चर्म लेकर शिरमें लपेटना चाहिये | नीचे उड़दके कल्कका लेप करना चाहिये । फिर सीधा बैठाल कर गुनगुने तैलसे भर देना चाहिये और जबतक पीड़ा शांत न हो, तबतक १॥ घण्टेसे ३ घण्टे क Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७४ ) रखना चाहिये । यह शिरोबस्ति वातज शिरोरोग, हनु, मन्या, कान व नेत्रकी पीड़ा, अर्दित, शिरका कम्पना आदि नष्ट करती है । सामान्य दशा में तैलसे शिर भरकर कफमें ५०० मात्रा उच्चारण काल पित्त ८०० और वातमें १००० मात्रा उच्चारण तक रखना चाहिये । यही विधि कान और आंख में भरनेकी है ॥ ३-७ ॥ चक्रदत्तः । पैत्तिक में घी व दूधका सिञ्चन, नस्य तथा शीतल लेप जीवनीय घृत तथा पित्तनाशक भोजन व पानका प्रयोग करना चाहिये । तथा ठीक स्नेहन कर विरेचन देना चाहिये । विरेचनके लिये मुनक्का, त्रिफला, ईखका रस, दूध और घृतका प्रयोग करना चाहिये । तथा १०० बार धोये घीकी मालिश, शीतवायु सवन, शीत स्पर्श सदा दाह और पीड़ाकी शान्ति के लिये करना चाहिये । तथा चन्दन, खश, मौरेठी, खरेटी, कटेरी, नख, नीलोफर, दूध में पीसकर लेप करना चाहिये । अथवा काथ बना ठण्डा कर सिञ्चन करना चाहिये । इसी प्रकार शीतल वहयुक्त कमलकी डण्डी, कमलके तन्तु, भैंसीड़ा, चन्दन, नीलाफर व कमलके केशरका अथवा आंवला और नीलोफरका लेप करना चाहिये ॥ ८-१२ ॥ [ शिरोरोगा पैत्तिकचिकित्सा । पैत्ते घृतं पयःसेकाः शीतलेपाः सनावनाः । जीवनीयानि सर्पषि पानान्नं चापि पित्तनुत् ॥८॥ पित्तात्मके शिरोरोगे स्निग्धं सम्यग्विरेचयेत् । मृद्वीका त्रिफलेक्षूणां रसैः क्षीरैर्धृतैरपि ॥ ९ ॥ शतधौत घृताभ्यङ्गः शीतवातादिसेवनम् । शीतस्पर्शाश्च संसेव्याः सदा दाहार्तिशान्तये ॥ १० चन्दनोशीरयष्टयाह्नबलाव्याधीनखोत्पलैः । क्षीरपिष्टैः प्रदेहः स्याच्छृतैर्वा परिषेचनम् ॥ ११ मृणाल बिशालूकचन्दनोत्पलकेशरैः । स्निग्धशीतैः शिरो दिद्यात्तद्वदामलकोत्पलैः ॥ १२॥ कफजे लङ्घनं स्वेदो रूक्षोष्णैः पाचनात्मकैः । तीक्ष्णा पीडा धूमाच तीक्ष्णाश्च कवला हिता: १६ ॥ अच्छं च पाययेत्सर्पिः पुराणं स्वेदयेत्ततः । मधूकसारेण शिरः स्विन्नं चास्य विरेचयेत् ॥ १७ ॥ कफज में लंघन, रूक्ष उष्ण तथा पाचनात्मक पदार्थोंसे स्वेदन, तीक्ष्ण नस्य, तीक्ष्ण धूम तथा कवल हितकर है। अकेले पुराना घी पिलाकर स्वेदन करना चाहिये फिर महुआके सारसे शिरोविरेचन करना चाहिये ॥ १६ ॥ १७ ॥ | ॥ कृष्णादिलेप: । नस्यम् । यष्टयाह्नचन्दनानन्ताक्षीरसिद्धं घृतं हितम् । नावनं शर्कराद्राक्षामधुकैर्वापि पित्तः ॥ १३ ॥ त्वक्पत्रशर्करापिष्टा नावनं तण्डुलाम्बुना 1 क्षीरसर्पिर्हितं नस्यं रसा वा जाङ्गला शुभाः || १४ || मोरेठी, चन्दन, बासा, और दूधसे सिद्ध घृत अथवा शक्कर मुनक्का व मौरेठीसे सिद्ध घृतका नस्य पैत्तिकमें देना चाहिये । अथवा दालचीनी, तेजपातका शक्करको पीसकर चावल के धोवनके साथ नस्य लेना अथवा दूध व घीका नस्य अथवा जांगल प्राणियों के मांसरसका नस्य लेना चाहिये ॥ १३ ॥ १४ ॥ रक्त चिकित्सा | रक्तजे पित्तवत्सर्वं भोजनालेपसेचनम् । शीतोष्णयोश्च व्यत्यासो विशेषो रक्तमोक्षणम् १५ ॥ रक्तज में पित्तके समान ही सब भोजन आलेप और सेचन करना चाहिये। व उष्ण प्रयोग बदल बदल करना चाहिये । तथा रक्तमोक्षण करना चाहिये ॥ १५ ॥ कफजचिकित्सा | कृष्णान्दशुण्ठीमधुकशताह्वोत्पलपाकलेः । जलपिष्टैः शिरोलेपः सद्यः शूलनिवारणः । १८ ॥ छोटी पीपल, नागरमोथा, सोंठ, मौरेठी, सौंफ, नीलोफर और कूठको जलमें पीसकर लेप करने से शीघ्र ही सिरदर्द शान्त होता है ॥ १८ ॥ देवदार्वादिलेपः । देवदारु नतं कुष्ठं नलदं विश्वभेषजम् । लेपः काञ्जिकसंपिष्टस्तैलयुक्तः शिरोऽर्तिनुत् ॥ १९ ॥ देवदारु, तगर, कूठ, जटामांसी व सोंठको काजीमं पीस तैल मिलाकर लेप करना सिरदर्दको शान्त करता है ॥ १९ ॥ सन्निपातज चिकित्सा । सन्निपातभवे कार्या दोषत्रयहरी क्रिया । सर्पिष्पानं विशेषेण पुराणं त्वादिशन्ति हि ॥ २०॥ सन्निपातजमें त्रिदोषनाशक चिकित्सा करनी चाहिये । तथा विशेषकर पुराना घी पिलाना उत्तम है ॥ २० ॥ किट्वादिकाथनस्यम् । त्रिकटुकपुष्कररजनीरास्नासुरदारुतुरगगन्धानाम् । काथः शिरोऽर्तिजालं नासापीतो निवारयति ॥ २१ ॥ त्रिकटु, पोहकरमूल, हल्दी, रासन, देवदारु व असगन्धका काथ नासिकासे पीनेसे शिरकी पीड़ाको नष्ट करता है ॥ २१ ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः । अपरं नस्यम् । । नागर कल्कविमिश्रं क्षीरं नस्येन योजितं पुंसाम् नानादोषोद्भूतां शिरोरुजं हन्ति तीव्रतराम् ॥ २२॥ सोंठके कल्कसे मिले दूधका नस्य लेनेसे त्रिदोषज शिरःशूल नष्ट होता है ॥ २२ ॥ लेपाः । नतोत्पलं चन्दनकुष्ठयुक्त शिरोरुजायां सघृतः प्रदेहः । प्रपौण्डरीकं सुरदारुकुष्ठं यष्ठयाह्नमेला, कमलोत्पले च । शिरोरुजायां सघृतः प्रदेहो छोरकापद्मकचोरकैश्च ॥ २३ ॥ तगर, नीलोफर, चन्दन व कूठ, घीके साथ अथवा पुण्डरिया, देवदारु, कूठ, मौरेठी, इलायची, कमल व नीलोफर घीके साथ अथवा तगर, रोहिष, पद्माख और मटेडका लेप घी के साथ त्रिदोषज शिरदर्दको शान्त करता है ॥ २३ ॥ शताह्नाद्यं तैलम् । शता रण्डमूलोमा वक्त्रव्याघ्रीफलेः शृतम् । तैलं नस्यं मरुच्छ्लेष्मतिमिरोर्ध्व गदापहम् ॥ २४ ॥ सौंफ, एरण्डकी जड़, बच, तगर और कटेरीके फलोंसे सिद्ध तैलके नस्य लेनेसे वायुकफजन्य तिमिर तथा शिरोरोग नष्ट होते हैं ॥ २४ ॥ जीवकादितैलम् । जीवकर्षभकद्राक्षासितायष्टी बलात्पलैः । तैलं नस्यं पयः पक्कं वातपित्तशिरोगदे ॥ २५ ॥ जीवक, ऋषभक, मुनक्का, मिश्री, मोरेठी, खरेटी व नीलोफरके कहक तथा दूध मिलाकर सिद्ध तैल नस्य लेने से वातपित्तज शिरोरोग शान्त करता है ॥ २५ ॥ (२७५) जीवक, ऋषभक, मुनक्का, मोरेठी, महुआ, खरेटी, नीलोफर, चन्दन, विदारीकन्द व शक्करके कल्क तथा ६ गुने दूधमें तथा जाङ्गल मांस २॥ सेरके रस तैल सिद्ध करना चाहिये । यह तैल नस्यसे अर्धावभेदक, बाधिर्य, कानके दर्द, तिमिर, गलझुण्डी, वातिक, नैतिक, शिरोरोग, दांतोंके हिलने और अर्दितरोगको नष्ट करता है ॥ २६-२९ ॥ तैलप्रस्थं पचेदेभिः शनैः पयसि षड्गुणे । जाङ्गलस्य तु मांसस्य तुलार्धस्य रसेन तु ॥ २६ ॥ सिद्धमेतद्भवेन्नस्यं तैलमर्धावभेदकम् । बाधिर्यं कर्णशूलं च तिमिरं गलशुण्डिकाम् ॥ २८ ॥ वातिकं पैत्तिकं चैव शीर्षरोगं नियच्छति । दन्तचालं शिरःशूलमर्दितं चापकर्षति ॥ २९ ॥ षडुबिन्दुतैलम् । एरण्डमूलं वगरं शताह्ना जीवन्ति राना सह सैन्धवं च । भृङ्गं विडङ्गं मधुयष्टिका च विश्वौषधं कृष्णतिलस्य तैलम् ॥ ३० ॥ आज पयस्तैलविमिश्रितं च चतुर्गुणे भृङ्गरसे विपकम् । षड् बिन्दवो नासिकया विधेयाः शीघ्रं निहन्युः शिरसो विकारान् ॥ ३१ ॥ शुभ्रांश्च केशांश्चलितांश्च दन्तान् दुर्बद्धमूलांश्च दृढीकरोति । सुपर्णदृष्टिप्रतिमं च चक्षु बह्वोर्बलं चाभ्यधिकं ददाति ।। ३२ ।। एरण्डकी जड़, तगर, सौंफ, जीवन्ती, रास्ना, संधानमक भांगरा, वायबिडङ्ग, मौरेठी, सौंठ, काले तिलोंका तैल, बकरीका दूध तैलके तथा तैलसे चतुर्गुण भांगरेका रस मिलाकर पकाना चाहिये । इसके ६ बिन्दु नाक में डालनेसे शीघ्रही शिरोरोग नष्ट होते, सफेद बाल काले होते तथा हिलते दांत मजबूत होते हैं । और गरुड़ के समान दृष्टि तथा बाहुओं में बलकी वृद्धि | होती है ॥ ३०-३२ ॥ क्षयजचिकित्सा | क्षयजे क्षयमासाद्य कर्तव्यो बृंहणो विधिः । पाने नस्ये च सर्पिः स्याद्वातन्नैर्मधुरैः शृतम् ॥३३॥ क्षयजमें क्षयका निश्चय कर बृंहणविधि करनी चाहिये । तथा पीने व नस्यके लिये वातनाशक मीठे पदार्थोंसे सिद्ध कर घीका बृहज्जीवकाद्यं तैलम् । वर्षको द्राक्षा मधूकं मधुकं बला । नीलोत्पलं चन्दनं च विदारी शर्करा तथा ॥ २६ ॥ प्रयोग करना चाहिये ॥ ३३ ॥ क्रिमिजचिकित्सा | क्रिमिजे व्योषनक्ताह्नशिबीजैश्च नावनम् । अजामूत्रयुतं नम्यं क्रिमिजे क्रिमिजित्परम् ॥ ३४॥ क्रिमिजमें त्रिकटु, कजा व सहिजनके बीजोंको बकरीके | मूत्रमें मिलाकर नस्य देनस क्रिम नष्ट होते हैं ॥ ३४ ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७६) चक्रदत्तः। [ शिरोरोगा ___ अपामार्गतैलम् । दशमूलप्रयोगः। अपामार्गफलव्योषनिशाक्षारकरामठैः।। दशमूलीकषायं तु सर्पिःसैन्धवसंयुतम् । सविडङ्गं शृतं मूत्रे तैलं नस्यं क्रिमि जयेत् ॥३५॥ नस्यमर्धावभेदन्नं सूर्यावर्तशिरोतिनुत् ॥ ४१ ॥ अपामार्गके बीज, त्रिकटु, हल्दी, क्षार, हिंगु व वायविडङ्गके | दशमूलके क्वाथका घी व संधानमक मिलाकर नस्य लेनेसे गोमूत्रस सिद्ध तेलक नस्य दनेसे क्रिमियाँको नष्ट |अर्धावभेद, सूर्यावर्त और शिरदर्द रोग नष्ट होते हैं ॥४१ ॥ करता है ॥३५॥ अन्ये प्रयोगा। __नागरादियोगी। शिरीषमूलकफलैरवपीडं च योजयेत् । नागरं सगुडं विश्वं पिप्पली वा ससैन्धवा। अवपीडो हितो वा स्याद्वचापिप्पलिभिः शृतः॥४२ भुजस्तम्भादिरोगेषु सर्वेपूर्ध्वगदेषु च ॥ ३६॥ जाङ्गलानि च मांसानि कारयेदुपनाहनम् । गुडके सहित सोंठ, अथवा सोंठ व छोटी पीपल व सेंधानम-| तेनास्य शाम्यति व्याधिः सूर्यावर्तः सुदारुणः । कके साथ बनाये गये नस्यका भुजस्तम्भादि रोगों तथा शिरोरो एष एव विधिः कृत्स्नः कार्यश्वार्धावभेदके ॥४३ ॥ गोंमें प्रयोग करना चाहिये ॥ ३६॥ शारिवोत्पलकुष्ठानि मधुकं चाम्लषितम् । सूर्यावर्तचिकित्सा । सर्पिस्तैलयुतो लेपः सूर्यावर्तार्धभेदयोः ॥४४ ॥ सूर्यावर्ते विधातव्यं नस्यकर्मादि भेषजम् । सिरस और मूलीके बीजोंका नस्य अथवा बच और पाययेत्सगुडं सर्पिघृतपूरांश्च भक्षयेत् ॥ ३७॥ | पीपलके क्वाथका नस्य देना चाहिये । तथा जांगल मांसको सूर्यावर्ते शिरावेधो नावनं क्षीरसर्पिषा । | गरमकर बांधना चाहिये । इससे सूर्यावर्तरोग शान्त होता है । यही विधि अविभेदकमें करना चाहिये । अथवा हितः क्षीरघताभ्यासस्ताभ्यां चैव विरेचनम् । शारिखा. नीलोफर. कुठ व मौरेठीको काजीमें पीस धी व क्षीरपिष्टस्तिलैः स्वेदो जीवनीयैश्च शस्यते ॥३८॥ । ।। २८ ।। तैलमें मिलाकर सूर्यावर्त व अर्धावभेदकमें लेप करना सूर्यावर्तमें नस्य आदि देना चाहिये, गुड़के साथ घी पिलाना | चाहिये ॥ ४२-४४॥ चाहिये, घृतसे पूर्ण पदार्थ खाना चाहिये । तथा शिरावेध करना चाहिये और दूध व घीसे नस्य लेना चाहिये । दूध और शर्करोदकयोगः। किा सेवन तथा इन्हींके साथ विरेचन, और दूधमें पीसे| पिबेत्सशर्करं क्षीरं नीरं वा नारिकेलजम् । तिलोंसे स्वेदन तथा जीवनीयगणके प्रयोग हितकर होते सुशीतं वापि पानीयं सर्पिर्वा नस्ततस्तयोः॥४५॥ हैं ॥३७॥३८॥ सूर्यावर्त व अ‘वभेदकमें शक्करके साथ दूध अथवा नारियलका जल अथवा केवल ठण्ढा जल घीका नस्य लेना कुङ्कुमनस्यम् । चाहिये ॥४५॥ सर्शकरं कुङ्कुममाज्यमृष्टं नस्य विधेयं पवनासृगुत्थे । अनन्तवातचिकित्सा। भ्रूशङ्खकर्णाक्षिशिरोऽर्धशूले अनन्तवाते कर्तव्यः सूर्यावर्तहितो विधिः । दिनाभिवृद्धिप्रभवे च रोगे ॥ ३९ ॥ शिरावेधश्च कर्तव्योऽनन्तवातप्रशान्तये ॥ ४६ ॥ शक्करके साथ केशर घीमें मिलाकर वातरक्त जन्य भ्रशंख आहारश्च विधातव्यो वातपित्तविनाशनः । कर्ण, अक्षि व शिरके अर्धभागके शूल तथा दिनमें बढ़नेवाले मधुमस्तुकसंयावहविष्पूर्हितः क्रमः ॥ ४७ ॥ शूलमें नस्य लेना हितकर है ॥ ३९॥ अनन्तवातमें सूर्यावर्तकी विधि करनी चाहिये । तथा शिराव्यध भी करना चाहिये । और वातपित्तनाशक आहार कृतमालघृतम्। करना चाहिये । तथा शहद, दहीके तोड़, दलिया व धीके कृतमालपल्लवरस खरमजरिकल्कांसद्धनवनीतम्। प्रयोग हितकर हैं ॥४६ ॥ ४७ ॥ नस्येन जयति नियतं सूर्यावर्त सुदुर्वारम् ॥४०॥ शंखकचिकित्सा। अमलतासके पत्तोंके रस तथा अपामार्गके कल्कके साथ पकाया मक्खन नस्य लेनेसे कठिन सूर्यावर्तको नष्ट करता | सूर्यावर्ते हितं यत्तच्छङ्खके स्वेदवर्जितम् । है ॥ ४०॥ क्षीरसर्पिः प्रशंसन्ति नस्तःपानं च शङ्खके ॥४८॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (२७७) सूर्यावर्तकी ही विधि स्वेदको छोड़कर शंखकमें करनी कर्णनासाक्षिजिह्वास्यगलरोगविनाशनम् । चाहिये । और क्षीरजन्य घृतका पान तथा नस्य देना हित मयूराद्यमिदं ख्यातमूर्ध्वजत्रुगदापहम् ॥ ५६ ॥ कर है ॥ ४८ ॥ आखुभिः कुक्कुटैर्हसैः शशैश्चापि हि बुद्धिमान् । लेपाः । कल्केनानेन विपचेत्सर्पिरूगदापहम् ॥ ५७ ॥ शतावरी कृष्णतिलान्मधुकं नीलमुत्पलम् ।। दशमूलादिना तुल्यो मयूर इह गृह्यते । अन्ये त्वाकृतिमानेन मयूरग्रहणं विदुः।। ५८॥ मूवी पुनर्नवां चापि लेपं साध्ववतारयेत् ॥ ४९ ॥ शीततोयावसेकांश्च क्षीरसेकांश्च शीतलान् । दशमूल १२ तोला, खर दशमूल १२ तोला, खरेटी, रासन, मौरेठी प्रत्येक १२ कल्कैश्च क्षीरिवृक्षाणां शङ्खकस्य प्रलेपनम् ॥५०॥ तोला और पखने, पित्त, आन्ते, विष्ठा, पैर और मुखरहित एक शतावरी, काले तिल, मौरेठी नीलोफर, मूर्वा और पुनर्नवाका | मयूर जलमें पकाना चाहिये । फिर इसी क्वाथमें एक प्रस्थ घृत, लप करना चाहिये। तथा शीतल जलका सिञ्चन अथवा शीतल | समान भाग दूध तथा मधुर औषधियों (जीवनीय गण ) का दूधका सिञ्चन तथा दूधवाले वृक्षोंके कल्कसे शंखको लेप करना। प्रत्येकका १ तोल कल्क मिलाकर पकाना चाहिये । यह घृत शिरो चाहिये ॥ ४९ ॥५०॥ रोग, आर्दत, कान, नाक, नेत्र, जिह्वा, मुख, व गलेके रोग यहांतक कि जत्रुके ऊपरके समस्त रोगोंको नष्ट करता है। इसी शिराव्यधः। प्रकार मूसे, कुक्कुट, हंस और खरगोशके मांसरस तथा क्रौञ्चकादम्बहंसानां शरायोः कच्छपस्य च ।। | मधुरसंज्ञक औषधियोंके कल्कके साथ शिरोरोगनाशक घी पकाना रसैः संविहितस्याथ तस्य शङ्खकसन्धिजाः॥५१॥ चाहिये । इसमें दशमूलादिके समान "मयूर" लेना चाहिये । कुछ ऊध्र्व तिस्रः शिराः प्राज्ञो भिन्द्यादेवन ताडयेत । आचार्य आकृतिमान अर्थात् एकवचन निर्देशात् १ लेते हैं। इन घृतोंका नस्य लेनी चाहिये ॥५४-५८॥ क्रौञ्च, कादम्ब, हँस, शरारी और कच्छपके मांसरसोंका | सेवन कराकर शंखक सन्धिके ऊपरकी ३ शिराओंका वेध कर प्रपौण्डरीकाद्यं तैलम् देना चाहिये । पर ( वेध करते समय नियमानुकूल शिरा ताड़ित की जाती है ) पर यह शिराताडन न करना | प्रपीण्डरीकमधुकपिप्पलीचन्दनोत्पलैः । चाहिये ॥५१॥ सिद्धं धात्रीरसे तैलं नस्येनाभ्यञ्जनेन वा । सर्वानूर्ध्वगदान्हन्ति पलितानि च शीलितम् ॥५९॥ शिरःकम्पचिकित्सा। शिरःकम्पेऽमृतारास्नाबलास्नेहसुगन्धिभिः ॥५२॥.. पुण्डरिया, मौरेठी, छोटी पीपल, चन्दन व नीलोफरके साथ आंवलेके रसमें सिद्ध तेलका नस्य लेनसे समस्त शिरके रोग तथा स्नेहस्वेदादि वातघ्नं शिरोबस्तिश्च शस्यते। वलक पलित नष्ट होते हैं ॥ ५९ ॥ शिरःकम्पमें गुर्च, रासन, खरेटी, स्नेह और सुगंधित पदाथोंका सेवन तथा वातघ्न स्नेहन, स्वेदन और शिरोवस्ति महामायूरं घृतम् । हितकर है ॥५२॥ शतं मयूरमांसस्य दशमूलबलातुलाम् । यष्टयाचं घृतम् । द्रोणेऽम्भसःपचेक्षुत्त्वा तस्मिन्पादस्थिते ततः ६०॥ यष्टीमधुबलारास्नादशमूलाम्बुसाधितम् ।। निषिच्य पयसो द्रोणं पचेत्तत्र घृताढकम् । मधुरैश्च घृतं सिद्धमूर्ध्वजत्रुगदापहम् ॥५३॥ प्रपौण्डरीकवक्तिीवनीयैश्च भेषजैः ॥ ६१॥ मौरेठी, खरेटी, रासन, व दशमूलके काढे और मधुर | मेधाबुद्धिस्मृतिकरमूर्ध्वजत्रुगदापहम् । औषधियोंके कल्कसे सिद्ध घृत सिरके रोगोंको नष्ट करता मायूरमेतन्निर्दिष्टं सर्वानिलहरं परम् ॥ ६२॥ मन्याकर्णशिरोनेत्ररुजापस्मारनाशनम् । विषवातामयश्वासविषमज्वरकासनुत् ॥ ६३ ।। मयूरायं घृतम् । मयुरका मांस ५ सेर, दशमूल मिलित २॥ सेर, खरेटी २॥ दशमूलबलारानामधुकलिपलैः सह । सेर, जल २५ सेर ९ छ० ३ तोलामें पकाना चाहिये, चतुर्थांश मयूरं पक्षपित्तान्त्रशकृत्पादास्यवर्जितम् ॥ ५४॥ रहनेपर उतार छानकर दूध २५ सेर ४८ तो०, घी ६ सेर ३२ जले पक्त्वा घृतप्रस्थं तस्मिन्क्षीरसमं पचेत् । तो०, प्रपौंडरीकादिक औषधियों तथा जीवनीयगणकी औषधि. मधुरैः कार्षिकैः कल्कैःशिरोरोगार्दितापहम् ॥५५॥ योंका कल्क छोड़कर घी पकाना चाहिये । यह घी नस्य तथा Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७८) चक्रदत्तः। [असृग्दराा - - - wr - - -w-w पानसे मेधा, बुद्धि, स्मरणशक्ति बढाता, शिरोरोगों तथा रसाञ्जनादियोगः। समस्त वातरोगोंको नष्ट करता और मन्या, कर्ण, शिर व नेत्रकी रसाजन तण्डुलीयस्य मूलं पीड़ा तथा अपस्मार, विष, वातरोग, श्वास, विषमज्वर और क्षौद्रान्वितं तण्डुलतोयपीतम् । कासको विनष्ट करता है ॥६०-६३ ॥ असृग्दरं सर्वभवं निहन्ति इति शिरोरोगाधिकारः समाप्तः । . श्वासं च भार्डी सह नागरेण ।। ७॥ रसौंत, चौराईकी जड़को पीस शहद मिला चावलके जलके अथामृग्दराधिकारः साथ पीनसे सन्निपातप्रदर नष्ट होता तथा इसीमें भारङ्गी और सोंठ मिलाकर सेवन करनसे श्वास भी नष्ट होता है॥७॥ सामान्याचिकित्सा। विविधा योगा। पना सौवर्चलाजाजी मधुकं नीलमुत्पलम् । दशमूलं समुद्धृत्य पेषयेत्तण्डुलाम्बुना। पिबेरक्षौद्रयुतं नारी वातासृग्दरपीडिता ॥१॥ एतत्पीत्वा व्यहान्नारी प्रदरात्परिमुच्यते ॥८॥ पिबदेणेयकं रक्तं शर्करामधुसंयुतम् । क्षौद्रयुक्त फलरसं काष्ठोदुम्बरजं पिबेत् । वासस्वरसं पैत्ते गुडूच्या रसमेव वा ॥२॥ असृग्दरविनाशाय सशर्करपयोऽन्नभुक् ॥ ९॥ रोहीतकान्मूलकल्कं पाण्डुरेऽमृग्दरे पिबेत् ।। प्रदरं हन्ति बलाया मूलं दुग्धेन मधुयुतं पीतम् । जलेनामलकाद्वीजकल्कं वा ससितामधु ॥३॥ कुशवाटचालकमूलं तण्डुलसलिलेन रक्ताख्यम् । धातक्याश्चाक्षमात्रं वा आमलक्या मधुद्रवम् । शमयति मदिरापानं तदुभयमपि रक्तसंज्ञशुक्लाख्यो काकजानुकमूलं वा मूलं कापासमेव वा ॥४॥ गुडेन बदरीचूर्ण मोचमामं तथा पयः। पाण्डुप्रदरशान्त्यर्थ पिबत्तण्डुलवारिणा। पीता लाक्षा च सघृता पृथक्प्रदरनाशना॥११॥ अशोकवल्कलक्काथशृतं दुग्धं सुशीतलम् । । दशमूल लेकर चावलके जलके साथ पीसकर पीनेसे ३ दिनमें यथाबलं पिबेत्प्रातस्तीवामृग्दरनाशनम् ॥ ५॥ स्त्री प्रदरसे मुक्त हो जाती है । अथवा कटूमरके शहद साथ मिलाकर वातज प्रदरसे पीड़ित स्त्री शहदके साथ काले नमक जीरा, पीना चाहिये। तथा शक्कर, दूध और भातका पथ्य रखना चाहिये। मौरेठी व नीलोफरके चूर्णको दहीमें मिलाकर खावे । पित्तजमें इसी प्रकार खरेटीकी जड़के चूर्णको शहदमें मिलाकर दूधके साथ शक्कर और शहद मिलाकर हरिणका रक्त पीवे । अथवा अडूसेका पीनेसे प्रदर नष्ट होता है। तथा कुश और खरेटीकी जडके स्वरस अथवा गुर्चका रस पीवे । कफज प्रदरमें रोहीतककी जड़का चूर्णको चावलके जलके साथ पीनेसे रक्तप्रदर शान्त होता है । कल्क जल मिलाकर पीवे । अथवा आंवलेके बीजोंका कल्क शराब पाना लाल तथा सफेद दोनों प्रदरोंको नष्ट करता है। शक्कर व शहद मिलाकर पीवे अथवा धायके फूलोंका रस अथवा गुड़के साथ बेरकी जड़के चूर्णका सेवन करनेसे अथवा केला आंवलेका रस १ तोलेकी मात्रासे शहद मिलाकर पीने । अथवा और कच्चे दूधके सेवनसे अथवा घीके साध लाख पीनेसे प्रदर काकजंघाकी जड़ अथवा कपासकी जड़ चावलके जलके साथ | नष्ट होता है ॥८-११॥ पीले प्रदरकी शान्तिके लिये पीवे । तीव्र रक्तप्रदरकी शान्तिके लिये अशोककी छालसे सिद्ध दूध ठण्ढा कर बलके अनुसार प्रात: सामान्यनियमः। काल पीवे ॥ १-५ ॥ रक्तपित्तविधानेन प्रदरांश्चाप्युपाचरेत् । दाादिकाथः। अमृग्दरे विशेषेण कुटजाष्टकमाचरेत् ।। १२॥ रक्तपित्तविधानसे प्रदरकी चिकित्सा करनी चाहिये । दारिसाअनवृषाब्दकिरातबिल्व तथा रक्तप्रदरमें विशेषकर कुटजाष्टकका प्रयोग करना भल्लातकैरवकृतो मधुना कषायः। चाहिये ॥१२॥ पीतो जयत्यतिबलं प्रदरं सशूलं पीतासितारुणविलोहितनीलशुक्लम् ॥६॥ पुष्यानुगचूर्णम् । पाठाजम्ब्वाम्रयोर्मध्यं शिलाभेदरसाजनम् । दारुहल्दी, रसौत, अडूसा, नागरमोथा, चिरायता, बेल और भिलावेका क्वाथ ठण्डा कर शहद मिला पीनेसे शूलयुक्त, अति अम्बष्ठकी मोचरसः समङ्गापद्मकेशरान् ॥ १३॥ बलवान्, पीला, काळा, लाल, नीला सफेद तथा अरुण प्रदर वत्सकातिविषामुस्तं बिल्वं लोधं सगैरिकम् । बन्द होता है ॥ ६॥ कट्फलं मरिचं शुण्ठी मृद्वीका रक्तचन्दनम्॥१४॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः । १७ ॥ कट्वङ्गवत्सकानन्ताधातकी मधुकार्जुनम् । पुष्येणोद्धृत्य तुल्यानि ऋणचूर्णानि कारयेत् ॥ १५ तानि क्षौद्रेण संयोज्य पाययेत्तण्डुलाम्बुना । असृग्दरातिसारेषु रक्तं यच्चोपवेश्यते ॥ १६ ॥ दोषागन्तुकृता ये च बालानां तांश्च नाशयेत् । योनिदोषं रजोदोषं श्वेतं नीलं सपीतकम् ॥ स्त्रीणां श्यावारुणं यच्च तत्प्रसह्य निवर्तयेत् । चूर्ण पुष्यानुगं नाम हितमात्रेयपूजितम् ॥ १८ ॥ पाढ, आम और जामुनकी मींगी, पाषाणभेद, रसौत अम्ब की ( किसीके मत से पाढ़ ही डबल करना चाहिये । क्योंकि अम्बष्ठा पाढ़का नाम है। कोई सनके बीज छोड़ते हैं। पर मेरे विचारसे तो पाढ़ ही दूनी छोड़ना ) मोचरस, लज्जालुके बीज, कमलका केशर, कुड़ेकी छाल, अतीस, नागरमोथा, बेल, लोध, गेरू, कैफरा, काली मिर्च, सोंठ, मुनक्का, लाल चन्दन, सोना पाढा, इन्द्रयव, यवासा, धायके फूल, मौरेठी व अर्जुनकी छाल, सब चीजें पुष्यनक्षत्रमें लाकर महीन चूर्ण करना चाहिये । उस चूर्णको शहद में मिलाकर चावलके जलसे पीना चाहिये । यह रक्तप्रदर, रक्तातीसार, अतीसार और बालकोंके दोषज तथा आगन्तुक अतिसारोंको नष्ट करता है । त्रियों के योनिदोष, रजोदोष, सफेद, नीले, पीले, आसमानी और लालिमा लिये हुए प्रदरोंको बलात् नष्ट करता है। यह " पुष्यानुग चूर्ण ” अत्यन्त हितकर आत्रेय महर्षिसे प्रशंसित है ॥ १३-१८॥ मुद्राद्यं घृतम् । मुद्रमाषस्य निर्यूहे रास्नाचित्रकनागरैः । सिद्धं सपिप्पलीबिल्वैः सर्पिः श्रेष्ठमसृग्दरे ॥ १९॥ मूंग और उड़द क्वाथमें रासन, चीतकी जड़, सोंठ, छोटी पीपल और बेलके कल्कको छोड़कर सिद्ध घृत रक्तप्रदर में हितकर है ॥ १९ ॥ ( २७९ ) तरुणी चाल्पपुष्पा या या च गर्भ न विन्दति । अहन्यहनि च स्त्रीणां भवति प्रीतिवर्धनम् । शीतकल्याणकं नाम परमुक्तं रसायनम् ॥ २५ ॥ कुमुद ( कमलभेद ) पद्माख, खश, गेहूं, लाल चावल, जड़, नीलोफर, ताड़की बाली, विदारीकन्द, शतावर, शालपर्णी, मुद्रपर्णी, क्षीरविदारी, खम्भार, मौरेठी, खरेटेकी जड़, कंघीकी जीवक, त्रिफला, खीरा बीज तथा कच्चा केला इनका कल्क प्रत्येक २ तोला, गायका दूध ६ सेर ३२ तो०, जल ३ सेर ३ छ०९ तो०, घी १२८ तो० मिलाकर पकाना चाहिये | सिद्ध होने पर उतार छान सेवन करना चाहिये। यह प्रदर, रक्त. पित्त, रक्तगुल्म, हलीमक, अनेक प्रकारके अम्लपित्त, कामला, वातरक्त, अरोचक, ज्वर, जीर्ण ज्वर, पाण्डुरोग, नशा तथा चक्करको नष्ट करता है। जिस स्त्रीको मासिक धर्म कम होता है, तथा जिन्हें गर्भ नहीं रहता, उन्हें पिलाना चाहिये । इससे स्त्रियों की प्रसन्नता बढ़ती है। यह " शीतकल्याणक " नाम घृत परम रसायन है | २०-२५ ॥ शतावरीघृतम् । शतावरीरप्रस्थं क्षोदयित्वाऽवपीडयेत् । घृतप्रस्थसमायुक्तं क्षीरद्विगुणितं भिषक् ॥ २६॥ अत्र कल्कानिमान्दद्यात्स्थूलोदुम्बर संमितान् । जीवनीयानि यान्यष्टौ यष्टिपद्मकचन्दनम् ॥ २७ ॥ श्वदंष्ट्रा चात्मगुप्ता च बला नागबला तथा । शालपर्णी पृश्निपर्णी विदारी शारिवाद्वयम् ||२८|| शर्करा च समा देया काश्मर्योश्च फलानि च । सम्यक् सिद्धं तु विज्ञाय तद् घृतं चावतारयेत् ॥ २९ ॥ रक्तपित्तविकारेषु वातपित्तकृतेषु च । वातरक्तं क्षयं श्वासं हिक्कां कासं च दुस्तरम् ॥३०॥ अङ्गदाहं शिरोदाहं रक्तपित्तसमुद्भवम् । असृग्दरं सर्वभवं मूत्रकृच्छ्रं सुदारुणम् । एतान् रोगाशमयति भास्करस्तिमिरं यथा ॥ ३१ ॥ शीतकल्याणकं घृतम् । कुमुदं पद्मकोशीरं गोधूमो रक्तशालयः । मुद्रपर्णी पयस्या च काश्मरी मधुयष्टिका ॥ २० ॥ बलातिबलयोर्मूलमुत्पलं तालमस्तकम् । विदारी शतमूली च शालपर्णी सजीवका ॥ २१ ॥ त्रिफला त्रापुषं बीजं प्रत्ययं कदलीफलम् । एषामर्धपलान्भागान्गव्यं क्षीरं चतुर्गुणम् ॥ २२ ॥ पानीयं द्विगुणं दत्त्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत् । प्रदरे रक्तपित्ते च रक्तगुल्मे हलीमके ॥ २३ ॥ बहुरूपं च यत्पित्तं कामलावातशोणिते । ताजी शतावरको कूटकर १२८ तो० रस निकालना चाहिये । इसमें घी १२८ तोला, दूध २५६ तो० तथा जल १२८ तो० और जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि, मौरेठी, चन्दन, गोखुरू, कौंच के बीज, खरेटी, गंगेरन, सरिवन, पिठिवन, विदारीकन्द, सारिवा, काली सारिवा, शक्कर, और खम्भारके फल प्रत्येक १ तोलाका कल्क छोड़कर पकाना चाहिये। तैयार हो जानेपर उतारकर छान लेना चाहिये । इसका रक्तपित्तके रोग, वातपित्तके रोग, वातरक्त, क्षय, श्वास, अरोचके ज्वरे जीर्णे पाण्डुरोगे मदे भ्रमे ॥ २४ ॥ हिक्का, कास, अङ्गकी जलन, रक्तपित्तसे उत्पन्न शिरकी जलन, Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८०) चक्रदत्तः। [योनिव्यापद सन्निपातज प्रदर, कठिन मूत्रकृच्छ्र आदि रोगोंमें प्रयोग करना . योनिविशोधिनी वतिः। चाहिये । यह घृत इन रोगोंको सूर्य अन्धकारके समान नष्ट पिप्पल्या मरिचैर्माषैः शताह्वाकुष्ठसैन्धवैः। करता है ॥२६-३१॥ वर्तिस्तुल्या प्रदेशिन्या धार्या योनिविशोधनी।। ७॥ इत्यसृग्दराधिकारः समाप्तः। छोटी पीपल, मिर्च, उड़द, सौफ, कूठ, व सेंधानमकके चूर्णको साथ घोटकर बनायी गयी प्रदेशिनी अंगुलीके अथ योनिव्यापदधिकारः। समान बत्ती योनिमें धारण करनेसे योनि शुद्ध करती सामान्यचिकित्सा। दोषानुसारवर्तयः। योनिव्यापत्सु भूयिष्ठं शस्यते कर्म वातजित् । । हिंसाकल्कं तु वातार्ता कोष्णमभ्यज्य धारयेत् । बस्त्यभ्यङपरीषेकप्रलेपाः पिचुधारणम् ॥ १॥ . पञ्चवल्कस्य पित्तार्ता श्यामादीनां कफोत्तरा ॥८॥ योनिव्यापतमें अधिकतर बातनाशक चिकित्सा करंनी वातार्ता योनिमें मालिश कर जटामांसीके कल्ककी बत्ती चाहिये । तथा बस्ति, मालिश, सिञ्चन, लेप और फोहोंका बनाकर रक्खें । पित्तार्ता योनिमें पञ्चवल्कलके कल्ककी वत्ती धारण कराना चाहिये ॥१॥ और कफांर्ता योनिमें निसोथ आदिके कल्ककी बत्ती बनाकर रक्खें ॥ ८॥ वचादियोगः। योन्यश्चिकित्सा। : वचोपकुञ्चिकाजातीकृष्णावृषकसैन्धवम् । अजमोदां यवक्षारं चित्रकं शर्करान्वितम् ॥२॥ मूषिकामांससंयुक्तं तैलमातपभावितम् । अभ्यंगाद्धन्ति योन्यर्शः स्वेदस्तन्मांससैन्धवैः ॥९॥ पिष्ट्वा प्रसन्नयालोड्य खादेत्तद् घृतभर्जितम् ।। मूषिकाके मांससे युक्त तैल धूपमें तपाकर लगानेसे योन्यर्श थोनिपार्धातिहृद्रोगगुल्माॉविनिवृत्तये ॥३॥ तय ।। २ ।। नष्ट होता है। अथवा मूषिकाके मांस और सेंधानमकसे स्वेद होता दूधिया बच, कलौंजी, चमेली, छोटी पीपल, अडूसा, लेना भी योन्यर्श नष्ट करता है ॥९॥ सेंधानमक, अजमोद, जवाखार तथा चीतकी जड़के चूर्णको घीमें भून शक्कर मिला शरावके स्वच्छ भागमें मिलाकर खाना अचरणादिचिकित्सा। चाहिये । यह योनिरोग पार्श्वशूल, हृद्रोग गुल्म और अर्शको दूर गोपित्ते मत्स्यपित्ते वा क्षीमं त्रिःसप्तभावितम् । करता है ॥२॥३॥ मधुना किण्वचूर्ण वा दद्यादचरणापहम् ॥ १० ॥ परिषेचनाद्युपायाः। स्रोतसां शोधनं शोथकण्डूक्लेदहरं च तत् । कामिन्याःपूतियोन्याश्च कर्तव्यः स्वेदनो विधिः११।। गुडूचीत्रिफलादतीकाथैश्च परिषेचनम् ।। क्रमः कार्यस्ततः स्नेहपिचुभिस्तर्पणं भवेत् ।। नतवार्ताकिनीकुष्ठसैन्धवामरदारुभिः ॥ ४॥ शल्लकीजिङ्गिनीजम्बुधवत्वपञ्चवल्कलैः ॥१२॥ तेलाप्रसाधिताद्धार्यः पिचुर्योनौ रुजापहः। कषायैः साधितः स्नेहः पिचुः स्याद्विप्लुतापहः । पित्तलानां तु योनीनां सेकाभ्यङ्गपिचुक्रियाः ॥५॥ कहिन्यां वर्तिका कुष्ठपिप्पल्याग्रसैन्धवैः ॥ १३॥ शीताः पित्तहराः कार्याः रोहनार्थ घृतानि च । । बस्तमूत्रकृता धार्या सर्व च श्लेष्मनुद्धितम् । योन्यां बलासदुष्टायां सर्व रूक्षोष्णमौषधम् ॥ ६॥ त्रैवृत्तं स्नेहन स्वेद उदावानिलार्तिषु । गुर्च, त्रिफला और दन्तीके काथसे योनिमें सिञ्चन तदेव च महायोन्यां सस्तायां तु विधीयते ॥१४॥ कराना चाहिये तथा तगर, बैंगन, कूठ, सेंधानमक व गोपित अथवा मछलीके पितमें अलसीके वस्त्रकी देवदारुसे सिद्ध तैलका फोहा योनिमें धारण कराना | २१. भावना देकर अथवा शराबके किट्टको शहदके चाहिये । इससे पीड़ा शान्त होती है । पित्तल योनियों के साथ योनिमें रखनेसे अचरणा नष्ट होती है । तथा छिद्रोंका लिये सेक, मालिश और फोहा शीतल पित्तनाशक रखना शोधन और सूजन, खुजली व गीलापन आदिका नाश भी उप. चाहिये। स्नेहनके लिये घी लगाना तथा खाना चाहिये ।रोक्त प्रयोग करते हैं। पूतियोनिवाली स्त्रीके लिये स्वेदन करना कफदूषित योनिमें समस्त रूखे और गरम प्रयोग करने चाहिये । फिर स्नेहयुक्त फोहेका धारण करना चाहिये । शल्लकी चाहिथें ॥४-६॥ ( शालभेद), मजिष्टा, जामुनकी छाल, धायकी छाल व Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः भाषाटीकोपेतः। (२८) पञ्चवल्कलके क्वाथसे सिद्ध स्नेहमें भिगे हुए फोहेके धारण| बचा, नीलोफर, कूठ, काली मिर्च, असगन्ध और करनेसे विप्लुता नष्ट होती है । कर्णिनीमें कूठ, छोटी | हल्दीका लेप योनिको संकुचित करता है । तथा मैनफल, शहद, पीपल, आकके अंकुर व सेंधानमककी बकरेके मूत्रमें बत्ती| व कपूरसे पूर्ण वृद्धा स्त्रीकी भी योनि बहुत कड़ी और चिकनी बनाकर धारण करना चाहिये । तथा समस्त कफनाशक | होती है ॥ १९-२१॥ उपाय करना चाहिये । उदावर्त और वायुरोगोंमें घृत, .. योनिगन्धनाशकं घृतम् । तेल व वसाका प्रयोग तथा स्वेदन करना चाहिये । और यही विधि महायोनि और स्रस्त योनिमें भी करनी| पञ्चपल्लवयष्टयाह्वम चाहिये ॥ १०-१४॥ रविपक्कमन्यथा वा योनिगन्धातिनाशनम् ॥२२॥ पञ्चपल्लव, मौरेठी व चमेलीके फूलके कल्कसे सूर्य की किरणों में आखुतैलम् । तपाया अथवा चतुर्गुण जल मिलाकर पकाया घृत योनिगन्धको आखोर्मासं सपदि बहुधा खण्डखण्डीकृतं यत् नष्ट करता है ॥ २२ ॥ तैले पाच्यं द्रवति नियतं यावदेतन्न सम्यक् । तत्तलाक्त वसनमनिशं योनिभागे दधाना कुसुमसञ्जननी वर्तिः। हन्ति व्रीडाकरभगफलं नात्र सन्देहबुद्धिः ।। १५॥ इक्ष्वाकुबीजदन्तीचपलागुडमदनकिण्वयष्टथाहः। मूसेके मांसके छोटे छोटे टुकड़े चतुर्गुण तैल ( तथा| ... सस्नुकक्ष सस्नुक्षीरवर्तिोनिगता कुसुमसजननी ॥२३॥ तैलसे चतुर्गुण जल ) मिलाकर पकाना चाहिये । जब यह । कडुई तोंबीके बीज, दन्ती, छोटी पीपल, गुड़, मैनफल, सिद्ध हो जाय, तब उतार कर छान उस तैलसे भिगोया किण्व (शराबकी किट) और मौरेठीक चूर्णको थूहरके दूध में हुमा कपड़ा योनिमें रखनेसे योनिकन्द नष्ट होता है, इसमें सन्देह मिलाकर बनायी गयी बत्ती योनिमें रखनेसे मासिक धर्मको न करना चाहिये ॥ १५ ॥ उत्पन्न करती है ॥ २३ ॥ भिन्नादिचिकित्सा। प्राशः। शतपुष्पातललेपाद्वदरीदलजात्तथा। सकाजिकं जवापुष्पं भृष्टं ज्योतिष्मतीदलम् । पेटिकामूललेपाच्च योनिभिन्ना प्रशाम्यति ॥ १६ ॥ सम्प्राश्य न चिरादेव वनिता त्वार्तवं लभेत् ॥२४॥ सुषवीमूललेपेन प्रविष्टान्तर्बहिर्भवत् । काजीके साथ जवापुष्प और भूने मालकांगनीके पत्ते पीसकर योनिर्मूषरसाभ्यङ्गानिःसृता प्रविशेदपि ॥ १७॥ | चाटनेसे शीघ्रही मासिक धर्म होता है ॥ २४ ॥ लोध्रतुम्बीफलालेपो योनिदाढर्थ करोति च। दूर्वापाशः। वेतसमूलनिष्क्वाथक्षालनेन तथैव च ॥१८॥ सरक्तप्रदरा वापि ससकस्रावा च गर्भिणी । मूषिकावागुलिवसाम्रङ्क्षणं योनिदाढर्यदम् । दूर्वायाः पिष्टकम्प्राश्य नामृक्स्रावेण पीडयते २५॥ सौंफके तैलके लेप तथा बेरीकी पत्तीके लेप अथवा पेटिका दूधकी चटनी बनाकर चाटनेसे रक्तस्राव बन्द होता है॥२५॥ (पाढल) की जड़के लेपसे भिन्न योनि शान्त होती है । रजोनाशकयोगौ। और काले जीरेकी जड़के लेपसे अन्तःप्रविष्ट योनि बाहर निकलेती है । तथा मूसेके मांस रसकी मालिशसे बाहर निकली धाव्यञ्जनाभयाचूर्ण तोयपीतं रजो हरेत् । प्रविष्ट हो जाती है । लोध और तोम्बीके फलका लेप योनिको | शेलुच्छदमिश्रपिष्टं भक्षणं च तदर्थकृत् ॥ २५॥ दृढ़ करता है। बेतकी जड़के काढ़ेसे धोनेसे भी यही गुण (१) आँवला, सुरमा और हरोंका चूर्ण कर जलके साथ पीनेसे होता है । और मूसा तथा बगुलेकी वसाकी मालिश योनिको मासिकधर्म नहीं होता । (२) तथा लसोड़ेके पत्तोंको पीसकर दृढ करती है ॥ १६-१८॥ खाना भी यही गुण करता है ॥ २५॥ योनिसंकोचनम् । गर्भप्रदा योगाः। बचा नीलोत्पलं कुष्ठं मरिचानि तथैव च ॥ १९॥ पुष्योद्धृतं लक्ष्मणायाश्चक्राङ्गायास्तु कन्यया । अश्वगन्धा हरिद्रा च गाढीकरणमुत्तमम् ॥२०॥ पिष्टं मूलं दुग्धघृतमृती पतिं तु पुत्रदम् ॥२६ ।। . मदनफलमधुककर्पूरपारतं भवति कामिनीजनस्य ।। काथेन हयगन्धायाः साधितं सघृतं पयः । । विगलितयौवनस्य च वराङ्गमतिगाढं सुकुमारम्।२१. ऋतुलाताङ्गना पीत्वा गर्भ धत्ते न संशयः ॥२७ ।। ३६ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८२) [योनिव्यापद worwarwww - - पिप्पल्यः शृङ्गवरं च मरिच केशरं तथा। माषौ द्वौ च तथा गौरसर्षपो दधियोजितौ । घृतेन सह पातव्यं वन्ध्यापि लभते सुतम् ॥२८॥ पुण्यापीती द्रुतापन्नगर्भायाः पुत्रकारको ॥३४॥ पुष्यनक्षत्रमें उखाड़ी चक्रांग (जिसके ऊपर लाल बिंदु कानकान् राजतान्वापि लौहान्पुरुषकानमून् । होते हैं उस ) लक्ष्मणाकी जड़को कन्यासे पिसाकर दूध व घीमें ध्माताभिवर्णान्पयसो दध्नो वाप्युदकस्य वा । मिलाकर ऋतुकालमें पीनेसे गर्भ धारण होता है। इसी प्रकार | क्षिप्त्वाञ्जली पिबेत्पुष्ये गर्भे पुत्रत्वकारकान् ॥३५॥ असगन्धके क्वाथसे सिद्ध दूधमें घी मिलाकर पीनेसे ऋतुस्नाता| स्त्री गर्भ धारण करती है। तथा छोटी पीपल, सोंठ, काली मिर्च,! गौओंके ठहरनेके स्थानमें उत्पन्न बरगदकी पूर्व तथा उत्तरव नागकेशरके चूर्णको घीमें मिलाकर पीनेसे वन्ध्या भी गर्भ की डालके २ टिम्हुने, २ उडद, सफेद सरसों दहीमें मिलाधारण करती है ॥२६-२८॥ कर पुष्य नक्षत्रमें पीनेसे शीघ्र गर्भ धारण करनेवाली बीके गर्भसे पुत्र ही होता है। इसीप्रकार सोने, चांदी अथवा लोहेके पुरु. स्वर्णादिभस्मयोगः। षकी मूर्ति बना आममें लाल कर दूध, दही अथवा जलकी स्वर्णस्य रूप्यकस्य च चूर्णे ताम्रस्य चाज्यसंमिश्रे । अञ्जली (१६ तो० ) में बुझाकर पुष्य नक्षत्रमें पानसे गर्भसे पुत्र पीते शुद्ध क्षेत्रे भेषजयोगाद्भवेद्गर्भः ॥२९॥ ही होता है ॥३४॥ ३५॥ सोना और चांदी तथा ताम्रकी भस्ममें घी मिलाकर रजोध. फलघृतम् । मके बाद सेवन करनेसे गर्भ रहता है ॥ २९ ॥ मजिष्ठा मधुकं कुष्ठं त्रिफला शर्करा बला । नियतगर्भचिकित्सा। मेदा पयस्या काकोली मूलं चैवाश्वगन्धजम् ॥३७॥ कृत्वा शुद्धौ स्नानं अजमोदा हरिद्रे द्वे हिॉकं कटुरोहिणी । विलय दिवसान्तरे ततः प्रातः। उत्पलं कुमुदं द्राक्षा काकोल्यो चन्दनद्वयम् ॥३७॥ स्नात्वा द्विजाय दत्त्वा एतेषां कार्षिकैर्भागेघृतप्रस्थं विपाचयेत् । सम्पूज्य तथैव लोकनाथेशम् ॥ ३०॥ शतावरीरसक्षीरं घृताइयं चतुर्गुणम् ॥ ३८ ॥ श्वेतबलानिकयष्टी कर्ष कर्ष पलं सितायाश्च । सर्पिरेतन्नरः पीत्वा नित्यं स्त्रीषु वृषायते । पिष्टवैकवर्णजीवितवत्साया गोस्तु दुग्धेन ॥ ३१ ॥ पुत्राजनयते नारी मेधाढ्यान् प्रियदर्शनान् ।।३९।। समधिकघृतेन पीतं नात्र दिने देयमन्त्रमन्यच्च । या चैव स्थिरगर्भा स्याद्या वा जनयते मृतम् । अल्पायुषं वा जनयेद्या च कन्यां प्रसूयते ॥४०॥ क्षुधिते सदुग्धमन्नं दद्यादा पुरुषसन्निधेस्तस्याः ३२॥ समदिवसे शुभयोगे दक्षिणपावलम्बिनी धीरा। योनिदोषे रजोदोषे परिस्रावे च शस्यते । प्रजावर्धनमायुष्यं सर्वग्रहनिवारणम् ॥४१॥ त्यक्तरूयन्तरसङ्गप्रहृष्टमनसोऽतिवृद्धधातोश्च । नाम्ना फलघृतं ह्येतदश्विभ्यां परिकीर्तितम् । पुरुषस्य सङ्गमात्राल्लभते पुत्रं ततो नियतम् ॥३३॥ अनुक्तं लक्ष्मणामूलं क्षिपन्त्यत्र चिकित्सकाः॥४२॥ रजःशुद्धिके दिन स्नान कर लघन करना चाहिये । दूसरे दिन | प्रातःकाल स्नानकर भक्तिपूर्वक ब्राह्मण तथा शंकरजीका पूजन-1 जीवद्वत्सैकवर्णाया घृतमत्र प्रशस्यते । कर सफेद खरेटीकी जड़ १ तो० मौरेठी १ तो• व शक्कर | आरण्यगोमयेनापि वह्निज्वाला प्रदीयते ॥४३॥ तो. एकमें पीस मिलाकर एक रङ्गवाली बछडा सहित गायक मजीठ, मौरेठी, कूठ, त्रिफला, शक्कर, खरेटी, मेदा, क्षीरदूधमें घी मिलाकर ओषधिके साथ पीना चाहिये। इस दिन काकोली, काकोली, असगन्ध, अजमोद, हल्दी, दारुहल्दी, दूसरा अन्न नहीं खाना चाहिये । भूख लगनेपर दूध भात देना हींग, कुटकी, नीलोफर, कमल, मुनक्का, दोनों काकोली, तथा चाहिये जबतक परुषसंयोग न होजाय की दोनों चन्दन प्रत्येकका १ तोला कल्क छोड़कर १२८ तोला घी, पथ्य रखना चाहिये। सम दिन अर्थात् छठे, आठवें या शतावरीका रस २५८ तोला, दूध २५८ तोला मिलाकर पकाना दशवें, या बारहवें दिन शुभ योगमें दहिनी ओरको जिस पुरुषने चाहिये। इसघृतके पीनेसे पुरुष स्त्रीगमनमें अधिक समर्थ होता है। दूसरी स्त्रीका संग नहीं किया, तथा जिसका मन प्रसन्न हो रहा। *श्वेतकण्टकारिकायोगः-“ सिंह्यास्तु श्वेतपुष्पाया मुलं है, धातु बढ़े हुए हैं उसके सङ्गमात्रसे निःसन्देह पुत्रको प्राप्त पुष्यसमुद्धृतम् । जलपिष्टमृतुनाता नस्यादर्भ तु विन्दति ॥" करती है ॥ ३०-३३ ॥ |ऋतुस्नाता स्त्रीको पुष्य नक्षत्रमें उखड़ी सफेद फूलकी करी. पुत्रोत्पादका योगाः। की जड़को जलमें पीसकर नस्य लेनी चाहिये । इससे गर्भ गोष्ठजातवटस्य प्रागुत्तरशाखजे शुभे शृङ्गे। रहता है। ( यह योग बहुत प्रसिद्ध तथा लाभदायक है ।) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (२८३) और स्त्री इसे पीकर सुन्दर मेधावी बालक उत्पन्न करती अस्य प्रभावात्कुक्षिस्थःस्फुटवाग्व्याहरत्यपि। है । जिसके गर्भ नहीं रहता, अथवा जो मरा या अल्पायु द्राक्षा परूषकाश्मयों फलत्रयमुदाहृतम् ॥ ५४॥ बालक उत्पन्न करती है, अथवा जिसके कन्या ही उत्पन्न होती| “ओं नमो महाविनायकायाहै, वे सभी सुन्दर बालक उत्पन्न करती हैं । योनिदोष, रजोदोष मृतं रक्ष रक्ष मम फलसिद्धिं व परिस्रावमें यह हितकर है। यह सन्तान बढाता, आयु बढाता देहि रुद्रवचनेन स्वाहा" तथा समस्त ग्रहदोष ना करता है। इसको भगवानू अश्विनीकुमारने "फलघृत" नामसे कहा है। इसमें लक्ष्मणाकी जड़ नहीं सप्तदूर्वाभिमन्त्रितम् ॥ ५५ ॥ कही गयी, पर वैद्य उसे भी छोड़ते हैं। इसमें जिसका बछड़ा: सरसों, वच, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, पुनर्नवा, क्षीरविदारी कूठ, जीता हो, ऐसी एक रजवाली गायका घी उत्तम बताते हैं, तथा मारेठी, कुटकी, इलायची, मुनका, फाल्सा, खम्भार, फल जंगली कण्डोंकी आँच देनी चाहिये ॥३६-४३॥ शारिवा, काली शारिवा, हल्दी, पाढ, भाँगरा, देवदारु, हुलहुल, मजीठ, त्रिफला, निसोथ, अडूसेके फूल, गेरू इनके साथ प्रस्थ अपरं फलघृतम् । घी सिद्ध कर ठीक मन्त्रसे अभिमन्त्रित कर दो मासकी गर्भिणी सहचरे द्वे त्रिफलां गुडूची सपुनर्नवाम् । स्त्री ६ मासतक सेवन करे, फिर न सेवन करे, वह पूर्णाङ्ग, बलशुकनासां हरिद्रे द्वे रानां मेदां शतावरीम् ॥४४॥ वान्, पण्डित पुत्रको उत्पन्न करती है । जड़ता, गद्गदता और कल्कीकृत्य घृतप्रस्थं पचेत्क्षीरचतुर्गुणम् । मूकता पीनेसे ही नष्ट होती है । सात रात्रितक इसके प्रयोग तत्सिद्धं प्रपिबेन्नारि योनिशलप्रपीडिता ॥४५॥ करनेसे मनुष्य श्रुतग्राही हो जाता है । जहाँ यह घृत रहता है, पिण्डिता चलिता या च निःसृता विवृता च या। | उस घरको अनि नहीं जलाती, न वज्र नष्ट करता है, न ग्रहोंका आक्रमण होता है, न बालक ही मरता है। जहाँ यह " सोमपिण्डयोनिस्तु विसस्ता षण्ढयोनिश्च या स्मृता ४६॥ घृत " रहता है, वन्ध्या भी रोगरहित बालक उत्पन्न करती हैं। प्रपद्यन्ते तु ताः स्थानं गर्भ गृह्णन्ति चासकृत् । जो स्त्रियाँ योनिरोगसे पीड़ित तथा जो पुरुष शुक्रदोषसे दूषित एतत्फलघृतं नाम योनिदोषहरं परम् ॥ ४७ ॥ होते हैं, वे इसके सेवनसे शुद्ध होते हैं। इसके प्रभावसे पेटके दोनों कटसला, त्रिफला, गुर्च, पुनर्नवा, सोना पाठा, हल्दी, अन्दर ही गर्भ बोलने लग जाता है । इसमें त्रिफलासे दाम्हल्दी, रासन, मेदा, व शतावरीका कल्क कर १ प्रस्थ घी, मुनक्का, फाल्सा और खम्भार लेना चाहिये । ७ दूब चौगुना दूध मिलाकर पकाना चाहिये । यह घृत योनिशूलसे लेकर नीचे लिखे मन्त्रसे बनाते समय तथा खाते समय पीड़ित, पिंडित, चलित, निःसृत, विवृत, पिण्डयोनि, शिथिल- अभिमन्त्रण करना चाहिये । मन्त्रः-“ ॐ नमो महायोनि तथा षण्ढयोनिवाली स्त्रियोंको पिलाना चाहिये । इससे विनायकायामृतं रक्ष रक्ष मम फलसिद्धि देहि रुद्रवचनेन योनि ठीक गर्भ धारण योग्य हो जाती है। यह "फलघृत "स्वाहा ॥४८-५५॥ योनिदोष नष्ट करने में श्रेष्ठ है ॥ ४४-४७ ॥ नीलोत्पलादिघृतम् । सोमघृतम्। नीलोत्पलोशीरमधूकयष्टीसिद्धार्थकं वचा ब्राह्मी शंखपुष्पी पुनर्नवा । द्राक्षाविदारीतृणपञ्चमूलैः। पयस्यामययष्टयाह्नकटुकैलाफलत्रयम् ।। ४८॥ स्याज्जीवनीयश्च घृतं विपकं शारिवे रजनी पाठा भृङ्गदारु सुवर्चला। शतावरीकारसदुग्धमिश्रम् ॥५६॥ मनिष्ठा त्रिफला श्यामा वृषपुष्पं सगैरिकम् ॥४९॥ तच्छर्करापादयुतं प्रशस्तधीमान्पक्त्वा घृतप्रस्थं सम्यक् मन्त्राभिमन्त्रितम् ।। मसृग्दरे मारुतरक्तपित्ते । द्विमासगर्भिणी नारी षण्मासान प्रयोजयेत् ॥५०॥ क्षीणे बले रेतसि संप्रनष्टे सर्वाङ्ग जनयेत्पुत्रं शरं पण्डितमानिनम । कृच्छ्रे च रक्तप्रभवे च गुल्मे ॥५७॥ जडगद्दमूकत्वं पानादेवापकर्षति ।। ५१ ॥ नीलोफर, खश, मौरेठी, मुनक्का, बिदारीकन्द, तृणसप्तरात्रप्रयोगेण नरः श्रुतिधरो भवेत् । पञ्चमूल और जीवनीयगणके कल्कमें शतावरीका रस और नाग्निर्दहति तद्वेश्म न वनं हन्ति न प्रहाः ॥५२॥ मिलाकर सिद्ध घृत चतुर्थाश शक्करके साथ मिलाकर न तत्र म्रियते बालो यत्रास्ते सोमसंज्ञितः । सेवन करनेसे वातरक्तपित्तजन्य प्रदर, बलकी क्षीणता, वन्ध्यापि लभते पुत्रं सर्वामयविवर्जितम् । शुक्रनाश, मूत्रकृच्छ्र और रक्तज गुल्ममें लाभ पहुंचता योनिदुष्टाश्च या नार्यो रेतोदुष्टाश्च ये बराः॥५३॥ है ॥५६ ॥ ५ ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८५) चक्रदत्तः। वीरोगा बृहच्छतावरीघृतम् । ... तैलं तदिदं शङ्खहारतालचूर्णितं लेपात् । शतावरीमूलतुलाश्चतस्रः संप्रपीडयेत् । निर्मूलयति च रोमाण्यन्येषां सम्भवो नैव ॥६६॥ रसेन क्षीरतुल्येन पचेत्तेन घृताढकम् ॥ ५८ ॥ अमलतासकी जड़ ४ तोला, शंखचूर्ण २ तो०, हरिताल र जीवनीयैः शतावर्या मृद्वीकाभिः परूषकैः। तो०, कटुतैल ४० तो० गधेका मूत्र १ प्रस्थ और जल मिलापिष्टैः प्रियालैश्चाक्षांशैयिष्टीमधुकैभिषक् ॥ ५९॥ कर सिद्ध तेलमें फिर शंख और हरितालका प्रक्षेप छोड़कर लेप करनेसे बालोंको उखाड़ देता है और नये जमते सिद्धशीते च मधुनः पिप्पल्याश्चाष्टकं पलम् । नहीं ॥६५॥६६॥ दत्त्वा दशपलं चात्र सितायास्तद्विमिश्रितम् ॥६०॥ ब्राह्मणान्प्राशयेत्पूर्व लिह्यात्पाणिसलं ततः । . कर्पूरादितलम् । योन्यसृक्शुक्रदोषघ्नं वृष्य पुसवनं च तत् ।। ६१॥ कर्पूरभल्लातकशङ्खचूर्ण क्षतक्षयं रक्तपित्तं कासं श्वासं हलीमकम् । क्षारो यवानां च मनःशिला च । कामलां वातरक्तं च विसपै हच्छिरोग्रहम् । । तैलं विपक्कं हरितालमिश्र उन्मादादीनपस्मारान्वातपित्तात्मकाजयेत् ॥१२॥ रोमाणि निर्मूलयति क्षणेन ॥६७ ॥ शतावरीकी जड़ २० सेर पीस कर रस निकालना चाहिये, कपूर, भिलावां व शंखका चूर्ण, जवाखार, मैनशिल, और उस रसके बराबर दूध मिलाकर घी ६ सेरं ३२ तो० तथा हरिताल मिलाकर पकाया गया तैल क्षणभरमें रोमोंको उखाड़ जीवनीयगणकी ओषधियाँ शतावरी, मुनक्का, फाल्सा, व| देता है ॥ ६७ ॥ चिरौंजी प्रत्येक एक तोला तथा मौरेठी २ तोलेकी कल्क छोड़कर पकाना चाहिये । सिद्ध हो जानेपर उतार छान ठंढा क्षारतैलम् । कर शहद ३२ तोला, छोटी पीपलका चूर्ण ३२ तोला व मिश्री | शुक्तिशम्बूकशंखानां दीर्घवृन्तात्समुष्ककात् । ४० तोला मिलाकर पहिले ब्राह्मणोंको चटाना चाहिये, फिर १] दग्ध्वा क्षारं समादाय खरमूत्रेण गालयेत् ।। ६८॥ तोला स्वयम् चाटना चाहिये । यह योनिरक्त और शुक्रके क्षारार्धभागं विपचेत्तैलं च सार्षपं बुधः । दोषोंको नष्ट करता, बाजीकर तथा बालक उत्पन्न करता है। इदमन्तःपुरे देयं तैलमात्रेयपूजितम् ॥ ६९ ॥ क्षतक्षय, रक्तपित्त, कास, श्वास, हलीमक, कामला, वात बिन्दुरेकः पतेद्यत्र तत्र रोमापुनर्भवः । रक्त, विसर्प, हृदय, और शिरकी जकड़ाहट, उन्माद और अपस्मारादि वातपित्तात्मक रोगोंको नष्ट करता मदनादिवणे देयमश्विभ्यां च विनिर्मितम् ॥ ७० ॥ है॥५८-६२॥ अर्शसां कुष्ठरोगाणां पामाददुविचर्चिनाम् । - क्षारतैलामिदं श्रेष्ठं सर्वक्लेदहरं परम् ॥ ७१ ॥ लोमनाशका योगाः। शुक्ति, घोंघा, शंख, सोनापाठा व मोखा इन सबको जलाके दग्ध्वा शङ्ख क्षिपेद्रम्भास्वरसे तत्त पेषितम्। क्षार बनाकर गधेके पेशाबसे छानना चाहिये । क्षार जलसे आधा तुल्यालं लेपतो हन्ति रोम गुह्यादिसम्भवम् ॥३३॥ भाग सरसोंका तैल मिला पकावे । यह रनिबासमें देना चाहिये। रक्ताजनापुच्छचूर्णयुक्त तेलं तु सार्षपम। इसका एक बिन्दु जहां गिर जाता है, वहां फिर रोवाँ नहीं जमते । मदनादि ( उपदंश ) के घाबमें इसे लगाना चाहिये । इसे सप्ताहं व्युषितं हन्ति मूलाद्रोमाण्यसंशयम् । अश्विनीकुमारने बनाया है । अर्श, कुष्ठ, पामा, दगु और कुसुम्भतैलाभ्यङ्गो वा रोम्णामुत्पाटितेऽन्तकृत् ६४॥ विचर्चिकाको यह तैल नष्ट करता है । यह "क्षारतैल" समस्त शंखकी भस्म कर केलेके स्वरसमें छोड़ना चाहिये । फिर उसमें व्रणोंके मवादको साफ करता है ॥ ६८-७१ ॥ समान भाग हरिताल मिलाकर लेप करनेसे गुह्यादिके लोम नष्ट होते हैं । रक्ताजना ( अन्जननामिका ) की पूँछके चूर्णके ..इति योनिव्यापदधिकारः समाप्तः। साथ सरसोंका तेल ७ दिन रखकर लगानेसे जड़से बाल उड़ जाते हैं। कुसुमके तेलकी मालिश भी रोम नष्ट करने में यम लामामास्वरसे तत्तु पा३३भाएक बिन्दु जहां पर अथ स्त्रीरोगाधिकारः। आरग्वधादितैलम् । । गर्भस्रावचिकित्सा। आरग्वधमूलपलं कर्षद्वितयं च शङ्खचूर्णस्य । | मधुकं शाकबीजं च पयसा सुरदारु च । हरितालस्य च खरजे मूत्रप्रस्थे पक्कञ्च कटुतैलम् ६५/ अश्मन्तकः कृष्णतिलास्ताम्रवल्ली शतावरी ॥१॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - विकारः] भाषाटीकोपेतः। (२८५) नन्द वृक्षादनी फ्यस्या च तथैवोत्पलशारिवा। कशेरू, सिंघाड़ा, जीवनीयगणकी ओषधियां, कमल, नीलोफर, अनन्ता शारिवा रास्ता पद्मामधुकमेव च ॥ २॥ एरण्ड शतावरीसे सिद्ध ध शक्कर मिलाकर पीनेसे शूलसहित बृहतीद्वयकाश्मर्यक्षीरिशुङ्गास्त्वचो घृतम् । गर्भको स्थापित करता है ॥९॥ पृथक्पर्णी बला शिग्रु श्वदंष्ट्रा मधुयष्टिका ॥ ३॥ ____ कशेरुकादिचूर्णम् । शृङ्गाटकं बिसं द्राक्षा कशेरु मधुकं सिता। कशेरुशृङ्गाटकपद्मकोत्पलं मासेषु सप्त योगाः स्युरर्धश्लोकास्तु सप्तसु ॥४॥ समुद्गपर्णीमधुकं सशर्करम् । यथाक्रमं प्रयोक्तव्या गर्भस्रावे पयोऽन्विताः। सशूलगर्भस्रुतिपीडिताङ्गना कपित्थबिल्वबृहतीपटोलेक्षुनिदिग्धिकाः ॥५॥ । पयोविमिश्रं पयसानभुक् पिबेत् ॥ १०॥ मूलानि क्षीरसिद्धानि दापयद्भिषगष्टमे । कशेरू, सिंघाड़ा, पद्माख, नीलोफर, मुद्रपर्णी, मौरेठीको दूधमें । नवमे मधुकानन्तापयस्याशारिवाः पिबेत् ॥ ६॥ | पका शक्करके साथ मिला शूल तथा गर्भस्रावसे पीड़ित स्त्री पयस्तु दशमे शुण्ठथा शृतशीतं प्रशस्यते । सेवन करे तथा दूधके साथ भात खावे ॥१०॥ गर्भवतीको गर्भस्रावकी शङ्का होनेपर पहिले महीनेमें मौरेठी, शुष्कगर्भचिकित्सा। शाकबीज, क्षीरकाकोली, देवदारु । दूसरे महीनेमें अश्मन्तक, काले तिल, मजीठ, शतावरी । तीसरे महीनेमें वांदा, क्षीर- गर्भ शुष्क तु वातेन बालानां चापि शुष्यताम् । काकोली, काली सारिवा । चौथे महीनेमें अनन्ता, शारिवा, सितामधुककाश्यर्हितमुत्थापने पयः ।। ११ ।। रासन, भारङ्गी, मोरेठी। पांचवें महीनेमें छोटी बड़ी कटेरी, गर्भशोषे त्वामगर्भाः प्रसहाश्च सदा हिताः । खम्भार, दूधवाले वृक्षोंके अङ्कुर और छाल तथा घृत । छठे वातसे गर्भके सूखनेपर तथा बालकोंके सूखनेपर मिश्री,मौरेठी महीनेमें पृष्ठपर्णी, खरेटी, सहिजन, गोखुरू, मौरेठी । सातवें व खम्भारसे सिद्ध दूध पोषण करता है तथा गर्भके सूखनेपर कच्चे महनिमें सिंघाड़ा, कमलक तन्तु, मुनक्का, कशेरू, मौरेठी, गर्भ तथा प्रसह प्राणियों के मांसरस उत्तम होते हैं ॥११॥ मिश्री। इन आधे आधे श्लोकमें वर्णित सात योगोंका गर्भस्रावको रोकनेके लिये दूधके साथ प्रयोग करना चाहिये। तथा कैथा, सुखप्रसवोपायाः। बेल, बड़ी कटेरी, परवल, ईख व छोटी कटेरीकी जड़ दूधमें पाठा लाङ्गलिसिंहास्यमयूरकजटैः पृथक् ॥१२॥ सिद्ध कर आठवें महीनेमें । नवम मासमें मौरेठी, यवासा, क्षीर नाभिबस्तिभगालेपात्सुखं नारी प्रसूयते । विदारी, शारिवा तथा दशममासमें सोंठसे सिद्ध कर ठण्ढा किया परूषकस्थिरामुललेपस्तद्वत्पृथक् पृथक् ॥ १३ ॥ दूध देना चाहिये ॥ १-६ ॥ वासामूले दुतं तद्वत्कटिबद्धे प्रसूयते । अपरे प्रयोगा। पाठायास्तु शिफां योनी या नारी संप्रधारयेत् १४॥ सक्षीरा वा हिता शुण्ठी मधुकं देवदारु च्च ॥ ७ ॥ उरःप्रसवकाले च सा सुखेन प्रसूयते । एवमाप्यायते गर्भस्तीत्रा रुक् चोपशाम्यति । तुषाम्बुपरिपिष्टेन मूलेन परिलेपयेत् ॥ १५ ॥ कुशकाशोरुबूकानां मूलैगोक्षुरकस्य च । लाङ्गल्याश्चरणी सूते क्षिप्रमेतेन गर्भिणी। शृतं दुग्धं सितायुक्तं गर्भिण्याः शूलनुत्परम् ॥८॥ आटरूषकमूलेन नाभिबस्तिभगालेपः कर्तव्यः॥९६ गृहाम्बुना गेहधूमपानं गर्भापकर्षणम् । दूधके साथ मौरेठी, सोंठ और देवदारु' देना चाहिये । इस मातुलुङ्गस्य मूलानि मधुकं मधुसंयुतम् ।। १७ ॥ तरह गर्भ बढ़ता है और तीव्र पीड़ा शान्त होती है। इसी प्रकार कुश, काश एरण्ड व गोखुरूकी जड़से सिद्ध कर ठण्ढ़ा किया दूध घृतेन सह पातव्यं सुखं नारी प्रसूयते ॥ १८ ॥ मिश्री मिलाकर देनेसे गर्भिणीका शूल नष्ट होता है ॥ ७ ॥८॥ पुटदग्धसर्पकञ्चुक मसृणमसी कुसुमसारसहिताजिताक्षी । कशेरुकादिक्षीरम् । झटिति विशल्या जायेत कशेरुशृङ्गाटकजीवनीय . गर्भवती मूढगर्भापि ॥१९॥ पद्मोत्पलेरण्डशतावरीभिः। गृहाम्बुना हिंगुसिन्धुपानं गर्भापकर्षणम् सिद्धं पयः शर्करया विभिनं पाढ़, कलिहारी, वासा व अपामार्ग इनमेंसे किसी एककी जड़ संस्थापयेद्गर्भमुदीर्णशूलम् ॥ ९॥ पीसकर नाभि, बस्ति और भगमें लेप करनेसे सुखपूर्वक स्त्रीक Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८६) चक्रदत्तः। [स्त्रीरोगासन्न्न्न्न्न्न्च्न्न् बालक उत्पन्न होता है। इसी प्रकार फालसा और शालिपर्णीमसे अपरापातनयोगा। किसीकी जड़का लेप अथवा वासाकी जड़को कमरमें बांधनेसे शीघ्र ही बालक उत्पन्न हो जाता है । जो स्त्री पाढकी जड़ कटुतुम्ब्यहिनिर्मोककृतवेधनसर्षपैः ॥२६॥ योनिमें रखती है वह प्रसवकालमें सुखपूर्वक बालक उत्पन्न करती कटुतैलान्वितो धूमो योनेः पातयतेऽपराम् । है। कलिहारीकी जड़ काजीमें पीसकर पैरामें लगानेसे शीघ्र ही कचवेष्टितयांगुल्या घृष्टे कण्ठे सुखं पतत्यपरा ॥२७ बालक हो जाता है । अडूसेकी जड़से भी नाभि, मूत्राशय और । कडुई तोम्बी, सांपकी केंचुल, कडुई तोरई व सरसोंके बीजके भगमें लेप करना चाहिये । तथा काजीके साथ गृहधूम पिलाना| चूर्णको कडए तैलके साथ धूम योनिकी अपराको गिराता है। चाहिये । इससे सुखपूर्वक गोत्पत्ति होती है। बिजौरे निम्बूकी! बालोंको अंगुलीमें लपेटकर कण्ठमें घिसनेसे अपरा गिरती जड़ व मौरेठीके चूर्णको शहदमें मिलाकर घीके साथ है ॥ २६ ॥२७॥ पिलानेसे सुखपूर्वक बालक होता है, पुटमें जलायी गयी सांपकी केंचुलकी चिकनी भस्मको शहदके साथ आंखमें अपरो मन्त्रः । लगानेसे स्त्री शीघ्र ही गर्भको बाहर करती है । चाहे मूढगर्भा ही क्यों न हो हाम्बुके साथ हींग व सेंधानमकका पान गर्भको " एरण्डस्य वनात् काको गङ्गातीरमुपागतः । बाहर निकालता है ॥ १२-१९ ॥ इतः पिबति पानीयं विशल्या गर्भिणी भवेत् ॥" अनेन सप्तधामन्त्र्य जलं देयं विशल्यकम् ॥ २८॥ सुप्रसूतिकरो मन्त्रः। एरण्डक बनसे कौआ गङ्गातीर आया, इधर पानी पीता है, इहामृतं च सोमश्च चित्रभानुश्व भामिनि । इधर गर्मिणी गर्भरहित होती है । इस मन्त्रसे सात बार आमउच्चैःश्रवाश्च तुरगो मन्दिरे निवसन्तु ते ॥२०॥ |त्रित कर जल पीनेसे गर्भिणी गर्भरहित होती तथा अपराका इदममृतमपां समुद्धृतं वै पातन होता है ॥ २८॥ भव लघुगर्भमिमं विमुञ्चतु स्त्री। तदनलपवनार्कवासवास्ते अपरे योगाः। सह लवणाम्बुधरैर्दिशन्तु शान्तिम् ॥२१/ मूलेन लाङ्गलिक्या वा संलिप्ते पाणिपादे च । मुक्ताः पाशा विपाशाश्व मुक्ताः सूर्येण रश्मयः ।। अपरापातनं मद्यः पिप्पल्यादिरजः पिबेत् ॥ २९॥ मुक्तः सर्वभयाद्गर्भ एह्येहि मा चिरं स्वाहा ॥२२॥ गरीमदनदहनमूलं चिरजमाप । ऊपर लिखे मन्त्रसे सात वार अभिमन्त्रित जल पिलानेसे | गर्भ मृतममृतं वा निपातयति ॥ ३० ॥ सुखपूर्वक बालक होता है ॥ २०-२२ ॥ कलिहारीकी जड़से हाथ पैरों में लेप कर शराबके साथ पिप्प. यन्त्रप्रयोगः। ल्यादिचूर्ण पीनेसे अपरा पातन होता है। इसी प्रकार गरी (नरिजलं च्यवनमन्त्रेण सप्तवाराभिमन्त्रितम् । यल) मैनफल व चीतकी जड़का चूर्ण भी मृत या जीवित पीत्वा प्रसूयते नारी दृष्ट्वा चोभयत्रिंशकम् ॥२३ ॥ गर्भको गिराता है ॥ २९-३०॥ तथोभयपञ्चदशदर्शनं सुखसूतिकृत् । मक्कलचिकित्सा। षोडशर्तुवसुभिः सह पक्षदिगष्टादशभिरेव च ॥२४ अर्कभुवनाब्धिसहितैरुभयत्रिंशकमिदमाश्चर्यम् । शालिमूलाक्षमात्रं वा मूत्रेणाम्लेन वान्वितम् । वसुगुणाब्ध्येकबाणनवषट्सप्तयुगैः क्रमात् ॥२५॥ उपकुञ्चिकां पिप्पली च मदिरां लाभतः पिबेत्।।३१ सर्व पञ्चदश द्विस्तु त्रिशकं नवकोष्ठके । सौवर्चलेन संयुक्तां योनिशुलनिवारणीम् । उभयपञ्चदशकम् । उभयत्रिंशकम् । सूताया हच्छिरोबस्तिशूलं मकलसंज्ञितम् ॥ ३२॥ यवक्षारं पिबेत्तत्र सर्पिषोष्णोदकेन वा । १६६८ पिप्पल्यादिगणकाथं पिबेद्वा लवणान्वितम् ॥ ३३॥ १२/१४/४ शालि (धान ) की जड़ १ तोला मूत्र अथवा काजीके इन यन्त्रोंको लिखाकर दिखानेसे सुखपूर्वक बालक हो जाता साथ अथवा कलौंजी, छोटी पीपल, शराब व काला नमक मिलाकर पीनेसे योनि शूल तथा प्रसूता स्त्रीके हृदय, है ॥ २३-२५॥ शिर और बस्तिके शूल तथा मक्कल शूल नष्ट होता है । १"गृहाम्बु" काजीको कहते हैं। |अथवा उसमें जवाखार घी अथवा गरम जलके साथ पीवे Im २०१० Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः ] अथवा पिप्पल्यादि गणका क्वाथ नमक के साथ पीना चाहिये ॥ ३१-३३ ॥ भाषाकोपेतः । रक्तस्रावचिकित्सा । पारावतशकृत्पतिं शालितण्डुलवारिणा । गर्भपातान्तरोत्थे तु रक्तस्रावनिवारणम् ॥ ३४ ॥ कबूतरकी वीट चावल के जलसे पीनेसे गर्भपातके अनन्तर बहते हुए रफको शांत करता है ॥ ३४ ॥ किविकशरोगचिकित्सा । जलपिष्टवरुणपत्रैः सघृतैरुद्वर्तनाले पौ । किक्किशरोगं हरतो गोमयघर्षादथो विहितो ||३५|| Raftarथः । होबेरारणिरक्तचन्दनबलाधन्याकवत्सादनीमुस्तोशीरयवासपर्पट विषाक्काथं पिबेद्गर्भिणी | नानादोषयुक्तातिसारकगदे रक्तस्रुती वा रे योगोऽयं मुनिभिः पुरा निगदितः सूत्यामये शस्यते ३६ सुगन्धवाला, अरणी, लालचन्दन, खरेटी, धनियां, गुर्च, मोथा, खरा, यवासा, पित्तपापड़ा, व अतीसका काथ गर्भिणी अनेक दोषयुक्त अतीसार, रक्तस्राव तथा ज्वरमें पीवे, तथा यह योग मुनियोंने सूतिका रोग भी कहा है ॥ ३६ ॥ छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, सोंठ, अजवाइन, सफेद जीरा, स्याह जीरा, हल्दी, दारूहल्दी, विड़नमक व कालानमक इन औषधियोंसे सिद्ध काजी आमवातको नष्ट करती, घृष्य, जलमें पिसे वरुणाके पत्तोंके चूर्णको घी में मिलाकर किया गया | कफन, अग्निदीपक तथा स्त्रियोंके दूधको बढ़ाती है । तथा मक्कलेप और उबटन अथवा गोबरसे घिसना किक्किश रोगको शान्त करता है ३५ ॥ लशूल नष्ट करती है । इस प्रयोगमें उपरोक्त औषधियाँ मिलाकर १ भाग, काजी ८ भाग और जल ४ भाग, मिलाकर चाहिये । जलमात्र जलजानेपर उतार छानकर प्रयोग करना चाहिये ॥ ३९-४२ ॥ पकाना पञ्चजीकड अमृतादिकाथः । अमृतानागर सहचरभद्रेत्कटपञ्चमूलजलदल जलम् । श्रुतशीतं मधुयुक्तं निवारयति सूतिकातङ्कम् ॥ ३७ ॥ गुर्च, सोंठ, कटसैला, गन्धप्रसारणी, पञ्चमूल नागरमोथा व सुगन्धवाला क्वाथको ठण्डा कर शहद मिला सेवन करनेसे ज्वर व सूर्तिकारोग नष्ट होते हैं ॥ ३७ ॥ (२८७) सहचरादिक्वाथः । सहचरपुष्कर वेतसमूलं कङ्कतं दारु कुलत्थसमम् । जलमत्र सैन्धवहिङ्गुयुतं सद्यो घोरसूतिकाशूलहरम् ॥ ३८ ॥ दशमूलीकृतः काथः सद्यः सूतिरुजापहः । कटसैला, पोहकरमूल, बेतकी जड़, विकत, देवदारु, कुलथी समान भाग ले क्वाथ बना सेंधानमक व भुनी हींग मिलाकर पीनेसे शीघ्र ही घोर सूतिका रोग नष्ट होता है । दशमूलका काथ तत्काल सूतिकादोषको नष्ट करता है ॥ ३८ ॥ वज्रककाञ्जिकम् | पिप्पलीपिप्पलीमूलं चव्यं शुण्ठी यमानिका ॥ ३९॥ जीरके द्वे हरिद्वे द्वे बडसौवर्चलं तथा । एतैरेवौषधैः पिष्टैरारनालं प्रसाधितम् ॥ ४० ॥ आमवातहरं वृष्यं कफघ्नं वह्निदीपनम् । व नाम स्त्रीणामग्निविवर्धनम् ॥ ४१॥ मक्कलशूलशमनं परं क्षीराभिवर्धनम् । क्षीरपाक विधानेन काञ्जिकस्यापि साधनम् ॥ ४२ ॥ जीरकं हपुषा धान्यं शताह्वा सुरदारु च । यमानी क्रुष्टिका हिगुपत्रिका कासमर्दकम् ||४३|| पिप्पलीपिप्पलीमूलमजमोदाथ बाष्पिका । चित्रकं च पलांशानि तथान्यश्च चतुष्पलम् ||४४ ॥ कशेरुकं नागरं च कुष्ठं दीप्यकमेव च । गुडस्य च शतं दद्याद् घृतप्रस्थं तथैव च ॥ ४५ ॥ क्षीरद्विप्रस्थसंयुक्तं शनैर्मृद्वग्निना पचेत् । पञ्चजीरक इत्येष सूतिकानां प्रशस्यते । गर्भार्थिनीनां नारीणां बृंहणीये समारुते । विंशतिर्व्यापदो योने: कासं श्वासं ज्वरं क्षयम् ४७ ॥ हलीमकं पाण्डुरोगं दौर्गन्ध्यं बहुमूत्रताम् । हन्ति पीनोन्नतकुचा: पद्मपत्रायतेक्षणाः । उपयोगात्स्त्रियो नित्यमलक्ष्मीमलवर्जिताः ॥ ४८ ॥ जीरा, हाऊबेर, धनियां, सौंफ, देवदारु, अजवाइन, राई, नारीकी पत्ती, कसौंदी, छोटी पीपल, पिपरामूल, अजमोद, छोटी राई, तथा चीतकी जड़ प्रत्येक४ तो०, कशेरू १६ तोला, सोंठ १६ तोला, कूठ १६ तोला, अजवाइन १६ तो० गुड़ ५ सेर, घी १२८ तो०, दूध ३ सेर ३ छ० १ तो०, धीरे २ मन्द आंच से पकाना चाहिये । यह " पञ्चजीरक गुड़ " सूतिका स्त्रियोंके लिये हितकर है । तथा गर्भकी इच्छावाली स्त्रियोंके लिये, बृंहणीय वायुरोगमें, योनिकी २० व्यापत्तियों, कास, श्वास, ज्वर, क्षय, हलीमक, पांडुरोग, दुर्गेधि तथा Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८८) [स्त्रीरोगान्न्न्न्न्च्छ न् -. - बहुमूत्रतामें इसे देना चाहिये । इसके प्रयोगसे स्त्रियां मोटे स्तनोंकी सूजनमें विद्रधिमें आम, पच्यमान व पक्व अवस्थाऊँचे कुचवाली कमल सदृश नेत्रवाली और सुन्दर होती में कही गयी चिकित्सा करे । तथा स्तनोंको सदा दुहते रहना हैं ॥४३-४८॥ |चाहिये ॥५६॥ क्षीराभिवर्धनम् । स्तनपीडाचिकित्सा। वनकाासिकेक्षणां मूलं सौवीरकेण वा। । विशालामूललेपस्तु हन्ति पीडां स्तनोत्थिताम् । निशाकनकफलाभ्यां लेपश्चापि स्तनातिहा ॥ ५७॥ विदारीकन्दं सुरया पिबेद्वा स्तन्यवर्धनम् ॥ ४९ ।। इन्द्रायणकी जड़को पीसकर लेप करनेसे स्तनपीड़ा दूर होती दुग्धेन शालितण्डुलचूर्णपानं विवर्धयेत् । ।.. है। इसी प्रकार हल्दी व धतूरेके फलोंका लेप स्तनपीडाको नष्ट स्तन्यं सप्ताहतः क्षीरसेविन्यास्तु न संशयः॥५०॥ करता है ॥ ५७॥ जङ्गली कपासकी जड़ और ईखकी जड़के चूर्णको काजीके स्तनकठिनीकरणम् । साथ अथवा विदारीकन्दको शरावके साथ दूध बढ़ानेके लिये पीना चाहिये । दूधका सेवन करनेवाली और दूधके ही साथ | मूषिकवसया शूकरगजमहिषमांसचूर्णसंयुतया । शालिचावलके चूर्णको फाकनेवाली स्त्रीका दूध ७ दिनमें निःसन्देह | अभ्यङ्गमर्दनाभ्यां कठिनी पीनी स्तनौ भवतः ५८॥ बढ़ जाता है ॥ ४९ ॥५०॥ महिषीभवनवनीतं व्याधिबलोग्रास्तथैव नागबला । स्तन्यविशोधनम् । पिष्ट्वा मर्दनयोगात्पीनं कठिनं स्तनं कुरुते ॥ ५९ ।। मूसेकी चर्बी, शुकर, हाथी व भैंसाके मांसके चूर्णके साथ हरिद्रादिं वचादिं वा पिबेत्स्तन्यविशुद्धये । स्तनोंपर मालिश तथा मर्दन करनेसे स्तन कड़े और मोटे होते तत्र वातात्मके स्तन्ये दशमूलीजलं पिबेत् ॥५१॥ हैं । इसी प्रकार भैंसीका मक्खन, कूठ, खरेटी, बच, व गङ्गेपित्तदुष्टेऽमृताभीरुपटोलं निम्बचन्दनम् । रनको पीसकर स्तनोंपर मर्दन करनेसे स्तन मोटे तथा कड़े होते धात्री कुमारश्च पिबेत्काथयित्वा सशारिवम् ॥५२॥ हैं ॥ ५८ ॥ ५९ ॥ कफे वा त्रिफलामुस्ताभूनिम्ब कटुरोहिणीम् ।। श्रीपर्णीतलम् । धात्रीस्तन्यविशद्धयर्थ मद्यपरसाशिनी ॥५३॥ श्रीपर्णीरसकल्काभ्यां तैलं सिद्धं तिलोद्भवम् । भाञ्जीवचादारुपाठाः पिबेत्सातिविषाः शृताः॥५४॥| तत्तैलं तूलकेनैव स्तनस्योपरि धारयेत् ।। ६०॥ स्तन्यकी शुद्धिके लिये हरिदादि या वचादिका प्रयोग करे। पतितावुत्थिती स्त्रीणां भवेतां तु पयोधरी ।। ६१ ।। पातात्मक दूधमें दशमूलका जल पीवे । पित्तसे दूषित दूधमें खम्भारके रस और कल्कसे सिद्ध तिलतैलमें भिगोये धाय तथा कुमार, गुर्च, शतावरी, परवल, नीम, चन्दन और हुए फोहेको स्तनपर रखनेसे गिरे हुए स्तन उठ जाते शारिवाका क्वाथ पीवे । कफमें त्रिफला, नागरमोथा, चिरायता | हैं ॥६० ॥६॥ व कुटकीका क्वाथ पीवे । मूंगके यूषके साथ भोजन करे ।। __कासीसादितैलम । अथवा भारङ्गी, बच, देवदारु, पाढ़ व अतीसका क्वाथ | पीवे ॥५१-५४ ॥ काशीसतुरगगन्धाशारिवागजपिप्पलीविपक्केन । | तैलेन यान्ति वृद्धिं स्तनकर्णवराङ्गलिङ्गानि ॥६२ ॥ स्तनकीलचिकित्सा। काशीस, असगन्ध, शारिवा व गजपीपलसे सिद्ध तैलकुक्कुरमेञ्चुकमूलं चर्वितमास्ये विधारितं जयति। की मालिश करनेसे स्तन, कान, मुख और लिङ्ग बढ़ते सप्ताहात्स्तनकीलं स्तन्यं चैकान्ततः कुरुते ।। ५५॥ | हैं ॥ ६२ ॥ नागबलाकी जड़को मुखमें चबाकर स्तनमें लगानेसे ७ दिनमें स्तनस्थिरीकरणम् । स्तनकील नष्ट होता और दूध बढ़ता है ॥५५॥ प्रथम? तण्डुलाम्भो नस्यं कुर्यात्स्तनी स्थिरौ। स्तनशोथचिकित्सा। गोमहिषीघृतसहितं तैलं श्यामाकृताञ्जलिवचाभिः ६३ शोथं स्तनोत्थितमवेक्ष्य भिषग्विदध्या- |सत्रिकटुनिशाभिः सिद्धं नस्यं स्तनोत्थापनं परम् । द्यद्विद्रधावभिहितं त्विह भेषजं तत् । तनूकरोति मध्यं पीतं मथितेन माधवीमूलम् ॥६४॥ आमे विदह्यति तयेव गते च पाकं | प्रथम ऋतुकालमें गाय और भैंसीके घीके साथ चावलके तस्याः स्तनी सततमेव च निर्दुहीत ॥५६॥| जलका नस्य देनेसे स्तन स्थिर होते हैं । इसी तरह प्रिया तात्थिती स्त्रीणां भवेतां तो जल पीवे । पित्तसे दूषित व धाय तथा कुमार, Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (२८९) - लज्जाल, बच, सोंठ, मिर्च, पीपल और हल्दीसे सिद्ध तैलका तुण्डिचिकित्सा। नस्य स्तनोंको उठाता है । इसी प्रकार मठेके साथ माधवी मृत्पिण्डेनाग्नितप्तेन क्षीरसिक्तेन सोष्मणा । (कुन्द ) की जड़को पीसकर पीनेसे कमर पतली होती स्वेदयेदुत्थितां नाभि शोथस्तेन प्रशाम्यति ॥४॥ मिट्टीके ढेलेको अग्निमें तपा दूधमें बुझाकर गरम गरम उसी योनिसंकोचनं वशीकरणं च । दूधके सिञ्चनसे नाभिशोथ शान्त होता है ॥४॥ स्याच्छिथिलापि च गाढा नाभिपाकचिकित्सा। सुरगोपाज्याभ्यङ्गतो योनिः । नाभिपाके निशालोध्रप्रियङ्गुमधुकैः शृतम् । • शववहनस्थितबन्धन तैलमभ्यञ्जने शस्तमेभिर्वाप्यवचूर्णनम् ॥ ५ ॥ रज्ज्वा सन्ताडनाद्धि दयितेन ।। ६५॥ । नाभिपाकमें हल्दी, लोध, प्रियङ्गु व मौरेठीसे सिद्ध तैल नश्यत्यबाद्वेषः पत्यो सहजः कृतोऽथवा योगैः। लगाना अथवा चूर्णका उर्राना हितकर है ॥ ५॥ दस्वैव दुग्धभक्तं विप्रायोत्पाट्य सितबलामूलम् ।। पुष्ये कन्यापिष्टं दत्तमनिच्छाहरं भक्ष्ये ॥६६॥ अहिण्डिकाचिकित्सा। इन्द्रगोप और घीकी मालिशसे ढीली योनि कड़ी हो जाती सोमग्रहणे विधिवत्केकिशिखामूलमुद्धृतं बद्धम् । है। तथा पतिसे मुर्देकी रथीके बन्धनकी रस्सीसे ताडित होनेसे जघनेऽथ कन्धरायांक्षपयत्याहिण्डिकां नियतम्॥६॥ स्वाभाविक अथवा कृत्रिम पतिद्वेष नष्ट होता है । इसी प्रकार सप्तदलपुष्पमरिचं पिष्टं गोरोचनासहितम् । ब्राह्मणको दूध भात खिलाकर पुष्यनक्षत्र में सफेद खरेटीकी जड़ पीतं तद्वत्तण्डुलभक्तकृतो दुग्धपिष्टकपाशः॥७॥ उखाड़ कन्यासे पिसवाकर भोजनमें मिला खिलानेसे पतिका जम्बुकनासा वायसजिह्वा नाभिर्बराहसंभूता । पत्नीकी ओर प्रेम होता है॥ ६५॥ ६६ ॥ कास्यं रसोऽथ गरलं प्रावृड्भेकस्य वामजङ्घास्थि ८ इति स्त्रीरोगाधिकारः समाप्तः । इत्येकशोऽथ मिलितं विधृतं प्रीवादिकटिदेशे । अहिण्डिकाप्रशमनमभ्यङ्गो नातिपथ्यविधिः ॥९॥ अथ बालरोगाधिकारः। चन्द्रग्रहणमें विधिपूर्वक मयूराशखाकी जड़ उखाड़ कमर या गर्दनमें बान्धनेसे अहिंडिका रोग अवश्य नष्ट होता है । इसी प्रकार सप्तपर्णके फूल, काली मिर्च व गोरोचनको पीसकर सामान्यक्रमः। धके साथ पिलाना चाहिये। अथवा चावलके भातकी जली कुष्ठवचाभयाब्राह्मीकमलं क्षौद्रसर्पिषा। पिछी पीसकर दूध व शहद मिलाकर पिलाना चाहिये। इसी प्रकार शृगालकी नाक, कौएकी जिह्वा, शूकरकी नाभि, कांसा. वर्णायुःकान्तिजननं लेहं बालस्य दापयेत् ॥ १॥ पारद और सर्पविष तथा बर्साती मेढककी बामजंघाकी हही, स्तन्याभावे पयश्छागं गव्यं वा तद्गुणं पिबेत् । सब एकमें मिलाकर गर्दन या कमर आदिमें बांधना अहिंडिका कर्कन्धोर्गुडिकां तप्तां निर्वाप्य कटुतैलके। शान्त करता है। इसमें अभ्यङ्ग या पथ्यविधि विशेष नहीं तत्तलं पानतो हन्ति बालानामुल्बमुद्धतम् ॥२॥ है ॥ ६-९॥ व्योषशिवोग्रा रजनी कल्कं वा पीतमथ पयसा । उल्बमशेष हरते पटुतां बालस्य चात्यन्तम् ॥ ३॥ अनामकचिकित्सा। अनामके घुघुरिकाबुक्कामरिचरोचनाः। कुठ, बच, बड़ी हरोंका छिस्का, ब्राह्मी व कमलके चूर्णको नवनीतं च संमिश्य खादेत्तद्रोगनाशनम् ॥१०॥ शहद और घीके साथ मिलाकर बालकको देना चाहिये । इससे बालकका वर्ण, आयु और कान्ति वढती है । और तैलाक्तशिरस्तालुनि सप्तदलार्कस्नुहीभवं क्षीरम् । माके दूध न होनेपर बकरी अथवा गायका दूध तद्गुण ही| दत्त्वा रजनीचूर्णे दत्ते नश्येदनामको रोगः ॥११॥ होता है। उसे पीना चाहिये । बेरकी गोली बना तपाकर| लेहयेच्च शुना बालं नवनीतेन लेपितम् । । तैलमें बुझाना चाहिये। यह तेल बालकोंके पिलानेसे जरायुके स्फुटकपत्रजरसोद्वर्तनं च हि तद्धितम् ॥१२॥ अंशको साफ करता है। इसी प्रकार त्रिकटु, हर्र, बच, व अनामकमें घुघुरिका (कीट ) के आगेका मांस, काली हल्दीके कल्कको दूधके साथ पिलानेसे जरायु दोषको नाशता | मिर्च, गोरोचन और मक्खन मिलाकर खानेसे यह रोग नष्ट है। तथा बालकको फुर्तीला बनाता है ॥ १-३॥ होता है । शिरमें तालुपर तैल चुपर सप्तदल, आक और सेहुण्डके Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९०) चक्रदत्तः। [बालरोगा दूधको लगाकर ऊपरसे हल्दीका चूर्ण उर्शनेसे अनामक रोग महीनेमें १ रत्ती औषधि शहद, दूध, घी व मिश्रीसे पतली कर नष्ट होता है। बालकके शरीरमें मक्खनका लेप कर कुत्तेसे चटा-पिलाना चाहिये । महीनेकी वृद्धिके साथ साथ औषध मात्रा भी मा चाहिये ॥१०-१२॥ | एक एक रत्ती प्रतिमास बढाना चाहिये । सालभरतक यही क्रम रखनेके अनन्तर फिर प्रति वर्ष १ माशा सोलह वर्षतक बढाना अनामकहरं तैलम् । |चाहिये* ॥ १८-२०॥ वैलस्य भागमेकं मूत्रस्य द्वौ च शिम्बिदलरसस्य ।। गव्यं पयश्चतुर्गुणमेवं दत्त्वा पचेत्तैलम् । हरिद्रादिकाः । तेनाभ्यंगः सततं रोगमनामकाख्यमपहरति ॥१३॥ हरिद्राद्वययष्टयाह्वसिंहीशक्रयवैः कृतः। एक भाग तैल, २ भाग गोमूत्र, २ भाग सेमकी पत्तीका | शिशोवरातिसारनः कषायस्स्तन्यदोषजित् ॥२१॥ रस, ४ भाग गोदुग्ध छोड़कर तैल पकाना चाहिये । इससे सदा हल्दी, दारुहल्दी, मोरेठी, कटेरी व इन्द्रयवका क्वाथ बालमालिश अनामक रोग नष्ट करती है ॥ १३ ॥ कोंके ज्वरातिसारको नष्ट करता तथा स्तन्य दोषको जीतता कजलम् । है ॥२१॥ आर्क तूलकमाविकरोमाण्यादाय केशराजस्य । चातुर्भद्रचूर्णम् । स्वरसेनाक्ते वस्त्रे कृत्वा वति च तैलाक्ताम् ॥ १४॥ घनकृष्णारुणाशृङ्गीचूर्ण क्षौद्रेण संयुतम् । तज्जातकज्जलाजितलोचनयुगलोऽप्यलंकृतो बालः । शिशोवरातिसारनं कासश्वासवमीहरम् ॥२२॥ मनामकरोगं क्षपयति भूतादिकं चापि ॥१५॥ नागरमोथा, छोटी, पीपर, मजीठ व काकड़ासिगीका आककी रुई व भेड़के बाल ले भांगरेके रसमें तर कर सुखा | चूर्ण शहदके साथ बालकको देनसे ज्वरातिसारको नष्ट बत्ती बना तेलमें डुबोकर जलाना चाहिये । इससे बनाये गये | करता तथा कास, श्वास व वमनको शान्त करता काजलको बालककी आँखोंमें लगानेसे अनामकरोग तथा भूतादि है॥२२॥ बाधा शान्त होती है ॥ १४ ॥ १५॥ धातक्यादिलेहः। अपरे प्रयोगाः । धातकीबिल्वधन्याकलोधेन्द्रयववालकैः। चालनिकातलसंस्थितपोतं संप्लाव्य गव्यमूत्रेण। | लेहः क्षौद्रेण बालानां ज्वरातीसारवान्तिजित्॥२३॥ ओकोदशालिकायां रजकक्षारोदकस्नानम् ।। १६॥ धायके फूल, बेल, धनियां, लोध व इन्द्रयवसे बनाया गया दासक्रयणश्रावणवराटिकारसेन्द्रपूरिता धृता कण्ठे। लेह शहदके साथ बालकांके ज्वरातिसार और वमनको शांत नलिनीदले च शयनं सुकष्टमनामकाख्यरोगनम १७ करता है ॥ २३ ॥ लड़केको धोवीके पाटेपर खड़ा कर चलनीसे गोमूत्र रजन्यादिचूर्णम् । छोड़कर स्नान कराना चाहिये । फिर धोबीके क्षार मिश्रित रजनीदारुसरलश्रेयसीबृहतीद्वयम् । जलसे स्नान कराना चाहिये । इसी प्रकार नौकर द्वारा खरीदी गयी किसी योगी या पाखण्डीके पासकी कौड़ी पारद भरकर पृश्निपणी शताह्वा च लीढं मासिकसर्पिषा ॥२४॥ गलेमें बांधनेसे अथवा कमलके पत्तोंकी शय्यापर सुलानेसे अना ग्रहणीदीपनं हन्ति मारुताति सकामलाम् । मकरोग दूर होता है ॥ १६ ॥ १७ ॥ धरातीसारपाण्डुम्नं बालानां सर्वशोथनुत् ॥२७॥ हल्दी, देवदारु, सरल धूप, गजपीपल, छोटी कटेरी, बड़ी सामान्यमात्राः। कटेरी, पिठिवन और सौंफके चूर्णको शहद व घीके साथ चाटभैषज्यं पूर्वमुद्दिष्टं नराणां यज्वरादिपु। नेसे वालकोंकी ग्रहणी दीप्त होती, वायुकी पीड़ा, कामला, ज्वरादेयं तदेव बालानां मात्रा तस्य कनीयसी ॥१८॥तिसार, पांडु और समस्त शोथ नष्ट होते हैं ॥ २४ ॥२५॥ प्रथमे मासि जातस्य शिशोभैषजरक्तिका। * जवान पुरुषके लिये किसी औषधकी जितनी मात्रा हो अवलेह्या तु कर्तव्या मधुक्षीरसिताघृतैः ॥ १९ ॥ सकती है, उससे ,२० भाग १ मासके बालकको, २६ भाग २ एकैकां वर्धयेत्तावद्यावत्संवत्सरो भवेत् । मासके बालकको भाग ३ मासके बालकको, ४४ भाग चार तदूर्ध्व माषवृद्धिः स्याद्यावदाषोडशाब्दिकाः ॥२०॥ मासके लिये इसी प्रकार बढाते हुए १६ भाग, एक वर्षवालेके मनुष्योंके लिये ज्वरादिकोंमें जो ओषधियां बतायी गयी हैं. लिये भाग २ वर्षवालेके लिये इसी प्रकार बढाते हुए १६ यही बालकोंको देना चाहिये । पर मात्रा छोटी रहे । पहिले वर्ष में पूर्ण मात्रा देनी चाहिये ।। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। - - पन्न - w मिश्यादिलेहः। बेलका गूदा, घायके फूल, सुगन्धवाला, लोध व गजपीपमिशी कृष्णाञ्जनं लाजा शृङ्गीमरिचमाक्षिकः। लका क्वाथ या अवलेह शहद मिलाकर पिलानेसे बालकोंके दस्त लेहः शिशोर्विधातव्यश्छर्दिकासज्वरापहः ।। २६॥ बन्द होते हैं ॥ ३२ ॥ सौंफ, काला सुरमा, खील, काकड़ाशिंगी, काली मिर्च व , समङ्गादिवाथः। शहदका लेह बालकोंकी वमन, खांसी और ज्वरको नष्ट करता समाधातकीलोध्रशारिवाभिः शृतं जलम् । दुर्धरेऽपि शिशोर्देयमतीसारे समाक्षिकम् ॥ ३३ ।। शृङ्गयादिलेहः। लज्जालुके बीज, 'धायके फूल, लोध, व शारिवासे सिद्ध क्वाथको शहदके साथ बालकोंके कठिन अतिसारमें देना शृङ्गी समुस्तातिविषां विचूर्ण्य चाहिये ॥३३॥ लेहं विदध्यान्मधुना शिशूनाम् । कासज्वरच्छर्दिभिरर्दितानां नागरादिकाथः। समाक्षिकां चातिविषां तथैकाम् ॥२७॥ काकड़ासिंही, अतीस व नागरमोथाका चूर्णकर शहदके साथ नागरातिविषामुस्तावालकेन्द्रयवैः शृतम् । अथवा अकेले अतीस शहदके साथ चटानेसे बालकोंकी खांसी, __कुमारं पाययेत्प्रातः सर्वातिसारनाशनम् ।। ३४॥ ज्वर और वमन शांत होती है ॥ २७ ॥ सोंठ, अतीस, नागरमोथा, सुगन्धवाला व इन्द्रयवके क्वाथको प्रातःकाल पिलानसे समस्त अतीसार नष्ट होते छर्दिचिकित्सा। पीतं पीतं वमेद्यस्तु स्तन्यं तन्मधुसर्पिषा। द्विवार्ताकीफलरसं पञ्चकोलं च लेहयेत् ॥ २८॥ समङ्गादियवागूः। आम्रास्थिलाजसिन्धूत्थैर्लेहः क्षौद्रेण छर्दिनुत् ॥२९॥ समझा धातकी पद्मं वयस्था कच्छुरा तथा । पिप्पलीमरिचानां तु चूर्ण समधुशर्करम् । पिष्टरेतैर्यवागूः स्यात्सर्वातीसारनाशिनी ॥३५॥ रसेन मातुलुङ्गस्य हिक्काच्छर्दिनिवारणम् ॥ ३० ॥ लजालुके बीज, धायके फूल, कमल, बच व कौंचके जो बालक दूध पीकर वमन कर देता है, उसे छोटी बडी बीजको पीसकर बनायी गयी यवागू सब अतीसारोंको नष्ट कटेरीके फलोंका रस व पञ्चकोलका चूर्ग शहद व घी मिलाकर करती है ॥ ३५ ॥ पिलाना चाहिये । इसी प्रकार आमकी गुठली, खील व सेंधा लाजायोगः। नमकका चूर्ण शहदके साथ चटानेसे वमन शान्त करता है। तथा छोटी पीपल व काली मिर्चका चूर्ण शहद, शक्कर और विल्वमूलकषायेण लाजाश्चैव सशर्कराः। बिजौरे निम्बके रसके साथ हिक्का और वमनको शान्त करता आलोय पाययेद्वालं छद्येतीसारनाशनम् ।। ३६ ।। है ॥२८-३० ॥ बेलकी जड़के काढेके साथ खील व शक्कर मिलाकर बालकको पेट्यादिपिण्डः। पिलानेसे सब अतीसार नष्ट होते हैं ॥३६॥ पेटीपाठामूलाजम्ब्वः सहकारवल्कलतः कल्कः । • प्रियङ्ग्वादिकल्कः। इत्येकशश्च पिण्डो विधृतो हृन्नाभिमध्यताल्वादो। छद्यतीसारजवेगं प्रबलं धत्ते तदेव नियमेन ॥३१॥ कल्कः प्रियंगुकोलास्थिमध्यमुस्तरसाजनैः।। क्षौद्रलीढः कुमारस्य छर्दितृष्णातिसारनुत् ॥३७॥ • पेटी (पाढल) की जड़, पाढकी जड़, जामुनकी व आमकी प्रियंगु, बेरकी गुठलीकी मींगी, नागरमोथा व रसौतके कल्कको ' छालका एक गोला बनाकर हृदय व नाभिके बीचमें तथा तालुपर घुमानेसे निःसन्देह प्रबल वमन और अतीसारका वेग शांत | शहदमें मिलाकर चाटनेसे बालककी प्यास, वमन तथा दस्त होता है ॥३१॥ नष्ट होते हैं ॥ ३७॥ बिल्वादिक्वाथः। रक्तातिसारप्रवाहिकाचिकित्सा । बिल्वं च पुष्पाणि च धातकीनां मोचरसः समङ्गा च धातकी पद्मकेशरम् । जलं सलोभ्रं गजपिप्पली च। पिष्टैरेतैर्यवागूः स्याद्रक्तातीसारनाशिनी ॥ ३८॥ काथावलेही मधुना विमिश्री लेहस्तेलसिताक्षीदतिलयष्टथाकल्कितः । बालेषु योज्यावतिसारितेषु ॥३२॥ बालस्य रुन्ध्यान्नियतं रक्तस्रावं प्रवाहिकाम् ॥३९॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९२) चक्रदत्तः। [बालरोगा- . wwwW8 लाजा सयष्टीमधुकं शर्कराक्षौद्रमेव च । घृतेन सिन्धुविश्वैलाहिगुभामरजो लिहन् । तण्डुलोदकसंसिक्तं क्षिप्रं हन्ति प्रवाहिकाम् ॥४०॥ आनाहं वातिक शूलं जयेत्तोयेन वा शिशुः ।।४८॥ मोचरस, लज्जालु, धायके फूल व कमलके केशरको पीसकर हरीतकी वचा कुष्ठकल्कं माक्षिकसंयुतम् । बनायी गयी यवागू रक्तातीसारको नष्ट करती है.। तथा तेल, | पीत्वा कुमारः स्तन्येन मुच्यते तालुपातनात् ४९॥ मिश्री, शहद, तिल व मौरेठीका कल्क मिलाकर बनाया गया| बालकोंके मूत्रकी रुकावटमें छोटी पीपल, काली मिर्च, मिश्री, लेह नियमसे रक्तस्राव और प्रवाहिकाको नष्ट करता है । इस शहद, छोटी इलायची सेंधानमकके लेहको चटाना चाहिये । प्रकार खील, मौरेठी, शक्कर व शहदके कल्कको चावलके जलके वातज आनाह तथा शूलमें सेंधानमक, सोंठ, इलायची, भुनी साथ पीनेसे शीघ्रही प्रवाहिका नष्ट होती है ॥ ३८-४०॥ हींग, भारंगीके चूर्णको घी अथवा जलके साथ चटाना चाहिये । ग्रहण्यतीसारनाशका योगा। तथा हरे, बच और कूठके कल्कको शहद व दूधके साथ पिलानसे तालुपातरोग नष्ट होता है । ४७-४९ ॥ अङ्कोटमूलमथवा तण्डुलसलिलेन वटजमूलं वा । पीतं हन्त्यतिसारं ग्रहणीरोगं सुदुर्वारम् ॥ ४१ ॥ मुखपाकचिकित्सा। सितजीरकस चूर्ण बिल्वदलोत्थाम्बुमिश्रितं पीतम् ।। मुखपाके तु बालानां साम्रसारमयोरजः । हन्त्यामरक्तशूलं गुडसहितः श्वेतसों वा ॥ ४२॥ गैरिकं क्षौद्रसंयुक्त भेषजं सरसाजनम् ॥५०॥ मरिचमहौषधकुटजं द्विगुणीकृतमुत्तरोत्तरं क्रमशः।। अश्वत्थत्वग्दलक्षौद्रेर्मुखपाके प्रलेपनम् । गुडतक्रयुक्तमेतद् ग्रहणीरोगं निहन्त्याशु ॥४३॥ । दार्वीयष्टयभयाजातीपत्रक्षौरैस्तथापरम् ॥५१॥ अकोहरकी जड़ अथवा बरगदकी जड़को पीस चावलके जलके सह जम्बीररसेन स्नुग्दलरसघर्षणं सद्यः। साथ पीनेसे अतीसार और प्रणी नष्ट होती है, तथा सफेदं जीरा और रालके चुर्णको बेलकी पत्तीके रसमें मिलाकर अथवा कृतमुपहन्ति हि पाकं मुखजं वालस्य चाश्वेव ॥५२ गुड़के साथ सफेद रालके चूर्णको खानेसे लावतित्तिरिवल्लूररजः पुष्परसान्वितम् । आमरक्त दूतं करोति बालानां पद्मकेशरवन्मुखम् ॥ ५३॥ और शूल शान्त होता है। अथवा काली मिर्च १ भाग, सोंठ। २भाग, व कुरैया ४ भाग इनके चूर्णको गुड़ और मठेमें मिला | बालकोंके मुखपाकमें आमके अन्दरकी छाल, लोहभस्म, गेरू कर पीनेसे ग्रहणीरोग शान्त होता है ॥ ४१-४३ ॥ और रसौंत शहद मिलाकर लगाना तथा चटाना भी चाहिये । तथा पीपलकी छाल और पत्तीके चूर्णका शहदके साथ लेप बिल्वादिक्षीरम्। | करना चाहिये । अथवा दारुहल्दी, मोरेठी, हर्र व जावित्रीके बिल्वशक्राम्बुमोचाब्दसिद्धमाज पयः शिशोः। चूर्णका शहदके साथ लेप करना चाहिये । इसी प्रकार जम्बीरी सामां सरक्तां ग्रहणीं पीतं हन्यात्त्रिरात्रतः॥४४॥ |निम्बूके रसके साथ सेहुंडके पत्तोंके रसका घिसना बालकोंके मुख पाकको नष्ट करता है । और लवा व तीतर इनके शुष्क मांसके बेलका गूदा, इन्द्रयव, सुगन्धवाला, मोचरस व नागरमोथासे | सिद्ध बकरीके दूधको पीनेसे ३ रात्रिमें साम, सरक्त प्रहणी दोष | घूर्णको शहदके साथ चटानेसे बालकोंके मुख कमलके समान नष्ट होते हैं ॥४४॥ होते हैं॥॥५०-५३॥ तद्वदजाक्षीरसमो जम्बत्वगुद्भवो रसः । दन्तोद्भवगदचिकित्सा। इसी प्रकार बकरीके दूधके साथ जामुनकी छालका रस | दन्तोद्भवोत्थरोगेषु न बालमतियन्त्रयेत् । लाभ करता है। स्वयमप्युपशाम्यन्ति जातदन्तस्य ते गदाः ॥५४॥ दन्त निकलते समय उत्पन्न रोगोंमें अधिक उपाय न करना मुदपाकचिकित्सा। गदपाके तु बालानां पित्तनीं कारयेक्रियाम्॥४५॥ जाते हैं ॥ ५४॥ चाहिये । दांत निकल मानेपर वे स्वयम् ही शान्त हो रसाञ्जनं विशेषेण पानालेपनयोर्हितम् ॥४६॥ बालकोंके गुदपाकमें पित्तनाशक क्रिया करनी चाहिये । विशेष अरिष्टशान्तिः। कर पिलाने व लगानेके लिये रसाँत हितकर है॥४५॥४६॥ सदन्तो यस्तु जायेत दन्ताः स्युर्यस्य चोत्तराः । कुर्यात्तस्य पिता शान्ति बालस्यापि द्विजातये । मूत्रग्रहतालुपातचिकित्सा। दद्यात्सदक्षिणं बालं नैगमेषं प्रपूजयेत् ॥ ५५ ॥ कणोषणसिताक्षीद्रसुक्ष्मैलासैन्धवैः कृतः। मूत्रप्रहे प्रयोक्तव्यः शिशूनां लेह उत्तमः ।। ४७॥ । १ वल्लूरं शुष्कमासम् पुष्पमो मधु । इति वाग्भटः । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। सन्न्न्न्न्च्छ न् जो बालक दांतसहित ही पैदा हो अथवा जिसके पहिले | भस्मको बासी जलमें मिलाकर पीना चाहिये । अथवा बरगदकी ऊपरके दांत निकलें, उसका पिता शान्ति करे तथा बालकको वौका हिम बनाकर मुखमें कवल धारण करना प्यासको शान्त दक्षिणाके सहित ब्राह्मणके लिये दान करे और नैगमेष ग्रहका करता है * ॥६१॥६२॥ पूजन करे ॥ ५५॥ नेत्रामयचिकित्सा। हिक्काचिकित्सा। पिष्टैश्छागेन पयसा दा/मुस्तकगैरिकैः । पञ्चमूलीकषायेण सघृतेन पयः शृतम् । बहिरालेपनं शस्तं शिशोर्नेत्रामयापहम् ॥ ६३ ।। सशृङ्गवेरं सगुडं शीतं हिक्कार्दितः पिबेत् ॥५६॥ मनःशिला शंखनाभिः पिप्पल्योऽथ रसाजनम् । सुवर्णगरिकस्यापि चूर्णानि मधुना सह । वर्तिः क्षौद्रेण संयुक्ता बालस्याक्षिरुजाप्रणुत् ॥६४॥ लीदवा सुखमवाप्नोति क्षिप्रंहिक्कार्दितः शिशुः५७॥ मातृस्तन्यकटुस्नेहकाजिकैर्भावितो जयेत् ।। हिक्कासे पीड़ित बालक घी सहित पञ्चमूलके काढ़ेसे सिद्ध स्वेदाद्दीपशिखोत्तप्तो नेत्रामयमलक्तकः ।।६५॥ कर ठण्ढा किया दूध गुड़ व सोंठके साथ पावे । तथा सुनहले शुण्ठीभंगनिशाकल्कः पुटपाकः ससैन्धवः। गेरूके चूर्णको भी शहदके साथ चाटनेसे शीघ्र ही बालककी कुकूणकेऽक्षिरोगेषु भद्रमाश्च्योतनं हितम् ॥६६॥ हिक्का शान्त होती है ॥५६॥ ५७ ॥ क्रिमिन्नालशिलादार्वीलाक्षाकाञ्चनगैरिकैः । चित्रकादिचूर्णम् । चूर्णाजनं कुकूणे स्याच्छिशूनां पोथकोषु च ॥६७॥ चित्रकं शृगवेरं च तथा दन्ती गवाक्ष्यपि । | सुदर्शनामूलचूर्णादजन स्यात्कुकूणके ॥ ६८ ॥ दाम्हल्दी, नागरमोथा और गेरूको बकरीके दूधमें पीसकर चूर्ण कृत्वा तु सर्वेषां सुखोष्णेनाम्बुना पिबेत् । -1. आंखोंके बाहर लेप करनेसे बालकके नेत्ररोग शान्त होते हैं । श्वासं कासमथो हिक्कां कुमाराणां प्रणाशयेत् ५८॥ तथा मनशिल, शंखनाभि, छोटी पीपल, व रसौतको पीसकर चीतकी जड़, सोंठ, दन्ती व इन्द्रायणका चूर्ण कर कुछ गरम बनायी गयी बत्तीको शहदमें मिलाकर लगानेसे समग्र नेत्ररोग जलके साथ पानसे बालकोंकी श्वास, कास, तथा हिक्का शान्त नष्ट होते हैं । तथा माताके दूध, कडुआ तैल और काजीसे होती हैं ॥५॥ भावित वस्त्रको दीपशिखामें गरम कर सेकनेसे नेत्ररोग नष्ट होते . द्राक्षादिलेहः। हैं। इसीप्रकार सोंठ, भांगरा, हल्दी और सेंधानमकका पुटपाक कर आश्च्योतन करना कुकूणक (कुथुई ) तथा अन्य नेत्ररोगोंमें द्राक्षायासाभयाकृष्णाचूर्ण सक्षौद्रसर्पिषा। लाभ करता है। तथा वायविडंग, हरिताल, मनशिल, दारुहल्दी, लीढं श्वासं निहन्त्याशु कासं च तमकं तथा ५९॥ लाख, सुनहले गेरूके चूर्णका अञ्जन बालकोंके कुकूणक तथा मुनक्का, जवासा, बड़ी हर्र व छोटी पीपलके चूर्णको शहद पोथकी रोगमें लगाना चाहिये। कुकूणकमें सुदर्शनकी जड़के व घीके साथ चाटनेसे कास तथा तमक श्वास (दमा नामवालाचर्णका भी अजन किया जाता है।६३-६८॥ रोग ) नष्ट होते हैं ॥ ५९ ॥ पुष्करादिचूर्णम् । सिध्मपामादिचिकित्सा। गृहधूमनिशाकुष्ठवाजिकेन्द्रयवैः शिशोः । पुष्करातिविषाशृङ्गीमागधीधन्वयासकैः । लेपस्तक्रेण हन्त्याशु सिध्मपामाविचिकाः ॥६९॥ तच्चूर्ण मधुना लीढं शिशूनां पञ्चकासनुत् ॥६९॥ घरका धुआँ, हल्दी, कूठ, असगन्ध और इन्द्रयवको मछेके पोहकरमूल, अतीस, काकड़ाशिंगी, छोटी पीपल व यवासाके | साक|साथ पीसकर किये गये लेपसे सिध्म, पामा और विचर्चिकारोग चूर्णको शहदके साथ चाटनेसे समस्त कास नष्ट होते हैं ॥ ६॥ तृष्णाचिकित्सा। - अश्वगन्धाघृतम् । . दाडिमस्य च बीजानि जीरकं नागकेशरम् । पादकल्केऽश्वगन्धायाः क्षीरे दशगुणे पचेत् । चूर्णितं शर्कराक्षौद्रलीढं तुष्णाविनाशनम् ॥ ६१॥ | घृतं पेयं कुमाराणां पुष्टिकृद्वलवर्धनम् ॥ ७॥ मायुरपक्षभस्म व्युषितजलं तेन भावितं पेयम् । असगन्धके चतुर्थांश कल्क और दशगुण दूधमें सिद्ध घृत तृष्णाघ्नं वटकाकुरशीतजलं वक्रशोषजिद्धृतं वके।६२/ बालकोंको पुष्ट तथा बलवान् करता है ॥ ७० ॥ अनारदाना, जीरा, व नागकेशरके चूर्णको शक्कर ब शहद मिलाकर चाटनेसे प्यास नष्ट होती है तथा मयूरके पंखकी *कुछ पुस्तकोंमें यहांसे ७२ श्लोकतकका पाठ महीं है। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९४) चक्रदत्तः। [बालरोगा - RWww- चाङ्गेरीघृतम्। मान् व मेधावी होता है । इसे पीनेवाले बालकॉपर पिशाच, राक्षस, भूत और माता आदि किसीका प्रभाव नहीं पड़ता। चाङ्गेरीस्वरसे सर्पिश्छागक्षीरसमे पचेत् । इसे" अष्टमङ्गल" कहते हैं ॥ ७८-८० ॥ कपित्थव्योषसिन्धूत्थसमंगोत्पलबालकैः ॥ ८१ ॥ सबिल्वधातकीमोचैः सिद्धं सर्वातिसारनुत् । लाक्षादितैलम् । ग्रहणीं दुस्तरां हन्ति बालानां तु विशेषतः॥७२॥ लाक्षारससमं सिद्धं तैलं मस्तु चतुर्गुणम् । चांगेरीके स्वरस ३ भाग, घी १ भाग, दूध १ भाग तथा रास्नाचन्दनकुष्ठाब्दवाजिगन्धानिशायुगैः ॥८१ ॥ कैथा, त्रिकटु, सेंधानमक, लज्जालु, नीलोफर, सुगन्धवाला, बेल, धायके फूल, व मोचरसके कल्कसे सिद्ध घृत बालकोंके समस्त शतावादारुयष्टयाह्वमूर्वातिक्ताहरेणुभिः । अतीसारों तथा दुष्ट ग्रहणीको नष्ट करता है । ७१॥७२॥ बालानां ज्वररक्षोनमभ्यगाद्वलवर्णकृत् ।। ८२॥ लाखके रसके समान, चतुर्गुण दहीके तोड़ और रासन, कुमारकल्याणकं घृतम् । . चन्दन, कूठ, नागरमोथा, असगन्ध, हल्दी, दारुहल्दी, सौंफ, शङ्खपुष्पी वचा ब्राह्मी कुष्ठं त्रिफलया सह । | देवदारु, मारेठी, मूर्वा, कुटकी व सम्भालूके बीजके कल्कसे सिद्ध द्राक्षा सशर्करा शुण्ठी जीवन्ती जीरकं बला ॥७३/ तैलकी मालिश करनेसे बालकोंके ज्वर तथा राक्षसदोष नष्ट शठी दुरालभा बिल्वं दाडिमं सुरसास्थिरा। होते हैं ॥ ८१-८२॥ मुस्तं पुष्करमूलं च सूक्ष्मैला गजपिप्पली ।। ७४॥ ग्रहचिकित्सा। एवां कर्षसमैर्भागैर्वृतप्रस्थं विपाचयेत् । कषाये कण्टकार्याश्च क्षीरे तस्मिंश्चतुर्गुणे ॥ ७५ ॥ सहामुण्डितिकोदीच्यक्वाथस्नानं ग्रहापहम् । एतत्कुमारकल्याणघृतरत्नं सुखप्रदम् ।। सप्तच्छदनिशाकुष्ठचन्दनैश्वानुलेपनम् ॥ ८३ ॥ बल वर्णकरं धन्यं पुष्टथग्निबलवर्धनम् । सर्पत्वग्लशुनं मूसिर्षपारिष्टपल्लवाः । छायासर्वग्रहालक्ष्मीक्रमिदन्तगदापहम् । बैडालबिडजालोममेषशृङ्गोवचामधु ।। ८४॥ सर्वबालामयहरं दन्तोद्भेदं विशेषतः ॥ ७७॥ धूपः शिशोवरन्नोऽयमशेषग्रहनाशनः । शंखपुष्पी, बच, ब्राह्मी, कूठ, त्रिफला, मुनक्का, शक्कर, बलिशान्तीष्टकर्माणि कार्याणि ग्रहशान्तये ॥ ८५ ।। सोंठ, जीवन्ती, जीरा, खरेटी, कचूर, यवासा, बेल, अनार, . मन्त्रश्चायं प्रयोक्तव्यस्तत्रादौ सार्वकामिकः॥८६॥ तलसी. शालपर्णी, नागर मोथा, पोहकरमल, छोटी इलायची. मद्रपर्णी, मुण्डी, व सुगन्धवालाके क्वाथसे स्नान ग्रहदोषको व गजपीपल, प्रत्येक १ तोलेका कल्क, छोटी कटेरीका क्वाथ ६ नष्ट करता है। तथा सप्तपर्ण, हल्दी, कूठ, व चन्दनका अनुसेर ३२ तोला, दूध ६ सेर ३२ तो० मिलाकर १२८ तोला, लेप भी ग्रहदोषको नष्ट करता है । और सांपकी केंचुल, लहसुन, घी पकाना चाहिये । यह " कुमारकल्याण " नामक घृत बल व मूर्वा, सरसों, नीमकी पत्ती, विडालकी विष्ठा, बकरीके रोवां, वर्णको बढाता पुष्टि तथा अग्निको बढाता, ग्रहदोष, छाया, मेढाशिङ्गी, बच व शहदकी धूप बालकके ज्वर तथा समग्र क्रिमिदन्त तथा दांत उत्पन्न होनेके समय उत्पन्न होनेवाले रोगोंको ग्रहदोषोंको नष्ट करती है। तथा बलि, शान्ति व इष्टकर्म आदि विशेषतः नष्ट करता है ॥ ७३-७७॥ ग्रहशान्तिके लिये करना चाहिये । और धूप देनेके लिये यह आगे लिखा सार्बकामिक मन्त्र पढना चाहिये ॥ ८३-८६ ॥ अष्टमङ्गलं घृतम् । वचा कुष्ठं तथा ब्राह्मी सिद्धार्थकमथापि च । सार्वकामिको मन्त्रः। शारिवा सैन्धवं चैव पिप्पलीघृतमष्टमम् ॥७८॥ |ॐ नमो भगवते गरुडाय त्र्यम्बकाय सद्यस्तवस्तुतः मेध्यं घृतामदं सिद्धं पातव्यं च दिने दिने । स्वाहा । ॐ कं पं टं शं वैनतेयाय नमः ॐ ह्रीं हूं दृढस्मृतिः क्षिप्रमेधाः कुमारो बुद्धिमान्भवेत् ॥७९॥ न पिशाचा न रक्षांसि न भूता न च मातरः।। क्षः ॥ इति मन्त्रः। प्रभवन्ति कुमाराणां पिबतामष्टमङ्गलम् ॥८०॥ | बालदेहप्रमाणेन पुष्पमालां तु सर्वतः। बच, कूठ, ब्राह्मी, सरसों, शारिवा, सेंधानमक व छोटी पीप- प्रगृह्य मुच्छिकाभक्तबलियस्तु शान्तिकः। लके कल्कमें घृत और जल मिलाकर पकाना चाहिये । घृत बालककी देहके बराबर फूलोंकी माला लेकर भातसे सिद्ध हो जानेपर बालकको प्रतिदिन पिलाना चाहिये । यह भरे शिकोरेके चारों ओर लपेटकर बाल देना चाहिये । मेधाको बढ़ाता है। इसेक सेवनसे बालक स्मृतिमान, बुद्धि-और बलि देते समय नीचे लिखा मन्त्र पढना चाहिये । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः । बलिमन्त्रः । ओङ्कारी स्वर्णपक्षी बालकं रक्ष रक्ष स्वाहा । गरुड बलिः । ॐ नमो नारायणाय नमः इति मन्त्रः ॥ ८७ ॥ 1 नन्दनामातृकाचिकित्सा । प्रथमे दिवसे मासे वर्षे वा गृह्णाति नन्दना नाम मातृका । तया गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वरः । अशुभं शब्दं मुञ्चति, चीत्कारं च करोति, स्तन्यं न गृह्णाति । बलिं तस्य प्रवक्ष्यामि येन सम्पद्यते शुभम् । नद्युभयतटमृ - ततः सम्पद्यते शुभम् ॥ ८९ ॥ त्तिकां गृहीत्वा पुत्तलिकां कृत्वा शुक्लौदनं, शुकुपुष्पं, शुक्ल सप्त ध्वजाः, सप्त प्रदीपाः, सप्त स्वस्तिकाः, सप्त वटकाः, सप्त शष्कुलिकाः, जम्बुलिकाः, सप्त मुष्टिकाः, गन्धं, पुष्पं, ताम्बूलं, मत्स्यं, मांस, सुरा, अग्रभक्तं च पूर्वस्यां दिशि चतुष्पथे मध्याह्ने बलिर्देयः । ततोऽश्वत्थपत्रं कुम्भे प्रक्षिप्य शान्त्युदकेन स्नापयेत् । रसोनसिद्धार्थकमेषशृङ्गनिम्बपत्र शिवनिर्माल्यैर्बालकं धूपयेत् । “ॐ नमो नारायणाय अमुकस्य व्याधिं हन हन मुख्य मुञ्च ह्रीं फट् स्वाहा” एवं दिनत्रयं बलिं दत्त्वा चतुर्थे दिवसे ब्राह्मणं भोजयेत् ततः सम्पद्यते शुभम् ॥ ८८ ॥ सम्पद्यते शुभम् । तण्डुलं हस्तपृष्ठैकं दधिगुडघृतं च मिश्रितं, शरावैकं, गन्धताम्बूलं, पीतपुष्पं, पीतसप्तध्वजा, सप्त प्रदीपाः, दश स्वस्तिकाः, मत्स्यमांससुरातिलचूर्णानि । पश्चिमायां दिशि चतुष्पथे बलिर्देयः दिनानि त्रीणि सन्ध्यायाम् । ततः शान्त्युदकेन स्नापयेत् । शिवनिर्माल्यसिद्धार्थमार्जारलोमोशीर वालघृतैर्धूपं दद्यात् । नमो नारायणाय अमुकस्य व्याधिं हन हन मुश्च मुध्व ह्रीं फट् स्वाहा " । चतुर्थे दिवसे ब्राह्मणं भोजयेत् । 66 पहिले दिन, पहिले महीने अथवा पहिले वर्षमें नन्दनानाम मातृका ग्रहण करती है। उसके ग्रहण करते ही पहिले ज्वर आता है । अशुभ शब्द करता तथा चिचिहाता है, दूध नहीं पीता । उसके लिये बलि बतलाते हैं, जिससे बालक सुखी होता है । नदीके दोनों किनारोंकी मिट्टी लेकर सफेद भात, फूल, सफेद सात झंडियाँ, सात दीपक, सात स्वस्तिक (सन्धिया) ७ बड़े, ७ पूड़ियां, ७ जलेवियाँ, ७ मुट्ठी सुगन्धित पुष्प, मछलियाँ, पान, मांस, शराबकी बाल, अग्रभक्त ( उत्तम हांड़ी में भरे भात ) के साथ मध्याह्नमें पूर्व दिशाके चौराहेपर देना चाहिये । फिर पीपलका पत्र जलमें छोड़कर शान्तिकारक जलसे स्नान कराना चाहिये । तथा लहसुन, सरसों, मेडाका सींग, नीमकी पत्ती और शिवनिर्माल्यकी धूप देनी चाहिये और यह मन्त्र पढ़ना चाहिये । " ओं नमो नारायणाय अमुकस्य व्याधिं हन हन मुञ्च मुञ्च ह्रीं फट् स्वाहा ” इस प्रकार तीन दिन बलि देकर चौथे दिन ब्राह्मणभोजन कराना चाहिये । इस प्रकार बालक आरोग्य होता है ॥ ८८ ॥ ( २९५ ) दूसरे दिन, मास और वर्षमें सुनन्दानाम मातृका ग्रहण करती है। उसके ग्रहण करते ही पहिले ज्वर होता है, बालक आंखें फैलाता है, शरीर कम्पाता है, सोता नहीं, रोता दूध नहीं पीता, चीत्कार करता है। उसके लिये नीचे लिखी विधिसे बलि देना चाहिये । एक पसर भात, दही, गुड़, घी मिलाकर एक शराब, गन्ध, पान, पीले फूल, पीली ७ झंडियां, सात दीपक, दश स्वस्तिक, मछलियां, मांस, शराब तिलघूर्ण पश्चिमदिशाको चौराहेमें सायंकाल बलि देना चाहिये । इस प्रकार ३ दिन करना चाहिये । फिर शान्तिजलसे स्नान कराना चाहिये । तथा शिवनिर्माल्य, सरसों, बिल्लीके रोवां, खश, सुगन्धवाला और घीकी धूप देनी चाहिये । और यह मन्त्र पढना चाहिये । " ओं नमो नारायणाय अमुकस्य व्याधिं हन हन मुञ्च मुञ्च हीं फट् स्वाहा " । चौथे दिन ब्राह्मण भोजन कराना चाहिये । इस प्रकार बालक सुखी होता है ॥ ८९॥ । می सुनन्दालक्षणं चिकित्सा च । द्वितीये दिवसे मासे वर्षे वा गृह्णाति सुनन्दा नाम मातृका । तथा गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वरः । चक्षु रुन्मीलयति, गात्रमुद्वेजयति, न शेते, क्रन्दति, स्तन्यं न गृह्णाति, चीत्कारश्च भवति । बलिं तस्य प्रवक्ष्यामि येन पूतनाचिकित्सा | तृतीये दिवसे मासे वर्षे वा गृह्णाति पूतना नाम मातृका । तया गृह्णीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वरः । गात्र मुद्देजयति, स्तन्यं न गृह्णाति, मुष्टिं ब्रघ्नाति, क्रन्दति, ऊर्ध्व निरीक्षते । बलिं तस्य प्रवक्ष्यामि येन सम्पद्यते शुभम् । नद्युभयतटमृत्तिकां गृह्णीत्वा पुत्तलिकां कृत्वा गन्धपुष्पताम्बूलरक्तचन्दनं, रक्तपुष्पं, रक्तसप्त ध्वजाः, सप्त प्रदीपाः, सप्तस्वस्तिकाः, पक्षिमांसं, सुरा, अप्रभक्तं च, दक्षिणस्यां दिशि अपराह्णे चतुष्पथे बलिर्दातव्यः । शिवनिर्माल्यगु[ग्गुलु सर्पपनिम्बपत्रमेषशृङ्गेर्दिनत्रयं धूपयेत् । “ॐ नमो | नारायणाय बालस्य व्याधिं हन हन मुश्च मुञ्च ह्रासय ह्रासय स्वाहा” चतुर्थे दिवसे ब्राह्मणं भोजयेत्ततः सम्प द्यते शुभम् ॥ ९० ॥ तीसरे दिन महीने और वर्षमें पूतनानाम मातृका ग्रहण करती है । उसके ग्रहण करते ही पहिले ज्वर Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६ ) 'चक्रदत्तः । [ बालरोगा - आता है, बालकका शरीर कम्पाता है, दूध नहीं पीता, दनं, शुक्लपुष्पं, पञ्च ध्वजाः, पञ्च प्रदीपाः, पञ्च वटकाः, मुट्ठी बांधता, रोता तथा ऊपरको देखता है । उसके लिये ऐशान्यां दिशि बलिर्दातव्यः । शान्त्युदकेन स्नापयेबलि देनेकी यह विधि है कि नदी के दोनों किनारोंकी मिट्टीको च्छिवनिर्माल्य सर्प निर्मोकगुग्गुलु निम्बपत्रवालकघृतधूपं लेकर पुतला बना गन्ध, फूल, पान, लाल चन्दन, लाल फूल, दद्यात् “ॐ नमो नारायणाय अमुकस्य व्याधिं चूर्णच लाल ७ पताका, ७ दीपक, ७ स्वस्तिक, पक्षियोंका मांस, चूर्णय हन हन स्वाहा” चतुर्थे दिवसे ब्राह्मणं भोजयेत्ततः सम्पद्यते शुभम् ।। ९२ ।। शराब व उत्तम भातकी दक्षिणदिशा के चौराहे में अपराह्नमें बलि देनी चाहिये । और शिवनिर्माल्य, गुग्गुलु, सरसों, नीमकी पत्ती व मेढा के सींगसे धूप करनी चाहिये । तथा यह मन्त्र पढना चाहिये। “ ॐ नमो नारायणाय बालकस्य व्याधिं हन न मुच मुच हाय ह्रासय स्वाहा " । चौथे दिन ब्राह्मण भोजन करावे । इस प्रकार सुख होता है ॥ ९० ॥ मुखमण्डिकाचिकित्सा । पांचवें, दिन, महीने और वर्षमें कठपूतनानाम मातृका ग्रहण करती है। उसके ग्रहण करते ही ज्वर आता है, शरीर कम्पता है, दूध नहीं पीता, मुट्टी बांधता है, । उसके लिये इस प्रकार बलि देना चाहिये । कुम्हारके चाककी मिट्टी ले पुतला बना गन्ध, ताम्बूल, सफेद भात, सफेद फूल, ५ पताकाएँ ५ दीपक, ५ | बड़े इनकी ऐशान्य दिशामें बलि देनी चाहिये । शान्तिजलसे चतुर्थे दिवसे मासे वर्षे वा गृह्णाति मुखमण्डिका नाम स्नान कराना चाहिये और शिवनिर्माल्य, सांपकी केंचुल मातृका । तया गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वरः । ग्रीवां गुग्गुलु, नीमकी पत्ती, सुगन्धवाला और घीसे धूप देनी नामयति, अक्षिणी उन्मीलयति, स्तन्यं न गृह्णाति, चाहिये ! और “ॐ नमो नारायणाय अमुकस्य व्याधिं रोदिति, स्वपिति, मुष्टिं बध्नाति । बलिं तस्य प्रवक्ष्यामि चूर्णय चूर्णय हन हन स्वाहा " यह मन्त्र पढ़ना चाहिये । चौथे सम्पद्यते शुभम् । नद्युभयतमृत्तिकां गृहीत्वा दिन ब्राह्मण भोजन कराना चाहिये । इस प्रकार शुभ | होता है ॥ ९२ ॥ पुत्तलिकां कृत्वा उत्पलपुष्पं, गन्धताम्बूलं, दश ध्वजाः, चत्वारः प्रदीपाः, त्रयोदश स्वस्तिकाः, मत्स्यमांससुरा, अप्रभक्तं च उत्तरस्यां दिशि अपराह्णे चतुष्पथे बलि दद्यात् । आद्यः मासिको धूपः “ॐ नमो नारायणाय हन हन मुच्च मुञ्च स्वाहा " चतुर्थे दिवसे ब्राह्मणं भोजयेत्ततः सम्पद्यते शुभम् ॥ ९१ ॥ चौथे दिन चौथे महीने अथवा चौथे वर्ष में मुखमण्डिका नाम मातृका ग्रहण करती है, उसके ग्रहण करते ही पहिले ज्वर होता है, गर्दन चलाता है, आंखें निकालता है, दूध नहीं पीता, रोता, सोता तथा मुट्ठी बांधता है। उसके लिये बलि इस प्रकार देना चाहिये । नदीके दोनों किनारों की मिट्टी से पुतला बना नीलकमलके फूल, गन्ध, ताम्बूल, दश पताकाएँ, ४ दीपक, १३ स्वस्तिक, मछली, मांस, शराब, भात उत्तर दिशामें सायङ्काल चौराहेपर बलि देनी चाहिये । तथा प्रथम मास में कही हुई धूप देनी चाहिये ।“ ॐ नमो नारायणाय हन न मुच मुच स्वाहा " । चौथे दिन ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये । तब सुखी होता है ॥ ९१ ॥ शकुनिका चिकित्सा | | षष्ठे दिवसे मासे वर्षे वा गृह्णाति शकुनिका नाम मातृका । तया गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वरः । गात्रभेदं च दर्शयति, दिवारात्रावुत्थानं भवति. ऊर्ध्व निरीक्षते । बलिं तस्य प्रवक्ष्यामि येन सम्पद्यते शुभम् । पिष्टकेन पुत्तलिकां कृत्वा शुक्लपुष्पं, रक्तपुष्पं, पीतपुष्पं गन्धताम्बूलं, दशप्रदीपाः, दशध्वजाः, दश स्वस्तिका, दश मुष्टिकाः, दश वटकाः, क्षीरजम्बूडिका, मत्स्यमांससुरा आग्नेय्यां दिशि निष्क्रान्ते मध्याह्ने बलिं दापयेत् । शान्त्युदकेन स्नापयेत् । शिवनिर्माल्यर सोनगुग्गुलुसर्प - निर्मोक निम्बपत्रघृतैर्धूपं दद्यात् । "ॐ नमो नारायणाय चूर्णय चूर्णय हन हन स्वाहा " चतुर्थे दिवसे ब्राह्मणं भोजयेत्ततः सम्पद्यते शुभम् ॥ ९३ ॥ कठपूतनामातृका चिकित्सा । दिवसे मासे वर्षे वा गृह्णाति कठपूतना नाम मातृका । तया गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वरः । गात्रमुद्वेजयति, स्तन्यं न गृह्णाति, मुष्टिं च बध्नाति बलिं तस्य प्रवक्ष्यामि येन सम्पद्यते शुभम् । कुम्भकारचक्रस्य छठे दिन, महीने और वर्ष में शकुनिका ग्रहण करती है । उसके ग्रहण करते ही पहिले ज्वर आता है, शरीर टूटता है, दिनरात चौकता है, ऊपर देखता है। उसके लिये इस प्रकार बलि देना चाहिये । पिट्ठीका पुतला बना सफेद फूल, लाल स्वस्तिक, दश लड्डू, दश बडे, दूधकी जलेबी, मछली, मांस फूल, पीले फूल, गन्ध, ताम्बूल, दशदीप, दशपताकाएँ, दशशराबकी आग्नेय दिशामें मध्याह्न बीत जानेपर बलि देनी चाहिये तथा शान्तिजलसे स्नान कराना चाहिये और शिवनिर्माल्य, मृत्तिकां गृहीत्वा पुत्तलिकां निर्माय गन्धताम्बूलं, शुक्लौ-लहसुन, गुग्गुलु, सांपकी केंचुल नामकी पत्तीकी धूप देन Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (२९७) चाहिये । और “ॐ नमो नारायणाय चूर्णय चूर्णय हन हन करता, शरीर कम्पाता है । उसके लिये बलि कहते हैं-जिससे स्वाहा"। इस मन्त्रका जप करना चाहिये । और चौथे दिन सुख होता है । लाल पीली पताकाएँ, चन्दन, फूल, पूडी, पापड़ ब्राह्मण भोजन कराना चाहिये । तब शांति होती है ॥ ९३ ॥ मछलियां, मांस, शराब, जलेबियां इनकी सबेरे एक किनारे बलि | देना चाहिये और यह मन्त्र पढना चाहिये । “ॐ नमो नाराशुष्करेवतीचिकित्सा । यणाय चतुर्दिङ्मोक्षणाय व्याधि हन हन मुञ्च मुञ्च ॐ ह्रीं फट् सप्तमे दिवसे मासे वर्षे वा यदा गृह्णाति शुष्करेवती स्वाहा" । चौथे दिन ब्राह्मण भोजन करावे । तब शुभ होता, नाम मातृका । तया गृीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वरः।। है ॥ ९५॥ गात्रमुद्वजयति, मुष्टिं बध्नाति, रोदिति । बलिं तस्य भूसूतिकाचिकित्सा। प्रवक्ष्यामि येन सम्पचते शुभम् । रक्तपुष्पं, शुक्लपुष्पं, | नवमे दिवसे मासे वर्षे वा गृह्णाति भूसूतिका नाम गन्धताम्बूलं, रक्तोदनं, कृसरा, प्रयोदश स्वस्तिकाः, मत्स्यमांससुरास्त्रयोदश ध्वजाः, पञ्च प्रदीपाः, पश्चिम-I: मातृका । तया गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वरः । नित्यं दिग्भागे प्रामनिष्कासे अपराह्ने वृक्षमाश्रित्यबलिं| छर्दिर्भवति,गात्रभेदं दर्शयति, मुष्टिं बध्नाति। बलिं तस्य दद्यात् । शान्त्युदकेन स्नानं गुग्गुलुमेषशृङ्गीसर्षपो |प्रवक्ष्यामि येन सम्पद्यते शुभम् । नाभयतटमृत्तिकां शीरवालकघृतधूपयेत् । “ ॐ नमो नारायणाय | गृहीत्वा पुत्तलिकाः निर्माय शुक्लवस्त्रेण वेष्टयेच्छुक्लदीप्ततेजसे हन हन मुञ्च मुश्च स्वाहा" चतर्थ दिवसे पुष्प,गन्धताम्बूलं, शुक्लत्रयोदश ध्वजाः,त्रयोदश दीपा: ब्राह्मणं भोजयेत्ततःसम्पद्यते शुभम् ॥ ९४॥ त्रयोदश स्वस्तिकाः,त्रयोदश पुत्तलिकाः, त्रयोदशमत्स्य पुत्तलिकाः, मत्स्यमांससुराः,उत्तरदिग्भागे ग्रामनिष्कासे सातवें दिन, महीने या वर्षमें शुष्करेवती नामक मातृका | बलिं दद्यात शान्त्यदकेन स्नानं.गुग्गलनिम्बपत्रगोश्रद्धग्रहण करती है। उसके ग्रहण करते ही पहिले घर होता है, श्वेतसर्षपघृतेधूपं दद्यात् । मन्त्रः “ॐ नमो नारायणाय शरीर कम्पाता है, मुट्टी बांधता है, रोता है । उसके लिये नालि कहते हैं। लाल फूल, सफेद फूल, गन्ध, ताम्बूल, लाल हन हन मुञ्च मुश्च स्वाहा" चतुर्थे दिवसे भात, खिचडी, १३ स्वस्तिक, मछली, मांस, शराब, तेरह ब्राह्मणं भोजयेत्ततः सम्पद्यते शुभम् ॥ ९६ ॥ पताका, और ५ दीपक सायंकाल ग्रामके निकासपर पश्चिम नवें दिन, महीने और वर्षमें भूसूतिकानाम मातृका ग्रहण दिशामें वृक्षके नीचे बलि देवे। तथा शांतिजलसे बालकको स्नान | करती है । उसके ग्रहण करते ही पहिले ज्वर आता है, नित्य करावे । और गुग्गुलु मेढाशिंगी, सरसों, खश, सुगन्धवाला व वमन होती है, शरीरमें पीड़ा होती है, मुट्ठी बांधता है। उसके घीकी धूप देनी चाहिये । “ॐ नमो नारायणाय दीप्ततेजसे सलिये बलि कहते हैं- जिससे सुख होता है। नदीके दोनों किनाहन हन मुश्च मुञ्च स्वाहा " । यह मन्त्र पढना चाहिये । चौथे| रोकी मिट्टी ले पुतला बना सफेद कपड़ेसे लपेटना चाहिये । तथा दिन ब्राह्मणभोजन कराना चाहिये। तब सुखी होता है ॥ ९४॥ | सफेद फूल, गन्ध, ताम्बूल, सफेद १३ झण्डियां, १३ दीपक, अर्यकाचिकित्सा । १३ स्वस्ति, १३ पुत्तलिका, १३ मछलीकी पुत्तलियां, मछ लियां मांस व शराषकी उत्तर दिशामें ग्रामके निकासपर बलि अप्रमे दिवसे मासे वर्षे वा यदि गृह्णाति अयेका देनी चाहिये । शान्तिजलसे स्नान कराना चाहिये । और गुग्गुलु नाम मातृका । तया गृह्णीतमात्रेण प्रथम भवति ज्वरः। नीमकी पत्ती, गायका सींग, सफेद सरसों और घीकी धूप देनी गध्रगन्धः पूतिगन्धश्च जायते,आहारं च न गृह्णाति,उद्वेज चाहिये ( “ॐ नमो नारायणाय चतुर्भुजाय हन हन मुश्च मुञ्च यतिगात्राणि । बलिं तस्य प्रवक्ष्यामि येन सम्पद्यते स्वाहा" यह मन्त्र पढना चाहिये । चौथे दिन ब्राह्मण भोजन शुभम् । रक्तपीतध्वजाः, चन्दनं, पुष्पं, शष्कुल्यः, करावे । तब सुख होता है ॥ ९६ ॥ पर्पटिका, मत्स्यमांससुराजम्बुडिकाः प्रत्यूषे बलियः निर्ऋताचिकित्सा। प्रान्तरे। मन्त्रः "ॐ नमो नारायणाय चतुर्दिङ्मोक्षणाय व्याधि हन हन मुञ्च मुञ्च ॐ ह्रीं फट् स्वाहा" चतुर्थ दशमे दिवसे मासे वर्षे वा गृह्णाति निर्ऋता नाम दिवसे ब्राह्मणं भोजयेत्ततः सम्पद्यते शुभम् ॥ ९५॥ मातृका। तया गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वरः।गात्रमुढे आठवें दिन, महीने और वर्ष में जो ग्रहण करती है, उसे | जयति,चीत्कारं करोति,रोदिति, मूत्रं पुरषिं च भवति। अर्यका नाम मातृका कहते हैं । उसके ग्रहण करते ही पहिले बलिं तस्य प्रवक्ष्यामि येन सम्पद्यते शुभम् । पारावारज्वर आता है, गृध्रके समान दुर्गन्ध आती है, आहार नहीं मृत्तिकां गृहीत्वा पुत्तलिकां निर्माय गन्धवाम्बूलं, रक्त Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९८) चक्रदत्तः। वि/मन्च पुष्पं, रक्तचन्दनं, पञ्च वर्णध्वजाः, पञ्च प्रदीपाः, पंच | धूप करना चाहिये । “ॐ नमो नारायणाय मुञ्च मुञ्च स्वाहा " स्वस्तिकाः, पञ्च पुत्तलिकाः, मत्स्यमांससुराः, वायव्यां | यह मन्त्र पढ़ना चाहिये । तब बालक सुस्थ होता है ॥ ९८॥ दिशि बलिं दद्यात् । काकविष्ठागोमांसगोशृङ्गरसोन-I कालिकाचिकित्सा । माजीरलोमनिम्बपत्रघृतधूपयेत् । “ॐ नमो नाराय- द्वादशे दिवसे वर्षे वा यदि गृह्णाति कालिका नाम णाय चूर्णितहस्ताय मुञ्च मुञ्च स्वाहा” चतुर्थे दिवसे मातृका । तया गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वरः । ब्राम्हणं भोजयेत्ततः स्वस्थो भवति बालकः ॥ ९७ ॥ विहस्य वादयति,करेण तर्जयति,गृह्णाति,क्रामति,निःश्व दशवें दिन, महीने या वर्षमें निर्ऋतिका मातृका ग्रहण करती | सिति, मुहुर्मुहुर्छर्दयति, आहारं न करोति । बालं तस्य है। उसके ग्रहण करते ही पहिले वर आता है, शरीर कम्पाता प्रवक्ष्यामि येन सम्पद्यते शुभम् । क्षीरेण पुत्तलिकां कृत्वा है, चीत्कार करता है, रोते रोते दस्त व पेशाव हो जाता है। गन्धं, ताम्बूलं, शुक्लपुष्पं,शुक्लसप्तध्वजाः, सप्त प्रदीपाः, उसके लिये बाल कहते हैं । नदीके दोनों ओरकी मिट्टी ले सप्त पूपिकाः, करस्थेन दधिभक्केन · सर्वकर्मबलि पुतला बना गन्ध, ताम्बूल, लाल फूल, लाल चन्दन, पाँच दद्याच्छांत्युदकेन स्नापयेत् । शिवनिर्माल्यगुग्गुलुसर्षरङ्गकी पताकाएँ, पाँच दीपक, ५ स्वस्तिक, ५. पुत्तलियाँ, मछ ।“ॐ नमो नारायणाय मुश्च मुञ्च लियाँ, मांस व शराबकी वायव्य दिशामें बाल देनी चाहिये | । हन हन स्वाहा " चतुर्थे दिवसे ब्राह्मणं भोजयेत्ततः और लशुन, बिल्लीके रोवें, काकविष्ठा, गोमांस, गोशंग, नामकी | सुस्थो भवति बालकः ॥ ९९॥ पाती और घीसे धूप देनी चाहिये ।। ॐ नमो नारायणाय चूर्णितहस्ताय मुञ्च मुञ्च स्वाहा " यह मन्त्र पढना चाहिये। बारहवें दिन, महीने या वर्षमें कालिका मातृका ग्रहण करती चौथे दिन ब्राह्मणूभोजन कराना चाहिये । तब बालक स्वस्थ है। उसके ग्रहण करते ही ज्वर आता है । हँसकर तालियां होता है ॥९॥ | बजाता है, उठता है, पकड़ताहै, चलता है, श्वास लेता है, बारबार वमन करता है, आहार नहीं करता । उसके लिये बलि पिलिपिच्छिलिकाचिकित्सा। कहते है । दूधके साथ पुतला बनाकर गन्ध, ताम्बूल, सफेद | फूल, सफेद सात पताका, सात दीपक, ७ पुवा, तथा हाथमें एकादशे दिवसे मासे वर्षे वा यदि गृह्णाति पिलि. | दही भात लेकर समस्त बलिकर्म करना चाहिये । शान्तिजलसे पिच्छिालिका नाम मातृका । तया गृहीतमात्रेण प्रथमं स्नान कराना चाहिये तथा शिवनिर्माल्य, गुग्गुल, सरसों और भवति ज्वरः। आहारंन गृह्णाति, ऊध्वेदृष्टिभेवति गात्र-घीसे धूप देनी चाहिये । “ओं नमोनारायणाय मञ्च मञ्च हुन भडो भवति। बलिं तस्य प्रवक्ष्यामियेन सम्पद्यते शुभम्। हन स्वाहा " यह मन्त्र पढ़ना चाहिये। चौथे दिन ब्राह्मणभीपिष्टकेन पुत्तलिकां कृत्वा रक्तचन्दनं रक्तं पुष्पं च जन कराना चाहिये। तब बालक स्वस्थ होता है ॥ ९९ ॥ तस्या मुखं दुग्धेन सिञ्चेत् । पीतपुष्पं, गन्धताम्बूलं, सप्त इति बालरोगाधिकारः समाप्तः। पीतध्वजाः, सप्त प्रदीपाः, अष्टौ वटकाः, अष्टौ शष्कुलि अथ विषाधिकारः। काः, अष्टौ पूरिकाः, मत्स्यमांससुराः पूर्वस्यां दिशि बलिर्दातव्यः । शान्त्युदकेन स्नानं शिवनिर्माल्यगुगुलुगोशृङ्गसर्पनिर्मोकघृतधूपयेत् । “ॐ नमो नारायणाय सामान्यचिकित्सा। मुञ्च मुञ्च स्वाहा” चतुर्थदिवसे ब्राह्मणं भोजयेत्ततः अरिष्टाबन्धनं मन्त्रः प्रयोगाश्च विषापहाः । सुस्थो भवति बालकः ॥९८ ॥ दशनं दशकस्याहेः फलस्य मृदुनोऽपि वा ॥ १॥ ग्यारहवें दिन महीने वर्ष में पिलिपिच्छिलिका मातृका ग्रहण | करती है। उसके ग्रहण करते ही पहिले ज्वर आता है, आहार पूर्वोक्त समस्त मन्त्रोंमें नारायणके स्थानमें “रावणाय" नहीं करता, आंखें निकालता है, शरीर टूटता है। उसके लिये अनेक प्रतियोंमें मिलता है । पर वह उत्तम नहीं प्रतीत होता । बलि कहते हैं । पिट्ठीकी पुत्तलिका बनाकर उसका मुख लाल| क्योंकि एक तो रावणको प्रणाम करनेकी लौकिक प्रथा नहीं, चन्दनसे रङ्गकर उसमें दूध छोड़ना चाहिये। तथा पीले फूल, दूसरे एक मन्त्रमें "चतुर्भुजाय " विशेषण भी आया है, जो कि गन्ध, तांबूल, सात पीली पताकाएँ, सात दीपक, आठ बड़े, विष्णुभगवानके लिये ही आता है । अतः "नारायणाय यही" ठीक आठ पूड़ियां आठ जलेबियां, मछली, मांस व शराबकी पूर्व-1 है। पर नारायणके लिये दूसरोंके मांस तथा शराब आदिकी दिशामें बलि देनी चाहिये । शान्तिजलसे स्नान कराना चाहिये बलि देना उचित नहीं प्रतीत होता, अतः द्विजातियोंको ऐसे तथा शिवनिर्माल्य, गुग्गुल, गोभंग, सांपकी केंचुल और घीसे पदार्थ पृथक् कर ही पूजन करना चाहिये। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] मापाटीकोपेतः। दंशसे चार अङ्गुल ऊपर वस्त्र या रस्सी आदिसे बांधना | द्विपलं नतकुष्ठाभ्यां घृतक्षोंद्र चतुष्पलम् । ( तथा मन्त्रद्वारा बान्ध देना) मन्त्र, विषनाशक प्रयोग तथा अपि तक्षकदष्टानां पानमेवत्सुखप्रदम् ॥८॥ काटनेवाले सर्पको ही पकड़कर काट देना और यदि सर्प न मिले, वन्ध्याकर्कोटजं मलं छागमूत्रेण भावितम् । तो मुलायम फलोंको दांतोंसे काटकर फेंकनेसे सर्पविष। नस्य काञ्जिकसंयुक्तं विषोपहतचेतसः ॥ ९ ॥ शान्त होता है ॥१॥ सांपके काटे हुएको गृहधूम, हल्दी, दारुहल्दी, व समूल प्रत्यङ्गिरामूलयोगाः। |चौराईके कल्कमें घी व दही मिलाकर पिलाना चाहिये । तथा मूलं तण्डुलवारिणा पिबति यः प्रत्याङ्गिरासम्भवं |परवलकी जड़के . चूर्णके नस्यसे काले सांपसे काटा भी जी परवलकी जड़के चूर्णके नस्यसे काल जाता है। तथा मुखके कफ अथवा कानके मैलको वाम हाथनिस्पिष्टं शुचि भद्रयोगदिवसे तस्याहिभीतिः कुतः। की अनामिका अंगुलीसे लेकर दंशपर लेप करने तथा मनुष्यदर्पादेव फणी यदा दशति तं मोहान्वितो मूलपं मुत्रका सिञ्चन करनेसे सर्पविष नष्ट होता है । तथा सिरसाके स्थाने तत्र स एव याति नियतं वर्क यमस्याचिरात्॥२॥ फलोंके स्वरसमें भावित सफेद सरसोंका चूर्ण कर पान, नस्य व जो मनुष्य कण्टकिशिरीषको जड़के चूर्णको चावलके जलके अजनके लिये सांपके काटे हए मनुष्योंको ७ दिनतक प्रयोग साथ आषाढ़ मासमें उत्तम नक्षत्रादियुक्त दिनमें पीता है, करना चाहिये। तथा तगर व कूठका मिलित चूर्ण ८ तो. उसको सर्पका कोई भय नहीं रहता । यदि कोई सांप दपसे उसे और शहद व घी मिलित १६ तोला मिलाकर पीनेसे तक्षकसे काटही ले, तो तुरन्त उसी स्थानमें वह सर्प ही मर काटा हुआ भी सुखी होता है । तथा वांझखेखसाकी जड़ वकजाता है ॥२॥ रेके मूत्रमें भावित कर काजीमें मिलाकर विषसे बेहोश मनुष्यको निम्बपत्रयोगः। नस्य देना चाहिये ॥५-९॥ मसूरं निम्बपत्राभ्यां खादेन्मेषगते रवी। महागदः। अब्दमेकं न भीतिः स्याद्विषात्तस्य न संशयः ॥३॥ त्रिवृद्विशाले मधुकं हरिद्रे जो मनुष्य मेषके सूर्यमें मसूरकी दालको नीमकी पत्तीके शाकके साथ खाता है, उसे एक वर्षतक विषसे कोई भय नहीं मजिष्ठवगा लवणं च सर्वम् । होता ॥३॥ कटुत्रिकं चैव विचूर्णितानि शृङ्गे निदध्यान्मधुना युतानि ॥ १०॥ पुनर्नवायोगाः। एषोऽगदो हन्त्युपयुज्यमानः धवलपुनर्नवजटया तण्डुलजलपीतया च पुष्य: । । । पानाञ्जनाभ्यञ्जननस्ययोगः। अपहरति विषधरविषोपद्रवमावत्सरं पुंसाम् ॥४॥ अवार्यवीर्यो विषवेगहन्ता सफेद पुनर्नवाकी जड़को पुष्यनक्षत्रमें चावलके जलके साथ महागदो नाम महाप्रभावः ॥११॥ पीस मिलाकर पीनेसे एक वर्षतकके लिये सर्पके विषके भयको दूर रखता है ॥ ४ ॥ निसोथ, इन्द्रायण, मौरेठी, हल्दी, दारुहल्दी, मजिष्ठादिगण की औषधियां, समस्त नमक व त्रिकटु सब महीन पीस कपसर्पदष्टचिकित्सा। | उछान कर शहद मिलाकर सीङ्गकी शीशीमें धरना चाहिये । गृहधूमो हरिद्रे द्वे समूलं तण्डुलीयकम् । | यह पीने, अञ्जन, नस्य तथा मालिशसे विषके वेगको नष्ट करता अपि वासुकिना दष्टः पिबेदधिघृताप्लुतम् । है। इसका प्रभाव अनिवार्य होता है। यह महाप्रभावशाली कूलिकामूलनस्येन कालदष्टोऽपि जीवति ॥ ५॥ “महागद " नामसे कहा जाता है ॥ १० ॥११॥ श्लेष्मणः कर्णगूथस्य वामानामिकया कृतः। विविधावस्थायां विविधा योगा। लेपो हन्याद्विषं घोरं नृमूत्रासेचनं तथा ॥६॥ पीते विषे स्याद्वमनं च त्वक्स्थे। शिरीषपुष्पस्वरसे भावितं श्वेतसर्षपम् । प्रदेहसेकादि सुशीतलं च ॥१२॥ सप्ताहं सर्पदष्टानां नस्यपानाञ्जने हितम् ॥७॥ कपित्थमामं ससिताक्षौद्रं कण्ठगते विषे। १ काटनेवाले सापको ही काट खाना या मुलायम फल या| लिह्यादामाशयगते ताभ्यां चूर्णपलं नतात् ॥ १३ ॥ मिट्टीका ढेला था कंकड़ आदिको दांतोंसे काटकर फेंकना सुश्रु विषे पक्काशयगते पिप्पलीरजनीद्वयम् । तमें भी हितकर बताया है। मजिष्ठां च समं षिष्ट्वा गोपित्तन नरः पिबेत् ॥१४॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३००) चक्रदत्तः। [विषा रजनीसैन्धवक्षौद्रसंयुक्तं घृतमुत्तमम् । पुरधूपपूर्वमर्कच्छदमिव पिष्ट्वा कृतो लेपः ॥ २१ ॥ पानं मूलविषार्तस्य दिग्धविद्धस्य चेष्यते ॥१५॥ जीरकस्य कृतः कल्को घृतसैन्धवसंयुतः। विष पी लेनेपर, वमन तथा त्वचामें लग जानेपर शीतल सुखोष्णो वृश्चिकार्तानां सुलोपो वेदनापहः ।। २२ ॥ लेप या सेक करना चाहिये । तथा कण्ठतक पहुँचे बिषमें कच्चे अमलाघर्षणं दंशे कण्टकं च तदुद्धरेत् । कैथेके गूदेको मिश्री व शहदके साथ मिलाकर चटाना चाहिये। करणे विषजे लेपात्फणिजकरसोऽथवा ।। २३ ॥ तथा आमाशयगत विषमें तगरका चूर्ण ४ तो० शहद व जो कसौंदके पत्तोंको मुखमें चबाकर कानमें फूंकता है, मिश्री मिलाकर चाटना चाहिये । तथा पक्वाशयगत विषमें वह बिच्छके विषको शीघ्रही नष्ट करता है । तथा बिच्छूके छोटी पीपल, हल्दी, दारुहल्दी, व मजीठ समान भाग ले दशके ऊपर तुलसीके जड़की गोली घुमानेसे बिच्छूका विष गोपित्तमें पीसकर पीना चाहिये । तथा जो मूलविषसे पीड़ित शीघ्रही उतर जाता है। ऐसे ही गुग्गुलुकी धूप देकर है, अथवा जो विष लिप्तशस्त्रसे विंध गया है, उसे हल्दी व आकके पत्तोंका लेप लाभ करता है । तथा जीरेके कल्कमें घी व सेंधानमकका चूर्ण शहद व उत्तम घी मिलाकर पिलाना सैधानमक मिला गरम कर दंशपर गुनगुना लेप करनेसे धृश्चिकचाहिये ॥ १२-१५॥ विषकी पीड़ा शान्त होती है। ऐसे ही दशके कांटेको संयोगजविषचिकित्सा । निकालकर निर्मलीका घिसना लाभ करता है । अथवा मरुवाके रसका दशके ऊपर लेप करनेसे लाभ होता है ॥ २२-२३ ॥ सितामधुयुतं चूर्ण ताम्रस्य कनकस्य वा । लेहः प्रशमयत्युग्रं सर्व संयोगजं विषम् ।। १६ । । गोधादिविषचिकित्सा । अङ्कोटमूलनिष्काथफाणितं सघृतं लिहेत् ।। कुङ्कुमकुनटीकर्कटपलहरितालैः तैलाक्तः स्विनसागो गरदोषविषापहः ॥ १७ ॥ कुसुम्भसंमिलितः । ताम्र अथवा सोनेकी भस्मको मिश्री व शहद मिलाकर चाटनेसे समस्त संयोगज विष नष्ट होते हैं। तथा अंको कृतगुडिकाभ्रामणतो विदष्टगोथासरटविषजित् ॥ २४॥ हरकी जड़के क्वाथको गाढ़ा कर घी मिला चाटने तथा तैलकी | मालिश कर समस्त शरीरके स्वेदन करनेसे गरदोष और केशर, मनशिल, केकड़ेके मांस, हरिताल तथा कुसुम्भके विष नष्ट होते हैं ॥ १६ ॥ १७ ॥ फूल मिलाकर बनायी गयी गोली दंशपर फेरनेसे गोह या गिर. गिटका विष नष्ट होता है ॥ २४ ॥ कीटादिविषचिकित्सा। __ मीनादिविषचिकित्सा । . कटभ्यर्जुनशैरीयशेलुक्षीरिद्रुमत्वचः। अङ्कोटपत्रधूमो मीनविषं झटिति विघटयेच्छृङ्गी । कषायचूर्णकल्काः स्युः कीटलूताव्रणापहाः ॥१८॥ गोधावरटीबिषमिव लेपेन कुटजकपालिजटा।।२५।। मालकांगनी, अर्जुन, कटसैला, लसोढा और दूधवाले वृक्षोंकी छालका कषाय अथवा चूर्ण अथवा कल्कमेंसे किसी अंकोहरके पत्तोंका धुआं शीघ्रही मीनविषको नष्ट करता एकका सेवन करनेसे कीड़े, मकड़ी आदिके व्रण शान्त है । तथा काकड़ाशिङ्गीका लेप भी यही गुण करता है । जैसे होते हैं ॥ १८॥ कि कुरैयाकी छाल और नरियलको जटासे गोह और वर्रका विष नष्ट होता है ॥ २५॥ मूषकविषचिकित्सा। . आगारधूममञ्जिष्ठारजनीलवणोत्तमैः। __ श्वविषचिकित्सा! लेपो जयत्याविषं कर्णिकायाश्च पातनम् ॥ १९ ॥ कनकोदुंबरफलमिव तण्डुलजलपिष्टं पीतमपहरति । गृहधूम, मजीठ, हल्दी और सेंधानमकको पीसकर लगाया कनकदलद्रवघृतगुडदुग्धपलैकं शुनां गरलम् ॥२६॥ गया लेप कर्णिका ( गांठ ) को गिराता तथा मूषकविषको धतूरा और गूलरके फल चावलके जलमें पीसकर पानसे या शान्त करता हे ॥१९॥ धतुरेके पत्तोंका रस घी, गुड़ व दूध मिलाकर ४ तोला पीनेसे वृश्चिकचिकित्सा । कुत्तेका जहर मिट जाता है ॥ २६ ॥ . यः कासमर्दपत्रं वदने प्रक्षिप्य कर्णफूत्कारम् । । भेकविषचिकित्सा। मनुजो ददाति शीघ्रं जयति विषं वृश्चिकानां सः२० लेप इव भेकगरलं शिरीषबीजैः स्तुहीपयःसिक्तैः । दंशे भ्रामणविधिना वृश्चिकविषहृत्कुठेरपादगुडिका।| हरति गरलं व्यहमशिताङ्कोटजटाकुष्ठसम्मिलिता। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (३०१) सन्न्नन्न्न्न्नन्नन् सिरसाके बीज, सेहुण्डके दूधके साथ अथवा काले अंको- धनधान्यकार्यसिद्धिश्रीपुष्टिवर्णायुर्वर्धनो धन्यः । हरकी जड़ और कूठका ३ दिन लेप करनेसे मण्डूकविष नष्ट | मृतसञ्जीवन एष प्रागमृताद् ब्रह्मणाभिहितः॥२८॥ होता है ॥२७॥ मालतीके फूल, केवटी मोथा, गठीना, फिटकरी, छरीला, लालाविषचिकित्सा । गोरोचन, तगर, रोहिष, केशर, जटामांसी, तुलसी, त्रिफला मरिचमहौषधवालकनागालैमक्षिकाविषे लेपः। छोटी इलायची, कत्था, बड़ी कटेरी, सिरसाके फूल, गन्धा. लालाविषमपनयतो मूले मिलिते पटोलनीलिकयोः।। बिरोजा, कमल, भुइआमला, इन्द्रायण, देवदारु , कमलका केशर, शावरलोध, मनाशिल, सम्भालूके बीज, चमेलीके फूल, काली मिर्च, सोंठ, सुगन्धवाला तथा नागकेशरको पीसकर | आकके फूल, सरसों, हल्दी, दारुहल्दी, हींग, छोटी पीपल, बनाया गया लेप मक्खियोंके विषको तथा परवल और नीलकी मुनक्का, सुगन्धवाला, मुद्गपर्णी, मौरेठी, देवना, सम्भालू, जड़का लेप लालाविषको नष्ट करता है ॥ २८ ॥ अमलतास, लोध, अपामार्ग, प्रियंगु, कलिहारी व वायविडङ्ग, नखदंतविषे लेपः। समस्त द्रव्य समान भाग ले कूट पीसकर पुष्य नक्षत्रमें गोली सोमवल्कोऽश्वकर्णश्च गोजिह्वा हंसपाद्यपि । | बनानी चाहिये । यह समस्त विषोंको नष्ट करता, विषसे रजन्यौ गैरिकं लेपो नखदन्तविषापहः ॥ २९ ॥ मरते हुएको बचाता तथा ज्वर नष्ट करता है । यह पोने, लेप करने, धारण करने, धूम पीने तथा घरमें रखनेसे सफेद कत्था, राल, गाउजुबां, हंसराज, हल्दी, दारु-1. भी लाभ करता है। तथा भूत, विष, क्रिमि, दरिद्रता, मन्त्र हल्दी, और गेरूका . लेप नख और दन्तविषका नष्ट प्रयोग, अग्नि, वज्र और शत्रुओंके भय, दुःस्वप्न, स्त्रीदोष, करता है ॥ २९ ॥ अकाल मृत्यु, जल तथा चोरभयको दूर करता है । यह “ मृतकीटविषचिकित्सा। सजीवन "घन, धान्य, कार्यसिद्धि, लक्ष्मी, पुष्टि, वर्ण और वचा हिङ्गु विडङ्गानि सैन्धवं गजपिप्पली।। आयुको अधिक बढाता, अतः धन्य है। इसे श्रीब्रह्माजीने अमृ. तके पहिले कहा है ॥ ३२-३८॥ पाठा अतिविषा व्योषं काश्यपेन विनिर्मितम् ३० इति विषाधिकारः समाप्तः।। दशाङ्गमगदं पीत्वा सर्वकीटविषं जयत् । कीटदष्टक्रियाः सर्वाः समानाः स्युर्जलौकसाम्॥३॥ अथ रसायनाधिकारः। बच, हींग, वायविडङ्ग, सेंधानमक, गजपीपल, पाढ, अतीस, व त्रिकटु इन दश चीजोंका लेप "दशांग अगद" कहा जाता है । यह समस्त कीटविषोंको नष्ट करता है। इसी प्रकार सामान्यव्यवस्था। जोंकोंके विषमें भी समस्त कीटविषनाशक चिकित्सा करनी चाहिये ॥३०॥३१॥ बजराव्याधिविध्वंसि भेषजं तद्रसायनम् । मृतसञ्जीवनोगदः। पूर्वे वयसि मध्ये वा शुद्धदेहः समाचरेत् ॥ १॥ नाविशुद्धशरीरस्य युक्तो रासायनो विधिः ॥१॥ स्पृक्काप्लवस्थौणेयकांक्षीशैलेयरोचनातगरम् । नाभाति वाससि म्लिष्टे रङ्गयोग इवार्पितः॥२॥ ध्यामकं कुङ्कुमं मांसी सुरसात्रिफलैलकुष्ठन्नम् ॥ जो औषधवृद्धावस्था व रोगको नष्ट करती है, उसे “रसायन" बृहतीशिरीषपुष्पश्रीवेष्टकपद्मचाटिविशालाः। ! कहते हैं। उसका प्रयोग बाल्यावस्था व युवावस्थामें शुद्ध शरीर सुरदारुपद्मकेशरशावरकमनःशिलाकौन्त्यः ॥३३॥ (वमनादिसे ) होकर करना चाहिये, शरीरकी शुद्धि विना रसाजात्यर्कपुष्पसर्षपरजनीद्वयहिगुपिप्पलीद्राक्षाः ॥ यनप्रयोग लाभ नहीं करता, जिस प्रकार मैले कपड़ेपर रङ्ग नहीं जलमुद्गपर्णीमधूकदमनकमथ सिन्धुवाराश्च ॥३४॥ चढ़ता ॥१॥२॥ सम्पाकलोध्रमयूरकगन्धफलीलागलीविडंगाः। पथ्यारसायनम् । पुष्ये समुद्धृत्य समं पिष्ट्वा गुडिका विधेयाःस्युः३५/ गुडेन मधुना शुण्ठ्या कणया लवणेन वा। सर्वविषघ्नो जयकृद्विषमृतसञ्जीवनो ज्वरनिहन्ता । द्वे द्वे खादन्सदा पथ्ये जीवेद्वर्षशतं सुखी ॥३॥ पेयविलेपनधारणधूम्रग्रहणैर्गृहस्थश्च ।। ३६ ॥ | गुड़, शहद, सोंठ, छोटी पीपल, व नमक इनमेंसे किसी एक भूतविषजन्त्वलक्ष्मीकार्मणमन्त्राग्न्यशन्यरीन्हन्यात् | के साथ प्रतिदिन २ छोटी हर्र खानेसे १०० वर्षतक नीरोग दुःस्वप्नस्त्रीदोषानकालमरणाम्बुचौरभयम् ॥३६॥ रहकर १०० वर्षतक मनुष्य जीता है ॥ ३ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२ ) चक्रदन्तः । अभयाप्रयोगः । सिन्धूत्थशर्कराशुण्ठीकणामधुगुडैः क्रमात् । वर्षादिष्वभया सेव्या रसायनगुणैषिणा ॥ ४ ॥ रसायनकी इच्छा रखनेवालेको बड़ी हर्रका सेवन वर्षाकालमें सेंधानमकके साथ, शरद ऋतु में शक्कर के साथ, हेमन्त में सोंठ के साथ, शिशिरमें पिप्पलकिं साथ और वसन्तमें शहदके तथा ग्रीष्म में गुड़के साथ करना चाहिये ॥ ४ ॥ लौह त्रिफलायोगः । त्रै फलेनायसी पात्री कल्केनालेपयन्नवाम् । तमहोरात्रिकं लेपं पिबेत्क्षौद्रोदकाप्लुतम् ॥ ५ ॥ प्रभूत स्नेहमशनं जीर्णे तस्मिन्प्रयोजयेत् । अजरोऽरुक्समाभ्यासाज्जीवेचापि समाः शतम् ६॥ त्रिफलांके कल्कका लेप नवीन लोहेके पात्रमें करना चाहिये । फिर रातदिन रहा हुआ वह लेप शहद और जल मिलाकर पीना चाहिये । इसके हजम हो जानेपर अधिक स्नेह मिला भोजन करना चाहिये । इस प्रकार एक वर्षके प्रयोग कर लेनेसे मनुष्य जवान तथा नीरोग रह कर १०० वर्षतक जीता है ॥ ५६ ॥ पिप्पलीरसायनम् । पश्चाष्टौ सप्त दश वा पिप्पलीः क्षौद्रसर्पिषा । रसायनगुणान्वेषी समामेकां प्रयोजयेत् ॥ ७ ॥ तिस्रस्तिस्रस्तु पूर्वाह्णे भुक्त्वा भोजनस्य च । पिप्पल्यः किंशुकक्षारभाविता घृतभर्जिताः ॥ ८॥ प्रयोज्या मधुसंमिश्रा रसायनगुणैषिणा । जेतुं कासं क्षयं श्वासं शोषं हिक्कां गलामयम् ॥९॥ अशसि ग्रहणदोषं पाण्डुतां विषमज्वरम् । [ रसायना - प्रयोजयेत्समामेकां त्रिफलाया रसायनम् । जीवेद्वर्षशतं पूर्णमजरोऽव्याधिरेव च ।। १२ ।। अन्न हजम हो जानेपर १ हर्र, भोजन के पहिले दो बहेड़े और भोजनके बाद ४ आँवलेका घी व शहदके साथ १ वर्षतक प्रयोग करनेसे मनुष्य युवा तथा नीरोग रहकर १०० वर्षतक जीता है ॥ ११ ॥ १२ ॥ विविधानि रसायनानि । मण्डूकपर्ण्याः स्वरसः प्रयोज्यः क्षीरेण यष्टीमधुकस्य चूर्णम् । रसो गुडूच्यास्तु समूलपुष्प्याः कल्कः प्रयोज्यः खलु शङ्खपुष्प्याः ॥ १३ ॥ आयुःप्रदान्यामयनाशनानि वर्णस्वरवर्धनानि । मेध्यानि चैतानि रसायनानि मेध्या विशेषेण तु शङ्खपुष्पी ॥ १४ ॥ मण्डूकपर्णीका स्वरस अथवा दूधके साथ मौरेठीका चूर्ण अथवा गुर्चका रस, अथवा मूल व पुष्पसहित शंखपुष्पीका रस इनमें से किसी एकका प्रयोग करना चाहिये । यह आयु बढानेवाले, रोग नष्ट करनेवाले, बल, अभि तथा वर्ण और स्वरको बढानेवाले तथा मेधा के लिये हितकर रसायन हैं । इनमें भी शंखपुष्पी विशेष कर मेधा के लिये हितकर है ॥ १३ ॥ १४ ॥ अश्वगन्धारसायनम् । पीताश्वगन्धा पयसार्धमा सं घृतेन तैलेन सुखाम्बुना वा । कृशस्य पुष्टिं वपुषो विधत्ते वैस्वर्य पीनसं शोषं गुल्मं वातबलासकम् ॥ १० ॥ बालस्य शस्यस्य यथाम्बुवृष्टिः ॥ १५ ॥ असगन्धके चूर्णका दूधके साथ अथवा घृत, तैल या रसायनके गुणोंकी इच्छा रखनेवालेको पीपल ५, ७, ८, १०, ( अपनी प्रकृतिके अनुसार ) प्रतिदिन शहद व घीके गुनगुने जलमेंसे किसी एकके साथ सेवन करनेसे दुर्बल शरीरको इस प्रकार पुष्ट करता है, जैसे जलवृष्टि छोटे साथ सेवन करना चाहिये । यह प्रयोग एक वर्षका है । अथवा ढाकके क्षार जलसे भावित तथा घीमें भूनी गयी धानोंको ॥ १५ ॥ छोटी पीपल तीन तीनकी मात्रासे शहद में मिलाकर प्रात:काल, भोजनसे पहिले व भोजनके अनन्तर खानेसे कास, क्षय, श्वास, शोष, हिक्का, गलरोग, अर्श, ग्रहणीदोष, पाण्डुरोग, विषमज्वर, स्वरभेद, पीनस, गुल्म व वातबलासक, नष्ट होते हैं ॥ ७-१० ॥ धात्रीतिलरसायनम् । धात्रीतिलान्भृङ्गरजोविमिश्रान् ये भक्षयेयुर्मनुजाः क्रमेण । ते कृष्णकेशा विमलेन्द्रियाश्च निर्व्याधयो वर्षशतं भवेयुः ॥ १६ ॥ जो मनुष्य आंवला, तिल व भांगरा के चूर्णका सेवन करते हैं, वे कालेकेशयुक्त इन्द्रियशक्तिसम्पन्न १०० वर्ष तक त्रिफलारसायनम् । जरणान्तेऽभयामेकां प्राग्भक्तं द्वे विभीतके । भुक्त्वा तु मधुसर्पि चत्वार्यामलकानि च ॥ ११ जीते हैं ॥ १६ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] भाषाटीकोपेतः । वृद्धदार करसायनम् । वृद्धदारकमूलानि लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । शतावर्या रसेनैव सप्तरात्राणि भावयेत् ॥ १७ ॥ अक्षमात्रं तु तच्चूर्ण सर्पिषा सह भोजयेत् । मासमात्रोपयोगेन मतिमाञ्जायते नरः ॥ १९ ॥ मेधावी स्मृतिमांश्चैव वलीपलितवर्जितः । विधाराकी जड़का महीन चूर्ण कर शतावरीके रसकी ७ भावना देनी चाहिये । यह चूर्ण १ तोलाकी मात्रासे प्रतिदिन धी के साथ खाना चाहिये । इसके सेवनसे मनुष्य बुद्धिमान, मेधावी, स्मृतिमान् तथा वलीपलितरहित होता है ॥ १७ ॥ १८ ॥ हस्तिकर्णचूर्णरसायनम् । हस्तिकर्णरजः खादेत्प्रातरुत्थाय सर्पिषा ॥ १९॥ यथेष्टाहारचारोऽपि सहस्रायुर्भवेन्नरः । मेधावी बलवान्कामी स्त्रीशतानि व्रजत्यसी ॥२०॥ धुना त्वश्ववेगः स्याद्बलिष्ठः स्त्रीसहस्रगः । मन्त्रश्चायं प्रयोक्तव्यो भिषजा चाभिमन्त्रणे ॥ २१ ॥ "ओं नमो महाविनायकाय अमृतं रक्ष रक्ष मम फलसिद्धिं देहि रुद्रवचनेन स्वाहा " ।। २२ ।। जो मनुष्य प्रातःकाल भूपलाशके चूर्णको घी के साथ चाटता है, तथा यथेष्ट आहार विहार करता है, वह १००० वर्षतक जीता है । तथा मेधावी, बलवान् व कामी होकर १०० स्त्रियां के साथ मैथुन करता है । तथा इसीको शहदके साथ से हजारों स्त्रियोंको गमन करनेकी शक्ति हो जाती है । तथा इस मन्त्रसे अभिमन्त्रण करना चाहिये । " ओं नमो महाविनायकाय अमृतं रक्ष रक्ष मम फलसिद्धिं देहि रुद्रवचनेन स्वाहा " ।। १९-२२॥ ( ३०३ ) गुडूच्यादिलेहः । गुडूच्यपामार्गविडङ्गशङ्खिनी वचाभयाकुष्ठशतावरी समा । घृतेन लीढा प्रकरोति मानवं त्रिभिर्दिनैः श्लोकसहस्रधारिणम् ॥ २४ ॥ गुर्च, अपामार्ग, वायविडङ्ग, शंखपुष्पी, वच, हर्र, कूठ और शतावरी समान भाग ले चूर्ण कर घीके साथ चाटने से ३ दिनके ही प्रयोगसे मनुष्य हजारों श्लोक कण्ठ करनेकी शक्तिसे सम्पन्न होता है ॥ २४ ॥ सारस्वतघृतम् । समूल पत्रामादाय ब्राह्मीं प्रक्षाल्य वारिणा । उलूखले क्षोदयित्वा रसं वस्त्रेण गालयेत् ॥ २५ ॥ रसे चतुर्गुणे तस्मिन्घृतप्रस्थं विपाचयेत् । औषधानि तु पेष्याणि तानीमानि प्रदापयेत् ॥ २६ ॥ हरिद्रा मालती कुष्ठं त्रिवृता सहरीतकी । एतेषां पलिकान्भागाशेषाणि कार्षिकाणि तु || २७॥ पिप्पल्योऽथ विडङ्गानि सेन्धवं शर्करा वचा । सर्वमेतत्समालोडय शनैर्मृद्वग्भिना पचेत् ॥ २८ ॥ एतत्प्राशितमात्रेण वाग्विशुद्धिश्च जायते । सप्तरात्रप्रयोगेण किन्नरैः सह गीयते ॥ २९ ॥ अर्धमासप्रयोगेण सोमराजीवपुर्भवेत् । मासमात्रप्रयोगेण श्रुतमात्रं तु धारयेत् ॥ ३० ॥ हन्त्यष्टादश कुष्ठानि अर्शासि विविधानि च । पञ्च गुल्मान् प्रमेहांश्च कासं पञ्चविधं जयेत् ॥३१॥ वन्ध्यानां चैव नारीणां नराणां चाल्परेतसाम् । घृतं सारस्वतं नाम बलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ ३२ ॥ धात्री चूर्णरसायनम् । धात्रीचूर्णाढकं स्वस्वरसपरिगतं क्षौद्रसर्पिः समांशं कृष्णामानी सिताष्टप्रसृतयुतमिदं स्थापितं भस्मराशी । वर्षान्ते तत्समनन्भवति विपलितो रूपवर्णप्रभावे र्निर्व्याधिर्बुद्धिमेधास्मृतिबलवचनस्थैर्यसत्त्वैरुपेतः २३ ॥ | आंवले का चूर्ण ३ सेर १६ तोला, आंवले के स्वरससे ही ७ बा भावित कर शहद व घी समान भाग मिला तथा छोटी पीपल ३२ तोला, मिश्री ६४ तोला मिलाकर भस्मराशिमें गाड़ देना चाहिये । वर्षाकालके अनन्तर निकाल कर इसका सेवन करने से मनुष्य पलितराहत रूप, वर्ण और प्रभावयुक्त, मीरोग तथा बुद्धि, धारण शक्ति, स्मरणशक्ति, बल ब बचनकी स्थिरता तथा सत्वगुणसे युक्त होता है ॥ २३ ॥ मूलपत्रसहित ब्राह्मी खोद जलसे धो ओखलमेिं कूटकर कपड़ेसे रस छानना चाहिये । इस प्रकार छने ६ सेर ३२ तो ० रसमें १ सेर ९ छ. ३ तो० घी मिलाकर पकाना चाहिये । तथा हल्दी, मालती, कूठ, निसोथ व हर्र, प्रत्येक ४ तोले तथा छोटी पीपल, वायविडंग, सेंधानमक, शक्कर व बच प्रत्येक १ तोलाका कल्क मिलाकर मन्द आँचसे पकाना चाहिये । सम्यक् पाकार्थ घीसे चौगुना जल भी छोड़ना चाहिये । यह घृत चाटने से ही वाणी शुद्ध करता है, इसका प्रयोग करनेवाला ७ दिनमें ही किन्नरोंके समान गानेवाला, १५ दिनमें चन्द्रमाकी किरणों के समान शरीवाला होता है। एक मास प्रयोग कर लेनेसे जो कुछ सुनता है, उसे ही कण्ठ कर लेता है । यह अठारह प्रकार के कुष्ठ, अर्श, पांचों गुल्म प्रमेह तथा पांचों प्रकारके कास नष्ट करता है । वन्ध्याः स्त्रियों तथा अल्पवीर्यान्वित पुरुषोंके लिये हितकर है। तथा यह " सारस्वत घृत" बल वर्ण व अभिको बढाता है॥२५-३२॥ 1 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०४) [ रसायना -rrror-orr orror जलरसायनम् । तत्राष्टमो विभागः शेषः काथस्य यत्नतः स्थाप्यः । कासश्वासांतिसारज्वरपिडककटीकुष्ठकोठप्रकारान् । तेन हि मारणपुटनस्थालीपाका भविष्यन्ति ॥४१॥ मूत्राघातोदरार्शःश्वयथुगलशिरःकर्णशूलाक्षिरोगान् । पाकार्थे तु त्रिफला भागद्वितये शरावसंख्यातम् । ये चान्ये वातपित्तक्षतजकफकृता व्याधयः सन्ति जन्तो- प्रतिपलमम्बु समं स्यादधिकं द्वाभ्यां शरावाभ्याम्॥ स्तांस्तानभ्यासयोगादपनयति पयः पीतमन्ते निशायाः।। तत्र चतुर्थो भागः शेषो निपुणेन यत्नतो ग्राह्यः। व्यङ्गवलीपलितघ्नं पीनसवैस्वर्यकासशोथनम् । । अयसः पाकार्थत्वात्स च सर्वस्मात्प्रधानतमः॥४३॥ रजनीक्षयेऽम्बुनस्य रसायनं दृष्टिजननं च ॥ ३४ ॥ समस्त लौहकर्ममें क्वाथ बनानेके लिये प्रतिपल ३ शराव रात्रिके अन्त में जल पीनेके अभ्याससे कास, श्वास, अतीसार, कडव ) जल छोड़ना चाहिये, तथा सात पल (पांच पल ज्वर, कमरकी पीड़ा, कुष्ठ, ददरे, मूत्राघात, उदर, अशे, शथ, लाहके लिय गृहीत त्रिफलाके तृतीयांशभाग) से १५ पलतक गले, शिर, कान व नेत्रके रोग तथा अन्य वात, पित, कफ त्रिफलामें जल पूर्वोक्त मानसे क्रमशः ३ से ११ शराव तक तथा रक्तसे उत्पन्न होनेवाले रोग नष्ट होते हैं । इसी प्रकार अधिक छोडना । जैसे ७ पलके लिये ७४३२१ और ३ शराव प्रातःकाल जलका नस्य लेनेसे झांई, झुर्रियां, बालोंकी सफेदी, अधिक अर्थात् २४ शराव जल लेना चाहिये । ऐसे ही (६ पल पीनस, स्वरभेद, कास, सृजन नष्ट होती है । तथा यह रसायन लौहके लिये गृहीत त्रिफलाके तृतीयांश भाग) ८ पल त्रिफलाके नत्रोंकी शक्तिको बढाता है ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ लिये २४ शराव और ४ शराव अधिक अर्थात् २८ शराव जल लेना चाहिये। ऐसे ही क्रमशः जितने पल क्वाथ्य त्रिफला हो, अमृतसारलोहरसायनम् । | उससे त्रिगुण शराव जल तथा ९ पलमें ५, दश पलमें ६, नागार्जुनो मुनीन्द्रः शशास यल्लोहशास्त्रमतिगहनम् । ग्यारहमें ७, इसी प्रकार बढाते हुए १५ पलमें ११ शराव तस्यार्थस्य स्मृतये वयमेतद्विशदा ५॥ अधिक अर्थात् १५ के त्रिगुण ४५ और ११ और ५६ शराव मेने मुनिः स्वतन्त्रे भूयः पाकं न पलपञ्चकादक । जल छोड़ना चाहिये । तथा अष्टमांश काथ शेष रखना चाहिये। सुबहुप्रयोगदोषादूर्ध्व न पलत्रयोदशकात् ॥ ३६॥ | इसी |इसीसे मारण, पुटन व स्थालीपाक करना चाहिये तथा प्रधान पाकके लिये बचे त्रिफलामें प्रतिपल १. शराव (अर्थात् त्रिफलासे तत्रायसि पचनीये पञ्चपलादी त्रयोदशपलान्ते च ।। अष्टगुण ) जल और २ शराव अधिक छोड़ना चाहिये और लोहात्रिगुणा त्रिफला ग्राह्या षडभिः पलेरधिका ।। चतुर्थीश शेष रखना चाहिये । प्रधानपाकमें सहायक होनेसे यह मारणपुटनस्थालीपाकास्त्रिफलैकभागसम्पाद्याः।। काथ भी प्रधान है ॥ ३९-४३ ॥ त्रिफलाभागद्वितयं ग्रहणीयं लौहपाकार्थम् ॥ ३८ ॥ नागार्जुन मुनिने जो लोहशास्त्र अति कठिन तथा गम्भीर दुग्धनिश्चयः। कहा है, उसके स्मरणार्थ हम उसका विशद व्याख्यान करते हैं। पाकार्थमश्मसारे पञ्चपलादी त्रयोदशपलान्ते । मानिने अपने शास्त्रमें पांच पलसे कम तथा तेरह पलसे अधिक दुग्धशरावद्वितयं पादरेकादिकैरधिकम् ॥ ४४॥ लोहका एक बारमें प्रयोग नहीं कहा । उस लोहकी भस्म करनेके लिये जितना लोह हो, उससे तिगुना छः पल अधिक मिलाकर | लौहपाकके लिये ५ पलसे १३ पलतक लौहमें २ शराव (जैसे ५ पल लोहके लिये ५ के तिगुने १५ और ६ अर्थात और १ शराव दूध अधिक प्रतिपलमें लेना चाहिये । अर्थात् २१ पल इसी प्रकार १० पल लोहके लिये १० के तिगुने ३०५ पलमें २५ शराव, ६ पलमें २॥ शराव, ७ पलमें २।। शराव, और ६ अर्थात् ३६ पल) त्रिफला लेनी चाहिये। उसके तीन | ८ पलमें ३ शराव इसी प्रकार प्रतिपल लौहमें चौथाई शराव भाग करने चाहिये एक भागसे मारण, पुटन और स्थालीपाक | दूध बढा देना चाहिये ॥ ४४ ॥ करना चाहिये । शेष २ भाग त्रिफला प्रधानपाकके लिये रखनी चाहिये ॥३५-३८॥ लौहमात्रानिश्चयः। जलनिश्चयः। पञ्चपलादिकमात्रा तदभावे तदनुसारतो ग्राह्यम् । सर्वत्रायःपुटनाद्यर्थैकांशे शरावसंख्यातम् । । चतुरादिकमेकान्तं शक्तावधिकं त्रयोदशकात्॥४५॥ प्रतिपलमेव त्रिगुणं पाथः काथार्थमादेयम् ॥३९॥ सामान्यनियम पञ्चपलादिका है, पर इसके अभावमें ४ पलसे सप्तपलादी भागे पञ्चदशान्तेऽम्भसां शरावेश्व। १ पलतकका तथा शक्ति होनेपर १३ पलसे अधिक लौहका भी त्र्याधैकादशकान्वैरधिकं तद्वारि कर्तव्यम् ॥ ४० ॥] पाक कर सकते हैं ॥ ४५ ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। - प्रक्षेप्यौषधनिर्णयः। | धर्मात्सिध्यति सर्व श्रेयस्तद्धर्मसिद्धये किमपि । त्रिफलात्रिकटुकचित्रककान्तक्रामकविडङ्गचर्णानि ।। शक्त्यनुरूपं दद्याद् द्विजाय सन्तोषिणे गुणिने।।५४ अन्यान्यपि देयानि पलाशवृक्षस्य च बीजानि॥४६ सन्तोष्य कर्मकारं प्रसादपुगादिदानसम्मानैः । जातीफलजातीकोषैलाकक्कोलकलवङ्गानाम् । । आदौ तदश्मसारं निर्मलमेकान्ततः कुर्यात् ॥५५॥ सितकृष्णजीरकयोरपि चूर्णान्ययसः समानि स्युः। तदनु कुठारच्छिन्नात्रिफलागिरिकर्णिकास्थिसंहारैः। त्रिफलात्रिकटुविडङ्गा नियता अन्ये यथाप्रकृति ॥ करिकर्णच्छदमूलकशतावरीकेशराजाख्यैः ॥५६॥ कालायसदोषहृतेर्जातीफलादेर्लवङ्गान्तस्य । शालिंचमूलकाशीमूलप्रावृजभृङ्गराजैश्च । क्षेपः प्राप्त्यनुरूपः सर्वस्योनस्य चैकाद्यैः ।। ४८॥ लिप्त्वा दग्धव्यं तद् दृष्टिक्रियलोहकारेण ॥ ५७ ॥ कान्तक्रामकमेकं निःशेषं दोषमपहरत्ययसः। । चिरजलभावितविमलं शालाङ्गारेण परित आच्छाद्य द्विगुणत्रिगुणचतुर्गुणमाज्यं ग्राह्यं यथाप्रकृति ॥४९॥ कुशलाध्मापितभस्त्रानवरतमुक्तेन पवनेन ॥ ५८॥ यदि भेषजभूयस्त्वं स्तोकत्वं वापि चूर्णानाम्।। वर्बाह्यज्वाला बोद्धव्या जातु नैव कुञ्चिकया । अयसा साम्यं संख्या भूयोऽल्पत्वेन भूयोऽल्पा॥५० मृङवणसलिलभाजा किन्तु स्वच्छाम्बुसंप्लुतया ५९ एवं धात्वनुसारात्तत्तत्कथितोषधस्य बाधेन । द्रव्यान्तरसंयोगात्स्वां शक्तिं भेषजानि मुञ्चन्ति । सर्वत्रैव विधेयस्तत्तक्कथितस्यौषधस्योहः ॥५१॥ मलधूलीमत्सर्व सर्वत्र विवर्जयेत्तस्मात् ।। ६०॥ त्रिफला, त्रिकटु, चीतेकी जड़, नागरमोथा, वायविडङ्ग, सन्दंशेन गृहीत्वान्तः प्रज्वालिताग्निमध्यमुपनीय । ढाकके बीज, जायफल, जावित्री, इलायची, कंकोल, लवङ्ग, सफेद जीरा, काला जीरा समस्त समान भागमें मिलित द्रव्योंका गलति यथायथमनो तथैव मृदु वर्धयोनिपुणः ॥६१ चूर्ण मिलकर लोहके बराबर लेना चाहिये। इनमेंसे त्रिफला, तलनिहितोर्ध्वमुखांकुशलग्नं त्रिफलाजले । त्रिकटु और वायविडङ्ग अवश्य डालना चाहिये । और द्रव्य | विनिक्षिप्य निर्वापयेच्छेषं त्रिफलाम्बु रक्षेच्च ॥६२॥ प्रकृतिके अनुसार छोड़ना चाहिये । तथा लोहके दोष दूर करनेके यल्लौहं न मृतं तत्पुनरपि पक्तव्यमुक्तमार्गेण । लिये जायफलसे लवंगतक जितने द्रव्य गिनाये हैं, वे एक दो यन्न मृतं तथापि तत्त्यक्तव्यमलौहमेव ततः॥६३ ॥ न मिलनेपर जितने मिल सकें, उतने ही अवश्य छोड़ने चाहिये। तथा नागरमोथा अकेला ही लोहके सब दोष दूर करता है, अतः तदनु घनलौहपात्रे कालायसो मुद्रेण संचूर्ण्य । उसे अवश्य छोड़े। तथा रोगीकी प्रकृतिके अनुसार (क्रमशः कफ, दत्त्वा बहुशः सलिलं प्रक्षाल्याङ्गारमुद्धृत्य ॥६४॥ पित्त, वातमें ) द्विगुण, त्रिगुण तथा चतुर्गुण घी छोड़ना चाहिये ।। तदयः केवलमग्नौ शुष्कीकृत्याथवातपे पश्चात् । । यदि ओषधियां अधिक हों, अर्थात् सब मिल जावें, तो प्रत्येक | लोहशिलायां पिण्यादसितेऽश्मनि वा तदप्राप्तौ ६५ चूर्ण थोड़ा और यदि कम मिले तो प्रत्येक चूर्ण अधिक छोडना अब कान्तादिलोहकी मारण विधि कहते हैं। जिस रोगीके चाहिये। अर्थात् औषधियोंकी संख्याके न्यूनाधिक्यसे चूर्णकी | लिये लोह बनाना है, उसके लिये शुभ नक्षत्रादिसे युक्त दिनमें मात्रा कम या अधिक न होगी । वह प्रत्येक अवस्थामें मिलकर मिट्टी और अङ्गारों को मिला लिपी गयी भूमिपर शंकरजीका लोहके बराबर ही होनी चाहिये । इसी प्रकार रोगीकी प्रकृतिके पूजन कर वैदिकविधिसे अग्नि स्थापित कर आहति करनी अनुसार कही हुई औषधियों को भी अलग करना तथा अनुक्त चाहिये । धर्मसे सर्व कार्य सफल होते हैं, अतः धर्मार्थ किसी औषधियां भी छोड़नी चाहियें ॥ ४६-५१॥ सन्तोषी गुणवान् ब्राह्मणके लिये शक्तिके अनुकूल दान करना लोहमारणविधिः। चाहिये । फिर लुहारको सुपारी, पान तथा प्रसाद आदि देकर सम्मानित तथा सन्तुष्ट करना चाहिये । पहिले उस लोहको कान्तादिलोहमारणविधानसर्वस्वमुच्यते तावत् । बिल्कुल शुद्ध कर लेना चाहिये (लोहशोधनकी कोई परिभाषा यस्य कृते तल्लौहं पक्तव्यं तस्य शुभे दिवसे॥५२॥ ग्रन्थकारने नहीं लिखी । यद्यपि शिवदासजीने लिखी है, पर वह समृदङ्गारकरालितनतभूभागे शिवं समभ्यर्च्य । अतिविस्तृत होनेसे तथा अधिक कष्टसाध्य होनेसे छोडता हूं और वैदिकविधिना वह्नि निधाय हुत्वाहुतीस्तत्र॥५३॥ रसप्रन्थोंमें जो अनेक पद्धतियाँ बतलायी गयी हैं उनमेंसे एक यह है१ उक्त प्रक्षेप्य औषधियां लोह सिद्ध हो जानेपर ही “चिश्चापत्रजलक्काथादयो दोषमुदस्यति । ... मिलाना चाहिये। यद्वा फलत्रयोपेते गोमूत्र कथितं खलु " - Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०६ ) अर्थात् इमलीकी पत्ती के रससे स्वेदन करनेसे अथवा धियाँ २४ शराव जलमें पकाकर ३ शराव शेष रखना चाहिये । उसी क्वाथसे पाक करना चाहिये ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ पाकवः । हस्तप्रमाणवदनं श्वभ्रं हस्तैकखातसममध्यम् । कृत्वा कटाहसदृशं तत्र करीषं तुषं च काष्ठं च ॥६८ अन्तर्घनतरमर्द्ध शुषिरं परिपूर्य दहनमायोज्य । पश्चादयसश्चूर्ण श्लक्ष्णं पङ्कोपमं कुर्यात् ॥ ६९ ॥ त्रिफलाम्बुभृङ्गकेशर शतावरीकन्दमाण सहजरसैः। भल्लातककरिकर्णच्छदमूलपुनर्नवास्वरसैः ॥ ७० ॥ क्षिप्त्वाथ लोहपात्रे मार्दे वा लोहमार्दपात्राभ्याम् । तुल्याभ्यां पृष्ठेनाच्छाद्यान्ते रन्ध्रमालिप्य ॥ ७१ ॥ तत्पुटपात्रं तत्र श्वभ्रज्वलने निधाय भूयोऽपि । काष्ठकरीषतुषैस्तत्सञ्छाद्याहर्निशं दहेत्प्राज्ञः ॥ ७२ ॥ एवं नवभिर्भेषजराजैस्तु पचैत्सदेव पुटपाकम् । प्रत्येकमेकमेभिर्मिलितैर्वा त्रिचतुरान्वारान् ॥ ७३॥ प्रतिपुटनं तत्पिप्यात्स्थालीपाकं विधाय तथैव । तावद्दिनं च पिष्याद्विगलद्रजसा तु युज्यते यत्र ७४ तदयश्चूर्ण पिष्टं घृष्टं घनसूक्ष्मवाससि लक्ष्णम् । यदि रजसा सदृशं स्यात्केतक्यास्तर्हि तद्भद्रम् ॥७५ पुटने स्थालीपाकेऽधिकृतपुरुषे स्वभावरुगधिगमात् । कथितमपि यमौषधमुचितमुपादेयमन्यदपि ॥ ७६ ॥ चक्रदत्तः । त्रिफला और गोमूत्र में स्वेदन करनेसे भी लोह शुद्ध हो जाता है । विशेष उन्हीं ग्रन्थों में देखिये ) इसके अनंतर कन्दगुडूची, त्रिफला, विष्णुकांता, अस्थिसंहार ( हत्थाजोड़ी ) हस्तिकर्णपलाशके पत्ते और जड़ तथा शतावरी व काला भांगरा, शालिञ्चशाककी जड़, काशकी जड़, पुनर्नवा और भांगरा के कल्क से उस लोहपर लेप करना चाहिये और फिर उसे सुखा लेना चाहिये । फिर अधिक समयतक जलमें मावित कर साफ किये शालके कोपलोंको भट्टीमें बिछाकर धौंकनी से धौंकना चाहिये । तथा अग्निकी लपट अधिक करनेके लिये मिट्टी, नमक आदि मिली कूचीसे कोयलों को न हटाना चाहिये किन्तु यदि हटाने की आवश्यकता ही हो, तो स्वच्छ जल में धोकर सुखायी गयी कूँचीसे हटाना चाहिये । क्योंकि दूसरे द्रव्यों के मिल जानेसे ओषधियाँ, अपना गुण छोड़ देती हैं । अतः कूड़ा या धूलि आदिको सदा बचाना चाहिये । फिर लोहके पत्रों को चिमटेसे पकड़कर प्रज्वलित भट्टीके मध्य में रखना चाहिये। ज्यों ज्यों लोहा गलता जावे, त्यों त्यों और बढाते जाना चाहिये और गले हुए लौहको ऊर्ध्वमुखवाली अंकुश ( कटोरीयुक्त चम्मच ) से निकाल कर पूर्व स्थापित त्रिफलाक्वाथमें बुझाना चाहिये । शेष त्रिफलाक्वाथ रख लेना चाहिये । और जो लोह इस प्रकार भस्म न हुआ हो, उसे फिर इसी प्रकार पकाना चाहिये । फिर भी जो न मरे, उसे छोड ही देना चाहिये, क्योंकि वह लोह ही न होगा । फिर उस लौहको मजबूत लौहके खरलमें कूट बहुत जल छोड़ धोकर मिट्टी और कोयला साफ कर अग्नि अथवा धूपमें सुखाना चाहिये | फिर उसे लौहकी सिल अथवा काले पत्थरकी सिलपर पीसना चाहिये । ( उपरोक्त धूपमें सुखा लेना ही लोहका “ भानुपाक " कहा जाता है । तथा जो कंद गुहूची आदि ओषधियाँ बतलायी हैं, उनके साथ वैद्य लोग लौहसे षोडशांश अथवा आधा स्वर्णमाक्षिक भी छोड़ते हैं ) ॥ ५२-६५ ॥ स्थालीपाकविधिः । अथ कृत्वायोभाण्डे दत्त्वा त्रिफलाम्बुशेषमन्यद्वा । प्रथमं स्थालीपाकं दद्याद् द्रवक्षयात्तदनु ॥ ६६ ॥ गजकर्णपत्र मूलशतावरी भृङ्गकेशराजरसैः । प्राग्वत्स्थालीपाकं कुर्यात्प्रत्येकमेकं वा ॥ ६७ ॥ इसके अनन्तर लोहे की कढाई में शेष त्रिफलाजल व लौह छोड़कर उस समय तक पकाना चाहिये, जबतक द्रव निःशेष हो जावे | फिर हस्तिकर्णपलाशकी जड़, शतावरी, भांगरा व काले भांगराका त्रिफला के मानके अनुसार मिलित क्वाथ बना छोड़कर पकाना चाहिये । अर्थात् ५ पल लौहमें ७ पल ओष रसायना एक हाथका गोल गड्ढा खोदना चाहिये, बीच में बराबर रखना चाहिये । तथा उसका मुख कढाह के सदृश गोल बनाना चाहिये । इस गढेके नीचेके आधे भागको वनकण्डे, धानकी भूसी और लकडियाँ भरकर आग लगा देनी चाहिये | ऊपरसे त्रिफलाके क्वाथ तथा भांगरा, नागकेशर, शतावरी, माणकन्द, भिलावाँ तथा एरण्डके पत्र और मूलके स्वरससे भावित कीचड़के समान लौहको लौह या मिट्टीके शराव सम्पुट में बन्द कर रखना चाहिये । ऊपरसे फिर वनकण्डे आदिसे ढककर रातदिन आँच देनी चाहिये । इस प्रकार इन नौ ओषधियों में से प्रत्येकसे एक एक बार अथवा सब मिलाकर ३ या ४ पुट देना चाहिये । प्रतिपुटमं पीसना तथा स्थालपिक करना चाहिये । पीसना इतना चाहिये कि कपड़ेसे छन जाय । फिर उसे महीन कपड़े से छानना चाहिये । यदि केवड़े रजके सदृश महीन हो जावे, तो समझना चाहिये कि उत्तम लौहभस्म वन गयी । पर यह ध्यान रहे कि जिस पुरुष के लिये लौह बनाना है, उसकी प्रकृति व रोगके अनुसार कही हुई. औषधियाँ भी अलग कर देनी चाहियें और अनुक्त भी मिला देनी चाहियें । वैद्यको इसके लिये विशेष ध्यान देना चाहिये ॥ ६८-७६ ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (३०७) - wwww लौहपाकरसायनम् । | यदि कर्पूरप्राप्तिर्भवति ततो विगलिते तदुष्णत्वे । अभ्यस्तकर्मविधिभिर्बालकुशाग्रीयबुद्धिभिरलक्ष्यम् ।। चूर्णीकृतमनुरूपं क्षिपेन्न वा न यदि तल्लाभः।।८५॥ लौहस्य पाकमधुना नागार्जुनशिष्टमाभेदध्मः॥७७॥ इस प्रकार पाक हो जानेपर पात्रको शीघ्रही भूमिमें उतार |कुछ देर ठहरकर त्रिफला आदिका 'चूर्ण पूर्वोक्त मानमें छोड़ना लोहारकूटताम्रजकटाहे दृढमृण्मये प्रणम्य शिवम् । चाहिये । यदि उत्तम कर्पूर मिले, तो उसे बिल्कुल ठण्डा हो जानेसदयः पचेदचपलः काष्ठेन्धनेन वह्निना मृदुना ७८/ ना दुना ८पर मिलाना चाहिये। और न मिले, तो कोई आवश्यकता निक्षिप्य त्रिफलाजलमुदितं यत्तद् धृतं च दुग्धं च । | नहीं ॥ ८४ ॥ ८५॥ सञ्चाल्य लौहमय्या दा लग्नं समुत्पाट्य ॥७९॥ मृदुमध्यखरभावैः पाकस्त्रिविधोऽत्र वक्ष्यते पुंसाम्। लौहस्थापनम् । पित्तसमीरणश्लेष्मप्रकृतीनां मध्यमस्य समः ॥८॥ पकं तदश्मसारं सुचिरघृतस्थित्यमाविरूक्षत्वे । गोदोहनादिभाण्डे भाण्डाभावे सति स्थाप्यम्८६॥ अब हम कुशाप्रबुद्धि तथा दृष्टकर्मा वैद्योंसे भी दुज्ञेय महा । इस प्रकार पका हुआ लौह उत्तम लोहके ही भांडमें और मान्य मुनि नागार्जुनद्वारा वर्णित लौहपाकविधि कहते हैं । शंकर |उसके अभावमें आधिक समयतक घी रखनेसे जिसकी रूक्षता जीको प्रणाम कर वह लौह व त्रिफलाजल तथा घी व दूध धमिट गयी है, ऐसे मिट्टीके बर्तन में अथवा गोदोहनी आदिमें ( उक्तमात्रामें) छोड़कर लकड़ियों द्वारा मन्द आँचसे पकाना ड़ियों द्वारा मन्द आचस पकाना | रखना चाहिये ॥८६॥ : चाहिये । तथा कड़ाहीमें चिपकता हुआ कल्छीसे खुरचते जाना | चाहिये । पाक तीन प्रकारका होता है। पित्तप्रकृतिवालके लिये | लोहाद् घृताहरणम् । " मृदुपाक, " बातप्रकृतिबालके लिये “ मध्यमपाक " और यदि तु परिप्लुतिहेतोघृतमीक्षेताधिकं ततोऽन्यस्मिन् । कफप्रकृतिवालेके लिये “ खरपाक " तथा समप्रकृतिवालेके | भाण्डे निधाय रक्षेद्भाव्युपयोगो ह्यनेन महान् ॥ ८ ॥ लिये समपाक" होना चाहिये ॥ ७७-८०॥ यदि इस लौहमें घृत अधिक तैरता दिखायी दे, तो उसे त्रिविधपाकलक्षणम् । किसी दूसरे पात्रमें निकालकर रख दे और लौहके रूक्ष हो जानेपर इसे छोड़े। इससे यही बड़ा काम होगा ॥ ८७ ॥ अभ्यक्तदुर्वि लोहं सुखदुःखस्खलनयोगि मृदु मध्यम् | उज्झितदर्वि खरं परिभाषन्ते केचिदाचार्याः ॥८१॥ त्रिफलाघृतनिषेकः। अन्ये विहीनदप्रिलेपमाखूत्कराकृति ब्रुवते । । __ अयसि विरूक्षीभूते स्नेहात्रिफलाघृतेन सम्पाद्यः । मृदुः मध्यमर्धचूर्ण सिकतापुजोपमं तु खरम्॥८२॥ एतत्ततो गुणोत्तरमित्यमुना स्नेहनीयं तत् ॥ ८८ ॥ जो कल्छीमें लिपा रहे उसे "मृद" जो कुछ कठिनतासे कुछ लोहके विशेष रूक्ष हो जानेपर तथा लौहपाकसे बचा घी आसानीसे छूट जाय उसे "मध्यम" जो कल्छीसे छट जाय उसे न रहनेपर त्रिफलाके क्वाथ तथा कल्कसे सिद्ध घृतसे स्नेहन करना "खर" पाक कहते हैं। दूसरे आचार्यों का सिद्धान्त है कि जो लौह चाहिये । यह “त्रिफला घृत" लोहपाकसे निकाले गये घृतसे भी कल्छीमें न चिपकते हुए भी मूसेकी लेंडीके समान हो जाय, वह आधिक गुणदायक होता है, अतः इसीका निषिञ्चन "मृदु" जो आधा चूर्णसा हो जाय वह "मध्य " जो रेतीके करना चाहिय ॥ ८८ ॥ ढेरके समान हो जाय उसे "खर" पाक कहते हैं ॥ ८१॥८२॥ लोहपाकावशिष्टघृतप्रयोगः। त्रिविधपाकफलम् । अत्यन्तकफप्रकृतेर्भक्षणमयसोऽमुनैव शंसन्ति । त्रिविधोऽपि पाक ईदृक् सर्वेषां गुणकृदेव न तु विफलः।। केवलमपीदमशितं जनयत्ययसो गुणान्कियतः।।८९ तथा अत्यन्त कफ प्रकृतिवाले मनुष्यको इसी त्रिफला घृतके प्रकृतिविषये च सूक्ष्मी गुणदोषौ जनयत्यल्पम् ।।८३॥ |साथ लौहका सेवन करना चाहिये। यह घृत अकेले सेवन करनसे तीनों प्रकारका पाक सभीके लिये गुणकारी ही होता है, भी लोहके गुणोंको करता है ॥ ८९॥ विफल नहीं । पर प्रकृतिके अनुसार कुछ विशेष गुण तथा कुछ | लौहाभ्ररसायनम् । थोडे दोष भी करता है ॥८३ ॥ अथवा वक्तव्यविधिसंस्कृतकृष्णाभ्रकचूर्णमादाय । . प्रक्षेप्यव्यवस्था। लौहचतुर्थार्द्धसमाद्वित्रिचतुःपंचगुणभागम् ।। ९०॥ विज्ञाय पाकमेवं द्रागवतार्य क्षिती क्षणान्कियतः। प्रक्षिप्यायः प्राग्वत् पचेदुभाभ्यां भवेद्रजो यावत् । . विश्राम्य तत्र लोहे त्रिफलादेःप्रक्षिपेच्चूर्णम् ॥८४॥ तावन्मानानुस्मृतेःस्यात्रिफलादिद्रव्यपरिमाणम् ॥९१।। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०८) चक्रदत्तः। [रसायना - - र - - -- - इदमाप्यायकमिदमति दशकृष्णलपरिमाणं शक्तिवयोभेदमाकलय्य पुनः । पित्तनुदिदमेव कान्तिबलजननम् । इदमधिकं तदधिकतरमियदेव न मातृमोदकवत्१० स्तन्नाति तृक्षुधौ तत् समममृगामलपात्रे लौहे लोहेन मर्दयेद् दृढं भूयः । परमधिकमात्रया युक्तम् ॥ ९२ ॥ दत्त्वा मध्वनुरूपं तदनु घृतं योजयेदधिकम् १०१॥ अथवा आगे कही हुई विधिसे संस्कृत (सिद्ध ) कृष्णाभ्रक बन्धं गृह्णाति यथा मध्वपृथक्त्वेन पङ्कमविशिषेत्। भस्म लोहसे चतुर्थाश आधी समान, द्विगुण, त्रिगुण, चतुर्गुण इदमिह दृष्टोपकरणमेतद् दृष्टं तु मन्त्रेण ।। १०२॥ अथवा पञ्चगुण ले एकमें मिलाकर मिलित लोहाभ्रसे पूर्वोक्त स्वाहान्तेन विमर्दो भवति फडन्तेन लोहबलरक्षा । विधिसे त्रिफलादि क्वाथ और दूध, घी मिलाकर पूर्वकी भांति ही। सनमस्कारेण बलिर्भक्षणमयसो ह्रीमन्तेन ॥१०३।। पकाना चाहिये । यह रसायन शरीर बढाता, पित्त शान्त करता, “ओं अमृतोद्भवाय स्वाहा । कान्ति व बल उत्पन्न करता है, पर अधिक मात्रामें सेवन करनेसे | ओं अमृते ह्रीम् फट् , ओं नमश्चण्डवनपाणये । भूख प्यास कम कर देता है ॥ ९०-९२॥ महायक्षसेनाधिपतये सुरगुरुविद्यामहाबलाय स्वाहा __ अभ्रकभस्माविधिः। ओं अमृते हीम" ॥१०४॥ कृष्णाभ्रकमेकवपुर्वज्राख्यं चैकपत्रकं कृत्वा । | अनेक प्रकारकी पीड़ाकी शान्ति, पुष्टि और कांतिके लिये काष्ठमयोदूखलके चूर्ण मुसलेन कुर्वीत ॥ ९३॥ शंकरजीका पूजन कर उत्तम मुहूर्तमें यह लोहामृत रसायन भूयो दृषदि च पिष्ट वासः सूक्ष्मावकाशतलगलितम। सामान्यतः १० रत्तीकी मात्रा ( मात्राका विशेष निश्चय करना मण्डूकपर्णिकायाः प्रचुररसे स्थापयेत्रिदिनम ९४॥चाहिये, क्योंकि सबके लिये एक मात्रा नहीं हो सकती, तथा यह उद्धृत्य तद्रसादथ पिंप्याद्वैमन्तधान्यभक्तस्य। मात्रा बहुत बड़ी होनेके कारण आजकलके लिये उपयोगी नहीं) अक्षोदात्यन्ताम्लस्वच्छजलेन प्रयत्नेन ॥९५॥ तथा या अवस्थाके अनुसार कम या आधिक भी निश्चित करना मण्डूकपर्णिकायाः पूर्व स्वरसेनालोडनं कुर्यात् । । चाहिये । माताके दिये लड्डुओंके समान सबके लिये बराबर ही मात्रा नहीं हो सकती। फिर उस मात्राको चिकने स्थालीपा पुटनं चाद्यैरपि भृङ्गराजाद्यैः ॥ ९६ ॥ साफ लोहके पात्रमें लौहके ही दण्डसे खूब घोटना चाहिये । तालादिपत्रमध्ये कृत्वा पिण्डं निधाय भलाग्नौ । फिर उसी मात्राके समान मधु तथा घी उससे अधिक छोड़कर तावद्दहेन यावन्नीलोऽग्निदृश्यते सुचिरम् ।। ९७ ॥ फिर घोटना चाहिये, जिसमें घी, शहद एकमें मिल जावे । निर्वापयेच दुग्धे दुग्धं प्रक्षाल्य वारिणा तदनु। इतने तो दृष्ट प्रयोग हैं । अब अदृष्ट मन्त्र शक्तिका वर्णन करते हैं। पिष्ट्वा घृष्ट्वा वस्त्रे चूर्ण निश्चन्द्रिकं कुर्यात् ॥९८॥ “ओं अमृतोद्भवाय स्वाहा " इस मन्त्रसे घोटना चाहिये। एक वर्णवाले काले वज्राभ्रकका लकड़ीके उलूखलमें मूसरसे || अर्थात् घोटते समय इसका जप करना चाहिये " ओं अमृते चूर्ण करना चाहिये । फिर सिलपर पीसकर महीन कपड़ेसे छान ह्रीम् फट् (किसी २ में “ओं अमृते हुम् फट् " यह पाठ है) लेना चाहिये । फिर मण्डूकपर्णीके बहुत रसमें ३ दिनतक रक्खे. इस मन्त्रसे लोहकी बलरक्षा करनी चाहिये । तथा “ ओं फिर उससे निकालकर हैमंतिक (हेमन्तऋतुमें उत्पन्न होनेवाले)। नमश्चण्डवज्रपाणये महायक्षसेनाधिपतये सुरगुरुविद्यामहाबलाय चावलोंके भातसे बनायी काजीके अत्यन्त स्वच्छ जलके साथ 12 स्वाहा " इस मन्त्रसे बलि तथा “ओं अभृते ह्रीम्" (किसी घोटे। फिर मण्डूकपर्णीके स्वरसमें मिला मथकर स्थालीपाक और | किसीमें “ओं अमृते हुम्") यह पाठ है। इस मन्त्रको पढकर पुटपाक करे तथा पूर्व लौह रसायनमें कहे भंगराज आहिलौह चाटना चाहिये ॥ ९९-१०४ . रससे भी स्थालीपाक और पुटपाक करे। फिरताड़ आदिके पत्तों में अनुपानपथ्यादिकम् । रखकर भट्टीमें रख धौंकनीसे धौंकते हुए उस समयलक आंच दे, जग्ध्वा तदमृतसारं नीरं वा क्षीरमेव वानुपिबेत् । जबतक कि अग्नि नीलवर्ण न प्रतीत होने लगे। फिर अग्निसे निकाले और दूधमें बुझावे, फिर दूधको पानीसे धोकर साफ कान्तक्रामकममलं संचळ रसं पिबेन्न तु तत्१०५॥ करना चाहिये, फिर इस सिद्ध अभ्रकको महीन पीस कपड़ेसे आचम्य च ताम्बूलं लाभे घनसारसहितमुपयोज्यम्। छानकर निश्चन्द्र कर ले ॥ ९३-९८॥ नात्युपविष्टो नाप्यतिभाषी नातिस्थितस्तिष्ठेत् १०६॥ लोहसेवनविधिः। अत्यन्तवातशीतातपयानस्नानवेगरोधादीन् । जह्याच दिवानिद्रासहितं चाकालभुक्तं च॥१०७॥ नानाविधरुक्शान्त्यै पुष्टथै कान्त्यै शिवं समभ्यर्च्य। सुविशुद्धेऽहनि पुण्ये तदमृतमादय लौहाख्यम्९९॥ (१, २, ३) इमिति पाठान्तरम् । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः ] वातकृतः पित्तकृतः सर्वान् कट्वम्लतिक्तककषायान् । तत्क्षणविनाशहेतून् मैथुनकोपश्रमान्दूरे || १०८ ॥ भाषाटीकोपेतः । फलशाकप्रयोगः । इस रसायनका सेवनकर ऊपरसे दूध अथवा जल पीना चाहिये । ( अनुपानकी मात्रा के सम्बन्ध में शिवदासजीने योग रत्नाकरकारका समर्थन किया है जो इस प्रकार है- " अनुपानं बुधाः प्राचतुःषष्टिगुणं सदा "। पर और आचार्य लोहसे पञ्चगुण ही कहते हैं, वह बहुत कम है) इसके अनन्तर नागरमोथाको चबाकर रस पी जाना चाहिये । कल्क बाहर फेंक देना चाहिये । फिर आचमन (श्टतशीत अथवा इंसोदक जलसे ) कर कर्पूरयुक्त पान खाना चाहिये । लौह सेवन कर न अधिक बैठना चाहिये न अधिक बातचीत करनी चाहिये । न अधिक खड़ाही रहना चाहिये । अत्यन्त वायु, शीत, धूप, सवारी, स्नान, मूत्रपुरीषादिके वेगका रोकना, अकाल भोजन तथा वातपित्तको बढानेवाले कटु, शृङ्गाटकफलकशेरुकदलीफलतालनारिकेलादि । अन्यदपि यच्च वृष्यं मधुरं पनसादिक ज्यायः ११३॥ केबुकता डकरीरान्वार्ताकुपटोलफलदलसमठान् । मुद्द्रमसूरेक्षुरसाञ्शंसन्ति निरामिषेष्वेतान् ॥ ११४॥ शाकं प्रयमखिलं स्तोकं रुचये तु वास्तुकं दद्यात् । विहितनिषिद्धादन्यन्मध्यमकोटिस्थितं विद्यात् १९५ सिंघाडा, कशेरू, केला, ताड, नरियल तथा दूसरे भी मधुर तथा वाजीकर कटहल आदि खाना चाहिये, तथा नाडी, ताडकी करीर ( नवीन अंकुर ) बैंगन, परवलके फल, समठशाक तथा परवलकी पत्तीका शाक तथा मूंग मसूर और ईखके रसका निरामिष भोजियोंको उपयोग करना चाहिये । इसके अतिरिक्त कोई शाक न खाना चाहिये । रुचिके लिये थोड़ा बथुवा खाना । अम्ल, तिक्त, कषायरस, मैथुन, क्रोध और थकावट आदि चाहिये । जो पदार्थ कहे गये अथवा जिनका निषेध किया त्याग देना चाहिये । क्योंकि ये तत्काल विनाशके कारण हो गया, उनको छोड़कर शेष मध्य कोटिमें समझना जाते हैं ॥ १०५-१०८ ॥ चाहिये ॥ ११३ - ११५ ॥ कोष्ठबद्धताहरव्यवस्था | तप्तदुग्धानुपानं प्रायः सारयति बद्धकोष्ठस्य । अनुपीतमम्बु यद्वा कोमलफलनारिकेरस्य ॥ ११६॥ यस्य न तथा सरति स यवक्षारं जलं पिबेत्कोष्णम् । कोष्णत्रिफलाकाथसनाथं क्षारं ततोऽप्यधिकम् ११७ चाहिये तथा कोमल नारयलके फलके जलसे भी दस्त साफ वद्धकोष्ठ (कब्जियत) वालोंको गरम दूधका अनुपान देना आते हैं । जिसे इस प्रकार भी दस्त न आवें, उसे जवाखार मिलाकर गुनगुना जल पिलाना चाहिये । अथवा त्रिफला के काथ में जवाखार मिलाकर पीना चाहिये । यह भी अधिक गुण करता है ॥ ११६ ॥ ११७ ॥ | मात्रावृद्धिहासप्रकारः । श्रीणि दिनानि समं स्यादह्नि चतुर्थे वर्धयेत्क्रमशः । यावश्चाष्टममाषं न वर्धयेत्पुनरितोऽप्यधिकम् । ११८ ॥ आदौ रक्तिद्वितयं द्वितीयवृद्धी' तु रक्तिकात्रितयम् । रक्तिपञ्चकपञ्चकमत ऊर्ध्व वर्धयेन्नियतम् ॥ ११९ ॥ वात्सरिककल्पपक्षे दिनानि यावन्ति वर्धितं प्रथमम् । तावन्ति वर्षशेषे प्रतिलोमं ह्रासयेत्तदयः ॥ १२० ॥ तेष्वष्टमाषकेषु प्रातर्माषद्वयं समश्नीयात् । सायं च तावदहोर्मध्ये मासद्वयं शेषम् ॥ १२१ ॥ प्रथम तीन दिन समान मात्रा लेनी चाहिये । फिर चौथे दिनसे क्रमशः बढ़ाना चाहिये, जबतक ८ भाषा ( वर्तमान ६ माषा) न हो जाय। इससे अधिक न बढ़ाना चाहिये । प्रथम भोजनादिनियमः । शितं तदयः पश्चात्पततु न वा पाटवं छद्म प्रथताम् । आर्तिर्भवति न वान्त्रं कूजति भोक्तव्यमव्याजम् । १०९ ॥ उस लौहका सेवनकर लेनेपर वह कहीं गिर न जावै, ऐसी निपुणता करनी चाहिये । भोजन ऐसा करना चाहिये कि जिससे न आन्तोंमें कुडकुडाहट हो, न पेटमें पीड़ा हो । तथा रुचि अनुसार ही भोजन करना चाहिये ॥ १०९ ॥ भोजनविधिः । प्रथमं पीत्वा दुग्धं शाल्यन्नं विशदसिद्धमक्किन्नम् । घृतसंप्लुतमश्नीयान्मां सैर्विहङ्गमैः प्रायः ॥ ११० ॥ उत्तममूषरभूचरविष्किरमांसं तथाजमेणादि । अन्यदपि जलचराणां पृथुरोमापेक्षया व्यायः ॥ १११ मांसाला मत्स्या अदोषलाः स्थूलसद्गुणा ग्राह्याः । मद्गुर रोहितशकुला दग्धाः पललान्मनागूना: ११२ ( ३०९ ) पहिले दूध पीना चाहिये । फिर स्वच्छ सूखा खिला हुआ चावलका भात घी मिलाकर पक्षियोंके मांसरस के साथ रखना चाहिये । तथा ऊषरभूमिमें चरनेवाले अथवा विष्किर और बकरी हिरन आदिका मांस तथा जलचरोंका मांस मोटे रोवेंवालोंकी अपेक्षा अधिक हितकर है, तथा मांसके न मिलनेपर मोटी, गुणयुक्त, दोष रहित मछलियां लेनी चाहियें । तथा भुने हुए, मद्और रोही मछली के टुकड़े मांससे कुछ कम गुणकारी होते हैं ॥ ११०-११२ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१०) चक्रदत्तः। [रसायना - - गुणशाली ।। उस पूर्वोह ॥ १२६ २ रत्तीका प्रयोग करना चाहिये । फिर प्रथम वृद्धिमें ३ रत्ती सामान्य लोहसे चौण्ड्र द्विगुण, कलिङ्ग इससे अष्टगुण, (प्रथम ३ दिन २ रत्ती चौथे दिनसे छठे दिनतक प्रतिदिन ३ | उससे भद्र शतगुण, भद्रसे वज्र सहस्र गुण और वज्रसे पण्डि रत्ती ) द्वितीय वृद्धि (७ वैसे ९ वें दिनतक) ५ रती और साठगुण और उससे निरवि दशगुण तथा कान्तलौह उससे फिर प्रति ३ दिनमें ५ रत्ती बढ़ाना चाहिये । वर्षादनके प्रयो- करोडों गुण अधिक गुणशाली अतएव महागुणवाला होता गमें जितने दिन प्रथम बढ़कर ६ माशेकी मात्रा हुई है, उतने | है ॥ १२६ ॥ १२७ ॥ ही दिन पहिलेसे उसी क्रमसे कम करना चाहिये । उस पूर्वोक्त पूर्ण मात्राको दिनमें तीन बारमें इस भांति खाना चाहिये । रसादिरसायनम् । प्रातःकाल १८ रत्ती, मध्यान्हमें १२ रती और सायंकाल | रसतस्तानं द्विगुणं ताम्राकृष्णाभ्रकं द्विगुणम् । १८ रत्ती ॥ १८-१२१ ॥ पृथगेवैषां शुद्धिस्ताम्रस्य ततो द्विविधा ।। १२८ ।। ___अमृतसारलौहसेवनगुणाः। पत्रीकृतस्य गन्धकयोगाद्वा मारणं तथा लवणैः । आक्ते ध्मापितताम्रनिर्गुण्डीकल्ककाजिकनिमग्ने॥१२९ एवं तदमृतमश्नन्कान्ति लभते चिरस्थिरं देहम्। | सप्ताहत्रयमात्रात्सर्वरुजो हन्ति किं बहुना ॥१२२॥ | यत्पतति गैरिकाभं तत्पिष्टं चार्धगन्धकं तदनु । पुटपाकेन विशुद्धं शुद्धं स्यादभ्रकं तु पुनः ॥ १३० ॥ इस प्रकार इस अमृतका सेवन करनेसे शरीरकी कांति हिलमोचिमूलपिण्डे क्षिप्तं तदनु मार्दसंपुटे लिप्ते । बढ़ती और देह चिरकालके लिये दृढ़ हो जाता है । केवल २१ '| तीक्ष्णं दग्धं पिष्टमम्लाम्भसा साधु चन्द्रिकारहितम् ॥ दिनके प्रयोगसे समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं ॥ १२२ ॥ रेचितवाम्रण रसः खल्वे धृष्ट्रा च पिण्डिका कार्या। उपसंहारः। उत्स्वेद्य गृहसलिलेन निर्गुण्डीकल्केऽसकृच्छुद्धी ॥३२॥ आर्याभिरिह नवत्या सप्तविधीनां यथावदाख्यातम् । एतात्सिद्धं त्रितयं चूर्णितताम्रार्द्धकैः पृथग्युक्तम् । अमतिविर्पययसंशयशून्यमनुष्ठानमुपनीतम् ॥ १२३ ॥ पिप्पलिबिडंङ्गमरिचैः श्लक्ष्णं द्वित्रिमाषिकं भक्ष्यम्१३३ मुनिरचितशास्त्रपारं गत्वा सारं ततः समुद्धृत्य। शूलाम्लपित्तश्वयथुग्रहणीयक्ष्मादिकुक्षिरोगेषु । निबबन्ध बान्धवानामुपकृतये कोऽपि षट्कर्मा।।११४॥ रसायनं महदेतत्पारिहारो नियमतो नात्र ॥ १३४ ॥ इस प्रकार ९० आर्याछन्दोंमें लोहरसायनकी ७ विधियां शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध ताम्र २ भाग, तथा शुद्ध अभ्रक (साध्यसाधनपरिमाणविधिः, स्थालींपाकविधिः, पुनटविधिः-४ भाग ( इस प्रकार तीनों अलग अलग शुद्ध) लेना चाहिये । प्रधाननिष्पत्तिः, पाकावधिः, अभ्रविधिर्भक्षणविधिश्च ) ठीक इसमें ताम्र २ प्रकारसे शुद्ध किया जाता है । प्रथम प्रकारकही गयी हैं । इसमें कोई बात ऐसी नहीं, जो बुद्धिके विपरीत | ताम्रके पत्रोंके समान भाग गन्धक मिलाकर पुटद्वारा भस्म । अथवा संशयात्मक हो । यह महामान्य मुनि नागार्जुनरचित | द्वितीय प्रकार-लवणोंसे लिप्त ताम्रके पत्रोंको तपाकर सम्भालूके लौहशास्त्रका पूर्णतया अनुशील कर बन्धुओंकी उपकारकामनासे कल्क व काजीमें बुझाना चाहिये । इस प्रकार काजीमें गिरे किसी षट्कर्मा ब्राह्मणने “अमृतसारनामक" निबन्ध लिखा हुए गैरिकके समान वर्णवाले ताम्रसे आधे परिमाणमें गन्धक है ।। १२३ ॥ १२४ ॥ मिलाकर पुटद्वारा भस्म । उपरोक्त दो विधियों में से किसी एकसे सामान्यलोहरसायनम् । ताम्र शुद्ध कर ले तथा अभ्रकको ले हिलमोचिकाकी जड़के कल्कके पिण्डमें रखकर चूनेसे लिपे हुए मिट्टी के शराव सम्पुटमें रखना यत्र तत्रोद्भवं लौहं निःशेषं मारितं यदि।। चाहिये। शराव सम्पुटमें विधिपूर्वक कपरमिछी कर गजपुट में फूक त्रिफलाव्योषसंयुक्तं भक्षयेद्वलिनाशनम् ॥ १२५ ॥ देना चादियोस्वांग शीतल हो जानेपर निकाल कर काजी मिलाकर कहींका लोहा ले विधिपूर्वक भस्म कर त्रिफला व त्रिकटु | घोट लेना चाहिये । इस प्रकार अभ्रक निश्चन्द्र हो जाता है। मिला विधिपूर्वक सेवन करनेसे वलीपलित ( झुर्रियां, बालोंकी यही शुद्ध अभ्रक हुआ। तथा पारदशोधनकी विधि यह है किसफेदी आदि बुढ़ापेके चिह्न) नष्ट हो जाते हैं ॥ १२५॥ पद्धतिसे सुद्ध किये ताम्रसे समान भाग पारद मिला खरलमें कान्तप्रशंसा। घोट गोला बना लेना चाहिये । उस गोलेको काजीमें स्वेदन , कर सम्भालूके कल्कके साथ अनेक बार घोटना चाहिये । सामान्याद् द्विगुणं चौडू कलिङ्गोऽष्टगुणस्नतः। फिर इस गोलेसे (डमरू यत्र अथवा विद्याधर यन्त्रमें तस्माच्छतगुणं भद्रं भद्राद्वगं सहस्रधा ॥ २२६ ॥ रखकर ) पारद निकाल लेना चाहिये । यही शुद्ध वज्रात्पष्टिगुणा पाण्डिर्निरविर्दशभिर्गुणैः । पारद हुआ । इस प्रकार शुद्ध पारद १ भाग शुद्ध ततः कोटिसहस्रं वा अयस्कान्तं महागुणम्॥१२७॥' ताम्र २ भाग, शुद्ध अभ्रक ४, भाग तथा छोटी पीपल Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकोपेतः । विकारः ] वायविडंग, काली मिर्च प्रत्येक १ भाग ले चूर्ण कर सब एकमें घोटकर चूर्ण बना लेना चाहिये । इसे २ या ३ माशेकी मात्रा से खाना चाहिये । यह रसायन-शूल, अम्लपित्त, सूजन, ग्रहणी, यक्ष्मा और पेटके रोगोंको नष्ट करता है । यह महारसायन है इसमें नियमतः कोई परहेज भी नहीं है ॥ १२८-१३४ ॥ । नेपाली ताम्रके पतले पत्र औरं गन्धक आमलासार समान भाग लेना चाहिये । फिर बड़ी मंडियों में आधा गन्धक नीचे, बीचमें ताम्र तथा आधा गन्धक ऊपर रखना चाहिये । फिर एक छोटे शिकोरेको ले ताम्र व गन्धकके ऊपर ढक देना चाहिये और उसकी सन्धियाँ मिट्टी व भातके लेपसे बन्द कर देनी चाहिये । उसके ऊपर बालू भर बड़े ढक्कनसे हंडीका मुख बन्द कर ऊपरसे कपड़ मिट्टी कर देनी चाहिये तथा हण्डीके नीचे तनुपत्रीकृतं ताम्रं नैपालं गन्धकं समम् । भी कपर मिट्टी कर देनी चाहिये । जिससे हण्डी आंचसे फूट न दत्त्वा चोर्ध्वमधो मध्ये स्थालिकामध्य संस्थितम् ॥ जावे । कपड़मिट्टी के सूख जानेपर भंडिया चूल्हेपर चढ़ाकर कृत्वा स्वल्पपिधानेन स्थालीमध्ये पिधाय च । नीचेसे ३ घण्टे तक आँच देनी चाहिये । फिर उसे स्वाङ्ग शर्कराभक्तलेपेन लिप्त्वा सन्धि तदूर्ध्वतः ॥ १३६ ॥ शीतल हो जानेपर उतार कर निकाल लेना चाहिये । इस प्रकार ताम्ररसायनम् । १३८ वालुकापूरितस्थाल्यां पिहितायां पुनस्तथा । भस्मीभूत ताम्र १ तोला और शुद्ध गन्धक १ तोला ले गन्धसुलिप्तायां च यामेकमधो ज्वालां प्रदापयेत् ॥ १३७॥ कको लोहेके पात्रमें अग्निपर गरम करना चाहिये । गन्धक पिघल जानेपर उपरोक्त ताम्र भस्म १ तोला तथा काजीसे तत आकृष्टताम्रस्य मृतस्य त्विह योजना | अथ कर्षे गन्धकस्य वह्निस्थ लोहपात्रगम् ॥ ॥ शुद्ध पारद १ तोला मिलाकर घोटना चाहिये । खूब घुट जानेपर आठ बिन्दु घी छोड़ना चाहिये । जब सब मिल जावे, तब उसे शिलापुत्रेण संमर्ध द्रुतं घृष्टं पुनः पुनः । | निकाल लेना चाहिये । तथा मुसलीमें लगा हुआ भी खुरच लेना कृत्वा देयं मृतं ताम्रं कर्षमानं ततः पुनः ॥ १३९ ॥ चाहिये । फिर इसे मुण्डीका रम ८ तोला मिलाकर घोटना रसोऽम्लमथितः शुद्धस्तावन्मात्रः प्रदीयते । चाहिये । फिर उसे अभिपर चढे लौहपात्रमें छोड़कर उस समयततस्तथैव समर्थ पुनराज्यं प्रदापयेत् ॥ १४० ॥ तक घोटना चाहिये, जबतक कि द्रव्य क्षीण न हो जावे । फिर अष्टविन्दुकमात्रं च मर्दयेन्मूच्छितं यथा । | उसे निकाल पीसकर मुण्डीके ही रससे घोटकर एक गोली बना सर्वं स्यात्तत्समाकृष्य शिलापुत्रादितो दृढम् ॥१४१॥ लेनी चाहिये। फिर उस गोलीको एक महीन कपड़े में लपेटना चाहिये और दूसरे कपडे में गोली के समान भाग ही मिलित संहृत्यालम्बुषरसप्रसृतेन विलोडितम् । सोंठ, मिर्च व छोटी पीपलका कल्क रखकर उसी कल्कमें पुनस्तथैव वह्निस्थलौहपात्रे विमर्दयेत् ॥ १४२ ॥ गोलीवाली पोटली रखनी चाहिये । फिर इसी पोटलीको | दोलायन्त्रकी विधिसे एक भंडिया में घी छोड़कर उसी में एक डोरेमें बांधकर भंड़ियाके मुखपर बीचोंबीच रखे हुए डंडेमें बान्धकर लटका देनी चाहिये । पर यह ध्यान रहे कि पोटली घीमें डूबी रहे, पर भंडिया की पेंदीमें बैठे नहीं, किन्तु हिलती रहे । इस प्रकार भंडिया चूल्हे पर चढाकर नीचे से आँच | देनी चाहिये । जब घीसे झाग उठने बन्द हो जावें, और गोलीकी पोटली दृढ हो जावे, तब उतार ठण्डा कर ताम्रगोलीको निकाल कर घोट लेना चाहिथे । इस सिद्ध रसकी ५ गुजा ( वर्तमानकालके आधी गुञ्जासे १ गुञ्जातक ) घी ५ रत्ती त्रिकटु और त्रिफलाकी प्रत्येक ओषधिका चूर्ण ५ गुञ्जा मिलाकर सेवन करना चाहिये । ऊपरसे मट्ठा पीना चाहिये । | तथा अम्लपित्त में केवल त्रिफलाका चूर्ण और गुनगुना जल ही देना चाहिये। सातवें सातवें दिन १ गुञ्जा बढ़ाना चाहिये । इसका प्रयोग १ माशे (६ रत्ती ) तकका है । फिर इसी प्रकार कम करना चाहिये । यह योग, यक्ष्मा, ग्रहणी, पित्तशूल, | , यावद् द्रवक्षयं पश्वादाकृष्य संप्रपेषितम् । अलम्बुषार सेनैव गुडकं संप्रकल्पयेत् ॥ १४३ ॥ तत्पिण्डं वस्त्रविस्तीर्णे पिण्डे त्रिकटुजे पुनः । वसनान्तरिते दत्त्वा पोट्टलीं कारयेद् बुधः ॥ १४४॥ ततस्तां पोट्टलीमाज्यमग्नां कृत्वा विधारिताम् । सूत्रेण दण्डसंलग्नां पाचयेत्कुशलो भिषक् ॥ १४५॥ यदा निष्फेनता चाज्ये पुटिका च दृढा भवेत् । तदा पक्कं तमाकृष्य पञ्चगुञ्जातुलाघृतम् ॥१४६॥ त्रिकटुत्रिफला चूर्ण तुल्यं प्रातः प्रयोजयेत् । तक्रं स्यादनुपानं तु अम्लपित्तोच्छ्रये पुनः || १४७॥ त्रिफलैव समा देया कोष्णं वारि पिबेदनु । सप्तमे दिवसे रक्तिवृद्धिस्ताम्रात्तु माषकम् ॥ १४८ ॥ यावत्प्रयोगश्च तथैवापकर्षः पुनर्भवेत् । योगोऽयं ग्रहणीयक्ष्मपित्तशूलाम्लपित्तहा ॥ १४९ ॥ रसायनं चैतदिष्टं गुदकीलादिनाशनम् । न चात्र परिहारोऽस्ति विहाराहारकर्मणि ॥ १५० ॥ रखना उत्तम होगा | ( ३११ ). १ ताम्र व गन्धकको शराव सम्पुट में रखकर बड़ी हाँडी में Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३१२) चक्रदत्तः। [ रसायना me orware अम्लपित्त और अर्शको नष्ट करता तथा रसायन है । इसमें | मलिनं यद्भवेत्तञ्च क्षालयेत्केवलाम्भसा ।। १५९ ॥ आहार व विहारमें कोई परहेज नहीं है ॥ १३५-१५०॥ लौहपात्रेषु विधिना ऊर्वीभूतं च संहरेत् । शिलाजतुरसायनम् । वातपित्तकफन्नस्तु नि! हस्तत्सुभावितम् ॥ १६० ॥ हेमाद्याः सूर्यसन्तप्ताः स्रवन्ति गिरिधातवः । वीर्योत्कर्ष परं याति सवैरेकैकशोऽपि वा। जत्वाभं मृदु मृत्स्नाच्छं यन्मलं तच्छिलाजतु।१५१॥ प्रक्षिप्योद्धृतमावानं पुनस्तत्प्रक्षिपेद्रसे । अनम्नं चाकषायं च कटुपाकि शिलाजतु । कोणे सप्ताहमेतेन विधिना तस्य भावना ।।१६१॥ नात्युष्णशीतं धातुभ्यश्चतुर्यस्तस्य सम्भवः १५२॥ तुल्यं गिरिजेन जले चतुर्गुणे भावनौषधं काथ्यम् । तत्काथे पादांशे पूतोष्णे प्रक्षिपेगिरिजम् । हेम्नोऽथ रजतात्ताम्राद्वरं कृष्णायसादपि । तत्समरसतां यातं संशुष्कं प्रक्षिपेद्रसे भूयः ॥१६३ सोना आदि पर्वतके धातु सूर्यकी गरमीसे तपकर जो पूर्वोक्तेन विधानेन लौहैश्चूर्णीकृतैः सह । लाखके समान मृदु, चिकना और स्वच्छ मल छोड़ते हैं, वही | तत्पीतं पयसा दद्यादीर्घमायुः सुखान्वितम् ॥१६४ "शिलाजतु" कहा जाता है । शिलाजतु खट्टा तथा कषैला नहीं | होता और सबरस रहते हैं। तथा पाकमें कडआ होता है। सोनेका शिलाजतु वातपित्त में, चान्दीका पित्तकफमें, तथा न अति गरम न अधिक ठण्ढा ही होता है। तथा सोना | ताम्रको कफमें और लोहेका शिलाजतु त्रिदोषमें हितकर है । चान्दी ताम्बा और लोहा इनसे वह निकालता है। इनमेंसे | उसकी प्रधान परीक्षा यह है कि अग्निमें छोड़नेसे लौहकिटके लोहसे निकलनेवाला ही उत्तम होता है ॥९५१ ॥ १५२॥ | समान विना धुआकर समाम विना धुआँके जलता है । जल में छोडनेसे प्रथम तैरता फिर डोरोंके समान पिघल कर नीचे बैठता है । जो शिलाजतु - शिलाजतुभेदाः। | मलिन हो, उसे उष्ण जलमें घोल छानकर लौहपात्रमें रखना मधुरं च सतिक्तं च जवापुष्पनिभं च यत् ॥१५३॥ चाहिये । जो ऊपर तैरता हुआ जमें, उसे निकाल लेना चाहिये । विपाके कटु तिक्तं च तत्सुवर्णस्य निःस्रवम। वही शुद्ध शिलाजतु हुआ ( इसी विधिसे शिलाजतुके पत्थरोंसे राजतं कटुकं श्वेतं स्वादु शीतं विपच्यते ॥ १५४॥ म भी शिलाजतु निकाली जाती है)। इसके अनन्तर वातपित्तकफ नाशक दशमूल, तृणपञ्चमूल, पिप्पल्यादि द्रव्योंसे प्रत्येकसे अलग ताम्रान्मयूरकण्ठाभं तीक्ष्णोष्णं पच्यते कटु। अलग अथवा मिलाकर भावना देनी चाहिये । इस प्रकार यत्तु गुग्गुलुसङ्काशं तिक्तकं लवणान्वितम्१५५|| शिलाजतुकी शक्ति अधिक बढ़ जाती है । एक द्रव द्रव्यमें विपाके कटु शीतं च सर्वश्रेष्ठं तदायसम्। छोड़कर घोटना चाहिये । फिर उसे धूपमें रखना चाहिये । द्रव गोमूत्रगन्धः सर्वेषां सर्वकर्मसु यौगिकः ।।१५६ ॥ सूख जानेपर दूसरे पात्रमें रखा हुआ गुनगुना कषाय छोडना रसायनप्रयोगेषु पश्चिमं तु विशिष्यते । | चाहिये । इस प्रकार जिन द्रवद्रव्योंसे भावना देनी हो, प्रत्येकसे सुवर्णसे निकला शिलाजतु मीठा, तिक्त, जवापुष्पके समान सात भावना देनी चाहिये । भावनार्थ क्वाथ बनानेके लिये लाल, विपाकमें कडुआ तथा तिक्त होता है। चाँदीसे निकला | | शिलाजतुके समान औषध ले चतुर्गुण जल मिलाकर क्वाथ करना शिलाजतु कडुआ, सफेद, मीठा तथा विपाकमें शीतल होता। | चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर शिलाजतुमें है। ताम्रका शिलाजतु मयूरकण्ठके समान नील, चमकदार, | मिलाना चाहिये और उस रसके सूख जानेपर और रस मिलाना तीक्ष्ण, गरम तथा विपाकमें कडुआ होता है । लौहसे निकला चाहिये । इस प्रकार भावित शिलाजतु लौहभस्मके साथ हुआ शिलाजतु गुग्गुलुके वर्णका, तिक्त, नमकीन तथा | दूधमें मिलाकर पीनेसे सुखयुक्त दीर्घ आयु प्रदान करता विपाकमें कडुआ तथा शतिल होता है । वही उत्तम होता है। है ॥ १५७-१६४ ॥ सभी शिलाजतु गोमूत्र गंधयुक्त होते हैं तथा सब कामों के लिये शिलाजतुगुणाः। प्रयुक्त हो सकते हैं, पर रसायनप्रयोगोंमें लौहज ही उत्तम जराव्याधिप्रशमनं देहदाढर्यकरं परम् । होता है ॥ १५३-१५६ ॥ मेघास्मृतिकरं धन्यं क्षीराशी तत्प्रयोजयेत् ॥१६५॥ प्रयोगविधिः परीक्षा च । प्रयोगः सप्त सप्ताहात्रयश्चैकश्च सप्तकः । यथाक्रमं वातपित्ते श्लेष्मपिते कफे त्रिषु ॥ १५७ ॥ निर्दिष्टविविधस्तस्य परो मध्योऽवरस्तथा ॥१६६।। विशेषेण प्रशस्यन्ते मला हेमादिधातुजाः। मात्रा पलं त्वर्धपलं स्यात्कर्ष तु कनीयसी। लौह किट्टायते वहीं विधूमं दह्यतेऽम्भसि ॥ १५८ ॥ यह वृद्धावस्था तथा रोगको दूर करनेवाला, देहको दृढ सृणाद्यप्रे कृतं श्रेष्ठमधो गलति तन्तुवत् । करनेवाला तथा मेधा और स्मरणशक्तिको बढानेवाला है। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] . भाषाटीकोपेतः। इसका प्रयोग करनेवाला दूधके साथ ही भोजन करे । इसका ताः शुष्का नवकुम्भे जातीपुष्पाधिवासिते स्थाप्याः। प्रयोग . सप्ताह अथवा ३ सप्ताह अथवा १ सप्ताहका है। तथा तासामेका काले भक्ष्या पेयापि वा सततम्॥ १७८ ॥ इसकी ४ तोला, २ तोला या १ तोला ( वर्तमानसमयानुकूल क्षीररसदाडिमरसा:सुरासवं मधु च शिशिरतोयानि । मात्रा ४ रत्तीसे २ माशेतक) क्रमशः उत्तम, मध्यम और हीन " आलोडनानि तासामनुपाने वा प्रशस्यन्ते ॥ १७९ ॥ मात्रा है ॥ १६५॥१६६ ॥ जीर्णे लध्वन्नपयो जाङ्गलनि!हयूषभोजी स्यात् ।। पथ्यापथ्यम् । सप्ताहं यावदतः परं भवेत्सोऽपि सामान्यः ॥१८॥ शिलाजतुप्रयोगेषु विदाहीनि गुरूणि च । । भुक्त्वापि भक्षितेयं यदृच्छया नावहेद्भयं किञ्चित् । वर्जयेत्सर्वकालं च कुलत्थान्परिवर्जयेत् ॥ १६७॥ निरुपद्रवा प्रयुक्ता सुकुमारैः कामिभिश्चैव ॥ १८१ ॥ . पयांसि शुक्तानि रसाः सयूषा सूर्यकी किरणोंसे तपे हुए समयमें उत्तम लौह शिलाजतु ले स्तोयं समूत्रं विविधाः कषायाः। त्रिफलाका रस मिलाकर तीन दिनतक भावना देनी चाहिये । . आलोडनार्थे गिरिजस्य शस्ता फिर क्रमशः दशमूल, गुर्च, खरेटी, परवल, मौरेठीके रस तथा स्ते ते प्रयोज्याः प्रसमीक्ष्य कार्यम् ॥१६८ ॥ गोमूत्र प्रत्येकमें ३ तीन भावना देनी चाहिये । सूख जानेपर चरकोक्तशिलाजतुनो विधानं सोपस्करं ह्येतत् । एक दिन दूधकी भावना देनी चाहिये । फिर ७ दिनतक नीचे | लिखी ओषधियों में जो मिल सकें, उनकी भावना देनी चाहिये । शिलाजतुके प्रयोगोंमें जलन करनेवाले तथा गुरु अन्न और भावनाकी ओषधियाँ-काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, कुलथीका सदाके लिये त्याग कर देना चाहिये । तथा शिलाजतुके विदारी, क्षीरविदारी, शतावरी, मुनक्का, ऋद्धि, वृद्धि, ऋषभक, अनुपानमें दूध, सिरका, मांसरस, यूष, जल, गोमूत्र तथा अनेक ब्राह्मी, मुण्डी, सफेद जीरा, स्याह जीरा, शालपर्णी,. पृष्ठपर्णी, (रोगीकी प्रकृतिके अनुकूल ) प्रकारके क्वाथोंका प्रयोग करना रासन, पोहकरमूल, चीतकी जड़, दन्ती, गजपीपल, इन्द्रयव, चाहिये । यह चरकोक्त शिलाजतुका विधान आवश्यक अंग |चव्य, नागरमोथा, कुटकी, काकड़ाशिंगी व पाठा प्रत्येक द्रव्य बढाकर लिखा गया है ॥ १६७ ॥ १६८॥ | एक पल लेकर एक द्रोण जलमें मिलाकर पकाना चाहिये। चतुर्थीश शेष रहनेपर उतार छान शुद्ध शिलाजतु १६ पल शिवा गुटिका। (६४ तोला) छोड़ ७ दिनतक भावना देनी चाहिये । यद्यपि काले तुरवितापाढये कृष्णायसनं शिलाजतु प्रवरम् १६९ | यहाँपर एक बार कषाय कर छोड़ना लिखा है। पर बासी कषाय त्रिफलारससंयुक्तं व्यहश्च शुष्कं पुनः शुष्कम् । खट्टा होकर खराब हो जाता है, अतः प्रत्येक दिन ताजा कषाय दशमूलस्य गुडूच्या रसे बलायास्तथा पटोलस्य १७०॥ ही छोड़ना चाहिये । अतः प्रत्येक द्रव्य प्रतिदिन १ पल न मधुकरसैर्गोमूत्रे त्र्यहं त्र्यहं भावयेत्क्रमशः। लेकर १ पलका सप्तमांश अर्थात् वर्तमान तौलसे ६ माशे ७ एकाहं क्षीरेण तु तच्च पुनभावयेच्छुष्कम् । रत्ती और जल ३ सेर १०॥ छ० छोड़ पका चतुर्थांश शेष रख सप्ताहं भाव्यं स्यात्काथेनैषां यथालाभम् ।। १७१ ॥ कपड़ेसे छानकर मिलाना चाहिये । इसप्रकार भावना समाप्त हो जानेपर नीचे लिखी ओषधियाँ मिलानी चाहिये । सोंठ, मिर्च, काकोल्यौ द्वे मेदे विदारियुग्मं शतावरी द्राक्षा। छोटी पीपल, आंवला प्रत्येकका चूर्ण ८ तोला, विदारीकन्द ऋद्धियगर्षभवीरामुण्डितिकाजीरकेंऽशुमत्यो च ॥१७२ तोला, तालीशपत्र १६ तोला, मिश्री ६४ तोला, घी १६ रास्नापुष्कराचत्रकदन्तीभकणाकलिङ्गचव्याब्दाः। तोला, शहद ३२ तोला, तिलतैल ८ तोला, वंशलोचन, दालकटुकाशृङ्गीपाठा एतानि पलांशिकानि कार्याणि १७३ चीनी, तेजपात, छोटी इलायची, नागकेशर प्रत्येक २ तोलका अब्दोणे साधितानां रसेन पादांशिकेन भाव्यानि। चूर्ण मिला घोटकर १ तोलेकी मात्रा ( वर्तमानकालके लिये गिरिजस्यैवं भावितशुद्धस्य पलानि दश षट् च।।१७४॥ माशेकी मात्रा) से गुटिका बना सुखाकर चमेलीके फूलोंसे द्विपलं च विश्वधाच्योर्मागधिकायाश्च मरिचानाम् । अधिवासित नवीन घड़ेमें रखना चाहिये । इसकी एक मात्रा खाना या द्रवद्रव्य मिलाकर पीना चाहिये । इसके अनुपान या चर्ण पलं विदार्यास्तालीसपलानि चत्वारि ॥ १७५ ॥ पालोडनके लिये दध, मांसरस, अनारका रस, शराब, शहद या षोडश सितापलानि चत्वारि घृतस्य माक्षिकस्याष्टौ । ठण्ढा जल काममें लाना चाहिये । औषधका परिपाक हो जानेतिलतैलस्य द्विपलं चूर्णार्धपलानि पञ्चानाम् ॥ १७६ ॥ पर हल्का अन्न, दूध, जांगल प्राणियोंके मांसरस या यूषके साथ त्वक्षरिपत्रत्वङ्नागैलानां च मिश्रयित्वा तु। . खाना चाहिये । सात दिनतक यह नियम रखना चाहिये । गिरिजस्य षोडशपलैर्गुडिकाःकार्यास्ततोऽक्षसमाः १७७ । इसके अनन्तर सामान्य भोजन करना चाहिये । भोजन करनेके Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) चक्रदत्तः । । अनन्तर भी इस गुटिकाके खानेसे कोई हानि नहीं होती सुकुमार प्रकृतिवाले बालक तथा कामी पुरुषों को भी इससे कोई हानि नहीं होती ॥ १६९-१८१॥ शिवागुटिकागुणाः । षधि आदिके प्रयोग, विरुद्धभोजनदोष, क्रिमिदोष, पाप तथा कुरूपता इससे नष्ट हो जाते हैं । यह सेवकके धन, कांति, यश और सन्तानको बढाती, बलकारक तथा उत्तम वाजीकरण है । मुखमें रखनेसे राजाओं को वश करती तथा विवादमें जय करती है। इसका सेवन करनेवाला श्री, मेवा, स्मृति, बुद्धि, बल, संवत्सरप्रयुक्ता हन्त्येषा वातशोणितं प्रबलम् । उत्तम शरीर, पुष्टि, ओज, वर्ण, इंद्रियशक्ति, तेज तथा सम्पत्ति बहुवार्षिकमपि गाढं यक्ष्माणं चाढयवातं च ।। १८२ ॥ आदिसे युक्त होकर वलीपलित रहित २०० वर्षतक जीता है । इतनी आयु केवल १ वर्षके प्रयोगसे होती है, दो वर्षके प्रयोग करनेसे ४०० वर्षकी आयु हो जाती है । समस्त रोगों को नष्ट करने वाला मुनियोंने यह परमोत्तम रसायन आविष्कृत किया है। इसमें शिलाजतुका प्रयोग मुख्य है । वह शिलाजतु सर्व प्रथम समुद्र मंथन करते समय मन्दराचल पर्वतकी शिलाओंसे स्वेदरूपसे निकला था । उसे ब्रह्माजीने मानवजातिके हितार्थ पर्वतों की शिळाओं में रख दिया था । यह "शिवागुटिका" रसायन श्रीशंकरजीने गणेशजी के लिये बताया । सर्व प्रथम शिवजीने इसे कहा, अतः इसे " शिवा गुटिका ” कहते हैं ॥ १८२-१९३ ॥ अमृतभल्लातकी । ज्वरयोनिशुक्रदोष प्लीहार्शः पाण्डुग्रहणिरोगान् । ब्रघ्नवमिगुल्मपीनसहिक्का कासारुचिश्वासान् ॥ १८३ ॥ जठरं श्वित्रं कुष्ठं पाण्डु कैब्यं मदं क्षयं शोषम् ॥ उन्मादापस्मारौ वदनाक्षिशिरोगदान्सर्वान् ॥ १८४ ॥ आनाहमतीसारं सासृग्दरं कामलाप्रमेहांश्च । । दर्बुदानि विद्रधिं भगन्दरं रक्तपित्तं च ॥ १८५ ॥ अतिकामतिस्थौल्यं स्वेदमथ श्लीपदं च विनिहन्ति विषं समौलं गराणि च बहुप्रकाराणि ॥ १८६ | मन्त्रौषधियोगादीन्विप्रयुतान्भौतिकान्भावान् । पापालक्ष्म्यौ चेयं शमयेद् गुडिका शिवा नाम्नी १८७ ॥ बल्या वृष्या धन्या कान्तियशः प्रजाकरी चेयम् । दद्यान्नृपवल्लभतां जयं विवादे मुखस्था च ॥ १८८ ॥ श्रीमान्प्रकृष्टमेधः स्मृतिबुद्धिबलान्वितोऽतुलशरीरः । पुष्टथोजोवर्णेन्द्रियतेजोबलसम्पदादिसमुपेतः ॥ १८९ ॥ वपिलित रोगरहितो जीवेच्छरदां शतद्वयं पुरुषः । संवत्सरप्रयोगाद् द्वाभ्यां शतानि चत्वारि ॥ १९० ॥ सर्वामयजित्कथितं मुनिगणभक्ष्यं रसायनरहस्यम् १९१ समुद्बभूवामृतमन्थनोत्थ: स्वेदः शिलाभ्योऽमृतवगिरेः प्राक् । 'मन्दरस्यात्मभुवा हिताय न्यस्तश्च शैलेषु शिलाजरूपी ॥। १९२ ॥ शिवागुडिकेति रसायन मुक्तं गिरिशेन गणपतये । शिववदनविनिर्गता यस्मा न्नाम्ना तस्माच्छिवागुडिकेति ॥ १९३ ॥ [ रसायना - यह एक वर्ष सेवन करने से प्रबल वातरक्तको नष्ट करती है, तथा राजयक्ष्मा और ऊरुस्तंभ नष्ट करती है तथा ज्वर, योनिदोष, शुक्रदोष, प्लीहा, अर्श, पांडु और ग्रहणीरोग, बद, वमन, गुल्म, पीनस, हिक्का, कास, अरुचि, श्वास, उदर, सफेद कुष्ठ, नपुंसकता, मदात्यय, क्षय, शोष उन्माद, अपस्मार, मुखरोग, नेत्ररोग, शिरोरोग, आनाह, अतीसार, प्रदर, कामला, प्रमेह, यत्, अर्बुद, बीद्रधि, भगन्दर, रक्तपित्त, अतिदुर्बलता, अतिस्थूलता, स्वेद, श्रीपद, दन्तविष, मूलविष, कृत्रिमविष, मंत्रौ सुपक्कभल्लातफलानि सम्यक् द्विधा विदार्याढकसंमितानि । विपाच्य तोयेन चतुर्गुणेन चतुर्थशेषे व्यपनीय तानि ॥ १९४ ॥ पुनः पचेत्क्षीरचतुर्गुणेन घृतांशयुक्तेन घनं यथा स्यात् । सितोपलाषोडशभिः पलैस्तु विमिश्रय संस्थाप्य दिनानि सप्त ॥ १९५॥ ततः प्रयोज्यानिबलेन मात्रां जयेद्गुदोत्थानखिलान्विकारान् । कचान्सुनीलान् घनकुञ्चिताप्रान् सुपर्णदृष्टिं सुकुमारतां च ॥ १९६ ॥ जवं हयानां च मतंगजं बलं स्वरं मयूरस्य हुताशदीप्तिम् । स्त्रीवल्लभत्वं लभते प्रजां च नीरोगमब्दद्विशतानि चायुः ॥ १९७ ॥ न चान्नपाने परिहार्यमस्ति न चातपे नाध्वनि मैथुने च । उक्तो हि कालः सकलामयानां राजा ह्ययं सर्वरसायनानाम् ॥ १९८ ॥ भल्लातकशुद्धिरिह प्राणिष्टचूर्णगुण्डनात् । घृताच्चतुर्गुर्ण क्षीरं घृतस्य प्रस्थ इष्यते ॥ १९९ ॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (३१५) . ३ सेर १६ तोला भिलावाँ लेकर प्रथम ईंटके चूरेके साथ | विदारीचूर्णम् । खूब रगड़ना चाहिये । फिर गरम जलसे धोकर साफ कर लेना चाहिये । फिर एक एक भल्लातकके दो दो टुकड़े कर चतुर्गुण | चूर्ण विदार्याः सुकृतं स्वरसेनैव भावितम् । जल ( १२ सेर ६४ तो. द्रवद्वैगुण्यात् २५ सेर ९ छ० ३ सर्पिः क्षौद्रयुतं लीदवा शतं गच्छेद्वराङ्गनाः॥३॥ तो० ) में पकाना चाहिये । चतुर्थाश शेष रहनेपर उतार छानकर इसी प्रकार विदारीकन्दके चूर्णको विदारीकन्दके ही स्वरक्वाथके बराबर दूध तथा घी १ सेर ९छ. ३ तो मिलाकर ससे भावना देकर घी व शहद मिलाकर चाटनसे सैकड़ों पकाना चाहिये । अवलेह सिद्ध हो जानेपर उतारकर ७ दिन स्त्रियोंके साथ मैथुन करनेकी सामर्थ्य प्राप्त होती है ॥३॥ तक उसे वैसे ही रखे रहना चाहिये। ७ दिनके अनंतर आग्निबलके अनुसार इसकी मात्रा सेवन करनी चाहिये । (इसकी आमलकचूर्णम् । मात्रा ६ माशेसे २ तोलेतक है) यह समग्र अर्शरोग नष्ट एवमामलकं चूर्ण स्वरसेनैव भावितम् ।। करता, बाल घने धुंधुराले तथा काले बनाता तथा गरुडके समान | शर्करामधुसर्पिभिर्युक्तं लीढ्वा पयः पिबेत् । दृष्टि तथा सुकुमारता बढाता, घोड़ोंके समान वेगवान्, एतेनाशीतिवर्षोऽपि युवेव परिहृष्यते ॥४॥ हाथियों के समान बलवान् , मयूरके सदृश स्वर, आमि दीप्त | इसी प्रकार आंवलेके चूर्णमें आंवलेके स्वरसकी ही भावना करता तथा स्त्रियोंकी प्रियता और सन्तान तथा २०० वर्षकी दे शक्कर, घी और शहद मिलाकर चाटना. चाहिये, ऊपरसे नीरोग आयु प्रदान करता है। इसमें भोजन मैथुन तथा मार्ग दूध पीना चाहिये । इससे ८० वर्षका बूढा भी जवानके समान चलने आदिका कोई परहेज नहीं है । यह समस्त रोगोंके मैथुनशक्तिसम्पन्न होता है ॥४॥ लिये काल तथा समस्त रसायनोंका राजा है। इसमें भल्लातकशुद्धि ईटके चूरेमें रगड़कर की जाती है और दूध घीसे चौगुना| विदारीकल्कः। छोड़ा जाता है । और घी १ प्रस्थ (द्रवद्वैगुण्यात् २ प्रस्थ-१| विदारीकन्दकल्कं तु घृतेन पयसा नरः। सेर ९ छटांक ३ तोला ) छोड़ा जाता है । १९४-१९९॥ उदुम्बरसमं खादन्वृद्धोऽपि तरुणायते ॥५॥ विदारीकन्दका कल्क १ तोलेकी मात्रासे घी व दूधके साथ इति रसायनाधिकारः समाप्तः । खानेसे वृद्ध भी जवानके सदृश होता है ॥५॥ स्वयं गुप्तादिचूर्णम् ।। स्वयंगुप्तागोक्षुरयोर्बीजचूर्ण सर्शकरम् । धारोष्णेन नरः पीत्वा पयसा न क्षयं ब्रजेत् ॥६॥ कौंचके बीज तथा गोखुरूके बीजोंका चूर्ण शक्कर मिला पिप्पलीलवणोपेतौ बस्ताण्डौ क्षीरसर्पिषा। धारोष्ण दूधके साथ पीनेसे मनुष्य क्षीण नहीं होता है॥६॥ साधिती भक्षयेद्यस्तु स गच्छेत्प्रमदाशतम् ॥१॥ उच्चटाचूर्णम् । बस्ताण्डसिद्धे पयसि साधितानसकृत्तिलान् ।। यः खादेत्स नरो गच्छेत्स्त्रीणां शतमपूर्ववत् ॥२॥ उच्चटाचूर्णमप्येवं क्षीरेणोत्तममुच्यते । शतावर्युच्चटाचूर्ण पेयमेवं सुखार्थिना ॥७॥ बकरेके अण्डकोषको दूधसे निकाले गये घीमें तलकर इसी प्रकार केवल उच्चटा (श्वेतगुजामूल) का चूर्ण अथवा छोटी पीपल व नमक मिला सेवन करनेसे मनुष्य १०० स्त्रियोंके शतावरी व उच्चटा दोनोंके चूर्णको दूधके साथ पीनेसे कामशक्ति साथ मैथुन कर सकता है । इसी बकरके अण्डकोषसे सिद्ध बढती है ॥७॥ दूधसे भावित तिल खानेसे १०० स्त्रियोंके साथ मैथुन करनेकी | शक्ति होती है ॥१॥२॥ . मधुकचूर्णम् । कर्ष मधुकचूर्णस्य घृतक्षौद्रसमन्वितम् । । पयोऽनुपानं यो लियानित्यवेगः स ना भवेत् ।।८।। १ भल्लातकका प्रयोग सावधानीसे करना चाहिये । बनाते बनाता १ तोला मौरेठीके चूर्णको घी व शहदमें मिला चाटकर , समय इसके तैलके छीटे पड़ जाने या पकाते समय इसकी| भाप लग जानेसे शोथ हो जाता है, तथा-खानेसे भी | ऊपरसे दूध पीनेसे मनुष्य नित्य वेगवान होता है ॥८॥ किसी किसीको शोथ हो जाता है। ऐसी अवस्थामें तिल और गोक्षुरादिचूर्णम् । गरीका उबटन तथा खाना लाभदायक होता है। तथा गोक्षुरकः क्षुरकः शतमूली प्रत्तेके क्वाथसे स्नान करना चाहिये ॥ . वानरिनागबलातिबला च । अथ वाजीकरणाधिकारः। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न "wwwwww Po चक्रदत्तः। . [वाजीकरणा- ~चूर्णमिदं पयसा निशि पेयं हन्त्यष्टादश कुष्ठानि तथाष्टावुदराणि च । यस्य गृहे प्रमदाशतमस्ति ॥ ९॥ | भगन्दरं मूत्रकृच्छ्रे गृध्रसी सहलीमकम् ॥ १९ ॥ गोखुरू, तालमखाना, शतावरी, कौंचके बीज गोरन व क्षयं चैव महाश्वासान्यञ्च कासान्सुदारुणान् कंघीके चूर्णको दूधके साथ रातमें उन्हें पीना चाहिये जिनके अशीतिं वातजान् रोगांश्चत्वारिंच्च पैत्तिकान्॥२०॥ घरमें १०० स्त्रियां हैं ॥ ९ ॥ विंशतिं श्लैष्मिकांश्चैव संसृष्टान्सान्निपातिकान् । माषपायसः। सर्वानशेगदान्हन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥२१॥ घृतभृष्टो दुग्धमाषपायसो वृष्य उत्तमः। स काञ्चनाभो मृगराजविक्रमघीमें भूनकर उड़दकी धके साथ बनायी गयी खीर उत्तम स्तुरङ्गमं चाप्यनुयाति वेगतः। वाजीकरण है। स्त्रीणां शतं गच्छति सोऽतिरेकं रसाला। . प्रकृष्ट दृष्टिश्च यथा विहङ्गः ॥२२॥ दध्नः सारं शरच्चन्द्रसन्निभं दोषवर्जितम् ॥१०॥ पुत्रान्सजनयेद्वीरान्नरसिंहानिभांस्तथा । शर्कराक्षौद्रमरिचैस्तुगाक्षीर्या च बुद्धिमान् । नारसिंहमिदं चूर्ण सर्वरोगहरं नृणाम् ॥ २३ ॥ युक्त्या युक्तं ससूक्ष्भलं नवे कुम्भे शुचौ पटैः।।११।। वाराहीकन्दसंज्ञस्तु चर्मकारालुको मतः । मार्जिते प्रक्षिपेच्छीतं घृताढथं षष्टिकोदनम् ।। पश्चिमे घृष्टिशब्दाख्यो वराहलोमवानिव ॥ २४ ॥ अद्यात्तदुपरिष्टाच्च रसाला मात्रया पिबेत् । शतावरीका चूर्ण ६४ तोला, गोखरू ६४ तोला, वाराही. वर्णस्वरबलोपेतः पुमांस्तेन वृषायते ॥ १२ ॥ कन्दचूर्ण ८० तोला, गुर्च १०० तोला, भिलावां १२८ उत्तम दहीके सार (ऊपरकी मलाई ) में शक्कर, शहद, तोला, सोंठ, मिर्च, पीपल प्रत्येक ३२ तोला, बिदारीकन्दकाली मिर्च, वंशलोचन और छोटी इलायचीका चूर्ण मिलाकर का चूर्ण ६४ तोला सबका चूर्ण एकमें मिलाकर मिश्री २८० नये कपड़ेसे साफ किये घड़ेमें रखना चाहिये। ठंडा भात घी| ताला, तोला, शहद १४० तोला, घी ७० तोला मिला एक चिकने मिलाकर खाना चाहिये । ऊपरसे यह "रसाला" पीनी चाहिये । पृतभार घृतभावित घड़ेमें रखना चाहिये । इससे २ तोलेकी मात्रा इससे मनुष्य वर्ण, स्वर और बलसे युक्त होकर वेगवान् (वर्तमानसमयमें ६ माशेसे १ तोला तक) प्रतिदिन खाना होता है॥१०-१२॥ |चाहिये। तथा यथारुचि भोजन करना चाहिये । इसके १ मासके सेवनसे वृद्धावस्था तथा रोग दूर हो जाते हैं । झुर्रियां, मत्स्यमांसयोगः। पलित, इन्द्रलप्त, प्रमेह, पाण्डुरोग, पीनस अठारह प्रकारके आर्द्राणि मत्स्यमांसानि शफरीर्वा सुभर्जिताः। कुष्ठ, ८ प्रकारके उदररोग, भगन्दर, मूत्रकृच्छ्र, गृध्रसी, हलीतप्ते सपिषि यः खादेत्स गच्छेत्स्त्रीषु न क्षयम्॥१३ मक, क्षय, महाश्वास, पांचों कोस, अस्सी प्रकारके वातरोग,४० गीले मछलीके मांस अथवा छोटी मछलियाँ घीमें भूनकर प्रकारके पित्तरोग, २० प्रकारके कफरोग, द्वंद्वज तथा सानिजो खाता है, वह स्त्रीगमनसे क्षीण नहीं होता ॥ १३॥ पातिक रोग तथा समस्त अर्शोरोग इसके सेवनसे इस प्रकार नष्ट नारसिंहचूर्णम् । हो जाते हैं जैसे इन्द्रवज्रसे वृक्ष । इसका सेवन करनेवाला सोनेके शतावरीरजःप्रस्थं प्रस्थं गोक्षरकस्य च। | समान कान्तिवाला, सिंहके समान पराक्रमी, घोड़ेके समान वेगवाला तथा सैकड़ों स्त्रियोंके साथ रमण करनेकी शक्तिवाला वाराह्या विंशतिपलं गुडूच्याः पञ्चविंशतिः।। तथा पक्षियोंके सदृश दृष्टियुक्त होता है । इसके सेवनसे नसिंहके भल्लातकानांद्वात्रिंशञ्चित्रकस्य दशैव तु ॥ १४॥ | समान वीर पत्र उत्पन्न करनेकी शक्ति उत्पन्न होती है। यह तिलानां शोधितानां च प्रस्थं दद्यात्सुचूर्णितम् । | समस्त रोगोंको नष्ट करनेवाला “नारसिंह" चूर्ण है। "वाराहीत्र्यूषणस्य पलान्यष्टी शर्करायाश्च सप्ततिः ॥ १५॥ कन्द" नाम चर्मकारालूका है, पश्चिममें इसे “वृष्टि " कहते हैं, माक्षिकं शर्करार्धेन माक्षिकाधेन वै घृतम् । इसके कन्दके ऊपर शूकरकेसे लोम होते हैं ॥ १४-२४ ॥ शतावरीसमं देयं विदारीकन्द रजः ॥१६॥ गोधूमायं घृतम् । एतदेकीकृतं चूर्ण स्निग्धे भाण्डे निधापयेत् ।। गोधूमाच्च पलशतं निष्काथ्य सलिलाढके । पलार्धमुपयुजीत यथेष्ट चापि भोजनम् ॥ १७ ॥ । पादावशेषे पूते च द्रव्याणीमानि दापयेत् ।।२५ ।। मासैकमुपयोगेन जरां हन्ति रुजामपि । गोधूमं मुखातफलं माषद्राक्षापरूषकम् । वलीपलितखालित्यमेहपाण्ड्वाद्यपीनसान् ॥ १८॥ काकोली क्षीरकाकोली जीवन्ती सशतावरी ॥२६॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (३१७) - - - - - - - - अश्वगन्धा सखजूरा मधुकं त्र्यूषणं सिता। भी साहचर्यसे कल्कद्रवकी भांति प्रत्येक १ तोला लेना भल्लातकमात्मगुप्ता समभागानि कारयेत् ॥ २७ ॥ चाहिये ॥ २५-३५ ॥ घृतप्रस्थं पचेदेकं क्षीरं दत्त्वा चतुर्गुणम् । शतावरीघृतम्। मृद्वग्निना च सिद्धे च द्रव्याण्येतानि निःक्षिपेतू२८॥ घृतं शतावरीगर्भ. क्षीरे दशगुणे पचेत् । त्वगेलापिप्पलीधान्यकर्पूरं नागकेशरम् । शर्करापिप्पलीक्षोदयक्तं तद् वृष्यमुच्यते ॥३६ ।। यथालाभं विनिक्षिप्य सिताक्षीद्रपलाष्टकम् ॥२९॥ शतावरीका कल्क तथा घृतसे दशगुण दूध मिलाकर घी शक्त्येक्षुदण्डेनालोड्य विधिवद्विनियोजयेत् । पकाना चाहिये। घी सिद्ध हो जानेपर उतार छान शक्कर व शाल्योदनेन भुञ्जीत पिबेन्मांसरसेन वा ॥ ३०॥ छोटी पीपलका प्रक्षेप उचित मात्रामें छोड़कर सेवन करना केवलस्य पिबेदस्य पलमात्रां प्रमाणतः। |चाहिये । यह उत्तम वाजीकरण है ॥ ३६ ॥ न तस्य लिङ्गशैथिल्यं न च शुक्रक्षयो भवेत्॥३१॥ गुडकूष्माण्डकम् । बल्यं परं वातहरं शुक्रसजननं परम् । मूत्रकृच्छ्रप्रशमनं वृद्धानां चापि शस्यते ॥३२॥॥ कूष्माण्डकात्पलशतं सुस्विन्नं निष्कुलीकृतम् । पलद्वयं तदश्नीयाद्दशरात्रमतन्द्रितः । प्रस्थं घृतस्य तैलस्य तस्मिंस्तप्ते प्रदापयेत्॥ ३७॥ स्त्रीणां शतं च भजते पीत्वा चानुपिबेत्पयः ॥३३॥ पत्रत्वग्धान्यकव्योषजीरकैलाद्वयानलम् । अश्विभ्यां निर्मितं चैतद्गोधूमाद्यं रसायनम् । प्रन्थिकं चव्यमातङ्गपिप्पलीविश्वभेषजम् ॥ ३८ ॥ जलद्रोणे तु गोधूमक्काथे तच्छेषमाढकम् ॥ ३४॥ शृङ्गाटकं कशेरुं च प्रलम्बं तालमस्तकम् । मुखातकस्य स्थाने तु तद्गुणं तालमस्तकम् । चूर्णीकृतं पलांशं च गुडस्य च तुलां पचेत् ॥३९॥ कल्कद्रव्यसमं मानं त्वगादेः साहचर्यतः ॥ ३५ ॥ शीतीभूते पलान्यष्टी मधुनः सम्प्रदापयेत् । कफपित्तानिलहरं मन्दाग्नीनां च शस्यते ॥४०॥ गेहूँ ५ सेर, जल २५ सेर ९ छ० ३ तो. छोड़कर कृशानां बृंहणं श्रेष्ठं वाजीकरणमुत्तमम् । पकाना चाहिये । चतुर्थाश शेष रहनेपर उतार छानकर प्रमदासु प्रसक्तानां ये च स्युः, क्षीणरेतसः॥४१॥ क्वाथ तैयार करना चाहिये । उस क्वाथमें गेहूँ, मुजातफल क्षयेण च गृहीतानां परमेतद्भिषग्जितम् । (मूञ्जके बीज ), उड़द, मुनक्का, फाल्सा, काकोली, क्षीरका कासं श्वासं ज्वरं हिक्कां हन्ति छर्दिमरोचकम्॥४२॥ कोली, जीवन्ती, शतावरी, असगन्ध, छुहारा, मोरेठी, सोंठ, गुडकूष्माण्डकं ख्यातमश्विभ्यां समुदाहृतम् । मिर्च, पीपल, मिश्री, कोंचके बीज व भिलावां प्रत्येक १ तोले खण्डकूष्माण्डवत्पात्रं स्विन्नकूष्माण्डकाद्रवः॥४३॥ का कल्क तथा घी १ सेर ९ छ० ३ तो० और दूध ६ सेर | ३२ तो मिलाकर मन्द आंचसे पकाना चाहिये । सिद्ध हो छिलके व बीजरहित पेठा उबाल रस निचोड़ अलग रखना जानेपर उतार छानकर दालचीनी, इलायची, छोटी पीपल, चाहिये । फिर गायका घी ६४ तो० वा तिल तैल ६४ तो. धनियां, कपूर, नागकेशर प्रत्येक एक तोलेका चूर्ण छोड़ना मिलाकर पूर्वोक्त विधिसे स्विन्न ५ सेर पेठा भूनना चाहिये। चाहिये, तथा मिश्री व शहद ३२ तो० ( दोनों मिलाकर जब पेठा अच्छी तरह भुन जावे, अर्थात् सुर्थी आजाय और छोड़ कर ईखके दण्डसे मिलाकर रखना चाहिये । इसे शालिके सुगन्ध उठने लगे, उस समय वही पेठेका रस तथा ५ सेर गुड़ भातके साथ खाना अथवा मांसरसमें मिलाकर पीना चाहिये (गुड़ पुराना होना चाहिये । पर आज कल इसे मिश्री छोड़अथवा केवल घृत ४ तोलेकी मात्रासे पीवे । इसके सेवनसे लिङ्ग कर बनाते हैं) मिला छानकर छोड़ देना चाहिये और उस शिथिल नहीं होता । न शुक्र ही क्षीण होता है । यह बल तथा समयतक पकाना चाहिये जबतक खूब गाढा न हो जाय । बीर्य बढाता और वायुको नष्ट करता है। तथा मूत्रकृच्छ्रको शान्त | फिर तेजपात, दालचीनी, धनियां, त्रिकटु, जीरा, छोटी व बड़ी करता और वृद्धोंके लिये भी हितकर है । इसे ८ तोलेतककी इलायची, चीतकी जड़, पिपरामूल, चव्य, गजपीपल, सोंठ, मात्रामें १० दिनतक सावधानीसे सेवन करना चाहिये । इसे सिंहाड़ा, कशेरू, ताड़की बाली प्रत्येक ४ सोले चूर्णको पीकर ऊपरसे दूध पीना चाहिये । यह "गोधूमादि" रसायन छोड़कर उतार लेना चाहिये । तथा ठण्डा हो जानेपर शहद भगवान् अश्विनीकुमारोंने वनाया है । इसमें गेहूँका काथ | ३२ तोला मिलाना चाहिये । यह कफ, पित्त और वायुको एक द्रोण ( द्रवद्वैगुण्यात् २ द्रोण, ) जलमें बनाना नष्ट करता तथा मन्दाग्निवालोंके लिये हितकर है। तथा कुशचाहिये, चतुर्थांश क्वाथ रखना चाहिथे । मुजातकके न मिल-1 पुरुषोंको पुष्ट करता और उत्तम वाजीकरण है । श्रीगमनसे जो नेपर ताड़की वाली छोड़नी चाहिये। दालचीनी आदिका मान क्षीण होरहे हैं, अथवा जा क्षयसे पीड़ित हैं, उनके लिये यह Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८ ) उत्तम औषध है । तथा यह कास, श्वास, ज्वर, हिक्का, छर्दि तथा अरुचिको नष्ट करता है । इस "गुड़कूष्मांडक" रसायनका आवि कार भगवान् अश्विनीकुमारोंने किया है। यहां स्विन्नकूष्मांड कका ही द्रव खण्डकूष्माण्डकी तरह १ आढक अथवा जितना निकले लेना चाहिये । इसकी मात्रा २ तोलेसे ४ तोले तक ॥ ३७-४३ ॥ सामान्यवृष्यम् । यत्किञ्चिन्मधुरं स्निग्धं जीवनं बृंहणं गुरु । हर्षणं मनसश्चैव सर्वं तद् वृष्यमुच्यते ॥ जितने द्रव्य, मीठे, चिकने, जीवन, बृंहण, गुरु तथा प्रसन्न रखनेवाले हैं, वे सब " वृष्य " हैं ॥ ४४ ॥ लिंगवृद्धिकरा योगाः । चक्रदत्तः । ४४ ॥ मनको भल्लातक बृहतीफलदाडिमफलवल्कसाधितं कुरुते । लिङ्गं मर्दनविधिना कटुतैलं वाजिलिङ्गाभम् ४५|| कनकरसमसृणवर्तितहयगन्धामूलविश्वपर्युषितम् । माहिषामिह नवनीतं गतबीजे कनकफलमध्ये ॥ ४६ ॥ गोमयगाढोद्वर्तितपूर्व पश्चादनेन संलिप्तम् । भवति हयलिङ्गसदृशं लिङ्गं कठिनाङ्गनादयितम् ४७ भिलावां, बड़ी कटेरीके फल और अनारके फलकी छालके कल्कसे सिद्ध कडुआ तैल मर्दन करनेसे लिङ्ग घोड़ेके लिङ्गके स्थूल होता है । इसी प्रकार धतूरके फलके बीज निकालकर उसी खाली फलमें धतूरेके ही रससे महीन पिसी असगन्ध की जड़ और सोंठ तथा भैंसीका मक्खन तीनों मिलाकर रखना चाहिये। बासी हो जानेपर लिङ्गमें पहिले गायके गोबरके उब टन कर इसका लेप करना चाहिये । इससे लिङ्ग घोड़ेके लिङ्गके सदृश स्थूल अतएव स्त्रियोंके लिये प्रेम पात्र हो जाता है ॥ ४५-४७ ॥ अश्वगन्धादितैलम् । अश्वगन्धावरीकुष्ठमांसीसिंही फलान्वितम् । चतुर्गुणेन दुग्धेन तिलतैलं विपाचयेत् । स्तनलिङ्गकर्णपालिवर्धनं श्रङ्क्षणादिदम् ॥ ४८ ॥ असगन्ध, शतावरी, कूठ, जटामांसी तथा छोटी कटेरीके फलों का कल्क और चतुर्गुण दूध मिलाकर सिद्ध तिलतैल मालिश करनेसे स्तन, लिङ्ग और कर्णपालियोंको बढाता है ॥ ४८ ॥ * [ वाजीकरणा स्तम्भनम् -" बीजं बृहत्करजस्य कृतमन्तः सुपारदम् । ना सुवेष्टितं न्यस्तं वदने बीजङ् मतम् ॥" - भल्लातकादिलेपः । भल्लातक बृहतीफलनलिनीदलसिन्धुजलशुकैः । माहिषनवनीतेन च करम्बितैः सप्तादिनमुषितैः॥४९ मूलेन हयगन्धाया माहिषमलमर्दितपूर्वमथ । लिप्तं भवति लघुकृत रासभलिङ्गं ध्रुवं पुंसाम् ॥५०॥ भिलावाँ, बड़ी कटेरीके फल, कमलिनीके पसे, सेंधानमक व जोंकका कल्क कर भैंसीके मक्खनमें मिला ७ दिन रखकर प्रथम लिङ्गमें भैंसे के गोबर से उबटन कर असगन्धकी जड़से इसका लेप हो जाता है ॥ ४९ ॥ ५० ॥ करना चाहिये । इससे मनुष्योंका लिङ्ग गधेके लिङ्गसे भी मोटा अन्ये योगाः । | नीलोत्पलसितपङ्कजकेशर मधुशर्करावलिप्तेन । सुरते सुचिरं रमते दृढलिङ्गो भवति नाभिविवरेण ॥५१॥ सिद्धं कुसुम्भतैलं भूमिलताचूर्णमिश्रितं कुरुते । चरणाभ्यङ्गेन रतेर्बीजस्तम्भाद् दृढं लिङ्गम् ॥ ५२ ॥ सप्ताहं छागभवसलिलस्थं करभवारुणीमूलम् । गाढोद्वर्तनविधिना लिङ्गस्तम्भं तथा दृढं कुरुते ॥५३॥ गोरेकोन्नतशृङ्गत्वग्भवचूर्णेन धूपितं वस्त्रम् । परिधाय भजति ललनां नैकाण्डोः भवति· हर्षार्तः ॥ ५४ ॥ नीलकमल, सफेद कमल, नागकेशर, शहद और शक्कर मिलाकर लेप करनेसे अधिक समयतक मैथुन करने की शक्ति प्राप्त होती और लिङ्ग दृढ होता है । यह लेप नाभिके ऊपर किया गया कुसुम्भका तैल पैर में मालिश करनेसे वीर्यस्तम्भ करना चाहिये। इसी प्रकार सूखे केंचुओंका कल्क छोड़कर सिद्ध तथा लिङ्ग दृढ होता हैं । इसी प्रकार बकरके मूत्रमें भावित इन्द्रायणकी जड़के चूर्णका लेप करनेसे लिङ्ग दृढ-तथा दिनतक वीर्य स्तब्ध होता है । इसी प्रकार गायके एक बड़े सींगकी त्वचा के चूर्ण से धूपित वस्त्र पहिन कर मैथुन करनेसे मैथुनेच्छा शान्त नहीं होती ॥ ५१-५४ ॥ ७ कुप्रयोगजषांढ्यचिकित्सा | समतिल गोक्षुर चूर्ण छागीक्षीरेण साधितं समधु । भुक्तं क्षपयति षाण्यं यज्जनितं कुप्रयोगेण ॥५५॥ - लताकरञ्जके बीज में शुद्ध पारद भरकर ऊपरसे सोनेके पत्रसे | मढवा देना चाहिये । इसको मुखमें रखकर मैथुन करनेसे वीर्यपात नहीं होता । । * वराहवसायोगः - " मेदसा क्षौद्रयुक्तेन वराहस्य प्रलेपितम् लिङ्गं स्निग्धं रतान्तेऽपि स्तब्धतां न प्रमुञ्चति ॥ " अपरं स्तम्भनम् - "आजं तूष्ट्रीक्षीरं गव्यघृतं चरणयुगललेपेन । शूकरकी चर्बी को शहदके साथ मिलाकर लिङ्गमें लेप करनेसे स्तम्भयति पुरुषबीजं योगोऽयं यामिनीं सकलाम् " ॥ मैथुन के बाद भी लिङ्ग स्तब्धता नहीं मिटती । बकरी का दूध, ऊँटिनीका दूध और गायका घृत तीनों एकमें मिला पैरोंमें लेप कर मैथुन कर समग्र रात वीर्यपात नहीं होता । यह तीनों प्रयोग कुछ पुस्तकों में हैं, कुछमें नहीं । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः ] योगजवराङ्गबद्धं मथितेन क्षालितं हरति । उन्मुखगोशृङ्गोद्भवलेपो ध्वजभङ्ग हृत्प्रोक्तः ॥ ५६ ॥ तिल और गोखुरूका चूर्ण समान भाग ले बकरीके दूधमें पका ठण्डाकर शहद मिला खानेसे कुप्रयोग ( दुष्टौषध अथवा हस्तक्रियादि ) से उत्पन्न नपुंसकता नष्ट होती है । इसी प्रकार कुप्रयोगज नपुंसकता मट्ठेसे धोने तथा ऊर्ध्वमुख शृंगके चूर्णको मट्ठे में मिलाकर लेप करनेसे नष्ट होती है ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ अथ मुखगन्धहरो योगः । कुष्ठैलवालुके लामुस्तकधन्य ।कमधुकजः कवलः । अपहरति पूतिगन्धं रसोनमदिरादिजं गन्धम् ॥ ५७ ॥ कूठ, एलुवा, इलायची, नागरमोथा, धनियां तथा मोरेठीके चूर्ण अथवा क्वाथका कवल धारण करनेसे मुखसे आनेवाली लहसुन, शराब आदिकी दुर्गन्ध नष्ट हो जाती है ॥ ५७ ॥ अधोवातचिकित्सा | क्षौद्रेण बीजपूरत्वग्लीढाघोवातगन्धनुत् ॥ ५८ ॥ बिजौरे निम्बूकी छाल चूर्णको शहद के साथ चाटनेसे अधोवातज दुर्गन्ध नष्ट होती है ॥ ५८ ॥ इति वाजीकरणाधिकारः समाप्तः । अथ स्नेहाधिकारः । भाषाकोपेतः । -83x वातपित्ताधिक मनुष्य तथा उष्णकालमें भी रात्रिमें स्नेहपान करे तथा कफाधिक मनुष्यको और शीतकाल में दिन में सूर्यके निर्मल रहनेपर ही स्नेहपान करना चाहिये ॥ ७ ॥ स्नेहा तदन वा । सर्पिस्तैलं वसा मज्जा स्नेहेषु प्रवरं मतम् । तत्रापि चोत्तमं सर्पिः संस्कारस्यानुवर्तनात् ॥ १ ॥ केवलं पैत्तिके सर्पिर्वातिके लवणान्वितम् । देयं बहुकफे चापि व्योषक्षारसमायुतम् ॥ २ ॥ तथा धीस्मृतिमेधानिकांक्षिणां शस्यते घृतम् । प्रन्थिनाडीक्रिमिश्लेष्ममेदोमारुतरोगिषु ॥ ३ ॥ • तैलं लाघवदाढर्थं क्रूरकोष्ठेषु देहिषु । वातातपाध्वभारखी व्यायामक्षीणधातुषु ॥ ४॥ रूक्षक्केशासहात्यग्निवातावृतपथेषु च । शेषौ वसन्ते सन्ध्यस्थिमर्मकोष्ठ रुजासु च । तथा दुग्धात भ्रष्टयोनिकर्णशिरोरुजि ॥ ५ ॥ तैलं प्रावृषि वर्षान्ते सर्पिरन्त्यौ तु माधवे । साधारणऋतौ स्नेहं पिबेत्कार्यवशादिह ॥ ६॥ स्नेहोंमें घी, तैल, चर्बी तथा मज्जा उत्तम हैं। इनमें भी घी सबसे उत्तम है, क्योंकि घीसंस्कारका अनुवर्तन ( अर्थात् घी जिन द्रव्योंके साथ सिद्ध किया जाता है, उनके गुण उसमें आ स्वेद्यसंशोध्यमद्यस्त्रीव्यायामासक्तचिन्तकाः । वृद्धा बाला बलकुशा रूक्षक्षीणास्ररेतसः ॥ ८ ॥ वातार्तस्यन्दतिमिरदारुणप्रतिबोधिनः । स्नेह्या न त्वतिमन्दाग्भितीक्ष्णाग्निस्थूलदुर्बलाः ॥९ ॥ ऊरुस्तम्भातिसारामगलरोगगरोदरैः । मूर्च्छाछर्द्यरुचिश्लेष्मतृष्णामधेश्व पीडिताः ॥ ९० ॥ आमप्रसूता युक्ते च नस्ये बस्तौ विरेचने । जिनका स्वेदन तथा संशोधन करना है, तथा जो मद्यपान, स्त्रीगमन तथा व्यायाम में लगे रहते हैं, तथा अधिक चिन्ता करनेवाले, वृद्ध, बालक, निर्बल, पतले, रूक्ष, क्षीणरक्त, क्षीणशुक्र, वायुसे पीड़ित, स्यन्द, तिमिरसे पीड़ित तथा अधिक जागरण करनेवाले पुरुष स्नेहनके योग्य हैं । तथा अतिमन्दाग्नि, तीक्ष्णामि, स्थूल, दुर्बल, ऊरुस्तम्भ, अतिसार, आमदोष, गलरोग, कृत्रिम विष, उदररोग, मूर्छा, छर्दि, अरुचि, तथा कफजतृष्णा और मद्यपान से पीड़ित पुरुष स्नेहपानके अयोग्य हैं । तथा जिस स्त्रीको गर्भपात हुआ है अथवा जिन्होंने बस्ति, जाते हैं और अपने भी गुण बने रहते हैं, अतः ) करता है । नस्य अथवा विरेचन लिया है, उनके लिये स्नेहन पैत्तिक रोगों में केवल घृत, वातिक्रमें नमक मिलाकर और कफज में । निषिद्ध है ॥ ८-१० ॥ - स्नेहविचारः । ( ३१९) सोंठ, मिर्च, पीपल और क्षार मिलाकर देना चाहिये । तथा बुद्धि, स्मरणशक्ति, मेधा और अग्निकी इच्छा रखनेवालों के लिये घी हितकर है । ग्रन्थि, कृमि, नाडीव्रण, कफ, मेद तथा वायुके रोगों में तथा लघुता और दृढताकी इच्छा रखनेवालों तथा क्रूर कोष्ठवालोंके लिये तैल हितकर होता है । वायु, धूप, मार्गगमन, भार उठाने, स्त्रीगमन अथवा व्यायामसे जिनके धातु क्षीण हो गये हैं, तथा क्लेशको न सह सकनेवाले, तथा तीक्ष्णाग्नि और वायुसे आवृत मार्गवालों के लिये वसा और मज्जा हितकर है। उनमें से वसाका प्रयोग सन्धि, अस्थि, मर्म और कोष्ठकी पीड़ामें तथा भी करना चाहिये । तथा वर्षाऋतु में तैल, शरदृतुमें घृत और जले, आहत ( चोट युक्त ) और योनि, कान व शिरकी पीड़ा में वसन्त ऋतुमें मज्जाका प्रयोग करना चाहिये । तथा आवश्यकता वश सभी ऋतुओं में साधारण समयमें सब स्नेह प्रयुक्त किये जा | सकते हैं ॥ १-६ ॥ | स्नेहसमयः । वातपित्ताधिको रात्रावृष्णे चापि पिबेन्नरः । श्लेष्माधिको दिवा शीते पिबेच्चामलभास्करे ॥ ७॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ स्नेहा छन्वन्छ (३२०) . चक्रदत्तः। न्छ न् न स्नेहविधिः । अधिक पीकर बमन कर डालना चाहिये । इसी प्रकार जिसका स्नेहसात्म्यः केशसहो दृढः काले च शीतले ॥१॥ स्नेह मिथ्याचार या अधिक होने के कारण हजम न होता हो, अच्छमेव पिबेत्स्नेहमच्छपानं हि शोभनम् । |अथवा ठहर कर हजम होता हो, उसे भी गुनगुना जल पिलाकर पिबेत्संशमनं स्नेहमन्नकाले प्रकाक्षितः ॥ १२ ॥ वमन करा देना चाहिये । कोष्ठ हलका हो जानेपर फिर स्नेह देना चाहिये तथा स्नेह हजम हुआ या नहीं ऐसी शंका गरम शुद्धधर्थ पुनराहारे नैशे जीर्णे पिबेन्नरः। जल पीना चाहिये । गरम जल पीनेसे डकार शुद्ध आती है जिसे स्नेहका अभ्यास है तथा जो स्नेहव्यापत्तिको सहन और अन्नपर रुचि होती है, तथा जिसे स्नेह कल पिलाना है या कर सकता है और दृढ़ है, उसे तथा शीत कालमें केवल स्नेह | नह| आज पिया है या कल पी चुका है, उसे मात्रासे द्रव (पतला), पीना चाहिये । केवल स्नेहपान ही उत्तम है। दोषोंको शान्त उष्ण, अनभिष्यन्दि ( कफको बढाकर छिद्रोंको न भर देनेवाला) करनेके लिये संशमन स्नेह भूख लगनपर भोजनके समय पीना | तथा न अधिक चिकना और न कई अन्न मिले हुए भोजन चाहिये । तथा शाद्धिके लिये रात्रिका आहार पच जानेपर | जाहिरी १०-२०॥ पीना चाहिये ॥ ११ ॥ १२॥ .. स्नेहमर्यादा । मात्रानुपाननिश्चयः। व्यहावरं सप्तदिनं परन्तु अहोरात्रमहः कृत्स्नं दिनाधं च प्रतीक्षते ॥ १३ ॥ स्निग्धः परं स्वेदयितव्य इष्टः। उत्तमा मध्यमा ह्रस्वा स्नेहमात्रा जरां प्रति नातः परं स्नेहनमादिशन्ति उत्तमस्य पलं मात्रा त्रिभिश्चाक्षश्च मध्यमे ॥ १४॥! सात्म्यीभवेत्सप्तदिनात्परं तु ॥ २१ ॥ जघन्यस्य पलार्धेन स्नेहकाथ्योषधेषु च । मृदुकोष्ठस्त्रिरात्रेण स्निह्यत्यच्छोपसेवया । जलमुष्णं घृते पेयं यूषस्तैलेऽनुशस्यते ॥ १५ ॥ नियति क्रूरकोष्ठस्तु सप्तरात्रेण मानवः ॥ २२ ॥ वसामज्ज्ञोस्तु मण्डः स्यात्सर्वेषूष्णमथाम्बु वा। । कमसे कम तीन दिन ( मृदुकोष्ठमें ) अधिकसे अधिक ७ भल्लाते तोवरे नेहे शीतमेव जलं पिबेत ॥ १६॥ दिन ( करकोष्ठमें ) स्नेहन कर स्वेदन करना चाहिये । इससे दिनरातमें हजम होनेवाली स्नेहमात्रा "उत्तम" केवल दिन- अधिक स्नेहन नहीं करना चाहिये । क्योंकि ७ दिनके भरमें हजम होनेवाली "मध्यम" तथा आधे दिनमें हजम होने-बाद स्नेह सात्म्य हो जाता है । मृदुकोष्ठ पुरुष अच्छस्नेहपान कर वाली स्नेहमात्रा "हीन" मात्रा कही जाती है । स्नेह तथा क्वाथ्य | ३ दिनमें और क्रूर कोष्ठवाले ७ दिनमें सम्यक् स्निग्ध हो औषधियोंकी मात्रा क्रमशः उत्तम १ पल (४ तोले ), मध्यम | जाते हैं ॥ २१ ॥२२॥ •३ कर्ष (३ तोले ), हीन २ कर्ष (२ तोले ) है । तथा घृतके वमनविरेचनसमयः। अनन्तर गरम जल, तैलके अनन्तर यूष तथा वसा और मज्जाके स्निग्धद्रवोष्णधन्वोत्थरसभुक्स्वेदमाचरेत् । अनन्तर मण्ड़ अथवा सबके अनन्तर गरम जल ही पीना स्निग्धख्यहं स्थितः कुर्याद्विरेकं वमनं पुनः ॥ २३ ॥ चाहिये । तथा भल्लातकतैल और तुवरकतेलमें शीतल जल ही पीना चाहिये ॥ १३-१६॥ एकाहं दिनमन्यच्च कफमुत्क्वेश्य तत्करैः। स्नेहन हो जानेपर स्नेहयुक्त, द्रव, उष्ण, जांगल प्राणियोंका स्नेहव्यापत्तिचिकित्सा। मांस भोजन करता हुआ ३ दिनतक स्वेदन करे । इस प्रकार स्नेहपीतस्तु तृष्णायां पिबेदुष्णोदकं नरः। ३दिन ठहर कर विरेचन देना चाहिये और यदि वमन कराना एवं चाप्यप्रशाम्यन्त्यां स्नेहमुष्णाम्बनोद्धरेत ॥१७॥ हो, तो एक दिन और ठहर अर्थात् चौथे दिन कफको बढानेवाले मिथ्याचाराद्वहुत्वाद्वा यस्य स्नेहो न जीर्यति । पदार्थ खिला कफ वढाकर वमन कराना चाहिये ॥ २३ ॥विष्टभ्य वापि जीर्येत्तं वारिणोष्णेन वामयेत् ॥१८॥ स्निग्धातिस्निग्धलक्षणम् । ततः स्नेहं पुनर्दद्याल्लघुकोष्ठाय देहिने । वातानुलोम्यं दीप्तोऽग्निवर्चः स्निग्धमसंहतम्॥२४॥ जीर्णाजीर्णविशङ्कायां पिबेदुष्णोदकं नरः ॥१९॥ स्नेहोद्वेगः लमः सम्यक् स्निग्धे रूक्षे विपर्ययः । तेनोद्गारो भवेच्छुद्धो रुचिश्वान्नं भवेत्प्रति । अतिस्निग्धे तु पाण्डुत्वं ब्राणवक्त्रगुदस्रवाः ॥२५॥ भोज्योऽन्नं मात्रया पास्यवः पिबन्पीतवानपि। पर ७ दिनमें भी जिसे ठीक स्नेहन न हो, उसे बाद भी द्रवोष्णमनभिष्यन्दि नातिस्निग्धमसङ्करम् ॥२०॥ स्नेहपान करना चाहिये । जैसा कि वृद्ध वाग्भटने लिखा हैस्नेहपान करनेवालोंको प्यासकी अधिकतामें गरम ही जल " त्र्यहमच्छं मृदा कोष्ठे क्रूरे सप्तदिनं भवेत् । पीना चाहिये, यदि इस प्रकार शान्ति न हो, तो गरम जल सम्यस्निग्धोऽथवा यावदतः सात्म्यी भवेत्परम् ॥" भार क्रूर कोष्ठवाले ७ दिनमें उत्तम १ पल ( ४ तोले '३ कर्ष (३ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (३२१) - Parror - - - -wor - - - - ठीक ठीक स्नेहन हो जानेपर वायुका अनुलोमन, आग्निदीप्त, | स्नेह विचारः। मल ढीला व चिकना तथा स्नेहसे उद्वेग और ग्लानि होती है । ग्राम्यानूपौदकं मांसं गुडं दधि पयस्तिलान् । ठीक स्नेहन न होनेपर इससे विपरीत लक्षण होते हैं । स्नेहनके कुष्ठी शोथी प्रमेही च स्नेहने न प्रयोजयेत् ॥३२॥ अतियोगसे पाण्डुता तथा नासिका, मुख और गुदसे स्राब होता| स्नेहैर्यथास्वं तान्सिद्धैः स्नेहयेदविकारभिः । है ॥ २४ ॥ २५॥ पिप्पलीभिर्हरीतक्या सिद्धैत्रिफलया सह ॥३३॥ . अस्निग्धातिस्निग्धचिकित्सा । कुष्ठ, शोथ तथा प्रमेहसे पीड़ित पुरुषोंके लिये ग्राम्य, आनूप रूक्षस्य स्नेहनं कार्यमतिस्निग्धस्य रूक्षणम् । | या औदकमांस, गुड, दही, दूध व तिलका प्रयोग स्नेहनके लिये श्यामाककोरदूषान्नतक्रपिण्याकसक्तभिः ॥२६॥न करना चाहिये। उनका उनके रोगोंको शान्त करनेबाली रूक्षतामें (स्नेहके अयोगमें ) स्नेहन तथा अतिस्निग्धके लिये| ओषधियों, पीपल, हर्र, त्रिफला, आदिसे सिद्ध, विकार न करनेसविा कोदाका भात, मट्ठा, तिलकी खली और सत्त खिलाकर वाले नहाँसे स्नेहन करना चाहिये ॥३२॥३३॥ रूक्षण करना चाहिये ॥२६॥ उपसंहारः। सद्यःस्नेह्याः। स्नेहमग्रे प्रयुजीत ततः स्वेदमनन्तरम् । स्नेहस्वेदोपपन्नस्य संशोधनमथान्तरम् ॥ ३४ ॥ बालवृद्धादिषु स्नेहपरिहारासहिष्णुषु ।। पहिले स्नेहन करना चाहिये, फिर स्वेदन करना चाहिये। योगानिमाननुद्वेगान्सद्यःस्नेहान्प्रयोजयेत् ॥ २७ ॥ स्नेहन, स्वेदन हो जानेपर संशोधन, वमन विरेचन, करना स्नेहके नियमोंको न पालन कर सकनेवालों तथा बालकों वारिणे ॥३॥ वृद्धोंके लिये उद्वेग न करनेवाले तथा तत्काल स्नेहन करनेवाले इन | इति स्नेहाधिकारः समाप्तः। योगोंका प्रयोग करना चाहिये ॥२७॥ स्नेहनयोगाः। अथ स्वेदाधिकारः। भ्रष्टे मांसरसे स्निग्धा यवागूः स्वल्पतण्डुला । सक्षौद्रा सेव्यमाना तु सद्यः स्नेहनमुच्यते ॥२८॥ सामान्यव्यवस्था । भूने मांसरसमें थोड़ेसे चावलोंकी यवागू बना स्नेह मिला| वातश्लेष्मणि वाते वा कफे वा स्वेद इष्यते । शहदके साथ सेवन करनेसे तत्काल स्नेहन होता है ॥२८॥ स्निग्धरूक्षस्तथा स्निग्धो रूक्षश्वाप्युपकल्पितः॥१॥ पाश्चप्रसूतिकी पेया। व्याधौ शीते शरीरे च महान्स्वेदो महाबले । सर्पिस्तैलवसामज्जातण्डुलप्रसृतैः शृता। दुर्बले दुर्बलः स्वेदो मध्यमे मध्यमो मतः ॥२॥ पाश्चप्रमृतिकी पेया पेया स्नेहनमिच्छता ॥२९॥ आमाशयगते वाते कफे पक्वाशयाश्रये । घी, तैल, वसा, मजा तथा चावल प्रत्येक एक प्रमृत रूक्षपूर्वो हितः स्वेदः स्नेहपूर्वस्तथैव च ॥३॥ (८ सोला) छोड़कर बनायी गयी ( तथा उपयुक्त जल मिला वातकफमें स्निग्ध रूक्ष, केवल वातमें स्निग्ध तथा केवल कर ) पेया सद्यः स्नेहन करती है, इसे “पाञ्चप्रमृतिकी पेया, कफी रूक्ष स्वेद करना हितकर है। तथा शीतजन्य तथा बल. कहते हैं ॥ २९॥ वान् रोग और बलवान् शरीरमें महान स्वेद और दुर्बलमें हीन तथा मध्यममें मध्य स्वेद हितकर है । तथा आमाशयगत वायुमें योगान्तरम् । पहिले रूक्ष स्वेद फिर स्निग्ध स्वेद करना चाहिये। इसी प्रकार पक्का सर्पिष्मती बहुतिला तथैव स्वल्षतण्डुला ।। शयगत ककमें पहिले स्निग्ध स्वेद करना चाहिये । अर्थात् आमा वोष्णा सेव्यमाना त सद्यः स्नेहनमच्यते ॥३०॥शय कफका स्थान है, अतः कफकी शान्तिक लिये पहिले रूक्ष शर्कराघृतसंसृष्टे दुह्याद्रां कलशेऽथवा । स्वेद करके ही स्निग्ध स्बेद करना चाहिये । इसी प्रकार पक्कापाययेदच्छमेतद्धि सद्यः स्नेहनमुच्यते ॥३२॥ शय वायुका स्थान होनेसे वहांपर पहुँचे कफकी चिकित्सा कर. अधिक तिल, थोड़े चाबल और घी मिलाकर ( तथा नेके लिये पहिले स्थानीय वायुकी शान्तिके लिये स्निग्ध स्वेद उपयुक्त जलमें ) बनायी गयी यवागू गरम गरम पानसे | करके ही रूक्ष स्वेद करना चाहिये ॥ १-३॥ तत्काल स्नेहन होता है । अथवा शक्कर, व घी दोहनीमें छोड़ अस्वेद्याः। ऊपर छन्ना रख गाय दुहकर तत्काल पीनेसे सद्य स्नेहन होता। वृषणो हृदयं दृष्टी स्वेदयेन्मृदु वा न वा। | मध्यमं वङ्क्षणी शेषमङ्गावयवमिष्टतः।। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२२) चक्रदत्तः। (स्वेदा - - न स्वेदयेदतिस्थूलरूक्षदुर्बलमूर्छितान् ॥ ४॥ अतिस्वेदन हो जानेपर फफोले पित्तरक्तका प्रकोप, नशा, स्तम्भनीयक्षतक्षीणविषमद्यविकारिणः । मूर्छा, चक्कर, दाह, ग्लानि तथा सन्धियोंकी पीड़ा और प्यास तिमिरोदरवीसर्पकुष्ठशोषाढयरोगिणः॥५॥ उत्पन्न होती है । इसमें विद्वानको शीतल क्रिया करनी पीतदुग्धदधिस्नेहमधून्कृतविरेचनान् । चाहिये ॥११॥ भ्रष्टदग्धगुदग्लानिक्रोधशोकभयार्दितान् ॥६॥ स्वेदप्रयोगविधिः। क्षुत्तृष्णाकामलापाण्डुमेहिनः पित्तपीडितान् ।। सर्वान्स्वेदान्निवाते तु जीर्णान्ने चावचारयेत । गर्भिणी पुष्पितां सूतां मृदुर्वात्ययिके गदे ।। ७ ।। येषां नस्य विधातव्यं बस्तिश्चापि हि देहिनाम् ॥१२ अण्डकोश हृदय और नेत्रोंका स्वेदन करना ही न चाहिये । शोधनीयास्तु ये केचित्पूर्व स्वेद्यास्तु ते मताः । अथवा अधिक आवश्यकता होनेपर मृदु स्वेदन करना चाहिये । पश्चात्स्वेद्या हृते शल्ये मूढगर्भानुपद्रवाः ॥ १३॥ पक्षणसन्धिमें मध्य तथा शेष अवयमि यथेष्ट स्वेदन करना | सम्यक्प्रजाता काले च पश्चात्स्वेद्या विजानता। चाहिये । अतिस्थूल, रूक्ष, दुर्बल, मूर्छित, स्तम्भनीय, क्षत स्वेद्याः पश्चाच पूर्व च भगन्दर्यशेसस्तथा ॥ १४ ॥ क्षीण, विष तथा मद्यविकारवाले, तिमिर, उदर, विसर्प, कुष्ठ, शोष, ऊरुस्तम्भवाले, तथा जिन्होंने दूध, दही, स्नेह या शहद समस्त स्वेद निवातस्थानमें तथा अन्न पच जानेपर करना पिया है, अथवा जिन्होंने विरेचन लिया है, तथा जिनकी गुदा चाहिये । तथा जिन्हें नस्य या बस्ति देना है, अथवा जिनका भ्रष्ट या दग्ध है, तथा ग्लानि, क्रोध, शोक या भयसे तथा शोधन करना है, उनका पहिले ही स्वेदन करना चाहिये भूख, प्यास, कामला, पाण्डु, प्रमेह और पित्तसे पीड़ित तथा। | तथा मुढगाके शल्य निकल जाने और कोई उपद्रव न होनेगर्भिणी, रजस्वला और प्रसूता स्त्रियां स्वेदनके अयोग्य है। पर बादमें स्वेदन करना चाहिये तथा जिसके यथोक्त समयपर अधिक आवश्यकता होनेपर इनका मृदु स्वेदन करना | सुखपूर्वक बालक उत्पन्न हुआ है, उसका भी बादमें स्वेदन चाहिये ॥४-७॥ करना चाहिये । भगन्दर और अर्शवालाको शस्त्रक्रियाके पहिले तथा अन्त भी स्वेदन करना चाहिये ॥१२-१४ ॥ __ अनाग्नेयः स्वेदः। स्वेदो हितस्त्वनानेयो वाते मेदःकफावृते । स्वेदाः। निर्वातं गृहमायासो गुरुप्रावरणं भयम् ॥ ८ ॥ तप्तैः सैकतपाणिकांस्यवसनैः स्वेदोऽथवाङ्गारकैउपनाहाहवक्रोधभूरिपानक्षुधातपाः । लेंपाद्वातहरैः सहाम्ललवणस्नेहैः सुखोष्णैर्भवेत् । स्वेदयन्ति दशैतानि नरमाग्निगुणाहते ॥९॥ एवं तप्तपयोऽम्बुवातशमनक्काथादिसेकादिभिमेद तथा कफसे आधुत वायुमें अनानेय स्वेद हितकर है। स्तप्ते तोयनिषेचनोद्भवबृहद्वाष्पैः शिलादो क्रमात् १५ वातरहित स्थान, परिश्रम, भारी रजाई, भय, पुल्टिस, युद्ध, तापोपनाहद्रवबाष्पपूर्वाः । क्रोध, अधिक मद्यपान, भूख और धूप यह दश “ अनानेय स्वेदास्ततोऽन्त्यप्रथमौ कफे स्तः । स्वेद" अर्थात् आग्निके विना ही स्वेदन करते हैं ॥ ८॥९॥ वायो द्वितीयः पवने कफे च पित्तोपसृष्टे विहितस्तृतीयः॥१६॥ सम्यकस्विन्नलक्षणम् । शीतशूलव्युपरमे स्तम्भगौरवनिप्रहे । गरम की हुई बालूकी पोटली, हाथ, कांस्यपात्र, कपड़ा, संजाते मार्दवे स्वेदे स्वेदनाद्विरतिर्मता ॥१०॥ अंगार अथवा वातहर पदार्थ, काजी, नमक, स्नेह मिलाकर शीत और शूलके शान्त हो जाने, जकडाहट और भारी-गरम किया लेप अथवा गरम जल, दूध अथवा वातनाशक पन नष्ट हो जाने और शरीरके मृदु हो जानेपर स्वेदन बन्द क्वाथादिका सेक अथवा पत्थरको गरम कर ऊपरसे वातनाशक कर देना चाहिये ॥१०॥ क्वाथ अथवा जल छोड़कर उठी हुई भाप इनमेंसे यथायोग्य स्वेदन करना चाहिये । सामान्यतः ताप, उपनाह, द्रव और अतिस्विनलक्षणं चिकित्सा च । बाष्प भेदसे स्वेद ४ प्रकारका है। उनमें ताप और बाष्प कफमें, स्फोटोत्पत्तिः पित्तरक्तप्रकोपो उपनाह वायुमें तथा पित्तयुक्त कफ वा वायुमें द्रव स्वेद मदो मूर्छा भ्रमदाही कृमश्च । हितकर है ॥ १५ ॥१६॥ अतिस्वेदे सन्धिपीडा तृषा च इति स्वेदाधिकारः समाप्तः। क्रियाः शीतास्तत्र कुर्याद्विधिज्ञः ॥ ११॥ । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - धिकारः] . भाषाटीकोपेतः। (३२३) न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न्न अथ वमनाधिकारः। मैरेठीके क्वाथमें अड़सा, इन्द्रयव, सेंधानमक व बचका कल्क और शहद मिलाकर पीनेसे ठीक वमन होता है । इसी 40 प्रकार प्रियंगुकी छाल चाबलके जल में पीस गरम कर गुनगुना २ पानसे कृत्रिम विष व पित्तकफज रोग शान्त होते हैं और सामान्यव्यवस्था। | वमन ठीक होता है । तथा ताम्रभस्मको शहहके साथ चाटकर स्निग्धस्विन्नं कफे सम्यक्संयोगे वा कफोल्बणे।। वमन करनेसे गरदोष (कृत्रिमबिष) नष्ट होता है। इसी प्रकार अडूसाका पञ्चांग, बच, नीम, परवल व प्रियंगुकी छालका क्वाथ श्वोवम्यमुक्लिष्टकर्फ मत्स्यमांसतिलादिभिः॥१॥ बना मैनफल मिला पीनेसे वमन होता है ॥६-९॥ यथाविकारं विहितां मधुसैन्धवसंयुताम् । कोष्ठ विभज्य भैषज्यमात्रां मन्त्राभिमन्त्रिताम्॥२॥ वमनार्थ काथमानम् । कफज तथा कफप्रधान संयोगजव्याधिमें ठीक ठीक स्नेहन, | काथ्यद्रव्यस्य कुडवं श्रपयित्वा जलाढके । स्वेदन कर पहिले दिन कफकारक मछलियाँ मांस और तिल चतुर्भागावशिष्टं तु वमनेष्ववचारयेत् ॥ १० ॥ आदि खिला कफ बढाकर दूसरे दिन प्रातःकाल रोगके अनुसार १६ तो० क्वाथ्य द्रव्य ले जल ६ सेर ३२ तोला मिलाकर बनायी गयी औषधमात्रामें शहद व सेंधानमक मिला मंत्रद्वारा पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर वमनके अभिमंत्रितकर रोगीको पिलाना चाहिये ॥१॥२॥ लिये काममें लाना चाहिये ॥१०॥ मन्त्रः । निम्बकषायः। "ब्रह्मदक्षाश्विरुन्द्रेद्रभूचन्द्रार्कानिलानलाः। निम्बकषायोपेतं फलिनीगदमदनमधुकसिन्धूत्थम् । ऋषयः सौषधिग्रामा भूतसङ्घाश्च पान्तु ते ॥३॥मधुयुतमेतद्वमनं कफतः पूर्णाशये सदा शस्तम् ॥११॥ रसायनमिवर्षीणां देवानाममृतं यथा । नीमकी पत्ती व छालके काढेमें प्रिया, कूठ, मैनफल, सधेवोत्तमनागानां भैषज्यमिदमस्तु ते" ॥४॥ मौरेठी व सेंधानमकका कल्क और शहद मिला पीकर वमन यह मंत्र सार्थक है। मंत्रार्थ-ब्रह्मा, दक्ष, अश्विनीकुमार, करना कफपूर्ण कोष्ठवालेको सदा हितकर होता है ॥ ११॥ रुद्र, इंद्र, भूमि, चन्द्र, सूर्य, वायु, अग्नि, ऋषि, ओषधियां और भूतगण तुम्हारी रक्षा करें। तथा यह औषध ऋषियोंके लिये वमनद्रव्याणि । रसायन, देवताओंके लिये अमृत तथा उत्तम नागोंके लिये सुधाके फलजीमूतकेक्ष्वाकुकुटजाः कृतवेधनः । समान तुम्हें गुणकारी हो॥३॥४॥ धामार्गवश्व संयोज्याः सर्वथा वमनेष्वमी ॥ १२ ॥ . वमनौषधपाननियमः। वमनके लिये मैनफल, वन्दाल, कडुई तोम्बी, कुड़ेकी छाल, पूर्वाह्ने पाययेत्पीतो जानुतुल्यासने स्थितः। कडुई तोरई और अरों तरोईका सब प्रकार (काथ, कल्क, तन्मना जातहृल्लासप्रसेकश्छदयेत्ततः ॥५॥ चूर्ण, अवलेह आदिका) प्रयोग करना चाहिये ॥ १२ ॥ अंगुलीभ्यामनायस्तनालेन मृदुनाथवा । वमनकारक औषध प्रातःकाल पिलाना चाहिये । तथा पीलेने सम्यग्वमितलक्षणम् । पर घुटनेके बराबर ऊँचे आसनपर वमन करनेके विचारसे बैठना क्रमात्कफः पित्तमथानिलश्च चाहिये । फिर मिचलाई तथा मुखसे पानी आनेपर वमन ___ यस्यति सम्यग्वमितः स इष्टः । करना चाहिये । यदि इस प्रकार वमन न हो, तो अंगुली डाल-| हृत्पार्श्वमूर्धेन्द्रियमार्गशुद्धी कर अथवा मृदु नालसे वमन करना चाहिये ॥५॥ तनोर्लघुत्वेऽपि च लक्ष्यमाणे ॥ १३ ।। वमनकरा योगाः। जिसके कफ, पित्त व वायु क्रमशः आते हैं, हृदय, पस- . वृषेन्द्रयवसिन्धूत्थवचाकल्कयुतं पिबेत् । लियां, मस्तक और इन्द्रियां तथा मार्ग शुद्ध होते हैं, तथा शरीर यष्टीकषायं सक्षौद्रं तेन साधु वमत्यलम ॥६॥ | हल्का होता है, उसे ठीक वमित समझना चाहिये ॥१२॥ तण्डुलसलिलानष्पिष्टं यः पीत्वा वमति पूर्वाह्ने । दुर्वमितलक्षणम् । फलिनीवल्कलमुष्णं हरति गरं पित्तकफजं च ॥७॥ दुश्चर्दिते स्फोटककोठकण्डूक्षौद्रलीढं ताम्ररजो वमनं गरदोषनुत् ॥८॥ वक्त्राविशुद्धिर्गुरुगात्रता च । आंटरूष वचां निम्बं पटोलं फलिनीत्वचम् । तृण्मोहमूर्छानिलकोपनिद्राकाथयित्वा पिबेत्तोयं वान्तिकृन्मदनान्वितम् ॥९॥। बलातिहानिर्वमितेऽतिविद्यात् ॥ ११ ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मww - (३२४) चक्रदत्तः। । [विरेचनासन्च वमन ठीक न होनेपर फफोले, ददरे या खुजली उत्पन्न हो। वमन, विरेचन तथा शोणितमोक्षणमें १३॥ पल अर्थात् ५४ जाती, मुख खराब तथा शरीरमें भारीपन होता है । तथा| तो० का प्रस्थ विद्वान् लोग मानते हैं ॥ १९॥ आतवमन हो जानेपर प्यास, मोह, मूर्छा, चातकोप, निद्रा और बलको बहुत हानि होती है ॥ १४ ॥ अयोगातियोगचिकित्सा। संसर्जनक्रमः। अयोगे लङ्घनं कार्य पुनर्वापि विशोधनम् । अतिवान्तं घृताभ्यक्तमवगाह्य हिमे जले ॥२०॥ ततः सायं प्रभाते वा क्षुद्वान्पेयादिकं भजेत् ॥१५॥ उपाचरेत्सिताक्षौद्रमित्रैलेंहश्चिकित्सकः पेयां विलेपीमकृतं कृतं च वमनेऽतिप्रवृत्ते तु हृद्यं कार्य विरेचनम् ॥ २१ ॥ यूषं रसं त्रिईिरथैकशश्च । अयोग होनेपर लंघन करना चाहिये । अथवा फिर शोधन क्रमेण सेवेत विशुद्धकायः करना चाहिये । तथा वमनका अतियोग होचेपर घीकी मालिश प्रधानमध्यावरशुद्धिशुद्धः ॥१६॥ कर ठण्ढे जलमें बैठाना चाहिये । और मिश्री व शहद मिले लेह फिर 'सायंकाल अथवा प्रातःकाल भूख लगनेपर ( वमन चटाना चाहिये । तथा हृद्य विरेचन देना चाहिये ॥ २० ॥२१॥ ठीक हो जानेपर ) पेया आदिक क्रम प्रारम्भ करे । प्रधान, मध्य, और हीन शुद्धिमें क्रमशः तीन तीन अन्नकाल, दो दो अवाम्याः । अन्नकाल अथवा एक अन्नकालतक पेया, विलेपी, अकृतयूष, न वामयेत्तैमिरिकं न गुल्मिनं कृतवूष अथवा मांसरसका सेवन करना चाहिये ।। १५॥१६॥ ___ न चापि पाण्डूदररोगपीडितम् । हीनमध्योत्तमशुद्धिलक्षणम् । स्थूलक्षतक्षीणकृशातिवृद्धा नोंर्दिताक्षेपकपीडितांश्च ॥ २२ ॥ जघन्यमध्यप्रवरे तु वेगाश्वत्वार इष्टा वमने षडष्टी। रूक्षे प्रमेहे तरुणे च गर्भ दशैव वे द्वित्रिगुणा विरेके ___ गच्छत्यथोव रुधिरे च तीव्र। प्रस्थस्तथा द्वित्रिचतुर्गुणश्च ॥ १७ ॥ दुष्टे च कोष्ठे क्रिमिभिर्मनुष्यं वमनमें क्रमशः चार, छः, आठ तथा विरेचनमें क्रमशः | न बामयेदर्शसि चातिवृद्धे ॥ २३ ॥ १०, २०, ३० वेग हीन, मध्यम, व उत्तम कहे जाते हैं । तथा एतेऽप्यजीर्णव्यथिता वाम्या ये च विषातुराः । विरेचनमें २ प्रस्थ, ३ प्रस्थ अथवा ४ प्रस्थ, मलका निकलना अत्युल्वणकफा ये च ते च स्युर्मधुकाम्बुना ॥२४॥ हीन, मध्यम व उत्तम कहा जाता है ॥ १७ ॥ तिमिर, गुल्म, पाण्डु तथा उदररोगसे पीड़ित, मोटे, क्षत क्षीण, कुश, अतिवृद्ध, अर्श और आक्षेपसे पीड़ित, रूक्ष, शुद्धिमानम्। | प्रमेही, नवीन गर्भवती तथा ऊर्ध्वगामी रक्तपित्तसे पीड़ित व पित्तान्तमिष्टं वमनं विरेका क्रिमिकोष्ठवाले तथा बढ़े हुए अर्शमें बमन नहीं कराना चाहिये। दर्ध कफान्तं च विरेकमाहुः। पर इन्हें भी यदि अजीर्ण या विषका असर हो गया हो, तो द्वित्रान्सविट्कानपनीय वेगान् बमन कर देना चाहिये । तथा यदि कफ अधिक बढा हुआ मेयं विरेके वमने तु पीतम् ॥ १८॥ हो, तो मौरेठीके क्वाथसे वमन करा देना चाहिये ॥२२-२४॥ वमन करते करते जब पित्त आने लग जाय, तब ठीक वमन ' इति वमनाधिकारः समाप्तः । समझना चाहिये। तथा वमनमें विरेचनसे आधा मल (उत्तम २ प्रस्थ, मध्यम १॥ प्रस्थ, हीन १ प्रस्थ) निकलना चाहिये । और विरेचनमें कफ आने लगे, तब उत्तम विरेचन समझना चाहिये । तथा विरेचनमें मलयुक्त २ या ३ वेग छोड़कर गिनना चाहिये । तथा वमनमें पीतमात्रको छोड़कर गिनना सामान्यव्यवस्था। चाहिये ॥१८॥ स्निग्धस्विन्नाय वान्ताय दातव्यं तु विरेचनम् । ' अन्यथा योजितं ह्येतद ग्रहणीगदकृन्मतम् ॥१॥ प्रस्थमानम् । पूर्वोक्तविधिसे स्नेहन, स्वेदन तथा वमन कराकर विरेचन वमने च विरेके च तथा शोणितमोक्षणे । देना चाहिये, अन्यथा विरेचन करानेसे ग्रहणीरोग उत्पन्न हो सार्धत्रयोदशपलं प्रस्थमाहुर्मनीषिणः ॥ १९॥ जाता है ॥ १॥ अथ विरेचनाधिकारः। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (३२५) कोष्ठविनिश्चयः। त्रिवृतादिगुटिका लेहो वा । . मृदुः पित्तेन कोष्ठः स्यात्क्रूरो वातकफाश्रयात् । त्रिवृच्छाणत्रयसमा त्रिफला तत्समानि च । मध्यमः समदोषत्वाद्योज्या मात्रानुरूपतः॥२॥ क्षारकृष्णाविडङ्गानि तचूर्ण मधुसर्पिषा ॥७॥ पित्तसे मृदुकोष्ठ, वातकफसे क्रूरकोष्ठ तथा सम दोषोंसे मध्य लिह्याद् गुडेन गुडिकां कृत्वा वाप्युपयोजयेत् । कोष्ठ होता है। उसीके अनुसार मात्रा तथा औषध निश्चित कफवातकृतान्गुल्मान्प्लीहोदरभगन्दरान् ॥८॥ करना चाहिये ॥२॥ हन्त्यन्यानपि चाप्येतन्निरपायविरेचनम् । मृदुविरेचनम् । निसोथ ९ माशे, त्रिफला ९ माशे, जवाखार, छोटी पीपल, वायविडंग तीनों मिलकर ९ माशे चूर्ण कर शहद व घीके साथ शर्कराक्षौद्रसंयुक्तं त्रिवृच्चूर्णावचूर्णितम् । चाटना चाहिये । अथवा गुड़के साथ गोली बनाकर प्रयोग करना रेचनं सुकुमाराणां त्वक्पत्रमरिचांशिकम् ।। चाहिये । यह कफवातज गुल्म, प्लीहा, उदररोग, भगन्दर तथा त्रिवृचूर्ण सितायुक्तं पिबेच्छ्रेष्ठं विरेचनम् ॥ ३॥ अन्य रोगोंको नष्ट करता है । तथा आपत्तिरहित निसोथका चूर्ण ४ भाग, दालचीनी, तेजपात, काली मिर्च | विरेचन है ॥ ७ ॥ ८ ॥इनका मिलित चूर्ण १ भाग मिश्री सबके समान मिला शहदके अभयायो मोदकः। साथ सुकुमारोंको चटाना चाहिये । (चूर्णमात्रा ६ माशेसे १ तोलातक) अथवा केवल निसोथका चूर्ण मिश्री मिला (गरम अभया पिप्पलीमूलं मारचं नागरं तथा ॥९॥ दूध या जल आदिके साथ) पीना चाहिये । यह श्रेष्ठ त्वपत्रपिप्पलीमुस्तविडङ्गामलकानि च । विरेचन है ॥३॥ कर्षः प्रत्येकमेषां त दन्त्याः कर्षत्रयं तथा ॥१०॥ षट्कर्षाश्च सितायास्तु द्विपलं त्रिवृतो भवेत् । इक्षुपुटपाकः। सर्व सुचूर्णितं कृत्वा मधुना मोदकं कृतम् ॥११॥ छित्त्वा द्विधेहूं परिलिप्य कल्कै खादेत्प्रतिदिनं चैकं शीतं चानुपिबेजलम् । स्त्रिभण्डिजातैः परिवेष्टय बद्ध्वा । तावद्विरिच्यते जन्तुर्यावदुष्णं न सेवते ॥ ११ ॥ पकं तु सम्यक्पुटपाकयुक्त्या पाण्डुरोगं विष कासं जङ्घापावरुजी तथा । खादेत्तु तं पित्तगदी सुशीतम् ॥४॥ पृष्ठाति मूत्रकृच्छं च दुर्नाम सभगन्दरम् ॥ १३ ॥ पौडेको बीचों बीचसे फाड़कर निसोथके कल्कका लेप करना अश्मरीमेहकुष्ठानि दाहशोथोदराणि च । चाहिये । ऊपरसे डोरेसे बांधकर पुटपाक विधिसे ( अर्थात् यक्ष्माणं चक्षुवो रोगं क्रम वैद्येन जानता। ऊपरसे एरण्डादिपत्र लपेट मिट्टीसे लेपकर सुखा ) पकाकर | योजितोऽयं निहन्त्याशु अभयाद्यो हि मोदकः १४ ।। ठण्ढा हो जानेपर पित्तरोगवालेको चूसना चाहिये ॥४॥ बड़ी हर्रका छिल्का, पिपरामूल, काली मिर्च, सोंठ, दालपिप्पल्यादिचूर्णम् । चीनी, तेजपात, छोटी पीपल, नागरमोथा, वायविडंग, आंवला प्रत्येक १ तोला, दन्तीकी छाल ३ तो०, मिश्री ६ तोला, पिप्पलीनागरक्षारं श्यामा त्रिवृतया सह । निसोथ ८ तोला सबका चूर्णकर १ तो० की गोली बना प्रतिदिन लेहयन्मधुना साधै कफव्याधौ विरेचनम् ॥५॥ गोली खानी चाहिये । ऊपरसे ठण्डा जल पीना चाहिये । कफज रोगों, छोटी पीपल, सोंठ, जवाखार, निसोथ, इससे उस समयतक दस्त आते हैं, जबतक रोगी गरम जल नहीं काला निसोथका चूर्णकर शहदके साथ चटाना चाहिये । इससे | पीता। यह पाण्डुरोग, विष, कास, जंघा व पसलियोंके शूल, विरेचन ठीक होता है ॥५॥ |पीठके दर्द, मूत्रकृच्छ्र, अर्श,भगन्दर, अश्मरी, प्रमेह, कुष्ठ, दाह, शोथ, उदररोग तथा नेत्ररोगको योग्य वैद्यद्वारा प्रयुक्त होनेपर . · हरीतक्यादिचूर्णम् । नष्ट करता है । इसे "अभयादिमोदक" कहते हैं ॥९-१४ ॥ हरीतकी विडङ्गानि सैन्धवं नागरं त्रिवृत् । एरण्डतैलयोगः। मरिचानि च तत्सर्व गोमूत्रेण विरेचनम् ॥ ६॥ बड़ी हर्रका छिल्का, वायविडंग, सेंधानमक, निसोथ, सोंठ। एरण्डतैलं त्रिफलाक्वाथेन द्विगुणेन च । तथा काली मिर्च के चूर्णको गोमूत्रके साथ पीनेसे श्रेष्ठ विरेचन युक्तं पीत्वा पयोभिर्वा न चिरेण विरिच्यते ॥१५॥ होता है ॥६॥ एरण्डतैल ( २ तोलेसे ४ तोले तककी मात्रामें ले) Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२६) चक्रदत्तः। [विरेचना-. द्विगुण त्रिफलाक्वाथ अथवा दूधके साथ पानसे शीघ्र विरेचन | सायंकालसे प्रारम्भ कर देना चाहिये । जिस प्रकार थोड़ी भाग्नि होता है ॥१५॥ थोड़े थोड़े तृण या गोबर आदिसे धीरे धीरे बढ़ानेसे बहुत समय तक रहनेवाली तथा सब कुछ जला देनेकी सामर्थ्य युक्त हो सम्यग्विरिक्तलिंगम्। जाती है। इसी प्रकार शुद्ध पुरुषकी अन्तराग्नि पेयादि सेवन स्रोतोविशुद्धीन्द्रियसम्प्रसादौ करनेसे दीप्त हो जाती है ॥ १९ ॥२०॥ __ लघुत्वमू|ऽग्निरनामयत्वम् । प्राप्तिश्च विपित्तकफानिलानां ___ यथावस्थं व्यवस्था। सम्यग्विरिक्तस्य भवेत्क्रमण ॥१६॥ कषायमधुरैः पित्ते विरेकः कटुकैः कफे । ठीक विरेचन हो जानेपर शरीरके समस्त स्रोतस शुद्ध, इन्द्रियां | स्निग्धोष्णलवणायावप्रवृत्ते च पाययत् ॥२१॥ प्रसन्न, शरीर हल्का, आनि बलवान् , आरोग्यता तथा क्रमशः | उष्णाम्बु स्वेदयेच्चास्य पाणितापेन चोदरम् । मल, पित्त, कफ और वायुका आगमन होता है ॥१६॥ उत्थानेऽल्पे दिने तस्मिन्भुक्त्वान्येद्युः पुनः पिबेत् ॥ दुर्विरिक्तलिंगम् । अदृढस्नेहकोष्ठस्तु पिबेदूर्व दशाहतः। स्याच्छ्लेष्मापत्तानिलसंप्रकोपः भूयोऽप्युपस्कृततनुः स्नेहस्वैदेविरेचनम् ॥ २३ ॥ ___ सादस्तथाग्नेगुरुता प्रतिश्या । यौगिकं सम्यगालोच्य स्मरन्पूर्वमनुक्रमम् । तन्द्रा तथा छर्दिररोचकश्च दुर्बलः शोधितः पूर्वमल्पदोषः कृशो नरः। वातानुलोम्यं न च दुर्विरिक्ते ॥१७॥ अपरिज्ञातकोष्ठस्तु पिबेन्मृद्वल्पमौषधम् ॥ २४ ॥ ठीक विरेचन न होनेपर कफपित्त और वायुका प्रकोप, रूक्षबह्वनिलक्रूरकोष्ठव्यायामसेविनाम् । अमिमान्य, भारीपन,जुखाम, तन्द्रा, वमन तथा अरुचि होती है। दीप्तानीनां च भैषज्यमविरेच्यैव जीयति ॥ २५ ॥ और वायुका अनुलोमन नहीं होता ॥ १७ ॥ तेभ्यो वस्ति पुरा दद्यात्ततः स्निग्धं विरेचनम् । अस्निग्धे रेचनं स्निग्धं रूक्षं स्निग्धेऽतिशस्यते ॥२६ अतिविरिक्तलक्षणम् । कफास्रपित्तक्षयजानिलोत्थाः पित्तमें कषैले तथा मधुर द्रव्योंसे, कफमें कटु द्रव्योंसे वायुमें सुप्त्यङ्गमर्दक्लमवेपनाद्याः । चिकने, गर्म और नमकीन द्रव्योंसे विरेचन देना चाहिये । इस प्रकार दस्त न आनेपर ऊपरसे गरम जल पिलाना चाहिये। तथा निद्राबलाभावतमः प्रवेशाः हाथोंको गरम कर पेटपर फिराना चाहिये । उस दिन कम दस्त सोन्मादहिक्काश्च विरेचितेऽति ॥१८॥ आनेपर दूसरे दिन फिर विरेचन देना चाहिये । पर जो पुरुष दृढ विरेचनका आतंयोग होनेपर कफ, रक्त व पित्तकी क्षीणतासे | | तथा स्निग्धकोष्ठ न हो, उसे दश दिनके बाद फिर स्नेहन, बढे वायुके रोग, सुप्ति, अङ्गमर्द, ग्लानि, शरीरकम्प, निद्रानाश,I, निद्रानाश, स्वेदनसे शरीर ठीक कर तथा पूर्वके क्रमको ध्यानमें रखते हुए बलनाश तथा नेत्रोंके सामने अँधेरा छा जाना, उन्माद और | ठीक ठीक विचार कर विरेचन देना चाहिये । दुर्बल पुरुष, हिक्का आदिरोग उत्पन्न हो जाते हैं ॥१८॥ पूर्वशोधित, अल्पदोष तथा कृश पुरुष और अपरिज्ञात कोष्ठवालेको . पथ्यनियमः। पहिले मृदु व अल्पमात्र औषध देना चाहिये । तथा रूक्ष, अधिक मन्दाग्निमक्षणिमसाद्वरिक्त वायु, क्रूरकोष्ठ तथा व्यायाम करने वालों को विना विरेचन किये न पाययेत्तदिवसे यवागूम् । ही औषध हजम हो जाती है । अतः ऐसे लोगोंको प्रथम स्नेह बस्ति देकर फिर स्निग्ध विरेचन देना चाहिये । जो रूक्ष हैं, उन्हें विपर्यये तदिवसे तु सायं स्निग्ध विरेचन तथा जो अधिक स्निग्ध हैं, उन्हें रूक्ष विरेचन देना पेयाक्रमो वान्तवदिष्यते तु ॥ १९॥ चाहिये। जिसको स्नेहका अभ्यास है, उसे पहिले रूक्षण कर फिर यथाणुराग्निस्तृणगौमयाद्यैः स्नेहन करना चाहिये, तब विरेचन देना चाहिये ॥२१-२६ ॥ सन्धुक्ष्यमाणो भवति क्रमेण । अतियोगचिकित्सा। महान्स्थिरः सर्वसहस्तथैव । शुद्धस्य पेयादिभिरन्तरग्निः ॥२०॥ विरूक्ष्य स्नेहसात्म्यं तु भूयः स्निग्धं विरेचयेत् । विरेचन हो जानेके अनन्तर जिसकी अग्नि दीप्त नहीं हुई। पद्मकोशीरनागाह्वचन्दनानि प्रयोजयेत् ॥ २७॥ तथा रोगी क्षीण नहीं है, उसे उस दिन पथ्य न देना चाहिये ।। अतियोगे विरकस्य पानालेपनसेचनैः । इससे विपरीत होनेपर उसी दिनसे वमनके अनुसार पेयादिक्रम सौवीरापिष्टाम्रवल्कलनाभिलेपोऽतिसारहा ॥ २८॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः भाषाटीकोपेतः। (३२७, www विरेचनके अतियोगमें पीने. लेप तथा सिजनके लिये पद्याख. |आधा आधा पल बढाना चाहिये । मध्य मात्रामें पहिले १ खश, नागकेशर और चन्दनका प्रयोग करना चाहिये । तथा पल देना चाहिये । फिर एक कर्षके क्रमसे बढाना चाहिये । काजीमें पिसी आमकी छालका नाभिपर लेप करनेसे विरेचन हीन मात्रामें पहिले २ कर्ष फिर ८ माशे ( वर्तमान ६ माशे) बन्द होता है ॥ २७ ॥२८॥ प्रतिदिन बढाते हुए पूर्ण मात्रा करनी चाहिये । यह मात्रा | वृद्धिका क्रम है ॥३॥४॥ अविरेच्याः । अविरच्या बालवृद्धश्रान्तभीतनवज्वराः । विधिः। अल्पाग्न्यधोगपित्तास्रक्षतपाय्वतिसारिणः॥२९॥ माषमात्रं पले स्नेहे सिन्धुजन्मशताह्वयोः। सशल्या स्थापितक्रूरकोष्ठातिस्निग्धशोषिणः । । स तु सैन्धवचूर्णेन शताहृन च संयुतः ॥५॥ गर्भिणी नवसूता च तृष्णार्तोऽजीर्णवानपि ॥३०॥ भवेत्सुखोष्णश्च तथा निरति सहसा सुखम् । बालक, वृद्ध, थके हुए, डरे, नवज्वरवाले, अल्पाग्नि तथा विरिक्तश्चानुवास्यश्चेत्सप्तरात्रात्परं तदा ॥६॥ अधोगामी रक्तपित्तवाले तथा जिनकी गुदामें व्रण है, तथा १पल स्नेहमें सेंधानमक और सौंफ १ माशे मिलाना अतीसारवाले, सशल्य तथा जिन्हें आस्थापन बस्ति दी गयी है, चाहिये और कुछ गरम कर बस्ति देना चाहिये । इससे वस्ति तथा क्रूरकोष्ठवाले अतिस्निग्ध, राजयक्ष्मावाले, गर्भिणी, नवप्रसूता | शीघ्रही प्रत्यावर्तित हो जाती है । तथा विरेचनके साथ दिनके तथा अजीर्णी यह सब विरेचनके अयोग्य हे, इन्हें विरेचन नअनन्तर अनुवासन बस्ति देना चाहिये ॥५॥६॥ करना चाहिये ॥ २९ ॥३०॥ इति विरेचनाधिकारः समाप्तः । अथ बस्तिवस्तिनेत्रविधानम् । सुवर्णरूप्यत्रपुताम्ररीतिअथानुवासनाधिकारः। कांस्यायसास्थिदुमवेणुदन्तैः । नलैर्विवाणैर्मणिभिश्च तैस्तैः कार्याणि नेत्राणि सुकर्णिकानि ॥७॥ वातोल्बणेषु दोषेषु वात वा बस्तिरिष्यते। . षद्वादशाष्टाङ्गुलसम्मितानि यथोचितात्पादहीनं भोजयित्वानुवासयेत् ।। १ ।।। षड्विंशतिद्वादशवर्षजानाम् । न चाभुक्तवते स्नेहः प्रणिधेयः कथञ्चन । स्युर्मुगकर्कन्धुसतीनवाहिसूक्ष्मत्वाच्छून्यकोष्ठस्य क्षिप्रमूर्ध्वमथोत्पतेत् ॥२॥ च्छिद्राणि वा पिहितानि चापि ॥८॥ वातप्रधान दोषोंमें तथा केवल वायुमें बस्ति देना चाहिये यथा वयोऽङ्गुष्ठकनिष्ठिकाभ्यां और भोजनका जैसा अभ्यास हो, उससे चतुर्थांश कम भोजन __ मूलाग्रयोः स्युः परिणाहवन्ति । कराकर बस्ति देना चाहिये । विना भोजन कराये स्नेहवास्ति ऋजूनि गोपुच्छसमाकृतीनि न देना चाहिये। क्योंकि स्नेह सूक्ष्म होनेसे शून्यकोष्ठवाले श्लक्ष्णानि च स्युर्मुडिकामुखानि ॥ ९॥ पुरुषके शीघ्र ही ऊपर आ जाता है ॥१॥२॥ स्यात्कर्णिकैकाग्रचतुर्थभागे स्नेहमात्राक मौ। मूलाश्रिते बस्तिनिबन्धने द्वे । षट्पली च भवेच्छेष्ठा मध्यमा त्रिपली भवेत् ।। जारद्वो माहिषहारिणौ वा कनीयसी सार्धपला त्रिधा मात्रानुवासने ॥ ३॥ . ___ स्याच्छोकरो बस्तिरजस्य वापि ॥ १०॥ प्राग्देयमाद्य द्विपलं पलार्ध दृढस्तनुर्नष्टशिरोविबन्धः वृद्धिर्द्वितीये पलम वृद्धिः। ___ कषायरक्तः सुमृदुः सुशुद्धः । कर्षद्वयं वा वसुमाष द्ध नृणां वयो वीक्ष्य यथानुरूपं बस्ती तृतीये क्रम एष उक्तः ॥४॥ नेत्रेषु योज्यस्तु सुबद्धसूत्रः ॥ ११ ॥ __ छः पल ( २४ तोला ) की श्रेष्ठ," ३ पल ( १२ तो०)। सानो, चांदी, रांगा, तांबा, पीतल, कांसा, लोहा, हड्डी की "मध्यम" और १॥पल (६ तोला ) की"हीन" इस प्रकार वृक्ष, बांस, दांत, नरसल, सींग और मणि आदिमेंसे किसी अनुवासनकी ३ मात्राएँ होती हैं। पर बस्तिमात्रा पहिलेसे ही एकसे उत्तम नेत्र (नल ) बनाना चाहिये । नेत्रके अप्रभापूर्ण न देनी चाहिये । श्रेष्ठ मात्रा पहिले २ पल देना फिर गर्ने चतुर्थोश छोड़कर कर्णिका ( अंकुर ) रखना चाहिये । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२८) चक्रदत्तः। - [अनुवासना और छः वर्षके बालकके लिये ६ अंगुल, बारह वर्षवालेके लिये 'निरूहदानेऽपि विधिरयमेव समीरितः। ८ अंगुल और २० वर्षवालेके लिये १२ अंगुलका नेत्र (नल)। ततः प्रणिहिते स्नेहे उत्तानो वाक्शतं भवेत् । बनाना चाहिये और उनमें क्रमशः मूंग, मटर और छोटे बेरके प्रसारितैः सर्वगात्रैस्तथा वीर्य प्रसर्पति ॥ १८॥ बराबर छिद्र होना चाहिये । नेत्रका मुख बत्तीसे बन्द रखना आकुञ्चयेच्छनस्त्रिस्त्रिः सक्थिबाहू ततःपरम् । चाहिये, तथा अवस्थाके अनुसार न्यूनाधिकका भी निश्चय ताडयेत्तलयोरेनं त्रीस्त्रीन्वाराञ्छनैः शनैः ॥ १९॥ करनी चाहिये । नेत्र सामान्यतः मूलमें अँगूठेके समान और अग्रभागमें कनिष्ठिकाके समान मोटा, गोपुच्छसदृश चढा उतार स्फिचोश्चैनं ततः श्रोणिं शय्यां त्रिरुरिक्षपेच्छनैः। तथा चिकना बनाना चाहिये और मुखपर गुटिका बनानी एवं प्रणिहिते बस्ती मन्दायासोऽथ मन्दवाक् ॥२० चाहिये। अग्रभागमें जो कर्णिका बनायी जाय, वह चौथाई अस्तीर्णे शयने काममासीताचारिके रतः हिस्सा आगेका छोड़कर बनाना चाहिये और मूलमें बस्ति | योज्यः शीघ्र निवृत्तेऽन्यःतिष्ठन्न कार्यकृत् ॥ २१ ॥ बांधनेके लिये २ कर्णिका ( कंगूरा) रहना चाहिये । बस्तिं थोड़ा चला फिराकर दस्त व लघुशंका साफ हो जानेपर पुराने बैल, भैंस, हरिण, सुआ या बकरेकी दृढ, पतली, शिरा- सुखदायक, न वहुत ऊची, न बहुत ऊंचे तकियेवाली शय्यापर औरहित, कषायरङ्गसे रङ्गी हई. मुलायम, शुद्ध तथा रोगीकी | रोगीको वाम करबट लिटा, दहिना पैर समेट वाम पैर फैलाकर अवस्थाके अनुसार लेनी चाहिये और उसे सत्रसे नेत्रमें बांधना | वैद्यको वाम हाथमें बस्ति लेकर दहिने हाथसे दबाना चाहिये । चाहिये ॥ ७-११॥ बस्ति देनेके पहिले नेत्रमें तथा गुदामें स्नेह लगा लेना चाहिये तथा बस्तिका मुख फुला औषध भरकर बांध देना चाहिये। - निरूहानुवासनमात्रा। फिर हाथ न कंपाते हुए न बहुत जल्दी न बहुत देरमें न बडे निरूहमात्रा प्रथमे प्रकुञ्चो वत्सरात्परम् ।। वेगसे न मन्द ही एक बारगी (आगे मुखकी बत्ती निकालकर ) प्रकुश्चवृद्धिः प्रत्यब्दं यावत्षट्प्रसृतास्ततः ॥ १२॥ दबाना चाहिये तथा कुछ औषध रख छोड़ना चाहिये । क्योंकि शेषमें वायु रहती है । निरूहदानकी भी यही विधि है । इस प्रसृतं वर्धयेदूर्ध्व द्वादशाष्टादशस्य तु । प्रकार स्नेहबस्ति देनेपर १०० मात्रा उच्चारण कालतक समस्त आसप्ततेरिदं मानं दशैव प्रसृताः परम् ॥ १३ ॥ | अङ्ग फैलाकर उताने सोना चाहिये । इस प्रकार औषधकी शक्ति यथायथं निरूहस्य पादो मात्रानुवासने । बढती है । इससे अनन्तर ३ बार धीरे धीरे हाथ, पैर समेटना ब निरूहणकी मात्रा प्रथम वर्ष ४ तोला, फिर प्रतिवर्ष ४ फैलाना चाहिये तथा तीन तीन बार पैरके तलुवों तथा चूतडोंको तोला बढाना चाहिये जबतक ४८ तोला न हो जाय। और फिर ठोकना चाहिये, फिर ३ बार धीरे धीरे शय्या तथा कमर प्रति वर्ष ८ तो० वढाना चाहिये, जबतक कि ९६ तो० न हो उठाना चाहिये तथा बस्ति दे देनेपर कम परिश्रम करना तथा जाय। इस प्रकार १८ वर्षसे ७० बर्षतक यही मान अर्थात कम बोलना चाहिये । बिछी हुई चारपाईपर सुखपूर्वक बैठना ९६ तो० रखना चाहिये । तथा ७० वर्षके बाद ८० तोला या सोना चाहिये । पर आचारका ध्यान रखना चाहिये । की ही मात्रा देनी चाहिये । निरूहणकी चतुर्थाश मात्रा अनु-| | स्नेहबस्तिद्वारा प्रमुक्त स्नेहके शीघ्र ही निकल जानेपर शीघ्र ही वासन बस्तिकी देनी चाहिये । (क्वाथप्रधान बस्तिको “निरू- | फिर स्नेहबस्ति देना चाहिये । क्योंकि स्नेह बिना कुछ देर रुके हणबस्ति "और स्नेहप्रधान बस्तिको “अनुवासन बस्ति " कहते | कार्यकर नहीं होता ॥ १४-२१॥ हैं)॥१२॥१३॥ सम्यगनुवासितलक्षणम् । बस्तिदानविधिः। सानिलः सपुरीषश्च स्नेहः प्रत्येति यस्य वै । कृतचक्रमणं मुक्तविण्मूत्रं शयने सुखे ॥ १४ ॥ विना पीडां त्रियामस्थःस सम्यगनुवासितः ॥२२॥ नात्युच्छूिते न चोच्छीर्षे संविष्टं वामपार्श्वतः। जिसका स्नेह ९ घण्टेतक रहकर विना पीड़ा किये वायु संकोच्य दक्षिणं सक्थि प्रसार्य च ततोऽपरम। और मलके साथ निकलता है, उसे ठीक अनुवासित बस्ति सव्ये करे कृत्वा दक्षिणेनावपाडयेत् ॥ १५॥| समझना चाहिये ॥ २२ ॥ तथास्य नेत्रं प्रणयेत्स्निग्धे स्निग्धमुखं गुदे । | अनुवासनोत्तरोपचारः। उच्छ्वास्य बस्तेर्वदनं बद्ध्वा हस्तमकम्पयन्॥१६॥ क्वाथार्धमात्रया प्रातर्धान्यशुण्ठीजलं पिबेत् । पृष्ठवंशं प्रति ततो नातिदुतविलम्बितम् । पित्तोत्तरे कदुष्णाम्भस्तावन्मानं पिबेदनु ॥ २३ ॥ नातिवेगं न वा मन्दं सकृदेव प्रपीडयेत् । तेनास्य दीप्यते वह्निर्भक्ताकाङ्क्षा च जायते । सावशेषं प्रकुर्वीत वायुः शेषे हि तिष्ठति ॥ १७॥ अहोरात्रादपि स्नेहः प्रत्यागच्छन्न दुष्यति ॥२४॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः ] । कुर्याद्वस्तिगुणांश्चापि जीर्णस्त्वल्पगुणो भवेत् । यस्य नोपद्रवं कुर्यात्स्नेहवस्तिरनिःसृतः ॥ २५ ॥ सर्वोऽल्पो वा वृतो रौक्ष्यादुपेक्ष्यः संविजानता दूसरे दिन षडंगपानीय विधिसे सिद्ध धनियाँ और सोंठका जल क्वाथकी आधी मात्रा में देना चाहिये । तथा पित्तकी प्रधानतामें केवल गुनगुना जल ही देना चाहिये । इससे अग्नि दीप्त होती तथा भोजनमें रुचि होती है । स्नेह यदि ९ घण्टेमें न आकर २४ घण्टेमें आ जावे, तो भी कोई दोष नहीं। होता और बस्तिके गुणोंको करता है । किन्तु स्नेह पच जानेपर गुण कम करता है । पर जिसका रूक्षताके कारण थोड़ा या सभी स्नेह न निकले, उसकी उपेक्षा करनी चाहिये ॥२३-२५॥स्नेहव्यापच्चिकित्सा । भाषाटीकोपेतः । अनायान्तमहोरात्रात्स्नेहं सोपद्रवं हरेत् ॥ २६॥ स्नेहबस्तावनायाते नान्यः स्नेहो विधीयते । अशुद्धस्य मलोन्मिश्रः स्नेहो नैति यदा पुनः || २७॥ तदांगसदनाध्मानशूलाः श्वासश्व जायते । पक्काशयगुरुत्वं च तत्र दद्यान्निरूहणम् ॥ २८ ॥ तीक्ष्णं तीक्ष्णोरेव सिद्धं चाप्यनुवासनम् । स्नेहवस्तिर्विधेयस्तु नाविशुद्धस्य देहिनः ॥ २९ ॥ स्नेहवीर्य तथादत्ते स्नेहो नानुविसर्पति । अशुद्धमपि वातेन केवलेनाभिपीडितम् ॥ ३० ॥ अहोरात्रस्य कालेषु सर्वेष्वेवानुवासयेत् । अनुवासयेत्तृतीयेऽह्नि पञ्चमे वा पुनश्च तम् ||३१|| यथा वा स्नेहपक्तिः स्यादतोऽप्युल्बणमारुतान् । व्यायामनित्यान् दीप्ताग्नीन् रुक्षांश्च प्रतिवासरम् ३२ इति स्नेह त्रिचतुरैः स्निग्धे स्रोतोविशुद्धये । निरूहं शोधनं युञ्ज्यादस्निग्धे स्नेहनं तनोः ॥ ३३ ॥ विष्टव्धानिलविण्मूत्रस्नेहो हीनेऽनुवासने । दाहज्वरपिपासार्तिकरश्चात्यनुवासने ॥ ३४ ॥ रातदिनमें वापिस न आनेवाले तथा उपद्रवयुक्त स्नेहको ( संशोधन बस्तिद्वारा ) निकाल देना चाहिये । तथा स्नेहवस्तिके वापिस न आनेपर अन्य स्नेहबस्ति न देना चाहिये । तथा जिसका संशोधन ठीक नहीं हुआ है, ऐसे पुरुषका मलयुक्त स्नेह वापिस न आनेपर शरीर में शिथिलता, पेटमें गुड़गुड़ाहट, शूल और श्वास उत्पन्न कर देता है । पक्वाशय भारी हो जाता है । ऐसी दशामें तीक्ष्ण निरूहणबस्ति अथवा तीक्ष्ण ओषधियोंसे सिद्ध स्नेहसे अनुवासन बस्ति देना चाहिये । जिसका ठीक शोधन नहीं हुआ, उसे स्नेहवस्ति न देना चाहिये । क्योंकि ऐसी दशा में arent शक्ति नष्ट हो जाती है । अतएव स्नेह फैलता नहीं । परन्तु अशुद्ध पुरुष भी यदि केवल वायुसे पीड़ित हो, तो उसे रात vg ( ३३९ ) जिनके कराना दिन में किसी समय अनुवासन दे देना चाहिये । फिर उसे तीसरे या पांचवें दिन अनुवासन कराना चाहिये । अथवा जैसे स्नेहका परिपाक हो, वैसे ही अनुवासन कराना चाहिये । अतएव वायु अधिक बढा हुआ है, उन्हें तथा कसरत करनेवालों, दीप्तानि और रूक्ष पुरुषोंकों प्रतिदिन अनुवासन चाहिये । इस प्रकार तीन चार स्नेहोंसें स्निग्ध हो जानेपर स्रोतोंकी शुद्धिके लिये शोधन निरूहण बस्ति देना चाहिये और यदि फिर भी स्नेहन ठीक न हुआ हो, तो स्नेहनबस्ति ही देना चाहिये । हीन अनुवासनमें वायु, मल और मूत्र तथा स्नेह स्तब्ध हो जाता है । तथा अति अनुवासनमें दाह, ज्वर, या और बेचैनी होती है ॥ २६-३४ ॥ विशेषोपदेशः । स्नेहवस्ति निरूहं वा नैकमेवातिशीलयेत् । स्नेहात्पित्तकफोत्क्लेशो निरूहात्पवनाद्भयम् ॥ ३५ ॥ स्नेहबस्ति अथवा निरूहणबस्ति एक ही अधिक न सेवन करना चाहिये । केवल स्नेहबस्ति ही लेनेसे पित्त कफकी वृद्धि तथा केवल निरूहणसे वायुसे भय होता है ॥ ३५ ॥ नानुवास्याः । अनास्थाप्या येsभिधेया नानुवास्याश्च ते मताः । विशेषतस्त्वमी पाण्डुकामला मेहपीनसाः ॥ ३६॥ निरन्नप्लीहविड्भेदिगुरुकोष्ठाढयमारुताः ॥ ३७ ॥ पीते विषे गरेऽपच्यां श्लीपदी गलगण्डवान् । जिन्हें आस्थापनका निषेध आगे लिखेंगे, उन्हें अनुवासन भी न करना चाहिये । और विशेषकर पाण्डु, कामला, प्रमेह और पीनसवाले, जिन्होंने भोजन नहीं किया उन्हें, तथा प्लीहा, अतीसारयुक्त, गुरुकोष्ठ कफोदवाले, अभिष्यन्दी, बहुत मोटे, क्रिमिकोष्ठ तथा ऊरुस्तम्भवाले तथा विष पिये हुए अथवा कृत्रिम विष, अपची, श्लीपद और गलगण्डवाले अनुवासनके अयोग्य हैं ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ अनास्थाप्याः । अनास्थाप्यास्त्वतिस्निग्धःक्षतोरस्को भृशं कृशः ॥ ३८ आमातिसारी वमिमान्संशुद्धो दत्तनावनः श्वासकासप्रसेकाशहिकाध्मानात्पवन्हयः ॥ ३९ ॥ शूलपायुः कृशाहारो बद्धच्छिद्रदकोदरी । कुष्ठी च मधुमेही च मासान्सप्त च गर्भिणी ||४० ॥ चैकान्तेन निर्दिष्टेऽप्यत्राभिनिविशेद् बुधः । भवेत्कदाचित्कार्या या विरुद्धापि मता क्रिया ॥ ४१ ॥ छर्दिहृद्रोगगुल्मार्ते वमनं सुचिकित्सिते । अवस्थां प्राप्य निर्दिष्टं कुष्ठिनां बस्तिकर्म च ॥४२५ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अथ निरुहाधिकारः। (३३०) चक्रदत्तः। [निरूहासन्न्च्न्न् अतिस्निग्ध, उरःक्षती, बहुत पतले, आमातिसारी, वमन- वस्त्रपूतस्तथोष्णाम्बुकुम्भीबाष्पेण तापितः । वाले, संशुद्ध, नस्य लेनेवाले, श्वास, कास, हृलास, प्रसेक एवं प्रकल्पितो बस्तिादशप्रसृतो भवेत् ॥७॥ (मुखसे पानी आना ) अर्श, हिक्का, आध्मान, मन्दाग्नि तथा पहिले १ तोला महीन पिसा सेंधानमक किसी पत्थर या कांचके गुदशूलसे पीड़ित, आहार किये हुए, बद्धोदर, छिद्रोदर और पात्रमें छोड़ १६ तो० शहद मिला मथकर१६तो. स्नेह मिलाकर दकोदरवाले तथा कुष्ठी व मधुमेही तथा सात मासकी गर्भिणी फिर मथना चाहिये । इस प्रकार स्नेह मिल जानेपर ८ तोला इन्हें आस्थापनबस्ति न देनी चाहिये, । किंतु जिनके लिये कल्क छोडकर फिर मथना चाहिये । फिर कल्क मिल जानेपर आस्थापनका निषेध किया गया है, उनके लिये सर्वथा निषेध क्वाथ ४० तोला छोड़ना चाहिये । फिर अन्तमें १६ तो. ही न मान लेना चाहिये । क्योंकि विरुद्ध क्रिया भी कभी | प्रक्षेप छोड़ना चाहिये । फिर इसे महीन कपड़ेसे छानकर गरम अत्यावश्यक होनेपर अनुकूल अतएव कर्तव्य हो जाती है। जल भरे हुए घड़ेके ऊपर रखकर उसी जलकी भाफसे गरम यथा अवस्थाविशेषमें छर्दि, हृद्रोग व गुल्मवालोंके लिये वमन करना चाहिये । इस प्रकार सिद्ध बस्ति “ द्वादशप्रसृतिक" कही और कुष्टवालोंके लिये वस्ति कही गयी है ॥ ३८-४२ ॥ जाती है। इसमें १ तो० सैंधवको छोड़कर शेष १२ प्रस्त इत्यनुवासनाधिकारः समाप्तः । (९६ तो०) द्रव्य होते हैं ॥ ४-७ ॥ सुनियोजितबस्तिलक्षणम् । न धावत्योषधं पाणिं न तिष्ठत्यवलिप्य च । न करोति च सीमन्तं स निरूहः सुयोजितः ॥८॥ सामान्यव्यवस्था । औषध हाथों में न चिपके तथा लिपकर एक जगह बैठ न जाय और न किनारे बने । यह "सुनियोजित" बस्तिके अनुवास्य स्निग्धतर्नु तृतीयेऽह्नि निरूहयेत् । लक्षण हैं ॥८॥ मध्याह्ने किञ्चिदावृत्ते प्रयुक्ते बलिमङ्गले ॥१॥ अभ्यक्तस्वेदितोत्सृष्टमलं नातिबुभुक्षितम् । बस्तिदानविधिः। मधुस्नेहनकल्काख्यकषायावापतः क्रमात् ॥२॥ पूर्वोक्तेन विधानेन गुदे बस्ति निधापयेत् । त्रीणि षड् द्वे दश त्रीणि पलान्यनिलरोगिषु ।। त्रिंशन्मात्रास्थितो बस्तिस्ततस्तुत्कटको भवेत् ॥९॥ पित्ते चत्वारि चत्वारि द्वे द्विपञ्चचतुष्टयम् ॥३॥ जानुमण्डलमावेष्टय कुर्य्याच्छोटिकया युतम् । षट् त्रीणि द्वे दश त्रीणि कफे चापि निरूहणम् । निमेषोन्मेषकालो वा तावन्मात्रा स्मृता बुधैः ॥१०॥ अनुवासनबास्तद्वारा निग्ध पुरुषको तीसरे दिन निरूहण द्वितीयं वा तृतीयं वा चतुर्थ वा यथार्थतः । बस्ति देना चाहिये । उसका क्रम यह है कि कुछ दो पहर लोट सम्यक निरूढलिङ्गेतु प्राप्ते बस्ति निवारयेत्॥११॥ जानेपर बलि मंगलाचरण आदि कर मालिश तथा स्वेदन करा पूर्वोक्त ( अनुवासनोक्त ) विधानसे गुदामें बस्ति देना मलत्याग किये हुए पुरुषको जिसे अधिक भूख न हो, उसे चाहिये । बस्तिदानके अनन्तर ३० मात्रा उच्चारणकालतक आस्थापन बस्ति देना चाहिये । आस्थापन बस्तिमें वातरोगीक वैसे ही रहकर फिर उटकुरुवा बैठना चाहिये । जानुमण्डलके लिये शहद १२ तो०, स्नेह २४ तो०, कल्क ८ तो०, क्वाथ ऊपर हाथ घुमाकर चुटकी बजाना या निमेषोन्मेष (पलक ४० तो० और प्रक्षेप १२ तो० छोड़ना, । पित्तरोगीके लिये खोलना बन्द करना ) के समान कालको १ "मात्राकाल" कहते शहद १६ तो०, स्नेह १६ तो, कल्क ८ तो०, क्वाथ ४० हैं। इस प्रकार ३० मात्रा उच्चारण कालतक उत्कट बैठना तोला और आवाप १६ तोला । तथा कफज रोगमें शहद २४ चाहिये । इसके अनन्तर आवश्यकतानुसार दूसरी तीसरी या तो०, स्नेह १२ ती०, कल्क ८ तोला, क्वाथ ४० तो० और चौथी बस्ति देना चाहिये । सम्यङ् निरूढ लक्षण प्रगट होनेप्रक्षेप १२ तोला छोड़कर देना चाहिये ॥ १-३॥ पर बस्ति देना बन्द कर देना चाहिये ॥९-११॥ द्वादशप्रसृतिको बस्तिः। सुनिरूढलक्षणम् । दत्त्वादी सैन्धवस्याक्षं मधुनः प्रसृतद्वयम् ॥४॥ प्रसृष्टविण्मूत्रसमीरणत्वविनिर्मथ्य ततो दद्यात्स्नेहस्य प्रसृतद्वयम् । रुच्यग्निवृद्धयाशयलाघवानि एकीभूते ततः स्नेहे कल्कस्य प्रसृतं क्षिपेत् ॥५॥ रोगोपशान्तिः प्रकृतिस्थता च संमूच्छिते कषाये तु पञ्चप्रसृतसंमितम् । बलं च तत्स्यात्सुनिरूढलिङ्गम् ॥ १२॥ वितरेत्तु यथावापमन्ते द्विप्रसृतोन्मितम् ॥६॥ । अयोगश्चातियोगश्च निरूहेऽस्ति विरिक्तवत् ॥१३॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (३३१) विष्ठा, मूत्र और वायुका शुद्ध होना, रुचि, आग्निवाद्ध और दो घड़ीतक बस्तिद्रव्य वापिस न आनेपर क्षार, मूत्र आशयोंका हल्का होना, रोगकी शान्ति, स्वाभाविक अव- तथा काजीयुक्त शोधन निरूहण बस्तियों द्वारा निकाल देना स्थाकी प्राप्ति और बलका होना “ सुनिरूढ" के लक्षण होते हैं। चाहिये । क्योंकि विकृत वायुसे रुका हुआ निरूहण द्रव्य शूल, तथा निरूहमें अयोग और अतियोग विरिक्तके समान समझना | बेचैनी, ज्वर, अफारा और मृत्युतक कर देता है । और भोजन चाहिये ॥ १२ ॥१३॥ |किये हुएको भी बस्ति नहीं देना चाहिये । क्योंकि वह आम भोजनको ही निकालता तथा छर्दि आदि दोष उत्पन्न कर देता है । निरूहमर्यादा । तथा रोगीकी अवस्था देखकर जैसा उचित प्रतीत हो, व्यवस्था स्निग्धोष्ण एकः पवने समांसः . करनी चाहिये। तथा बस्ति देते समय अधिक जोरसे बस्ति द्वौ स्वादुशीती पयसा च पित्ते ॥१४॥ न दबाना चाहिये, नहीं तो वह बस्तिद्रव्य आशयोंको लांघकर त्रयः समूत्रा कटुकोष्णरूक्षाः नासिका अथवा मुखसे निकलने लगता है। उस समय वमन, __ कफे निरूहा न परं विधेयाः। मिचलाई, मूर्छा और दाह आदि कर देता है । उसी समय एकोऽपकर्षत्यनिलं स्वमार्गात् शीघ्र ही धीरेसे गला दबाना तथा रोगीको हिला देना चाहिये । पित्तं द्वितीयस्तु कर्फ तृतीयः ॥ १५॥ तथा तीक्ष्ण शिरोविरेचन, कायविरेचन और शीतल सेक बायुमें स्नेहयुक्त, उष्ण, मांससहित १ बस्ति, पित्तमें मीठे. करना चाहिये ॥ १६-२१॥ शीतल पदार्थों तथा दूधके साथ २ बस्ति तथा कफमें मूत्रके सुनिरूढे व्यवस्था। सहित कटु तथा रूक्ष पदार्थोंसे निर्मित गरम कर ३ बस्ति देना चाहिये । एकबार बस्ति दिया गया वायुको (वाताशय सुनिरूढमथोष्णाम्बुस्नातं भुक्तरसीदनम् । समीप होनेके कारण) अपने स्थानसे निकालता, २ बार बस्ति यथोक्तेन विधानेन योजयेत्स्नेहबस्तिना ॥ २२॥ देनेपर पित्तको (पित्ताशय, वाताशयकी अपेक्षा दूर होनेके तदहस्तस्य पवनाद्भयं बलवदिष्यते। . कारण) निकालता, तथा ३ बार बस्ति देनेपर कफ अपने रसीदनस्तेन शस्तस्तदहश्वानुवासनम् ॥ २३ ॥ आशयसे निकलता है । इसके अनन्तर बस्ति देना आव- ठीक निरूहण हो जानेपर गरम जलसे स्नान करा मांस व श्यक नहीं ॥ १४ ॥ १५॥ भातका भोजन कराना चाहिये । फिर यथोक्त विधिसे स्नेहबस्ति निरूहव्यापचिकित्सा । देना चाहिये । उस दिन उसे वायुसे विशेष भय रहता है । अतएव उसी दिन उसे मांस और भातका भोजन कराना तथा अनायान्तं मुहूर्तान्ते निरूहं शोधनहरेत् । अनुवासन बस्ति देना चाहिये ॥२२॥२३॥ . निरूहैरेव मतिमान्क्षारमूत्राम्लसंयुतैः ॥ १६ ॥ विगुणानिलविष्टब्धश्चिरं तिष्ठन्निरूहणः । __ अर्द्धमात्रिको बस्तिः। शूलारतिज्वराटोपान्मरणं वा प्रयच्छति ॥ १७॥ दशमूलीकषायेण शताह्वाक्षं प्रयोजयेत् । न तु भुक्तवते देयमास्थापनामिति स्थितिः। सैन्धवाक्षं च मधुनो द्विपलं द्विपलं तथा ॥ २४ ॥ आमं तद्धि हरेद् भुक्तं छर्दिदोषांश्च कोपयेत्॥१८॥ तैलस्य पलमेकं तु फलस्यैकत्र योजयेत् । आवस्थिकः क्रमश्चापि मत्वा कार्यो निरूहणे । अर्धमात्रिकसंज्ञोऽयं बस्तिर्देयो निरूहवत् ॥ २५ ॥ अतिप्रपीडितो बस्तिरतिक्रम्याशयं ततः ॥ १९ ॥ न च स्नेहो न च स्वेदः परिहारविधिर्न च । वातेरितो नासिकाभ्यां मुखतो वा प्रपद्यते । आत्रेयानुमतो ह्येष सर्वरोगनिवारणः ॥२६॥ छर्दिहल्लासमू दीन्प्रकुर्याद्दाहमेव च ॥ २०॥ यक्ष्मन्नश्च क्रिमिन्नश्च शूलनश्च विशेषतः। तत्र तूर्ण गलापीडं कुर्याच्चाप्यवधूननम् । शुक्रसजननो ह्येष वातशोणितनाशनः । शिरःकायविरेको च तीक्ष्णौ सेकांश्च शीतलान् २१] बलवर्णकरो वृष्यो बस्तिः पुंसवनः परः ॥२७ ।। दशमूलके काढेमें सौंफका चूर्ण व सेंधानमकका चूर्ण १ यद्यपि प्रथम " चतुर्थ वा प्रयोजयेत् " से ४ बस्तित- प्रत्येक १ तोला, शहद ८ तोला, तैल ८:तोला तथा मैनफल ४ कका विधान किया है । पर यहां ३ से अधिक बस्ति देना | तोला मिलाकर निरूहके समान ही देना चाहिये । इसे व्यर्थ बताते हैं । यह परस्पर विरोधी होते हुए भी बिरुद्ध न | "अर्द्धमात्रिकबस्ति" कहते हैं । यह आत्रेयसे अनुमत समग्र रोग समझना चाहिये । प्रथमका विधान ३ बस्तियोंसे जो नहीं|शुद्ध हुआ, उसके लिये विशेष वचन है। उत्तरका सामान्य | १ इसमें यद्यपि काथकी मात्रा नहीं लिखी, पर इसे "अर्द्धवचन है। मात्रिक" कहते हैं, अतः पूर्वोक्त मानसे आधा वाथअर्थात् २० Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [नस्या नष्ट करनेवाला है तथा विशेषकर यक्ष्मा, क्रिमि और शूलको नष्ट बस्ति "वैतरणबस्ति" कहा जाता है । यह बस्ति शुल आनाह करता, शुक्रको उत्पन्न करता, वातरक्त नष्ट करता तथा बल, और आमवातको नष्ट करता है । वैतरणबस्ति व क्षारबस्ति वर्ण उत्तम बनाता और वृष्य तथा सन्तान उत्पन्न करने- भोजन कर लेनेपर भी दी जाती है ॥ ३३॥ ३४॥ वाला है ॥ २४-२७॥ च्छलवस्तयः। अनुक्तौषधग्रहणम् । | बदरावतीशेलुशाल्मलीधन्वनाङ्कुराः। स्नेहं गुडं मांसरसं पयश्च क्षीरसिद्धाः सुसिद्धाः स्युःसाम्राः पिच्छिलसंज्ञिताः३५॥ अम्लानि मूत्रं मधुसैन्धवे च । वाराहमाहिषीरभ्रबैडालैणेयकोक्कुटम् । एवान्यनुक्तानि च दापयेश्व सद्यस्कमसृगाजं वा देयं पिच्छिलबस्तिषु ॥ ३६ ॥ निरूहयोगे मदनात्फलं च ॥२८॥ चरकादो समुद्दिष्टा बस्तयो ये सहस्रशः। लवणं कार्षिकं दद्यात्पलमेकं तु मादनम् । व्यवहारो न तैः प्रायो निबद्धा नात्र तेन ते ॥३७॥ वाते गड: सिता पित्ते कफे सिद्धार्थकादयः ॥२९॥। आगला मोटा मेमर तथा धामिनके नये अहकर निरूहणके प्रयोगमें न कहनेपर भी स्नेह, गुड़, मांसरस, इनमेंसे किसी एक अथवा सबको अष्टगुण दूध तथा २४ गुण दूध, काजी, गोमूत्र, शहद, सेंधानमक और मैनफल छोड़ना जलमें मिली क्षीरपाकविधिसे पकाकर छानना चाहिये । फिर चाहिये। सेंधानमककी मात्रा १ तो०, मैनफल ४ तोला छोड़ना उसमें रक्त मिलाकर देना चाहिये । इन्हें "पिच्छिलबास्तयां' चाहिये. तथा वायमें गुड, पित्तमें मिश्री और कफमें सरसों करते है। था ¥ा भेट 'सरसा कहते हैं । सुअर, भैंसा, भेड़, बिल्ली, कृष्णमृग, मुर्गा अथवा आदि मिलाकर निरूह बस्ति देना चाहिये ॥ २८ ॥ २९॥ बकरा इनमेंसे किसी एकका ताजा रत छोड़ना चाहिये । अथ क्षारबस्तिः । (इसकी मात्रा अर्द्धमात्रिक बस्तिके समान देना चाहिये) सैन्धवाक्षं समादाय शताहाक्षं तथैव च । चरकादिमें दो हजारों बस्तियाँ लिखी गयी हैं, उनसे प्रायः गोमूत्रस्य पलान्यष्टावम्लिकायाः पलद्वयम॥३०॥व्यवहार नहीं होता,अतःउनका वर्णन यहां नहीं किया गया३५-३७ गुडस्य द्वे पले चैव सर्वमालोड्य यत्नतः। । बस्तिगुणः। वस्त्रपूतं सुखोष्णं च बस्ति दद्याद्विचक्षणः ॥ ३१ ॥ बस्तिर्वयः स्थापयिता सुखायुर्बलाग्निमेधास्वरवर्णकृञ्च । शूलं विटूसङ्गमानाहं मूत्रकृच्छ्रे च दारुणम् । सर्वार्थकारी शिशुवृद्धयूनां निरत्ययः सर्वगदापहश्च ३८ गुल्मादीन्सद्यो हन्यान्निषेवितः॥ ३२ ॥ बस्ति अवस्था स्थापित रखता तथा सुख, आयु, बल, सेंधानमक १ तोला, सौंफ १ तो०, गोमूत्र ३२ तोला, अग्नि, मेधा और स्वर तथा वर्णको उत्तम बनाता, बालक, इमली ८ तोला, गुड़ ८ तो० सब यत्नसे एकमें मिला कपड़ेसे | वृद्ध तथा जवान सबको बराबर लाभ करनेवाला, कोई आपत्ति छान कुछ गरम कर बस्ति देना चाहिये । यह बस्ति शूल, न करनेवाला तथा समस्त रोगोंको नष्ट करता है ॥ ३८॥ मलकी रुकावट, अफारा, कठिन मूत्रकृच्छ, क्रिमिरोग, उदा इति निरूहाधिकारः समाप्तः । वर्त, गुल्म आदि रोगोंको सेवन करनेसे शीघ्र ही नष्ट करता है ॥ ३०-३२॥ अथ नस्याधिकारः। वैतरणवस्तिः ।। पलशुक्तिकर्षकुडवरम्लीगुडसिन्धुजन्मगोमूत्रैः। तैलयुतोऽयं बस्तिः शूलानाहामवातहरः ।। ३३ ॥ नस्यभेदाः। वैतरणः क्षारवस्तिर्मुक्ते चापि प्रदीयते ॥ ३४ ॥ । प्रतिमोऽवपीडश्च नस्यं प्रधमनं तथा । शिरोविरेचनं चोति नस्तः कर्म च पञ्चधा ॥१॥ इमली ४ तोला, गुड़ २ तोला, सेंधानमक १ तो०, गोमूत्र ३२ तोला तथा थोडासा तिलतैल मिलाकर दिया गया | (१) प्रतिमर्श, (२) अवपीड़, (३) नस्य, (४) प्रधमन और (५) शिरोविरेचन ये नस्यके पाँच भेद हैं ॥१॥ -तोला छोड़ना चाहिये, तथा नीचे लिखे अनुक्त औषध भी प्रतिमर्शविधानम् । (गुड़ आदि ) इतनी मात्रामें मिलाना चाहिये, जिसमें सब ईषदाच्छिकुघनात्नेहो यावान्वक्त्रं प्रपद्यते । मिलकर ४८ तोला बस्तिका मान हो जाय । अतः ६ तोला | नस्तो निषिक्तं तं विद्यात्प्रतिमर्श प्रमाणतः ॥२॥ गुड़ आदि मिलकर होना चाहिये । क्योंकि ४८ तोला उपरोक्त द्रव्य हो जाते हैं। १अत्र दुग्धस्याप्येको भागः त्रयो भागा:जलस्येति शिवदासः । क्रिम Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] - भाषाटीकोपेतः। प्रतिमर्शस्तु नस्यार्थ करोति न च दोषवान् । चर्बी और वायुसहित पित्तमें घी और मज्जाकी नस्य देनी नस्तः स्नेहागुलिं दद्यात्प्रातर्निशि च सर्वदा ॥३॥| चाहिये ॥ ७-१० ॥ न चोच्छिङ्घदरोगाणां प्रतिमर्शः स दायकृत् । प्रधमनम्। निशाहर्भुक्तवान्ताहःस्वप्नाध्वश्रमरेतसाम् ॥ ४॥ शिरोऽभ्यजनगण्डूषप्रस्रावाञ्जनवर्चसाम् । ध्मापनं रेचनश्चू! युज्यास मुखवायुना ॥ ११ ॥ दन्तकाष्ठस्य हास्यस्य योज्योऽन्तेऽसौ द्विबिन्दुकः५ / षडङ्गुलद्विमुखया नाडया भेषजगर्भया । स हि भूरितरं दोषं चूर्णत्वादपकर्षति ।। १२॥ जितना नेह कुछ जोरसे सूंघनेसे मुखमें पहुँच जाय, उसे | "मापन" रेचनचूर्णके नस्यको कहते हैं। इसके प्रयोगकी विधि "प्रतिमर्शका" प्रमाण समझना चाहिये। प्रतिमर्शमें विशेषता यह ]. यह है कि, एक ६ अंगुल लंबी पोली नली लेकर औषध भरना है कि, वह नस्यके गुणोंको करता है और कोई आपत्ति नहीं | चाहिये, फिर उस नलीका एक शिरा मुखमें और दूसरी शिरा करता । प्रातःकाल तथा सायंकाल स्नेहमें अंगुलि डुबोकर दो। नासिकामें लगाकर मुखकी वायुसे फूंक देना चाहिये। यह चूर्ण बून्द नाकमें छोड़ना चाहिये और उसे ऊपर खींचकर थूकना| | होनेके कारण बहुत दोष निकालता है ॥ ११॥१२॥ चाहिये । यह आगे पुरुषोंको बलवान् बनाता है । इसे रात्रि दिनके भोजन, वमन, दिननिद्रा, मार्गश्रम, शुक्रत्याग, शिरोऽ शिगेविरेचनम् । भ्यङ्ग, गण्डष, प्रसेक (मुखसे पानी आने), अजन, मलत्याग, दन्तधावन तथा हसनेके अनन्तर दो बिंदुकी मात्रामें प्रयुक्त शिरोविरेचनद्रव्यैः स्नेहर्वा तैः प्रसाधितः । करना चाहिये ॥२-५॥ शिरोविरेचनं दद्यात्तेषु रोगेषु बुद्धिमान् ॥ १३॥ गौरवे शिरसः शूले जाडथे स्यन्दे गलामये । ' अवपीडः। शोषगण्डक्रिमिग्रन्थिकुष्ठापस्मारपीनसे ॥ १४ ॥ शोधनः स्तम्भनश्च स्यादवपीडो द्विधा मतः। स्निग्धस्विन्नोत्तमांगस्य प्राक्कृतावश्यकस्य च । अवपीड्य दीयते यस्मादवपीडस्ततस्तु सः ॥६॥ निवातशयनस्थस्य जत्रूवं स्वेदयेत्पुनः ॥१५॥ अथोत्तानर्जुदेहस्य पाणिपादे प्रसारिते । अवपीड़क नस्य शोधन वस्तम्भनभेदसे दो प्रकारका होता है ।। यह अवपीड़ित ( दवा निचोड़ ) कर दिया जाता है, अत: इसे | किञ्चिदुन्नतपादस्य किञ्चिन्मूर्धनि नामिते॥१६॥ " अवपीड़क " कहते हैं ॥ ६॥ नासापुटं पिधायकं पर्यायेण निषेचयेत् । उष्णाम्बुतप्तं भैषज्यं प्रणाडया पिचुना तथा ॥१७॥ नस्यम् । दत्ते पादतलस्कन्धहस्तकर्णादि मर्दयेत् । स्नेहार्थ शून्यशिरसां ग्रीवास्कन्धोरसां तथा । शनैरुच्छिङ्घय निष्ठीवेत्पार्श्वयोरुभयोस्ततः॥१८॥ बलार्थ दीयते स्नेहो नस्तः शब्दोऽत्र वर्तते ॥ ७ ॥ आभेषजक्षयादेवं द्वित्रिर्वा नस्यमाचरेत् । नस्यस्य नहिकस्याथ देयास्त्वष्टौ तु बिन्दवः । । स्नेहं विरेचनस्यान्ते दद्यादोषाद्यपेक्षया ॥ १९ ॥ प्रत्येकशो नस्तकयोर्नृणामिति विनिश्चयः ॥ ८॥ ज्यहात्व्यहाच्च सप्ताहं स्नेहकर्म समाचरेत् । शुक्तिश्च पाणिशुक्तिश्च मात्रास्तिस्रः प्रकीर्तिताः।। एकाहान्तारतं कुर्याद्रचनं शिरसस्तथा ॥२०॥ द्वात्रिंशाद्वन्दवश्चात्र शुक्तिरित्यभिधीयते ॥ ९॥ । शिरोविरेचन. द्रव्य अथवा उन्हीं द्रव्योंसे सिद्ध स्नेहोंसे वक्ष्यद्वे शुक्ती पाणिशुक्तिश्च देयात्र कुशलैनरैः ।। माण (शिरोविरेचनसाध्यरोगोंमें ) शिरोविरेचन देना चाहिये। तैलं कफेच वाते च केवले पवने वसाम् ॥ १० ॥ शिरोविरेचनसे शिरका भारीपन, पीड़ा, जड़ता, अभिष्यन्द, गलदद्यान्नस्तः सदा पित्ते सर्पिर्मजा समारुते । रोग, शोष, गलगण्ड, क्रिमि, प्रन्थि, कुष्ठ, अपस्मार और जो स्नेह नासिका द्वारा शून्य मस्तिष्कवालोंके लिये तथा पीनसरोग नष्ट होते हैं। उत्तमांगका स्नेहन, स्वेदन कर पहिले ग्रीवा, स्कन्ध और छातीके बलार्थ और स्नेहनार्थ दिया जाता है | मलमूत्रादि त्याग कर वातरहित स्थानमें जत्रुसे ऊपर स्वेदन उसे "नस्य" कहते हैं । स्नैहिक नस्यकी मात्रा ८ बिन्दु प्रत्येक करना चाहिये । इसके अनन्तर उत्तानसीधी देह सुला तथा नासापुटमें छोड़नेकी है, तथा सामान्यतः शुक्ति, पाणिशुक्ति और पैर कुछ ऊँचे और शिर कुछ नीचे कर एक नासापुट बंद कर पूर्वोक्त प्रत्येक नासापुंटमें ८ बिन्दु इस प्रकार नस्यकी ३ मात्राएँ दूसरेमें फिर दूसरा बंद कर पहिलेमें पर्यायसे उष्णजलमें गरम हैं। ३२ बिंदु "शुक्ति" तथा ६४ बिन्दु “पाणिशुक्ति" कहीं की हुई औषधि नली अथवा फोहासे छोड़ना चाहिये । औषध जाती है। कफ और कफवातजरोगमें तैल, केवल वायुमें छोड़ देनेपर पैरके तलुवे, कंधे, हाथ और कान आदिका मर्दन Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [धूमा करना चाहिये । फिर धीरेसे खींचकर दोनों ओर ( जिधर| न शुद्धिरूनदशमे न चातिक्रान्तसप्तती । सुविधा हो ) थूकना चाहिये । जबतक औषधका अंश साफ न आजन्ममरणं शस्तः प्रतिमर्शस्तु बस्तिवत् ॥२७॥ हो जावे । इस प्रकार दो तीन बार नस्य देना चाहिये और बारह वर्षसे कम अवस्थामें धूमपान, पांच वर्षसे कम अव. विरेचनके अनन्तर दोषादिके अनुसार स्नेहन नस्य लेना चाहिये। स्थामें कवलधारण तथा दश वर्षसे प्रथम और ७० वर्षके बाद इस प्रकार तीसरे दिन विरेचन लेना चाहिये । बीचमें एक दिन | शदिन करना चाहिये। पर प्रतिमर्श बस्तिके समान जन्मसे नेहननस्य दूसरे दिन विरेचन इस प्रकार ७ बारतक विरेचन- मरण पर्यन्त हितकर है । ( वमन, विरेचन, अनुवासन पस्ति, नस्यका प्रयोग करना चाहिये ॥ १३-२० ॥ आस्थापन बस्ति और नस्य यह"पञ्चकर्म"कहे जाते हैं)२६॥२७ सम्यकस्निग्धादिलक्षणम् । इति नस्याधिकारः समाप्तः । सम्यकस्निग्धे सुखोच्छ्वासस्वप्नबोधाक्षिपाटवम् । रूक्षेऽक्षिस्तब्धता शोषो नासास्ये मूर्धशुन्यता ॥२१ अथ धूमाधिकारः। स्निग्धेऽतिकण्डूगुरुताप्रसेकारुचिपीनसाः। सुविरिक्तेऽक्षिलघुतावक्त्रस्वरविशुद्धयः ॥२२॥ धूमभेदाः। दुर्विरिक्ते गदोद्रेकः क्षामतातिविरेचिते । प्रायोगिकः स्नैहिकश्च धूमो वैरेचनस्तथा । ठीक स्नेहन हो जानेपर सुखपूर्वक उच्छ्वास, निद्रा, होश| कासहरो वामनश्च धूमः पञ्चविधो मतः ॥१॥ और नेत्रोंकी शक्ति प्राप्त होती है । रूक्षणमें (सम्यक् स्नेहन न (१) प्रायोगिक, (२) स्नैहिक, (३) वरेचन, (४) कासहर होनेमें ) नेत्रोंकी जकड़ाहट नासा व मुखमें शोष तथा मस्तक- तथा (५) वमन करानेवाला पांच प्रकारका धूम होता है ॥१॥ शून्यता. डत्पन्न होती है । तथा अतिस्नेहनमें खुजली, भारीपन, मुखसे पानी आना, अरुचि और पीनसरोग उत्पन्न हो जाते हैं। धूमनेत्रम् । तथा सम्यविरेचन हो जानेपर नेत्र हल्के तथा मुख और स्वर ऋजत्रिकोषफलितं कोलास्थ्यग्रप्रमाणितम् । शुद्ध होते हैं। दुविरेचनमें रोगकी वृद्धि तथा अतिविरेचनमें बस्तिनेत्रसमद्रव्यं धूमनेत्रं प्रशस्यते ॥२॥ शुष्कता होती है ॥ २१॥२२ ।। सार्धन्यंशयतः पूर्णो हस्तः प्रायोगिकादिष । नस्यानर्हाः। नेत्रे कासहरे त्र्यंशहीनः शेषे दशाङ्गुलः ॥३॥ बस्तिनेत्रके समान द्रव्यों (सोना, चाँदी आदि ) से सीधा ३ तोयमद्यगरस्नेहपीतानां पातुभिच्छताम् ॥ २३ ॥ स्थानोंसे घूमा हुआ तथा अग्रभागमें बेरकी गुठलीके बराबर भुक्तभक्तशिरःस्नातस्नातुकामसुतासृजाम् ।। छिद्रवाला “धूमनेत्र" उत्तम कहा जाता है। तथा नेत्रकी लम्बाई नवपीनसरोगातसूतिकाश्वासकासिनाम् ।। २४॥ प्रायोगिक धूमके लिये ३६ अंगुल, स्नैहिकके लिये ३२ अंगुल, शुद्धानां दत्तबस्तीनां तथानातवदुर्दिने। वैरेचनिकके लिये २४ अंगुल और कासहरके लिये १६ अंगुल अन्यत्रात्ययिके व्याधौ नैषां नस्य प्रयोजयेत्॥२५॥ तथा वामक धूमके लिये १० अंगुल होनी चाहिये ॥ २ ॥३॥ न नस्यमूनसप्ताब्दे नातीताशीतिवत्सरे । __ धूमपानविधिः। जिन्होंने जल, शराब, कृत्रिम विष अथवा स्नेहपान किया औषधैर्तिकां कृत्वा शरगी विशोषिताम् । है, अथवा जिनकी पीनेकी इच्छा है, अथवा जिन्होंने भात खाया | विगर्भामग्निसंप्लुष्टां कृत्वा धूमं पिबेन्नरः ॥ ४ ॥ या शिरसे स्नान किया है, या स्नान करनेकी इच्छा है, तथा वक्त्रेणैव वमेद् धूम नस्तो वक्त्रेण वा पिबन् । जिनका रक्त निकाला गया है, तथा नये जुखामसे पीड़ित व सूतिका स्त्री तथा श्वास, कासवाले तथा शुद्ध ( वमन विरेचन उरःकण्ठगते दोषे वक्त्रेण धूममापिबेत् ॥ ५॥ द्वारा ) तथा जिन्होंने बस्ति ली है, तथा अनावि, दुर्दिन( वर्षा-1 नासया तु पिबेद्दोषे शिरोधाणाक्षिसंश्रये । कालसे अतिरिक्त मेघोंसे आच्छन्न गगनमण्डलयुक्त दिन ) में| संकको भिगोकर उसके ऊपर ओषधियोंके कल्कका लेप कर परमावश्यकताके सिवाय नस्य न देना चाहिये । तथा ७ वर्षके पर बत्ती बना सुखा सींक अलग निकाल कर बत्ती धूमनेत्रमें पहिले और ८० वर्षके अनन्तर भी नस्य न देना|' रख अग्निसे जलाकर धूम पीना चाहिये । रोगके अनुसार धूम चाहिये ॥ २४ ॥ २५॥ नाक अथवा मुखसे पीना चाहिये । पर धूमका वमन मुखसे ही करना चाहिये । उर तथा कण्ठगत दोषोंमें मुखसे धूम पीना धूमादिकालनिर्णयः। चाहिये । तथा शिर, नासिका और नेत्रोंमें स्थित दोषों में नासिन चोनद्वादशे धूमः कवलो नोनपञ्चमे ॥२६॥ कासे धूम पीना चाहिये ॥ ४ ॥५॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। धूमवर्तयः। कषायस्वादुतिक्तैश्च कवलो रोपणो व्रणे । गन्धरकुष्ठतगरैर्वतिः प्रायोगिके मता ॥ ६॥ सुखं सञ्चार्यते या तु सा मात्रा कवले हिता ॥२॥ स्नैहिके तु मधूच्छिष्टस्नेहगुग्गुलुसर्जकैः।। असञ्चार्या तु या मात्रा गण्डूषे सा प्रकीर्तिता। शिरोविरेचनद्रव्यैर्वतिरेचने मता ॥ ७ ॥ तावच्च धारणीयोऽयं यावदोषप्रवर्तनम् ॥३॥ कासत्रैरेव कासनी वामनर्वा मनी मता। पुनश्चान्योऽपि दातव्यस्तथा क्षौद्रघृतादिभिः । प्रायोगिक धूममें कूठ और तगरको छोड़कर शेष गन्ध- वातकी शान्तिके लिये स्निग्ध तथा उष्ण पदार्थोंसे स्नेहन, द्रव्योंसे बत्ती बनानी चाहिये । तथा. स्नैहिक धूममें मोम, स्नेह, पित्तकी शान्तिके लिये मीठे और शीतल पदार्थोंसे प्रसादन, तथा गग्गल और रालसे बत्ती बनानी चाहिये । विरेचन धूमके लिय| कफकी शांतिके लिये कट, अम्ल, लवण रसयुक्त तथा रूक्ष । शिरोविरेचनीय द्रव्योंसे तथा कासघ्न धूमके लिये कासन्न द्रव्योंसे पदार्थोंसे संशोधन, तथा व्रणशांतिके लिये कषैले, मीठे और और वामकधूमके लिये वमनकारक द्रव्योंसे बत्ती बनानी तिक पदार्थोंसे रोपण कवल धारण करना चाहिये । गण्डूष और चाहिये ॥६॥७॥ किंवलमें केवल इतना ही अन्तर है कि, जो मात्रा मुखमें सुखपू. धूमानहर्हाः। र्वक धुमायी जा सके, वह "कवल" और जो न घुमायी जा सके, योज्या न पित्तरक्तातिविरिक्तोदरमेहिषु ॥ |उसे “गण्डूष" कहते हैं । तथा इनका धारण उस समयतक तिमिरोनिलाध्मानरोहिणीदत्तबस्तिषु ।। करना चाहिये, जबतक दोषोंकी प्रवृत्ति न होने लग जाय । पुनः मत्स्यमद्यदधिक्षीरक्षौद्रस्नेहविषाशिषु ॥९॥ दोषोंके निकल जानेपर फिर शहद तथा घी आदिका कवल धारण शिरस्यभिहते पाण्डुरोगे जागरिते निशि। करना चाहिये ॥ १-३॥ पित्तरक्तवाले, विरिक्त, उदर और प्रमेहसे पीड़ित तथा | सुकवलितलक्षणम् । तिमिर, ऊर्ध्ववात, अफारा और रोहिणीसे पीड़ित, तथा जिन्हें बस्ति दी गयी है तथा मछलियाँ, मद्य, दधि, दूध, शहद, व्याधेरपचयस्तुष्टिवैशा वक्त्रलाघवम् ॥४॥ स्नेह और विष इनमेंसे कोई पदार्थ जिन्होंने खाया या पिया इन्द्रियाणां प्रसादश्च कवले शुद्धिलक्षणम् । है, तथा जिनके शिरमें चोट लगी है, तथा पाण्डुरोगसे पीड़ित | व्याधिकी हीनता, तुष्टि, मुखकी स्वच्छता, लघुता और अथवा रात्रिजागरण करनेवाले धूमके अयोग्य है ॥ ८॥९॥इन्द्रियोंकी प्रसन्नता कवलधारणजन्य शुद्धिके लक्षण हे॥४॥ धूमव्यापत् । विविधा गण्डूषाः। रक्तपित्तान्ध्यबाधिर्यतृण्मू मदमोहकृत् ॥ १० ॥ दाहतृष्णाबणान्हन्ति मधुगण्डूषधारणम् ॥५॥ धूमोऽकालेऽतिपीतो वा तत्र शीतो विधिर्हितः।। धान्याम्लमास्यवरस्य मलदोर्गन्ध्यनाशनम् । एतद् धूमविधानं तुलेशतः सम्प्रकाशितम् ॥११॥ तदेवालवणं शीतं मुखशोषहरं परम् ॥ ६॥ अकालमें तथा अधिक धूम पीनेसे रक्तपित्त, आन्ध्य, बहि आशु क्षाराम्लगण्ड्षो भिनत्ति श्लेष्मणश्चयम् । रापन, प्यास, मूच्छो, मद, तथा मोह उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी। सुस्थे हितं वातहरं तैलगण्डूषधारणम् ॥७॥ दशामें शीत उपचार करना चाहिये। यह घूमपानविधान संक्षेपसे कहा गया ॥ १० ॥११॥ शहदका गण्डूष धारण करनेसे जलन, तृष्णा और व्रण नष्ट इति धूमाधिकारः समाप्तः । होते हैं । काजीका गण्डूष मुखकी विरसता, मल और दुर्गन्धको नष्ट करता है । तथा विना नमककी काजीका गण्डूष ठण्ढा और मुखशोषनाशक होता है। तथा क्षार मिली काजीका गण्डूष सञ्चित अथ कवलगण्डूषाधिकारः। कफको शीघ्र ही काट देता है । तथा तेलका गण्डूष स्वस्थ पुरुषके लिये हितकर तथा शीघ्र ही वातको नष्ट करता सामान्यभेदाः। स्निग्धोष्णः स्नैहिको वाते स्वादशीतैःप्रसादनः।। इति कवलगण्डूषाधिकारः समाप्तः। ... पित्ते कट्वम्ललवणरूक्षैः संशोधनः कफे ॥१॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। आश्च्योतनाद्य अथाश्च्योतनाद्यधिकारः। अञ्जनं लेखनं तत्र कषायाम्लपटूषणैः । रोपणं तिक्तकैर्द्रव्यैः स्वादुशतैः प्रसादनम् ॥९॥ वमन, विरेचनादिसे शुद्ध पुरुषके केवल नेत्रमात्रमें दोषके रह आश्च्योतनविधिः । जाने तथा सूजन, बेचैनी, खुजली, पिच्छिलाहट तथा किरकिरी, आँसू और लालिमा आदिकी कमीरूप पक्क लक्षण प्रकट होजानेपर सर्वेषामक्षिरोगाणामादावाश्च्योतनं हितम् ।। और नेत्रमल (चीपर) कड़ा निकलनेपर अंजन लगाना चाहिये । रुकतोदकण्ड्घ र्षानुदाहरागनिबहेणम् ।। १॥ अन (१) लेखन (खुरचनेवाला) (२) रोपण (घाव भरनेवाला) उष्णं वात कफे कोष्णं तच्छीतं रक्तपित्तयोः। तथा (३) दृष्टिप्रसादन (नेत्रको बल देनेवाला) इस प्रकार ३ प्रकारका निवातस्थस्य वामेन पाणिनोन्मील्य लोचनम् ॥२॥ होता है ) लेखन अञ्जन कषैले, खट्टे, नमकीन व कटु पदाथास शुक्त्या प्रलम्बयान्येन पिचुवा कनीनिके। तथा रोपण अअन तिक्त पदार्थोंसे और प्रसादन अंजन मधुर दश द्वादश वा बिन्दून्द्वयगुलादवसेचयेत् ।। ३।। द्रव्योंसे बनाना चाहिये ॥ ७-९ ॥ ततः प्रमृज्य मृदुना चैलेन कफवातयोः।। अन्येन कोष्णपानीयप्लुतेन स्वेदयेन्मृदु ॥ ४॥ शलाका। समस्त नेत्ररोगोंके लिये पहिले आश्च्चोतन ही हितकर होता दशाङ्गुला तनुर्मध्ये शलाका मुकुलानना । है । वह सुई चुभानेके समान पीड़ा, खुजली, किरकिरी, आँसू, प्रशस्ता लेखने ताम्री रोपणे काललोहजा ॥१०॥ जलन और लालिमाको नष्ट करता है । वह आश्च्योतन वायुम अङ्गुली च सुवर्णोत्था रुप्यजा च प्रसादने । गरम, कफमें कुछ कम गरम तथा रक्तपित्तमें शीत ही छोड़ना शलाका १० अङ्गुलकी मध्यमें पतली तथा कलीके समान चाहिये । इस प्रकार तैयार किया हुआ आश्च्योतन रोगीको मुखवाली बनानी चाहिये । तथा लेखन अञ्जनके लिये ताम्रकी वातरहित स्थानमें लिटा वाम हाथसे आँख खोल दक्षिण हाथसे शलाका, रोपणके लिये कृष्णलोहकी तथा प्रसादनके लिये लम्बी शुक्ति या फोहे द्वारा दश बारह बिन्दु२ अङ्गुलकी दूरीसे अगुली अथवा सोने या चांदीकी शलाका काममें लानी वैद्यको छोड़ना चाहिये । उसके अनन्तर मुलायम कपड़ेसे पोंछ-चाहिये ॥१०॥कर कफवातके लिये दूसरे गरम जलमें डूबे हुए कपड़ेसे मृदु | स्वेदन करना चाहिये ॥१-४॥ अञ्जनकल्पना। अत्युष्णादिदोषाः। पिण्डो रसक्रिया चूर्ण त्रिधैवाजनकल्पना ।। ११ ।। गुरी मध्ये लघौ दोषे तां क्रमेण प्रयोजयेत् । अत्युष्णतीक्ष्णं रुपागहानाशायाक्षिसेचनम् । । अथानुन्मीलयम् दृष्टिमन्तः सञ्चारयेच्छनैः ॥१२॥ अतिशतिं तु कुरुते निस्तोदस्तम्भवेदनाः ॥ ५॥ आजिते वर्त्मनी किञ्चिच्चालयेच्चैवमजनम् । कषायवर्त्मतां घर्ष कृच्छ्रादुन्मेषणं बहु ।। अपेतोषधसंरम्भं निर्वृतं नयनं यदा ॥ १३ ॥ विकारवृद्धिमत्यल्पं संरम्भमपरिसुतम् ॥ ६॥ व्याधिदोषर्तुयोग्याभिराद्भिः प्रक्षालयेत्तदा। अधिक गरम तथा तीक्ष्ण आश्च्योतन पीड़ा, लालिमा तथा दक्षिणांगुष्ठकेनाक्षि ततो वामं सवाससा ।। १४ ॥ दृष्टिनाशतक कर देता है। तथा बहुत ठण्ढाआश्च्योतन सूई चुभा नेके समान पीड़ा व जकड़ाहट उत्पन्न कर देता है। तथा अधिक ऊर्ध्ववर्त्मनि संगृह्य शोध्यं वामेन चेतरत् । आश्च्योतन विन्नियोंकी जकड़ाहट, किरकिरी तथा कठिनतासे निशि स्वप्नेन मध्यान्हे पानान्नोष्णगभस्तिभिः।।१५।। खुलना आदि दोष करता है । तथा अति न्यून आश्च्योतन रोगको आक्षिरोगाय दोषाः स्युर्वर्धितोत्पीडितद्रुताः। बढाता तथा यदि वस्त्रसे साफ न किया जाय, तो शोथ तथा लालिमा प्रातः सायं च तच्छान्त्यै व्यभ्रेऽऽतोऽञ्जयेत्सदा।। उत्पन्न कर देता है॥५॥६॥ कण्डूजाडयेऽजनं तीक्ष्णं धूमं वा योजयेत्पुनः । __ अञ्जनम् । तीक्ष्णाजनाभितप्ते तु तूर्ण प्रत्यञ्जनं हितम् ॥१७॥ अथाजनं शुद्धतनोनॆत्रमात्राश्रये मले। (१) गोली. (२) रसक्रिया अथवा (३) चूर्ण प्रक्रियाभेदसे ३ पक्कलिङ्केऽल्पशोथार्तिकण्डूपैच्छिल्यलक्षिते ॥७॥ प्रकारका अञ्जन बनाया जा सकता है । उन्हें क्रमशः गुरु, मध्य मन्दघर्षासुरागेऽक्षिण प्रयोज्यं घनदूषिके। और लघु दोषों में काममें लाना चाहिये । तथा अञ्जन विनियों में लेखनं रोपणं दृष्टिप्रसादनमिति त्रिधा ॥ ८॥ लगाकर अन्दर ही अन्दर धीरे धीरे चलाना चाहिये। फि Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः] भाषाटीकोपतः। औषधवेग शान्त हो जाने और नेत्रके साफ हो जानेपर व्याधि- कृत्वापाने ततो द्वारं स्नेहं पात्रे निगालयेत् ॥२५॥ दोष तथा ऋतुयोग्य जलसे धोना चाहिये । फिर कपड़े लिपटे| पिबेच धर्म नेक्षेत व्योमरूपं च भास्वरम् । दहिने अंगूठेसे बायां नेत्र और धायें अँगूठेसे दाहिना नेत्र ऊप- इत्थं प्रतिदिनं वाते पित्ते त्वेकान्तरं कफे॥२६॥ रकी विनियां पकड़ कर साफ करना चाहिये । रात्रि तथा | स्वस्थे च द्वयन्तरं दद्यादातृप्तरिति योजयेत् । मध्याह्नमें अञ्जन नहीं लगाना चाहिये। क्योंकि रात्रिमें सोनेके कारण और मध्याह्नमें अन्नपान तथा सूर्यकी किरणोंके कारण तर्पणका प्रयोग वातरहित स्थानमें शिर और शरीरके शुद्ध बढे हुए पीड़ित तथा चलित दोष नेत्ररोग उत्पन्न कर देते हैं। होनेपर साधारण समयमें प्रातः और सायंकाल उत्तान सुलाकर अतः सदा निर्मल आकाश होनेपर प्रातःकाल तथा सायङ्काल नेत्रकोषके बाहर चारों ओर २ अङ्गुल ऊँची तथा दृढ यव अजन लगाना चाहिये । नेत्रों की खुजली और जकडाहटमें और उड़दके आटेको पानीमें सानकर मेड़ बनाना चाहिये। सीक्ष्णाजन अथवा धूमका प्रयोग करना चाहिये। तथा तीक्ष्णा.|फिर नेत्रोंको बन्दकर दोषों के अनुसार सिद्ध घृत गरम जलके जनसे नेत्रोंमें दाह उत्पन्न हो जानेपर शीघ्र प्रत्यजन (दाहशा-| ऊपर ही गरम कर छोड़ना चाहिये।तथा रतौंधी, वातज तिमिर तथा मक शीतल अञ्जन) लगाना चाहिये ॥११-१७॥ कृच्छ्रबोधादिमें चर्बीका प्रयोग करना चाहिये। फिर धीरे धीरे नेत्र खोलना और बंद करना चाहिये। तथा तर्पण छोड़कर अञ्जननिषेधः। विनियोंके रोगमें १०० मात्रा उच्चारणकालतक, संधिभागमें ३०० नायेद्धीतवामितविरिक्ताशितवेगिते । मात्रा उच्चारणकालतक, सफेद भागके रोगमें ५०० मात्रा युद्धज्वरितभ्रान्ताक्षशिरोरुक्शोषजागरे ॥१८॥ | उच्चारणकालतक, कृष्णभागमें ७०० मात्रा उच्चारणकालतक, दृष्टिरोगमें ८०० मात्रा उच्चारणकालतक, मन्थरोगमें १०००, अदृष्टे शिरःस्नाते पीतयोधूममद्ययोः। अनिलरोगमें १०००, पित्तरोगमें ६००, स्वस्थवृत्तमें ६००, अजीर्णेऽप्यर्कसंतप्ते दिवास्वप्ने पिपासिते ॥ ११ ॥ तथा कफरोगमें ५०० मात्रा उच्चारणकालतक रखना चाहिये । डरे हुए, वमन किये हुए, विरेचन किये हए, भोजन किये| फिर अपाङ्गमें (नेत्रके बाहिरी कोनोंमें मेड़का द्वार बनाकर हुए तथा मूत्र पुरीष आदिके वेगसे पीड़ित, क्रोधी, ज्वरवाले, स्नेह किसी पात्रमें गिरा लेना चाहिये । फिर धूमपान करे तथा भ्रान्त नेत्रवाले ( अथवा " तान्ताक्षः" इति पाठः । तस्यार्थः आकाश और प्रकाशयुक्त पदार्थ सूर्यादि) न देखे । इस सूर्य या सूक्ष्म पदाथोंके अधिक देखनेसे विकृत नेत्रवाले ) शिरः प्रकार वायुमें प्रतिदिन, पित्तमें एकदिनका अन्तर देकर तथा शूल, शोषसे तथा जागरणसे पीड़ित तथा शिरसे स्नान किये| कफ और स्वस्थवृत्तके लिये २ दिनका अन्तर देकर जबतक नेत्र हुए अथवा धूम या मद्य पिये हुए तथा अजीर्णसे पीडित तथा तृप्त न हो आवें, प्रयोग करना चाहिये ॥ २०-२६ ॥सूर्यकी गरमीसे सन्तप्त होनेपर तथा दिनमें सोनेपर अनन्तर तथा पिपासित पुरुषोंको अजन न लगाना चाहिये। तथा जिस तृप्तलक्षणम् । दिन मेघोंसे आच्छन्न होनेके कारण सूर्य न दिखलायी पड़े, उस प्रकाशक्षमता स्वास्थ्यं विशदं लघु लोचनम् ॥२७॥ दिन भी अन्जन न लगाना चाहिये ॥१८॥१९॥ तृप्ते विपर्ययोऽतृप्तेऽतितृप्ते श्लेष्मजा रुजः। तर्पणम् । ठीक तर्पण हो जानेपर नेत्र स्वच्छ, हल्के तथा प्रकाश | देखनेमें समर्थ और स्वस्थ होते हैं। तथा ठीक तर्पण न होनेपर निवाते तर्पणं योज्यं शुद्धयोर्मूर्धकाययोः। इससे विपरीत और अतितृप्त हो जानेपर कफजन्य रोग उत्पन्न काले साधारणे प्रातः सायं वोत्तानशायिनः ॥२०॥ हो जाते हैं ॥२७॥यवमाषमयीं पाली नेत्रकोषाद्वहिः समाम्। पुटपाकः। द्वयङ्गुलोचा दृढां कृत्वा यथास्वं सिद्धमावपेत्॥२१ सर्पिनिमीलिते नेत्रे तप्ताम्बु प्रविलायितम् । पुटपाकं प्रयुजीत पूर्वोक्तेष्वेव पश्मसु ॥ २८ ॥ नक्तान्ध्यवाततिमिरकृच्छ्रबोधादिके वसाम् ॥२२॥ सवाते स्नेहनः श्लेष्मसहिते लेखनो मतः ॥ २८ ॥ आपल्मायादथोन्मेष:शनकैस्तस्य कुर्वतः। हग्दौर्बल्येऽनिले पित्ते रक्त स्वस्थ प्रसादनः॥२९॥ मात्रां विगणयेत्तत्र वर्मसन्धिसितासिते ॥२३॥ बिल्वमात्रं पृथक् पिण्डं मांसभेषजकल्कयोः। दृष्टौ च क्रमशो व्याधौ शतं त्रीणि च पञ्च च। । उरुबूकवटाम्भोजपत्रैः स्निग्धादिषु क्रमात् ॥ ३०॥ शतानि सप्त चाष्टौ च दश मन्थेऽनिले दश ॥२४॥ वेष्टयित्वा मृदालिप्तं धवधन्वनगोमयैः । ... . पित्ते षट् स्वस्थवृत्ते च बलासे पञ्च धारयेत् । । पचत्प्रदीप्तरग्न्यानं पकं निष्पीडय तद्रसम् ॥३१॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शिराव्यथा नेत्रे तर्पणवाज्याच्छतं द्वे त्रीणि धारयेत् । । ऊर्ध्व वेध्यप्रदेशाञ्च पट्टिकां चतुरङ्गुले । लेखनस्नेहनान्त्येषु कोष्णः पूर्वो हिमोऽपरः ॥३॥ पादे तु सुस्थितेऽधस्तान्जानुसन्धेनिपीडिते ॥ ६॥ धूमपोऽन्ते तयोरेव योगास्तत्र च तृप्तिवत् ।। ३३ ॥ गाढं कराभ्यामागुल्फ चरणे तस्य चोपरि । तर्पणं पुटपाकं च नस्यानहें न योजयेत् । द्वितीये कुञ्चिते किञ्चिदारूढे हस्तवत्ततः ॥७॥ यावन्त्यहानि युजीत द्विगुणो हितभाग्भवेत् ॥३४ | बद्ध्वा विध्येच्छिरामित्थमनुक्तेष्वपि कल्पयेत् । तेषु तेषु प्रदेशेषु तत्तद्यन्त्रमुपायवित् ॥८॥ पुटपाकका प्रयोग भी पूर्वोक्त ( तर्पणोक्त ) रोगोंमें | हो करना चाहिये । तथा वातजरोगमें स्नेहन, काजमें | ततो ब्रीहिमुखं व्यध्यप्रदेशे न्यस्य पीडयेत् । लेखन तथा दृष्टिकी दुर्बलता और वायु, पित्त तथा रक्तके अङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां तु तलप्रच्छादितं भिषक् ॥ ९ ॥ रोगमें व स्वस्थ पुरुषके लिये प्रसादन पुटपाक देना चाहिये। वामहस्तेन विन्यस्य कुठारीमितरेण तु । तथा पुटपाकके लिये मांस और औषधका कल्क ४ तोले ले| ताडयेन्मध्यमामुल्याङ्गुष्ठविष्टब्धमुक्तया ॥१०॥ पिण्ड बना लेहनके लिये एरण्ड, लेखनके लिये बरगद और जिसका शिराव्यध करना है, उसे स्नेहन तथा निग्ध मांसरस प्रसादनके लिये कमलके पत्तोंको पिंडके ऊपर लपेट ऊपरसे भोजन करा सूर्यकी ओर मुख कराकर घुटनेके बराबर ऊँचे मिट्टीका लेप कर सुखा धव, धामिन या कंडोंके अंगारोंमें| आसनपर बैठाल कर पशीना आ जानेपर बालोंको मुलायम पकाना चाहिये । मिट्टी जब अग्निके अंगारेके समान लाल हो। कपड़ेसे बाँधना चाहिये । फिर शिरोगत शिराओंके व्यध करनेके जाय, तब निकाल ठण्डा कर ओषधका रस निचोड़कर नेत्रमें लिये घुटनेपर दोनों कोहनियां रखकर अंगूठेके सहित बन्धी तर्पणके समान (मेंड आदि बना)छोड़ना चाहिये । तथा लेख-मठठियों से गलेके बगलकी शिराएँ जोरसे दबानी चाहिये । तथा नमें १०० मात्रा, स्नेहनमें २०० मात्रा और प्रसादनमें ३०० दाँतोंको कटकटाना, खासना और गालोको फुलाना चाहिये। मात्रा उच्चारणकालतक आंखों में धारण करना चाहिये । तथा फिर रोगीके पीछे खड़े हुए पुरुषको वस्त्र लपेटते हुए गरदन स्नेहन व लेखन पुटपाकका रस कुछ गरम तथा प्रसादन पुट- और दोनों हाथोंकी मुठठियोंको अपने हाथकी बाम तर्जनी अंगुपाकका रस ठण्डा छोड़ना चाहिये । तथा स्नेहन व लेखनके ही लीक बीचमें डाल कर बाँधना चाहिये । इस प्रकार शिरका अन्तमें धूमपान करना चाहिये । इसमें योगायोगादि तृप्तिके उत्थापन कर शिरोगत शिराका व्यध करना चाहिये । इसी समान ही समझना चाहिये। तथा जिन्हें नस्यका निषेध है, उन्हें प्रकारहाथकी शिराका व्यध हाथ फेलाकर करना चाहिये । तथा तर्पण व पुटपाक भी नहीं देना चाहिये। तथा जितने दिनतक सुखपूर्वक बैठाल अंगुठेके सहित मुट्ठी बांध व्यध करनेके स्थानसे सर्पण या पुटपाकका प्रयोग करे , उससे दूने समयतक पथ्य चार अङगुल ऊपर पट्टी बाँधकर शिराव्यध करना चाहिये । तथा सेवन करे ॥२८-३४॥ यदि पैरकी शिरा वेधनी हो, तो एक पैरको बराबर रखकर जिस इत्याश्च्योतनायधिकारः समाप्तः। पैरमें व्यध करना है, उसे दोनों हाथोंसे जोरसे गुल्फतक दबाकर कुछ समेट भूमिपर सुस्थिर रखे हुए पैरपर रख बाँधकर शिरा उत्थित हो जानेपर व्यध करना चाहिये । इसी प्रकार अनुक्त अथ शिराव्यधाधिकारः। स्थानों में भी जिस प्रकार शिरा उठ सके, उसी प्रकार बाँधकर शिराव्यध करना चाहिये । फिर व्यध करनेके स्थानमें व्रीहिमुख शन लगाकर अंगूठे व तर्जनी अंगुलीसे दबाना चाहिये । तथा तलसे ढका रखना चाहिये । और यदि कुठारीसे शिराव्यध करना अथ स्निग्धतनुः स्निग्धरसान्नप्रतिभोजितः।। हो, तो कुठारीको वामहस्तमें ले व्यध्य स्थानपर रखकर दहिने प्रत्यादित्यमुख स्विन्नो जानूञ्चासनसंस्थितः ॥१॥ हाथके अंगूठेके साथ मध्यमा अङ्गुली फंसाकर जोरसे छोड़ देना मृदुपट्टात्तकेशान्तो जानुस्थापितकूर्परः। चाहिये ॥१-१०॥ अंगुष्ठगर्भमुष्टिभ्यां मन्ये गाढं निपीडयेत् ॥ २॥ दन्तसम्पीडनोत्कासगण्डाध्मानानि चाचरेत् । बीहिमुखकुठारिकयोः प्रयोगस्थानम् । पृष्ठतो यन्त्रयेक्षेनं वस्त्रमावष्टयन्नरः ॥३॥ मांसले निक्षिपेद्देशे ब्रीह्यास्यं ब्रीहिमात्रकम् । कन्धरायां परिक्षिप्य न्यस्यान्तर्वामतर्जनीम् । यवार्धमस्थ्नामुपरि शिरां विध्यन्कुठारिकाम् ॥११॥ एवमुत्थाप्य विधिना शिरां विध्येच्छिरोगताम्॥४॥ मांसल स्थानों में व्रीहिमुखनामक शस्त्रसे व्रीहिमात्र शस्त्र प्रविष्ट विध्येद्धस्तशिरां बाहावनाकुश्चितकूपरे। करना चाहिये । तथा हधियोंके ऊपर कुठारिकासे अर्द्ध ब्रीहिमात्र षया सुखोपविष्टस्य मुष्टिमङ्गुष्टगर्भिणीम् ॥५॥ व्यध करना चाहिये ॥ ११॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नधास्वेदिता जत्तिानचालगोविणाम विकारः] भाषाटीकोपेतः। न अयोगादिव्यवस्था। अथवा उसी शिराको व्यध्यप्रदेशसे कुछ ऊपर व्यध कर देना चाहिये । अथबा गरम शलाकासे शिरामुख दाग देना चाहिये । असम्यगो स्रवति वेल्लव्योषनिशानतैः । यदि कुछ दूषित रक्त रह जावे, तो भी कुछ हानि नहीं । पर सागारधूमलवणतैलैर्दिह्याच्छिरामुखम् ।। अधिक स्राव न करना चाहिये। शेष रक्त सिंगी आदिसे निकासम्यक् प्रवृत्ते कोष्णेन तैलेन लवणेन च ॥ १२॥ लना अथवा शुद्ध कर लेना चाहिये । मर्मस्थानको छोड़कर जहांसे अशुद्धो बलिनोऽप्यस्रं न प्रस्थात्स्रावयेत्परम् । दूषित रक्त निकल सके, वहां शिराव्यध करना चाहिये॥१४.१९ अतिसुतो हि मृत्युःस्याहारुणा वानिलामयाः १३॥ शिराव्यधनिषेधः। तत्राभ्यङ्गरसक्षीररक्तपानानि भेषजम् । न तूनषोडशातीतसप्तत्यन्दसुतासृजाम् ॥ २० ॥ ठीक रक्त न बहनेपर वायविडंग, त्रिकटु, हल्दी, तगर, अस्निग्धास्वेदितात्यर्थस्वेदितानिलरोगिणाम् । गृहधूम, लवण और तैल मिलाकर शिरामुखपर लेप करना गर्भिणीसूतिकाजीर्णपित्तास्रश्वासकासिनाम् ॥२१॥ चाहिये । तथा बलवान् पुरुषका भी एक एक प्रस्थसे अधिक अतिसारोदरच्छर्दिपाण्डुसर्वाङ्गशोषिणाम् । रक्त न निकलने देना चाहिये । क्योंकि अधिक रक्त निकल स्नेहपीते प्रयुक्तेषु तथा पञ्चसु कर्मसु ॥ २२ ॥ जानेपर मृत्यु अथवा कठिन वातरोग हो जाते हैं । ऐसी अव नायन्त्रिता शिरां विध्येन तिर्यक् नाप्यनुत्थिताम् । स्थामें मालिश करना तथा मांसरस दूध, और रक्त पिलाना हितकर है॥ १२ ॥ १३ ॥ नातिशीतोष्णवाताभ्रेष्वन्यत्रात्ययिकाद्दात् ॥२३॥ उत्तरकृत्यम् । सोलह बर्षसे कम और ७० वर्षसे अधिक अवस्थावालोंकी शिरा न वेधनी चाहिये । तथा अस्निग्ध, अस्वेदित, अधिक खुते रक्ते शनैर्थन्त्रमपनीय हिमाम्बुना ॥ १४ ॥ |स्वेदित तथा वातरोगवाले, गर्भिणी, सूतिका, अजीणे, रक्तपित्त, प्रक्षाल्य तैलप्लोताक्तं बन्धनीयं शिरामुखम् ।। | श्वास, कास, अतःसार, उदररोग, छर्दि, पाण्डुरोग तथा सींगअशुद्धं स्रावयद् भूयः सायमहयपरेऽपि वा ॥१५॥ शोफवाले पुरुषोंकी शिरा न वेधनी चाहिये । तथा स्नेह पी रक्त त्वतिष्ठति क्षिप्रं स्तम्भनीमाचरक्रियाम। ' लेनेपर व पञ्चकर्म कर लेनेपर शिराव्यध न कल्ना चाहिये । तथा विना यन्त्रण किये भी शिराव्यध न करना चाहिये। तथा तिरछी लोधप्रियगुपत्तङ्गमाषयष्टयागैरिकैः ॥ १६ ॥ या विना उठी शिरा न वेधनी चाहिये। तथा अधिक आवश्यकता मृत्कपालाजनक्षीममसीक्षीरित्वगङ्कुरैः। |न होनेपर अतिठण्डे, अतिगरम, अतिव यु तथा अतिमघयुक्त विचर्णयहणमुखं पोकादिहिमं पिबेत् ॥ १७॥ समयमें शिराव्यध न करना चाहिये ॥२०-२३॥ तामेव वा शिरां विध्येद्वयधात्तस्मादनन्तरम् ।। शिरामुखं वा त्वरितं दहत्तप्तशलाकया ॥ १८ ॥ पथ्यव्यवस्था। सशेषमप्यमृग्धायै न चातियुतिमाचरेत् । नात्युष्णशीतं लघु दीपनीयं हरेच्छृङ्गादिना शेषं प्रसादमथवा नयेत् ॥ १९ ॥ रक्तेऽपनीते हितमन्नपानम् । मर्महीनं यथासन्नप्रदेशे व्यधयेच्छिराम् । तदा शरीरं ह्यनवस्थितामृक् वह्निर्विशेषेण च रक्षणीयः॥ २४ ॥ रक्त निकल जानेपर धीरेसे यन्त्र खोल ठण्ढे जलसे धो तैलसे नरो हिताहारविहारसेवी तर कपड़से शिरामुख बाँधना चाहिये। यदि अशुद्ध रक्त रह मासं भवेदाबललाभतो वा । गया हो, तो सायंकाल अथवा दूसरे दिन पुनः शिराव्यध करना चाहिये। यदि रक्त रुकतान हो, तो शीघ्र ही रक्त रोकनेका उपाय | रक्त निकल जानेपर न बहुत गर्म, न बहुत ठण्ढा, लघु करना चाहिये । लोध, प्रियंगु, लाल चन्दन, उड़द, मौरेठी, तथा दीपनीय अन्न पान हितकर है । उस समय शरीरका रक्त गेरू, मिट्टीका खपड़ा, सुरमा, अलसीके वस्त्रकी भस्म तथा संक्षुब्ध रहता है, अतः अमि विशेषतः रक्षणीय है । क्षीरिवृक्षोंकी छाल और अंकुर सबका महीन चूर्ग कर घणके इस प्रकार एक मासतक अथवा जबतक बल न आ जाय, ऊपर उरीना चाहिये । तथा पद्मकादि हिम पीना चाहिये। मनुष्यको हितकारक आहार विहार सेवन करना चाहिये॥२४॥ विशुद्धगक्तिनो लक्षणम् । . १ " पद्मकपुण्ड्रौ वृद्धितुगद्धर्थः शृङ्गथमृता दशजीवनसंज्ञाः । प्रसन्नवर्णेन्द्रियामिन्द्रियार्थास्तन्थकरा नन्तीरणपित्तं प्रीणनजीवनबृंहणधृष्याः " निच्छन्तमव्याहतपकूटबेगम। ... Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [स्वस्थवृत्ता सुखान्वितं पुष्टिबलोपपन्नं ताम्बूलं क्षतपित्तास्ररूक्षोत्कुपितचक्षुषाम् । विशुद्धरक्तं पुरुषं वदन्ति ॥ २५ ॥ विषमूर्छामदार्तानामपथ्यं चापि शोषिणाम् ।।५।। जिसका रक्त शुद्ध हो जाता है, उसकी इन्द्रियाँ प्रसन्न, काला सुरमा नेत्रोंके लिये हितकर है। अतः इसका प्रतिवर्ण उत्तम तथा इन्द्रियोंके विषयोंकी इच्छा और अग्नि दीप्त |दिन प्रयोग करना चाहिये । तथा सातवें या आठवें दिन होती है । तथा पुरुष सुखी, बल व पुष्टिसम्पन्न होता रावणके लिये रसौतका प्रयोग करना चाहिये। फिर नस्य, गण्डूष, धूमपान और ताम्बूलका सेवन करना चाहिये । पर ताम्बूल व्रण, रक्तपित्त, रूक्ष, नेत्ररोग, विष, मूर्छा इति शिराव्यधाधिकारः समाप्तः । तथा नशासे पीड़ित और शोषवालोंके लिये हानिकर अथ स्वस्थवृत्ताधिकारः। अभ्यङ्गव्यायामादिकम् । अभ्यङ्गमाचरोन्नित्यं स जराश्रमवातहा। दिनचर्याविधिः। शिरःश्रवणपादेषु तं विशेषेण शीलयेत् ॥६॥ वज्योऽभ्यङ्गः कफग्रस्तकृतसंशद्धयजीणिभिः । ब्राझे मुहूर्ते उत्तिष्ठेत्स्वस्थो रक्षार्थमायुषः।। शरीरचिन्तां निवर्त्य कृतशोचविधिस्ततः ॥ १॥ शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलवर्धिनी ।। ७ ।। देहव्यायामसंख्याता मात्रैया तां समाचरेत् । प्रोतर्युक्त्वा च मृद्वनं कषायकटुतिक्तकम् ।। वातपित्तामयी बालो वृद्धोऽजीर्णी च तं त्यजेत् ।।८ भक्षयेहन्तपवनं दन्तमांसान्यबाधयन् ॥ २॥ उतनं तथा कार्य ततः स्नानं समाचरेत् । नाबादजीर्णवमथुश्वासकासज्वरादितः। उष्णाम्बुनाध:कायस्य परिषेको बलावहः ॥९॥ तृष्णास्यपाकहनेत्रशिरःकर्णामयी च तत् ॥३॥ तेनैव तूत्तमाङ्गस्य बलहत्केशचक्षुषाम् । स्वस्थ पुरुषको आयुरक्षाके लिये ब्राह्ममुहूर्तमें उठना चाहिये।। स्नानमर्दितनेत्रास्यकर्णरोगातिसारिषु ॥१०॥ तथा शरीरकी अवस्थाका विचारकर शौच आदि विधि करनी आध्मानपीनसाजीर्णभुक्तवत्सु च गर्हितम् । चाहिये । तदनन्तर कषाय, कटु, या तिक्तरस युक्त दन्तधावनको | नीचरोमनखश्मश्रुनिर्मलाध्रिमलायनः ॥ ११ ॥ " दाँतोंसे खूब चबाचबाकर मुलायम कूची बना उसी कूचीसे | स्नानशीलः सुसुरभिः सुवेषो निर्मलाम्बरः। दाँतोंको इस प्रकार रगड़ना चाहिये कि दाँतोंके मांस न कट धारयेत्सततं रत्नसिद्धमन्त्रमहौषधीः ॥ १२॥ जावें । तथा जिसे अजीर्ण, वमन, श्वास, कास, ज्वर, प्यास, मुखपाक तथा हृदय, नेत्र, शिर या कर्णके रोग हैं, उसे दन्त-| मालिश प्रतिदिन करनी चाहिये । वह मालिश थकाधावन न करना चाहिये ॥१-३॥ वट, वृद्धावस्था और वायुको नष्ट करती है। तथा शिर, कान और पैरों में उसका प्रयोग विशेष कर करना चाहिये । अञ्जनादिविधिः। तथा कफप्रस्त, संशोधन किये हुए और अजीर्णवालोंको सौवीरमजनं नित्यं हितमक्ष्णोः प्रयोजयेत । अभ्यङ्गन करना चाहिये। जो शरीरकी चेष्टा शरीरको बल वान् बनाती तथा स्थिर रखती है, उसे "व्यायाम" कहते हैं । सप्तरात्रेऽष्टराने वा लावणार्थ रसाजनम् । उसे मात्रासे करना चाहिये। पर वातपित्तरोगयुक्त, बालक, ततो नावनगण्डूषधूमताम्बूलभाग्भवेत् ॥४॥ वृद्ध और अजीर्णवालोंको व्यायाम न करना चाहिये । इसके अनन्तर उबटन लगाना चाहिये। फिर स्नान करना चाहिये । १“प्रातर्भुक्त्वा च" का अर्थ यद्यपि प्रातःकाल और गल आर| शिरको छोड़ गरम जलसे स्नान करना पैरोंको बलवान् भोजन कर है, तथा चरको “द्वो कालो दन्तपवनं क्षयेन्मुख-लाता है। पर उसीसे शिर धोना बालों और नेत्रोंके लिये . धावनम् " से दो बार दन्तधावन बताया है । पर अधिकतर--- अधिकतर- हानिकर होता है। पर स्नान अदित, कर्णरोग, नेत्ररोग, मुखप्रचलित पद्धति प्रातःकालके लिये है । अतः प्रातःकालके लिये ही रोग, आध्मान ( पेटका फूलना ), पीनस तथा अजीर्णसे लिखा है ॥ पीड़ित तथा भोजन किये हुए पुरुषोंको न करना चाहिये। तथा २“रात्रेः पश्चिमयामस्य मुहू? यस्तृतीयकः । रोम, नख, दाढी, मूंछ छोटे रखना अर्थत् बनवाये रहना ___स ब्राझ इति विशेयो विहितः स प्रबोधने "। चाहिथे । तथा पैर और मलस्थान साफ रखना चाहिये । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः] . भाषाटीकोपेतः। - स्नान, सुगन्धयुक्त पदार्थोंका उपयोग, उत्तम वेष, विमलवस्त्र | गोधूमपिष्टमांसेक्षुक्षीरोत्थविकृती ॥१९॥ तथा सदा रत्न, सिद्धमन्त्र तथा औषधियां धारण करना | नवमन्नं वसां तैलं शौचकार्ये सुखोदकम् , चाहिये ॥६-१२॥ युक्त्यार्ककिरणान्स्वदं पादत्राणं च सर्वदा ॥ एका सामान्यनियमाः। प्रावाराजिनकौशेयप्रवेणीकुथकास्तृतम् । सातपत्रपदत्राणो विचरेद्युगमात्रदृक् । उष्णस्वभावैर्लघुभिः प्रावृतः शयनं भजेत् ॥ २१ ॥ निशि चात्ययिके कार्ये दण्डी मौली सहायवान् १३ अङ्गारतापसंतप्तगर्भभूवेश्मनि प्रियाम् । जीर्णे हितं मितं चाद्यान्न वेगानीरयेद्वलात् । । । पीवरोरुस्तनश्रोणीमालिङ्गयागुरुचर्चिताम् ।। २२ ॥ न वेगितोऽन्यकार्य:स्यान्नाजित्वा साध्यमामयम् १४| हेमन्तऋतु में बलवान् पुरुषका अग्नि शीतसे ढके रहनेके कारण दशधा पापकर्माणि कायवाङ्मानसैस्त्यजेत् । बलवान होता है । इसलिये इस ऋतु (मार्गशीर्ष, पौष ) में काले हितं मितं यादविसंवादि पेशलम् ।। १५ । चिकने, मीठे. खट्टे और नमकीन रसोंका सेवन करना चाहिये। आत्मवत्सततं पश्येदपि कीटपिपीलिकाम् । अतः गेहूँ, उड़दकी पिट्ठी, मांस, ईख और दूधसे बने पदार्थ, आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।। १६॥ नवीन अन्न, चर्बी तथा तैलका अधिक उपयोग करना चाहिये । नदिनानि मे यान्ति कथंभूतः संप्रति । तथा युक्ति ( जहां तक सहन हो तथा सूर्यकी ओर दुःखभाङ् न भवत्येवं नित्यं सन्निहितस्मृतिः।।१७।।। पीठ कर ) से सूर्यकी धूपमें घूमना चाहिये । और शौचादिके जूता पहिन तथा छाता लेकर बाहर जाना चाहिये । तथा| लिये गरम जलका उपयोग करना चाहिये। अग्नि तापनी चार हाथ आगे देखकर चलना चाहिये। रात्रिमें आवश्यक | चाहिये । पैरोंको सदा गरम रखना चाहिये । गद्दा, मृगचर्म, कार्य होने पर ही जाना चाहिये । तथा हाथमें दण्डा रखना | रेशमी वस्त्र, रेडी या कम्बल बिछी शय्यापर गरम स्वभाववाले चाहिये। शिरमें साफा बांधकर जाना चाहिये। और सहायक तथा हल्के वस्त्र ओढकर सोना चाहिये । अंगीठी रखकर गरम साथमें रखना चाहिये । अन्न पच जानेपर ही हितकारक तथा किये हुए कमरों में गर्भगृह तथा भूगृहमें शय्या (चारपाई) बिछाना मात्रामें भोजन करना चाहिये । वेगोंको बलपूर्वक न निका-1 चाहिये ।तथा अगुरुसे लिप्त स्थूल ऊरु, कुच तथा कमरयुक्त प्रियाका आलिंगन कर सोना चाहिये ॥ १९-२२॥ लना चाहिये । तथा वेग उपस्थित होनेपर उससे निवृत्त होकर | ही दूसरा काम करना चाहिये । तथा साध्य रोगकी उपेक्षा न शिशिरचर्या । करनी चाहिये । सब कामोंको छोड़कर सर्व प्रथम रोगनिवृत्तिका ___ अयमेव विधिः कार्यः शिशिरेऽपि विशेषतः। उपाय करना चाहिये। शरीर, मन तथा वाणसे दश प्रकार तदा हि शीतमधिकं रोक्ष्यं चादानकालजम्॥२३॥ (हिंसा, चोरी, व्यर्थका काम, दूसरेका बुरा चाहना, चुगली, शिशिरऋतु में भी यही विधि सेवन करनी चाहिये । उस कठोर शब्द कहना, झूठ बोलना, असम्बद्ध प्रलाप, ईष्या, दुःख समय शीत अधिक होता है। और आदान कालजन्य रूक्षता बढ देना, बुरे भावसे देखना.) के पाप त्याग देने चाहियें। तथा जाती है. अतः अधिक उष्ण तथा स्निग्ध आहार विहार सेवन समयपर हितकारक थोड़ा, मधुर, तथा सन्देहरहित बोलनासा चाहिने चाहिये । अपने ही समान दूसरे यहां तक कि कीड़े तथा चीटि वसन्तचर्या । योंको भी जानना चाहिये । जो दूसरेका व्यवहार अपनेको बुरा लगे वह दूसरोंके साथ नहीं करना चाहिये । मेरे रात दिन किस कफश्चितो हि शिशिरे वसन्तेऽकौशुतापितः । प्रकार बीतते हैं, इसका ध्यान रखनेवाला कभी दुःखी नहीं होता, हत्वाग्निं कुरुते रोगांस्ततस्तत्र प्रयोजयेत् ॥२४॥ क्योंकि उसकी स्मरणशक्ति ताजी रहती है । तथा बेकार नहीं। तीक्ष्णं वमननस्याद्यकवलग्रहमञ्जनम् । रहता ॥ १३-१७ ॥ व्यायामोद्वर्तनं धूमं शौचकार्ये सुखोदकम् ॥२५॥ ऋतुचर्याविधिः। स्नातोऽनुलिप्तः कर्पूरचन्दनागुरुकुकुमैः । मासैर्द्विसंख्यैर्माघाद्यैः क्रमात्षतवः स्मृताः।। पुराणयवगोधूमक्षौद्रजाङ्गलशूल्यभुक् । शिशिरोऽथ वसन्तश्च ग्रीष्मवर्षाशरद्धिमाः ॥१८॥ प्रपिबेदासवारिष्टसीधुमार्तीकमाधवान् ॥२६॥ माघादि दो दो महीनोंसे ६ ऋतु होते हैं । उनके नाम| वसन्तेऽनुभवेत्स्त्रीणां काननानां च यौवनम् । क्रमशः शिविर, वसन्त, प्रीष्म, वर्षा, शरद् तथा हेमन्त हैं॥१८ गुरूष्णस्निग्धमधुरं दिवास्वप्नं च वर्जयेत् ॥२७॥ हेमन्तचर्याविधिः। शिशिरऋतुमें सञ्चित हुआ कफ वसन्त ऋतु में सूर्यको किरणोंसे बलिनः शीतसंरोधाद्धेमन्ते प्रबलोऽनलः । तपनेसे पिघलकर अग्नि मंद करता हुआ अनेक रोग उत्पन्न कर सेवेतातो हिमे स्निग्धस्वाइम्ललवणान् रसान् । देता है । अतः इस ऋतुमें तीक्ष्ण, वमन, नस्य, कालमह, Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रदत्तः। [स्वस्थवृत्तान भोजन और अजन प्रयुक्त करना चाहिये। तथा व्यायाम, उबटन वर्षाऋतु में पृथ्वीकी भाफ, मेघाँके बरसने और जलके और धूमका प्रयोग करना चाहिये । शौचादिके लिये कुछ गुन-पाक हानेके कारण वातादिक दोष कुपित होते हैं । अतः गुना जल सेवन करना चाहिये। तथा स्नान कर कपूर, चंदन, ऋतु में समस्त साधारण तथा अमिदीपक पदार्थों का सेवन व अगर और केशरका लेप करना चाहिये । तथा पुराने यव, गेहूं, चाहिये। तथा आस्थापन बस्तिसे शुद्ध शरीर होकर पुराने धा शहद तथा कोयलोपर पकाया जांगल प्राणियोंका. मांस खाना बनाये गये रस, जांगलमांस, यूष, पुराना मध्धारिष्ट तथा अ चाहिये । और मुनक्का तथा शहद छोड़कर बनाये गये आसव, शका वर्षा हुआ अथवा कुएका जल गरमकर सेवन करना चा।' अरिष्ट तथा सीधु पीना चाहिये । तथा इस ऋतुमें स्त्रियोंका तथा और आति दुर्दिनमें (जब मेघ घेरे ही रहें) अम्ल, लवण. वनोंका आनंद लेना चाहिये । तथा भारी, गरम, चिकने और और शहद मिला हुआ सूखा भोजन करना चाहिये । तथ। मीठे व्रव्य तथा दिनमें सोना त्याग देना चाहिये ॥ २४-२७ ॥ ऋतुमें नदीका जल, सत्तुओंका मन्थ, दिनमें सोना, पा ग्रीष्मचर्या। और धूप इनको त्याग देना चाहिये ॥३३-३६॥ मयूखैर्जगतः स्नेहं प्रीष्मे पेपीयते रविः। शरचर्या । स्वादु शीतं द्रवं स्निग्धमन्नपानं तदा हितम् ॥२८॥ वर्षाशीतोचिताङ्गानां सहसैवार्करश्मिभिः । शीतं सशर्करं मन्थं जाङ्गलान्मृगपक्षिणः।। तप्तानामाचितं पित्तं प्रायः शरदि कुप्यति ।। ३ घृतं पयः सशाल्यन्नं भजन्ग्रीष्मे न सीदति ॥२८॥ तज्जयाय घृतं तिक विरेको रक्तमोक्षणम्। मद्यमल्पं न वा पेयमथवा सुबहूदकम् । तिक्तस्वादुकषायं च क्षुधितोऽन्नं भजेल्ला. मध्याह्ने चन्दनााङ्गः स्वप्याद्धारागृहे:निशि ॥३०॥ इक्षवः शालयो मुद्राः सरोऽम्भः क्वथित निशाकरकराकीर्णे प्रवाते सौधमस्तके। निवृत्तकामो व्यजनैः पाणिस्पर्शीः सचन्दनैः ॥३१॥ शरद्येतानि पथ्यानि प्रदोषे चेन्दुरश्मर सेव्यमानो भजेदास्यां मुक्तामगिविभूषितः। शारदानि च माल्यानि वासांसि विमलानि ' लवणाम्लकटूष्णानि व्यायाम चात्र वर्जयेत् ॥३२॥ तुषारक्षारसौहित्यदधितैलरसातपान् ।। ४० । ग्रीष्मऋतुमें सूर्य भगवान अपनी किरणों द्वारा संसारका स्नेह तीक्ष्णमद्यदिवास्वप्नपुरोवातातपस्त्यिजेत् । खींच लेते हैं, अतः इस ऋतुमें मीठे, शीतल पतले तथा स्नेह वर्षाऋतुमें कुछ शीतका अभ्यास रहता है, पर शर युक्त अन्नपान हितकर होते हैं । शक्कर व जल मिलाकर पतले सत्त. सहसा अ गरम हो जाते हैं । अतः सञ्चित पित्त कुरि जांगल प्राणियोंका मांस, घी, दूध और चावलका इस ऋतुमे | |जाता है। उसकी शान्तिके लिये तिक्त घृत, रक्तमोक्ष सेवन करनेवाला दुःखी नहीं होता । मद्य पीना ही न चाहिये । विरेचन लेना चाहिये । और भूख लगनेपर तिक्त, मीठा, और यदि पीवे ही तो थोड़ा पीना चाहिये । और बहुत जल | और हल्का अन्न खाना चाहिये । तथा ईखके पदार्थ, मिलाकर पीना चाहिये । मध्याह्नमें शरीरपर चन्दनका लेप कर | मूंग, तालाबका जल, गरम दूध और सायङ्काल चन्दा फुहारे चलते हुए घरमें सोना चाहिये, रात्रि में चन्द्रमाकी रोश- सेवन करना ये सब इस ऋतु लाभदायक है । और शर नीसे युक्त हवा लगनेवाली महलकी अटारीपर चन्दनके जलसे | तर, खशके पंखोंकी हवा खाते हुए मुक्ता मणिसे विभूषित | चाहिये। तथा बर्फ, क्षार, तृप्तिपर्यंत भोजन, दही, तैल, कामका सेवन न करते हुए सोना चाहिये । नमकीन, खट्टे धूप, तीक्ष्ण मद्य, दिनमें सोना, पूर्वकी वायु और धूप कहुए और गस्म पदार्थ त्याग देने चाहियें । तथा व्यायाम न देने चाहियें ॥ ३७-४०॥ करना चाहिये ॥ २८-३२॥ सामान्यतुचर्या । वर्षाचर्या । शीते वर्षासु चाद्यांस्त्रीन्वसन्तेऽन्त्यारसान्भ भूबाष्पान्मेघनिस्यन्दात्पाकादम्लाजलस्य च । स्वादून्निदाघे शरदि स्वादुतिक्तकषायकान् वर्षास्वग्निबले क्षीणे कुप्यन्ति पवनादयः॥ ३३ ॥ शरद्वसन्तयो रूक्षं शीतं धर्मघनान्तयोः॥ भजेत्साधारणं सर्वमूष्मणस्तेजनं च यत् । अन्नपान समासेन विपरीतमतोऽन्यथा । आस्थापनं शुद्धतनुर्जीण धान्यं कृतान्सान् ॥३४॥ नित्यं सर्वरसाभ्यासः स्वस्त्राधिक्यमृतावृत जाङ्गलं पिशितं यूषान्मध्वारष्टं चिरन्तनम् ।। ऋत्वोराद्यन्तसप्ताहावृतुसान्धरिति स्मृतः। दिव्यं कोपं शृतं चोम्भो भोजनं त्वतिदुर्दिने ॥३५॥ तत्र पूर्वो विधिस्त्याज्यः सेवनीयोऽपरः क्र व्यक्ताम्ललवणस्नेहं संशुष्कं क्षौद्रवल्लघु । इत्युक्तमृतुसात्म्यं यच्चेष्टाहारव्यपाश्रयम् । नदीजलोदमन्थाहः स्वप्नायासातपस्त्यिजेत् ॥३६ ।। उपशेते यदौचित्यादोकसात्म्यं तदुच्यते । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारः ऋतु आनेवाले की विधि छोडा और आजही भाषाटीकोपेतः। चन्न्न्न्न्न न्न्न् शीत तथा वर्षामें मीठे, खट्टे और नमकीन पदार्थ, वसन्त- गौड़ाधिनाथ (नयपाल नामक नृपति) के पाकशालाके में कटु, तिक्त और कषैले पदार्थ, ग्रीष्ममें मीठे और | आधिकारी तथा प्रधान मंत्री नारायणके पुत्र सुनीतिज्ञ तथा ऋतुमें मीठे तिक्त तथा कषैले पदार्थ सेवन करना चाहिये । अन्तरङ्ग पदवी प्राप्त भानुके छोटे भाई, प्रसिद्ध लोध्रवंशमें उत्पन्न | संक्षेपतः अन्नपान बताया है । इसके विपरीत हानिकर श्रीचक्रपाणिजीने यह ग्रन्थ बनाया है। जो पुरुष (वृन्दप्रणीत)सिद्ध झना चाहिये । नित्य सभी रसोंका सेवन करना चाहिये । पर योगसे अधिक लिखे गये इस ग्रंथके योगोंको सिद्ध योगमें ही मिला दे ने अपने ऋतुम अपने अपने रसकी अधिकता होनी चाहिये। (सिद्धयोगके ही सब योग बता दे ) अथवा इस ग्रंथसे ही ऋतुओंके मध्यके दो सप्ताह (बीतते हुए ऋतुका अन्तिम | निकाल दे, उसके ऊपर भत्रय (कारिका, बृहट्टीका, चन्द्रटीका) और आनेवाले ऋतुका प्रथम सप्ताह ) "ऋतुसन्धि" कहा| और ऋग्यजुःसामरूप तीनों वेदोंके जाननेवालेको शाप पड़े ॥२॥ है। उसमें क्रमशः पूर्वकी विधि छोड़नी और आगेकी विधि इति श्रीमन्महामहिम-चरकचतुरानन-चक्रपाणिप्रणीतः ग करनी चाहिये । यह ऋतुसात्म्य चेष्टा और आहारके चिकित्सासारसंग्रहापरनामकःचक्रदत्तः समाप्तः । सार बताया और जो अभ्यास होनेके कारण सदा लाभ ही| ना है, उसे "ओकसात्म्य" कहते हैं ॥ ४१-४५ ॥ टीकाकारपरिचयः। उपसंहारः। उन्नाम ( उन्नाव) नामास्ति विशालमण्डलं देशानामामयानां च विपरीतगुणं गुणैः । ग्रामः पटीयानि (पटियांरां)ति तत्र विश्रुतः । "मिच्छन्ति सात्म्यज्ञाश्चेष्टितं चाद्यमेव च ४६ तत्राभवद् भूरितपा महात्मा यो वाजपेयीत्युपमन्युवंश्यः॥१॥ यं प्रयुञ्जीत स्वास्थ्यं येनानुवर्तते । र हाथ श्रीद्वारकानाथ इति प्रसिद्धः हना विकाराणामनुत्पत्तिकरं च यत् ॥४७॥ पुत्रस्तदीयोऽयमतीव नम्रः । रस्येव रथस्येव रथी यथा । ' श्रीयादवाद्वैद्यगणप्रपूजितावंशरीरस्य मेधावी कृत्येष्ववहितो भवेत् ॥ ४८॥ दधीत्य वेदं खिलनित्यगस्य ॥२॥ और रोगोंके गुणोंसे विपरीत गुणयुक्त कर्म तथा भोजन श्रीविश्वनाथस्य प्रिया प्रसिद्धा त्म्यि" कहे जाते हैं। उस विधिका नित्य प्रयोग करना चाहिये, काशीपुरी येन सुशोभतेऽद्य । उसे स्वास्थ्यकी प्राप्ति हो और अनुत्पन्न रोग उत्पन्न ही न हों। श्रीविश्वविद्यालयनामकोऽस्ति प्रकार नगरका स्वामी नगरके कार्योंमें तथा रथका स्वामी विद्यालयो विश्वविलब्धकीर्तिः ॥३॥ के विषयमें सावधान रहता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् मनुष्यको यत्स्थापको विदितविश्वजनीनवृत्तो ने शरीरकी रक्षाके लिये सावधान रहना चाहिये ॥४६-४८॥ विच्छिन्नधर्मपथशुद्धिधृतावतारः । इति स्वस्थवृत्ताधिकारः समाप्तः । श्रीहिन्दुमानपरिरक्षणवर्द्धनोक्तः पूज्यः सतां मदनमोहनमालवीयः॥४॥ ग्रन्थकारपरिचयः। गौडाधिनाथरसवत्याधिकारिपात्र अध्यापने तेन नियोजितोऽयं नारायणस्य तनयः सुनयोऽन्तरङ्गात् । वैद्यो जगन्नाथप्रसादशर्मा । भानोरनुप्रथिवलोध्रवलीकुलीन: विशोधयन्निर्मितवान्सुबोधिनी श्रीचक्रपाणिरिह कर्तृपदाधिकारी ॥१॥ श्रीचक्रदत्तस्य गतार्थटीकाम् ॥५॥ यः सिद्धयोगलिखिताधिकसिद्धयोगा रामाष्टाङ्कमृग काब्दे व्यासपूजनवासरे। नत्रैव निक्षिपति केवलमुद्धरेद्वा । पूर्तिमाप्ता यतस्तस्मादर्पिता गुरुहस्तयोः ॥६॥ भट्टत्रयत्रिपथवेदविदा जनेन इति श्रीमदायुर्वेदाचार्यपण्डितजगन्नाथप्रसादशर्मणा प्रणीता सुबोधिन्याख्या चक्रदत्तस्य व्याख्या समाप्ता। दत्तः पतेत्सपदि मूर्धनि तस्य शापः॥२॥ -- पुस्तक मिलनेका ठिकानागङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदास, खेमराज श्रीकृष्णदास, "लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर" स्टीम्-प्रेस, "श्रीवेङ्कटेश्वर" स्टीम्-प्रेस, कल्याण-बम्बई. खेतवाडी-बम्बई. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋय्य पुस्तकें - वैद्यकग्रन्थाः । 180 नाम. " अष्टाङ्गहृदय - ( वाग्भट ) मूल, वाग्भटविरचित । इसमें सूत्रस्थान शारीरस्थान, निदानस्थान, चिकित्सास्थान, कल्पस्थान, उत्तरस्थान इत्यादिमें संपूर्ण रोगोंकी उत्पत्ति, निदान, लक्षण और क्वाथ, चूर्ण, रस, घी, तैल आदिसे अच्छी चिकित्सा वर्णित है - अष्टाङ्गहृदय - (वाग्भट ) भाषाटीकासहित । इस वाग्भटकृत मूलकी शिवदीपिका नामक भाषाटीका पटियाला राज्यके प्रधान चिकित्सक वैद्यर पं० रामप्रसादजी राजवैद्यके सुपुत्र पं० शिवशर्मा आयुर्वेदाचार्यजीने ऐसी सरल बनाई है कि जो सर्वसाधारणके परमोपयोगी है. अष्टाङ्गहृदय - (वाग्भट ) सूत्रस्थान - वाग्भटकृत मूल तथा अरुणदत्तकृत सर्वाङ्गसुन्दर, चन्दनदत्तकृत पदार्थचन्द्रिका, हेमाद्रिकृत आयुर्वेदरसायन और कठिन स्थलपर पटियाला - राजवैद्य वैद्यरत्न पं० रामप्रसादजीकृत टिप्पणीसहित. (शेष स्थान छप रहे हैं ) . अष्टाङ्गहृदय (वाग्भट ) सूत्रस्थान - वाग्भटविरचित तथा पटियाला राजवैद्य वैद्यरत्न पं० रामप्रसादजीके सुयोग्य पुत्र, विद्यालंकार शिवशर्मकृत भाषा - टीका और संदिग्ध विषयोंपर संस्कृत टिप्पणीसहित अमृतसागर - भाषा । इसमें सर्व रोगों के वर्णन और गुत्न हैं । इसके द्वारा बिना गुरु वैद्य हो सकते हैं । ग्लेज कागज. अमृतसागर - भाषा । उपरोक्त रफ कागज अर्कप्रकाश- लंकापति रावणकृत ) 8000 .... **** .... 66 .... .... की ० भाषाटीकासहित इसमें नाना प्रकारले यन्त्रोंसे ओषधियोंका अर्क खींचना और गुणवर्णन भले प्रकारसे किया गया है. अनुपान दर्पण-भाषाटीकासहित । इसमें रस धातु बनानेकी क्रिया और रोगा'नुसार औषधों के अनुपान वर्णित हैं. .... .... ( बडी सूची अलग है सो मंगाकर देखिये ) पुस्तकें मिलनेका ठिकाना गङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदास, 66 ० रु० आ० लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर " स्टीम् - प्रेस, कल्याण- बम्बई. ४-० १०-० ६-० ३-० ३-० २-८ १-८ १-० Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 但 《 《《 《《 0 不全全全全全全 元。 全公公公公公 》》》》