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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
(३२१)
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ठीक ठीक स्नेहन हो जानेपर वायुका अनुलोमन, आग्निदीप्त, |
स्नेह विचारः। मल ढीला व चिकना तथा स्नेहसे उद्वेग और ग्लानि होती है ।
ग्राम्यानूपौदकं मांसं गुडं दधि पयस्तिलान् । ठीक स्नेहन न होनेपर इससे विपरीत लक्षण होते हैं । स्नेहनके
कुष्ठी शोथी प्रमेही च स्नेहने न प्रयोजयेत् ॥३२॥ अतियोगसे पाण्डुता तथा नासिका, मुख और गुदसे स्राब होता|
स्नेहैर्यथास्वं तान्सिद्धैः स्नेहयेदविकारभिः । है ॥ २४ ॥ २५॥
पिप्पलीभिर्हरीतक्या सिद्धैत्रिफलया सह ॥३३॥ . अस्निग्धातिस्निग्धचिकित्सा ।
कुष्ठ, शोथ तथा प्रमेहसे पीड़ित पुरुषोंके लिये ग्राम्य, आनूप रूक्षस्य स्नेहनं कार्यमतिस्निग्धस्य रूक्षणम् । | या औदकमांस, गुड, दही, दूध व तिलका प्रयोग स्नेहनके लिये श्यामाककोरदूषान्नतक्रपिण्याकसक्तभिः ॥२६॥न करना चाहिये। उनका उनके रोगोंको शान्त करनेबाली रूक्षतामें (स्नेहके अयोगमें ) स्नेहन तथा अतिस्निग्धके लिये| ओषधियों, पीपल, हर्र, त्रिफला, आदिसे सिद्ध, विकार न करनेसविा कोदाका भात, मट्ठा, तिलकी खली और सत्त खिलाकर वाले नहाँसे स्नेहन करना चाहिये ॥३२॥३३॥ रूक्षण करना चाहिये ॥२६॥
उपसंहारः। सद्यःस्नेह्याः।
स्नेहमग्रे प्रयुजीत ततः स्वेदमनन्तरम् ।
स्नेहस्वेदोपपन्नस्य संशोधनमथान्तरम् ॥ ३४ ॥ बालवृद्धादिषु स्नेहपरिहारासहिष्णुषु ।।
पहिले स्नेहन करना चाहिये, फिर स्वेदन करना चाहिये। योगानिमाननुद्वेगान्सद्यःस्नेहान्प्रयोजयेत् ॥ २७ ॥ स्नेहन, स्वेदन हो जानेपर संशोधन, वमन विरेचन, करना स्नेहके नियमोंको न पालन कर सकनेवालों तथा बालकों वारिणे ॥३॥ वृद्धोंके लिये उद्वेग न करनेवाले तथा तत्काल स्नेहन करनेवाले इन |
इति स्नेहाधिकारः समाप्तः। योगोंका प्रयोग करना चाहिये ॥२७॥ स्नेहनयोगाः।
अथ स्वेदाधिकारः। भ्रष्टे मांसरसे स्निग्धा यवागूः स्वल्पतण्डुला । सक्षौद्रा सेव्यमाना तु सद्यः स्नेहनमुच्यते ॥२८॥
सामान्यव्यवस्था । भूने मांसरसमें थोड़ेसे चावलोंकी यवागू बना स्नेह मिला| वातश्लेष्मणि वाते वा कफे वा स्वेद इष्यते । शहदके साथ सेवन करनेसे तत्काल स्नेहन होता है ॥२८॥ स्निग्धरूक्षस्तथा स्निग्धो रूक्षश्वाप्युपकल्पितः॥१॥ पाश्चप्रसूतिकी पेया।
व्याधौ शीते शरीरे च महान्स्वेदो महाबले । सर्पिस्तैलवसामज्जातण्डुलप्रसृतैः शृता।
दुर्बले दुर्बलः स्वेदो मध्यमे मध्यमो मतः ॥२॥ पाश्चप्रमृतिकी पेया पेया स्नेहनमिच्छता ॥२९॥
आमाशयगते वाते कफे पक्वाशयाश्रये । घी, तैल, वसा, मजा तथा चावल प्रत्येक एक प्रमृत
रूक्षपूर्वो हितः स्वेदः स्नेहपूर्वस्तथैव च ॥३॥ (८ सोला) छोड़कर बनायी गयी ( तथा उपयुक्त जल मिला
वातकफमें स्निग्ध रूक्ष, केवल वातमें स्निग्ध तथा केवल कर ) पेया सद्यः स्नेहन करती है, इसे “पाञ्चप्रमृतिकी पेया, कफी रूक्ष स्वेद करना हितकर है। तथा शीतजन्य तथा बल. कहते हैं ॥ २९॥
वान् रोग और बलवान् शरीरमें महान स्वेद और दुर्बलमें हीन
तथा मध्यममें मध्य स्वेद हितकर है । तथा आमाशयगत वायुमें योगान्तरम् ।
पहिले रूक्ष स्वेद फिर स्निग्ध स्वेद करना चाहिये। इसी प्रकार पक्का सर्पिष्मती बहुतिला तथैव स्वल्षतण्डुला ।। शयगत ककमें पहिले स्निग्ध स्वेद करना चाहिये । अर्थात् आमा
वोष्णा सेव्यमाना त सद्यः स्नेहनमच्यते ॥३०॥शय कफका स्थान है, अतः कफकी शान्तिक लिये पहिले रूक्ष शर्कराघृतसंसृष्टे दुह्याद्रां कलशेऽथवा । स्वेद करके ही स्निग्ध स्बेद करना चाहिये । इसी प्रकार पक्कापाययेदच्छमेतद्धि सद्यः स्नेहनमुच्यते ॥३२॥ शय वायुका स्थान होनेसे वहांपर पहुँचे कफकी चिकित्सा कर. अधिक तिल, थोड़े चाबल और घी मिलाकर ( तथा
नेके लिये पहिले स्थानीय वायुकी शान्तिके लिये स्निग्ध स्वेद उपयुक्त जलमें ) बनायी गयी यवागू गरम गरम पानसे
| करके ही रूक्ष स्वेद करना चाहिये ॥ १-३॥ तत्काल स्नेहन होता है । अथवा शक्कर, व घी दोहनीमें छोड़
अस्वेद्याः। ऊपर छन्ना रख गाय दुहकर तत्काल पीनेसे सद्य स्नेहन होता। वृषणो हृदयं दृष्टी स्वेदयेन्मृदु वा न वा।
| मध्यमं वङ्क्षणी शेषमङ्गावयवमिष्टतः।।