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[आनाहानन्न्न न्
जन्मन्न्न्न् हितं वातघ्नमयं च घृतं चौत्तरभक्तिकम् ।
अथानाहाधिकारः। उद्गारजे क्रमोपेतं स्नैहिकं धूममाचरेत् ॥ २०॥ छर्याघातं यथादोष नस्यस्नेहादिमिर्जयेत् । भुक्त्वा प्रच्छर्दनं धूमो लंघनं रक्तमोक्षणम् ॥ २१॥ चिकित्साक्रमः। रूक्षान्नपाने व्यायामो विरेकश्चात्र शस्यते । ।
उदावर्तक्रियानाहे सामे लंघनपाचनम् ॥१॥ जम्माईके अवरोधसे उत्पन्न उदावर्तमें नेहन व स्वेदन आनाहमें उदावर्तकी चिकित्सा तथा आमसहितमें लंघन व करना चाहिये । आंसुओंके अवरोधसे उत्पन्नमें आंसुओंकापाचन करना चाहिये ॥१॥ लाना, सोना, मद्य पीना तथा प्रिय कथायें सुनना हितकर है। छिकाके रोकनेसे उत्पन्नमें नकछिकनीके पत्तोंको पीस नाकमें
द्विरुत्तरं चूर्णम् । रखकर छींक लाना चाहिये । तथा जत्रुके ऊपर अभ्यङ्ग, द्विरुत्तरा हिगुवचा सकुष्ठा स्वेदन तथा धूमपान व नस्य तथा वातघ्न मद्य व घृतके साथ
सुवर्चिका चेति विडङ्गचूर्णम् । भोजन करना हितकर है । उद्गारजन्यमें विधिपूर्वक स्नेहयुक्त
सुखाम्बुनानाहविषूचिकार्तिधूमपान करना चाहिये। वमनके रोकनेसे उत्पन्न उदावर्तमें
हृद्रोगगुल्मोसमीरणनम् ॥ २ ॥ दोषोंके अनुसार नस्थ, स्नेहन आदि करना, भोजन कर वमन करना, धूमपान, लंघन, रक्तमोक्षण, रूक्ष अन्नपान, व्यायाम | भूनी हींग १ भाग, दूधिया बच २ भाग, कूठ ४ भाग, तथा विरेचन देना हितकर होता है ॥ १८-२१॥
सज्जीखार ८ भाग, वायविडङ्ग १६ भाग, सबको महीन शुक्रजोदावर्तचिकित्सा।
|चूर्ण कर गुनगुने जलके साथ पीनेसे अफारा, हैजा, द्रोग, गुल्म
तथा डकारोंका अधिक आना शान्त होता है ॥२॥ बस्तिशुद्धिकरावापं चतुर्गुणजलं पयः ॥ २२ ॥ आवारिनाशाकथितं पीतवन्तं प्रकामतः ।
वचादिचूर्णम् । रमयेयुः प्रिया नार्यः शुक्रोदावर्तिनं नरम् ॥ २३ ॥ वचाभयाचित्रकयावशूकान् अत्राभ्यङ्गावगाहाश्च मदिराश्वरणायुधाः।
सपिप्पलीकातिविषान्सकुष्ठान् । शालिः पयो निरूहाश्च शस्तं मैथुनमेव च ॥२४॥ उष्णाम्बुनानाहविमूढवातान् बस्ति शुद्ध करनेवाले पदार्थोंका कल्क तथा चतुर्गुण जल
पीत्वा जयेदाशु हितोदनाशी ॥३॥ छोड़कर पकाये गये दूधको पिलाकर सुन्दरी स्त्रियोंका सहवास दूधिया बच, बड़ी हर्रका छिल्का, चीतकी जड़, यवाकरावे तथा अभ्यङ्ग ( विशेषतः वस्ति व लिङ्गमें ) जलमें खार, छोटी पीपल, अतीस तथा कूठ सबको महीन चूर्ण बैठाना, शराब, मुरगेका मांसरस, शालिके चावल, दूध, निरूहण कर गुनगुने जलके साथ पीनेसे आनाह तथा वायुकी रुकावट बस्ति और मैथुन करना विशेष हितकर है ॥ २२-२४ ॥ शीघ्र ही नष्ट होती है । इसमें हितकारक पदाथोंके साथ भात
खाना चाहिये ॥३॥ क्षुद्विघातादिजचिकित्सा। क्षुद्विघाते हितं स्निग्धमुष्णमल्पं च भोजनम् । ।
त्रिवृतादिगुटिका। तृष्णाघाते पिबेन्मन्थं यवागू वापि शीतलाम्।।२५॥ त्रिवृद्धरीतकीश्यामाः स्नुहीक्षीरेण भावयेत् । रसेनाद्यात्सुविश्रान्तः श्रमश्वासातुरो नरः। वटिका मूत्रपीतास्ताः श्रेष्ठाश्चानादिकाः ॥ ४ ॥ निद्राघाते पिबेत्क्षीरं स्वप्नः संवाहनानि च॥२६॥ निसोथ, बड़ी हर्रका छिल्का तथा काला निसोथ सबको भूखके रोकनेसे उत्पन्नमें चिकना, गरम व थोड़ा भोजन,
महीन पीस थूहरके दूधकी भावना दे गोली बना गोमूत्रके साथ
पीनेसे अफारा नष्ट होता है॥४॥ करना हितकर है। प्यासके रोकनेसे उत्पन्नमें मन्थ अथवा शीतल यवागू पीना चाहिये । श्रमज श्वाससे पीड़ित (थके हुए)
क्षारलवणम् । पुरुषको विश्राम कराकर मांसरसके साथ भोजन कराना फलं च मूलं च विरेचनोक्तं चाहिये । निद्राघातजमें दूध पीना, सोना तथा देह दबवाना
हिङ्ग्वर्कमूलं दशमूलमत्र्यम् । हितकर है ॥ २५॥२६॥
स्नुक्चित्रको चैव पुनर्नवा च इत्युदावर्ताधिकारः समाप्तः।
__ तुल्यानि सवैलवणानि पञ्च ॥५॥