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धिकारः ]
भाषाटीकोपेतः ।
श्यामादिगणः ।
श्यामा दन्ती द्रवन्तीत्वङ् महाश्यामा स्नुही त्रिवृत् ३ कहते हैं ॥ ९ ॥ १० ॥ सप्तला शंखिनी श्वेता राजवृक्षः सतिल्वकः ।
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कम्पिल्लकं करञ्जश्च हेमक्षीरीत्ययं गणः ॥ ४४ ॥ सर्पिस्तेलरजःक्काथ कल्केष्वन्यतमेषु च । उदावर्तोदरानाहविषगुल्मविनाशनः ॥ ५ ॥ काला निसोथ, दन्ती, द्रवन्ती ( दन्तीभेद ) की छाल विधारा, थूहर, सफेद निसोथ, सप्तला ( सेहुण्ड़का भेद कालादाना, सफेद विष्णुक्रान्ता, अमलतासका गूदा, पठानीलोध, कवीला, कजा तथा हेमक्षीरी ( इसे सत्यानाशी तथा भड़भाड़ भी कहते हैं ) इन औषधियोंके साथ घृत अथवा तैलका पाक करके अथवा इन औषधियांका चूर्ण, क्काथ अथवा कल्क आदि किसी प्रकार सेवन करनेसे उदावर्त, उदररोग, आनाह, विष और गुल्म नष्ट होता है ॥ ३-५ ॥ त्रिवृतादिगुटिका |
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त्रिवृत्कृष्णाहरीतक्यो द्विचतुष्पञ्चभागिकाः । गुडिका गुडल्यास्ता विविबन्धगदापहाः ॥ ६ ॥ निसोथ २ भाग, छोटी पीपल ४ भाग, बड़ी हर्रका छिल्का भाग कूट छान सबके बराबर गुड़ मिलाकर गोली बना लेनी चाहिये | यह मलकी रुकावटको नष्ट करती है ॥ ६ ॥ हरितक्यादिचूर्णम् । हरीतकीयवक्षारपीलूनि त्रिवृता तथा । घृतेश्चूर्णमिदं पेयमुदावर्तविनाशनम् ॥ ७ ॥
बड़ी हर्रका छिल्का, यवाखार, पीलु तथा निसोथ समान भाग ले चूर्ण बनाकरं घीके साथ खानेसे उदावर्त नष्ट होता है ॥७॥
हिंग्वादिचूर्णम् ।
हिंगुकुष्ठवचासर्जि विडं चेति द्विरुत्तरम् ।
पीतं मद्येन तच्चूर्णमुदावर्तहरं परम् ॥ ८ ॥
भुनी हींग १ भाग, कूठ २ भाग, वच ४ भाग, सज्जीखार ८ भाग तथा विडनमक १६ भाग ले चूर्ण बनाकर शराब के साथ पीनेसे उदावर्तरोग निःसन्देह नष्ट होता है ॥
८ ॥
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चाहिये । यह मीठा योग राजाओंके योग्य है । इसे " नाराचचूर्ण"
नाराचचूर्णम् |
खण्डपलं त्रिवृता सममुपकुल्या कर्षचूर्णितं लक्ष्णम् प्राग्भोजने च समधु विडालपदकं लिहेत्प्राज्ञः ||९|| एतद्गाढपुरीषे पित्ते कफे च विनियोज्यम् । सुस्वादुर्नृपयोग्योऽयं योगो नाराचको नाम्ना ॥ १० ॥ मिश्री ४ तोला, निसोथ ४ तोला, छोटी पीपल १ तोला इन भोषधियोंका महीन चूर्ण कर भोजनके पहिले १ तोलाकी मात्रा शहद के साथ चाटनी चाहिये । इसका कड़े दस्तों के आनेमें तथा पित्त और कफजन्य उदावर्त में प्रयोग करना
सौवर्चलाढयां मदिरां मूत्रे त्वभिहते पिबेत् । एलां वाप्यथ मद्येन क्षीरं वारि पिबेच्च सः ॥ १५ ॥ दुःस्पर्शास्वरसं वापि कषायं ककुभस्य च । एवारुबाजं तोयेन पिबेद्वा लवणीकृतम् ॥ १६ ॥ पञ्चमूलीशृतं क्षीरं द्राक्षारसमथापि वा । सर्वथैवोपयुञ्जीत मूत्रकृच्छ्राश्मरीविधिम् ॥ १७ ॥ मूत्रकी रुकावटसे उत्पन्न उदावर्त में काला नमक छोड़कर शराब पीना चाहिये । अथवा छोटी इलायचीका चूर्ण शराब के साथ अथवा जल व दूध एकमें मिलाकर पीना चाहिये । अथवा | यवासाका स्वरस अथवा अर्जुनकी छालका काथ अथवा ककड़ी के बीज पानी में पीस लवण मिलाकर पीना चाहिये । अथवा पश्ञ्चमूलसे अश्मरीनाशक विधिका सर्वथा सेवन करना चाहिये ॥१५-१७॥ सिद्ध दूध अथवा मुनक्केका रस पीना चाहिये । तथा मूत्रकृच्छ्र व जृम्भजाद्युदावर्तचिकित्सा । स्नेहस्वेदेरुदावर्त जृम्भजं समुपाचरेत् । अमोक्षोऽजे कार्यःस्वप्नो मद्यं प्रियाः कथाः १८ ॥ क्षवजे क्षवपत्रेण घ्राणस्थेनानयेत्क्षवम् । तथोर्ध्व जत्रुगोऽभ्यङ्गः स्वेदो धूमः सनावनः ॥१९॥
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लशुनप्रयोगः ।
रसोनं मद्य संमिश्रं पिबेत्प्रातः प्रकाङ्क्षितः । गुल्मोदावर्तशूलनं दीपनं बलवर्धनम् ॥ ११ ॥ प्रातःकाल भूख लगने पर शुद्ध लहसुनको मद्यके साथ मिलाकर पीवे । यह गुल्म, उदावर्त व शूलको नष्ट करता, अभि दीप्त करता तथा बलको बढ़ाता है ॥ ११ ॥ फलवर्तयः ।
हिङ्गुमाक्षिकसिन्धून्यैः पक्त्वा वर्ति सुनिर्मिताम् । घृताभ्यक्तां गुदे दद्यादुदावर्तविनाशिनीम् ॥ १२ ॥ मदनं पिप्पली कुष्ठं वचा गौराश्च सर्षपाः । गुडक्षारसमायुक्ताः फलवर्तिः प्रशस्यते ॥ १३ ॥ आगारधूम सिन्धूत्थतैलयुक्ताम्लमूलकम् । क्षुण्णं निर्गुण्डपत्रं वा स्विन्ने पायौ क्षिपेद् बुधः १४ हींग, शहद व सेंधानमकको पकाकर बनायी गयी बत्ती घी चुपरकर गुदामें रखनेसे उदावर्त नष्ट होता है । इसी प्रकार मैनफल, छोटी पीपल, कूठ, दूधिया जच व सफेद-ससों महीन पीस गुड़ और क्षार मिलाकर बनायी गयी बत्ती भी उत्तम है। अथवा गृहधूम, सेंधानमक तथा तैलके साथ उठायी गयी खट्टी मूलीकी बत्ती अथवा केवल सम्भालकी पत्तीके कल्ककी बत्ती गुदाका स्वेदन कर गुदामें रखनी चाहिये ॥ १२-१४॥
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मूत्रजोदावर्तचिकित्सा |