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(१५८)
[ उदावा
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हन्त्यम्लपित्तमरुचिं क्षयमस्रपित्तं . ] शालितण्डुलमण्डं वा कवोष्णं सिक्थवर्जितम् ।
शूलं वर्मि सकलपौरुषकारि हारि ॥७३॥ वाट्यं क्षीरेण संसिद्धं घृतपूर सशर्करम् ।। ८० ।। अच्छी तरह पिसा हुआ कच्चा नरियलका गूदा १६ शर्करां भक्षयित्वा वा क्षीरमुत्कथितं पिवेत् । तो० ४ तोला धीमें भूनना चाहिये, सुगन्ध उठने लगनेपर पटोलपत्रयूषेण खादेचणकसक्तुकान् ।। ८१ ।। बराबर मिश्री तथा नारियलका जल १२८ तो० मिलाकर विना छिल्का निकाली उड़दकी पिढीके बड़े धीमें पकाकर पकाना चाहिये । अवलेह तैयार हो जानेपर उतार ठंडा कर खाना चाहिये । अथवा गेहूंका मण्ड घी व गुड़ मिलाकर खाना धनियां, छोटी पीपल, नागरमोथा, वंशलोचन, सफेद जीरा तथा चाहिये । अथवा मिश्री व ठण्ढ़ा दूध मिलाकर खाना चाहिये । स्याह जीरा प्रत्येक ३ माशे तथा दालचीनी, तेजपात, इला-अथवा शाली चावलोंका मण्ड कुछ गरम गरम सीथ रहित यची, नागकेशर प्रत्येक ६ रत्तीका चूर्ण मिलाकर सेवन करनेसे अथवा यवका मण्ड दूध, घी व शक्कर मिलाकर पीना चाहिये । अम्लपित्त, अरुचि, क्षय, रक्तपित्त, शूल, वमन नष्ट होते हैं अथवा शकर खाकर ऊपरसे गरम दूध पीना चाहिये । अथवा तथा पुरुषत्व बढ़ता है । ७२ ॥७३॥
परवलके पत्तेके यूषके साथ चनाके सत्तुओंको खाना चाहिये७८.८१ कलायचूर्णादिगुटी।
पथ्यविचारः। कलायचूर्णभागी द्वौ लोहचूर्णस्य चापरः।
अन्नद्रवे जरत्पित्ते वह्निर्मन्दो भवेद्यतः। कारवेल्लपलाशानां रसेनैव विमर्दितः ॥ ७४ ॥
तस्मादत्रान्नपानानि मात्राहीनानि कल्पयेत् ॥८२॥
अन्नद्रव तथा जरत्पित्तमें अग्नि मन्द हो जाती है । अतः कर्षमात्रां ततश्चैकां भक्षयेद् गुटिकां नरः ।
|इसमें अन्नपान आदि सब पदार्थोंको अल्पमात्रामें ही देना मण्डानुपानात्सा हन्ति जरपित्तं सुदारुणम् ।।७५।।
उचित है ॥८२॥ मटरका चूर्ण २ भाग, लौहभस्म १ भाग वर्तमान समयके लिये १ माशाकी वटी पर्याप्त होगी। भाग दोनोंको करेलेके
इति परिणामशूलाधिकारः समाप्तः । पत्तेके रससे घोटकर १ तोलेकी गोली बना लेनी चाहिये । यह मण्डके अनुपानके साथ सेवन करनेसे जरत्पित्तको शान्त करती है ॥ ७४ ॥७५॥ त्रिफलायोगौ।
सामान्यक्रमः। लिह्याद्वा त्रैफलं चूर्णमयश्चूर्णसमन्वितम् । यष्टीचूर्णेन वा युक्तं लिह्यात्क्षौद्रेण तद्दे ॥ ७६॥ त्रिवृत्सुधापत्रतिलादिशाक(१) अथवा त्रिफलाका चूर्ण लौह भस्मके साथ अथवा
ग्राम्यौदकानूपरसैर्यवान्नम् । (२) मौरेठीके चूर्णके साथ शहद मिलाकर चाटनेसे जरत्पित्त अन्यैश्च सृष्टानिलमूत्रविभिशान्त होता है ॥ ७६ ॥
___ रद्यात्प्रसन्नागुडसीधुपायी ॥१॥
निसोथ, सेहुण्डके पत्ते, व तिल आदिके शाक तथा प्राम्य, अन्नद्रवशूलचिकित्सा। अ
आनूप जलमें रहनेवाले प्राणियोंके मांसरस तथा मल मूत्र व पित्तान्तं वमनं कृत्वा कफान्तं च विरेचनम् ।
वायुको शुद्ध करनेवाले दूसरे पदार्थोक साथ यवका दलिया तथा अन्नद्रवे च तत्काये जरात्पित्ते यदीरितम् ।।७७॥ | रोटी आदि खाना चाहिये और शरावका स्वच्छ भाग अथवा आमपक्काशये शुद्धे गच्छेदन्नद्रवः शमम् । गुड़से बनाया गया सीधु पीना चाहिये ॥९॥ पित्तान्त वमन व कफान्त विरेचन करनेके अनन्तर जर-1 त्पित्तकी जो चिकित्सा बतायी गयी, वह अन्नद्रव शूलमें भी
. कारणभेदेन चिकित्साभेदः । करनी चाहिये । आमाशय व पक्वाशय शुद्ध हो जाने पर अन्न- आस्थापनं मारुतजे स्निग्धस्विन्नस्य शस्यते । द्रवशूल शान्त हो जाता है ॥ ७७ ॥
पुरीषजे तु कर्तव्यो विधिरानाहिकश्च यः ॥२॥ विविधा योगाः।
क्षारवैतरणी बस्ती युद्ध्यात्तत्र चिकित्सकः ।
वातजन्य उदावर्तमें मेहन स्वेदनके अनन्तर आस्थापन बस्ति माषेण्डरी सतुषिका स्विन्ना सर्पिर्युता हिता॥७८॥ देना चाहिये । मलावरोधसे उत्पन्न उदावर्तमें आनाह नाशकी गोधूममण्डकं तत्र सपिषा गुडसंयुतम्।
चिकित्सा करनी चाहिये। तथा क्षार बस्ति और वैतरणबस्ति ससितं शीतदुग्धेन मृदितं वा हितं मतम् ।।७९|| I(आस्थापनका भेद ) देना चाहिये ॥२॥
अथोदावर्ताधिकारः।