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(२३४)
चक्रदत्तः।
[क्षुद्ररोगा
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नश्यन्त्यनेन हग्जाता मसूर्यो न द्रवन्ति च ॥३८॥ सस्वेदविस्फोटविसर्पकुष्ठपञ्चवल्कलचूर्णेन क्वेदिनीमवचूर्णयेत् । । दौर्गन्ध्यरोमान्तिहरः प्रदेहः॥४४॥ भस्मंना केचिदिच्छन्ति केचिद्गोमयरेणुना ॥ ३९ ॥ हल्दी, दारुहल्दी, खश, सिरसेकी छाल, नागरमोथा, लोध, क्रिमिपातभयाचापि धूपयेत्सरलादिना। चन्दन तथा नागकेशरका लेप स्वेद, फफोले, विसर्प, कुष्ठ, दुर्गन्धि वेदनादाहशान्त्यर्थ स्रुतानां च विशुद्धये ॥४०॥ |तथा रोमान्तिकाको नष्ट करता है ॥ ४४ ॥ सगुग्गुलु वराकाथं युञ्ज्याद्वा खदिराष्टकम् । ।
बिम्ब्यादिक्वाथः। कृष्णाभयारजो लिह्यान् मधुना कण्ठशुद्धये ॥४१॥ बिम्ब्यतिमुक्तकाऽशोकप्लक्षवेतसपल्लवैः । अथाष्टाङ्गावलेहो वा कवलश्चाकादिभिः। । पञ्चतिक्तं प्रयुञ्जीत पानाभ्यञ्जनभोजनैः ।। ४२ ॥
निशि पर्युषितः काथो मसूरीभयनाशनः ।। ४५ ॥ कर्याद व्रणविधानं च तैलादीन्वजेयेचिरम् ।
कुंदरू, अतिमुक्तक ( माधवीलता), अशोक पकारिया वेतके
पत्तोंको रात्रि में जलमें भिगोकर प्रातःमल छान कर पीनेसे मसूरिविषत्रैः सिद्धमन्त्रैश्च प्रज्यात्तु पुनः पुनः।
काका भय नष्ट होता है * ॥ ४५ ॥ तथा शोणितसंसृष्टाः काश्चिच्छोणितमोक्षणैः।।४३॥
प्रभावः। शूल तथा पेटकी गुड़गुड़ाहटसे युक्त तथा वायुसे कंपते हुए| चैत्रासितभूतदिने रक्तपताकान्वितः स्नुही भवने । पुरुषको जांगल प्राणियोंका मांसरस कुंछ सेंधानमक मिलाकर
धवलितकलशन्यस्ता पापरुजो दूरतो धत्ते ॥ ४६॥ देना हितकर है। अरुचिमें अनार आदि खट्टे रसोंसे युक्त यूष
चैत्र कृष्णपक्षकी चतुर्दशीके दिन सफेद कलशके ऊपर लाल हितकर है। जल गरम कर ठण्ढा किया हुआ अथवा कत्था व |
पताकासे युक्त सेहुण्डको धरमें रखनेसे पापरोग (मंसारिका) दूर विजैसारसे सिद्ध कर देना चाहिये । शौचादिके लिये कत्था व
ही रहते हैं ॥ ४६॥ लसोढेका जल देना चाहिये । मुख तथा कण्ठके रोगों में चमेलीके
इति मसूर्यधिकारः समाप्तः। पत्ते, मजीठ, दारुहल्दी, सुपारी, शमी, आंवला, तथा मौरेठीके क्वाथमें शहद मिलाकर गण्डूष धारण करना चाहिये । और पसही तथा मौरेठीके जलसे आंखोंमें सेक करना चाहिये। तथा मौरेठी, त्रिफला, मूर्वा, दारुहल्दीकी छाल, नीलोफर, खश, लोध, व मनीठका लेप तथा आश्च्योतन (इनके रसका प्रक्षेप) करना
अजगल्लिकादिचिकित्सा। आंखोंमें हितकर है। इससे दृष्टिमें उत्पन्न मसुरिकाएँ नष्ट हो जाती हैं और फूटती नहीं । फूट गयी मसूरिकामें पञ्चवल्कलका तत्राजगल्लिकामामां जलौकाभिरुपाचरेत् । चूर्ण उर्राना चाहिये । कुछ आचार्योंका मत है कि राख तथा शुक्तिसौराष्ट्रिकाक्षारकल्कैश्चालेपयेन्मुहुः ॥१।। कुछका मत है कि गोबरका चूर्ण उर्राना चाहिये । कीड़े न पड़ नवीनकण्टकार्यास्तु कण्टकैवेंधमात्रतः । जावें, अतः सरल आदिकी धूप देनी चाहिये । पीड़ा व जलनकी किमाश्चर्य विपच्याशु प्रशाम्यत्यजगल्लिका ।। शान्ति तथा बहती हुई मसूरिकाओंको शुद्ध करनेके लिये गुग्गु- कठिनां क्षारयोगैश्च द्रावयेदजगल्लिकाम् । लुके साथ त्रिफलाका क्वाथ अथवा खदिराष्टकका प्रयोग करना।
श्लेष्मविद्रधिकल्पेन जयेदनुशयीं भिषक् ॥ २॥ चाहिये । कण्ठ शुद्धिके लिये छोटी पीपल व हरोंके चूर्णको शहदके
विवृतामिन्द्रवृद्धां च गर्दभी जालगर्दभम् । साथ चाटना चाहिये । अथवा अष्टांगावलेहिका चाटनी चाहिये।।
हरिवल्लिकां गन्धनानी जयेत्पित्तविसर्पवत ॥३॥ तथा अदरख आदिके रसका कवल धारण करना चाहिये । पीने मालिश तथा भोजनमें पञ्चतिक्ततका प्रयोग करना चाहिये ।। कर्परादिशोथचिकित्सा-" मसरीस्फोटयोरन्ते कर तथा व्रणोक्त चिकित्सा करनी चाहिये और तेल आदिका चिर-मणिबन्धके । मुखेंऽसफलके शोथो जायते यः सुदारुणः ॥ कालतक त्याग करना चाहिये । विषनाशक सिद्ध मन्त्रोंसे बारबार व्रणशोथहोगैर्वातनैश्च जलौकसा। हर्तव्यस्तैलभृष्टस्य वृश्चिकस्य मार्जन करना चाहिये । तथा जिन मसूरिकाओंमें रक्त दूषित हो, विलेपनैः॥" मसूरीके फफोलोंके अनन्तर कुर्पर, मणिबन्ध, उनमें रक्तमोक्षण करना चाहिये ॥ ३३-४३ ॥
मुख और अंसफलकमें जो कठिन सूजन हो जाती है, उसे व्रणनिशादिलेपः।
शोथनाशक तथा वातघ्न योगोंसे अथवा जोंक लगाकर अथवा
तैलमें भूने हुए बीजू (या वृश्चिकनामक ओषधिविशेष )को निशाद्वयोशीरशिरीषमुस्तकैः
पीस लेप कर नष्ट करना चाहिये। सलोध्रभद्रश्रियनागकेशरैः। J मसूरिका ही शीतला है।
अथ क्षुद्ररोगाधिकारः।