________________
(१५१)
चक्रेदसः ।
समझे कुम्भीस्वेद, पिण्डस्वेद, इष्टिकास्वेद तथा सुखोष्ण शाल्वणादि उपनाह करें। रक्तज गुल्ममें बाहुमें शिराव्यध कर रक्तको निकाल देना चाहिये । तथा स्वेदन व वायुका अनुलोमन सभी गुल्मों हितकर है । तथा वातनाशक पदार्थोंसे सिद्ध पेया, कुलथीका यूष तथा जांगल प्राणियों का मांसरस तथा पञ्चमूल मिलकर बनाये गये खड़ गुल्मवालोंको पथ्यके साथ देने चाहियें ॥ १-५॥
वातगुल्मचिकित्सा |
मातुलुङ्गरसो हिगु दाडिमं बिडसेन्धवम् || ६ | सुरामण्डेन पातव्यं वातगुल्मरुजापहम् । नागरार्धपलं पिष्टं द्वे पले लुश्चितस्य च ॥ ७ ॥ तिलस्यैकं गुडपलं क्षीरेणोष्णेन पाययेत् । वातगुल्ममुदावर्त योनिशूलं च नाशयेत् ॥ ८ ॥
बिजौरे निम्बूका रस, भुनी हींग, अनारका रस, बिडनमक, Faraar और शराबका अच्छी भाग मिलाकर पीनेसे वातगुल्म नष्ट होता है। इसी प्रकार सोंठ २ तोला, बिजौरे निम्बूका रस ८ तोला, काला तिल ४ तोला, गुड़ ४ तोला मिलाकर गरम दूध के साथ पिलाना चाहिये । यह वातगुल्म, उदावर्त और योनिशुलको नष्ट करता है ॥ ६-८ ॥
एरण्डतैलप्रयोगः ।
पिबेदेरण्डतैलं वा वारुणी मण्डमिश्रितम् । तदेव तैलं पयसा वातगुल्मी पिवेन्नरः ॥ ९ ॥ अथवा एरण्डका तैल ताड़ीके साथ अथवा दूधके साथ पीनेसे वातगुल्म नष्ट होता है ॥ ९ ॥
लशुनक्षरिम् ।
साधयेच्छुद्धशुष्कस्य लशुनस्य चतुष्पलम् । क्षीरोदकेऽष्टगुणिते क्षीरशेषं च पाययेत् ॥ १० ॥ वातगुल्ममुदावर्त गृध्रसीं विषमज्वरम् । हृद्रोगं विद्रधिं शोषं शमयत्याशु तत्पयः ॥ ११ ॥ एवं तु साधिते क्षीरे स्तोकमप्यत्र दीयते । सर्जिकाकुष्ठसहितः क्षारः केत किजोऽपि वा ॥ १२॥ तैलेन पीतः शमयेद् गुल्मं पवनसम्भवम् ।
[ गुहमी -
शुद्ध सुखाया गया लहसुन १६ तोला अठगुने दूध और पानी में मिलाकर पकाना चाहिये, दूधमात्र शेष रहनेपर पीना चाहिये । इससे वातगुल्म, उदावर्त, गृध्रसी, विषमज्वर, हृद्रोग, विद्रधि तथा राजयक्ष्मा शीघ्र ही शान्त होता है। तथा इसी प्रकार सिद्ध दूध में संज्जीखार, कूठ तथा केवड़ेकी क्षार थोड़ा छोड़ एरण्डतैल मिलाकर पीनेसे वातज गुल्म शान्त होता |है ॥ १०-१२ ॥
9 वातनाशक क्वाथादिसे पूर्ण घड़ेकी भापसे स्वेदन करना “कुम्भीस्वेदन,” उबाले हुए उड़द आदिकी पिण्डी बान्धकर स्वेदन करना " पिण्डस्वेद" और ईटें गरम कर वातनाशक काथसे सिश्वन करना " इष्टिकास्वेद " कहा जाता | स्वेदका विस्तार चरक सूत्रस्थान १४ अध्याय में देखिये ।
उत्पत्तिभेदेन चिकित्साभेदः ।
वातगुल्मे कफे वृद्धे वान्तिवर्णादिरिष्यते ॥ १३ ॥ पैत्ते तु रेचनं स्निग्धं रक्त रक्तस्य मोक्षणम् । स्निग्धोष्णेनोदिते गुल्मे पैत्तिके स्रंसनं हितम् ||१४|| रूक्षोष्णेन तु सम्भूते सर्पिः प्रशमनं परम् । काकोल्यादिमहातिक्तवासाद्यैः पित्तगुल्मिनम् १५ ॥ स्नेहितं स्रंसयेत्पश्चाद्योजयेद्वस्तिकर्मणा । स्निग्धोष्णजे पित्तगुल्मे कम्पिल्लं मधुना लिहेत् १६ रेचनार्थी रसं वापि द्राक्षायाः सगुडं पिबेत् ।
वातज गुल्म में कफ बढ़ जानेपर चूर्णादि देना तथा वमन कराना हितकर है ( यद्यपि गुल्म में वमनका निषेध है, पर | अवस्था विशेष में उसका भी अपवाद हो जाता है ) । पित्तज | गुल्म में स्नेहयुक्त रेचन और रक्तजमें रक्तमोक्षण हितकर है । गरम और चिकने पदार्थों से उत्पन्न पित्तज गुल्म में विरेचन देना चाहिये । तथा रूखे और गरम पदार्थों से उत्पन्न गुल्ममें घृतपान परम लाभ दायक होता है । पित्तगुल्मवालेको काकोल्यादि, महातिक्त अथवा वासादि घृतसे स्नेहन कर विरेचन देना चाहिये, फिर बस्ति देना चाहिये । चिकने और गरम पदार्थों से उत्पन्न पित्तगुल्म में शहद के साथ कबीला विरेचनार्थ | देना चाहिये, अथवा अंगूरका रस गुड़ मिलाकर पीना चाहिये ॥ १३-१६ ॥ -
विदह्यमान गुल्मचिकित्सा । दाहशूलाऽनिलक्षोभस्वप्ननाशारुचिज्वरैः ॥ १७ ॥ विदद्यमानं जानीयाद् गुल्मं तमुपनाहयेत् । पक्के तु व्रणवत्कार्य व्यधशोधनरोपणम् ॥ १८ ॥ स्वयमूर्ध्वमधो वापिस चेद्दोषः प्रपद्यते । द्वादशाहमुपेक्षेत रक्षन्नन्यानुपद्रवान् ॥ १९ ॥ परं तु शोधनं सर्पिः शुभं समधुतिक्तकम् । यदि गुल्म में जलन, शूल, वायुका इधर उधर घूमना, निद्रानाश, अरुचि और ज्वर हो, तो गुल्मको पकता हुआ
१ लशुनसे चतुर्गुण दूध और चतुर्गुण ही जल मिलाकर पाक करना चाहिये ।