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चक्रदत्तः।
[कासरोगा
बलाचं घृतम् ।
विश्वादिलेहः। घृतं बलानागबलार्जुनाम्बु
चूर्णिता विश्वदुस्पर्शशृङ्गीद्राक्षाशटीसिताः । सिद्धं सयष्टीमधुकल्कपादम् ।
लीढास्तैलेन वातोत्थं कासं नन्तीह दारुणम् ॥६॥ हृद्रोगशूलक्षतरक्तपित्त
सोंठ, यवासा, काकड़ाशिंगी, मुनक्का, कचूर, मिश्री इनको कासाऽनिलामृक् शमयत्युदीर्णम् ॥ ९४॥ तैलके साथ चाटनेसे वातज कास नष्ट होता है ॥६॥ खरेटी, गङ्गेरन और अर्जुनकी छालका क्वाथ तथा मोरे-!
भाङ्गादिलेहः। ठीका कल्क छोड़कर सिद्ध किया घृत-घृतहृद्रोग, शूल, उरःक्षत, भाङ्गीद्राक्षाशटशृिङ्गीपिप्पलीविश्वभेषजैः । रक्तपित्त, कास और वातरक्तको नष्ट करता है ॥ ९४ ॥
गुडतैलयुतो लेहो हितो मारुतकासिनाम् ॥ ७॥ इति राजयक्ष्माधिकारः समाप्तः।
भारङ्गी, मुनक्का, कचूर, काकड़ाशिंगी, पीपल, सोंठ इनका चूर्ण गुड़ तैल मिलाकर चाटनेसे वातज कास नष्ट
होता है ॥ ७ ॥ अथकासरोगाधिकारः।
पित्तजकासचिकित्सा।
पित्तकासे तनुकफे त्रिवृतां मधुरैर्युताम् । वातजन्यकासे सामान्यतः पथ्याधुपायाः।। दद्याद्धनकफे तिक्तैर्विरेकाथै युतां भिषक् ।। ८॥
पित्तज कासमं यदि कफ पतला आता हो, तो मधुर औषधिवास्तूको वायसीशाकं मूलकं सुनिषण्णकम् ।। योंके साथ और यदि कफ गाढ़ा हो, तो तिक्त औषधियों के साथ स्नेहास्तैलादयो भक्ष्याः क्षीरेक्षुरसगौडिकाः॥१॥ निसोथका चूर्ण विरेचनके लिये देना चाहिये ॥ ८॥ दध्यारनालाम्लफलं प्रसन्नापानमेव च । शस्यते वातकासेषु स्वाद्वम्ललवणानि च ॥ २॥
पथ्यम् ।
श्यामाकयवकोद्रवाः। ग्राम्यानूपोदकैः शालियवगोधूमषष्टिकान् । रसैौषात्मगुप्तानां यूपैर्वा भोजयेद्धितान् ॥ ३ ॥
मुद्रादियूषैः शाकैश्च तिक्तकैर्मात्रया हिताः ॥९॥
मीठे पदार्थ, जांगलप्राणियोंके मांसरस, मूंग आदिके यूष बथवा मकोय, मूली, चौपतिया, तैल आदि स्नेह,दूध, ईखके और तिक्तशाकों के साथ सांवा, कोदो तथा यवके पदार्थ खिलाने रस और गुडसे बनाये गये भोजन, दही, काजी, खट्टेफल, शरा-चाहियें ॥९॥ बका पान, मीठे, खट्टे और नमकीन पदार्थ सेवनसे वातज कास शान्त होता है । प्राम्य, आनूप और औदक प्राणियोंके मांस
बलादिकाथः। रस तथा उड़द व केंवाचके यूषसे शालि, साठिके| बलाद्विबृहतीवासाद्राक्षाभिः कथितं जलम् ।। चावलोंका भात, यव, गेहूंसे बनाये पदार्थ सेवन करने | पित्तकासापहं पेयं शर्करामधुयोजितम् ॥ १०॥ चाहिये ॥ १-३॥
खरेटी, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, अडूसा, मुनक्का-इनका
काथ शकर व शहद मिलाकर पीनेसे पित्तजकासको नष्ट पञ्चमूलीकाथः।
करता है ॥१०॥ पञ्चमूलीकृतः काथः पिप्पलीचूर्णसंयुतः। रसान्नमनतो नित्यं वातकासमुदस्यति ॥४॥
शरादिक्षीरम् । लघुपञ्चमूलके क्वाथमें पीपलका चूर्ण छोड़कर पीने तथा शरादिपञ्चमूलस्य पिप्पलाद्राक्षयोस्तथा। नित्य मांसरसके साथ भात खानेसे वातज कास नष्ट होता है॥४॥ कषायेण शृतं क्षीरं पिबेत्समधुशर्करम् ॥११॥
शरादि पञ्चमूल (शर, दर्भ, काश, इक्षु तथा शालिकी मूल) शृंग्यादिलेहः।
छोटी पीपल मुनक्का-इनके क्वाथसे सिद्ध किया दूध शहद व शृङ्गीशटीकणाभाीगुडवारिदयासकैः।
शक्कर मिलाकर पीना चाहिये ॥११॥ सतैलैतिकासनो लेहोऽयमपराजितः ॥५॥ काकड़ाशिंगी, कावूर, छोटी पीपल, भारङ्गी, गुड़, नागरमोथा,
विशिष्टरसादिविधानम् । यवासा तथा तैल-इनका लेह बनाकर चाटनेसे वातज कास| काकोलीबृहतीमेदायुग्मैः सवृषनागरैः नष्ट होता है॥५॥
| पित्तकासे रसक्षारयुषांश्चाप्युपकल्पयेत् ॥ १२॥