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चिक्रदत्तः ।
वायविडङ्ग, चीतकी जड़, चन्य, त्रिफला व त्रिकटु प्रत्येक एक भाग, सबके बराबर मण्डूर, सबसे द्विगुण गोमूत्र तथा गोमुत्र से आधा गुड़ मिलाकर धीरे धीरे मन्दाग्मिसे पकाकर गाढ़ा हो जानेपर चिकने बर्तन में रखना चाहिये । ६ माशेकी मात्रासे भोजनके पाहिले, मध्य तथा अन्तमें इसका प्रयोग करना चाहिये | यह कठिन से कठिन परिणामशूल, कामला, पाण्डुरोग, शोथ, मन्दाग्नि, अर्श, ग्रहणी, क्रिमिरोग, गुल्म, उदर तथा अम्लपित्तको नष्ट करता है । तथा शरीरकी स्थूलता को कम करता है । इसमें सूखे शाक, जलन करनेवाले, खट्टे व कडुए पदार्थों का सेवन न करना चाहिये । यह " परिणामशूलान्तक मण्डूर गुड़ ” शूलातों के ऊपर दया कर ताराने बताया था ॥ ३७-४३ ॥
राममण्डूरम् ।
वशिरं श्वेतवाटयालं मधुपर्णी मयूरकम् । तण्डुलीयं च कर्षा दत्त्वाधश्चोर्ध्वमेव च ॥ ४४ ॥ पाक्थं सुजीर्ण मण्डूरं गोमूत्रेण दिनद्वयम् । अन्तर्बाष्पमदग्धं च तथा स्थाप्यं दिनत्रयम् ||४५॥ विचूर्ण्य द्विगुणेनैव गुडेन सुविमर्दितम् । भोजनस्यादिमध्यान्ते भक्ष्यं कर्षत्रिभागतः ॥ ४६ ॥ तानुपानं वर्ज्य च वार्क्षमम्लकमत्र तु । अम्लपित्ते च शूले च हितमेतद्यथामृतम् ॥ ४७ ॥ चव्य, सफेद खरेटी, मौरेठी, अपामार्ग तथा चौराई प्रत्येक समान भाग ले कल्क कर आधा नीचे आधा ऊपर मध्य में कल्कके बराकर मण्डूर और सबसे चतुर्गुण गोमूत्र छोड़ बन्द कर दो दिन तक मन्द आंच से पकाना चाहिये । फिर ३ दिन ऐसे ही रखकर चूर्ण बनाना चाहिये | फिर द्विगुण गुड़ मिला विमर्दन कर रखना चाहिये । इसकी १ तोलाकी ३ खुराक बनाकर भोजनके आदि, मध्य व अन्तमें मट्ठेसे पीना चाहिये । इसमें वृक्षोंसे उत्पन्न खटाई नहीं खानी चाहिये । यह अम्लपित्त तथा शूलमें अमृतके तुल्य गुणदायक है * ॥ ४४-४७ ॥
बृहच्छतावरीमण्डूरम् - " शतावरी रसप्रस्थे प्रस्थे च सुरभीजले । अजायाः पयसः प्रस्थे प्रस्थे धात्रीरसस्य च ॥ लौह किट्ट - पलान्यष्टौ शर्करायाश्च षोडश । दत्त्वाज्यकुडवं चैव पचेन्मृद्व मना शनैः ॥ सिद्धशीते घटे नीते चूर्णानीमानि दापयेत् । विडङ्गत्रिफलाव्योषयमानीगजपिप्पलीः ॥ द्विजीरकघनानां च लक्ष्णा न्यक्षसमानि च । खादेदग्निबलापेक्षी भोजनादौ विचक्षणः ॥ निहन्ति पक्तिशूलं च अम्लपित्तं सुदारुणम् । रक्तपित्तं च शूलं च पाण्डुरोगं हलीमकम् ॥ " शतावरीका रस १ सेर ९ छ० ३ तोला, गोमूत्र १ सेर ९ छ० ३ तोला, बकरीका दूध १ सेर ९ छ० ३ तोला, आंवलेका रस १ सेर ९छ० ३ तोला, लोहकि ( मण्डूर) ३२ तोला, शक्कर ६४ तोला, तथा घी
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[ परिणामशूला
रसमण्डूरम् ।
कडवं पथ्याचूर्ण द्विपलं गन्धाश्म लोहकिट्टं च । शुद्धरसस्यार्धपलं भृङ्गस्यरसं च केशराजस्य ॥४८॥ प्रस्थोन्मितं च दत्त्वा लौहे पात्रेऽथ दण्डसंघृष्टम् । शुष्कं घृतमधुयुक्तं मृदितं स्थाप्यं च भाण्डके स्निग्धे उपयुक्तमेतदचिरान्निहन्ति कफपित्तजान् रोगान् । शूलं तथाम्लपित्तं ग्रहणीमपि कामलामुप्राम् ॥ ५० ॥ हर्र १६ तोला, शुद्ध गन्धक तथा मण्डूर प्रत्येक ८ तोला, शुद्ध पारद २ तोला, भांगरेका रस तथा काले भांगरेका रस प्रत्येक १ प्रस्थ मिलाकर लोहेके खरलमें दण्डसे घोटना चाहिये । सूख जानेपर घी और शहद मिलाकर चिकने बर्तन में रखना चाहिये । इसका प्रयोग करनेसे शीघ्र ही कफंपित जन्यरोग, शूल, अम्लपित्त, ग्रहणी और भयंकर कामलारोग नष्ट होते हैं ॥ ४८-५० ॥
त्रिफलालौहम् |
अक्षामलकशिवानां स्वरसैः पक्कं सुलोहजं चूर्णम् ।
गुडं यद्युपभुंक्ते मुञ्चति सद्यस्त्रिदोषजं शूलम् ५१ बहेड़ा, आंवला तथा हरेके स्वरस या क्वाथ के साथ पकाया गया लौह भस्म गुड़के साथ खानेसे त्रिदोषज शूल नष्ट होता है ॥ ५१ ॥
लोहावहः ।
लोहस्य रजसो भागत्रिफलायास्तथा त्रयः । गुष्ट तथा भागा गुडान्मूत्रं चतुर्गुणम् ॥५२॥ एतत्सर्वं च विपचेद् गुडपाकविधानवित् ।
लिहेच तद्यथाशक्ति क्षये शूले च पाकजे ॥ ५३ ॥ लौहभस्म १ भाग, त्रिफला ३ भाग, गुड़ ८ भाग, गोमूत्र ३२ भाग सबको मिला पाक करना चाहिये । सिद्ध हो जानेपर यथाशक्ति चाटना चाहिये । इससे क्षय तथा परिणामशूल नष्ट होता है ॥ ५२ ॥ ५३ ॥
धात्रीलौहम् ।
चूर्णस्याष्टौ पलानि चत्वारि लोहचूर्णस्य । यष्टीमधुकरजश्च द्विपलं दद्यात्पटे घृष्टम् ॥ ५४ ॥
३२ तो० सब एकमें मिलाकर मन्द आंच से पकाना चाहिये । तैयार हो जानेपर उतार ठण्डा कर वायविडंग, त्रिफला, त्रिकटु, अजवाइन, गजपीपल, दोनों जीरा, तथा नागरमोथा प्रत्येक एक तोलाका चूर्ण छोड़कर अग्निबलके अनुसार भोजनके आदिमें इसे खाना चाहिये । यह कठिन परिणामशूल, अम्लपित्त, रक्तपित्त, शूल, पाण्डुरोग और हलीमकको नष्ट करता है । सामान्य मात्रा ४ रत्ती से १ माशेतक ।