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धिकारः ]
यो न याति शमं लेपस्वेद से कापतर्पणैः । सोऽपि नाशं व्रजत्याशु शोथ: शोणितमोक्षणात् १४ एकतश्च क्रियाः सर्वा रक्तमोक्षणमेकतः । रक्तं हि व्यम्लतां याति तच्चेन्नास्ति न चास्ति रुक् ॥ १५ बड़ी जकड़ाहटयुक्त सूजन तथा पीडायुक्त व्रणमें पहले ही रक्तमोक्षण करना चाहिये । जो सूजन लेप, स्वेद, सेंक और लंघनसे शान्त नहीं होती, वह भी रक्तमोक्षणसे शीघ्र ही शान्त हो जाती है । व्रणशोथमें समस्त क्रिया एक ओर और रक्तमोक्षण एक ओर है, क्योंकि रक्त ही बिगड़ जाता विकृत रक्त निकल जानेपर पीड़ा भी नहीं रहती ॥ १३-१५ ॥
अतः
भाषाटीकोपेतः ।
पाटनम् ।
स चेदेवमुपक्रान्तः शोथो न प्रशमं प्रजेत् । तस्योपनाहः पक्कस्य पाटनं हितमुच्यते ॥ १६ ॥ इस प्रकारकी चिकित्सा करनेपर भी यदि शोथ शान्त न हो, तो पुल्टिससे पकाकर चीर देना चाहिये ॥ १६ ॥
उपनाहाः ।
तैलेन सर्पिषा वापि ताभ्यां वा सक्तपिण्डिका । सुखोष्णः शोथपाकार्थमुपनाहः प्रशस्यते ॥ १७ ॥ सतिला सातसीबीजा दध्यग्ला सक्तपिण्डिका । सकिण्वकुष्ठलवणा शस्ता स्यादुपनाहने ।। १८ ।। तैलके साथ अथवा घीके साथ अथवा दोनों के साथ बनायी गयी सत्ती पिण्डीको गरम कर सूजन पकानेके लिये प्रयोग करना चाहिये । अथवा तिल, अलसी, दही, सत्तू, शराब किट, कूठ और नमककी पुल्टिस बनाकर बांधना चाहिये ॥१७॥ १८ ॥
गोदन्तप्रयोगः ।
बालवृद्धासह क्षीणभीरूणां योषितामपि । मर्मोपरि च जाते च पक्के शोथे च दारुणे । गवा दन्तं जले घृष्टं बिन्दुमात्रं प्रलेपयेत् ॥ १९ ॥ अत्यन्तकठिने चापि शोथे पाचनभेदनम् ।
बालक, वृद्ध, सुकुमार, क्षीण, डरपोक तथा स्त्रियों के पके हुए कठिन व्रण पर तथा मर्मस्थानपर उत्पन्न हुए व्रणपर गायका दांत जलमें घिसकर १ बिन्दु लगाना चाहिये । यह अत्यन्त कठिन शोथको भी पकाकर फोड़ देता है ॥ १९ ॥
सर्पनियोगः । कटुतैलान्वितैर्लेपात्सर्प निर्मोक भस्माभिः ॥ २० ॥ चयः शाम्यति गण्डस्य प्रकोपः स्फुटति द्रुतम् । सांप की केंचलकी भस्मको कडुए तेलके साथ मिलाकर लेप करनेसे शोथ के सचित दोष शान्त हो जाते हैं । तथा प्रकु"पत दोष फूट जाते हैं ॥ ३० ॥
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दारणप्रयोगाः ।
चिरबिल्वानिको दन्ती चित्रको हयमारकः ॥२१॥ कपोतकं गृध्राणां पुरीषाणि च दारणम् । क्षारद्रव्याणि वा यानि क्षारो वा दारणः परः ॥ २२ द्रव्याणां पिच्छिलानां तु त्वमूलानि प्रपीडनम् । यवगोधूममाषाणां चूर्णानि च समासतः ॥ २३ ॥ कंक और गृध्रकी विष्ठा मिला गरम कर बान्धनेसे व्रण फूट कआ, चीतकी, जड़, दन्ती, अजमोद, कनैर तथा कबूतर, जाता है । अथवा क्षारद्रव्य अथवा केवल क्षारके प्रयोगसे व्रण फूट जाता है । इसीप्रकार लासेदार द्रव्योंके त्वचा और मूल तथा जव, गेहूँ और उड़दके चूर्णांका लेपन व्रणको फोड़ देता है ॥ २१-२३ ॥
प्रक्षालनम् ।
ततः प्रक्षालनं क्वाथः पटोलीनिम्बपत्रजः । अविशुद्धे विशुद्धे च न्यग्रोधादित्वगुद्भवः ॥ २४ ॥ पञ्चमूलद्वयं वाते न्यग्रोधादिश्च पैत्तिके । आरग्वधादिको योज्यः कफजे सर्वकर्मसु ॥ २५ ॥ यदि व्रण शुद्ध न हुआ हो, तो परवल व नीमकी पत्तियों के काथसे और यदि शुद्ध हो गया, तो न्यग्रोधादि पञ्चवल्कल काथसे धोना चाहिये । तथा वात में दशमूल, पितमें न्यग्रोधादि और कफ तथा सब कामोंके लिये आरग्वधादि गणका क्वाथ प्रयुक्त करना चाहिये ॥ २४ ॥ २५ ॥
तिलादिलेप: ।
तिलकल्कः सलवणो द्वे हरिद्रे त्रिवृद् घृतम् । मधुकं निम्बपत्राणि लेपः स्याद्रणशोधनः ॥ २६ ॥ तिलका कल्क, नमक, हल्दी, दारूहल्दी, निसोथ, घी, मोरेठी तथा नीमकी पत्तीको पीसकर लेप करनेसे व्रण शुद्ध होता है ॥ २६ ॥
व्रणशोधनलेपः ।
निम्बपत्रं तिला दन्ती त्रिवृत्सैन्धवमाक्षिकम् । दुष्टव्रणप्रशमनो लेपः शोधनकेशरी ॥ २७ ॥ एकं वा शारिवामूलं सर्वव्रणविशोधनम् । पटोलं तिलयष्टयाह्नत्रिवृद्दन्तीनिशाद्वयम् ॥ २८ ॥ निम्बपत्राणि चालेपः सपदुर्व्रणशोधनः । नीम की पत्ती, तिल, दन्ती, निसोथ, सेंधानमक, और | शहदका लेप दुष्ट व्रणको शान्त करता तथा शोधनमें श्रेष्ठ है । अथवा अकेले सारिवाकी जड़ समस्त व्रणोंको शुद्ध करती है । ऐसे ही परवलकी पत्ती, तिल, मोरेठी, निसोथ, दन्ती, हल्दी, दारूहल्दी और नीमकी पत्तीको पीस नमक मिलाकर लेप करनेसे व्रण शुद्ध होता है ॥ २७ ॥ २८ ॥