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(१९.)
चक्रदत्तः।
[व्रणशोथा
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साथ वरुणादिगणके कल्कका रस अथवा मीठे सहिजनका रस ससर्पिष्कः प्रलेपः स्याच्छोथनिर्वापणः स्मृतः ॥६॥ पीना चाहिये ॥१७॥
आगन्ती शोणितोत्थे च एष एव क्रियाक्रमः। रोपणं तैलम्।
दूब, नरसलकी जड़, मारेठी, चन्दन तथा समस्त शांतल प्रियगुधातकीलाधं कट्फलं तिनिशत्वचम् । पदार्थोंका लेप पित्तशोथ को नष्ट करता है। इसी प्रकार बरगद, एतैस्तैलं विपक्तव्यं विद्रधी रोपणं परम ॥१८॥ |गूलर, पीपल, पकरिया तथा वेतको छालको घीके साथ लेप
..करनेसे शोथकी दाह शान्त होती है । आगन्तुज तथा रक्तज प्रियंगु, धायके फूल, लोध्र, कैफरा तथा तिनिशकी छा-:
शोथमें भी यही चिकित्सा करनी चाहिये ॥५॥६॥ लके कल्कसे सिद्ध तैल परम रोपण ( घाव भरनेवाला )। होता है ॥१८॥
कफजशोथचिकित्सा । इति विद्रध्याधिकारः समाप्तः ।
अजगन्धाऽश्वगन्धा च काला सरलया सह ॥७॥
एकेषिकाजशृङ्गो च प्रलेपः श्लेष्मशोथहा । अथ व्रणशोथाधिकारः।
अजवाइन, असगन्ध, काला निसोथ, सफेद निसोथ, अगस्तिके फूल और काकड़ाशिंगीका लेप कफज शोथको
नष्ट करता है ॥७॥सामान्यक्रमः।
कफवातजशोथचिकित्सा । आदौ विम्लापनं कुर्याद् द्वितीयमवसेचनम् ।
पुनर्नवाशिग्रुदारुदशमूलमहौषधैः ॥ ८॥ तृतीयमुपनाहं च चतुर्थी पाटनक्रियाम् ॥ १॥
कफवातकृते शोथे लेपः कोष्णो विधीयते । पञ्चमं शोधनं चैव षष्ठं रोपणमिष्यते।
पुनर्नवा, सहिजन, देवदारु, दशमूल तथा सोंठका कुछ एते क्रमा व्रणस्योक्ताः सप्तमो वैकृतापहः ॥२॥ गरम गरम लेप वातकफज शोथको नष्ट करता है ॥ ८॥व्रणशोथमें सबसे पहिले विम्लापन ( अंगुली आदिसे
लेपव्यवस्था। घिसकर सूजन मिटाना ) करना चाहिये । व्रण शोथकी
न रात्री लेपनं दद्यादत्तं च पतितं तथा ॥९॥ दूसरी अवस्थामें अवसेचन (शिराव्यध कर रक्त निकलना ), तीसरी अवस्था में पुल्टिस बांधनी, चौथी अवस्थामें फाड़ना
न च पर्युषितं शुष्यमाणं नैवावधारयेत् । पांचवीं अवस्थामें शोधन, छठी अवस्थामें रोपण तथा सातवीं. शुष्यमाणमुपेक्षेत न लेपं पीडनं प्रति ॥ १०॥ अवस्थामें उपद्रवोंका नाश इस तरह व्रणशोथकी चिकित्साके | न चापि मुखमालिम्पेत्तेन दोषः प्रसिच्यते । क्रम हैं ॥ १-२॥
रात्रिमें लेप न लगाना चाहिये । एक बार लगाया लेप
यदि गिर गया हो तथा वासी तथा रक्खे ही रक्खे सूखा वातशोथे लेपः।
हुआ न लगाना । सूखता हुआ लेप छुड़ा डालना चाहिये। मातुलुङ्गाग्निमन्थौ च भद्रदारु महौषधम् । तथा व्रणके मुखपर लेप न लगाना चाहिये, जिससे मवाद अहिंस्रा चैव रास्ना च प्रलेपो वातशोथहा ॥ ३॥ निकलता रहे ॥९॥ १० ॥विजौरानिम्बू, अरणी, देवदारु, सोंठ, जटामांसी, और रासनका लेप वातशोथको नष्ट करता है ॥३॥
विम्लापनम् ।
स्थिरान्मन्दरुजः शोथान्स्नेहर्वातकफापहैः ॥११॥ अपरो लेपः।
अभ्यज्य स्वेदयित्वा च वेणुनाडया ततः शनैः। कल्कः काजिकसम्पिष्टः स्निग्धः शाखोटकत्वचः ।।
विम्लापनार्थ मृद्नीयात्तलेनाङ्गुष्ठकेन वा ॥१२॥ सुपर्ण इव नागानां वातशोथविनाशनः॥४॥ मन्द पीडायुक्त आधिक समयसे स्थिर शोथाको वातकफसिहोरेकी छालको काजीके साथ पीस मिलाकर लेप करनेसे नाशक स्नेहोंसे मालिश कर बांसकी नलीसे नाड़ीस्वेद करना नागोंको गरुड़के समान वातज शोथको नष्ट करता है ॥ ४ ॥ चाहिये । फिर तल अथवा अंगूठेसे विलयनके लिये रगड़ना - पित्तागन्तुजशोथलेपाः।
चाहिये ॥११॥१२॥ दूर्वा च नलमूलं च मधुकं चन्दनं तथा।
रक्तावसेचनम् । शीतलाश्च गणाः सर्वे प्रलेपः पित्तशोथहा ॥ ५॥ रक्तावसेचनं कुर्यादादावेव विचक्षणः। न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षवेतसवल्कलैः।
शोथे महति संबद्धे वेदनावति च व्रणे ॥१३॥