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चक्रदत्तः।
[गलगण्डा
न्मन्नन्भारङ्गीकी जड़को पीसकर चावलके साथ लेप करनेसे गल-1
शस्त्रचिकित्सा। गण्ड, गण्डमाला तथा अण्डवृद्धि नष्ट होती है ॥ २४ ॥
पाणि प्रति द्वादश चांगुलानि छुछुन्दरीतैलम् ।
भित्त्वेन्द्रबस्तिं परिवर्त्य सम्यक् । अभ्यङ्गानाशयेनणां गण्डमालां सुदारुणाम् । . विदार्य मत्स्याण्डनिभानि वैद्यो छुछुन्दर्या विपकं तु क्षणात्तैलवरं ध्रुवम् ॥ २५ ॥ ___ निकृष्य जालान्यनलं विदध्यात् ॥ ३२ ॥ छुछुन्दरसे पकाये तैलकी मालिशसे गण्डमाला एक क्षणमें |
मणिबन्धोपरिष्टाद्वा कुर्याद्रेखात्रयं भिषक् । नष्ट होती है ॥२५॥
अगुल्यन्तरितं सम्यगपचीनां प्रशान्तये ॥ ३३ ॥
दण्डोत्पलाभवं मूलं बद्धं पुष्येऽपची जयेत् । शाखोटत्वगादितैलद्वयम् ।
अपामार्गस्य वा छिन्द्याज्जिबातलगते शिरे॥ ३४॥ गलगण्डापहं तैलं सिद्धं शाखोटकत्वचा।
एंडीकी ओर १२ अंगुल नाप इन्द्रबस्तिको छोड़कर बिम्बाश्वमारनिर्गुडीसाधितं चापि नावनम् ॥२६॥
शस्त्रसे चीरकर मछलीके अण्डके समान जालोंको दूरकर (१) सिहोरेकी छालसे पकाया गया तैल अथवा (२) कुन्दुरू अनि लगा देनी चाहिये । अथवा मणिबन्धके ऊपर एक
लनस गण्डमाला नष्ट एक अंगुलके बीचसे ३ रेखायें करे । इससे अपची शान्त होती है ॥२६॥
होती है । अथवा जिह्वातलगत २ शिराओंका व्यध करना निर्गुण्डीतैलम् ।
चाहिये । अथवा पुष्य नक्षत्रमें पीले फूलकी सहदेवीकी जड़ निर्गुण्डीस्वरसे चाथ लागलीमूलकल्कितम् ।
अथवा अपामार्गकी जड़ अपचीको नष्ट करती है ॥ ३२-३४ ॥ तैलं नस्यान्निहन्त्याशु गण्डमालां सुदारुणाम्॥२७॥ ___ व्योषादितैलम् । सम्भालूके स्वरसमें कलिहारीकी जड़का कल्क मिलाकर |
व्योषं विडॉ मधुकं सैन्धवं देवदारु च। सिद्ध किये गये तैलके नस्यसे कठिन गण्डमाला नष्ट होती है२७॥
तैलमेतैः शृतं नस्यात् कृच्छ्रामप्यपची जयेत्॥३५।। __ कार्पासपूपिकाः।
त्रिकटु, वायविडंग, मोरेठी, सेंधानमक, तथा देवदारुसे
तैल सिद्ध करना चाहिये । इस तैलका नस्य देनेसे अपची नष्ट वनकार्पासिकामूलं तण्डुलैः सह योजितम् । ।
होती है ॥ ३५ ॥ पक्त्वा तु पूपिकां खादेदपचीनाशनाय तु ॥ २८॥ जङ्गली कपासकी जड़ और चावलको पीसकर बनायी गयी।
चन्दनायं तैलम् । पूड़ीको खानेसे अपची नष्ट होती है ॥२८॥
चन्दनं साभया लाक्षा वचा कटुकरोहिणी ।
एतेस्तैलं शृतं पीतं समूलामपची जयेत् ।। ३६ ।। लेपः।
चन्दन, बड़ी हर्रका छिल्का, लाख, बच तथा कुटकीके शोभाञ्जनं देवदारु कालिकेन तु पेषितम् । कोष्णं प्रलेपतो हन्यादपचीमतिदुस्तराम् ॥ २९ ॥
... कल्कसे सिद्ध तैल नस्याभ्यंगादिसे समूल अपचीको नष्ट सर्षपारिष्टपत्राणि दग्ध्वा भल्लातकः सह । छागमूत्रेण संपिष्टमपचीनं प्रलेपनम् ॥ ३० ॥
___ गुञ्जायं तैलम् । अश्वत्थकाष्ठं निचुलं गवां दन्तं च दाहयेत् । । गुञ्जाहयारिश्यामाकसर्षपैमूत्रसाधितम् । वाराहमज्जसंयुक्तं भस्म हन्त्यपचीत्रणान् ॥ ३१॥ तैलं तु दशधा पश्चात्कणालवणपञ्चकम् ।। ३७ ।।
साहिँजन व देवदारुको काओके साथ पीस कुछ गर मरिचैश्चूर्णितैर्युक्त सर्वावस्थागतां जयेत् । कर लेप करनेसे कठिन अपची नष्ट होती है। तथा सरसों, अभ्यङ्गादपचीमुनां वल्मीकार्थोऽर्बुदवणान् ॥३८॥ नीमकी पत्ती व भिलावाँ सबको अन्तर्धूम पका बकरेके मूत्रमें गुजा, कनैर, काला निसोथ और सरसोंका कल्क तथा पीस लेप करनसे अपची नष्ट होती है । इसी प्रकार पीपलकी गोमत्र छोड़कर १० बार सिद्ध तैलमें छोटी पीपल पांचों लकडी, जलवेत व गोदन्तको जलाकर भस्म करना चाहिये । नमक और मिर्चका चूर्ण मिला मर्दन करनेसे हर प्रकाइस भस्मको शूकरकी मज्जाके साथ लेप करमेसे अपची व्रण रकी अपची, वल्मीक, अर्श, अर्बुद और व्रण नष्ट होते नष्ट होते हैं ॥ २९-३१॥
है॥३७॥३८॥