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[ वातन्याध्य
जलसे सौंफकी, चावलके जलसे तेजपातकी भावना देनी
महासुगन्धितैलम् । चाहिये ॥२६८॥
जिङ्गीचोरकदेवदारुसरलं व्याघ्रीवचा चेलककस्तूरीपरिक्षा।
त्वपत्रैः सह गन्धपत्रकशटीपथ्याक्षधात्रीचनैः।
एतैः शोधितसंस्कृतैः पलयुगेत्याख्यातया संख्यया : ईषत्क्षारानुगन्धा तु दग्धा याति न भस्मताम् २६९ पीता केवकगन्धा च लघुस्निग्धा मृगोत्तमा ।
तैलप्रस्थमवास्थितैः स्थिरमति:कल्कैः पचेगान्धिकम्
मांसीमुरामदनचम्पकसुन्दरीत्वक्जिसका केवड़ेके समान गंध तथा कुछ क्षार अनुगन्ध हो
प्रन्थ्यम्बुरुङ्मरुबकैपिलैः सपृक्कैः । और जलानेसे भस्म न हो, रगड़नेसे पीली, हल्की तथा चिकनी
श्रीवासकुन्दुरुनखीनलिकामिषीणां हो, वह कस्तूरी उत्तम होती है ॥ २६९ ॥
प्रत्येकतः पलमुपाय्य पुनः पचेत्तु ॥२७८ ।। कर्पूरश्रेष्ठता।
एलालवङ्गचलचन्दनजातिपूतिपक्कात्कर्पूरतः प्राहुरपक्कं गुणवत्तरम् ।। २७० ॥
कक्कोलकागुरुलताघुसृणैः पलाधैः । तत्रापि स्याद्यदक्षुद्रं स्फटिकाभं तदुत्तमम् ।
कस्तूरिकाक्षसहितामलदीप्तियुक्तैः पक्कं च सदलं स्निग्धं हरितद्युति चोत्तमम् ॥२७१॥
पक्वं तु मन्दशिखिनैव महासुगन्धम् ॥ २७९ ॥ भने मनागपि न चेन्निपतन्ति ततः कणाः।
'| पञ्चद्विकेन चान मदात्कर्पूरमिष्यते ।
कर्पूरमदयोरध पत्रकल्कादिहेष्यते ॥ २८०॥ पकाये कपूरकी अपेक्षा विना पका अच्छा होता है । कच्चा | (१) मजीठ, भटेड़ा, देवदारु, धूपसरल, छोटी कटेरी, कपर भी जो चूरा न हो तथा स्फटिकके समान साफ हो, वह दूधिया वच, सुपारीकी छाल, तेजपात, गन्धपत्र ( यूकेलिअच्छा होता है। पकाया हुआ भी दलके सहित, चिकना,प्टस ), कचूर, हर, बहेड़ा, आंवला, नागरमोथा यह प्रत्येक हरितवर्णयक्त और टूटनेसे यदि कुछ भी कण अलग न हो, वह पूर्वोक्त शोधनादिसे शुद्ध कर १६ तोला सब मिले हुए उत्तम होता है ॥२७०-२७२ ॥
कल्क बनाकर १ प्रस्थ (१ सेर ४८ तो०) तैलमें चतुर्गुण
पञ्चपल्लवोदक छोड़कर पकाना चाहिये । प्रथम पाक हो कुष्ठादिश्रेष्ठता।
जानेपर (२) तैलसे चतुर्गुण गन्धोदक तथा मांसी, मुरा, देवना,
चम्पा, प्रियंगु, दालचीनी, पिपरामूल, सुगन्धवाला, कूठ, मरुवा मृगशृङ्गापमं कुष्ठं चन्दनं रक्तपीतकम् ॥ २७२॥
| तथा मालतीके फूल सब मिलाकर ८ तोला, तार्पिन, गन्धाकाकतुण्डाकृतिः स्निग्धो गुरुश्चैवोत्तमोऽगुरुः। विरोजा, नखनखी, नाड़ी तथा सौंफ प्रत्येक ४ तोलाका कल्क स्निग्धाल्पकेशरं त्वत्रं शालिजो वृत्तमांसलः॥२७३॥ छोड़कर फिर पकाना चाहिये । यह द्वितीय पाक हुआ। फिर (३)
वरा प्रोक्ता मांसी पिङ्गजटाकृतिः। तैलसे चतुर्गुण गन्धोदक अथवा गन्ध द्रव्योंसे धूपित जल रेणुका मुद्गसंस्थाना शस्तमानूपजं घनम् ॥ ३७४॥ तथा इलायची, लौंग, सुनहली चम्पा, चन्दन, जावित्री, खट्टाशी, जातीफलं सशब्दं च स्निग्धं गुरु च शस्यते । कंकाल, अगर, लताकस्तूरी, केशर, कस्तूरी, बहेड़ा, आंवला, एला सूक्ष्मफला श्रेष्टा प्रियङ्गु श्यामपाण्डरा २७५ अजवाइन प्रत्येक २ तोला, मिलाकर मन्द आंचसे पकाना
चाहिये । इसमें कस्तूरीसे पञ्चमांश कपूर मिलाना चाहिये । नखमश्वखुरं हस्तिकणे चैवात्र शस्यते ।
कस्तूरी और कपूरसे आधा इसमें पत्र कल्क छोड़ना एतेषामपरेषां च नवता प्रबलो गुणः ॥२७६ ॥
चाहिये ॥ २७७-२८०॥ कूठ, मृगके सींगके समान, लाल, पीला चन्दन, कौआकी |
पत्रकल्कविधिः। चोंचकी आकृतिवाला तथा भारी अगर उत्तम होता है। चिकना
पकपूतेऽप्युष्ण एव सम्यक्पेषणवर्तितम् । तथा पतली केशरवाला केशर, पूति गोल तथा मोटी, मुरा
दीयते गन्धवृद्धयर्थ पत्रकल्कं तदुच्यते ॥ २८१ ॥ पीली तथा मांसी पिलाई लिये हुए उत्तम होती है। सम्भालूके
पक जानेपर छानकर गरममें ही पीसकर जो द्रव्य गन्धबीज मूंगके बराबर तथा आनूपस्थलका नागरमोथा, जायफल
घृद्धि के लिये छोड़े जाते हैं वे “पत्रकल्क' कहे जाते हैं ॥२८१॥ शब्द करनेवाला भारी तथा चिकना, छोटे फलवाली इलायची, प्रियंगु आसमानी तथा सफेद पीली, नख अश्वखुर तथा हस्ति
लक्ष्मीविलासतैलम् । कर्णके सदृश, उत्तम होते हैं । यह तथा अनुक्त नवीन ओषधियां प्रागुक्ती शुद्धिसंस्कारो गन्धानामिह तैः पुनः। अधिक उत्तम होती हैं ॥२७२-२७६ ॥
द्विगुणैर्लक्ष्मीविलासः स्यादयं तैलेषु सत्तमः।।२८२॥
मुरापीता व