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धिकारः] ..
भाषाटीकोपेतः।
शुक्तविधिः।
गन्धोया शुध्यते ह्येवं रजनी च विशेषतः । अत्र शुक्तविधिमण्डः प्रस्थः पञ्चाढकोन्मितम् २५२, मुस्तकं तु मनाक् क्षुण्णं काजिके त्रिंदिनोषितम् ।। कालिकं कुडवं दध्नो गुडप्रस्थोऽम्लमूलकात् । । पञ्चपल्लवपानीयस्विन्नमातपशोषितम् । पलान्यष्टौ शोधितात्पलषोडशकं तथा ॥२५३॥ गुडाम्बुना सिच्यमानं भर्जयेच्चूर्णयेत्ततः॥२६२॥ . कणाजीरकसिन्धूत्थहरिद्रामरिचं पृथक् । आजशोभाजनजलैर्भावयेञ्चेति शुध्यति । द्विपलं भाविते भाण्डे घृतेनाष्टदिनस्थितम् ॥२५४॥ काजिके क्वथितं शैलं भृष्टपथ्यागुडाम्बुना॥२६३॥ सिद्धं भवति तच्छुक्तं यदा विस्राव्य गृह्यते । | सिञ्चदेवं पुनः पुष्पैर्विविधैरधिवासयेत् । सदा देयं चतुतिं पृथक्कर्षत्रयोन्मितम् ॥ २५५ ॥j मांड ६४ तोला, काजी १६ सेर, दही १६ तोला, गुड ६४|
गोमूत्र, मुण्डीके क्वाथ तथा पञ्चपल्लवके जलमें पकाकर फिर तोला, खट्टी मूली ३२ तोला, अदरख छिली हुई ६४ तोला,
गन्धोदक द्वारा बाप्पस्वेदसे स्वेदन करना चाहिये,इस प्रकार "वच" छोटी पीपल, जीरा, सेंधानमक, हल्दी, कालीमिर्च प्रत्येक आर "हल्दा" शुद्ध होती हैं । माथाको दुरकुचाकर काजीमें ३ ८ तोला सब एकमें मिलाकर घीसे भावित बर्तनमें ए दिनतक दिन रखना चाहिये, फिर पञ्चपल्लवके जलमें दोलायन्त्रसे स्वेदित रखना चाहिये, फिर इसे छानकर इसमें दालचीनी, तेजपात,
कर धूपमें सुखाना चाहिये। फिर गुड़का शर्बत छोड़कर पकाना इलायची, नागकेशर प्रत्येक ३ तोले छोडने चाहियें यह शक्ताचाहिये । शर्बत जल जानेपर उतार महीन चूर्णकर बकरके मत्र हुआ । यही काजीके स्थानमें महाराजप्रसारणीतैलमें छोड़ना
तथा सहिजनके क्वाथमें भावना देनी चाहिये । इस प्रकार चाहिये। इस तैलमें द्रवद्वैगुण्यकी परिभाषाके अनुसार समस्त द्रव
| "मोथा"शुद्ध होता है। शिलारसको काजीमें पकाना चाहिये, फिर द्रव्य (क्वाथ व तेलादि) द्विगुण छोड़न चाहिये ॥२५२-२५५॥ भुनी छोटी हरे व गुड़के जलमें मिलाना चाहिये । फिर अनेक
सुगन्धित पुष्पोंसे अधिवासित करना चाहिये ॥२६०-२६३॥ गन्धानां क्षालनम्।
पूतिशोधनम् । पञ्चपल्लवतोयेन गन्धानां क्षालनं तथा । शोधनं चापि संस्कारो विशेषश्चात्र वक्ष्यते॥२५६॥
यथालाभमपामार्गस्नुह्यादिक्षारलेपितम् ॥ २६४ ॥ गन्धद्रव्योंका क्षालन, शोधन तथा संस्कार पञ्चपल्लवसे सिद्ध |
बाष्पस्वेदेन संस्वेद्य पूर्ति निर्लोमतां नयेत् । जलसे करना चाहिये । विशेष आगे लिखेंगे ॥ २५६ ॥
दोलापकं पचेत्पश्चात्पञ्चपल्लववारिणि ।। २६५ ॥
खलः साधुमिवोत्पीड्य ततो निःस्नेहतां नयेत् । पञ्चपल्लवम् ।
आजशोभाजनजलैर्भावयेच्च पुनः पुनः ॥ २६६॥ आम्रजम्बूकपित्थानां बीजपूरकबिल्वयोः । शिमूले च केतक्याः पुष्पपत्रपुटे च तम् । गन्धकमणि सर्वत्र पत्राणि पञ्चपल्लवम् ॥२५७ ॥ पचेदेवं विशुद्धः सन्मृगनामिसमो भवेत् ॥२६७॥
आम, जामुन, कैथा, बिजौरा तथा बेलके पत्ते गन्धादि कर्ममें “पञ्चपल्लव" नामसे लेना चाहिये ॥ २५७ ॥
खट्टाशी (गन्धमार्जाराण्ड ) को अपामार्गादि जितने क्षार
मिल सके उनसे लेप कर पञ्चपल्लवके जलमें (दोलायन्त्रसे) नखशुद्धिः।
स्वेदन करना चाहिये । फिर लोम साफ कर देना चाहिये । फिर चण्डीगोमयतोयेन यदि वा तिन्तिडीजलैः।। पश्चपल्लवके क्वाथमें पका निचोड़कर निस्नेह करना चाहिये । फिर • नखं संक्वाथयेदेमिरलाभे मृण्मयेन तु ॥ २५८ ॥
| अजमूत्र तथा सहिजनके क्वाथमें ७ भावनायें देनी चाहिये । पुनरुद्धृत्य प्रक्षाल्य भर्जयित्वा निषेचयेत् ।।
फिर सहिजनके क्वाथमें केवड़ेके पुष्प वा पत्रोंके सम्पुट में रखकर गुडपथ्याम्बुना ह्येवं शुध्यते नात्र संशयः ॥२५९॥
पकाना चाहिये । इस प्रकार "खट्टाशी" शुद्ध होकर कस्तूरीके भैंसके गोबरके रस अथवा इमलाके काथ अथवा मिट्टी
समान होती है ॥ २६४-२६७॥ मिले पानीसे नख पकाना चाहिये। फिर निकालकर धोना
तुरुष्कादिशोधनम्। चाहिये। फिर तपाकर गुड़ मिले छोटी हर्रके काढ़ेमें बुझाना
तुरुष्कं मधुना भाव्यं काश्मीरं चापि सर्पिषा । चाहिये ॥ २५८ ॥२५९ ॥
रुधिरेणायसं प्रा.गोमूत्रैर्ग्रन्थिपर्णकम् ॥२६८॥ वचाहरिद्रादिशोधनम् ।
मधूदकेन मधुरी पत्रकं तण्डुलाम्बुना। गोमूत्रे चालम्बुषके पक्त्वा पञ्चदलोदके। __ तुरुष्ककी शहदसे भावना, केशरकी घीसे भावना, केशरके पुनः सुरभितोयेन बाष्पस्वेदेन स्वेदयेत् ॥ २६०॥ जलसे अगरकी भावना, गोमूत्रसे भटेउरकी भावना, शहदके