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भाषादीकोपेतः ।
धिकारः ]
पहिले गन्धद्रव्यों के जो शोधन तथा संस्कार बताये हैं, उनसे शुद्ध तथा मात्रामें जो पत्रकल्क महाराज प्रसारणीतैलमें लिखा है, उससे दूना महासुगन्ध तैलमें छोड़नेसे “लक्ष्मीविलास ” तैल बनता है ॥ २८२ ॥
द्रवदानपरिभाषा | पचपत्राम्बुना चाद्य द्वितीयो गन्धवारिणा । तृतीयोऽपि च तेनैव पाको वा धूपिताम्बुना ||२८३ पहिला पाक पञ्चपलवोदकसे द्वितीय पाक गन्धोदकसे तथा तृतीय पाक भी गन्धोदक अथवा धूपित जलसे करना चाहिये ॥ २८३ ॥
अनयोर्गुणाः ।
तैलयुग्ममिदं तूर्ण विकारान्वातसम्भवान् । क्षपयेज्जनयेत्पुष्टिं कान्ति मेधां धृतिं धियम् ॥ २८४॥
यह दोनों तैल वातरोगों को शीघ्र ही नष्ट करते तथा पुष्टि, कान्ति, मेधा, धैर्य व बुद्धि बढ़ाते हैं ॥ २८४ ॥
विष्णुतैलम् ।
शालपर्णी पृश्निपर्णी बला च बहुपुत्रिका । एरण्डस्य च मूलानि बृहत्योः पूतिकस्य च ॥ २८५ गवेधुकस्य मूलानि तथा सहचरस्य च । एषां तु पैलिकैः कल्केस्तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ २८६ आजं वा यदि वा गव्यं क्षीरं दद्याच्चतुर्गुणम् । अस्य तैलस्य कस्य शृणु वीर्यमतः परम् ॥ २८७ अश्वानां वातभग्नानां कुञ्जराणां तथा नृणाम् । तैलमेतत्प्रयोक्तव्यं सर्वव्याधिनिवारणम् ॥ २८८ ॥ आयुष्मांश्च नरः पीत्वा निश्चयेन दृढो भवेत् । गर्भमश्वतरी विन्द्यात्किम्पुनर्मानुषी तथा ॥ २८९ ॥ 'हृच्छूलं पार्श्वशूलं च तथैवार्द्धावभेदकम् । कामलापाण्डुरोगघ्नं शर्कराश्मरिनाशनम् ॥ २९० ॥ क्षीणेन्द्रिया नष्टशुक्रा जरया जर्जरीकृताः । येषां चैव क्षयो व्याधिरन्त्रवृद्धिश्च दारुणा ||२९१॥ अर्दितं गलगण्डं च वातशोणितमेव च । स्त्रियो या न प्रसूयन्ते तासां चैव प्रयोजयेत् । एतद्धन्यं वरं तैलं विष्णुना परिकीर्तितम् ॥ २९२ ॥
शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, खरैटी, शतावर, एरण्डकी जड़, छोटी कटेरी तथा बड़ी कटेरीकी जड़, पूतिकरञ्जकी जड़की छाल, कंघी की जड़ तथा कटसरैयाकी जड़ प्रत्येक ४ तोले ले कल्क बना १ सेर ९ छटांक ३ तोला तिलतैल तथा ६ सेर ३२ तो० गाय अथवा बकरीका दूध तथा इतना ही जल मिलाकर सिद्ध
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करना चाहिये । इस तैलकी शक्ति वर्णन करते हैं । सुनो-वातसे पीड़ित घोड़े, हाथी तथा मनुष्यों को इस तैलका प्रयोग करना चाहिये । यह समस्त रोगोंको नष्ट कर देता है । आयुष्मान् तथा दृढ़ बनाता है। इससे खच्चरी ( जिसके गर्भ रहता ही नहीं ) के भी गर्भ रह सकता है । फिर स्त्रियोंके लिये क्या कहना ? यह हृदयके दर्द, पसलियोंके दर्द तथा अर्धावभेदको नष्ट करता है । तथा कामला, पाण्डुरोग, शर्करा व अश्मरीको नष्ट करता है। जिनकी इन्द्रियां शिथिल हो गयी हैं, वीर्य, नष्ट हो चुका है, वृद्धावस्था से जर्जर हो रहे हैं, जिनके क्षय अथवा अन्त्रवृद्धि, अर्दित, गलगण्ड तथा वातरक्तरूपी कठिन रोग हैं। तथा जिन स्त्रियोंके सन्तान नहीं होती, उनके लिये इसका प्रयोग करना चाहिये। यह धन्यवादाह श्रेष्ठ तैल विष्णु भगवानूने कहा है ।। २८५-२९२ ॥
इति वातव्याध्यधिकारः समाप्तः ।
अथ वातरक्ताधिकारः ।
बाह्यगम्भीरादिचिकित्सा ।
बाह्यं लेपाभ्यङ्गसेकोपनाहैवतिशोणितम् । विरेकास्थापनस्नेहपानर्गम्भीरमाचरेत् ॥ १ ॥ द्वयोर्मुश्वेदसृक् शृङ्गसूच्यलाबुजलोकसा | देशाद्देशं व्रजेत् स्राव्यं शिराभिः प्रच्छनेन वा । अङ्गग्लानी च न स्राव्यं रूक्षे वातोत्तरे च यत् ॥२॥ उत्तान वातरक्तको लेप, अभ्यङ्ग, सेक तथा उपनाहसे और गम्भीरको विरेचन, आस्थापन तथा स्नेहपनसे दूर करना चाहिये । दोनों प्रकारक वातरक्त में शृंग, सूची, तोम्बी अथवा जोंक, द्वारा रक्त निकलवा देना चाहिये । जो एक स्थानमें फैल रहा हो उसे शिराव्यधद्वारा अथवा पछने लगा खून निकालकर लगा खून निकालकर शान्त करना चाहिये । पर यदि रोगी शिथिल अथवा वाताधिक्यसे रूक्ष हा, तो रक्त न निकालना चाहिये ॥ १ ॥ २ ॥
अमृतादिकाथद्वयम् ।
अमृतानागरधन्याककर्षत्रयेण पाचनं सिद्धम् । जयति सरक्तं वातं सामं कुष्ठान्यशेषाणि ॥ ३ ॥ वत्सादन्युद्भवः काथः पीतो गुग्गुलुसंयुतः । समीरणसमायुक्तं शोणितं संप्रसाधयेत् ॥ ४ ॥ (१) गुर्व, सोंठ तथा धनियां प्रत्येक १ तोला ले क्वाथ बनाकर पीनेसे आमसहित वातरक्त तथा समस्त कुष्ठोंको नष्ट करता है । इसी प्रकार ( २ ) कवल गुर्वका क्वाथ गुग्गुलुके साथ पीनेसे वातरक्तको अवश्य नष्ट करता हैं ॥ ३ ॥ ४ ॥